Translate

Wednesday, January 31, 2018

'काली करतूतों के अलावा सब ईमानदारी से लिखा'


सुरेन्द्र मोहन पाठक हिंदी में सबसे ज्यादा पढे जाने वाले लेखकों में से एक हैं। अब तक उनकी 298 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं और भारत में अपराध कथाओं के बेताज बादशाह माने जाते हैं। आगामी फरवरी के पहले सप्ताह में उनकी आत्मकथा ना बैरी ना कोई बेगानाप्रकाशित होने जा रही है। अपनी आत्मकथा के प्रकाशन के पूर्व उन्होंने मुझसे खास बातचीत की।

प्रश्न- अपराध कथाएं या जासूसी उपन्यास लिखते लिखते आत्मकथा लिखने का ख्याल कैसे आया?

उत्तर- ख्याल मुझे नहीं आया, मेरी एडिटर मीनाक्षी ठाकुर को आया। उसने ना सिर्फ मुझे बायो लिखने को कहा- कहा, पूछा नहीं कि मैं लिख सकता हूं या नहीं और प्रस्ताव को प्रकाशकीय मजबूती देने के लिए एडवांस में कांट्रैक्ट भी भेज दिया। तब मुझे गंभीरता से अपने अंतर को टटोलना पड़ा कि क्या मैं बायो लिख सकता था, क्या मेरी गुजरी जिंदगी में ऐसा गैरमामूली कुछ घटित हुआ था कि उसे बायो में समेटा जा सकता ! मुझे ऐसा कुछ दिखाई ना दिया। जो दिखाई दिया वो इतना था कि 50-60 पृष्ठों में चुक जाता। असमर्थता दिखाने की जगह मैंने फैसला किया कि लिखना शुरू करता हूं, कुछ बन पड़ा तो ठीक वर्ना हाथ खड़े कर दूंगा। जब कलम चली तो मेरे सामने 1200 प्रिटेंड पेजे का व्यापक मैटर था। मेरा ईश्वर ही जानता है कि कौन सा शैतान मुझपर सवार हुआ जो कि मैं एक गैरवाकिफ सब्जेक्ट पर एकमुश्त इतना लिख पाया। 

प्रश्न- आपने अपनी आत्मकथा का नाम ना बैरी ना कोई बेगाना रखा है, इसके पीछे की सोच क्या है?

उत्तर- ना बैरी ना कोई बेगाना नाम गुरू गोविंद सिंह के एक वाक पर आधारित है। जो कहता है न कोई बैरी नहीं बिगाना, सगल संग हम को बनि आयी। मैंने अपनी गुजरी जिंदगी को रिव्यू किया तो उसमें मुझे ना कोई दुश्मन दिखाई दिया, न कोई गैर लगा, इस सबमें कोई खामी पायी तो खुद में पायी। लिहाजा मैंने वाक के एक हिस्से को टाइटल के लायक बनाने के लिए और संक्षिप्त किया और बायो के पहले खंड का नाम ना बैरी ना कोई बेगाना रखा । ये मेरे पाठकों की जानकारी में आते ही फौरन क्लिक कर गया और ये नाम फाइनल हुआ। वर्ना संपादक का पसंदीदा नाम पाठकनामा था।

प्रश्न- चंद दिनों में आपकी आत्मकथा प्रकाशित होनेवाली है। आपने अपनी आत्मकथा में सैमुअल गोल्डविन को कोट किया है जो कहते हैं कि आत्मकथा मरने के बाद प्रकाशित होनी चाहिए। लेकिन आपने तो लिख डाला?

उत्तर- सैमुअल गोल्डविन की उक्ति आई डोंट थिंक एनीवन शुड राइट देयर आटोबॉयोग्राफी अनटिल आफ्टर दे आर डेड व्यंग्यात्मक है। इसका अर्थ ये है कि जीते जी बायो लिखना बेतहाशा दुश्मन बनाने का आसान तरीका है। प्रशस्तिगान से तो बायो नहीं बनती, बनती है तो पठनीय नहीं बनती। बायो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर लेखक का दखल बनाती है, अब अगर वो अभिव्यक्ति का वक्त आने पर अपने हाथ मर्यादाओं से, लोकलाज से बंधा पाता है तो कैसी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता? अगर आप आप किसी को भड़काने, आंदोलित करने के लिए स्वतंत्र नहीं हैं तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के कोई मायने ही नहीं रहते । कोई माई का लाल किसी को राजी नहीं कर सकता, विवादास्पद कुछ लिखा जाएगा तो निंदक तो बनेंगे ही। शाद इसलिए सैम गोल्डविन का इशारा है कि आत्मकथा को मरणोपरांत छपना ही बेहतर होता है। तब कोई कहनेवाले की जुबान नहीं पकड़ सकता है, जबकि जीवन काल में लिखी गई आत्मकथा का तीव्र विरोध होना, कोर्ट कचहरी तक होना आम बात है।

प्रश्न- आपने अपनी पत्नी की वॉर्निंग और पुत्री की चेतावनी के बाद आत्मकथा लिखने का जोखिम उठाया । कैसे मनाया उन दोनों को ?

उत्तर- पत्नी और पुत्री की वार्निंग अकादमिक थी, जिसका मंतव्य मुझे उस अंजाम से खबरदार करना था जो करीबी रिश्तेदारों, दोस्तों के बारे में कुछ खराब लिखने से मेरा हो सकता था। बायो में मैंने गढ़ी हुई कोई बात नहीं लिखी, वही लिखा जो मेरे साथ घटित हुआ। विवादास्पद बातों के मेरे पास दस्तावेजी सबूत है। इसलिए मुझे यकीन है कि किसी का ये कहने का मुंह नहीं बनेगा कि मैंने गलत लिखा या बढ़ा चढ़ा कर लिखा। अगर ऐसी कोई बात लिखना गलता है, तो उसे कहना गलत क्यों नहीं है। कहकर डैमेज कर चुकने के बाद उसके कलमबद्ध बयान पर सेंसर लगाना मैं नहीं समझता कि ठीक है। ये तो यों होगा कि जबरा मारे पर रोने ना दे।   

प्रश्न- आपकी पत्नी और बेटी ने आत्मकथा के कुछ अंशों को सेंसर किया या नहीं?

उत्तर- कुछ सेंसर नहीं किया, सब ठीक-ठाक पाया। अलबत्ता अगले भाग में ऐसी नौबत आ सकती है क्योंकि उसमें परिपक्व जीवन के किस्से हैं और तब के हैं जब मेरे सामाजिक सरोकरों में बहुत विविधता आ चुकी थी। तब शायद कुछ बातों पर ऐतराज हो लेकिन वो ऐतराज मुझे कुबूल नहीं होगा। इसलिए क्योंकि जो मैंने लिखा है, ईमानदारी से लिखा है, उसमें फैवरिकेटेड कोई बात नहीं है।

प्रश्न- आपने अपने बचपन को जीवन का बेहतरीन हिस्सा कहा है, कोई खास वजह जबकि उस दौर में आपने विभाजन का दंश झेला?

उत्तर- बचपन इग्नोरेंस का दौर होता है। बच्चा उन बातों को नहीं समझता जो वयस्कों के लिए गंभीर होती हैं। इसलिए अंजाम से बेखबर होता है। विभाजन का दौर मैंने देखा लेकिन उसकी विभीषिका को समझने की मेरी उम्र नहीं थी। बचपन मां-बाप की छत्रछाया का सुख पाने का वक्त होता है– कुछ बुरा होता है तो मां बाप झेलते हैं, अच्छा होता है तो बच्चा उसका सुख पाता है। इन बातों में फर्क करना कभी बच्चे का सरोकार नहीं बन पाता है। बच्चे के लिए ये बड़ी घटना है कि उसका खिलौना टूट गया, न कि ये कि देश का विभाजन हो गया। इसलिए मैंने बचपन को जिन्दगी का बेहतरीन हिस्सा करार दिया है।  

प्रश्न- अपने जवानी के बारे में लिखते हुए आप कहते हैं कि जुल्म सहने से भी जालिम की मदद होती है। ये व्यवस्था के प्रति गुस्सा है या आजादी से मोहभंग का दर्द ?

