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Saturday, December 31, 2022

समय और भूमिका में बदलाव आवश्यक


नववर्ष का आरंभ हो गया है। हिंदी फिल्म जगत नववर्ष को उम्मीदों से देख रहा है। इन उम्मीदों की वजह भी है। बीते वर्ष 2022 में हिंदी फिल्में दर्शकों की तलाश कर रही थीं। निर्माता और कलाकार सफल फिल्मों की प्रतीक्षा कर रहे थे। हिंदी फिल्मों में सफलता की गारंटी माने जाने वाले शाह रुख खान, आमिर खान और सलमान खान की फिल्मों को अपेक्षित सफलता नहीं मिल रही है। सिनेमा की भाषा में अगर कहें तो शाह रुख खान की आखिरी ब्लाकबस्टर फिल्म 2013 में प्रदर्शित ‘चेन्नई एक्सप्रेस’ थी। उसके अगले साल सुपर हिट फिल्म ‘हैप्पी न्यू ईयर’ रही लेकिन उसके बाद उनकी कोई फिल्म सुपरहिट या ब्लाकबस्टर नहीं रही। 2017 और 2018 में आई उनकी फिल्में ‘जब हैरी मेट सेजल’ और ‘जीरो’ फ्लाप हो गई। 2018 के बाद से शाह रुख की कोई फिल्म नहीं आई।चार वर्षों के बाद इस वर्ष उनकी फिल्म ‘पठान’ आ रही है जो लगातार विवाद में घिरी हुई है। सिर्फ शाह रुख खान ही नहीं बल्कि आमिर खान की फिल्में भी दर्शकों को पसंद नहीं आ रही हैं। उनकी 2016 की फिल्म ‘दंगल’ के बाद कोई भी फिल्म ब्लाकबस्टर नहीं हो पाई। 2018 की ‘ठग्स आफ हिंदोस्तान बुरी तरह से पिटी। उनकी भी फिल्में नहीं आ रही थीं। चार साल बाद पिछले वर्ष ‘लाल सिंह चडढा’ सिनेमाघरों में पहुंची तो उसको दर्शकों ने बुरी तरह से नकार दिया। तीसरे खान सलमान के बारे में कहा जाता था कि उनका अपना एक अलग ही दर्शक वर्ग है जो उनकी फिल्मों की प्रतीक्षा करता है लेकिन आंकड़े कुछ अलग ही कहानी कहते हैं। 2017 में ही उनकी भी ब्लाकबस्टर फिल्म आई थी ‘टाइगर जिंदा है’। उसके बाद से सलमान खान भी सुपर हिट फिल्म के लिए तरस रहे हैं। रेस-3, भारत, दबंग-3 आदि फिल्में भी औसत कारोबार ही कर पाईं। इन आंकड़ों को देख कर तो लगता है कि हिंदी फिल्मों से इन अभिनेताओं के दौर समाप्त होने के संकेत मिलने लगे हैं। सलमान खान की फिल्म राधे, योर मोस्ट वांटेंड भाई की कमाई के आंकड़ों को लेकर स्पष्ट रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता है क्योंकि ये ओवर द टाप प्लेटफार्म (ओटीटी) पर रिलीज हुई थी। इसके अलावा अक्षय कुमार की भी एक के बाद एक लगातार चार फिल्में फ्लाप हुईं।

शाह रुख, आमिर और सलमान की फिल्मों के नहीं चलने से हिंदी फिल्मों को लेकर एक निराशा का माहौल बनाया गया। कहा जाने लगा कि हिंदी फिल्मों की कहानियां अच्छी नहीं होती हैं, ट्रीटमेंट अच्छा नहीं होता है इसलिए दर्शक उनको नकार रहे हैं। नकार और निराशा के इस बनाए गए वातावरण में एक युवा अभिनेता और एक निर्देशक ने अपने हुनर और कौशल से उम्मीद की लौ जलाए रखी। इस युवा अभिनेता का नाम है कार्तिक आर्यन। कार्तिक आर्यन की फिल्म भूल भुलैया-2 ने जबरदस्त सफलता हासिल की। दर्शकों ने कार्तिक आर्यन के अभिनय को खूब पसंद किया। पिछले वर्ष मई में प्रदर्शित इस फिल्म ने दुनियाभऱ में अच्छा कारोबार किया। हिंदी फिल्मों के आंकड़ों पर नजर रखनेवालों का अनुमान है कि इस फिल्म ने वैश्विक स्तर पर करीब 266 करोड़ का कारोबार किया, जबकि इस फिल्म की लागत करीब 65 करोड़ रुपए थी। इस तरह से अगर हम देखें तो विवेक अग्निहोत्री की फिल्म द कश्मीर फाइल्स ने सफलता के नए कीर्तिमान स्थापित किए। कश्मीरी हिंदुओं पर हुए अत्याचार और उनके पलायन को केंद्र में रखकर बनाई गई फिल्म की लागत करीब 25-30 करोड़ रुपए बताई जाती है। वैश्विक स्तर पर इस फिल्म ने करीब 341 करोड़ रुपए का बिजनेस किया। इस फिल्म की मुख्य भूमिका में अनुपम खेर हैं। तीसरी एक और सफल फिल्म रही अजय देवगन की दृश्यम- 2। उपलब्ध जानकारी के अनुसार इस फिल्म की लागत 50 करोड़ रुपए है जबकि अबतक इस फिल्म ने वैश्विक स्तर पर करीब 330 करोड़ रुपए की कमाई कर ली है। उपरोक्त तीनों फिल्में ब्लाकबस्टर की श्रेणी में रखी जा सकती हैं। अनुपम खेर, कार्तिक आर्यन और अजय देवगन, इन तीन अभिनेताओं ने तीनों खानों की कमी महसूस नहीं होने दी। हलांकि रणबीर कपूर की फिल्म ब्रह्मास्त्र के भी अच्छा कारोबार करने की बात सामने आई थी। लेकिन इस फिल्म के काराबोर के आंकड़ों पर लगातर प्रश्न उठे। इस कारण उसके बारे में ठोस रूप से कुछ कह पाना संभव नहीं है।

2023 में हिंदी फिल्मों का स्वरूप कैसा होगा? क्या हिंदी फिल्मों के दर्शक नए कलाकारों को पसंद करेंगे? क्या हिंदी फिल्मों के उन कलाकारो को दर्शक पसंद करेगी जो राजनीतिक बयान देकर सुर्खियां बटोरने की फिराक में रहते हैं? इस बारे में विचार करना होगा। इस दौर में आमतौर पर ये देखा गया है कि हिंदी फिल्मों के दर्शकों को विशुद्ध मनोरंजन चाहिए। उनका पसंदीदा अभिनेता या अभिनेत्री या फिल्म का टीजर भी अगर उनको किसी प्रकार की राजनीति से प्रेरित नजर आता है तो वो कन्नी काट जाते हैं। फिल्म छपाक के पहले दीपिका पादुकोण दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्रों को मौन समर्थन देने चली गई थी। उनकी फिल्म छपाक बुरी तरह से फ्लाप हो गई। इसके अलावा एक और प्रवृत्ति देखने को मिली। जब भी हिंदी फिल्मों के निर्माताओं ने ऐतिहासिक या पौराणिक कहानियों पर फिल्में बनाईं और वो स्थापित मान्यताओं से अलग गए तो दर्शकों ने फिल्म को को नकार दिया। फिल्म आदिपुरुष के साथ यही हुआ। जबकि इसका तो सिर्फ टीजर रिलीज हुआ था। ये फिल्म इस महीने ही प्रदर्शित होनेवाली थी लेकिन उसका प्रदर्शन जून तक के लिए टाल दिया गया। निर्माता-निर्देशक ने इस फिल्म में प्रभु श्रीराम के चरित्र को स्थापित मान्यताओं के विपरीत जाकर उनको आक्रामक दिखाने का प्रयास किया था। जिसका विरोध हुआ। आसन्न खतरे को भांपते हुए फिल्मकार ने रिलीज की तिथि आगे बढ़ा दी। फिल्म में बदलाव आदि की बातें भी सामने आईं हैं। फिल्म के प्रदर्शित होने पर ही वास्तविक स्थिति का पता चलेगी।   

