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Wednesday, January 30, 2019

साहित्य में जो हूं अमृता प्रीतम की वजह से: गगन


गगन गिल हिंदी की प्रतिष्ठित कवयित्री हैं। उनके कई कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं और उन्होंने विपुल अनुवाद भी किया है। अंग्रेजी साहित्य में एम ए करने के बाद गगन गिल ने पत्रकारिता में अपना करियर शुरू किया लेकिन पत्रकारिता को छोड़कर वो पूर्णकालिक लेखक हो गईं। उनकी कई कविताएँ अमेरिका, इंगलैंड और जर्मनी के विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जाती हैं।

मेरा जन्म दिल्ली के ही इरविन अस्पताल में हुआ और .हीं पली बढ़ी और रह रही हूं। मेरा बचपन दिल्ली के ढका गांव के आसपास बीता है। पहले मेरा परिवार ढका के पास के एनडीएमसी कॉलेनी में रहता था।  हमलोग वहां से थोड़ी दूर राजपुर रोड के बनी प्रसाद जयपुरिया स्कूल में पढ़ते थे। बाज में इस स्कूल का नाम बदलकर रुक्मणि देवी स्कूल कर दिया गया। इस स्कूल की बिवडिंग बहुत आकर्षक थी, कोलोनियल डिजायन से बना था। मेरा स्कूल आना-जाना बस से होता था। जब हम स्कूल में थे तो बस में सीट घेरने के लिए काफी भागदौड़ करते थे और फिर बस में बैठकर बेर खाते हुए घर वापस लौटते थे। मेरे बचपन की याद में तो ढका गांव की कॉलोनी और मॉरिस नगर ही बसा है। तब वो इलाका इतना बसा नहीं था, बाद में मुखर्जी नगर, हडसन लाइन आदि कॉलोनियां विकसित हुईं तो मेरे माता-पिता ने मुखर्जी नगर में अपना मकान बनवाया। बतरा सिनेमा हॉल मेरे सामने बना। बचपन में मम्मी हमें डीटीसी की बस नंबर 9बी में बिठाकर मंडी हाउस ले जाती थी। वहां सप्रू हाउस में चिन्ड्रन फिल्म सोसाइटी होती थी जहां हम फिल्म देखते थे। 1977 में दिल्ली में बाढ़ आई थी और मेरा घर उसमें डूब गया था। मेरा घर तीन मंजिला था और ग्राउंड फ्लोर में पूरा पानी भर गया था। हम कई दिन पानी में घिरे रहे लेकिन ये देखकर कोफ्त होती थी कि हमारे घर से 10 फीट दूर पानी बिल्कुल नहीं है। 1984 के सिख विरोधी दंगे भी हमने मुखर्जी नगर में ही देखे।
साहित्य की तरफ मेरा रुझान था, मैं कविता प्रतियोगिता में भाग लेती थी। घर में साहित्यिक माहौल था और बड़े बड़े साहित्यकार घऱ पर आते थे। आपको दो दिलचस्प किस्सा बताती हूं। जब मैं सोलह साल की थी तो मेरी मुलाकात कृष्णा सोबती से हुई थी। मां की दोस्त डॉ दुआ के घर पर कोई पार्टी थी जिसमें कृष्णा जी आई थीं, मुझे उऩसे मिलवाया गया। उन्होंने मेरा हाथ अपने हाथ में ले लिया और काफी देर तक सहलाती रहीं। मैं उनके काले चश्मे और मक्खन की तरह मुलायम गोरे हाथ में डूबी रही। मुझे उनका व्यक्तित्व बहुत आकर्षक लगा। वो उस वक्त शरारा पहनती थी और हमलोग पाकीजा फिल्म के प्रभाव में थे। आपको आज बता रही हूं कि मैंने कृष्णा जी के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उनपर एक कहानी लिखी। जासूसी टाइप जिसमें एक सीन था कि दरवाजा खुलता है तो सामने से एक खूब गोरी चिट्टी महिला काला चश्मा लगाकर निकलती हैं। वो कहानी अब मेरे पास है नहीं, कहीं छपी भी नहीं। सत्रह साल की उम्र में मैं अमृता प्रीतम से मिली। जगजीत सिंह और चित्रा ने उनके गीतों पर कमानी ऑडिटोरियम में परफॉर्म किया था। उसके बाद मम्मी ने मुझे उनसे मिलवाया, मैं उनकी दीवानी थी. मैंने उनका ऑटोग्राफ लिया। उन्होंने मेरा हाथ अपने हाथ में लिया और मम्मी को बोलीं कि इसको घर लेकर आना। फिर हम उनके घर गए। आज साहित्य में मैं जो कुछ भी हूं अमृता जी की वजह से ही हूं। अमृता प्रीतम जी ने मुझे पंजाबी में लिखने के लिए प्रेरित किया था, वो कहती थीं कि याव पीढ़ी को अपनी भाषा में लिखना चाहिए। मैं पंजाबी पढ़ सकती लेकिन लिख नहीं सकती थी। अमृता जी की प्रेरणा से पंजाबी लिखना सीखा भी लेकिन मेरी गति हिंदी में ही है, मैं हिंदी में ही सहज हूं। साहित्य से जुड़ा एक और किस्सा मुझे याद है। हिंदी के मशहूर कवि अजित कुमार का मेरे घर बहुत आना जाना था। हम उनके साथ खूब मजे करते थे। मेरा छोटा भाई रब्बी उनके बालों में रबड़ बैंड लगाया करता था। एक दिन जब अजित जी मेरे घर से अपने घर पहुंचे तो उनकी पत्नी सीढ़ियों पर बैठी थी उन्होंने अजित जी का चेहरा देखा और पूथा कि कहां से आ रहे हो। अजित समझे नहीं लेकिन फिर उनकी पत्नी ने बालों की ओर इशारा किया जिसमें रबड़ बैंड लगा था। आप कल्पना करिए क्या हुआ होगा। लेकिन बाद में अजित जी ने मजे लेकर वो किस्सा हमें सुनाया था।   
(अनंत विजय से बातचीत पर आधारित)