उत्तर- सकल संसार इस बात से सहमत है कि जुल्म सहने से जालिम की मदद होती है। बुराई की जीत इसलिए भी होती है क्योंकि सच्चाई ने विरोध के लिए सामने आना जरूरी न समझा। बुरा उम्मीदवार इसलिए चुनाव जीत जाता है क्योंकि अच्छे वोटर वोट देने नहीं जाते। जुल्म सारी दुनिया में होता है, ऐसा न होता तो अमेरिका में माफिया की समांतर सरकार न चल रही होती। फर्क ये है कि बाहर इन ताकतों का अनुपात बहुत कम है जबकि हमारे यहां ये ज्यादा है । कोई माई का लाल, वो दुनिया के किसी हिस्से में हो, बुराई का समूल नाश नहीं कर सकता, लेकिन विरोध तो कर सकता है। मुझे क्या, मेरे साथ तो ना हुआ वाली प्रवृत्ति को को तिलांजलि दे सकता है। आपको जुल्म से ऐतराज ना होना इस बात का सबूत है कि आप जुल्म का शिकार होने के लिए बैठे हैं।

प्रश्न- लगभग चार सौ पन्नों की अपनी आत्मकथा में आपने कितना बताया और कितना छुपाया?

उत्तर- कुछ नहीं छुपाया। सबकुछ बहुत ईमानदारी से कलमबद्ध किया, फिर भी उन बातों को नजरअंदाज किया जो मेरी बहुत ही काली करतूतों से संबंधित थीं और जो मेरे करीबियों की निगाह में मुझे शैतान ठहरा सकती थी। मैं उम्मीद करता हूं कि अभी चंद और साल मुझे जीना है और बाकी का जीवन अपने पर कालिख पोत कर जियूं ये तो ठीक न होगा। लिहाजा मैं ने अपनी जिंदगी की बहुत सी अन्दरुनी , छवि को धव्स्त करनेवाली बातों से परहेज किया। कहते हैं कि आज तक दो ही बायो ईमानदारी से लिखी गई, एक महात्मा गांधी की और दूसरी रूसो की। मेरे जैसा निहायत मामूली इंसान बायो लिखने के सिलसिले में कैसे इन महान विभूतियों जैसा हैसला अपने आप में पैदा कर सकता है ? ऐसी बातें लिखने का हौसला क्योंकर मैं दिखा सकता हूं कि बीबी नफरत करने लगे, औलाद हिकारत से देखने लगे।

प्रश्न- आपका उपन्यास हीराफेरी दैनिक जागरण बेस्टसेलर में नंबर वन पर रहा है। दैनिक जागरण बेस्टसेलर को लेकर आपकी क्या राय है

उत्तर- ये अच्छी शुरुआत दैनिक जागरण ने की है जो लेखन के क्षेत्र में हिन्दी लेखकों की औकात बनाने में ही कारगर नहीं होगी, हिन्दी की भी औकात बनाने में कारगर होगी जो कि वर्तमान में संदिग्ध है। इस मुबारक कदम के दूरगामी नतीजे आने में अभी वक्त लगेगा। इसका उदाहरण मैं खुद हूं। मैंने इतना कामयाब उपन्यास लिखा जिसे अमेजन ने भी 2017 में बेस्टसेलर करा दिया लेकिन फिर भी हीराफेरी का प्रकाशक अब मेरा प्रकाशक नहीं है। उसे अपने ही छापे उपन्यास की कामयाबी से कुछ लेना देना नहीं है। लेखक उसके लिए पहले भी नोबॉडी था और अब भी नोबॉडी है। ये हिन्दी लेखक का ही नहीं बल्कि हिंदी का भी अपमान है। बाहरी मुल्कों में कोई रचना बेस्टसेलर घोषित होती है तो उसका प्रकाशक तुरंत उसका नया संस्करण प्रकाशित करता है जिस पर इस बात पर जोर देती टैगलाइन होती है और दूसरे वो ग्रंथ कई भाषाओं में अनुवाद के अनुबंधित हो जाती है। यहां ऐसा कुछ नहीं होता, न निकट भविष् में होनेवाला है। शायद आगे चलकर कुछ हो। 

Monday, January 29, 2018

हिंदी में प्रकाशन महत्वपूर्ण- थरूर


शशि थरूर की राजनेता के अलावा एक विशिष्ट लेखक की भी पहचान है। उनकी अबतक 15 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। अभी हाल ही में वाणी प्रकाशन से उनकी हिंदी में एक पुस्तक अंधकार काल, भारत में ब्रिटिश साम्राज्य प्रकाशित हुई है। एक और अन्य पुस्तक मैं हिंदू क्यों हूं, भी हिंदी में प्रकाशित होनेवाली है। हिंदी में पुस्तकों का प्रकाशन और संयुक्त राष्ट्र में हिंदी का आधिकारिक भाषा का दर्जा दिलाने का विरोध। इन सारे मुद्दों पर डॉ शशि थरूर ने मुझसे खुलकर बातचीत की।  

