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Saturday, August 27, 2022

राजभाषा हिंदी की बढ़ने लगी व्याप्ति


राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं से प्रेम करते थे। उनके लेखन और वक्तव्यों में हिंदी और भारतीय भाषाओं के प्रति उनका लगाव झलकता है। जब दिनकर राज्यसभा के सदस्य थे तो उस दौर में हिंदी को लेकर काफी चर्चा हुई थी। 6 मई 1963 को राज्यसभा में दिनकर ने हिंदी को लेकर अपनी बात रखी थी। भाषा पर पेश विधायी प्रस्ताव पर संशोधन प्रस्तुत करते हुए दिनकर ने आशा प्रकट की थी कि ‘केंद्रीय सरकार तत्काल कुछ ऐसा उपयुक्त तंत्र बनाएगी जो केंद्रीय सरकार को केंद्रीय सरकार की विभिन्न शाखाओं में हिंदी के उत्तरोत्तर प्रयोग पर सलाह देगा और संसद की सभाओं को हिंदी की प्रगति के संबंध में समय समय पर प्रतिवेदन प्रस्तुत करेगा, ताकि 1975 के वर्ष तक हिंदी विधि निर्माण तथा प्रशासन का उतना ही प्रभावी माध्यम बन जाए, जितना इस समय अंग्रेजी है।‘ दिनकर की चिंता स्वाधीनता के बाद हिंदी को उसका उचित अधिकार नहीं मिलने को लेकर थी। उनके वक्तव्य से स्पष्ट है। वो इससे चिंतित थे कि शासन के तंत्र में हिंदी की प्रगति अंग्रेजी के साथ साथ कैसे की जा सकती है। उन्होने उस वक्त के गृहमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के एक वक्तव्य को भी अपनी चिंता से जोड़ा था। गृहमंत्री ने तब कहा था कि  ‘हम अंग्रेजी को अनिश्चित काल के लिए जीवन-दान दे रहे हैं, अनंत काल के लिए नहीं।‘  दिनकर ने गृहमंत्री के इस वाक्य को उद्धृत करते हुए अपना मत रखा था, ‘जिस प्रकार सरकार इस बारे में कार्य करती है, उससे मुझे भय होता है कि वह ‘कल-कल’ की बात अनंत काल तक बढ़ जाएगी।‘  दिनकर हिंदी को राजभाषा बनाए जाने और फिर 15 वर्षों के बाद उसकी समयावधि बढ़ाने को लेकर सशंकित थे। दिनकर की आशंका स्वाधीन भारत में सही साबित हुई और हिंदी को राजभाषा से राष्ट्रभाषा बनाने की कोशिशें ‘कल-कल’ करते हुए सचमुच अनंतकाल तक चलती चली जा रही हैं। 

हिंदी को देश की राष्ट्रभाषा बनाने का प्रश्न बहुत पुराना है। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान ये तय था कि स्वतंत्रता के बाद हिंदी राष्ट्रभाषा बनेगी। गांधी भी अपने लेखों और भाषणों में इसके आग्रही दिखते हैं। वो अपनी पत्रिका हरिजन में और अपने वक्तव्यों में इस बात के संकेत देते रहते थे कि हिंदी को स्वाधीनता के बाद राष्ट्रभाषा का दर्जा मिलना चाहिए। गांधी जी तो स्वराज्य के लिए भी भारतीय भाषाओं को आवश्यक मानते थे। 1921 में उन्होंने कहा था, अंग्रेजी के ज्ञान के बिना भी भारतीय मस्तिष्क का सर्वोच्च विकास संभव होना चाहिए। अंग्रेजी से प्रेरणा लेने की गलत भावना से छुटकारा होना स्वराज्य के लिए अत्यावश्यक है। 1947 में अपनी पत्रिका हरिजन में भी गांधी ने लिखा, ‘मेरा आशय यह है कि जिस प्रकार हमने सत्ता हड़पनेवाले अंग्रेजों के राजनैतिक शासन को सफलतापूर्वक उखाड़ फेंका उसी प्रकार हमें सांस्कृतिक अधिग्रहण करनेवाली अंग्रेजी को भी हटा देना चाहिए। यह आवश्यक परिवर्तन करने में जितनी देरी होगी उतनी ही अधिक राष्ट्र की सांस्कृतिक हानि होती जाएगी।‘ गांधी निरंतर अंग्रेजी को हटाने की बात कर रहे थे लेकिन उनके अनुयायी और स्वाधीनता के बाद सत्ता में आए नेता गांधी की इन बातों को राजनीतिक वजहों से नजरअंदाज करते रहे। संविधान सभा में सदस्यों ने भाषा संबंधी गांधी की भावनाओं का ध्यान नहीं रखा। भाषा के प्रश्न पर लगातार बहस से बचते रहे और उसको अंतिम बैठकों के लिए टालते रहे। आखिरकार  12 सितंबर 1949 को संविधानसभा में भाषा के प्रश्न पर बहस आरंभ हुई। चर्चा तीन दिनों तक चली। तमाम तरह के तर्क वितर्क हुए। 14 सितंबर 1949 को ये तय किया गया कि देवनागरी लिपि में लिखी जानेवाली हिंदी देश की राजभाषा होगी। संविधान सभा में हिंदी और हिंदुस्तानी को लेकर भी बहस और मतविभाजन हुआ था लेकिन हिंदी के पक्ष में बहुमत था। 