Saturday, January 26, 2019

हिंदी साहित्य का ‘व्यावहारिक’ काल


साहित्य समाज का दर्पण होता है। दर्पण झूठ नहीं बोलता है। ये दो वाक्य ऐसे हैं जो साहित्य में बहुधा सुनाई देते हैं। इन दिनों इन दो वाक्यों के अलावा एक और वाक्य इसमें जुड़ गया है वो है साहित्यकार बहुत व्यावहारिक होते हैं। व्यावहारिकता बुरी चीज नहीं है लेकिन जब उस व्यावहारिकता की वजह से सत्य प्रभावित होने लगता है तब परेशानी वाली बात सामने आती है। दरअसल पिछले लेखकों में एक प्रवृत्ति बहुत तेजी से बढ़ी है वो है अपने साथियों की कृतियों पर व्यावहारिक राय देना। यहां जानबूझकर गलत शब्द का प्रयोग नहीं कर रहा हूं क्योंकि वो गलत से अधिक व्यावहारिकता के करीब होते हैं। दरअसल पिछले दिनों अपने एक लेखक मित्र से बात हो रही थी। बातचीत का विषय एक दूसरे कथाकार के ताजा उपन्यास तक जा पहुंची। बातचीत की शुरुआत में मेरे मित्र ने बहुत जोर देकर कहा कि अमुक का अमुक उपन्यास बहुत अच्छा है।मैंने हल्का सा प्रतिवाद किया, कुछ तर्क रखे, कुछ अपनी राय बताई। हमलोगों के बीच उपन्यास की भाषा, उसके शिल्प, कहन और विषय को लेकर बहुत लंबी चर्चा हो गई। मेरे मित्र धीरे-धीरे खुलने लगे थे और फिर उन्होंने अपने मन की बात कह दी। उन्होंने कहा कि जिस उपन्यास पर बात हो रही है वो उपन्यास उन्हें कुछ खास नहीं लगा। उसकी भाषा में भी वो रवानगी नहीं है और कहने का अंदाज भी बहुत पुराना है। आगे और भी बातें हुईं और हम दोनों इस बात पर सहमत हो गए कि उपन्यास औसत है। बात आई-गई हो गई। अचानक तीन-चार दिन बाद मैंने देखा कि मेरे मित्र ने उस उपन्यास पर फेसबुक पर एक लंबी टिप्पणी लिखी। मेरी उत्सुकता बढ़ी, मैंने सोचा पढा जाए क्या लिखा गया है। पढ़कर मैं हैरान। उन्होंने उपन्यास पर जो बातें लिखी थीं वो पिछले दिनों हुई हमारी चर्चा और उसके निष्कर्ष से बिल्कुल अलग। मैंने फौरन उनको फोन किया कि आपकी राय तो उस उपन्यास को लेकर बिल्कुल उलट थी लेकिन आपने तो उसके बारे में एकदम ही अलग लिख दिया। उनका जवाब था कि आप क्या चाहते हैं कि मेरा उनसे झगड़ा हो जाए, व्यावहारिकता यही कहती है कि आपको कृति अच्छी लगे या न लगे सार्वजनिक रूप से उसको अच्छा कहो। खासतौर पर फेसबुक पर अच्छा कहना ही चाहिए। उन्होंने संस्कृत के एक श्लोक से अपनी बात को पुष्ट भी किया, जिसका अर्थ है कि सत्य बोले तो प्रिय बोलो, अप्रिय सत्य मत बोलो।
मैंने सोचा कि फिर एक बार अपने मित्र से बहस करूं, शुरू भी किया लेकिन फिर रुक गया क्योंकि ये सिर्फ उनकी बात नहीं थी। यह प्रवृत्ति हिंदी साहित्य में इन दिनों आम है। ज्यादातर लोग व्यावहारिक हो गए हैं। अपने समकालीन साहित्यकारों की कृतियों पर प्रतिकूल टिप्पणी तो दूर की बात उसके बारे में कुछ भी ऐसा लिखने से बचते हैं जिनसे कि आपसी संबंध खराब होने का खतरा हो। अगर हम पूरे परिदृश्य पर नजर डालें तो कह सकते हैं कि हिंदी साहित्य का ये व्यावहारिक काल है। साहित्यिक कृतियों पर इस तरह की ज्यादातर चर्चा या टिप्पणी आप फेसबुक पर स्वयं देख सकते हैं। आजमा भी सकते हैं। आप किसी भी पुस्तक पर फेसबुक पर लिखी टिप्पणी पढ़े और फिर उनके लेखक से बात करें। टिप्पणी और बातचीत में आपको एक साफ अंतर नजर आएगा।
साहित्य के इस व्यावहारिक काल का एक पक्ष और है। इस वक्त लेखकों के बीच सार्वजनिक प्रशंसा और पीठ पीछे निंदा का चलन बढ़ा है। सामने या सार्वजनिक रूप से तारीफ की प्रवृत्ति ने जिस कदर जोर पकड़ा है उसी रफ्तार से पीठ पीछे निंदा करने की आदत कई लेखकों का श्रृंगार बन गई है। दरअसल इस व्यावहारिकता ने ढेर सारे ऐसे लेखक साहित्य की दुनिया में तैयार कर दिए जिनके कई चेहरे लक्षित किए जा सकते हैं। जब वो आपसे बात करेंगे तो वो अलग लगेंगे। जब वो आपसे एक और शख्स की मौजूदगी में बात करेंगे तो आपको अलग दिखेंगे, और जब वो समूह में आपसे बात करेंगे तो उनका व्यवहार और उनका आचरण बिल्कुल ही आपसे भिन्न होगा। मुंहदेखी बात करने की आदत की वजह से विभक्त व्यक्तित्व के लेखकों की संख्या भी बढ़ी है।
व्यावहारिकता का यह एक बड़ा नुकसान भी है कि लेखकों के बीच के आपसी आत्मीय संबंध कम हो गए हैं। यह बात इसलिए भी जोर देकर कही जा सकती है कि हिंदी आलोचना का भी कमोबेश यही हाल है। हिंदी की एक आलोचक हैं रोहिणी अग्रवाल। उनकी टिप्पणियां देखकर लगता है कि हिंदी में इस वक्त सर्वश्रेष्ठ लेखन हो रहा है। कभी कोई प्रकाशक तो कभी कोई लेखक उनकी टिप्पणियां फेसबुक पर लगाते हैं। उन टिप्पणियों में हाल ही में पढ़े या छपे साहित्यिक कृतियों पर उनके विचार होते हैं। ज्यादातर कृतियां उनको अद्धभुत ही लगती हैं। अगर इन अद्भुत कृतियों के बारे में कुछ सालों बाद विचार किया जाए और उसी कृति की पाठकों के बीच व्याप्ति और साहित्य में स्थायित्व को परखा जाए तो उनमें से कई तो औसत नजर आती हैं और कइयों का कोई नामलेवा भी नहीं बचता है। एक आलोचक से ये तो अपेक्षा की ही जा सकती है कि वो उन कृतियों को अद्भुत कहें जिनमें उनको स्थायित्व के कुछ गुण, कुछ तत्व आदि दिखाई दें या फिर यह मान लिया जाए कि हिंदी आलोचना भी अब व्यावहारिक हो गई है। आलोचना के औजार भी व्यावहारिकता की वजह से भोथरे हो गए हैं। दरअसल हिंदी साहित्य में कृतियों पर वस्तुनिष्ठ तरीके से विचार बहुत कम हुआ है। उन्नीस सौ साठ के दशक के पहले तो यह काम होता भी था लेकिन कालांतर में इसमें ह्रास होता चला गया। इसकी वजह थी हिंदी साहित्य में मार्क्सवादी आलोचकों का बढ़ता दबदबा। मार्क्सवादी आलोचकों ने भी हिंदी में व्यावहारिक काल की जमीन तैयार की। उन्होंने जिस तरह से लेखकों और उनकी विचारधारा को ध्यान में रखकर कृतियों पर विचार किया उसने साहित्य में व्यावहारिकता की एक ठोस जमीन तैयार कर दी। अपनी विचारधारा को मानने वाले लेखकों के उपन्यासों, कहानी संग्रहों और कविता संग्रहों को अद्भुत बताया जाने लगा, कृतियां नई जमीन तोड़ने लगीं, आदि आदि। विचारधारा के आधार पर कोई कृति अच्छी या बुरी घोषित की जाने लगी। मार्क्सवादी आलोचकों ने यह काम बखूबी किया। मुझे याद है कि एक मार्कसवादी आलोचक ने अशोक वाजपेयी की कविताओं पर लिखा था कि उनके यहां आकर नई कविता दम तोड़ देती है। चंद सालों बाद जब अशोक वाजयेपी की कविताओं पर उन्होंने फिर से लिखा तो अपनी पुरानी टिप्पणी को सुधारते हुए वाजपेयी की कविता की भूरि-भूरि प्रशंसा कर डाली। इस बदले हुए स्टैंड के पीछे भी व्यावहारिक वजहें ही थीं। उन वजहों का उल्लेख यहां गैर जरूरी है। नतीजा सबको पता है। आलोचना से जिस तटस्थता की अपेक्षा की जाती है उसका जैसे जैसे ह्रास होता गया वैसे वैसे हिंदी आलोचना की साख छीजने लगी। मार्क्सवादी आलोचकों ने जिस तरह से अपनी विचारधारा को आगे रखकर लेखकों को उठाने गिराने का खेल खेला उसका एक दुष्परिणाम और हुआ कि इस वक्त हिंदी में कोई भी आलोचक नामवर सिंह के आसपास की बात छोड़ भी दें तो मैनेजर पांडे जैसा भी नहीं दिखाई देता है। आचार्य शुक्ल और द्विवेदी के आसपास की तो बात भी सोचना बेमानी है। इसकी ठोस वजह ये है कि नई पीढ़ी को लगा कि विचारधारा का झंडा उठाकर ही प्रसिद्धि मिल सकती है तो फिर क्यों वो पढ़ाई लिखाई और खुद को अपडेट रखने में अपना समय खराब करें। इसने साहित्य का बहुत नुकसान किया। आज इस बात की आवश्यकता है कि साहित्य जगत में कोई ऐसा आलोचक आए जो सही को सही और गलत को गलत कह सके। बिगाड़ के डर से ईमान की बात कहने से हिचकनेवाले लोग नहीं चाहिए। विचारधारा या आपसी संबंधों के आधार पर कृतियों का मूल्यांकन करना बंद किया जाना चाहिए। वैसे ही तकनीक के प्रचार प्रसार और सोशल मीडिया के बढ़ते प्रभाव की वजह से कई लोग कहने लगे हैं कि हिंदी के लेखक अब आलोचकों की परवाह नहीं करते। हो सकता है उनकी बात में दम हो लेकिन ऐसा कहनेवाले यह भूल जाते हैं कि आलोचना साहित्य की एक स्वतंत्र विधा है जिसको रचनाकार से किसी तरह के प्रमाणपत्र की जरूरत नहीं होती है, उनको तो सत्य से प्रमाण-पत्र चाहिए होता है। लेकिन अगर आलोचना भी व्यावहारिकता की शिकार हो गई तो इस विधा पर खत्म हो जाने का संकट या फिर इस विधा के इतिहास के बियावान में गुम हो जाने का खतरा भी बढ़ जाएगा। किसी भी साहित्य से जब विधाएं खत्म होने लगें तो उस पर पूरे समाज को चिंता भी करनी चाहिए और चिंतन भी।

