दो हजार चौदह के आम चुनाव के बाद देश में विचारधारा की लड़ाई
ज्यादा तेज हो गई है । वामपंथ के कमजोर होने और दक्षिणपंथ के मजबूत होने से
विचारधारा की इस लड़ाई का असर देश की साहित्यक सांस्कृतिक संस्थाओं पर दिखाई देने
लगा है । सत्ता से करीबी का लाभ लेकर जिस तरह से वामपंथियों ने देशभर के कला,
संस्कृति और साहित्यक प्रतिष्ठानों पर कब्जा जमाया हुआ था वहां से उनका बोरिया
बिस्तर गोल होने लगा । इस बात को लेकर तमाम तरह का वितंडा खड़ा किया गया । एक तर्क
ये दिया गया कि दक्षिणपंथियों के पास बुद्धिजीवियों की कमी है । यह सही हो सकता है
लेकिन वामपंथियों के किस तरह के बुद्धिजीवी हैं इसकी पड़ताल करने की जरूरत है ।
वहां तो ज्यादातर उसी तरह के बुद्धिजीवी हैं जो सत्ता की खाद से तैयार किए गए । उनको
सत्ता और विचारधारा की सीढ़ी ने बड़ा
बनाया । वामपंथ की एक खासियत तो ये रही है जिसके लिए उनको दाद देनी चाहिए । खासियत
ये कि वो अपनी विचारधारा के लेखकों को बड़ा बनाते रहे हैं । लेखक चाहे औसत भी हो,
उसकी रचना चाहे मामूली हो लेकिन अगर वो मार्क्सवाद का ध्वजवाहक है और मजबूती से
झंडा थाम कर साहित्य की दुनिया में चलने की ताकत रखता है तो उसको बढ़ावा देने में
पार्टी से लेकर कार्यकर्ता तक कोई कसर नहीं छोड़ते हैं । ध्वज वाहकों की पताका के
आकार पर लेखक का कद तय होने लगा । जिसकी जितनी बड़ी पताका वो उतना बड़ा लेखक । पताका
के आकार के आधार पर उनके लेखन और उनकी कृतियों पर सेमिनार और पुरस्कार आदि तय होने
लगे । उनका विरोध करनेवालों की आवाज दबाई जाने लगी । ये बहुत लंबे समय तक चला । इस
तरह से वामपंथियों ने अपनी विचारधारा के ध्वजवाहकों को बड़े लेखक के तौर पर
स्थापित कर दिया।
इस खेल में दक्षिणपंथी पिछड़ गए और अबतक पिछड़ते ही नजर आ रहे हैं
। उन्होंने अपनी विचारधारा के लेखकों को बड़ा बनाने का उपक्रम नहीं किया । लंबे
समय से भारतीय जनता पार्टी की कई प्रदेशों में सरकारें रही हैं लेकिन वहां से भी
अनुदान से लेकर साहित्यक पत्रिकाओं में विज्ञापन से लेकर बड़े- बड़े पुरस्कार
वामपंथियों या उस तरफ झुकाव रखनेवालों को ही दिए जा रहे हैं । उनकी विचारधारा के
लेखकों का ना तो सम्मान हो पाया है और ना ही उनको पुरस्कार आदि देने का उपक्रम । मजेदार
तो ये होता है कि भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय के आर्थिक सहयोग से आयोजित
कार्यक्रमों में भी भारत सरकार को जमकर कोसा जाता है । भारत सरकार की नीतियों को
फासीवादी तक करार दिया जाता है । संस्कृति मंत्रालय से सहयोग प्राप्त ऐसे
कार्यक्रमों में कोसा तो मंत्रालय को भी जाता है लेकिन इस ओर अब तक भारत सरकार का
ध्यान नहीं जा पाया है या अफसरशाही पर उनका नियंत्रण नहीं है जो बगैर जांचे अनुदान