कुछ लोग संविधान सभा में हिंदी के पक्ष में बहुमत को भारत पाकिस्तान विभाजन के बाद लोगों के मत बदलने से भी जोड़कर देखते हैं। प्रख्यात गांधीवादी अप्पा साहब पटवर्धन ने भी कहा था कि ‘यह उचित ही है कि हमलोग अब हिंदी को ही राष्ट्रभाषा कहें क्योंकि पाकिस्तान की राष्ट्रभाषा उर्दू होगी।‘ हिंदी को लेकर पक्ष विपक्ष की बातें होती रहीं पर यह प्रविधान बना कि संविधान के लागू होने के 15 वर्षों तक अंग्रेजी चलती रहेगी। 15 वर्षों के बाद अगर संसद को लगता है कि आगे भी इस प्रविधान की जरूरत है तो वो कानून बनाकर इसको लागू रख सकती है। फिर भाषा आयोग बना,अध्यादेश जारी हुए। हिंदी राजभाषा तो बनी रही पर सरकारी कामकाज में अंग्रेजी का दबदबा कायम रहा। 1963 तक पूरे देश में ऐसी स्थिति बन गई जिससे साफ हो चला था कि 1965 में यानि संविधान लागू होने के 15 वर्ष बाद भी शासन की भाषा हिंदी नहीं हो पाएगी। 1963 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने संसद में घोषणा कर दी कि ‘जबतक अहिंदी भाषी राज्य अंग्रेजी को चलाना चाहेंगे तब तक हिंदी के साथ-साथ केंद्र में अंग्रेजी भी चलती रहेगी।‘ नेहरू का ये वक्तव्य भाषा अधिनियम का आधार बना। तब से लेकर अबतक अंग्रेजी शासन की भाषा बनी हुई है। उसका दबदबा कायम है क्योंकि इसको लेकर गंभीरता से प्रयास नहीं हुए, जो भ्रांतियां हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के बीच पैदा की गईं उनको दूर करने का राजनीतिक स्तर पर प्रयास नहीं हुआ। देश को चलानेवाले अधिकतर लोग अंग्रेजीदां रहे और उनके लिए शासन की भाषा अंग्रेजी रखना आसान रहा। 

लेकिन हिंदी को मजबूती देने का काम अहिंदी भाषियों ने भी किया चाहे वो वीर सावरकर हों, तिलक हों, भूदेव मुखर्जी हों, सुनीति कुमार चाटुर्ज्या हों या अन्य महानुभाव। उसी तरह से जब 2014 में केंद्र में नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री बने और गुजराति होते हुए भी उन्होंने अपनी प्राथमिक भाषा हिंदी बनाई तो शासन की भाषा बदलने लगी। 2019 में जब अमित शाह गृह मंत्री बने तो उन्होंने खामोशी से राजभाषा हिंदी को मजबूत करने का प्रयास आरंभ कर दिया। अमित शाह भी गुजराती हैं और उन्होंने हिंदी सीखी। वो खुद हिंदी में लिखने लगे और अधिकारियों को हिंदी में लिखने के लिए प्रोत्साहित और प्रेरित करने लगे। जब प्रधानमंत्री और गृहमंत्री राजभाषा हिंदी में कार्य करने लगे तो अन्य मंत्रियों ने भी इसको प्राथमिकता देना आरंभ किया। परिणाम ये हुआ कि अन्य मंत्रालयों में हिंदी में कामकाज को वरीयता मिलने लगी। राजभाषा गृह मंत्रालय के अंतर्गत आता है और गृहमंत्री राजभाषा हिंदी को प्राथमिकता दे रहे हैं। 2019 में नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में दूसरी बार सरकार बनी तो गृह मंत्री अमित शाह ने रुचि लेकर 49 मंत्रालयों में हिंदी सलाहकार समिति का गठन करवाया। राजभाषा विभाग की सक्रियता सतह पर दिखने लगी। अन्य भारतीय भाषाओं को हिंदी से जोड़ने का कार्य आरंभ हुआ। ‘लीला राजभाषा’ और ‘लीला प्रवाह’ के अंतर्गत 14 भारतीय भाषाओं में हिंदी सीखने की सहूलियतें प्रदान की गई। अनुवाद का साफ्टवेयर ‘कंठस्थ’ और ‘ईमहाशब्दकोश’ तैयार हुए। संसदीय राजभाषा समिति ने दस खंडों में अपनी सिफारिशें राष्ट्रपति को दीं। पिछले वर्ष काशी में पहला अखिल भारतीय राजभाषा सम्मेलन आयोजित किया गया। हिंदी दिवस के अवसर पर अगले महीने सूरत में राजभाषा का एक सम्मेलन गृह मंत्रालय आयोजित कर रहा है। एक शब्दकोश पर भी कार्य हो रहा है। इसके अलावा कर्मचारियों के हिंदी प्रशिक्षण को लेकर भी राजभाषा विभाग सक्रिय दिख रहा है। गृह मंत्रालय की पहल पर गैर हिंदी भाषी कर्माचरियों में हिंदी सीखने की ललक बढ़ी है। गृह मंत्री अमित शाह के बारे में कहा जाता है कि वो खुद हिंदी के व्यापक प्रयोग को लेकर सतर्क रहते हैं। उम्मीद की जा सकती है कि दिनकर ने जो आशंका जताई थी वो अब निर्मूल साबित होगी और हिंदी को उसका उचित स्थान मिलेगा और वो शासन के साथ ज्ञान और रोजगार की भाषा भी बनेगी।  