इन दिनों बहुधा ये कहा जाता है कि अच्छी हिंदी फिल्में नहीं बन रही हैं। इस कारण ही दर्शक दूर हो रहे हैं। हिंदी फिल्मों के इतिहास में हर दौर में खराब और अच्छी दोनों तरह की फिल्में बनती रही हैं। क्या दादा कोंडके अच्छी फिल्में बनाते थे। क्या 1980 के बाद के दस वर्षों में बनी सभी फिल्में अच्छी फिल्मों की श्रेणी में रखी जा सकती हैं। उत्तर है नहीं। फिल्मों की सफलता और असफलता भी साथ साथ चलती रही है। 2023 में फिल्म निर्माताओं को हिंदी फिल्मों की नई प्रतिभाओं के साथ आगे बढ़ना होगा। दर्शक लंबे समय तक चंद अभिनेताओं को और उनकी अदाकारी को देखकर बोर हो चुके हैं। शाह रुख खान, आमिर खान और सलमान खान की काफी उम्र हो गई है। उनको अपनी उम्र का ध्यान रखते हुए उसी तरह की भमिकाओं की तलाश करनी चाहिए। अब ये लोग अपने से आधी उम्र की नायिकाओं के साथ रोमांस करते हुए दर्शकों को अच्छे नहीं लगते हैं। अमिताभ बच्चन और राजेश खन्ना का उदाहरण इनके सामने है। अमिताभ बच्चन ने समय को भांपा और अपना ट्रैक बदल दिया। अबतक न केवल प्रासंगिक बने हुए हैं बल्कि उनकी अवस्था को ध्यान में रखकर भूमिकाएं भी लिखी जा रही हैं। राजेश खन्ना को ये समझने में देर हुई। वो अपनी अवस्था को समझ कर भी उसके अनुरूप कार्य नहीं कर पाए तो दर्शकों ने उनको नकार दिया। जब उन्होंने अवतार और सौतन जैसी फिल्मों में अभिनय किया तो उनको भी सफलता मिली। नए वर्ष में हिंदी फिल्मों के स्थापित नायकों या सुपरस्टार्स के सामने सबसे बड़ी चुनौती स्वयं के आकलन की है। जिसने भी खुद को आंक लिया वो सफल रहेगा और जो चूक गया वो हाशिए पर चला जाएगा। 

Sunday, December 25, 2022

कथेतर के विविध रंग


वर्ष 2022 बीतने को आया। साहित्य सृजन की दृष्टि से इस वर्ष कुछ उल्लेखनीय पुस्तकों का प्रकाशन हुआ। कथेतर विधा में प्रकाशित पुस्तकों पर मेरी टिप्पणी 

हिंदी साहित्य के इतिहास में जब छायावाद पर बात होती है तो जयशंकर प्रसाद, निराला, महादेवी और पंत का नाम लिया जाता है। जयशंकर प्रसाद की कृति कामायनी पर मुक्तिबोध से लेकर रामस्वरूप चतुर्वेदी तक ने विस्तार से लिखा है। उनकी रचनाओं को समग्रता में समझने के लिए इस वर्ष एक पुस्तक आई है, जयशंकर प्रसाद, महानता के आयाम। जयशंकर प्रसाद की रचनाओं से गुजरते हुए पाठकों को ये अनुभूति होती है कि कवि/लेखक खुद को लगातार परिष्कृत करता चलता है। इस पुस्तक के लेखक ने अपनी इस पुस्तक में प्रसाद के इस गुण को भी रेखांकित करने का प्रयास किया है। 

पुस्तक- जयशंकर प्रसाद, महानता के आयानम, लेखक- करुणाशंकर उपाध्याय, प्रकाशक- राधाकृष्ण प्रकाशन,नई दिल्ली, मूल्य- रु. 1495

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संस्कृत काव्यशास्त्र के अध्येता राधावल्लभ त्रिपाठी का मानना है कि साहित्य का उत्स जीवन है। कविता और उसकी व्याख्या के सिद्धांतों के मूल में लोक और जीवन है। इसलिए वो कहते हैं कि जीवन में रस है, रीति है, वक्रोक्ति है तो ये सारे तत्व कविता में भी हैं। अपनी पुस्तक भारतीय साहित्यशास्त्र की नई रूपरेखा में त्रिपाठी संस्कृत काव्यशास्त्र की प्राचीन परंपरा का परीक्षण करते हैं। साथ ही भारतीय काव्यशास्त्र के संदर्भों से वैश्विक साहित्य के मूल्यांकन की एक पीठिका भी तैयार करते हैं। इसमें साहित्य की उपादेयता के साथ रस और अलंकार का भी विवेचन है।

पुस्तक- भारतीय साहित्यशास्त्र की नई रूपरेखा, लेखक- राधावल्लभ त्रिपाठी, प्रकाशक- सामयिक बुक्स, नई दिल्ली, मूल्य- रु. 895

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नाम और कवर के चित्रों से ये लग सकता है कि ये फिल्मी पुस्तक है। दरअसल ये पुस्तक एक साहित्यिक कृति के फिल्म बनने की बेहद दिलचस्प कहानी है। ‘दो गुलफामों की तीसरी कसम’ नाम की इस पुस्तक के लेखक हैं अनंत। उन्होंने इस पुस्तक में बहुत ही रोचक अंदाज में फणीश्वर नाथ रेणु की कृति ‘मारे गए गुलफाम अर्थात तीसरी कसम’ के पात्रों के चयन पर लिखा है। गाड़ीवान हिरामन और नर्तकी हीराबाई की भूमिका निभाने वाले कलाकार से लेकर फिल्म के निर्देशक चुनने की रोचक कहानी है, जिसको अनंत ने सधे अंदाज में लिखा है। 

पुस्तक- दो गुलफामों की तीसरी कसम, लेखक- अनंत, प्रकाशक- कीकट प्रकाशन, पटना, मूल्य- रु 650 

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कश्मीर साहित्य और संस्कृति को लेकर बेहद समृद्ध रहा है। भारत की इस भूमि पर ऐसे ऐसे दार्शनिक, कवि और लेखक हुए हैं जिन्होंने भारतीय प्रज्ञा को अपनी लेखनी से नई ऊंचाई दी। कश्मीरी काव्य में रामकथा, कश्मीर के कृष्णभक्त कवि परमानंद, कश्मीर की प्रसिद्ध कवयित्री अलखेश्वरी रूपभवानी और हिंदी और कश्मीरी के अंतर्संबंधों पर केंद्रित एक पुस्तक आई, कश्मीर साहित्य और संस्कृति। इसमें कश्मीरी साहित्य के अलावा वहां की संस्कृति पर भी लेखक शिबन कृष्ण रैणा ने प्रकाश डाला है। कश्मीरी नववर्ष नवरेह से लेकर कश्मीरी शिवरात्रि के बारे में विस्तार से लिखा गया है। कश्मीर की संस्कृति और साहित्य को जानने के लिए यह उपयोगी पुस्तक है। 

पुस्तक- कश्मीर, साहित्य और संस्कृति, लेखक- शिबन कृष्ण रैणा, प्रकाशक- लोकभारती प्रकाशन, प्रयागराज, मूल्य – रु 199

