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Saturday, October 1, 2016

साहित्य अकादमी चुनाव की बिसात

दो हजार चौदह के आम चुनाव के बाद देश में विचारधारा की लड़ाई ज्यादा तेज हो गई है । वामपंथ के कमजोर होने और दक्षिणपंथ के मजबूत होने से विचारधारा की इस लड़ाई का असर देश की साहित्यक सांस्कृतिक संस्थाओं पर दिखाई देने लगा है । सत्ता से करीबी का लाभ लेकर जिस तरह से वामपंथियों ने देशभर के कला, संस्कृति और साहित्यक प्रतिष्ठानों पर कब्जा जमाया हुआ था वहां से उनका बोरिया बिस्तर गोल होने लगा । इस बात को लेकर तमाम तरह का वितंडा खड़ा किया गया । एक तर्क ये दिया गया कि दक्षिणपंथियों के पास बुद्धिजीवियों की कमी है । यह सही हो सकता है लेकिन वामपंथियों के किस तरह के बुद्धिजीवी हैं इसकी पड़ताल करने की जरूरत है । वहां तो ज्यादातर उसी तरह के बुद्धिजीवी हैं जो सत्ता की खाद से तैयार किए गए । उनको सत्ता और विचारधारा की सीढ़ी  ने बड़ा बनाया । वामपंथ की एक खासियत तो ये रही है जिसके लिए उनको दाद देनी चाहिए । खासियत ये कि वो अपनी विचारधारा के लेखकों को बड़ा बनाते रहे हैं । लेखक चाहे औसत भी हो, उसकी रचना चाहे मामूली हो लेकिन अगर वो मार्क्सवाद का ध्वजवाहक है और मजबूती से झंडा थाम कर साहित्य की दुनिया में चलने की ताकत रखता है तो उसको बढ़ावा देने में पार्टी से लेकर कार्यकर्ता तक कोई कसर नहीं छोड़ते हैं । ध्वज वाहकों की पताका के आकार पर लेखक का कद तय होने लगा । जिसकी जितनी बड़ी पताका वो उतना बड़ा लेखक । पताका के आकार के आधार पर उनके लेखन और उनकी कृतियों पर सेमिनार और पुरस्कार आदि तय होने लगे । उनका विरोध करनेवालों की आवाज दबाई जाने लगी । ये बहुत लंबे समय तक चला । इस तरह से वामपंथियों ने अपनी विचारधारा के ध्वजवाहकों को बड़े लेखक के तौर पर स्थापित कर दिया।
इस खेल में दक्षिणपंथी पिछड़ गए और अबतक पिछड़ते ही नजर आ रहे हैं । उन्होंने अपनी विचारधारा के लेखकों को बड़ा बनाने का उपक्रम नहीं किया । लंबे समय से भारतीय जनता पार्टी की कई प्रदेशों में सरकारें रही हैं लेकिन वहां से भी अनुदान से लेकर साहित्यक पत्रिकाओं में विज्ञापन से लेकर बड़े- बड़े पुरस्कार वामपंथियों या उस तरफ झुकाव रखनेवालों को ही दिए जा रहे हैं । उनकी विचारधारा के लेखकों का ना तो सम्मान हो पाया है और ना ही उनको पुरस्कार आदि देने का उपक्रम । मजेदार तो ये होता है कि भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय के आर्थिक सहयोग से आयोजित कार्यक्रमों में भी भारत सरकार को जमकर कोसा जाता है । भारत सरकार की नीतियों को फासीवादी तक करार दिया जाता है । संस्कृति मंत्रालय से सहयोग प्राप्त ऐसे कार्यक्रमों में कोसा तो मंत्रालय को भी जाता है लेकिन इस ओर अब तक भारत सरकार का ध्यान नहीं जा पाया है या अफसरशाही पर उनका नियंत्रण नहीं है जो बगैर जांचे अनुदान आदि देने का फैसला कर लेते हैं । यह बेहद मनोरंजक स्थिति है कि पैसे देकर फासीवादी सरकार का आरोप लगवाना । खैर ये अवांतर प्रसंग है जिसपर फिर कभी विस्तार से चर्चा होगी ।