Saturday, January 19, 2019

पुस्तकों में गाढ़ा होता विश्वास


हिंदी में खासतौर पर साहित्य में ये बात अक्सर सुनाई देती है या फिर पढ़ने को मिलता है कि पुस्तकों के पाठक कम हो रहे हैं। हिंदी के कुछ प्रकाशक भी पाठकों की कमी के समूहगान में कई बार शामिल दिखते हैं। तकनीक के पैरोकार ये दंभ भरते नजर आते हैं कि छपे हुए शब्दों पर खतरा है, जैसे जैसे तकनीक का विस्तार होगा तो पाठक इलेक्ट्रानिक फॉर्म में पढ़ना पसंद करने लगेंगे। छपी हुई पुस्तकों का स्थान ई-बुक्स के लेने तक का अतिरेकी विचार भी सुनने-पढ़ने को मिलता रहा है। तकनीक का ध्वजदंड उठाए एक उत्साही लेखक ने तो आगामी दस सालों में पुस्तकों के खत्म होने की भविष्यवाणी भी कर दी थी। उत्साह अच्छा होता है, लेकिन जब उत्साह में अतिरेक मिल जाता है तो वो हास्यास्पद हो जाता है। छपी हुई पुस्तकों की महत्ता, लोकप्रियता और उसके खत्म होने की भविष्यवाणी करना भी हास्यास्पद ही है। हिंदी में इस तरह के हास्यास्पद बयानों और लेखों को अभी दिल्ली में आयोजित विश्व पुस्तक मेला ने नकार दिया। विश्व पुस्तक मेला में पुस्तकों की बिक्री और लोगों की उपस्थिति दोनों ने साबित किया कि अभी हमारे समाज में छपी हुए पुस्तकों का महत्व बरकरार है। नकार तो उस युवा पीढ़ी की मौजूदगी ने भी दिया जिनके बारे में ये कहा जाता है कि उनकी रुचि पुस्तकों में लगातार घट रही है। पुस्तक मेले में नौ दिनों तक जिस तरह से युवा आए और पुस्तकों की खरीद की उसके महत्व को रेखांकित करना आवश्यक है। पुस्तक मेले में भी कई स्टॉल पर ई-बुक्स की बिक्री हो रही थी, कुछ लोग ऑडियो फॉर्मेट में किताबें बेचने का यत्न कर रहे थे, कई जगहों पर पुस्तकों को एप के माध्यम से बेचने का प्रयास किया जा रहा था लेकिन ये सभी लोग पाठकों के लिए लगभग तरस रहे थे। एप डाउनलोड करानेवाली कंपनियां कई तरह के लुभावने ऑफर भी दे रही थीं लेकिन तब भी अपेक्षित संख्या में एप डाउनलोड करवा पाने में सफलता नहीं मिल रही थी। उधर पुस्तकें धड़ाधड़ बिक रही थीं। ना केवल नई बल्कि ऐतिहासिक पुस्तकों की भी मांग बराबर बनी रही। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान पर लेखक भारत रत्न पांडुरंग वामन काणे लिखित धर्मशास्त्र का इतिहास बिक्री के लिए उपलब्ध था। पांच खंडों में प्रकाशित इस ग्रंथ का 35 सेट मेले में बिक्री के लिए लाया गया था। पुस्तकों के प्रति लगाव का संकेत इस बात से मिल सकता है कि विश्व पुस्तक मेला के सातवें दिन सभी 35 सेट बिक गए। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के स्टॉल पर मौजूद प्रबंधक ने बताया कि अगर और भी 35 सेट होता तो वो भी बिक जाता। जबकि इस ग्रंथ का कहीं कोई प्रचार प्रसार नहीं हो रहा था। पाठक लक्ष्य करके आ रहे थे और इसको खरीद रहे थे। वहां उपस्थित संस्थान के प्रबंधक ने इस संबंध में एक और चौंकानेवाली जानकारी दी कि धर्मशास्त्र का इतिहास खरीदने वाले ज्यादातर युवा और अधेड़ उम्र के लोग थे। अब ये आंकड़ा कुछ तो कह ही रहा है, हिंदी जगत को इसको सुनना और गंभीरता से लेना चाहिए। नए लेखकों की कृतियां भी खूब बिक रही हैं। संकट उन लेखकों पर होता है जो उपन्यास में, कविता में, कहानी में वैचारिकी परोसने लगते हैं, अपनी विचारधारा को आगे बढ़ाने का काम करने लग जाते हैं। उनके भी पाठक हैं लेकिन जब आप अपनी कृति में किसी खास विचारधारा को बढ़ाने का काम करेंगे तो उस खास विचारधारा के उत्थान के दौर में तो पाठक मिल जाएंगे लेकिन विचारधारा के कमजोर पड़ते ही उस तरह की कृतियां पसंद नहीं की जाती हैं। यही फर्क हो जाता है कालजयी कृति में और तात्कालिक लोकप्रियता हासिल करनेवाली कृति में।
तकनीक का प्रसार हमेशा अच्छा होता है, उससे उपभोक्ता की सहूलियतें बढ़ती हैं, लोगों की जिंदगी आसान भी होती है लेकिन तकनीक संवेदनाओं का स्थान नहीं ले सकती है, तकनीक के माघ्यम से प्रेम नहीं किया जा सकता है। यह बात समझनी होगी। पुस्तकों से पाठक प्रेम करते हैं, उनसे भावनाएं जुड़ी होती हैं, बिस्तर घुसकर पुस्तकों को पढ़ने का जो आनंद होता है, या पढ़ते पढ़ते थक जाने के बाद पुस्तक को सीने पर रखकर सुस्ताने से जो सुकून मिलता है वो किसी भी डिवाइस से ई बुक्स पढ़कर हासिल नहीं होता है। पुस्तकों से पाठकों का एक रागात्मक संबंध होता है। यह अकारण नहीं है कि पूरी दुनिया में ई बुक्स की बिक्री लगातार गिर रही है और पुस्तकों की बिक्री बढ़ रही है। अंतराष्ट्रीय एजेंसियों की रिपोर्ट के विश्लेषण ये तथ्य निकलकर आ रहा है कि ई बुक्स की औसत बिक्री करीब दस फीसदी प्रतिवर्ष के हिसाब के गिर रही है। अगर हम ब्रिटेन के आंकड़ों को देखें तो एक रिपोर्ट के मुताबिक 2016 में वहां 36 करोड़ पुस्तकें बिकी जो पिछले वर्ष की बिक्री से दो फीसदी अधिक थीं। वहां 2016 में ही दुकानों से किताबों की बिक्री 7 फीसदी बढ़ी लेकिन ई बुक्स की बिक्री में 4 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई। दुकानों से भी पुस्तकों की बिक्री में बढ़ोतरी दर्ज की गई है। उस रिपोर्ट के मुताबिक युवाओं का पुस्तकों का प्रति बढ़ता रुझान इसकी बड़ी वजह बनी है। कमोबेश यही स्थिति पूरी दुनिया में है। इसकी वजह भी बहुत दिसचस्प बताई जा रही है। वजह ये कि आज का युवा डिजीटली इतना व्यस्त है कि वो पुस्तकों में सुकून ढूंढने लगा है। हर वक्त फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम के अलावा अपने रोजगार के सिलसिले में उसको कंप्यूटर या लैपटॉप पर इतना बैठना पड़ता है कि वो सुकून के लिए या मनोरंजन के लिए या और अधिक ज्ञान के लिए किसी अन्य डिवाइस पर नहीं बैठना पसंद कर रहा है। वो स्क्रीन से इतर हटकर कुछ पढ़ना चाहता है और उसकी यही चाहत उसको पुस्तकों की ओर ले जा रही है। जब कंप्यूटर पर काम करते करते मन उब जाता है, जब फेसबुक या इंस्टाग्राम बोर करने लगता है तो कंप्यूटर बंद करने की इच्छा होती है या फिर लैपटॉप के आगे से हटने को जी चाहता है। उस वक्त युवाओं को पुस्तकों की याद आती है। पुस्तकें पढ़कर वो डिजीटल दुनिया से कुछ पलों के लिए दूर होना चाहता है। दिमाग को उस दुनिया से बाहर निकालना चाहता है। इस वजह से आज युवा पुस्तकों की खरीद करने लगे हैं। पुस्तकों के प्रति युवाओं के बढ़ते प्रेम ने प्रकाशन जगत को उत्साहित कर दिया है। अभी कोलकाता पुस्तक मेला होने जा रहा है जिसमें करोड़ों की किताबें बिकेंगी लेकिन उस अनुपात में ना तो ई बुक्स की बिक्री होगी ना ही पाठक पुस्तकों के एप अपने मोबाइल पर डाउनलोड करके पुस्तकें पढ़ेंगे। इतना अवश्य होगा कि पुस्तकों की बिक्री बढ़ेगी तो प्रकाशकों का मुनाफा बढ़ेगा। मुनाफा बढ़ेगा तो और नई किताबें छपेंगी और प्रकारांतर से अगर देखें तो छपी हुई किताबें ई बुक्स या ऑडियो बुक्स के रूप में उपलब्ध होंगी, उनकी संख्या में इजाफा होगा पर बिक्री के आंकड़ों पर कितना असर पड़ेगा यह भविश्य के गर्भ में होगा। पर इतना तय है कि पुस्तकों की बिक्री और ई बुक्स की बिक्री की संख्या में बहुत बड़ा अंतर होगा।
अगर हम अपने देश की बात करें और खास तौर पर हिंदी की किताबों की बिक्री की बात करें तो यहां हम पाते हैं कि पुस्तकों की बिक्री और ई बुक्स की बिक्री के आंकड़ों में बहुत अधिक अंतर है। हिंदी के सात आठ प्रकाशकों को छोड़ दें तो ज्यादातर अभी ई फॉर्मेट में गए ही नहीं हैं। जो गए हैं उनमें से भी अधिकतर इस वजह से गए हैं कि उनकी कंपनी के पास ई बुक्स भी हों। उनको ई बुक्स से मुनाफा नहीं हो रहा है या ईबुक्स की बिक्री में अभी उनको ज्यादा संभावना भी नजर नहीं आ रही है। स्तरीय पुस्तकें बिकती हैं, उनको पाठक खरीद कर पढ़ते हैं। विश्व पुस्तक मेले में इस बात की चर्चा तल रही थी तो एक बड़े और पाठकों के पसंदीदा लेखक ने कहा पुस्तकों की कम बिक्री का रोना वही लेखक रोते हैं जिनकी किताबें स्तरहीन या औसत होती हैं या फिर जिनको पाठकों का प्यार नहीं मिल पाता है। देश के अलग अलग हिस्सों में हो रहे साहित्योत्सवों में भी युवाओं की उपस्थिति और पुस्तकों प्रति उनका प्रेम और उत्साह देखर कहा जा सकता है कि छपे हुए पुस्तकों की सत्ता मजबूती के साथ स्थापित हो रही है और छपे हुए अक्षरों में पाठकों का विश्वास और गाढ़ा हो रहा है। हिंदी में भी। 