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स्वाधीनता के अमृत महोत्व वर्ष में कई गुमनाम नायकों या कम ज्ञात नायकों पर कई महत्वपूर्ण पुस्तकें प्रकाशित हुई। ऐसी ही एक पुस्तक है महाराणा, सहस्त्र वर्षों का धर्मयुद्ध । इस पुस्तक में लेखक ने मेवाड़ के योद्धाओं की वीरगाथा को कमलबद्ध किया है। लेखक ने मुस्लिम आक्रांताओं से लोहा लेनेवाले और हिंदू समाज की रक्षा करनेवाले मेवाड़ के शूरवीरों और जौहर की ज्वाला में अपने को होम करनेवाली रानियों के बारे में लिखते हुए लेखक सत्य को भी उद्घाटित करते चलते हैं। 

पुस्तक- महाराणा,सहस्त्र वर्षों का धर्मयुद्ध, लेखक- ओमेन्द्र रत्नू, प्रकाशक- प्रभात प्रकाशन, दिल्ली, मूल्य- रु 500     


Saturday, December 24, 2022

निर्देशकों का कौशल सफलता की कुंजी


वर्ष 2022 में सिनेमा और वेब सीरीज की सफलता और असफलता के बीच उसके कंटेंट को लेकर जमकर चर्चा हुई। फिल्मों की असफलता और वेबसीरीज की सफलता के बीच इस बहस ने और जोर पकड़ा जब ये बताया जाने लगा कि वेबससीरीज ने कंटेंट यानि विषयवस्तु के स्तर पर दर्शकों को संतुष्ट किया और उनके नजदीक गए। कटेंट इज किंग का जुमला बार-बार सुनाई देने लगा। फिल्म निर्माण के संबंध में इस बात को निरंतर रेखांकित किया जा रहा है कि अगर किसी फिल्म की विषयवस्तु रोचक होगी तो ही फिल्म सफल होगी। कहानी को लेकर भी कई तरह की बातें कही गईं। इस संदर्भ में बरेली की बर्फी, जोर लगा के हइशा, विक्की डोनर जैसी फिल्मों का नाम लिया जाता है। इस वर्ष जिन तमिल, तेलुगु और कन्नड़ फिल्मों ने अपार लोकप्रियता हासिल की उसकी सफलता का श्रेय भी फिल्मों की विषय वस्तु को ही दिया गया। कहा गया कि कहानी ने दर्शकों को बांधे रखा। अधिकतर समीक्षकों ने फिल्मों की समीक्षा करते समय कटेंट को ही ध्यान में रखा। समीक्षा में फिल्मों को तारे देते समय समीक्षकों ने प्रमुखता से कटेंट को और कलाकारों के अभिनय को ध्यान में रखा। गाहे बगाहे फिल्मों के गाने की चर्चा हुई। प्रश्न ये उठता है कि क्या कंज्यूमर इज द किंग की अवधारणा पर आधारित कंटेंट इज द किंग फिल्मों के लिए या फिल्म निर्माण की कला के लिए कितना उचित है। 

अगर हम आक्सफोर्ड शब्दकोश में देखें तो किसी भी पुस्तक, लेख, टेलीविजन प्रोग्राम आदि का मुख्य विषय या आयडिया को कंटेंट बताया गया है। ये कई अन्य अर्थों में से एक अर्थ है। अब अगर इस अर्थ के आधार पर विचार करें तो क्या कोई फिल्म सिर्फ अपने मुख्य विषय या आयडिया के आधार पर सफल हो सकती है। ये एक कारण हो सकता है लेकिन कंटेंट को ही एकमात्र कारण नहीं माना जा सकता है। फिल्म निर्माण के कई आयाम होते हैं और सफल फिल्मकार वही होता है जो इन सारे आयामों को साधकर विषय के साथ न्याय करे। पिछले दिनों फिल्मकार बिमल राय के बारे में पढ़ रहा था। फिल्म निर्माण को लेकर उनका सोच अलग ही स्तर पर था। वो फिल्मों के एक एक दृश्य को लेकर काफी मेहनत करते थे। साथी कलाकारों के साथ विमर्श करते थे, लेकिन फिल्म निर्देशन के समय वो अपने हिसाब से कैमरा के कोण से लेकर संवाद अदायगी और दृश्यों की लाइटिंग पर बेहद बारीकी से ध्यान देते थे। 

अगर हम 1959 की बिमल राय की फिल्म सुजाता के एक दृश्य को याद करें। उस दृष्य में अधीर (सुनील दत्त) सुजाता(नूतन) से मिलने पहुंचते हैं तो सुजाता पौधों के बीच होती हैं। जब सुनील दत्त वहां आते हैं तो नूतन मुड़ती है। जब वो मुड़ती हैं उनकी साड़ी का आंचल लाजवंती के पौधे को छूती है। उस वक्त नूतन के चेहरे पर जो भाव हैं उसको कैमरे ने कितनी खूबसूरती से पकड़ा है। इस तरह के सीक्वेंस में कैमरे से बिमल राय जो प्रयोग करते हैं वो कटेंट को बेहद संवेदनशील और अविस्मरणीय बना देता है। अब इस एक दृष्य को फिल्माने के लिए बिमल राय ने चार दिन तक शूट किया था। पंखों से लाजवंती के पौधे पर हवा दी जा रही थी लेकिन उनके मन मुताबिक दृश्य पकड़ में नहीं आ रहा था। चौथे दिन अचानक से बिमल राय अपने मन मुताबिक दृष्य का फिल्मांकन कर पाए। आज के जमाने में जब अक्षय कुमार चालीस दिनों में एक पूरी फिल्म शूट कर लेते हैं तो इस तरह के शाट्स की अपेक्षा करना ही व्यर्थ है। प्रोफेशनलिज्म और अनुशासन के नाम पर आज फिल्म मेकिंग को बहुत ही ज्यादा मैकेनिकल बना दिया गया है। तकनीक के उपयोग से आपत्ति नहीं होनी चाहिए, है भी नहीं लेकिन तकनीक से कई बार उस तरह की प्रभावोत्पकदता पैदा नहीं होती है जो मानवीय गुणों के कारण आती है।

सिर्फ बिमल राय ही नहीं बल्कि कई ऐसे फिल्मकार हुए हैं जिन्होंने विषयवस्तु को अपनी कला और हुनर से इतना समृद्ध किया कि वो कालजयी हो गया। चाहे वो सत्यजित राय हों, के आसिफ हों या वी शांताराम हों। मुगले आजम की कहानी तो दर्शकों को ज्ञात थी। उस कहानी पर पहले भी फिल्म बन चुकी थी। लेकिन के आसिफ ने जब मुगले आजम बनाई तो उसके कंटेंट को इतना समृद्ध कर दिया कि आज भी जब हिंदी फिल्मों की चर्चा होती है तो बासठ साल पहले रिलीज हुई इस फिल्म को याद किया जाता है। वी शांताराम की एक फिल्म है दहेज। इस फिल्म का एक दृश्य जिसमें ठाकुर (पृथ्वीराज कपूर) की बाहों में उनकी बेटी चंदा (जयश्री) दम तोड़ती है। ये दृष्य अविस्मरणीय बन पड़ा है। इसमें क्लोजअप शाट्स के जरिए जो प्रयोग वी शांताराम करते हैं उसकी चर्चा आजतक होती है। फिल्म निर्माण के छात्रों को बार-बार ये दृष्य दिखाया जाता है। कहना न होगा कि निर्देशक का कौशल और हुनर कटेंट को समृद्ध करके दर्शकों के मानस को प्रभावित करता है।  