प्रश्न- सबसे पहले तो हिंदी में आपकी किताब प्रकाशित होने पर मेरी बधाई स्वीकारें। हिंदी में छपने का विचार कैसे आया
थरूर- धन्यवाद। मेरा मानना है कि गुलामी या परतंत्रता के जो हमारे अनुभव रहे हैं वो हमारे पाठकों तक उनकी अपनी भाषा में पहुंचे। हिंदी में मेरी पुस्तक के प्रकाशित होने से इस वजह से मैं बहुत खुश हूं। हलांकि मैंने इस पुस्तक को मूल रूप में अंग्रेजों की भाषा में ही लिखा है लेकिन अब तो अंग्रेजी भी भारतीय भाषा बन चुकी है। फिर भी लाखों लोग इस पुस्तक के संदेश को तबतक समझ नहीं सकते जबतक कि वो उनकी मातृभाषा में ना हो। इस लिहाज से हिंदी में इसका प्रकाशन मेरे लिए महत्वपूर्ण है ।
प्रश्न- संयुक्त राष्ट्र में हिंदी को आधिकारिक भाषा बनाने का आपने संसद में विरोध किया। अगर ऐसा होता है तो क्या इस पर भारतीयों को गर्व नहीं होगा?
थरूर- देखिए इस मसले पर मेरा रुख तीन तर्कों पर आधारित है। पहला तो ये कि अबतक अगर हिंदी संयुक्त राष्ट्र की भाषा की आधिकारिक भाषा नहीं बन पाई तो देश को क्या नुकसान हुआ? जब वाजपेयी जी, मोदी जी या सुषमा जी चाहती हैं कि संयुक्त राष्ट्र में हिंदी में भाषण दें तो वो ऐसा करते ही हैं। होता यह है कि उस वक्त कोई भारतीय राजनयिक उनके भाषण का अंग्रेजी अनुवाद करता है जो संबंधित देशों की भाषा में अनुदित हो जाती है। दूसरा ये कि संयुक्त राष्ट्र में बोलने का उद्देश्य पूरी दुनिया तक अपने विचारों को पहुंचाना होता है। जब एक भारत की एक आधिकारिक भाषा, अंग्रेजी, वहां समझी जा रही है तो फिर दूसरी को लाने का मतलब क्या है? मेरा मानना है कि जो भी भारतीय नेता संयुक्त राष्ट्र में हिंदी बोलता है वो अपने देश की जनता से बात कर रहा होता है, पूरी दुनिया से नहीं। मैं जानना चाहता हूं कि क्या अरुण जेटली विश्व बैंक की बैठकों में हिंदी में बात करते हैं? क्या वो हिंदी में बात करके उतने प्रभावी रह पाएंगें। तीसरी और अंतिम बात कि सुषमा जी के लिए ये सुविधाजनक है कि वो संसद में ये बयान दें कि सरकार हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा बनाने के लिए 400 करोड़ देने को तैयार है। लेकिन हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि हमारा देश बहुभाषी है और हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा नहीं है। उस स्थिति की कल्पना कीजिए जब कोई गैर हिंदी भाषी देश का प्रधानमंत्री या विदेश मंत्री बनेगा!
प्रश्न- हिंदी का विरोध करके क्या आप 2019 के लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखकर भाषाई राजनीति करना चाहते हैं?
थरूर – 2019 का चुनाव लड़ने के लिए कई अन्य महत्वपूर्ण मुद्दे हैं। मोदी सरकार की नाकामी, अर्थव्वस्था की पतली हालत, पेट्रोल, डीजल और गैस के दामों में इजाफा, युवाओं के सामने बेरोजगारी की समस्या आदि। पर आपको बता दूं कि हिंदी पर मेरा जो स्टैंड है वो दक्षिण भारत में बहुत लोकप्रिय है। सिर्फ वहीं नहीं बल्कि पूरे देश में जो लोग हिंदी, हिंदू और हिन्दुत्व की राजनीति के विरोधी हैं उन्होंने भी मेरे रुख का समर्थन किया है। मेरा मत बिल्कुल साफ है कि किसी पर कोई भाषा थोपी नहीं जानी चाहिए।
प्रश्न- अंधकार काल जैसी ऐतिहासिक किताब लिखने की योजना कैसे बनी और इसके लिए कितना रिसर्च करना पड़ा?
थरूर- देखिए आपको बताऊं कि 15 मिनट का भाषण देना एक बात है और करीब साढे तीन सौ पेज की किताब लिखना अलग। मेरे सामने जो सबसे बड़ी चुनाती थी वो ये कि मैंने जो बोला उसको विस्तार से तर्कों और तथ्यों के साथ प्रस्तुत करूं। इसके लिए गहन शोध की जरूरत थी।मैं चाहता था कि तिथियां सही हों, तथ्य ठोक बजाकर रखे जाएं, आंकड़े त्रुटिहीन हों। इस वक्त ये करना सत्तर के दशक की तुलना में आसान है जब मैंने पीएचडी की थी। अभी तो 18वीं और 19वीं शताब्दी के दस्तावेज से लेकर किताबें तक ई फॉर्मेट में उपलब्ध है । जब मैंने लिखना शुरू किया तो मुझे मालूम था कि क्या लिखना है लेकिन मुझे उसके समर्थन में अकाट्य तथ्यों को जुटाना था। पुरानी पुस्तकों के अलावा मैंने इस वक्त के विद्वानों के इस विषय के लेखन को खंगाला और उसको पढ़ा।
प्रश्न- आपकी 15 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं, अंधकार काल और पूर्व की पुस्तकों को लिखने के दौरान क्या फर्क महसूस किया आपने?
थरूर- अंधकार काल इस मायने में अलहदा है कि इसको लिखने की वजह मेरा एक भाषण बना। पूर्व की मेरी सारी पुस्तकें मेरी सोच और योजना का मूर्तरूप हैं। इस बार मैं अपने सार्वजनिक भाषण के समर्थन में पुस्तक लिखने बैठा था। हां और जैसा कि मैंने उपर कहा कि इस पुस्तक में मेरे शोध का स्तर मेरे पूर्ववर्ती शोध से काफी गहन रहा। अपनी पीएचडी थीसिस के बाद इतना गहन शोध मैंने नहीं किया था।

प्रश्न- आपने अपनी किताब अंधकार काल में विस्तार से इस बात का निषेध किया है कि लोकतंत्र और राजनीतिक एकता अंग्रेजों की देन है। दैनिक जागरण के पाठकों को इस बारे में बताइए।