Thursday, January 17, 2019

पुस्तकों और दस्तावेजों से समृद्ध पुस्तकालय


अगर आप आजादी के बाद के रियासतों के भारत में विलय संबंधी सरकारी दस्तावेजों को देखना चाहते हैं और उस वक्त बनी राज्यों की भौगोलिक और राजनीतित स्थितियों की जानकारी चाहते हैं तो नई दिल्ली के शास्त्री भवन के जी विंग में स्थित पुस्तकालय जा सकते हैं। यहां विलय सबंधी कमेटी के सेटलमेंट रिपोर्ट्स भी हैं जो शोधार्थियों के लिए स्थायी महत्व के दस्तावेज हैं। विलय के दौर में राज्यों की भौगोलिक सीमा तय करने के लिए किन तर्कों का सहारा लिया गया, रजवाड़ों के प्रतिनिधियों ने क्या कहा और भारत सरकार के क्या तर्क थे, ये सबकुध इन दस्तावेजों में दर्ज है।  इन रिपोर्टस में उस दौर का पूरा इतिहास जीवंत होता है। संस्कृति मंत्रालय भारत सरकार के अधीन चलनेवाली इस लाइब्रेरी में ऐतिहासिक दस्तावेजों का जखीरा उपलब्ध है। तीन फ्लोर पर स्थित इस लाइब्रेरी में अलग-अलग खंड हैं जहां अलग अलग विषयों की पुस्तकें उपलब्ध हैं। इंडियन ऑफिसियल डॉक्यूमेंट डिवीजन में अबतक के सभी सरकारी गैजेट्स, सरकारी नोटिफिकेशन के अलावा सभी सरकारी प्रकाशन भी उपलब्ध हैं। इस खंड में ज्यादातर पॉलिसी मेकर्स और शोधार्थी आते हैं। इस अलावा एक खंड फॉरेन ऑफिसियल डॉक्यूमेंड डिवीजन है जहां वर्ल्ड बैंक, यूनेस्को आदि के तमाम दस्तावेज सहेज कर रखे गए हैं। इसी खंड में अंतराष्ट्रीय संधियों की प्रतियां भी पाठकों के लिए उपलब्ध हैं। सार्क देशों के बीच के समझौतों के कागजात भी यहां उपलब्ध हैं। इतना ही नहीं अगर आप 1702 में भारत में प्रिंटिग की स्थिति को जानना चाहते हं, उस समय की पुस्तकों को देखना चाहते हैं तो भी इस पुस्तकालय में जाकर देख सकते हैं। 1702 के बाद की फुस्तकें भी वहां हैं जिनको पाठक देख पढ़ सकते हैं। इस तरह से पाठकों के सामने एक पूरे दौर का इतिहास खुलता है। शास्त्री भवन स्थित इस पुस्तकालय में पुस्तकों और दस्तावेजों को मिला लिया जाए तो उनकी संख्या साढे आठ लाख के करीब है। सवा चार लाख तो पुस्तकें हैं जो अंग्रेजी और अन्य भारतीय भाषाओं की हैं। ग्राउंड फ्लोर पर केंद्र सरकार के कर्मचारियों और उनके परिवारवालों के लिए अलग से रीडिंग रूम है। ग्राउंड फ्लोर के रीडिंग रूम में हो ची मिन्ह कॉर्नर है जहां रीडिंग रूम से अलग प्राइवेसी है और कुछ लोग वहां बैठकर भी पढ़ाई करते है। तीनों फ्लोर पर मिलाकर करीब सवा दो सौ लोगों के बैठकर अध्ययन करने की सुविधा इस लाइब्रेरी में है।
इस लाइब्रेरी में ऐतिहासिक दस्तावेजों, अंतराष्ट्रीय रिपोर्ट्स के अलावा सभी भारतीय भाषाओं में लिखा जा रहा साहित्य भी उपलब्ध है। यहां सभी भाषाओं के दर्जनों अखबार और पत्रिकाएं भी आती हैं जो पाठकों के लिए आकर्षण का केंद्र होती हैं। इसके अलावा पुस्तकों और दस्तावेजों की माइक्रोफिल्म भी बनाकर रखी गई हैं ताकि लंबे समय तक उसका उपयोग किया जा सके। केंद्रीय सचिवालय ग्रंथागार या सेंट्रल सेक्रेटेरियट लाइब्रेरी के नाम से इस पुस्तकालय की स्थापना हुई थी। उस वक्त ये सरकारी कर्मचारियों के लिए बनाई गई थी लेकिन अन्य लोगों को भी इसमें प्रवेश मिलता है। सोमवार से शनिवार तक खुलनेवाले इस पुस्तकालय की टाइमिंग सुबह 9 बजे से शाम 6 बजे तक है। केंद्रीय सरकार के कर्मचारियों को यहां से एक महीने के लिए चार किताबें इश्यू भी होती हैं। सरकारी कर्मचारियों के अलावा एक हजार रुपए जमा करवा कर कोई भी साल भर की सदस्यता ले सकता है। इनमें से पांच सौ रुपए सेक्युरिटी के तौर पर जमा किया जाता है जो सदस्यता छोड़ते वक्त वापस मिल जाता है। शास्त्री भवन में चूंकि भारत सरकार के कई मंत्रालय के दफ्तर भी हैं इसलिए सुरक्षा सख्त होती है। डॉ राजेन्द्र प्रसाद रोड स्थित शास्त्री भवन में प्रवेश के लिए आपके पास भारत सरकार द्वार जारी या मान्य पहचान पत्र होना अनिवार्य है। यहां का नजदीकी मेट्रो स्टेशन केंद्रीय सचिवालय है।  
  