फिलहाल हम बात कर रहे थे साहित्यक संस्थाओं की । पुरस्कार वापसी के वक्त से चर्चा में आई साहित्यकारों की संस्था साहित्य अकादमी पर कब्जे को लेकर वामपंथी लेखकों ने कमर कस ली है । साहित्य अकादमी की मौजूदा जनरल काउंसिल का लगभग एक साल बचा है लेकिन अगले अध्यक्ष को लेकर वाम खेमे में तैयारियां शुरू हो गई हैं । अगले साल अक्तूबर में होनेवाली नई आमसभा के गठन और उसके बाद अध्यक्ष पद के चुनाव को लेकर सुगबुगाह शुरू हो गई है । मौजूदा उपाध्यक्ष और कन्नड़ के लेखक कंबार के नाम पर भी चर्चा चल रही है लेकिन उनकी लेखकों के बीच स्वीकार्यता संदिग्ध है । उनकी सबसे बड़ी कमजोरी या उनकी राह में जो सबसे बड़ी बाधा है वो है उनकी भाषा और उनकी संवाद करने की क्षमता को लेकर है। उनको लेकर किसी भी खेमे में कोई खास उत्साह दिखाई नहीं दे रहा है । अगले आमसभा के चुनाव में मौजूदा आमसभा के सदस्यों की अहम भूमिका होती है लिहाजा मौजूदा अध्यक्ष विश्वनाथ तिवारी के कदमों पर भी सबकी निगाहें टिकी हैं । चर्चा तो ये भी है कि विश्वनाथ तिवारी दूसरे कार्यकाल के लिए भी प्रयास कर सकते हैं । दरअसल साहित्य अकादमी के संविधान में दो बार अध्यक्ष बनने पर कोई रोक नहीं है । जानकारों का मानना है कि इसी के मद्देनजर तिवारी जी अपनी दावेदारी पेश कर सकते हैं । विश्वनाथ तिवारी हिंदी भाषा से बननेवाले पहले अध्यक्ष हैं, अघर जवाहरलाल नेहरू को छोड़ दियाजाए तो । इसके पहले हिंदी का कोई लेखक साहित्य अकादमी का अध्यक्ष नहीं बन पाया था । अत्यंत मृदुभाषी विश्वनाथ तिवारी को सभी भाषाओं के लेखकों का विश्वास भी हासिल है । पुरस्कार वापसी के वक्त जिस तरह से विश्वनाथ तिवारी ने उस मुहिम को हैंडल किया उसको लेकर भी सत्ता प्रतिष्ठान में बैठे लोग तिवारी जी से खुश बताए जाते हैं । अब ये इस बात पर भी निर्भर करता है कि विश्वनाथ तिवारी की क्या इच्छा है और वो कितनी मजबूती से चुनाव लड़ते हैं ।  
साहित्य अकादमी पर कब्जे की जंग इस बार काफी दिलचस्प होगी । पुरस्कार वापसी के वक्त से लेकर अबतक अशोक वाजपेयी ने खुद को वामपंथी या कहें कि तथाकथित वृहत्तर सेक्युलर लेखकों का अगुवा बनाने में कामयाबी हासिल कर ली है । यह कितनी बड़ी बिडंबना है कि जिस अशोक वाजपेयी को साहित्य अकादमी के अध्यक्ष पद के चुनाव में वामपंथियों ने एकजुट होकर हरवा दिया था वही वामपंथी इन दिनों अशोक वाजपेयी को अपना नेता मान रहे हैं । ये वही अशोक वाजपेयी हैं जिनको वामपंथियों ने कलावादी कहकर साहित्य से खारिज करने की भरपूर कोशिश की थी । ये तो अशोक जी प्रतिभा और उनका लंबा प्रशासनिक अनुभव था कि उन्होंने वामपंथियों को अप्रसांगिक कर दिया । संभव है ये अशोक वापजेयी की कांग्रेस के नेताओं की संगति का असर हो । अगर आप देखें तो कांग्रेस ने वामपंथियों को सत्ता का लॉलीपॉप देकर बिल्कुल अप्रसांगिक कर दिया था । दो हजार चौदह के लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद वामपंथी हाशिए पर चले गए थे । दरअसल कांग्रेस ने वामपंथी लेखकों और विचारकों को संस्थाओं और अकादमियों की कुर्सी से लेकर विश्वविद्यालयों में नियुक्तियों का अधिकार देकर उनके तेवरों को कुंद कर दिया । ये कांग्रेस की रणनीति का ही हिस्सा था कि वामपंथी इल सत्ता प्रतिष्ठानों से जुड़कर अपने आप को सुविधाभोगी बनाते चले गए और संघर्ष और विरोध का उनका माद्दा खत्म होता चला गया । ये तो भला हो जेएनयू प्रकरण का जिसने एक बार फिर से वामपंथियों को मंच से लेकर मौका तक मुहैया करवा दिया ।  