इन दिनों दक्षिण भारतीय फिल्मों कि सफलता की भी चर्चा रही। आरआरआर से लेकर कंतारा तक जिन फिल्मों को दर्शकों ने पसंद किया उनपर बारीकी से नजर डालने पर ये स्पष्ट होता है कि कहानी दिखाने का उनका अंदाज दर्शकों को पसंद आ रहा है। आरआरआर में जो भव्यता है या आरआरआर के जो संवाद हैं वो उस कहानी को एक अलग ही स्तर पर ले जाकर खड़ा कर देती है। कंटेंट किसी फिल्म का आधार होती है लेकिन उसपर अगर भव्य इमारत खड़ी करनी हो तो उसमें कई अन्य अवयवों की संरचना भई करनी होती है।फिल्मों की कहानी को लेकर राज कपूर कहा करते थे कि हिंदी फिल्मों में तो एक ही कहानी होती है कि राम थे, सीता थी और रावण आ गया। इसी कहानी को कई बार दोहराया गया और कई निर्देशकों ने उसको अलग अलग तरीके से दिखाया। कई निर्देशकों को सफलता मिली और कइयों को दर्शकों ने नकार दिया। फिल्म देवदास के कई वर्जन बन चुके हैं, उसमें कंटेंट तो सबका लगभग एक जैसा ही है लेकिन कहानी को हने का अंदाज औऐर निर्देशक की रचनात्मकता किसी फिल्म को सफल बना देती है और किसी को असफल। एक और चीज जो कंटेंट को समृद्ध बनाती है वो है कलाकारों का चयन और संवाद लेखन। मन्नू भंडारी की कहानी यही सच है पर जब बासु चटर्जी ने रजनीगंधा फिल्म बनाई। मूल कहानी को पढ़ने के बाद फिल्म स्क्रिप्ट पढ़ने के बाद पता चलता है कि निर्देशक ने कैसे उसको अपनी कल्पनाशीलता से ऊंचाई प्रदान कर दी। 

सिर्फ कहानी ही किसी फिल्म को हिट करवा सकती तो प्रेमचंद की कहानी पर बनी फिल्म हिट ही हो जाती। प्रेमचंद तो फिल्म को लेकर इतने आहत हो गए थे कि 1934 में उन्होंने बांबे (अब मुंबई) में रामवृक्ष बेनीपुरी से कहा था कि अगर तुम मेरी इज्जत करते हो तो मेरी फिल्म मजदूर मत देखना। उन दिनों बेनीपुरी जी कांग्रेस अधिवेशन में भाग लेने बांबे गए हुए थे। प्रेमचंद से उनके फिल्म मजदूर के पोस्टर देखकर चर्चा की थी। अगर सिर्फ गानों से फिल्में हिट हो जाती तों सुमित्रानंदन पंत कुछ ही गाने लिखकर बांबे से वापस क्यों लौट आए थे। कंटेंट इज किंग कहकर सिर्फ उसको ही किसी फिल्म की सफलता के लिए जिम्मेदार बतानेवालों को फिल्म निर्माण के हर क्षेत्र पर विचार करना चाहिए। दृश्यांकन, संवाद, गीत, संगीत, कहानी कहने का अंदाज, कलाकारों का चयन, कलाकारों का अभिनय, उनकी संवाद अदायगी और निर्देशक की कल्पनाशीलता एक फिल्म को ऊंचाई प्रदान करती है। इनमें से किसी एक की कमजोरी भी फिल्म को फ्लाप करवा सकती है। 

Saturday, December 17, 2022

समग्रता में प्रश्न उठाने से चूके बच्चन


कोलकाता इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल के उद्घाटन समारोह का मंच सजा था। मंच पर बंगाल की मुख्यमंत्री और राज्यपाल के अलावा सुपरस्टार अमिताभ बच्चन, शाह रुख खान, अभिनेत्री रानी मुखर्जी, निर्देशक महेश भट्ट, पूर्व क्रिकेटर सौरभ गांगुली समेत अन्य फिल्मी सितारे बैठे थे। भव्य आयोजन था। इन दिनों शाह रुख खान अपनी फिल्म पठान को लेकर चर्चा में हैं। उनकी फिल्म के एक गाने बेशरम रंग में नायिका दीपिका पादुकोण के वस्त्र के रंग पर विवाद है। ट्विटर पर बायकाट पठान हैशटैग बेहद प्रचलित होकर कई घंटों तक ट्रेंड हो चुका है। भारतीय फिल्मों के संवाद और फिल्मांकन को लेकर इस वर्ष विवाद उठते रहे हैं। सबको उम्मीद थी कि शाह रुख खान अपनी फिल्म पठान पर उठे विवाद पर अवश्य बोलेंगे। वो बोले भी। उन्होंने इंटरनेट मीडिया की नकारात्मकता को रेखांकित किया। अपने वक्तव्य के अंत में कहा कि कोई कुछ भी कर ले लेकिन आप और हम सब जिंदा हैं। शाह रुख से इस तरह की बात की उम्मीद की जा रही थी। लेकिन जब बच्चन साहब मंच पर आए तो उन्होंने सेंसरशिप, मानवाधिकार, काल्पनिक कट्टर राष्ट्रवाद, मोरल पुलिसिंग आदि पर बात करके सबको चौंका दिया। 

अमिताभ बच्चन के बोलने के पहले उनकी पत्नी और समाजवादी पार्टी से राज्यसभा की सदस्य जया बच्चन ने बेहद संक्षिप्त वक्तव्य दिया। उन्होंने कहा कि उनको पता है कि बच्चन साहब पिछले तीन साल से जिन बातों पर मंथन कर रहे हैं या जो बातें सोच रहे हैं उसको आज सबके सामने रखनेवाले हैं। इतना कहने के बाद जया बच्चन ने ममता बनर्जी की ओर देखकर कहा कि वो हमेशा उनके साथ हैं। ये बताने के पीछे उद्देश्य सिर्फ इतना है कि अमिताभ बच्चन ने बहुत सोच समझकर अपनी बातें कोलकाता इंटरनेश्नल फिल्म फेस्टिवल के मंच से कही। बच्चन साहब को कई बार सुनने का अवसर मिला है। लेकिन जिस तरह से कोलकाता में वो लिखित भाषण पढ़ रहे थे वो उनके पूर्व की भाषण शैली से अलग था। ऐसा लग रहा था कि उनका भाषण श्रमपूर्वक तैयार किया गया था, जिसमें शब्दों के चयन को लेकर सावधानी बरती गई थी। उन्होंने अंग्रेजों के जमाने के सेंसरशिप पर बात की। स्वाधीनता पूर्व किस तरह से भारतीय फिल्मकारों को प्रताड़ित किया जाता था, विस्तार से उसकी क्रोनोलाजी बताई। सेंसरशिप पर क्रोनोलाजी बताते हुए वो भारत की स्वाधीनता तक पहुंचे। बताया कि 1952 में सिनेमेटोग्राफी एक्ट बना दिया गया। इसके बाद उन्होंने जो कहा उसपर विचार करना आवश्यक है। उन्होंने कहा कि आज भी नागरिक स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रश्नचिन्ह खड़े हो रहे हैं। ये कहने के क्रम में उन्होंने कहा कि मंच पर बैठे महानुभाव उनकी बात से सहमत होंगे। इसके बाद बच्चन साहब फिल्मों के कंटेंट पर चले गए और उसकी विविधता का कालखंड गिना दिया। कंटेंट की विविधता की बात करते हुए काल्पनिक कट्टर राष्ट्रवाद और मोरल पुलिसिंग पर जा पहुंचे।