Saturday, January 12, 2019

खास नजरिए की नयनतारा


अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन के कार्यक्रम से लेखिका नयनतारा सहगल का नाम हटाने पर एक बार फिर से वो चर्चा के केंद्र में आ गई हैं। विपक्षी दलों ने आरोप लगाया है कि बीजेपी के इशारे पर मराठी साहित्य सम्मेलन के उद्घाटन समारोह से उनका नाम हटाया गया। महाराष्ट्र में इसपर जमकर राजनीति हो रही है,आरोप प्रत्यारोप लग रहे हैं। शिवसेना तक सरकार पर आरोप लगा रही है। इसके पहले नयनतारा सहगल का नाम 2015 में तब उछला था, जब उन्होंने 6 अक्तूबर को साहित्य अकादमी का पुरस्कार वापस करने की घोषणा की थी। उस वक्त उन्होंने देश में बढ़ रही असहिष्णुता पर अपना विरोध जताते हुए साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने को लेकर एक बयान भी जारी किया था। उस बयान में नयनतारा सहगल ने कहा था कि देश में आतंक का राज ( रेन ऑफ टेरर) है और अहसमति के स्वर को साजिशन दबाया जा रहा है और विरोध की आवाज का कत्ल किया जा रहा है। कमोबेश वैसी ही बातें नयनतारा सहगल के उस भाषण में भी है जो वो अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन में पढ़नेवाली थी। उनका ये भाषण कई जगह पर छपा भी है। साहित्य अकादमी पुरस्कार वापसी के प्रसंग में भी सहगल पर आरोप लगा था कि 1984 के सिख विरोधी दंगे और भागलपुर दंगों के वक्त उनकी संवेदानाएं नहीं जागी थीं। दरअसल सिख विरोधी दंगों के दो साल बाद ही उनको उनकी किताब रिच लाइक अस पर साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था। दरअसल नयनतारा सहगल का दक्षिणपंथी विचारधारा से पुराना विरोध है। जब जनसंघ ने 1969-70 में हिंदी, हिंदू और हिन्दुस्तान का नारा दिया था तब भी सहगल ने अपने स्तंभों में जमकर विरोध किया था। बाद में उनकी अपनी ममेरी बहन इंदिरा गांधी से भी नहीं बनी। दोनों के बीच संबंध बहुत खराब हो गए थे। 1980 में जब इंदिरा गांधी सत्ता में लौटी में नयनतारा सहगल का इटली के राजदूत पद पर तय नियुक्ति रद्द कर दी थी। इंदिरा और नयनतारा सहगल के खराब संबंधों की झलक नयनतारा सहगल की पुस्तक इंदिरा गांधी, ट्राएस्ट विद पॉवर में देखी जा सकती है।
नयनतारा सहगल अंग्रेजी साहित्य में बड़ा नाम माना जाता है। माना तो यह भी जाता है कि आजाद भारत की पहली अंग्रेजी लेखिका है जिनको विश्व स्तर पर इतनी शोहरत मिली। नयनतारा सहगल जवाहरलाल नेहरू की बहन विजयलक्ष्मी पंडित की बेटी हैं। विजयलक्ष्मी पंडित संयुक्त राष्ट्र में भारत की पहली राजदूत रही हैं। नयनतारा सहगल का का जन्म 1927 में हुआ था और कहा जाता है कि जिस कमरे में भारत की आजादी को लेकर बातचीत हुई थी वो उस वक्त उस कमरे में मौजूद थीं। बाद में नयनतारा ने दो शादिया कीं, पहली शादी गौतम सहगल से और दूसरी शादी इंडियन सिविल सर्विस के अफसर ई एन मंगतराय के साथ। ई एन मंगतराय पंजाब के मुख्य सचिव रहे और बाद में पेट्रोलियम सचिव भी। 1994 में ई एन मंगतराय और नयनतारा सहगल के संबंधों पर एक बेहद दिलचस्प किताब प्रकाशित हुई थी जिसका नाम था रिलेशनशिप। इस पुस्तक में नयनतारा और मंगतराय के बीच विविध विषयों पर हुए 1963 से 1967 तक के पत्र संकलित किए गए थे जिनमें से ज्यादातर उन दोनों के प्रेम पत्र हैं। इन पत्रों में निहायत निजी बातों से लेकर पारिवारिक और सामाजिक जीवन के विविध विषयों पर संवाद है। नयनतारा सहगल ने दर्जनों पुस्तकें लिखी हैं और कई पुरस्कार भी उनको मिले हैं। नयनतारा सहगल साहित्य अकादमी की अंग्रेजी भाषा की सलाहकार समिति की सदस्य भी रही हैं। वो वुडरो विल्सन इंटरनेशनल सेटंर फॉर स्कॉलर्स, अमेरिका की फैलो रही हैं। इसके अलावा वो अमेरिका की प्रतिष्ठित अमेरिकन एकेडमी ऑफ आर्ट्स एंड साइंस की फेलो भी चुनी जा चुकी हैं। इनको 1997 में युनिवर्सिटी ऑफ लीड्स ने मानद डॉक्टरेट की उपाधि भी दी है।      


सिनेमा की जमीन पर राजनीति के दांव!


पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के दस साल के कार्यकाल पर उनके मीडिया सलाहकार रहे संजय बारू ने एक किताब लिखी थी। नाम था द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर। इस पुस्तक पर इसी नाम से बनी फिल्म को लेकर देश के खुछ हिस्सों में बवाल मचा हुआ है। कुछ कांग्रेसी नाराज हैं। कांग्रेस और गैर बीजेपी शासित राज्यों में इस फिल्म का प्रदर्शन बाधित भी हुआ। तोड़फोड़ हुई। रायपुर में तो दर्शकों के पैसे लौटाने तक की नौबत आई। बाद में कड़ी सुरक्षा के बीच फिल्म का प्रदर्शन संभव हो सका। इस बाधा को लेकर, तोड़फोड़ को लेकर, कहीं कोई शोर-शराबा नहीं हुआ। किसी को इसमें अभिव्यक्ति की आजादी पर किसी तरह का कोई खतरा नजर नहीं आया। बॉलीवुड की तख्ती ब्रिगेड ने भी किसी तरह का विरोध नहीं किया। तख्ती पर स्लोगन लिखककर खड़े होनेवाली अभिनेत्रियां भी खामोश हैं। किसी भी पीईएन इंटरनेशनल की रिपोर्ट में, किसी भी एमनेस्टी इंटरनेशनल के लेख में इस विरोध का जिक्र होगा, इसमें संदेह है। यहां तक कि अनुपम खेर के दोस्त और अभिव्यक्ति की आजादी के ताजा पैरोकार नसीरुद्दीन शाह भी चिंतित नहीं हैं और उनको तो इस बात की फिक्र भी नहीं हुई कि एक फिल्म के प्रदर्शन को रोका जा रहा है। खैर ये अवांतर प्रसंग है। इसपर फिर कभी विस्तार से चर्चा होगी।
उधर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भी संजय बारू की किताब पर बनी इस फिल्म को आगामी लोकसभा चुनाव से जोड़कर देखा। ममता ने कहा कि इस फिल्म को लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखककर बनाया और रिलीज किया गया है। ममता बनर्जी तो एक कदम और आगे चली गईं और कहा कि एक और फिल्म का निर्माण होना चाहिए जिसका नाम हो डिजास्ट्रस प्राइम मिनिसस्टर। उनका सीधा इशारा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की ओर था क्योंकि उन्होंने यह भी कहा कि उनको इन दिनों कोई एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर दिखाई नहीं देता है बल्कि हर तरफ डिजास्ट्रस प्राइम मिनिस्टर ही दिखता है। उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि फिल्म द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर में तथ्यों से छेड़छाड़ की गई है। ममता बनर्जी राजनीतिज्ञ हैं तो आरोप प्रत्यारोप तो उनके दैनंदिन कार्यक्रमों का हिस्सा है। लेकिन ममता बनर्जी जब ये कहती हैं कि फिल्म द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर आगामी लोकसभा चुनाव के मद्देनजर बनाकर रिलीज की गई तो वो यह भूल गईं कि सिर्फ द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर ही रिलीज नहीं हुई बल्कि उसके रिलीज वाले दिन ही आंध्र प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और तेलुगू देशम पार्टी के संस्थापक मशहूर अभनेता एन टी रामाराव की जिंदगी पर बनी फिल्म एनटीआर कथानाकयुडू भी रिलीज हुई। इस फिल्म में किसी को भी कोई राजनीति नजर नहीं आई। आंध्र प्रदेश में चुनाव होंगे, इसी वर्ष विधानसभा का चुनाव भी होना है।
दरअसल अगर हम देखें तो इस वक्त भारतीय फिल्मों में मशहूर और अहम राजनीतिक शख्सियतों पर फिल्मों का एक दौर चल रहा है। इसमें किसी को राजनीति भी नजर आ सकती है तो कुछ लोग इसमें चुनाव के वक्त राजनीतिक शख्सियत पर बॉयोपिक बनाकर बाजार को भुनाने की कोशिश भी देख सकते हैं। इससे अलग कारण भी हो सकते हैं, कुछ गंभीर तो कुछ अगंभीर। अगर हम इस वक्त के फिल्म निर्माण के समग्र परृश्य पर नजर डालते हैं तो स्जो तस्वीर नजर आती है उसमें राजनीति के साथ साथ कलात्मकता भी है, इतिहास को सहेजने की कोशिश भी है। शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे के जीवन पर भी एक फिल्म बनकर लगभग तैयार है जो इस महीने के अंत तक सिनामघरों में प्रदर्शित की जाएगी। शिवसेना सुप्रीमो बाल ठाकरे पर बनी इस फिल्म में उनकी भूमिका अभिनेता नवाजुद्दीन सिद्दिकी ने निभाई है। बाल ठाकरे पर बनी इस फिल्म की कहानी संजय राउत ने लिखी है। इस फिल्म के डायरेक्टर अभिजीत पाणसे का मीडिया में जो बयान छपा है उसके मुताबिक ये फिल्म शिवसेना के संस्थापक को श्रद्धांजलि है और उनके जन्मदिन 23 जनवरी को रिलीज की जाएगी। इसके अलावा अभी एक और फिल्म की घोषणा हुई है वो फिल्म प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर बनाई जाएगी जिसमें मोदी की भूमिका अभिनेता विवेक ओबरॉय निभाने जा रहे हैं। इस फिल्म पर काम भी शुरू हो चुका है और विवेक ओबरॉय ने पोस्टर जारी कर इसकी जानकारी दी। इस फिल्म का नाम होगा पीएम नरेन्द्र मोदीमैरी कॉम और सरबजीत जैसी फिल्मों के डायरेक्टर उमंग कुमार इस फिल्म का निर्देशन करेंगे। हिंदी ही नहीं देश की अन्य भाषाओं में भी नेताओं पर फिल्में बन रही हैं। अगर ये चुनाव को ध्यान में रखकर भी बनाई जा रही हैं तब भी फिल्मों के लिए अच्छा है कि वो पारंपरिक विषयों से हटकर राजनीति जैसे विषय की ओर उन्मुख हो रही है। हमारे देश में राजनीतिक फिल्में बनती रही हैं लेकिन अगर संख्या के हिसाब से देखें तो उसका अनुपात बहुत ही कम था। अब इसकी संख्या बढ़ी है। आंध्र प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और हेलीकॉप्टर हादसे का शिकार हुए वाई एस राजशेखर रेड्डी की जिंदगी पर भी फिल्म बन रही है। यात्रा नाम से बन रही इस फिल्म के बारे में कहा जा रहा है कि इमें राजशेखर रेड्डी के संघर्षों का चित्रण है और कैसे उन्होंने अपने राजनीतिक कौशल से कांग्रेस को मजबूती दी इसको भी दर्शाया गया है। यह फिल्म फरवरी में रिलीज होनेवाली है। फिल्म को देखने के बाद पता चल सकेगा कि इसको चुनाव को ध्यान में रखकककर बनाया जा रहा है या नहीं। द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर में कोई ऐसी नई बात नहीं है जो पहले से लोगों को ज्ञात नहीं है, लिहाजा इसका चुनाव पर क्या असर होगा, ये कहना कठिन है। विरोध और समर्थन की वजह से फिल्म की चर्चा अवश्य हो गई।  तेलांगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव और तमिलनाडु की पूर्व मुख्यमंत्री और एआईएडीएमके की नेता स्वर्गीय जयललिता की जिंदगी पर भी फिल्म बनने की खबर है। चूंकि लोकसभा चुनाव पास है इस वजह से इन सबको चुनाव से जोड़कर देखा जा रहा है।
अब प्रश्न यही उठता है कि इन फिल्मों का राजनीति पर कितना असर पड़ेगा। क्या ये फिल्में किसी तरह का नैरेटिव स्थापित कर पाएंगी या फिर इन शख्सियतों की जिंदगी को दर्शकों के सामने रखने का काम करेंगी। किसी भी कला के लिए यह अच्छी बात है कि उसका विस्तार हो और वो विस्तार मजबूती पाए। लेकिन इस बात को लेकर सावधान रहना होगा कि कला का इस्तेमाल राजनीति के लिए ना हो। इस संबंध में मुझे याद पड़ता है कि किताबों के बहाने भी राजनीति अपने देश में शुरू हुई थी। जो अब भी छिटपुट ही तरीके से जारी है। जब नेहरू के योगदानों पर सवाल उठने लगे तो कांग्रेस के नेता शशि थरूर ने डेढ़ दशक पहले 2003 में जवाहरलाल नेहरू पर लिखी अपनी किताब नेहरू, द इंवेन्शन ऑफ इंडिया का नया संस्करण जारी करवा दिया। पुस्तक प्रकाशन जगत में इस तरह की कोई परंपरा नहीं रही है कि किसी किताब के नए संस्करण को समारोहपूर्वक जारी किया जाए। इसी तरह से शशि थरूर ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को केंद्र में रखकर एक पुस्तक लिखी द पैराडॉक्सिकल प्राइम मिनिस्टर। पैराडॉक्सिकल का शाब्दिक अर्थ तो मिथ्याभासी होता है परंतु इस पुस्तक में पैराडॉक्सिकल को परोक्ष रूप से एक विशेषण की तरह इस्तेमाल किया गया जिसका अर्थ होता है लोक-विरुद्ध। इस पुस्तक को कुछ लोगों ने कांग्रेस पार्टी का घोषणा पत्र भी करार दिया लेकिन चाहे जो हो राजनीति अगर फिल्मों और पुस्तकों के बहाने हो तो वो होती दिलचस्प है। अमेरिका में लंबे समय से इस तरह की राजनीति होती रही है, अभ अगर हमारे देश में भी फिल्मों और किताबों के माध्यम से राजनीतिक दांव चले जाने लगे तो अच्छा है क्योंकि इससे गाली गलौच और व्यक्तिगत टिप्पणियों वाली राजनीति थोड़ी कम तो होगी। कला के माध्यम से राजनीति करने के अपने फायदे हैं तो उसके अपने खतरे भी हैं। अपनी राजनीति को सही स्थान दिलाने के लिए स्तरीय पुस्तक भी लिखनी होगी और बेहतर फिल्म भी बनानी होगी। अगर स्तरीय काम नहीं पाएगा तो जनता ना तो फिल्म को पसंद करेगी और ना ही पुस्तक को। अगर हाल के दिनों में फिल्में राजनीति के लिए बनाई जा रही हैं तो उनका फैसला जल्द ही हो जाएगा। द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर को अगर जनता पसंद करती है तो वो जबरदस्त हिट होनी चाहिए। इसी तरह से अन्य फिल्मों के भविश्य पर टीका टिप्पणी करने से बेहतर है कि थोड़ा ठहरकर, इंतजार कर उनके रिलीज होने का इंतजार करना चाहिए। लेकिन एक बात सबको ध्यान रखनी होगी कि कला के प्रदर्शन को रोकने का काम ना हो, जबतक कि वो संविधान के दायरे में है।