Saturday, August 20, 2022

बहिष्कार के मकड़जाल में बालीवुड


इन दिनों कुछ फिल्मों के बहिष्कार को लेकर खूब चर्चा हो रही है। इंटटरनेट मीडिया के विभिन्न प्लेटफार्म पर फिल्मों के बायकाट को लेकर पक्ष विपक्ष में हलचल दिखती है। अभिनेता आमिर खान की फिल्म लाल सिंह चड्ढा की रिलीज के पहले से उसके बायकाट की अपील जारी होने लगी थी। फिल्म रिलीज हुई और फ्लाप हो गई। इसी तरह से अक्षय कुमार की फिल्म रक्षाबंधन को लेकर भी बायकाट की अपील इंटरनेट मीडिया पर हुई। ये फिल्म भी फ्लाप हो गई। हम इन फिल्मों के बायकाट और इनके फ्लाप होने पर बात करेंगे लेकिन उसके पहले देख लेते हैं कि और कौन सी बड़ी बजट की फिल्में फ्लाप हुईं। यशराज फिल्म्स की दो बेहद महात्वाकांक्षी फिल्म आई, सम्राट पृथ्वीराज और शमशेरा। दोनों फिल्मों ने बाक्स आफिस पर अपेक्षित प्रदर्शन नहीं किया। उपलब्ध जानकारी के अनुसार फिल्म सम्राट पृथ्वीराज की लागत तीन सौ करोड़ रुपए थी और उसने बाक्स आफिस पर तिरानवे करोड़ रुपए का बिजनेस किया। इसी तरह से शमशेरा के निर्माण की लागत डेढ सौ करोड़ रुपए थी और इस फिल्म ने भी चौंसठ करोड़ रुपए का बिजनेस किया। अक्षय कुमार अभिनीत फिल्म बच्चन पांडे को बनाने में एक सौ अस्सी करोड़ रुपए खर्च हुए और बाक्स आफिस बिजनेस तेहत्तर करोड़ का रहा। बच्चन पांड को लेकर कहा गया था कि वो ‘द कश्मीर फाइल्स’ की वजह से पिट गई थी।खुद अक्षय कुमार ने भी भोपाल में चित्र भारती के मंच से ऐसा ही कहा था। सम्राट पृथ्वीराज और शमशेरा के खिलाफ न तो कोई बायकाट की अपील थी और न ही कोई हैशटैग चला था। बायकाट की अपील होती क्यों हैं इसके पीछे के कारणों को देखना चाहिए। 

आज से करीब दो दशक पहले गुजरात में सांप्रदायिक दंगे हुए थे। उसके बाद अभिनेता आमिर खान ने एक साक्षात्कार दिया था। उस साक्षात्कार में उन्होंने उस वक्त के गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी पर जमकर आरोप लगाए थे। गुजरात में हुई हिंसा में मरनेवालों के लिए नरेन्द्र मोदी को उत्तरदायी माना था। उसी साक्षात्कार में आमिर खान ने नरेन्द्र मोदी को अमेरिका का वीजा नहीं मिलने का उपहास भी उड़ाया था। 2006 में आमिर खान मेधा पाटकर के साथ नर्मदा बचाओ आंदोलन में शामिल हुए थे और उस वक्त की गुजरात सरकार के विरोध में जमकर बयानबाजी की थी। 2015 में जब गजेन्द्र चौहान को पुणे के भारतीय फिल्म और टेलीविजन संस्थान का चेयरमैन नियुक्त किया गया था तो छात्रों ने उसका विरोध किया था। आंदोलन भी हुआ था। उस समय भी आमिर खान मुखर हुए थे और आंदोलनकारी छात्रों का समर्थन किया था। 2015 में ही जब पुरस्कार वापसी अभियान चल रहा था तब भी आमिर खान ने देश में असहिष्णुता का राग अलापा था। उस वक्त की अपनी पत्नी किरण राव से एक बातचीत का हवाला दिया था और कहा था कि वो देश के माहौल से डरकर देश छोड़ने की बात करती है। आमिर खान के इन बयानों से स्पष्ट है कि वो राजनीति में एक पक्ष विशेष का विरोध कर रहे थे और परोक्ष रूप से एक पक्ष का समर्थन कर रहे थे। जब आप राजनीतिक होना चाहते हैं तो विरोध के लिए भी तैयार रहना चाहिए। ये संभव नहीं कि जब आपकी फिल्म आए तो लोग राजनीतिक समरत् या विरोध को भुलाकर फिल्म देखने चले जाएं। आपकी फिल्म को सफल बनाएं। आप जिस पक्ष का विरोध कर रहे थे उनको भी तो आपके विरोध का अधिकार है। उसी अधिकार की परिणति है बहिष्कार की अपील। बायकाट का हैशटैग।