आदि देने का फैसला कर लेते हैं । यह बेहद मनोरंजक स्थिति है कि पैसे देकर फासीवादी
सरकार का आरोप लगवाना । खैर ये अवांतर प्रसंग है जिसपर फिर कभी विस्तार से चर्चा
होगी ।
फिलहाल हम बात कर रहे थे साहित्यक संस्थाओं की । पुरस्कार वापसी के
वक्त से चर्चा में आई साहित्यकारों की संस्था साहित्य अकादमी पर कब्जे को लेकर
वामपंथी लेखकों ने कमर कस ली है । साहित्य अकादमी की मौजूदा जनरल काउंसिल का लगभग
एक साल बचा है लेकिन अगले अध्यक्ष को लेकर वाम खेमे में तैयारियां शुरू हो गई हैं
। अगले साल अक्तूबर में होनेवाली नई आमसभा के गठन और उसके बाद अध्यक्ष पद के चुनाव
को लेकर सुगबुगाह शुरू हो गई है । मौजूदा उपाध्यक्ष और कन्नड़ के लेखक कंबार के
नाम पर भी चर्चा चल रही है लेकिन उनकी लेखकों के बीच स्वीकार्यता संदिग्ध है । उनकी
सबसे बड़ी कमजोरी या उनकी राह में जो सबसे बड़ी बाधा है वो है उनकी भाषा और उनकी
संवाद करने की क्षमता को लेकर है। उनको लेकर किसी भी खेमे में कोई खास उत्साह
दिखाई नहीं दे रहा है । अगले आमसभा के चुनाव में मौजूदा आमसभा के सदस्यों की अहम
भूमिका होती है लिहाजा मौजूदा अध्यक्ष विश्वनाथ तिवारी के कदमों पर भी सबकी निगाहें
टिकी हैं । चर्चा तो ये भी है कि विश्वनाथ तिवारी दूसरे कार्यकाल के लिए भी प्रयास
कर सकते हैं । दरअसल साहित्य अकादमी के संविधान में दो बार अध्यक्ष बनने पर कोई
रोक नहीं है । जानकारों का मानना है कि इसी के मद्देनजर तिवारी जी अपनी दावेदारी
पेश कर सकते हैं । विश्वनाथ तिवारी हिंदी भाषा से बननेवाले पहले अध्यक्ष हैं, अघर
जवाहरलाल नेहरू को छोड़ दियाजाए तो । इसके पहले हिंदी का कोई लेखक साहित्य अकादमी
का अध्यक्ष नहीं बन पाया था । अत्यंत मृदुभाषी विश्वनाथ तिवारी को सभी भाषाओं के
लेखकों का विश्वास भी हासिल है । पुरस्कार वापसी के वक्त जिस तरह से विश्वनाथ
तिवारी ने उस मुहिम को हैंडल किया उसको लेकर भी सत्ता प्रतिष्ठान में बैठे लोग
तिवारी जी से खुश बताए जाते हैं । अब ये इस बात पर भी निर्भर करता है कि विश्वनाथ
तिवारी की क्या इच्छा है और वो कितनी मजबूती से चुनाव लड़ते हैं ।
साहित्य अकादमी पर कब्जे की जंग इस बार काफी दिलचस्प होगी । पुरस्कार
वापसी के वक्त से लेकर अबतक अशोक वाजपेयी ने खुद को वामपंथी या कहें कि तथाकथित वृहत्तर
सेक्युलर लेखकों का अगुवा बनाने में कामयाबी हासिल कर ली है । यह कितनी बड़ी
बिडंबना है कि जिस अशोक वाजपेयी को साहित्य अकादमी के अध्यक्ष पद के चुनाव में
वामपंथियों ने एकजुट होकर हरवा दिया था वही वामपंथी इन दिनों अशोक वाजपेयी को अपना
नेता मान रहे हैं । ये वही अशोक वाजपेयी हैं जिनको वामपंथियों ने कलावादी कहकर
साहित्य से खारिज करने की भरपूर कोशिश की थी । ये तो अशोक जी प्रतिभा और उनका लंबा
प्रशासनिक अनुभव था कि उन्होंने वामपंथियों को अप्रसांगिक कर दिया । संभव है ये