थरूर- सबसे पहले मैं ये बात साफ कर दूं कि आइडिया ऑफ इंडियाकी परिकल्पना आइडिया ऑफ ब्रिटेन से काफी पहले का है। हमारे वेदों में भारतवर्ष की भौगोलिक सीमा हिमालय से लेकर समुद्र तक बताई गई है । हमारे जो भी शासक रहे हैं, चाहे वो 2400 साल पहले के चंद्रगुप्त मौर्य हों या 300 साल पहले के औरंगजेब, सभी की ख्वाहिश इस भूभाग पर राज करने की रही। भारतीय इतिहास में, चाहे वो मौर्य हों, गुप्त हों या मुगल हों, जिस तरह की राजनीतिक एकता की ललक दिखाई देती है उसके मद्देनजर ये कहा जा सकता है कि अगर अंग्रेज भारतीय उपमहाद्वीप को एक सूत्र में नहीं बाधते तो मराठा या कोई अन्य जोड़ता। मराठा और मुगलों के संबंध को देखकर हम ये कह सकते हैं कि बहुत संभव है कि हमारे यहां भी ब्रिटिशर्स की तरह संवैधानिक राजतंत्र होता। यहां हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि अंग्रेजों ने बांटो और राज करो की नीति के तहत योजनाबद्ध तरीके से हिंदुओं और मुस्लमानों के बीच नफरत के बीज बोए। 1857 की क्रांति के वक्त हिंदुओं और मुसलमानों को कंधे से कंधा मिलाकर लड़ते देख अंग्रेजों को होश फाख्ता हो गए थे। उन्होंने उसी वक्त प्रण किया था कि ऐसा फिर नहीं होने देना है। लॉर्ड एलफिस्टन ने लिखा था बांटो और राज करो के पुराने रोमन सिद्धांत को अपनाना चाहिए। इसी योजना के तहत मुसलमानों के लिए अलग वोटिंग की व्यवस्था की गई थी ताकि मुसलमान सिर्फ मुसलमानों को चुन सकें। आसन्न राष्ट्रीय आंदोलन को कमजोर करने के लिए विभाजन के बीज बोए गए थे।
प्रश्न- एक जगह आप कहते हैं कि महात्मा गांधी का अहिंसा का सिद्धांत अन्य औपनिवेशिक शासन में फल फूल नहीं सकता था, क्यों?
थरूर- भारत की स्वतंत्रता ने औपनिवेशिक काल के खात्मे की शुरुआत की थी लेकिन कई देशों में आजादी के लिए लोगों को बेतरह यातना सहनी पड़ी थी। आंदोलनकारी बूटों से कुचले गए थे, शासकों के कहर से बचने के लिए लोगों को घर बार छोड़कर भागना पड़ा था। खूनी संघर्ष हुए थे। अहिंसा उस तरह के माहौल के लिए उचित नहीं था। अहिंसा का सिद्धांत वहीं काम कर सकता है जहा के शासक नैतिकता की और राष्ट्रीय अंतराष्ट्रीय माहौल का लिहाज करते हों। अहिंसा का सिद्धांत हिटलर के खिलाफ नहीं चल सकता था। जहां गैस चैंबर जैसी यातना का प्रावधान हो वहां अहिंसा के सिद्धांत की सफलता संदिग्ध रहती है। स्टालिन और माओ के राज में गांधी का ये सिद्धांत कारगर नहीं हो सकता है। गांधी के अहिंसा का सिद्धांत वहीं चल सकता है जहां के शासकों की मानसिकता हो कि आप हमें हमारी गलती बताओ हम खुद को सजा देंगे। मुझे इस बात पर कोई आश्चर्य नहीं हुआ था जब नेल्सन मंडेला को रंगभेद के खिलाफ अहिंसा का सिद्धांत अपनाते नहीं देखा जबकि उन्होंने खुद मुझसे कहा था कि गांधी जी उनके लिए हमेशा से विराट प्रेरणा के स्त्रोत रहे हैं। मुंबई पर आतंकी हमले के बाद गांधी का आतंक के खिलाफ एकमात्र विरोध होता उपवास, लेकिन इससे आतंकियों पर क्या कोई फर्क पड़ता । बावजूद इसके गांधी की महानता कम नहीं होती है। महात्मा ने हमें सत्य, अहिंसा और शांति की राह दिखाई। उन्होंने औपनिवेशक शक्तियों की साख पर प्रहार किया था। अहिंसा अन्य दुश्मनों के खिलाफ सफल नहीं हो सकती है ये तथ्य है, मेरी मंशा गांधी का अनादर करना नहीं है।
प्रश्न- आपने ये भी कहा है कि ब्रिटिश प्रधानमंत्री को 2019 में जालियांबाग नरसंहार के लिए माफी मांगनी चाहिए। इस प्रतीकात्मकता से क्या होगा?
थरूर- जालियांवाला बाग अंग्रेजों की बर्बरता का प्रतीक है। जालियांवाला बाग नरसंहार को अंजाम देने के पहले कोई चेतावनी नहीं दी गई। हजारों मासूम औरतों और बच्चों को मौत के घाट उतार दिया गया।  ये कांड अंग्रेजों की स्वशासन देने की वादाखिलाफी को भी दर्शाता है, जिसका वादा उन्होंने प्रथम विश्वयुद्ध के समर्थन के एवज में किया था। बावजूद उस वादे के रॉलेट एक्ट पास किया गया था। इतना ही नहीं इस नरसंहार को अंजाम देनेवाले जनरल डायर को पुरस्कृत किया गया। 13 अप्रैल 2019 को इस बर्बर नरसंहार के सौ साल पूरे हो रहे हैं। अंग्रेजों के पास अपनी बर्बरता पर माफी मांगने का इससे बेहतर अवसर क्या होगा।
प्रश्न- क्या आपको लगता है कि ब्रिटिश कभी भारतीयों से माफी मांगेगे?
थरूर- कुछ दिनों पहले तक मैं भी कहता था कि वो माफी नहीं मांगेंगे क्योंकि अगर वो भारत से माफी मांगेगें तो उनको 130 अन्य देशों से माफी मांगनी होगी। लेकिन वक्त बदलता दिख रहा है। जब मैंने पिछले साल ब्रिटेन में ये मांग उठाई तो आश्चर्यजनक रूप से मुझे सकारात्मक संकेत महसूस हुए। मैंने उनको  कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो का उदाहरण दिया जिसमें उन्होंने कोमगाटा मारू की घटना के लिए माफी मांगी। लेबर पार्टी के सांसद वीरेन्द्र शर्मा ने हाउस ऑफ कामंस में भारत से माफी की मांग उठाई। अगर कोई ब्रिटिश प्रधानमंत्री भारत से माफी मांगने का साहस नहीं जुटा पाता है तो ब्रिटिश रॉयल परिवार को माफी मांगनी चाहिए क्योंकि सारी बर्बरता तो उनके ही नाम पर की गई।
प्रश्न- आपकी नई किताब व्हाई आई एम अ हिंदू अंग्रेजी में प्रकाशित हुई है, क्या इसको भी हिंदी में प्रकाशित करवाने की योजना है?
थरूर- जी, बिल्कुल। मुझे लगता है कि वाणी प्रकाशन इस पुस्तक को भी प्रकाशित करने के लिए उत्सुक है। लेकिन अनुवाद में तो वक्त लगेगा ।