आमिर खान या तमाम वो अभिनेता जो राजनीतिक टिप्पणियां करते रहे हैं उनके खिलाफ अगर बायकाट की अपील होती है तो इससे उनको परेशान नहीं होना चाहिए। राजनीति में तो वार पलटवार होते ही रहते हैं। दीपिका पादुकोण भी जब अपनी फिल्म छपाक के रिलीज के पहले दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू युनिवर्सिटी के छात्रों के प्रदर्शन में गई थीं तो उसका नकारात्मक प्रभाव फिल्म के कारोबार पर पड़ा था। अभी एक और फिल्म रिलीज हुई दोबारा, जिसमें अभिनेत्री तापसी पन्नू हैं। पिछले दिनों तापसी पन्नू और उस फिल्म के निर्देशक का एक वीडियो वायरल हुआ था जिसमें वो फिल्मों के बायकाट के ट्रेंड का मजाक बना रही थीं। उनका निर्देशक भी राजनीतिक बातें कर रहा था। वो पहले भी नेताओं को लेकर अपमानजनक और घटिया बातें करता रहा है। उनको गंभीरता से कोई लेता नहीं। तापसी की इस फिल्म को लेकर भी बायकाटदोबारा ट्विटर पर ट्रेंड हुआ। फिल्म पहले दिन सिर्फ 72 लाख का कारोबार कर पाई। कई शोज रद्द करने पड़े। थिएटरों में सन्नाटा रहा। इस फिल्म की लागत भी करीब तीस करोड़ रुपए है। अब तापसी पन्नू और उसके निर्देशक को समझ में आ रहा होगा कि ये बहिष्कार की अपील का मजाक उड़ाना उनको कितना महंगा पड़ा। हो सकता है कि इन अभिनेताओं, अभिनेत्रियों और निर्देशकों को फिल्मों के फ्लाप होने पर धनहानि न होती हो क्योंकि पैसा तो निर्माता का लगता है। ये लोग फिल्म पूरी करके अपना मेहनताना लेकर निकल लेते हैं। लेकिन इनको ये सोचना होगा कि इसका प्रभाव उनके करियर पर पड़ सकता है। 

बहिष्कार को लेकर एक बात और कही जाती है कि इंटरनेट मीडिया के जमाने में ये नया ट्रेंड आरंभ हुआ है। इंटरनेट मीडिया प्लेटफार्म पर भले ही बहिष्कार नया लगता हो लेकिन हमारे देश में तो बहिष्कार की अपील स्वाधीनता पूर्व से होती रही है। गांधी जी ने भी अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिए बहिष्कार की अपील को अपना हथियार बनाया था। इमरजेंसी के दौर में भी लोगों ने बहिष्कार की अपील की थी। पिछले दिनों जगदीशचंद्र माथुर का नाटक कोणार्क पढ़ रहा था। इस पुस्तक में मई 1961 में लिखी माथुर साहब की एक टिप्पणी है, ‘यों तो इस नाटक के विषय में मुझे अनेक रोचक अनुभव हुए, किंतु सबसे दिलचस्प अनुभव हुआ दिल्ली के अंग्रेजी समाचारपत्रों में इस नाटक के अभिनय की समालोचना पढ़कर । उनमें से एक समालोचक महोदय (अथवा महोदया!) ने लिखा कि इस नाटक की भाषा इतनी दुरूह है कि इस नाटक का बहिष्कार होना चाहिए, क्योंकि लेखक ने यह नाटक संस्कृतमयी हिंदी का प्रचार करने के लिए लिखा है।‘ इससे स्पष्ट है कि रंगमंच की दुनिया में 1961 में बहिष्कार की अपील की गई थी। ये अलग बात है कि उस समय इंटरनेट मीडिया नहीं था। तो जो लोग इसको नया ट्रेंड बता रहे हैं उनको इतिहास में जाने और समझने की आवश्यकता है। 

एक और बात है जो बायकाट ट्रेंड के साथ सामने आ रही है। पहले फिल्मों का जब विरोध होता था तो सिनेमा हाल के पोस्टर फाड़े जाते थे, कई बार उनमें आग भी लगा दी जाती थी। विरोध प्रदर्शन जब उग्र होता था तो शहरों में भी प्रदर्शन आदि होते थे। ज्यादा दिन नहीं बीते हैं जब फिल्म पद्मावत को लेकर कई शहरों में विरोध प्रदर्शन और आगजनी हुई थी। अब इस तरह के प्रदर्शन लगभग बंद हो गए हैं और इंटरनेट मीडिया पर विरोध होता है। क्या इसको भारतीय समाज के मैच्योर होने के संकेत के तौर पर देखा जाना चाहिए। हिंसा और आगजनी वाले विरोध प्रदर्शन से अलग विरोध का एक ऐसा तंत्र जिसमें अपनी बात भी पहुंच जाए और सार्वजनिक संपत्ति का नुकसान भी न हो। पुलिस और अन्य तंत्र का समय भी खराब न हो। फिल्मों के फ्लाप होने की एकमात्र वजह बायकाट नहीं है। उसपर एक अलग लेख लिखा जा सकता है कि इन दिनों बड़े बजट की अधिकतर हिंदी फिल्में क्यों पिट रही हैं। क्यों वो अपनी लागत तक नहीं निकाल पा रही हैं। लेकिन बायकाट के इस खेल में हिंदी फिल्म इंडस्ट्री उलझ गई है और उसको फिलहाल कोई रास्ता दिख नहीं रहा है। 