अगले साल होनेवाला साहित्य अकादमी के अध्यक्ष का चुनाव दिलचस्प होगा । साहित्य अकादमी के संविधान के मुताबिक उसकी जनरल काउंसिल में राज्यों के प्रतिनिधियों के अलावा, विश्वविद्यालयों के नुमाइंदे और सांस्कृतिक संगठनों के प्रतिनिधि होते हैं । इस वक्त देश में ज्यादातर राज्यों में भारतीय जनता पार्टी की सरकार है तो यह माना जा सकता है कि अगर भारतीय जनता पार्टी से जुड़े लोग सजग रहे तो उन राज्यों से उनकी विचारधारा के लोगों के ही नामों का पैनल भेजा जाएगा। यही स्थिति विश्वविद्लायों की भी हो सकती है । ऐसी स्थिति में वामपंथियों को दिक्कत हो सकती है और साहित्य अकादमी के उनके हाथ से निकलने का खतरा पैदा हो सकता है । अगर भारतीय जनता पार्टी से जुड़े लोग असावधान रहे उनके शासन वाले राज्यों से चुने जानेवाले सदस्यों के पैनल में वामपंथियों का नाम आ गया तो फिर वो हाथ मलते रह जाएंगे । जिस तरह से वाम खेमा अभी से साहित्य अकादमी के चुनाव को लेकर सजग हो गया है उससे इस बात की संभावना प्रबल है कि साहित्य अकादमी अध्यक्ष का चुनाव में कुछ ना कुछ गुल खिलेगा । साहित्य अकादमी के पिछले चार पांच चुनाव से पूर्व अध्यक्ष गोपीचंद नारंग की भूमिका भी अहम रहती आई है और वो बड़े रणनीतिकार माने जाते रहे हैं । हर गुट और विचारधारा में उनके समर्थक रहे हैं और वो उसी तरह से अपनी चालें भी चलते रहे हैं । गोपीचंद नारंग ने मशहूर लेखिका महाश्वतेता देवी को परास्त किया था । उस वक्त भी अशोक वाजपेयी और नामपर सिंह आदि ने हाथ मिला लिया था लेकिन नारंग के आगे उनकी एक नहीं चली थी । इस बार गोपीचंद नारंग की तबीयत नासाज होने की वजह से संभव है कि वो उतने सक्रिय नहीं रह पाएं । साहित्य अकादमी पर कब्जे को लेकर जिस तरह से बिसाते बिछने लगी है उसको देखकर तो यही लगता है कि विचारधारा विशेष के लेखक इस संस्था पर कब्जे को लेकर कितने बेचैन हैं कि बारह महीने पहले से ही रणनीति पर काम शुरू हो गया है । 

Saturday, September 7, 2013

स्यापा नहीं पहल जरूरी

साहित्य अकादमी के इतिहास में पहली बार हिंदी भाषा से अध्यक्ष बने विश्वनाथ प्रसाद तिवारी को इस बात का दुख है कि हिंदी में पाठकों की संख्या बेहद कम है, जबकि अन्य भाषाओं में पाठक बड़ी तादाद में मौजूद हैं । उन्हें इस बात का भी मलाल है कि हिंदी प्रदेशों में बंगाल, महाराष्ट्र और केरल जैसा साहित्यक माहौल नहीं बन पाया । साहित्य अकादनमी का अध्यक्ष अगर इस तरह के बयान देता है तो उसके हल्के में नहीं लिया जा सकता है क्योंकि अकादमी के अध्यक्ष की साहित्य जगत में एक अहमियत और उनके बयान का वजन होता है । इस वजह से विश्वनाथ प्रसाद तिवारी के पाठकों की कमी के विलाप पर विचार होना चाहिए और इसकी पड़ताल भी होनी चाहिए । क्या सचमुच हिंदी में पाठकों की कमी है । यह सवाल हिंदी में कई दशकों से बार-बार उठता रहा है और इसके पक्ष-विपक्ष में तर्क भी दिए जाते रहे हैं । दरअसल अगर हम गंभीरता से विचार करें तो यह लगता है कि हिंदी के पाठकों की कमी पर साहित्य अकादमी के अध्यक्ष का बयान सामान्यीकरण के दोष का शिकार हो गया है । अकादमी अध्यक्ष ने इस बात को नजरअंदाज कर दिया कि साल दर साल आने वाले रीडरशिप सर्वे चीख चीख कर इस बात की गवाही दे रहे हैं कि हिंदी के पाठकों की संख्या लगातार बढ़ रही है । हर साल हिंदी अखबारों के नए-नए संस्करण खुल रहे हैं और उनका विस्तार हिंदी क्षेत्रों के अलावा गैर हिंदी क्षेत्रों में भी हो रहा है । इंडियन रीडरशिप सर्वे की पहली