Saturday, January 5, 2019

चुनिंदा चुप्पी की शिकार बौद्धिकता


बौद्धिकता की बुनियाद ईमानदारी होती है। बुद्धिजीवियों से ये अपेक्षा की जाती है कि वो सार्वजनिक रूप से सही को सही और गलत को गलत कहने का साहस रखते हैं। लेकिन हमारे देश में बहुधा बौद्धिक जगत में इस तरह की ईमानदारी दिखाई नहीं देती है। खासकर साहित्य,कला और संस्कृति के क्षेत्र में जब किसी प्रकार का बदलाव होता है तो एक खास किस्म की राजनीति दिखाई देती है। ये एक विचारधारा विशेष से जुड़े बौद्धिकों में खासतौर पर लक्षित की जाती है। अभी जब मध्यप्रदेश में सरकार ने साहित्य, कला, शिक्षा और संस्कृति से जुड़े फैसले लेने शुरू किए हैं तो इस तरह की चुप्पी देखी जा सकती है। कमलनाथ ने मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री का पद संभालने के बाद एक आदेश के जरिए तमाम समितियों को भंग करने का फरमान जारी कर दिया था। किसी भी समिति के कार्यकाल के खत्म होने का इंतजार नहीं किया गया। राज्य सरकार की अलग अलग संस्थाओं की सलाहकार समिति में नामित सदस्यों को भी हटा देने का आदेश हुआ। पिछले पंद्रह साल से मध्य प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की सरकार थी और वहां की कमेटियों में शिवराज सरकार के पसंद के लोग नामित थे। अब कमलनाथ सरकार अपनी पसंद के लोगों को वहां नामित करने जा रही है। जब मध्यप्रदेश सरकार ने ये फरमान जारी किया तो बौद्धिक जगत मे कोई हलचल नहीं हुई। किसी बौद्धिक मंच पर कमलनाथ सरकार के इस फैसले को लेकर सवाल खड़े हुए हों ये जानकारी नहीं मिल पाई। किसी को भी इसमे फासीवाद आदि नजर नहीं आया, किसी ने भी सरकार की मनमानी पर मुंह नहीं खोला। हो सकता है कहीं छिटपुट विरोध हुआ हो लेकिन किसी कला साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में काम करनेवाले संगठनों ने कोई विरोध नहीं जताया। किसी ने कमलनाथ सरकार से ये अपेक्षा नहीं की कि उनको सलाहकार समितियों के कार्यकाल खत्म होने का इंतजार करना चाहिए। हाल ही में भोपाल के माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति जगदीश उपासने ने इस्तीफा दे दिया। इस तरह की खबर आई कि उनको राज्य सरकार की तरफ से साफ संदेश दे दिया गया था कि वो त्यागपत्र दे दें अन्यथा उनको हटा दिया जाएगा। हुआ भी ऐसा ही। लेकिन इसको किसी भी तरह से संस्थाओं के कामकाज में सरकारी हस्तक्षेप के तौर पर नहीं देखा गया।
अब जरा कुछ साल पीछे चलते हैं। 2014 में नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में केंद्र में सरकार बनी। उस समय के परिदृश्य को याद करें कि कितना शोर शराबा हुआ था कि सरकार शिक्षा और संस्कृति के क्षेत्र में अपने लोगों को बैठाना चाहती हैं। स्मृति ईरानी के मानव संसाधन विकास मंत्री रहने के दौरान तो पूरा बवाल इसी बात को लेकर मचता रहा था कि सरकार विश्वविद्यालयों में अपने लोगों को कुलपति के तौर पर नियुक्त करना चाहती है। संगीत नाटक अकादमी से लेकर अलग अलग सरकारी कमेटियों में संचालन समिति और कार्यसमिति में नियुक्तियों को लेकर भी सरकार को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश हुई। लेकिन अगर संगीत नाटक अकादमी की समिति को देखें तो उसमें तो कम्युनिस्ट पार्टी के कार्ड होल्डर का भी मोदी सरकार के दौर में मनोनयन हुआ और वो अब भी समिति में बने हुए हैं। अगर सरकार असहिष्णु होती तो कम से कम कार्ड होल्डर को तो जगह नहीं ही मिलती। इन अकादमियों ने वामपंथी लेखकों और कलाकारों को सम्मानित और पुरस्कृत भी किया ही, उनके रिश्तेदारों तक को भी पुरस्कृत करने में किसी तरह का भेदभाव नहीं किया। फिर भी सरकार पर आरोप लगते रहे। आरोप लगाने का भी एक अलग तंत्र है। आरोप लगाओ और दबाव बनाते रहो।   
स्वायत्ता पर आसन्न खतरे को लेकर भी सवाल उठे थे। अभिव्यक्ति की आजादी पर बढ़ रहे खतरे को लेकर भी खूब हो-हल्ला मचा। उस वक्त इस बात की आशंका भी जताई गई थी कि नई सरकार संस्थाओं का भगवाकरण करने में जुटी है। कालांतर में इस बात को लेकर भी विरोध प्रदर्शन आदि हुए कि सरकार कला, साहित्य, शिक्षा और संस्कृति की स्वायत्त संस्थाओं पर कब्जा करना चाहती है । पुणे के फिल्म संस्थान से लेकर इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र में हुई नियुक्तियों पर सवाल खड़े होने लगे। सीपीएम के नेता सीताराम येचुरी ने इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र में अध्यक्ष के पद पर राम बहादुर राय की नियुक्ति पर सवाल उठाया था। इस बात की आशंका भी व्यक्त की गई थी कि सरकार देश का इतिहास बदलने की मंशा से काम कर रही है। सांस्कृतिक संस्थाओं में नियुक्ति का इतना विरोध शुरू हो जाता था कि मंत्रियों ने यथास्थितिवाद का देवता बने रहने में बी अपनी भलाई समझी। इन संस्थाओं में नियुक्तियां धीमी कर दी गई। मोदी सरकार पर यह आरोप लगता रहा है कि साहित्यक,सांस्कृतिक संस्थाओं से लेकर विश्यविद्यालयों तक में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की मर्जी और सलाह से ही नियुक्तियां करती हैं। लेकिन ये देखना दिलचस्प होगा कि कमलनाथ सरकार पर इस तरह किसी संगठन या पार्टी के इशारे पर नियुक्तियों के आरोप लगते हैं या नहीं।
जिस भी राजनीतिक दल की सरकार होती है वो अपनी विचारधारा को बढ़ावा देने के लिए तमाम तरह के काम करती है। विचारधारा को मजबूती देने के लिए यह आवश्यक होता है वो इसको मानने और प्रचारित करनेवालों को मजबूती दे। मजबूती देने के नाम पर विरोधियों को ठिकाने लगाने का खेल भी हमारे देश ने देखा है। जब दो हजार चार में यूपीए की सरकार बनी थी उस वक्त भी सोनल मानसिंह को संगीत नाटक अकादमी से और अनुपम खेर को सेंसर बोर्ड से हटा दिया गया था। ये सीपीएम के नेता हरकिशन सिंह सुरजीत के इशारे पर किया गया था। सुरजीत ने उस वक्त लेख लिखकर इन दोनों को हटाने की मांग की थी। केंद्र की मोदी सरकार इस मायने में थोड़ी अलग है। यह वामपंथियों की तरह अपनी विरोधी विचारधारा माननेवालों को अस्पृश्य नहीं मानती है। उनसे दूरी नहीं बनाती या सायास उनको हाशिए पर धकेलने के लिए संगठित प्रयास नहीं करती है। ज्यादा पुरानी बात नहीं है जब भारतीय जनता पार्टी या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचार से सहमत विद्वानों को सरकारी सस्थाओं में प्रवेश तक नहीं था। संघी कहकर उनका मजाक उड़ाया जाता था । फेलोशिप से लेकर तमाम तरह कि नियुक्तियों में प्राथमिक शर्त यह होती थी कि वो संघ की विचारधारा को मानने वाला नहीं हो। साहित्य अकादमी से लेकर अन्य अकादमियों के पुरस्कारों में विरोधी विचारधारा के विद्वानों के नाम पर पुरस्कारों के लिए विचार ही नहीं होता था। यहां तो मोदी सरकार की खुलेआम आलोचना करनेवालों को पुरस्कृत किया जाता है, उनकी पुस्तकें प्रकाशित होती हैं। साहित्य अकादमी के चुनाव में सरकार के नामित प्रतिनिधि हार जाते हैं लेकिन फिर भी साहित्य अकादमी की स्वायत्तता को कम करने की कोशिश नहीं होती। इस वर्ष हुए साहित्य अकादमी के अध्यक्ष के चुनाव के पहले संस्कृति मंत्रालय से संयुक्त सचिव ने एक उम्मीदवार विशेष के पक्ष में पत्र भी लिखा था लेकिन उसका कोई असर चुनाव पर नहीं हुआ।
दरअसल हमारे देश के बौद्धिक वर्ग में वामपंथियों का बोलबाला रहा है, इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी के बाद से बौद्धिक समाज की राजनीति को वामपंथियों को आउटसोर्स कर दिया। अकादमियां और विश्वविद्लायों को वामपंथियों के हवाले कर दिया। वहां की नियुक्तियां और कमेटियों आदि में उस विचारधारा से जुड़े लोगों की नियुक्तियां होने लगी थी। इसकी ऐतिहासिक वजह भी थी क्योंकि प्रगतिशील लेखक संघ ने इमरजेंसी का समर्थन किया था। अभिव्यक्ति की आजादी के चैंपियनों ने इमरजेंसी के वक्त सरकार और इंदिर गांधी को लेकर जिस तरह की वफादरी दिखाई थी उसका ईनाम उनको सालों तक मिलता रहा था। मोदी सरकार बनने के बाद और राज्यों में भी कांग्रेस पार्टी की हार के बाद ऐसा लगने लगा था कि वामपंथी लेखकों के लिए पद आदि का जुगाड़ होना मुश्किल होगा लेकिन मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में भारतीय जनता पार्टी की हार के बाद उनके चेहरे खिले हुए हैं क्योंकि इनके स्वार्थपूर्ति का रास्ता खुलता नजर आ रहा है। मध्यप्रदेश सरकार के फैसलों से इनके अरमान जाग गए हैं। भारतीय जनता पार्टी की सरकार जिस तरह से सहम सहम कर कला, संस्कृति और साहित्य जगत के फैसले ले रही है उनके बरख्श अगर इन फैसलों को देखे तो तुलनात्मक विवेचना रोचक हो सकता है। केंद्र के संस्कृति मंत्रालय से संबंद्ध कितने संस्थानों में अबतक पद खाली हैं उसका आकलन करने पर भी जो तस्वीर बनेगी वो भी दिलचस्प होगी। यहां तक कि राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के निदेशक का पद भी अब तक नहीं भरा जा सका है। इस मामले में भारतीय जनता पार्टी को कांग्रेस और वामपंथी सरकारों के फैसलों को देखना चाहिए ताकि वो भी कला, संस्कृति और साहित्य के क्षेत्र को प्रथामिकता पर रखकर फैसले ले सकें।