वक्र में तब्दील 'समानांतर'


इस वक्त देश और दुनिया के साहित्यक में जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल को लेकर चर्चा जारी है लेकिन हिंदी साहित्य जगत में जयपुर में ही प्रगतिशील लेखक संघ के आयोजन समानांतर साहित्य उत्सव को लेकर भी बातें हो रही हैं, खासकर फेसबुक पर। दरअसल कुछ दिनों पहले राजस्थान प्रगतिशील लेखक संघ ने साहित्य में बढ़ती अपसंस्कृति के खिलाफ उन्हीं दिनों में जयपुर में लिटरेचर फेस्टिवल आयोजित करने का एलान किया जिन दिनों जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल आयोजित होना था। आयोजन प्रगतिशील लेखक संघ का था इसलिए इसके अध्यक्ष ऋतुराज को इसका संयोजक बनाया गया। इस आयोजन का एलान करते हुए ऋतिराज के जो बयान अखबारों में छपे उसके मुताबिक उनका मानना था कि जयपुर लिट फेस्ट एक व्यावसायिक इवेंट बन गया है जो कि पर्यटन, होटल और प्रकाशन जगत द्वारा स्पांसर किया जाता है। ये पर्यटन सीजन के दौरान चलनेवाला एक तमाशा है जिसमें कथित तौर पर आए सेलिब्रिटी का दर्शक स्वागत करते हैं। उन्होंने तब ये भी कहा था कि समांतर साहित्य महोत्सव युवा लेखकों को नकली और गंभीर लेखन के फर्क को समझने की समझ को भी विकसित करेगा। तो कुल मिलाकर जिस तरह से बयान छपे या इस आयोजन से जुडे लोगों ने फेसबुक पर पोस्ट लिखा उससे ये संदेश गया कि ये जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के विरोध में आयोजित किया जा रहा है। पत्रकार और लेखक ईश मधु तलवार को इस आयोजन का मुख्य समन्वयक और विवादित लेखक कवि कृष्ण कल्पित को फ्सेटिवल का संयोजक नियुक्त किया गया। फेसबुक पर इसका जोरदार प्रचार किया जाने लगा। फेसबुक पर इस फेस्टिवल के सोंजक कृष्ण कल्पित ने अपनी (कु)ख्याति के मुताबिक विवादास्पद पोस्ट लिखने शुरू किए। गधों की फोटो लगाकर उसकी तुलना जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में आमंत्रित लेखकों से की गई। जयपुर में सांस्कृतिक रूप से सक्रिय संदीप भूतोड़िया की पुरानी तस्वीर को लगाकर उनके बयान लिखे जाने लगे। विश्वसीनयता पर सवाल उठे तो उस पोस्ट को डिलीट कर दिया। संयोजक को लेकर लगातार आपत्तियां आने लगी। इस आयोजन के उद्घाटनकर्ताओं और शामिल होनेवाले के नामों को लेकर संशय बना रहा। कई लोगों ने नाम होने के बावजूद आने से इंकार करना शुरू कर दिया। ज्यादातर लोगों की आपत्ति इस फेस्टिवल के संयोजक को लेकर था जिन्होंने पूर्व में लेखिकाओं के खिलाफ बेहद आपत्तिजनक बातें की हैं। अनामिका से लेकर गगन गिल और गीताश्री तक को। हसीनाबाद जैसी उपन्यास लिखकर चर्चित लेखिका गीताश्री ने विरोध का मोर्चा खोला और अपनी फेसबुक पर लिखा- किसी भी समूह या मंडल में कृष्ण कल्पित की उपस्थिति स्त्री गरिमा के लिए संघर्षरत स्त्री लेखिकाओं के लिए भयावह स्मृतियों का एक पूरा सिलसिला उकेर देने वाली तकलीफ़ पैदा करती है और समूह या मंडल की प्रगतिशीलता पर भी बुनियादी सवाल खड़े करती है! प्रगतिशील लेखक संघ के अन्य सदस्यों के प्रति सम्मान रखती हुई भी बहनापे में विश्वास करने वाली कोई स्वाभिमानी स्त्री वहाँ नहीं जा पाएगी! पने बुलाया, आभार, पर उपर्युक्त कारण से मैं वहाँ जा न पाऊँगी!
मुझे क्षमा करें. आयोजन में मेरे परम मित्र ईश मधु तलवार जी से विशेष क्षमा कि वे समझेंगे मेरी मन:स्थिति
दरअसल अनामिका पर जब कृष्ण कल्पित ने विवादास्पद टिप्पणी की थी उस वक्त गीताश्री ने अनामिका का पक्ष लिया था तो गुस्से में कृष्ण कल्पित ने उनके खिलाफ बेहद अपमानजनक भाषा का इस्तेमाल किया था। गीताश्री ने अपने पोस्ट में प्रकरांतर से अन्य लेखिकाओं को भी ललकारा कि उनको इस आयोजन से अपने आपको अलग रखना चाहिए। आश्चर्य की बात ये रही कि लेखिकाओं का जितना समर्थन गीताश्री को मिलना चाहिए था वो नहीं मिला। अनामिका और गगन गिल को भी इस मोर्चे पर सक्रिय होना चाहिए था। उधर स्त्री अस्मिता को लेकर लगातार अपने लेखन और पोस्ट से क्रांतिवीर लेखिकाओं ने भी इस मसले पर चुप्पी साध रखी है। क्या स्त्री अस्मिता की बात भी सुविधानुसार तय होगी, ये बड़ा सवाल है। फेसबुक पर जारी चर्चा के मुताबिक तो मैत्रेयी पुष्पा ने कहा कि शानदार साहित्य उत्सव में शानदार स्त्रियां ही बुलाई जाती हैं। मैत्रेयी पुष्पा को साफ करना चाहिए कि शानदार स्त्रियों से उनका तात्पर्य क्या है। किस तरह की स्त्रियों को वो इस कोष्ठक में रखती हैं। प्रगतिशील लेखक संघ के मंच से स्त्रियों के बारे में ये बात कही गई है तो अब तो संघ से भी अपेक्षा है कि वो इस मसले पर अपना स्टैंड साफ करेंगे। ऋतुराज जैसे वरिष्ठ और संजीदा कवि से ये अपेक्षा की जा सकती है क्योंकि प्रगतिशील लेखक संघ का पूर्व का स्टैंड स्त्रियो को लेकर ढुलमुल रहा है। सफाई तो आयोजकों को भी देनी चाहिए ।   