अशोक वापजेयी की कांग्रेस के नेताओं की संगति का असर हो । अगर आप देखें तो कांग्रेस
ने वामपंथियों को सत्ता का लॉलीपॉप देकर बिल्कुल अप्रसांगिक कर दिया था । दो हजार
चौदह के लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद वामपंथी हाशिए पर चले गए थे । दरअसल
कांग्रेस ने वामपंथी लेखकों और विचारकों को संस्थाओं और अकादमियों की कुर्सी से
लेकर विश्वविद्यालयों में नियुक्तियों का अधिकार देकर उनके तेवरों को कुंद कर दिया
। ये कांग्रेस की रणनीति का ही हिस्सा था कि वामपंथी इल सत्ता प्रतिष्ठानों से
जुड़कर अपने आप को सुविधाभोगी बनाते चले गए और संघर्ष और विरोध का उनका माद्दा
खत्म होता चला गया । ये तो भला हो जेएनयू प्रकरण का जिसने एक बार फिर से
वामपंथियों को मंच से लेकर मौका तक मुहैया करवा दिया ।
अगले साल होनेवाला साहित्य अकादमी के अध्यक्ष का चुनाव दिलचस्प
होगा । साहित्य अकादमी के संविधान के मुताबिक उसकी जनरल काउंसिल में राज्यों के
प्रतिनिधियों के अलावा, विश्वविद्यालयों के नुमाइंदे और सांस्कृतिक संगठनों के
प्रतिनिधि होते हैं । इस वक्त देश में ज्यादातर राज्यों में भारतीय जनता पार्टी की
सरकार है तो यह माना जा सकता है कि अगर भारतीय जनता पार्टी से जुड़े लोग सजग रहे
तो उन राज्यों से उनकी विचारधारा के लोगों के ही नामों का पैनल भेजा जाएगा। यही
स्थिति विश्वविद्लायों की भी हो सकती है । ऐसी स्थिति में वामपंथियों को दिक्कत हो
सकती है और साहित्य अकादमी के उनके हाथ से निकलने का खतरा पैदा हो सकता है । अगर
भारतीय जनता पार्टी से जुड़े लोग असावधान रहे उनके शासन वाले राज्यों से चुने
जानेवाले सदस्यों के पैनल में वामपंथियों का नाम आ गया तो फिर वो हाथ मलते रह
जाएंगे । जिस तरह से वाम खेमा अभी से साहित्य अकादमी के चुनाव को लेकर सजग हो गया
है उससे इस बात की संभावना प्रबल है कि साहित्य अकादमी अध्यक्ष का चुनाव में कुछ
ना कुछ गुल खिलेगा । साहित्य अकादमी के पिछले चार पांच चुनाव से पूर्व अध्यक्ष
गोपीचंद नारंग की भूमिका भी अहम रहती आई है और वो बड़े रणनीतिकार माने जाते रहे
हैं । हर गुट और विचारधारा में उनके समर्थक रहे हैं और वो उसी तरह से अपनी चालें
भी चलते रहे हैं । गोपीचंद नारंग ने मशहूर लेखिका महाश्वतेता देवी को परास्त किया
था । उस वक्त भी अशोक वाजपेयी और नामपर सिंह आदि ने हाथ मिला लिया था लेकिन नारंग
के आगे उनकी एक नहीं चली थी । इस बार गोपीचंद नारंग की तबीयत नासाज होने की वजह से
संभव है कि वो उतने सक्रिय नहीं रह पाएं । साहित्य अकादमी पर कब्जे को लेकर जिस
तरह से बिसाते बिछने लगी है उसको देखकर तो यही लगता है कि विचारधारा विशेष के लेखक
इस संस्था पर कब्जे को लेकर कितने बेचैन हैं कि बारह महीने पहले से ही रणनीति पर
काम शुरू हो गया है ।