बच्चन साहब को आज देश में नागरिक स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रश्न खड़े होते हुए दिख रहे हैं। लेकिन जब वो स्वाधीनता के बाद के परिदृष्य पर पहुंचे तो उससके बाद वो फिल्मों के विषयों पर चले गए। स्वाधीन देश में फिल्मकारों पर लगाई जानेवाली पाबंदियों पर बोलने से बचकर निकल गए। भारत में जब फिल्मों के सेंसरशिप पर बात होगी और जब उसकी क्रोनोलाजी बताई जाएगी तो क्या इमरजेंसी के दौर में हुई ज्यादतियों पर बात नहीं होगी? क्या जब नागरिक स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर बात होगी तो इमरजेंसी के दौर में हुई घटनाओं से बचकर निकला जा सकता है? बच्चन साहब ने देश की आजादी के पहले के दौर की फिल्म भक्त विदुर पर अंग्रेजों की पाबंदी पर विस्तार से बताया कि कैसे और किन दृष्यों की वजह से उस फिल्म को मुश्किलों का सामना करना पड़ा था। बच्चन साहब ने वी शांताराम की फिल्म स्वराज्य पर लगी पाबंदी के कारणों को गिनाया। ये भी बताया कि किस तरह से दबाव डालकर इस फिल्म का नाम बदलकर उदय काल करवाया गया था। इसके बाद वो आज के नागरिक स्वतंत्रता के प्रश्नों की बात करने लगे। क्या पिछले तीन साल से इन विषयों पर मंथन करनेवाले अमिताभ बच्चन को फिल्म आंधी और उसके निर्माताओं के साथ जो हुआ उसकी याद नहीं आई। किस तरह से फिल्म आंधी की रील को मुंबई के स्टूडियो से उठाकर नष्ट करवा दिया गया था। किस तरह से इमरजेंसी के दौरान देवानंद को धमकाया गया था, किशोर कुमार के गानों के आकाशवाणी पर बजाए जाने पर प्रतिबंध लगाया गया था। नेहरू के खिलाफ लिखने पर किस तरह से मजरूह सुल्तानपुरी को प्रताड़ित किया गया था। 

अगर हम नागरिक स्वतंत्रता की बात करें तो स्वाधीनता के बाद क्या पहली बार अब नागरिक अधिकारों का हनन हो रहा है? क्या पहली बार मानवाधिकार की हनन हो रहा है। अमिताभ बच्चन जिस बंगाल की जमीन पर खड़े होकर मानवाधिकार और नागरिकता स्वतंत्रता पर प्रश्नचिन्ह की बात कर रहे थे उसी जमीन पर 1967 से लेकर 1972 तक  क्या हुआ था। इसकी याद उनको नहीं आई। अमिताभ बच्चन तो 1912 तक चले गए थे लेकिन उनको 1970 की याद नहीं आई जब बंगाल में राष्ट्रपति शासन लगा था। उस वक्त कांग्रेस की सरकार ने औपनिवेशिक काल के बंगाल सप्रेशन आफ टेररिस्ट आउटरेजस एक्ट 1932 को लागू कर दिया था। तब नागरिक स्वतंत्रता का हनन हुआ था। ऐसे कई उदाहरण हैं जो अमिताभ बच्चन को याद नहीं आए। बंगाल विधानसभा चुनाव के बाद किस तरह की घटनाएं हुईं वो पूरी दुनिया को पता हैं। क्या उसमें किसी प्रकार का मानवाधिकार हनन हुआ था। अमिताभ बच्चन को शायद पता हो। 

अमिताभ 1984 में लोकसभा के लिए कांग्रेस के टिकट पर चुने गए थे। कुछ वर्षों के बाद उन्होंने राजनीति छोड़ दी थी। तब से अबतक वो विवादित मुद्दों से बचते रहे थे। उनकी पत्नी जया बच्चन गाहे-बगाहे राजनीतिक बयान देकर विवादों में घिरती रही हैं लेकिन अमिताभ इससे अलग रहते हैं। अमिताभ बच्चन के राजनीति से दूर रहने की वजह से एक प्रतिष्ठा रही है। जब उनको दादा साहब फाल्के अवार्ड देने कि घोषणा की गई थी तो वो पुरस्कार ग्रहण के लिए विज्ञान भवन के समारोह में नहीं आए थे। उनके लिए सरकार ने अलग से राष्ट्रपति भवन में पुरस्कार अर्पण समारोह आयोजित किया था। तब भी किसी ने समानता के सिद्धांत का प्रश्न नहीं उठाया था। इस तरह के न जाने कितने प्रश्न हैं जो अमिताभ बच्चन की वरिष्ठता को ध्यान में रखकर कभी नहीं उठे। जया बच्चन का फिल्म समारोह के मंच से ममता बनर्जी को उनके साथ रहने का आश्वसान देना और उसके बाद अमिताभ बच्चन का सधे हुए अंदाज में परोक्ष रूप से राजनीतिक भाषण देना क्या संकेत करता है। अमिताभ बच्चन ने जिस दिन ये बोला उसके एक या दो दिन पहले केरल के फिल्मकार अदूर गोपालकृष्णन ने भी सुपर सेंसरशिप का मुद्दा उठाया था। उन्होंने भी कहा था कि सरकारी सेंसर के बाद इंटरनेट मीडिया का अदृष्य इकोसिस्टम फिल्मों को सेंसर करता है। ऐसा करनेवाले लोग असामाजिक हैं। क्या अदूर और अमिताभ बच्चन के बयानों में लगभग समानता एक संयोग है या फिर प्रयोग है। ये तो आनेवाले दिनों में ही स्ष्ट हो पाएगा। लेकिन इतना तय है कि अमिताभ बच्चन जैसे श्रेष्ठ और वरिष्ठ कलाकार को किसी भी कलामंच से इस तरह की बातें करने के पहले काफी सोच विचार करना चाहिए। उनके कहे गए शब्दों के क्या मायने निकाले जाएंगे और उसका असर कितना गहरा होगा। राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय मंचों पर उसको कैसे विश्लेषित किया जाएगा, आदि। प्रतीत होता है कि अमिताभ बच्चन ने अपने वक्तव्य के शब्दों के बारे में गंभीरता से मंथन नहीं किया। 

Saturday, December 10, 2022

कला पर भारी अभिनेताओं की छवि


वर्ष 2022 समाप्त होने को है। हिंदी सिनेमा के इतिहास में इस वर्ष को हिंदी फिल्मों पर आए संकट के तौर पर याद किया जाएगा। इस संकट के कारणों को लेकर भी वर्ष भर चर्चा हुई। सिनेमा हाल में दर्शकों की कमी पर लगातार चिंता प्रकट की जा रही है। फिल्मों के जानकार अलग अलग कारणों की पड़ताल करने में जुटे हुए हैं। अभिनय के अलावा कहानी, पटकथा, निर्देशन से लेकर एडिटिंग की कमजोरी तक को हिंदी फिल्मों के नहीं चल पाने की वजह बताई जा रही है। कलाकारों के अभिनय में अति नाटकीयता को भी कुछ फिल्म समीक्षक रेखांकित कर रहे हैं। जो लेखक-समीक्षक हिंदी फिल्मों में कलाकारों की अति नाटकीयता को रेखांकित कर रहे हैं वो दक्षिण भारतीय भाषाओं की फिल्मों के हिट होने की कारणों को जब गिनाते हैं तो उसमें कलाकारों की अति नाटकीयता को नजरअंदाज कर देते हैं। दक्षिण भारतीय फिल्मों में अति नाटकीयता आम है। हिंदी फिल्मों को किसी एक कारण से कम दर्शक नहीं मिल रहे हैं बल्कि उसके अनेक कारण हैं। 