इसके बाद अशोक वाजपेयी की वहां उपस्थिति को लेकर प्रचार शुरू हो गया। जिस जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के विरोध में ये समानांतर साहित्य उत्सव का आयोजन हो रहा था उसमें सक्रिय रहनेवाले अशोक वाजपेयी को प्रगतिशील लेखक संघ द्वारा बुलाना उनके घोषित उद्देश्य से भटकना था। लेकिन केदारनाथ सिंह की तबीयत खराब होने और सुरजीत पातर की उपस्थिति संदिग्ध होने की खबरों के बाद आयोजक अशोक वाजपेयी में अपने आयोजन को सफल बनाने की संभावना देखने लगे। जमकर प्रचार हुआ लेकिन आयोजन से दो दिन पहले अशोक वाजपेयी ने समानांतर साहित्य उत्सव से अपने को अलग कर लिया। उन्होंने राजस्थान प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष ऋतुराज को पत्र में लिखा- स्वयं लेखकों द्वारा उनके एक संगठन के माध्यम से समानांतरसाहित्य उत्सव आयोजित करने की पहल का आप जानते हैं मैंने स्वागत किया था और आपके निमंत्रण पर उसमें राष्ट्र, हिंसा और साहित्यविषय पर एक व्याख्यान देना भी स्वीकार किया था।
मुझे तब पता नहीं था कि इस आयोजन का संयोजक एक ऐसा व्यक्ति है जो विशेषतः अन्य लेखिकाओं पर घोर अभद्रता और अश्लीलता की हद तक जाकर अत्यंत आपत्तिजनक टिप्पणियाँ करने के लिए बदनाम है। ऐसे व्यक्ति के संयोजक रहते और उसकी अब भी जारी अभद्रता के चलते मुझे लगता है इस समारोह में भाग लेना उस अभद्र और अश्लील कदाचार को वैध या उचित ठहराना होगा और उसके लेखिका-विरोधी कदाचरण का प्रकारांतर से साथ देना भी होगा। मेरा अंतःकरण इसकी इजाज़त नहीं देता। इसलिए मैं खेदपूर्वक इस समारोह से अपने को अलग कर रहा हूँ।आपसे से अनुरोध है कि वे मेरा व्याख्यान कृपया रद्द कर दें और सभी लेखक- बंधुओं से मेरी ओर से क्षमा माँग लें।अशोक वाजपेयी के इस बयान ने समानांतर साहित्य महोत्सव का रास्ता वक्र बना दिया। कष्ण कल्पित ने पूर्व में जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल की फेस्टिवल डायरेक्टर नमिता गोखले के खिलाफ बेहद अपमानित करनेवाली भाषा का इस्तेमाल किया था और ऐसे विशेषणों को उपयोग किया था जो कि उनके लेखक होने पर सवाल खड़ा करता है। लेखकों से ऐसी दोयम दर्जे की भाषा की अपेक्षा नहीं की जाती है।
दरअसल अगर हम पूरे आयोजन को लेकर समग्रता में विचार करें तो यह बात समझ में आती है कि इसकी बुनियाद ही गलत रही। बीच में जिस तरह से इसके उद्देश्यों को लेकर एक पर्चा जारी कियी गया था उसमें भी प्रकरांतर से जयपुर लिट फेस्ट का विरोध ही था। एक आयोजन के खिलाफ दूसरा आयोजन करने से जो संदेश गया वो अच्छा नहीं था। अगर कोई नकारात्मक चीज हो रही थी तो उसको नकारात्मकता से नहीं बल्कि सकारात्मकता के साथ प्रतिरोध करना चाहिए। नहीं त होता यह है कि आयोजन दीर्घजीवी नहीं हो पाता है।  किसी भी भाषा या आयोजन का सिर्फ इस आधार पर विरोध करना उचित नहीं है कि वहां आपकी महात्वाकांक्षाओं को जगह नहीं मिलती है। शनिवार से शुरु हुए इस साहित्य महोत्सव के मंच से वक्ताओं ने जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल को लेकर जो बाते की उससे इस बात को बल मिलता है। प्रतिरोध के नाम पर कुंठा का सार्वजनिक इजहार से साहित्य का भला नहीं होगा। क्या समानांतर लिटरेचर फेस्टिवल के लिए ये बेहतर नहीं होता कि वो कृष्ण कल्पित को इस आयोजन से अलग करते या उनसे सार्वजनिक रूप से महिलाओं के खिलाफ अपमानजनक शब्दों के इस्तेमाल पर खेद प्रकट करवाते। ऐसा हो नहीं सका। हो तो ये भी नहीं सका कि इस आयोजन को एक गरिमा प्रदान की जाती और जयपुर साहित्य उत्सव के खिलाफ भड़ास का मंच नहीं बनने दिया जाता। सवाल यही कि रोके कौन। यहां तो प्रगतिशील लेखक संघ के साथ कुछ अन्य वामदलों से सबंधित लेखकों ने इसका समर्थन दिया। तो क्या ये माना जाए कि समानांतर साहित्य उत्सव महिलाओं को अपमानित करने का एक उपक्रम था क्योंकि कृष्ण कल्पित के अलावा मैत्रेयी पुष्पा ने भी वहां स्त्री के खिलाफ बयान दिया। आनेवाले दिनों में इस सवाल ये सवाल प्रगतिशील लेखक संघ के लिए मुश्किल खड़ी कर सकता है क्योंकि आधी आबादी को कठघरे में खड़ा करके, उसको अपमानित करनेवाली टिप्पणी कर हिंदी में बच निकलने का इतिहास रहा नहीं है।    