तिमाही के नतीजों के मुताबिक अखबारों की पाठक संख्या में एकाध अपवाद को छोड़कर बढ़ोतरी दर्ज की गई है । ना सिर्फ हिंदी अखबारों बल्कि पत्रिकाओं के पाठक संख्या में भी इजाफा हो रहा है । हो सकता है साहित्य अकादमी के अध्यक्ष जब पाठकों की कमी की बात कर रहे हों तो उनके अवचेतन मन में साहित्य के पाठकों की बात रही हो । अगर ऐसा है तो उनकी यह आशंका बिल्कुल ठीक है कि हिंदी में साहित्य के पाठक कम हुए हैं । यह बात हिंदी के तमाम प्रकाशक भी मानते हैं कि कविता-कहानी-उपन्यास के पाठक कम हुए हैं । आलोचना के पाठक तो पहले ही कम थे । साहित्येत्तर विषयों की किताबें धड़ाधड़ बिक रही है । हिंदी के कई शीर्ष प्रकाशकों ने तो साहित्य छापना ही कम कर दिया है । साहित्य अकादमी के अध्यक्ष होने के नाते विश्वनाथ तिवारी की यह जिम्मेदारी बनती है कि वो हिंदी साहित्य के नए पाठक वर्ग के निर्माण में अकादमी के मंच का इस्तेमाल करते हुए महत्वपू्र्ण भूमिका निभाएं ।
पाठकों तक पहुंचने का काम साहित्य अकादमी कर भी रही है । लेकिन अभी तक इस तरह के जो भी काम हो रहे हैं वो सिर्फ रस्म अदायगी के तौर पर हो रहे हैं । अकादमी लेखकों से मिलिए जैसे जो भी कार्यक्रम करती है वो लेखकों से मिलिए कम अकादमी के कर्मचारियों का गेट-टुगेदर ज्यादा होता है । दिल्ली के रवीन्द्र भवन में आयोजित इस तरह के कार्यक्रमों में वही वही चेहरे नजर आते हैं जो कभी भी आपको साहित्य अकादमी में दिख जा सकते हैं । साहित्य अकदामी का जब गठन हुआ था तो उसका उद्देश्य था कि सभी भारतीय भाषाओं के साहित्य की समृद्ध परंपरा और विरासत का एक साझा मंच बने जहां साहित्य पर गंभीर विचार-विनिमय और विमर्श हो सके । साहित्य अकादमी के गठन के पीछे यह एक भावना यह भी थी कि अकादमी सेमिनार, सिंपोजिया, कांफ्रेंस और अन्य माध्यमों से एक दूसरे भाषा के बीच संवाद स्थापित करेगी । यह सारी चीजें साहित्य अकादमी कर रही है लेकिन करने के तरीके में घनघोर मनमानी और अपनों को उपकृत करने का काम हो रहा है । अपने गठन के दशकों बाद साहित्य अकादमी अपने इस उद्देश्य से भटकती नजर आ रही है । सत्तर के शुरुआती दशक से ही अकादमी मठाधीशों के कब्जे में चली गई और वहां इस तरह की आपसी समझ बनी कि हर भाषा के संयोजक अपनी अपनी भाषा की रियासत के राजा बन बैठे । साझा मंच की बजाए यह स्वार्थ सिद्धि का मंच बनता चला गया । अब से कुछ सालों पहले तक अकादमी पर वामपंथी विचारधारा का कब्जा था और यह बात जगजाहिर है कि वामपंथियों ने किस तरह अपनी विचारधारा वाले लेखकों को आगे बढ़ाया और विरोधियों को निबटाया । वामपंथी विचारधारा के लेखकों के कमजोर होने के बाद एक खास किस्म के अवसारवादी लेखकों का कब्जा अकादमी पर हो गया जो प्रतिभाशाली लेखकों से आक्रांत रहते थे, लिहाजा उन्होंने एक ऐसी व्यूह रचना रची कि प्रतिभाशाली लेखक अकादमी के अंदर नहीं आ पाएं । आमसभा से लेकर हर जगह प्रतिभा को रोकने का षडयंत्र शुरू हो गया । रचनात्क लेखकों के बजाए विश्वविद्यालयों के बुजुर्गों का क्लब बनते चला गया । उदाहरण के तौर पर हिंदी के वरिष्ठ लेखक उपन्यासकार रवीन्द्र कालिया को लेकर साहित्य अकादमी ने अबतक कोई कार्यक्रम आयोजित नहीं किया जबकि कालिया सालों से दिल्ली में रह रहे हैं । जबकि हिंदी के कई प्रतिभाहीन लेखकों को साहित्य अकादमी ने मंच मुहैया करवाया । सवाल यह उठता है कि जबतक पाठकों के सामने किसी भी भाषा का सर्वश्रेष्ठ लेखक और उसका लेखन नहीं आएगा तबतक हमें पाठकों की कमी का रोना रोते रहना पड़ेगा । कमलेश्वर जी को भी अकादमी पुरस्कार तबतक नहीं मिल पाया जबतक कि डील नहीं हो गई । राजेन्द्र यादव को तो अबतक नहीं मिल पाया है । अकादमी की इस मठाधीशी का फायदा अफसरों ने भी उठाया और वो लेखकों पर हावी होते चले गए । अकादमी के पूर्व सचिव पर जांच भी चल रही थी इस बीच वो रिटायर हो गए । जांच के नतीजे का पता नहीं ।