Saturday, August 13, 2022

सलमान रश्दी पर हमले से उपजे प्रश्न


बुकर पुरस्कार से सम्मानित और करीब तीन दशक से भारी सुरक्षा में जीवन बसर कर रहे भारतीय मूल के लेखक सलमान रश्दी पर अमेरिका के न्यूयार्क में हमला हुआ। हमलावर हादी मतर ने उनकी गरदन, हाथ और पेट पर चाकू से वार किए। उनकी हालत गंभीर बनी हुई है। उनके लिटरेरी एजेंट के अनुसार उनकी एक आंख की रोशनी जा सकती है। हमले में उनके हाथ की नस कट गई है और लीवर भी जख्मी हुआ है। सलमान रश्दी पर हमले की आशंका काफी लंबे समय से बनी हुई थी। जब उनकी पुस्तक ‘द सेटेनिक वर्सेस’ प्रकाशित हुई थी तो उनपर ईशनिंदा का आरोप लगा था। उसके बाद 14 फरवरी 1989 को ईरान के सुप्रीम लीडर अयातुल्ला खोमैनी ने सलमान रश्दी की मौत का फतवा जारी किया था। खोमैनी ने उस किताब को ईशनिंदा और इस्लाम का मजाक उड़ाने का दोषी करार दिया था । खोमैनी के फतवे के बाद सलमान रश्दी बहुत दिनों तक सार्वजनिक जीवन से दूर रहे थे। कभी ब्रिटेन में तो कभी नार्वे में रहे। अपने निर्वासन के दिनों को सलमान रश्दी ने अपनी पुस्तक ‘जोसेफ एंटन’ में विस्तार से लिखा है। साढे छह सौ पृष्ठों की इस पुस्तक में सलमान रश्दी ने निर्वासन का दर्द तो लिखा ही है कई जगहों पर अपने जीवन पर मंडरा रहे आसन्न खतरे का भी उल्लेख किया है। सलमान रश्दी पर हमले के बाद कई बिंदुओं पर एक बार फिर से विचार करने की आवश्यकता है। सलमान पर जानलेवा हमला अमेरिका के शहर न्यूयार्क में हुआ। वो भी करीब ढाई हजार लोगों की उपस्थिति में। यहां ये प्रश्न उठता है कि जो अमेरिका पूरी दुनिया को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का पाठ पढ़ाता रहता है उसके यहां इस तरह के हमले क्यों हो जाते हैं। ब्रिटेन और नार्वे में तो सलमान रश्दी पर हमला नहीं हो पाया। अमेरिका में हमलावरों ने अपने नापाक मंसूबे को कैसे अंजाम तक पहुंचा दिया। क्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का ढिंढोरा पीटनेवाला देश अपनी धरती पर एक लेखक को सुरक्षा प्रदान नहीं कर सकता है? 

सलमान रश्दी पर हमले के बाद दूसरा महत्वपूर्ण प्रश्न ये उठता है कि कोई मजहबी नेता या मजहबी रहनुमा किसी की हत्या का फतवा कैसे जारी कर सकते हैं। इस्लाम में कई बार ये देखने को मिलता है कि ईशनिंदा के आरोप में मौत का फतवा जारी कर दिया जाता है। मौत का फतवा जारी करने के साथ ही इनाम की घो]षणा भी की जाती है। अयातुल्ला खोमैनी ने जब सलमान रश्दी की मौत का फतवा जारी किया था तब भी मारनेवाले को भारी भरकर रकम इनाम में देने की बात की गई थी। ये सब धर्म की आड़ में किया जाता है। अमेरिकी मीडिया में छप रही खबरों के मुताबिक सलमान रश्दी पर हमला करनेवाला हादी मतर इस्लामिक रिवोल्यूशनरी गार्ड्स नामक संस्था का सदस्य है। इंटरनेट मीडिया पर उपलब्ध उसके परिचय में शिया उग्रवादी संगठनों से संबंध का शक भी है। अब किस तरह से हादी मतर को रैडिकलाइज किया गया कि वो भीड़ के बीच किसी की जान लेने चला गया। 

सलमान रश्दी अकेले नहीं हैं जिनपर ‘द सैटेनिक वर्सेस’ की वजह से हमला हुआ है। द सैटेनिक वर्सेस से जुड़े कई लोगों पर हमले हुए। एक व्यक्ति की तो जान भी गई। 1991 में सलमान की इस पुस्तक का इटालियन में अनुवाद करनेवाले एत्तोरे कैपरियोलो पर मिलान में हमला हुआ। उनके भी गले, हाथ और छाती पर चाकू से वार कर उनको बुरी तरह से घायल कर दिया गया था। 1991 में ही सैटेनिक वर्सेस का जापानी में अनुवाद करनेवाले  हितोशी इहारशी की चाकू मारकर हत्या कर दी गई। उनका शव जापान के एक विश्वविद्यालय के परिसर में मिला था। इसके दो साल बाद नार्वे में उस प्रकाशक पर हमला हुआ जिसने नार्वे में ‘द सैटेनिक वर्सेस’ का प्रकाशन किया था। उनको उनके घर के सामने गोली मारी गई थी जिसमें वो बुरी तरह से जख्मी हो गए थे। इन वारदातों के बाद सलमान रश्दी की सुरक्षा और बढ़ा दी गई थी। अगर नार्वे की घटना को छोड़ दिया जाए तो सभी हमले लगभग एक ही तरीके से किए गए हैं यानि गले पर वार। ऐसा प्रतीत होता है कि हर हमलावर सर को तन से जुदा करने की कोशिश में गले पर वार करता है। 