Tuesday, January 16, 2018

‘चश्मे’ के लेखन के विरोधी थे दूधनाथ

करीब तेरह साल पहले की बात होगी जब तस्लीमा नसरीन पहली बार दो हजार चार में किसी सार्वजनिक कार्यक्रम में भाग लेने के लिए दिल्ली आई थी, जहां इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में उनका कार्यक्रम था। तस्लीमा के दिल्ली आने के दस साल पूर्व ही उनका उपन्यास लज्जा हिंदी में प्रकाशित होकर खासा चर्चित हो चुका था। लज्जा के प्रकाशन के दस वर्ष बाद वो दिल्ली आई थीं। गर्मी का मौसम था और इंडिया इंरनेशनल का पूरा हॉल खचाखच भरा था,लोग बाहर तक खड़े थे, सुरक्षा बेहद कड़ी थी। समय पर पहुंचने के बावजूद हमें हॉल के एक कोने में पीछे से दूसरी पंक्ति में जगह मिल पाई थी। तस्लीमा आई और उनको घेरे में मंच पर ले जाया गया। तस्लीमा के साथ अशोक वाजपेयी और अरुण माहेश्वरी थे। एक दो लोग और भी। जब ये लोग मंचासीन हो गए तो मेरे पीछे बैठे लोगों में एक व्यक्ति लगातार कमेंट कर रहे थे। कभी तस्लीमा के जीन्स टॉप पर तो कभी उनके चलने बोलने, बैठने के अंदाज पर। मैं और मेरे आसपास बैठे लोग असहज हो रहे थे और सब उस शख्स को घूर कर देखते थे और फिर मंच पर होनेवाली गतिविधियों में रम जाते थे। कमेंट लगातार हो रहे थे। मंच पर स्वागत का कार्यक्रम शुरू हुआ। इस बीच तस्लीमा नसरीन हाथ में एक गुलाब लेकर बढ़ीं तो उनके बगल में खड़े अशोक वाजपेयी को लगा कि तस्लीमा उनको गुलाब भेंट करना चाहती हैं। वो  गुलाब लेने के लिए आगे बढ़े। तस्लीमा उनको नजरअंदाज करते हुए थोड़ा और आगे बढ़ीं और अशोक जी के बाद खड़े अरुण माहेश्वरी को गुलाब भेंट कर दिया। पिछली पंक्ति में बैठे शख्स ये सब बातें गौर से नोट कर रहा था। चंद पलों का ये वाकया जब घटित हो गया तो पीछे से कमेंट आया कि अशोक वाजपेयी हर जगह गुलाब झपट लेना चाहता है लेकिन इस बार तस्लीमा का गुलाब अरुण की झोली में गिरा और अशोक टापते रह गए। इस बार टिप्पणी थोड़ी लंबी थी लेकिन कुछ असंसदीय शब्दों के इस्तेमाल के बावजूद बेहद मजेदार थी। आसपास बैठे लोग जो अब तक उस शख्स को नाराजगी भरी नजरों से घूर रहे थे उन सबने अशोक वाजपेयी पर की गई उनकी टिप्पणी पर ठहाका लगाया। पूरे कार्यक्रम के दौरान पीछे से टिप्पणियां आती रहीं। कार्यक्रम खत्म होने तक मेरी उत्सुकता बढ़ रही थी कि सफेद दाढ़ी वाला ये शख्स कौन है। कार्यक्रम खत्म होने के बाद बाहर निकलने पर मैं उनके पास गया और अपना परिचय देते हुए उनके बारे में अपनी जिज्ञासा प्रकट की। उन्होंने कंधे पर हाथ रखते हुए कहा कहा कि मेरा नाम दूधनाथ सिंह है और मैं हिंदी का लेखक हूं। अब मेरे लिए चौंकने की बारी थी क्योंकि दूधनाथ जी की कहानियां का मैं प्रशंसक था। उनसे इस रूप में मिलना होगा, सोचा भी नहीं था। अभी उनके निधन के बारे में पता चलते ही सबसे पहले इस मुलाकात की यादें ताजा हो गईं।
दूधनाथ जी से साक्षात परिचय के बहुत पहले उनकी कहानी रीछ पढ़ चुका था, जो कि भीष्म साहनी के संपादन में निकलनेवाली पत्रिका नई कहानियां में जून 1966 में प्रकाशित हुई थी। उस कहानी के प्रकाशन के बाद हिंदी साहित्य जगत में खासा विवाद हुआ था, कह सकते हैं कि लगभग साहित्यिक हंगामे जैसी स्थिति बन गई थी। रीछ कहानी और इसके कहानीकार पर वयक्तिवाद, विकृत सेक्स और यौन कुंठा जैसे आरोप लगाते हुए जबरदस्त प्रहार किए गए। लेकिन इससे कहानीकार के रूप में दूधनाथ जी की प्रसिद्धि और बढ़ गई थी। दरअसल दूधनाथ जी की कहानियों में व्यक्तिगत जीवनानुभूतियों के तनाव और ग्रंथियां प्रमुख स्वर के तौर पर दिखाई देते हैं। कई बार तो उनकी कहानियों में साथी लेखकों की जिंदगी भी जीवंत होकर उनको विवादास्पद बनाती रही हैं। इनकी एक लंबी कहानी है नमो अन्धकारम। इस कहानी के बारे में कहा जाता है कि इसके केंद्र में कथाकार मार्कण्डेय हैं। हलांकि दूधनाथ जी लगातार इससे इंकार करते रहे थे। और इस बात को प्रचारित करने का दोष वो हमेशा से अपने साथी रवीन्द्र कालिया के सर मढ़ते रहे। उन्होंने तब कहा था कि नमो अन्धकारम पिछसे पचास साल के राजनीतिक जीवन पर टिप्पणी है। कैसे पुराने आदर्शवादी लोग, विचारक, नेता, माफिया डॉन में परिवर्तित होते चले जा रहे हैं, यह कहानी इस दुखद राजनीतिक जीवन का तर्पण है। इस कहानी के बारे में दुष्प्रचार करनेवालों के लिए वो एक ही वाक्य कहा करते थे कि कला संरचनाएं मूर्खों के लिए नहीं होती। 
उनकी कहानियों में जीवन के उन निषेध पक्षों की प्रबलता भी दिखाई देती है जो उनको नई कहानियों के कथाकारों से अलग करती है। कह सकते हैं कि नई कहानी के दौर के बाद कहानीकारों, जिनमें ज्ञानरंजन, रवीन्द्र कालिया काशीनाथ सिंह और महेन्द्र भल्ला प्रमुख हैं, की कहानियों में नई अनुभूति का प्रस्थान बिन्दु रेखांकित किया जा सकता है। इन कहानीकारों ने निषेधों और विकृतियों को अपनी रचना में व्यक्त करते हुए उनसे लड़ने का एक माहौल तैयार करना शुरू कर दिया था। उस दौर की कहानियों का यह भी एक महत्व है। दूधनाथ सिंह ने विपुल लेखन किया। कहानी, उपन्यास, कविता, आलोचना, निबंध,संस्मरण और नाटक लिखे। उनका उपन्यास आखिरी कलाम बेहद चर्चित रहा था। इस तरह निराला की कविताओं पर भी उन्होंने संपूर्णता में विचार किया जिसको उनकी पुस्तक निराला: आत्महंता आस्था में देखा जा सकता है।
दूधनाथ सिंह की प्रतिबद्धता भले ही वामपंथ के साथ रही हो लेकिन वो वामपंथ के अंतर्विरोधों पर खुलकर बोलते रहे हैं। अपने विचारों को प्रकट करने में उन्होंने कभी परहेज नहीं किया। एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा कि – मैं बराबर इसलिए कहता हूं कि लेखक को कार्ड होल्डर नहीं होना चाहिए। कार्ड होल्डर होने के बाद दल अपना एक चश्मा देता ही है। और वह चश्मा पहनकर समाज में जाने पर आप बहुत सारी चीजों को रंगीन तो देख सकते हैं किन्तु वास्तविकता की सच्ची पहचान आप नहीं कर सकते हैं। इसलिए मैं बार बार कहता हूं कि लेखक को आवारा होना चाहिए। आवारा का मतलब दुश्चरित्र या अनार्किस्ट नहीं, बल्कि वैचारिक दृष्टि से समर्थ और समझदार और वैशिष्ट्यहीन, मिलनसार, एक सहभागी व्यक्ति जो अपने समाज में घुल सके और अपने को उसमें जज्ब कर सके। उसमें घुला सके। उनकी समस्याओं को देख भी सके, परख भी सके, भुगत भी ले। उसके लिए कीमत अदा करने में भी उसे कोई हिचक ना हो। और साथ ही उसमें इकनी ताकत होनी चाहिए कि वह उनके द्वारा, फिर मैं कहता हूं उन सारी स्थितियों के द्वारा खा ना लिया जाए। उसमें इतनी अतिरिक्त ताकत और संवेदनशीलता तो होनी ही चाहिए कि वह उनको बटोरे। अगर भुगतता है, अगर उसके लिए वह मूल्य देता है तो कहीं ना कहीं सबके सामने उसको उजागर भी करे। उसे रचे। इसलिए मैं दास्तोवस्की को गोर्की से बड़ा लेखक मानता हूं। क्योंकि एक सीधे के सीधे अपने समाज के माहौल को भुगतता है। दूसरा भुगतता भी है लेकिन इस भुगतने को एक रंगीन चश्मे से देखता है। दोनों की मौलिकता और दोनों की रचनात्मकता में जो गुणात्मक अंतर है वह इसी कारण आया हुआ है। चाहे वो कोई अमेरिकन लेखक हो, या कोई रूसी लेखक हो, या चीनी लेखक हो, या हिन्दुस्तानी लेखक हो, जब भी हम किसी एक दल से संबद्ध होते हैं तो कहीं-न-कहीं हमको एक चश्मा तो मिलता ही है। दूधनाथ सिंह के इन विचारों से ये पता चलता है कि वो बहुत बेबाकी से अपनी राय रखते थे । इस तरह के विचारों के बावजूद वो जनवादी लेखक संघ के अध्यक्ष थे। इस बात का पता नहीं चल पाया कि वो जनवादी लेखक संघ से जुड़े अपने कितने लेखकों को चश्मे से मुक्त कर पाए या बाद के दिनों में उन्होंने खुद भी चश्मा पहन लिया। हलांकि दो साल पहले मैंने उनसे ये सवाल पूछा था तब उन्होंने कहा था कि मेरा झुकाव वामपंथ की ओर है, मैं मानता हूं। मुझे आदमी की सही तकलीफों से लेना देना है, सिद्धातों से नहीं। अगर सिद्धांत आदमी को समझने में आड़े आता है तो मैं उसको नकारने का साहस रखता हूं। उन्होंने तब ये भी कहा था कि अगर मार्क्सवाद को जिंदा रखना है तो उसको व्यक्ति ती मुक्ति के संदर्भ में खुद को फिर से जांचना पऱखना चाहिए। दूधनाथ जी की इस बात को उनके लेखक संगठन के लेखक कितना मानते जानते हैं इसको देखा जाना चाहिए। दूधनाथ जी को सच्ची श्रद्धांजलि तो उनके विचारों के आलोक में ही दी जा सकती है और उनके विचारों को पऱखने के लिए यह आवश्यक भी है कि उनका सम्रगता में मूल्यांकन हो ।