हिंदी फिल्मों के निर्माण के दौरान पहले निर्देशक अपने साथी कलाकारों के साथ फिल्म की कहानी, उसके संवाद, उसके गीत और दृष्यों को लेकर खूब चर्चा करते थे। अपने साथी कलाकारों के साथ चर्चा करने से फिल्म की शूटिंग के दौरान अभिनेता और निर्देशक के बीच एक सहज रिश्ता कायम हो जाता था। चूंकि अभिनेता या अभिनेत्री फिल्मों के दृष्यों पर या संवाद पर चर्चा में शामिल रहते थे इस वजह से उनके अभिनय में एक खास किस्म की स्वाभाविकता दिखाई देती थी। आर के स्टूडियो में राज कपूर की कुटिया में होने वाली बैठकी प्रसिद्ध है। पूरी पूरी रात वो अपने साथी कलाकारों के साथ फिल्म निर्माण पर, फिल्म के संगीत पर, फिल्म के संवाद पर बातें करते थे। इससे साथी कलाकारों और निर्देशकों के बीच एक रागात्मक संबंध विकसित होता था। सभी का सोच एक ही दिशा में जाता था। निर्देशक जिस फिल्म की परिकल्पना करता था, साथी कलाकार उस कल्पना को साकार करने में जुटते थे। वी शांताराम जैसे प्रसिद्ध निर्देशक भी अपने साथ काम करनेवाले कलाकारों के साथ फिल्म को लेकर लगातार बैठकें करते थे। के आसिफ जब मुगल ए आजम बना रहे थे तो उस दौरान अभिनेता चंद्रमोहन का निधन हो गया। प्रोड्यूसर सिराज अली हाकिम ने पाकिस्तान जाने का निर्णय किया जिसके कारण शूटिंग बंद हो गई थी। कई वर्षों के के बाद जब के आसिफ को दूसरे प्रोड्यूसर मिले और फिल्म पर नए सिरे से नए कलाकारों के साथ काम आरंभ हुआ तो तय किया गया कि फिल्म को अंग्रेजी और तमिल में भी बनाया जाएगा। आसिफ ने निणय लिया कि फिल्म की पटकथा नए सिरे से लिखी जाएगी। उन्होंने हिंदी फिल्म के लिए एहसान रिजवी, कमाल अमरोही, अमान और वजाहत मिर्जा को हिंदी पटकथा के लिए अनुबंधित किया। ये कलाकारों के साथ बैठकर मंथन का ही परिणाम था कि फिल्म मुगल ए आजम में जोधाबाई के संवाद के लिए हिंदी और उर्दू के शब्दों के साथ ब्रजभाषा के भी कई शब्दों का उपयोग किया गया। इस तरह के संवाद ने जोधाबाई के किरदार को पर्दे पर जीवंत कर दिया था। जब फिल्म की शूटिंग आरंभ हुई थी तो उसके पहले पृथ्वीराज कपूर के चलने के शाही अंदाज पर भी चर्चा हुई थी। तय किया गया था कि वो सीना तान कर अपेक्षाकृत धीरे-धीऱे चला करेंगे। इससे अकबर के व्यक्तित्व के चित्रण में सहायता मिली थी। हिंदी फिल्मों से जुड़े इस तरह के कई किस्से पुस्तकों में दर्ज हैं।    

अब हिंदी फिल्म निर्माण में स्थितियां लगभग पूरी तरह से बदल गई हैं। निर्देशकों और कलाकारों के साथ बैठक की परंपरा धीरे-धीरे खत्म होती जा रही है। अमेरिका और अन्य यूरोपीय देशों से फिल्म मेकिंग की कला सीखकर आए निर्देशकों ने फिल्म निर्माण की बारीकियां तो सीखी हीं फिल्म निर्माण का कथित प्रोफेशनल अप्रोच भी सीख लिया। अब हो ये रहा है कि निर्देशक फिल्म निर्माण की प्रक्रिया को एक्सेल शीट पर बनाते हैं। इसको काल शीट कहते हैं। काल शीट में तिथि के अनुसार फिल्म निर्माण की गतिविधियां दर्ज होती हैं। कितने बजे कौन आएगा, कौन सा दृष्य फिल्माया जाएगा। अभिनेता कौन है, वो कितने बजे आएंगे, मेकअप में कितना समय लगेगा, कितने बजे शूट आरंभ होगा, कास्ट्यूम क्या होगा आदि के अलावा नजदीकी अस्पताल, एंबुलेंस के नंबर के साथ साथ सूर्योदय और सूर्यास्त का समय भी लिखा होता है। फिल्म निर्माण में अनुशासन और खर्च को व्यवस्थित करने के लिए काल शीट आवश्यक है। लेकिन जब काल शीट के अनुसार अभिनेताओं को अभिनय करने पर मजबूर किया जाता है तो उसका असर फिल्म पर पड़ता है। इस दौर के प्रसिद्ध अभिनेता ने एक किस्सा सुनाया। एक बार उनको काफी बुखार था। काल शीट के अनुसार उनको बारह बजे सेट पर पहुंचना था। उनपर काफी दबाव बनाया गया कि वो शूटिंग के लिए पहुंचे। सेट पर डाक्टर और एंबुलेंस की व्यवस्था रहेगी। वो दवा लेकर सेट पर पहुंचे। हर शाट के बीच डाक्टर उनकी नब्ज देखते थे और कहते थे कि सब ठीक है आप शूटिंग करिए। दवा खाकर तीन घंटे तक काल शीट के अनुसार उन्होंने अभिनय किया। बुखार का असर अभिनय पर फिल्म बनने के बाद भी दिखा। सुपर स्टार्स ने इसकी काट निकाल ली है। जब वो काल शीट के अनुसार नहीं आ पाते हैं तो कई शाट्स के लिए वो निर्माताओं से कहते हैं कि बाडी डबल का उपयोग कर लें। बाद में फेस रिप्लेसमेंट की तकनीक का उपयोग करके उसको स्वाभाविक दिखा दिया जाता है। 

हिंदी फिल्मों के निर्माण को जो एक दूसरी बात नुकसान पहुंचा रही है वो है स्टारडम। बड़े स्टार अब निर्देशकों की नहीं सुनते हैं। वो अपनी मर्जी से स्क्रिप्ट से लेकर सीन तक में बदलाव करवा लेते हैं। इतना ही नहीं वो इससे आगे जाकर अपनी वेशभूषा के बारे में भी निर्णय करने लगे हैं। कई सुपरस्टार को तो सेट पर निर्देशकों को निर्देशित करते हुए देखा जा सकता है। वो निर्देशक को बताते हैं कि फलां सीन को इस तरह से शूट किया जाए। इसका नुकसान ये होता है कि निर्देशक ने फिल्म के बारे में जो समग्र सोच बनाया है उसको सुरस्टार बाधित कर देते हैं। कुछ सुपर स्टार तो फिल्म के एडिट होने के बाद उसमें दृष्य जुड़वाते और कटवाते तक हैं। ये पहले भी होता था लेकिन उस समय अधिकतर सुपरस्टार अपने साथी कलाकारों के चयन में हस्तक्षेप करते थे। वो अपने मन मुताबिक नायिका का चयन करने के लिए निर्माता निर्देशक पर दबाव डालते थे। कई बार लोकेशन को लेकर भी। पर फिल्म निर्माण में दखल कम होता था। अब तो इन सुपरस्टार्स का दखल लगातार बढ़ता जा रहा है। उनको लगता है कि दर्शक उनके अभिनय को पसंद कर रहे हैं तो वो फिल्म को भी अपने हिसाब से बनवाएं। फिल्म निर्देशक बेचारगी में हथियार डाल देते हैं। उनको भी बड़ा बैनर और बड़ी फिल्म का नाम चाहिए होता है।  