अब अगर हम अपने देश में सलमान रश्दी पर हुए हमले पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रगतिशील पैरोकारों की प्रतिक्रिया को देखते हैं। लगभग हर जगह इसके लिए धर्मांधता को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है, बिना उस धर्म का नाम लिए। जावेद अख्तर ने सलमान पर हमला करनेवाला को ‘किसी कट्टरपंथी’ कहा। उन्होंने हमलावर का नाम और पहचान सामने आने के बाद से चुप्पी साध ली है। हमलावर को इस्लामी कट्टरपंथी कहने में इनके हाथ कांपने लगते हैं, उंगलियां सुन्न हो जाती हैं। अगर कोई अपराधी हिंदू होता है तो उसको हिंदू धर्मांध या हिंदू फैनेटिक कहने में देर नहीं करते हैं। सलमान रश्दी पर हमले के ठीक पहले उन्होंने एक रिट्वीट किया है जिसमें अक्षय कुमार को कनाडा कुमार बताकर उनका मजाक उड़ाया गया है और आमिर खान की इस बात के लिए प्रशंसा की गई है कि उसने अपनी फिल्म पाकिस्तान में रिलीज करने के मना कर दिया था। जावेद अख्तर भी बहुधा नैतिकता की मीनार पर खडे होकर अपनी निष्पक्षता का ढिंढोरा पीटते रहते हैं लेकिन समय आने पर उनकी निष्पक्षता का ढोंग उजागर हो जाता है। कई वामपंथी बुद्धिजीवी सलमान पर हुए हमले को लेकर बहुत हल्की प्रतिक्रिया दे रहे हैं। हमलावर को धर्मांध कहने से इस समस्या का समाधान नहीं निकलनेवाला है। धर्मांध कहकर तो अपराध कम करते हैं। अपराधी के कुकर्मों पर धर्म का परदा डालने की कोशिश करते हैं। 

किसी भी अपराधी को धर्मांध बनाता कौन है इसपर विचार करना होगा, उन कारकों को चिन्हित करना होगा, उन स्थितियों की पहचान करनी होगी जिसमें कोई किसी की जान लेने की हद तक चला जाता है। प्रगतिशील बुद्धिजीवियों को इन कारणों पर विचार करके मुखर होना पड़ेगा अन्यथा उनकी प्रतिक्रिया रस्म अदायगी बनकर रह जाएगी। वैसे इस जमात से इस प्रकार की अपेक्षा रखना व्यर्थ है क्योंकि निर्वासित बंगालादेशी लेखिका तस्लीमा नसरीन के मसले पर इन्होंने कभी कुछ नहीं बोला। जब बंगाल की वामपंथी सरकार ने उनको पर्याप्त सुरक्षा नहीं दी या जब ममता सरकार ने उनको अपने राज्य में रखने से मना कर दिया, तब भी इन प्रगतिशीलों ने अपने मुंह सिल लिए थे। मेरे जानते दुनिया में इस्लाम अकेला ऐसा मजहब है जिसके माननेवालों के बीच मौत के फतवे की अवधारणा है। धर्म की आड़ में जिस तरह से हत्या होती है उसके बारे में मुस्लिम समाज के रहनुमाओं को भी विचार करना होगा। साहस के साथ इसके विरोध में अपनी आवाज बुलंद करनी होगी। ईशनिंदा की सजा मौत की लगातार मजबूत होती जा रही अवधारणा पर न केवल विचार करने की आवश्यकता है बल्कि इसका निषेध भी समय की मांग है। इसके लिए मुस्लिम समाज को अपने मजहब में व्यापक स्तर पर धार्मिक सुधार की आवश्यकता है। वैज्ञानिक तरीके से अपने मजहबी विचारों की व्याख्या करने की जरूरत है। आधुनिक और सभ्य समाज में कानून और संविधान से बाहर जाकर मौत की सजा देने का अधिकार किसी को नहीं है। इस बात को प्रचारित प्रसारित करना होगा। यह काम आसान प्रतीत नहीं होता है। लेकिन आज नहीं तो कल इसपर काम करना ही पड़ेगा। बेहतर है कि इस कार्य को शीघ्र आरंभ कर दिया जाए, ताकि कम से कम लोगों की जान जाए और जो दहशत में जी रहे हैं उनको खुली हवा में सांस लेने का अवसर मिल सके। 

Saturday, August 6, 2022

प्रेमचंद ने उर्दू में लिखना क्यों छोड़ा?