Saturday, January 6, 2018

हिंदी को देश में मिले उसका हक

लोकसभा के हाल में ही समाप्त हुए सत्र में हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा का दर्जा दिलाने को लेकर विदेश मंत्री सुषमा स्वराज के बयान का कांग्रेस सांसद शशि थरूर ने जोरदार विरोध किया। उनका कहना था कि हिंदी राष्ट्रभाषा नहीं है, वो अंग्रेजी के साथ-साथ राजकाज की भाषा है। उनका एक तर्क ये भी था कि अगर हिंदी को यूएन की आधिकारिक भाषाओं में शामिल करवा लिया जाता है तो भविष्य में गैर हिंदी भाषी प्रधानमंत्री या विदेशमंत्री को दिक्कत हो सकती है। इस बात को लेकर शशि थरूर के अपने तर्क हैं जो उन्होंने अपनी पुस्तक अंधकार काल,भारत में ब्रिटिश साम्राज्यके विमोचन समारोह के दौरान भी रखे। बाद में एक साक्षात्कार में शशि ने कहा कि यूएन में हिंदी को आधिकारिक भाषा का दर्जा दिलाना बगैर समस्या के उसका हल सुझाने जैसा है। उनकी मशहूर पुस्तक एन एरा ऑफ डार्कनेस, द ब्रिटिश एंपायर इन इंडिया के हिंदी अनुवाद के विमोचन के दौरान मैंने जब उनसे हिंदी विरोध का कारण जानना चाहा। प्रश्न था कि अपने दो संसदीय काल में उन्होंने कभी भाषा का प्रश्न नहीं उठाया। अब क्यों? क्या उसके पीछे 2019 में होनेवाले लोकसभा चुनाव में भाषाई आधार पर अपने मतदाताओं को रिझाने की मंशा तो नहीं है? क्या वो अपने पड़ोसी राज्य तमिलनाडू के डीएमके नेताओं की राह पर तो नहीं चल रहे हैं जहां चुनाव के वक्त तो हिंदी में पोस्टर छपवाए जाते हैं और चुनाव खत्म होते ही हिंदी विरोध का झंडा थाम लेते हैं? शशि थरूर ने साफ किया कि वो हिंदी के विरोधी नहीं है लेकिन हिंदी को जबरन थोपे जाने का विरोध करते हैं।
शशि थरूर का जोर इस बात पर था कि हिंदी हमारे देश की राष्ट्रभाषा नहीं है। अबतक तो बिल्कुल नहीं है। वो यह भी कहते हैं कि हमारे संविधान मे  राष्ट्रभाषा जैसी कोई अवधारणा नहीं है। मैं बहुत विनम्रतापूर्व शशि थरूर जी को संविधान सभा में इस विषय पर हुई बहस की याद दिलाना चाहता हूं। देश की भाषा समस्या पर 12 सितंबर 1949 को बहस शुरू हुई थी जो तीन दिनों तक चली थी । 14 सितंबर 1949 को संविधान सभा में ये फैसला हुआ कि देवनागरी लिपि में लिखी जानेवाली हिंदी संघ-सरकार की भाषा होगी तथा उसमें हिंदी के अंकों के साथ-साथ अंतराष्ट्रीय अंकों का प्रयोग किया जाएगा। उस वक्त हिंदी को संविधान सभा ने राष्ट्रभाषा मान लिया था। सरदार वल्लभ भाई पटेल ने इसके बाद बंबई से पत्र लिखकर पार्टी को इसके लिए बधाई भी दी थी। गौरतलब है कि यह प्रस्ताव तब पास हुआ था जब संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ राजेन्द्र प्रसाद ने भाषा समस्या पर विचार शुरू करने के पहले सदस्यों को चेताते हुए कहा था- इस सभा का निर्णय सारे देश को स्वीकार्य होना चाहिए। इसलिए सदस्यों को इस बात का ध्यान रखना चहिए कि कोई खास बात हासिल करने के लिए बहस करना काफी नहीं है। बहुमत के बल पर अगर हमने कोई प्रस्ताव पारित करवा भी लिया जो उत्तर या दक्षिण में बहुत से लोगों को नापसंपद हो, तो संविधान को अमल में लाना भारी समस्या हो जाएगी। संविधान सभा में हिंदी और हिन्दुस्तानी को लेकर भी लंबी चर्चा हुई थी। कांग्रेस पार्टी के अंदर भी हिंदी और हिन्दुस्तानी को लेकर मत विभाजन हुआ था जिसमें हिंदी को बहुमत मिला था।
लेकिन गांधी जी की इच्छा का सम्मान करते हुए संविधान की धारा 351 में हिन्दुस्तानी का उल्लेख कर दिया गया था । दरअसल गांधी हिन्दुस्तानी के पक्ष में थे। इस बावत 18 मार्च 1920 को वी एस श्रीनिवास शास्त्री को लिखा उनका खत देखा जा सकता है– हिन्दी और उर्दू के मिश्रण से निकली हुई हिन्दुस्तानी को पारस्परिक संपर्क के लिए राष्ट्रभाषा के रूप में निकट भविष्य में स्वीकार कर लिया जाए। अतएव, भावी सदस्य इम्पीरियल कौंसिल में इस तरह काम करने को वचनबद्ध होंगे, जिससे वहां हिन्दुस्तानी का प्रयोग प्रारंभ हो सके और प्रांतीय कौंसिलों में भी वे इस तरह काम करने को प्रतिज्ञाबद्ध होंगे। (संपूर्ण गांधी वांग्मय खंड 17)। लेकिन गांधी जी जितनी मजबूती से हिन्दुस्तानी का साथ दे रहे थे, हिंदी साहित्य सम्मेलन के सदस्य उतनी ही ताकत से उनका विरोध कर रहे थे । ये विरोध इतना बढ़ा था कि गांधी जी को 28 मई 1945 को सम्मेलन से अपना इस्तीफा देना पड़ा था। इन सबका असर संविधान सभा में भी देखने को मिला था । जब संविधान की धारा 351 में हिन्दुस्तानी का उल्लेख हो गया तब कई लोग ये प्रचारित करने में जुट गए कि जिस हिन्दी की बात संविधान में है ये वो हिंदी नहीं है जो हिन्दीभाषी राज्यों में में बोली जाती है। इस बात को जमकर प्रचारित कर हिंदी विरोधी माहौल बनाया गया।
संविधान में यह प्रावधान रखा गया था कि इसके लागू होने के पंद्रह वर्षों तक अंग्रेजी चलती रहेगी और अगर पंद्रह वर्षों के बाद संसद को लगता है कि कुछ विषयों के लिए अंग्रेजी का प्रयोग आवश्यक है तो कानून बनाकर उन विषयों में अंग्रेजी का प्रयोग जारी रखा जा सकता है। लेकिन इन पंद्र वर्षों तक हिंदी के प्रयोग पर प्रतिबंध नहीं था। इसको साफ करने के लिए 27 मई 1952 को राष्ट्रपति ने एक आदेश जारी किया था जिसमें उल्लिखित था कि राज्यपालों, सर्वोच्च और उच्च न्यायालय के न्यायधीशों की नियुक्ति पत्रों में अंग्रेजी के साथ साथ हिंदी और अंतराष्ट्रीय अंकों के साथ देवनागरी अंकों का भी प्रयोग किया जाएगा। इसके बाद 3 दिसंबर 1955 को राष्ट्रपति ने एक और आदेश जारी किया जिसमे जनता के साथ पत्रव्यवहार, संसद को दी जानेवाली रिपोर्ट, प्रशासनिक रिपोर्ट, सरकारी संकल्प और विधायी अधिनियम, संधियां, अन्य देशों के सरकारों के साथ पत्रव्यवहार, राजयनियों को जारी किए जानेवाले औपचारिक दस्तावेजों में अंग्रेजी के साथ हिन्दी का भी प्रयोग होगा।
बावजूद इसके संविधान के लागू होने के एक दशक बाद भी हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की दिशा में कोई काम नहीं हुआ। ऐसा प्रतीत होता है कि उस वक्त के प्रधानमंत्री जवाहलाल नेहरू गांधी जी के हिन्दुस्तानी की पक्षधरता के प्रभाव में थे। क्योंकि संविधान सभा ने जब संविधान की धारा 351 में हिन्दुस्तानी का उल्लेख किया था तब नेहरू ने कहा था कि इस प्रस्ताव में कोई बात है जिसपर ज्यादा जोर पड़ना चाहिए था, फिर भी अगर वो चीज प्रस्ताव में नही रहती तो तो मैं इसे स्वीकार नहीं कर सकता था। इससे यह बात स्पष्ट है कि हिंदी को लेकर नेहरू के मन में कोई उत्साह नहीं था। नेहरू ने संभवत: 1963 में संसद में ये घोषणा कर दी थी कि जबतक अहिन्दी भाषी भारतीय अंग्रेजी को चलाना चाहेंगे तबतक हिंदी के साथ केंद्र में अंग्रेजी भी चलती रहेगी। नतीजा यह हुआ कि जब 1963 में भाषा अधिनियम बना तो नेहरू की उपरोक्त भावना का ख्याल रखा गया। जिसमें ये फैसला हो गया कि हिन्दी के साथ-साथ अंग्रेजी में काम-काज चलता रहेगा, जबकि संविधान में साफ तौर पर कहा गया था कि इसके लागू होने के 15 साल बाद सिर्फ जरूरी कामों ही अंग्रेजी का उपयोग हो सकेगा। इस तरह से अगर हम देखें तो 1963 का भाषा अधिनियम संविधान की मूल भावना के विरुद्ध थी। 1965 में हिंदी के विरोध में मद्रास में आंदोलन हुआ और नेहरू की घोषणा को कानून बनाने की मांग उठी जिसे लालबहादुर शास्त्री ने दबाव में मान लिया।

इस पृष्ठभूमि में यह बात साफ होती है कि संविधान में हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की बात थी जिसे बाद में नहीं माना गया और कानूनी और राजनीतिक दांव-पेंच में फंसा कर इसको बेहद जटिल बना दिया गया। लोग ये भूल गए कि हिन्दी को बढ़ाने और उसको मजबूत करने का सबसे ज्यादा उपक्रम गैर हिंदी भाषी लोगों ने किया और उन सबका मानना था कि स्वाधीन भारत में एक ऐसी भाषा का विकास होना चाहिए जो अन्तर्प्रांतीय भाषा के तौर पर स्वीकार्य हो सके। बंगाल से इसकी शुरुआत हुई थी और माना जाना है कि सबसे पहले ये विचार बंकिम चंद्र के मन में आया था। भूदेव मुखर्जी ने अदालतों की भाषा के तौर पर हिंदी को मान्यता दिलाने के लिए बड़ा आंदोलन चलाया था। राजा जी ने दक्षिण भारत में हिन्दी प्रचार सभा का नेतृत्व किया था। प्रजातंत्र नाम की एक पुस्तिका में उन्होंने विश्वास जताया था कि हिन्दी इस देश की राष्ट्रभाषा होकर रहेगी। इन परिस्थियों के आलोक में वर्तमान केंद्र सरकार को विचार करना चाहिए और यूएन में हिंदी को आधिकारिक भाषा का दर्जा दिलाने जैसे प्रतीकात्मक कदम उठाने की बजाए उसको राष्ट्रभाषा बनाने की दिशा में विचार प्रारंभ करना चाहिए क्योंकि संविधान निर्माताओं की यही राय भी थी। सरकार को हिंदी के विकास के लिए बनाई गई संस्थाओं की चूलें भी कसनी चाहिए। वर्धा में महात्मा गांधी के नाम पर स्थापित विश्वविद्यालय में हिंदी के नाम पर जो हुआ वो दुखद है, सरकार को उसपर ध्यान देना चाहिए।