Thursday, January 3, 2019

शांत इलाके में पढ़ने की बेहतर जगह


एक रिहाइशी इलाके में पेड़ों के बीच एक इमारत। गेट से अंदर जाने पर कुछ छात्र इधर उधर दिखाई देते हैं। एक कमरे का दरवाजा खुला तो वहां अजीब सी शांति और छात्र पढ़ने में तल्लीन। ऐसे चार छह कमरे जिनके दरवाजे बंद और अंदर छात्र और पुस्तक का साथ । ये मंजर था नोएडा पब्लिक लाइब्रेरी के रीडिंग रूम का। वहां स्कूल, कॉलेज और प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे छात्र बैठकर पढ़ाई करते हैं। नोएडा के सैक्टर पंद्रह स्थित नोएडा पब्लिक लाइब्रेरी की स्थापना वर्ष 2002 में हुई थी, इसका संचालन नोएडा लोक मंच नाम की गैर सरकारी संस्था करती है। इस लाइब्रेरी में 62000 पुस्तकें हैं जो विभिन्न विषयों की है जिनमें भौतिकी, रसायन शास्त्र, गणित, कंप्यूटर विज्ञान, प्रबंधन से लेकर हिंदी साहित्य की पुस्तकें भी उपलब्ध हैं। यहां हिंदी के अमूमन सभी उपन्यास और मशहूर कवियों के संग्रह भी उपलब्ध है। इस लाइब्रेरी से जुड़े महेश सक्सेना ने बताया कि वो काफी लंबे समय से नोएडा में एक पुस्तकालय के लिए प्रयासरत थे। 2002 में उनको इस काम में सफलता मिली और नोएडा अथरिटी ने लाइब्रेकी के लिए जगह दे दी । उसके बाद से पुस्तकालय की योजना परवान चढी। आसपास के इलाके के लोगों ने इस पुस्तकालय के लिए पुस्तकें दान दी। दिल्ली के मशहूर पुस्तकालयों ने भी नोएडा पब्लिक लाइब्रेरी को पुस्तकें तोहफे के रूप में दी। अब तो हालात ये है कि जो पुस्तकें तोहफे के रूप में आती हैं उनमें से जो वहां नहीं होती हैं उसको तो पुस्तकालय में जगह मिलती है और जिल पुस्तक की प्रतियां पहले से उपलब्ध हैं उसको वहां आने वाले छात्रों को या फिर आसपास के स्कूलों के पुस्तकालयों में बांट दी जाती हैं। अब ये पुस्तकालय एक समृद्ध पुस्तकालय के तौर पर अपनी पहचान बना चुका है। आज हर रोज करीब तीन सौ छात्र इस पुस्तकालय के रीडिंग रूम का लाभ उठाते हैं। नोएडा की यह एकमात्र लाइब्रेरी है जिसमें इतने लोगों के पढ़ने की व्यवस्था है और ये सुबह 8 बजे से रात 10 बजे तक खुलता है। रीडिंग रूम में बेठकर पढ़ने के लिए दस दिनों के लिए 100 रु की एक पर्ची कटती है। जिसको दिखाकर कोई भी छात्र सुबह आठ बजे से रात 10 बजे तक दस दिनों तक पढ़ाई कर सकता है। दस दिन बीत जाने के बाद उसको फिर से नई पर्ची बनवानी होती है। नोएडा पब्लिक लाइब्रेरी में 62000 पुस्तकों के अलावा हर दिन 13 समाचारपत्र भी आते हैं। रीडिंग रूम में बैठनेवाले छात्र अगर चाहें तो रेफरेंस के लिए लाइब्रेरी से पुस्तकें लेकर सुबह से शाम तक पढ़ाई कर सकते हैं।
रीडिंग रूम के अलावा पुस्तकालय केभी अलग अलग सदस्य हैं। नोएडा पब्लिक लाइब्रेरी में दो हजार रुपए देकर आजीवन सदस्य बना जा सकता है। सदस्यता के लिए किसी भी सरकारी पहचानपत्र का होना आवश्यक है। आजीवन सदस्य तीन पुस्तकें लेकर घर जा सकते हैं और उसको 15 दिनों तक अपने पास रखकर पढ़ सकते हैं। इसी तरह से 750 रु की सदस्यता लेकर आप 2 पुस्तक और 550 रु की सदस्यता लेकर आप एक पुस्तक 15 दिनों के लिए घर ले जा सकते हैं। पुस्तकालय से जुड़ी विभा बंसल ने बताया कि उनके पुस्तकालय में बुजुर्ग सदस्यों के लिए एक विशेष सुविधा है कि अगर कोई सदस्य 15 दिन के लिए पुस्तक ले गए और वो पढ़ नहीं पाए तो वो फोन पर भी अगरे 15 दिनों के लिए उसका रिन्यूल करवा सकते हैं।
कैसे पहुंचें
नोएडा पब्लिक लाइब्रेरी सैक्टर 15 मेट्रो स्टेशन के पास है। मेट्रो से वहां पहुंचना आसान है। मेट्रो स्टेशन से या तो पैदल या इलेक्ट्रिक रिक्शा से पहुंचा जा सकता है।