हिंदी में कथा सम्राट के नाम से प्रसिद्ध प्रेमचंद के कृतित्व और व्यक्तित्व को लेकर हिंदी में विपुल लेखन हुआ है। उनकी रचनाओं को आधार बनाकर देशभर के विश्वविद्यालयों में सैकड़ों शोध हुए हैं। इस बारे में भी सैकड़ों लेख लिखे गए कि कैसे प्रेमचंद गरीबों और किसानों की समस्याओं को अपनी रचनाओं में स्थान देते थे। उनकी रचनाओं में गरीबों और किसानों की समस्या के चित्रण के आधार पर उनकी प्रगतिशीलता और जनपक्षधरता को भी रेखांकित किया जाता रहा है। इस बात का उल्लेख भी मिलता है कि प्रेमचंद पहले उर्दू में नवाबराय के नाम से लिखते थे। कई जगह इस बात का उल्लेख मिलता है कि जुलाई 1908 में कानपुर से सोजेवतन नामक उनके पहले कहानी संग्रह का प्रकाशन हुआ था। इस संग्रह में प्रकाशित देशप्रेम की कहानियों को अंग्रेजों ने आपत्तिजनक माना था। तब कानपुर के कलक्टर ने उनको बुलाकर फटकारा था और कहा था कि अगर मुगलों का राज होता तो तुम्हारे दोनों हाथ काट लिए जाते। तुम्हारी कहानियां एकांगी हैं और तुमने अंग्रेजी राज की तौहीन की है। कलक्टर ने कहानी संग्रह को जब्त कर उसमें आग लगवा दी थी। फिर पुलिस के अफसरों के साथ कलेक्टर ने मीटिंग की जिसमें ये निष्कर्ष निकाला गया कि कहानियां राजद्रोह की श्रेणी में आती हैं। प्रेमचंद ने लिखा- ‘पुलिस के देवता ने कहा कि ऐसे खतरनाक आदमी को जरूर सख्त सजा देनी चाहिए।‘ मामला किसी तरह रफा दफा हुआ। उनको चेतावनी दी गई थी कि वो अपनी रचनाएं प्रकाशन पूर्व प्रशासन को दिखवा लिया करें। कहानी संग्रह की जब्ती और अंग्रेज कलेक्टर की फटकार के बाद नवाबराय ने प्रेमचंद के नाम से हिंदी में लिखना आरंभ कर दिया। इस तरह के आलेखों में ये बताया जाता रहा है कि इस कारण से ही प्रेमचंद ने उर्दू में लिखना बंद कर दिया। लेकिन ये सत्य नहीं बल्कि अर्धसत्य है। इस बात की चर्चा कम होती है कि प्रेमचंद ने जब ‘कर्बला’ नाम का नाटक लिखा था तो उसका उस दौर के मुस्लिम लेखकों ने जमकर विरोध किया था। ये तर्क दिया गया था कि हिंदू लेखक मुसलमानों के इतिहास को आधार बनाकर कैसे लिख सकते हैं। प्रेमचंद इस तरह की बातों के आधार पर अपनी आलोचना से बेहद खिन्न हुए थे। इस बात की चर्चा हिंदी के प्रगतिशील लेखकों ने बिल्कुल ही नहीं की है बल्कि उनके जीवनीकार ने भी इसका उल्लेख नहीं किया। कमलकिशोर गोयनका जैसे प्रेमचंद साहित्य के अध्येता इस बात को रेखांकित करते रहे हैं। 

अब देखते हैं कि प्रेमचंद ने स्वयं उर्दू में नहीं लिखने का क्या कारण बताया है। 1964 में साहित्य अकादमी से एक पुस्तक प्रकाशित हुई थी जिसका नाम है प्रेमचंद रचना संचयन। इस पुस्तक का संपादन निर्मल वर्मा और कमलकिशोर गोयनका ने किया था। इस पुस्तक में 1 सितंबर 1915 का प्रेमचंद का अपने मित्र मुंशी दयानारायण निगम को लिखे एक पत्र का अंश प्रकाशित है। इस पत्र में प्रेमचंद ने लिखा है, ‘अब हिंदी लिखने की मश्क (अभ्यास) भी कर रहा हूं। उर्दू में अब गुजर नहीं। यह मालूम होता है कि बालमुकुंद गुप्त मरहूम की तरह मैं भी हिंदी लिखने में जिंदगी सर्फ (खर्च) कर दूंगा। उर्दू नवीसी में किस हिंदू को फैज (लाभ) हुआ है, जो मुझे हो जाएगा।‘  इस वाक्यांश को ध्यान से समझने की आवश्यकता है, उर्दू में अब गुजर नहीं है और उर्दू नवीसी में किस हिंदू को लाभ हुआ है। इससे प्रेमचंद के आहत मन का पता चलता है कि वो उर्दू वालों या अपने समकालीन मुसलमान लेखकों के विरोध से कितने खिन्न थे। वो स्पष्ट रूप से प्रश्न की शक्ल में कह रहे थे कि उर्दू में लिखने से किसी हिंदू को लाभ नहीं हो सकता । प्रेमचंद के इस आहत मन को प्रगतिशील आलोचकों और लेखकों ने या तो समझा नहीं या समझबूझ कर योजनाबद्ध तरीके से दबा दिया। इस बात की संभावना अधिक है कि जानबूझकर इस प्रसंग को नजरअंदाज किया गया। प्रेमचंद को प्रगतिशील जो साबित करना था। जानबूझकर इस वजह से क्योंकि प्रेमचंद से संबंधित कई तथ्यों को ओझल किया गया। नई पीढ़ी को ये जानना चाहिए कि 1920 में प्रकाशित कृति ‘वरदान’ को प्रेमचंद ने राजा हरिश्चंद्र को समर्पित किया था। उसको बाद के संस्करणों में हटा दिया गया। इसी तरह प्रेमचंद के कालजयी उपन्यास ‘गोदान’ का नाम ही बदल दिया गया। पंडित जनार्दन झा ‘द्विज’ ने अपनी ‘पुस्तक प्रेमचंद की उपन्यास कला’ में स्पष्ट किया है कि प्रेमचंद ने पहले अपने उपन्यास का नाम गौ-दान रखा था। द्विज जी के कहने पर उसका नाम गो-दान किया गया। गो-दान 1936 में सरस्वती प्रेस, बनारस और हिंदी ग्रंथ-रत्नाकर कार्यालय, बंबई (अब मुंबई) से प्रकाशित हुआ। लेकिन आज जो उपन्यास उपलब्ध हैं उसका नाम गोदान है। गो और दान के बीच के चिन्ह को हटाकर इसको मिला दिया गया। प्रेमचंद की रचनाओं में भी बदलाव किए गए जिसके प्रमाण उपलब्ध हैं। 