आज जब आमिर खान और अक्षय कुमार जैसे सुपरस्टार्स की फिल्में एक के बाद एक फ्लाप हो रही हैं तो निर्माताओं को इन कारणों पर ध्यान देने की जरूरत है। खुद को फिल्म में सबसे उत्तम दिखने की सुपरस्टार्स की मानसिकता निर्देशकों को महत्वहीन कर रही है। इस प्रवृत्ति को कम करना होगा। निर्देशकों को छूट देनी होगी कि वो अपने हिसाब से फिल्म बनाएं। काल शीट को लचीला बनाया जाए, कलाकारों के साथ फिल्म निर्माण को लेकर, उसको बेहतर बनाने को लेकर संवाद हो। सुपरस्टार्स निर्देशकों की सुनें और अपनी मनमानी कम करें। ये फिल्म जगत के लिए भी अच्छा होगा और कलाकारों के लिए भी। इन प्रवृत्तियों पर बात होनी चाहिए। 


Saturday, December 3, 2022

विवाद का कारण बनते गुलामी के चिह्न


स्वाधीनता के अमृत महोत्सव वर्ष में लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री ने पांच प्रण बताए थे। इसमें से एक प्रण गुलामी के चिह्नों को समाप्त करने का है। अमृत काल में अपेक्षा की गई कि इन पांच प्रण को आत्मसात किया जाए। प्रधानमंत्री ने जब गुलामी के चिह्नों को हटाने की बात की तो उनको इस बात का अंदाज होगा कि सैकड़ों वर्षों तक गुलाम रहने के कारण इसके चिह्न हमारे जीवन और सरकारी क्रियाकलापों में रच-बस गए हैं। उनको हटाना कठिन है। इसका ताजा उदाहरण है गोवा में आयोजित 53वें अंतराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल आफ इंडिया (इफ्फी) में विवेक रंजन अग्निहोत्री की फिल्म द कश्मीर फाइल्स को लेकर उठा विवाद। अंतराष्ट्रीय जूरी के चेयरमैन और इजरायल के फिल्मकार नादव लैपिड ने इस फिल्म को भद्दा और प्रोपगंडा फिल्म बताया। ये कहने के लिए उन्होंने इफ्फी के समापन समारोह के मंच का उपयोग किया। जहां उनके सामने केंद्रीय सूचना और प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर, गोवा के मुख्यमंत्री प्रमोद सावंत, कई मंत्री और जूरी के अन्य सदस्य उपस्थित थे। ये भी गुलामी के एक चिह्न के बने रहने के कारण ही हुआ। कैसे ? इसको समझने के लिए फिल्म समारोह के नियमों को देखते हैं। 

इस वर्ष फिल्म समारोह का आयोजन राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम (एनएफडीसी) ने किया। एनएफडीसी के प्रबंध निदेशक की तरफ से जारी नियम के बिंदु संख्या 3 (1) में कहा गया है कि फीचर फिल्म के अंतराष्ट्रीय कंपटीशन में कुल 15 फिल्में होंगी। इनमें से तीन भारतीय फिल्में होंगी। फिक्शन फिल्म की अवधि 70 मिनट या उससे अधिक होनी चाहिए। इसी नियमावली के 4.4 में कहा गया है कि अंतराष्ट्रीय कंपटीशन के लिए एक जूरी होगी जिसमें चेयरमैन और कम से कम दो सदस्य या अधिकतम चार सदस्य होंगे। इसके अगले बिंदु में ये स्पष्ट किया गया है कि फिल्मों के बारे में जूरी का फैसला उपस्थित सदस्यों के सामान्य बहुमत के आधार पर होगा। जूरी फिल्मों की प्रविष्टियों के बारे में निर्णय लेने के लिए अपने नियम बना सकती है। इसी में आगे कहा गया है कि एनएफडीसी के प्रबंध निदेशक और/या उनके प्रतिनिधि जूरी के साथ फिल्मों पर मंथन के दौरान उपस्थित रहेंगे, लेकिन उनको वोट देने का अधिकार नहीं होगा। अब इस पूरी नियमावली में कहीं भी इस बात का उल्लेख नहीं है कि अंतराष्ट्रीय जूरी का चेयरमैन कैसे नियुक्त किया जाता है। बताया जा रहा है कि इफ्फी के अंतराष्ट्रीय जूरी के चेयरमैन का चयन एनएफडीसी करती है। इस वर्ष आयोजित मुंबई अंतराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल, जिसका आयोजन भी सूचना और प्रसारण मंत्रालय के अंतर्गत होता है, की अंतराष्ट्रीय जूरी का मैं सदस्य था। मेरे साथ इजरायल के डान वोलमैन, फ्रांस में बस गई ईरानी फिल्मकार मीना राड, फ्रांस के ही जेएन पियरे और भारत से नल्लामुत्थू सदस्य थे। इसमें सभी सदस्यों ने आम सहमति के आधार पर मीना राड का चुनाव जूरी के चेयरमैन के तौर पर किया था। इस पूरी प्रक्रिया और फिल्मों के चयन के दौरान फिल्म डिवीजन के एक सहयोगी निरंतर उपस्थित थे। सारी बातें सुन रहे थे और नोट्स भी ले रहे थे। जो नियमवाली थी उसमें भी ये स्पष्ट लिखा गया था कि सदस्य आम सहमति के आधार पर चेयरमैन का चयन करेंगे। किसी कारणवश अगर सहमति नहीं बन पाती है तो फेस्टिवल डायरेक्टर चेयरमैन की नियुक्ति करेगा। मुंबई अंतराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल की अंतराष्ट्रीय जूरी के चेयरमैन भारतीय फिल्मकार भी होते रहे हैं। आमतौर पर वरिष्ठता को आधार बनाया जाता है।      

इफ्फी ने जो 53वें फिल्म फेस्टिवल के लिए नियमावली जारी की उसमें इस बात का भी उल्लेख नहीं है कि अंतराष्ट्रीय जूरी का सदस्य कोई भारतीय नहीं हो सकता है। लंबे समय से ये एक अलिखित सा नियम या कहें कि परंपरा चल रही है कि इंटरनेशनल जूरी का सदस्य कोई विदेशी फिल्मकार ही होगा। फिल्म फेस्टिवल में जब से अंतराष्ट्रीय जूरी बनने लगी होगी तब किसी ने कह या तय कर दिया होगा कि अंतराष्ट्रीय जूरी का सदस्य कोई विदेशी होगा। तब से ही ये चला आ रहा है। किसी ने इस पर ध्यान देने की आवश्यकता नहीं समझी। इस बर्ष भी यही हुआ होगा और फेस्टिवल डायरेक्टर ने किसी की अनुशंसा पर इजरायली फिल्मकार नादव लैपिड को चेयरमैन नियुक्त कर दिया होगा। यहां ये देखा जाना चाहिए कि किसने नादव लैपिड की अनुशंसा किसने की थी। इसी तरह की स्थितियों के कारण प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने गुलामी के चिह्न हटाने की बात अपने पांच प्रण में की थी।