इसके अलावा हिंदी में एक और समस्या है जिसकी वजह से पाठकों की संख्या का आकलन होना मुमकिन नहीं है । वह है हिंदी में किताबों की बिक्री का सही आंकड़ा सामने नहीं आ पाना । कई बार यह सवाल उठा है कि हिंदी के प्रकाशक लेखकों को उनकी किताबों की बिक्री का सही आंकड़ा नहीं बताते हैं । प्रकाशकों का दावा यह होता है कि किताबें बिकती ही नहीं है । साहित्य अकादमी के पचास साल पूरे होने के मौके पर उस वक्त के अकादमी अध्यक्ष गोपीचंद नारंग ने अकादमी की स्वयत्ता को लेकर जवाहरलाल नेहरू का एक वक्तव्य उद्धृत किया था । लेकिन अकादमी जवाहरलाल नेहरू के 13 मार्च 1954 के उस पत्र को भूल गई जिसमें उन्होंने हिंदी प्रकाशन की दशा और दिशा की ओर इशारा किया था । सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की बदहाली के मद्देनजर उनके लिए मासिक धन की योजना बनाने के बावत नेहरू जी ने साहित्य अकादमी के तत्कालीन सचिन कृष्ण कृपलानी को एक पत्र लिखा था । उस पत्र में उन्होंने लिखा कि निराला की किताबें जमकर बिक रही हैं और प्रकाशक मालामाल हो रहे हैं लेकिन निराला को कुछ भी नहीं मिल पा रहा है और वो लगभग भुखमरी की कगार पर हैं । अपने उस पत्र में नेहरू जी ने कृपलानी से कॉपीराइट एक्ट को दुरुस्त करवाने के लिए कोशिश करने का भी आग्रह किया था । लेकिन अकादमी ने नेहरू जी के उस पत्र से कोई सीख नहीं ली । अबतक अकादमी ने इस दिशा में कोई पहल या काम किया हो वो ज्ञात नहीं है । हिंदी में अबतक लेखकों प्रकाशकों के बीच का अनुबंध पत्र का भी मानकीकरण नहीं हो पाया है । किताबों की बिक्री के आंकड़ों के लिए कोई मैकेनिज्म बनाने का भी प्रयास नहीं हो पाया है । जब साहित्यक किताबों की बिक्री जानने की कोई व्यवस्था ही नहीं बन पाई है तो पाठकों की संख्या का पता कैसे चल पाएगा । इस बार के साहित्य अकादमी की आम सभा में हिंदी प्रकाशन जगत का एक नुमाइंदा भी चुना गया है । अकादमी का अध्यक्ष भी हिंदी का ही है । अपेक्षा इस बात की है कि बजाए पाठकों की कमी का स्यापा करने के इस दिशा में ठोस कदम उठाए जाएं । साहित्य अकादमी के कार्यक्रमों को भाषा के संयोजकों के चंगुल के मुक्त करना होगा और कार्यक्रमों के आयोजन में पूर्वग्रहों से उपर उठकर लेखकों और साहित्यप्रेमियों की भागीदारी बढ़ानी होगी । अगर ऐसा हो पाता है तो साहित्य के पाठकों का एक नया वर्ग संस्कारित होगा और अखबारों के पाठकों की तरह साहित्य के पाठकों में भी इजाफा होगा । यह सब कर पाना तिवारी जी के लिए बड़ी चुनौती है । अगर वो इन दोनों काम को कर पाने में सफल हो जाते हैं तो हिंदी साहित्य के इतिहास में उनका नाम स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाएगा वर्ना अन्य अकादमी अध्यक्षों की तरह वो भी इतिहास के बियावन में गुम हो जाएंगे ओर हिंदी साहित्य में पाठकों की कमी का स्यापा होते रहेगा ।