प्रेमचंद के उपरोक्त कथन कि उर्दू में लिखने से किसी हिंदू को लाभ नहीं हो सकता, में उपेक्षा का दर्द है और वो दर्द कालांतर में हिंदी-उर्दू संबंध में भी दिखता है। प्रगतिशीलों ने उर्दू में हिंदू लेखकों की उपेक्षा को अपने लेखन में प्रमुखता नहीं दी और उर्दू के पक्ष में खड़े होकर गंगा-जमुनी तहजीब के विचार को प्रमुखता देते रहे। यह अनायास नहीं है कि उर्दू लेखकों को जितना मान-सम्मान और स्थान हिंदी साहित्य में मिला उस अनुपात में हिंदी लेखकों को उर्दू में नहीं मिल पाया। उर्दू के तमाम शायर इकबाल से लेकर फैज तक देशभर में तब लोकप्रिय हो पाए जब उनके दीवान देवनागरी लिपि में छपकर आए। उर्दू वालों ने ये सह्रदयता हिंदी के लेखकों को लेकर नहीं दिखाई। निराला, दिनकर, पंत आदि की रचनाओं का उर्दू में अपेक्षाकृत कम अनुवाद हुआ। अंग्रेजों के साथ मिलकर उर्दू ने करीब सौ सालों तक हिंदी को दबाने का काम किया। उन्नसवीं सदी के आखिरी वर्षों में जब हिंदी अपने अधिकार की लड़ाई लड़ रही थी तो सर सैयद अहमद ने अलीगढ़ में ‘उर्दू डिफेंस एसोसिएशन’ नाम की संस्था बनाई। इसी तरह जब 1900 में संयुक्त प्रांत के गवर्नर मैकडानल ने हिंदी को उर्दू के बराबर दर्जा देने की घोषणा की तो सर सैयद के उत्तराधिकारी मोहसिन उल मुल्क ने इसका विरोध किया था। ये बातें नामवर सिंह भी स्वीकार करते थे। लेकिन नामवर के इस स्वीकार का भी प्रचार प्रसार नहीं हो पाया और उसको दबा दिया गया। कहना न होगा कि प्रगतिशील विचार के झंडाबरदार हर उस विचार को दबा देते थे जिससे उर्दू और उर्दू वालों की छवि हिंदी और हिंदीवालों के विरोध की बनती थी। 

स्वाधीनता के अमृत महोत्सव वर्ष में या अमृतकाल में प्रेमचंद के साथ हुए इन छल के दोषियों को चिन्हित करना चाहिए। चिन्हित करने के साथ-साथ प्रेमचंद की रचनाओं को मूल स्वरूप में लाकर उनका समग्रता में मूल्यांकन भी होना चाहिए। साहित्य अकादमी  लेकर प्रेमचंद के नाम पर बनी संस्थाएं और विष्वविद्यालयों के हिंदी विभागों का ये उत्तरदायित्व है कि वो अपने पूर्वज लेखक की रचनाओं के साथ हुए इस अनाचार को दूर करने की दिशा में ठोस और सकारात्मक पहल करें। एक लेखक जिसका मन हिंदू धर्म में पगा है, जो अपनी रचनाओँ में भारत और भारतीयता की बात करता है, जो बच्चों के लिए रामचर्चा जैसी कथा पुस्तक लिखता है, जो स्वामी विवेकानंद को उद्धृत करता है उसको मूल रूप में पुनर्स्थापित किया जाए। प्रेमचंद को मार्क्सवाद की जकड़न से आजाद करवाने के लिए सांस्थानिक प्रयत्व किए जाने की आवश्यकता है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति के क्रियान्वयन के लिए बनाए जानेवाले पाठ्यक्रमों में प्रेमचंद के वास्तविक स्वरूप को छात्रों को पढ़ाया जा सके, इसकी व्यवस्था की जानी चाहिए।