इफ्फी की नियमावली में एक और बात लिखी हुई है, जिसका उल्लेख ऊपर किया गया है कि फिल्मों पर जब जूरी के सदस्य मंथन करेंगे तो एनएफडीसी के प्रबंध निदेशक या उनके प्रतिनिधि उपस्थित रहेंगे। अब यहां प्रश्न ये उठता है कि मंच से जो बात नादव लैपिड ने कही क्या उसपर मंथन के दौरान चर्चा नहीं हुई। उन्होंने तो एक साक्षात्कार में ये भी कहा कि स्पेन और फ्रांस के जूरी सदस्य से बात कर ली जाए वो भी इसी मत के थे। अंतराष्ट्रीय जूरी के एकमात्र भारतीय सदस्य सुदोप्तो सेन ये दावा कर रहे हैं कि नादव लैपिड ने जो मंच से बोला ये उनकी व्यक्तिगत राय है। एनएफडीसी को मंथन के दौरान उपस्थित अपने प्रतिनिधि से बात करनी चाहिए और सच की तह तक पहुंचने का प्रयास करना चाहिए। उन्होंने मंथन के दौरान नोट्स लिए होंगे या जूरी के सदस्यों की राय भी दर्ज हुई होगी, उसको देखा जाना चाहिए कि उन्होंने क्या लिखकर दिया है। उससे राय स्पष्ट हो जाएगी। ऐसा क्यों हुआ इससे अधिक महत्वपूर्ण है कि आगे क्या किया जाए जिससे ऐसी अप्रिय घटनाएं न हों । एक तो जूरी चेयरमैन के चयन की प्रक्रिया एकदम स्पष्ट हो और दूसरा जिनको बनाया जाए उनकी पृष्ठभूमि के बारे में भी चयनकर्ता या अनुशंसा करनेवाले को जानकारी हो। 

सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने इस वर्ष 4 जुलाई को 53वें इफ्फी के लिए मंत्री की अध्यक्षता में एक संचालन समिति का गठन किया था। इसमें कुल 26 सदस्य थे, जिनमें से 13 गैर सरकारी सदस्य थे। संचालन समिति के गठन के साथ ही इस समिति का उत्तरदायित्व और उसकी भूमिका तय की गई थी। इसमें 13वें बिंदु पर स्पष्ट है कि ये समिति इंटरनेशनल जूरी सदस्यों का चयन करेगी। गैर सरकारी सदस्यों में करण जौहर समेत कई बड़े नाम हैं। यह जानना दिलचस्प होगा कि जूरी के चयन में संचालन समिति के सदस्यों की कोई भूमिका थी या नहीं? अगर थी तो नादव लैपिड का नाम किसने सुझाया था। इफ्फी के लिए संचालन समिति को अपेक्षाकृत अधिक सक्रिय करने की आवश्यकता है। कई नाम तो ऐसे हैं जो बस सूची में हैं। देखा जाना चाहिए कि सदस्यों की जो भूमिका और उत्तरदायित्व तय किए गए हैं उसको लेकर वो कितने गंभीर हैं। 

फिल्मों से जुड़े आयोजनों और पुरस्कारों के बारे में मंत्रालय को गंभीरता से विचार करना होगा। इनको पुराने ढर्रे पर चलते हुए काफी समय हो गया है। बदलते वक्त के साथ चलना होगा। राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार पर भी पुनर्विचार करने की आवश्यकता है। उसमें इतनी अधिक श्रेणियां और पुरस्कार हैं कि पुरस्कार वितरण समारोह काफी लंबा हो जाता है। इसको तर्कसंगत बनाना होगा। राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार में फीचर फिल्म और लेखन का पुरस्कार एक साथ कर देना चाहिए। गैर फीचर फिल्म और अन्य पुरस्कार को मुंबई अंतराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल से जोड़ देना चाहिए क्योंकि वो फेस्टिवल गैर-फीचर फिल्मों का ही है। फिल्म समारोहों के नियमों पर पुनर्विचार करके उसको स्पष्ट करना होगा। एक पूर्णकालिक फेस्टिवल निदेशक की नियुक्ति करनी होगी ताकि वो पूरे वर्ष फेस्टिवल को लेकर कार्ययोजना बनाकर अमल कर सकें। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के अह्वान के अनुसार जहां जहां गुलामी के चिह्न हैं उनको हटाने का प्रयास सरकारी स्तर पर भी करना होगा।

हिंदी फिल्मों को दिशा देनेवाला निर्माता


प्रसंग 2017 का है। मैं राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार में श्रेष्ठ लेखन की जूरी का चेयरमैन था। ये जूरी फिल्मों पर श्रेष्ठ लेखन के लिए और संबंधित वर्ष में फिल्म पर प्रकाशित पुस्तकों को पुरस्कृत करती है। जूरी ने पुरस्कार के लिए पुस्तकों का चन कर लिया और उसकी घोषणा भी कर दी गई। घोषणा के करीब एक पखवाड़े के बाद एक अनजान नंबर से फोन आया। फोन करनेवाले ने चयन समिति के अध्यक्ष होने के नाते मुझे पुस्तक चयन के लिए बधाई दी। फिर अपना नाम बताया सुरेश जिंदल। फिर तो करीब दस मिनट पर फिल्म और फिल्म लेखन पर बातचीच होती रही। सुरेश जी ने फोन रखने के पहले बताया कि उनकी पुस्तक , माई एडवेंचर विद सत्यजित राय, द मेकिंग आफ शतरंज के खिलाड़ी को भी राष्ट्रीय पुरस्कार के लिए भेजा गया था। फिर उस पुस्तक और शतरंज के खिलाड़ी की मेकिंग पर बात हुई। सत्यजित राय से मिलने का प्रसंग बेहद रोचक था।  मुंबई में टीनू आनंद के घर पर बात हो रही थी, बातों बातों में सत्यजित राय को फोन मिला दिया गया। उनसे समय मिला और सुरेश जिंदल और टीनू आनंद उनसे मिलने कलकत्ता (अब कोलकाता) पहुंच गए। उनके पास कई दिलचस्प किस्से थे। उन्होंने मिलने को कहा था। तय हुआ कि किसी दिन इंडिया इंटरनेशनल सेंटर (आईआईसी) में मिला जाए। वो दक्षिण दिल्ली में रहते थे इसलिए आईआईसी उनके लिए सुविधाजनक होता। अफसोस कि उनसे मुलाकात नहीं हो सकी। पिछले दिनों उनका निधन हो गया। 

सुरेश जिंदल ने कई बेहतरीन फिल्में बनाईं। उनकी पहली फिल्म मन्नू भंडारी की कहानी यही सच पर आधारित थी जिसको बासु चटर्जी ने निर्देशित किया था। ये फिल्म सुपरहिट रही थी। इसके बाद उन्होंने सत्यजित राय के साथ उनकी पहली हिंदी फिल्म शतरंज के खिलाड़ी बनाई। आज से करीब चालीस साल पहले 30 नवंबर को दिल्ली में फिल्म गांधी रिलीज हुई थी। रिचर्ड अटनबरो की इस क्लासिक फिल्म के भी सहयोगी सुरेश जिंदल थे। इसके अलावा भी सुरेश जिंदल ने कई फिल्में बनाई। सुरेश जिंदल दिल्ली के पंजाबी परिवार के थे। उन्होंने अमेरिका के युनिवर्सिटी आफ कैलिफोर्निया से इंजीनियरिंग की पढ़ाई की फिर कई वर्षों तक वहीं नौकरी भी की। फिल्मों से गहरे जुड़े होने के बावजूद वो दिल्ली में ही रहना पसंद करते थे। बीच में करीब तीन चार वर्षों के लिए मुंबई शिफ्ट हुए थे लेकिन फिर वो दिल्ली आ गए। वो कहते थे कि दिल्ली में उनको एक विशेष प्रकार की रचनात्मक उर्जा मिलती थी। पिछले करीब दो दशक से सुरेश जिंदल आध्यात्मिक हो गए थे और अधिक समय धर्म और अध्यात्म में ही व्यतीत करते थे। दिल्ली में रहकर इस श्रेष्ठ निर्माता ने हिंदी फिल्मों में जो योगदान किया है वो फिल्म इतिहास में प्रमुखता से दर्ज है।