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Saturday, May 27, 2023

हिंदी पुरस्कारों पर उदासीन केंद्र सरकार


आज संसद के नए भवन का शुभारंभ होनेवाला है। उसपर जमकर राजनीति हो रही है। कई विपक्षी दल इसके उद्घाटन समारोह के बहिष्कार की घोषणा कर चुके हैं तो कई दल समर्थन में हैं। इस बीच गृह मंत्री अमित शाह ने स्वाधीनता के बाद सत्ता हस्तांतरण के प्रतीक सेंगोल के बारे में देश की जनता को बताया। इसके बाद सेंगोल को लेकर भी पक्ष विपक्ष में दलीलें दी जाने लगीं। कुछ लोगों ने सेंगोल की महत्ता पर प्रश्न खड़े कर दिए। सेंगोल की परंपरा को जब चोल सम्राज्य से जोड़ा गया तो कथित लिबरल और सेक्यूलर बुद्धिजीवियों ने इसको हिंदू राष्ट्र से जोड़ दिया। यहां वो ये भूल गए कि सत्ता के हस्तांतरण के समय इस तरह के दंड को सौंपने का विधान हमारे देश में सदियों से रहा है। महाभारत के शांति पर्व में विस्तार से इस बारे में चर्चा है। कर्नाटक के हंफी के विरुपाक्ष मंदिर में नटराज की मूर्ति के साथ सेंगोल भी है, जिसके शीर्ष पर नंदी की आकृति है। बताया जाता है कि ये मंदिर सातवीं शताब्दी का है। सेंगोल की परंपरा हमें ग्रंथों और मूर्तियों में मिलते हैं। इस पर अनावश्यक विवाद है। जब विवाद अनावश्यक होते है तो शोरगुल ज्यादा होता है।संसद के उद्घाटन और सेंगोल की प्रामाणिकता के शोरगुल में एक महत्वपूर्ण मुद्दा दब गया। सियासी शोर में भाषा के मुद्दे नेपथ्य में चले जाते हैं। 

भारतीय भाषाओं के विस्तार और उसको समृद्ध करने के लिए कई संस्थाएं कार्य करती हैं। इनमें हिंदी से जुड़ी संस्थाएं भी हैं जो अन्य कार्यों के अलावा हिंदी और गैर हिंदी भाषियों को हिंदी में श्रेष्ठ लेखन के लिए पुरस्कृत करती रही हैं। ऐसी ही एक संस्था है केंद्रीय हिंदी निदेशालय। ये भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय के उच्चतर शिक्षा विभाग के अंतर्गत आती है। 17 मई 2023 को इस संस्था ने एक महत्वपूर्ण सूचना जारी की। विषय़ था शिक्षा मंत्रालय के अंतर्गत विभिन्न भाषाओं द्वारा दिए जा रहे पुरस्कारों का युक्तिकरण-हिंदी भाषा में पुरस्कारों को बंद करने के सबंध में। इस सूचना में बताया गया कि भाषा प्रभाग, उच्चतर शिक्षा विभाग, शिक्षा मंत्रालय, दिल्ली के उपसचिव के निदेश पत्रांक एफ संख्या 8-86/2015/एल-II दिनांक 4 मई 2023 की अनुपालना के परिप्रेक्ष्य में सर्वसाधारण को सूचित करने का निदेश हुआ है कि शिक्षा मंत्रालय ने केंद्रीय हिंदी निदेशालय द्वारा शिक्षा पुरस्कार योजना तथा हिंदीतर भाषी लेखक पुरस्कार योजना के अंतर्गत दिए गए पुरस्कारों को समाप्त करने का निर्णय लिया है। यानि कि पिछले कई वर्षों से दिए जा रहे इन पुरस्कारों को भारत सरकार ने बंद कर दिया। बताया जा रहा है कि इसी तरह से केंद्रीय हिंदी संस्थान आगरा के पुरस्कारों को भी शिक्षा मंत्रालय ने बंद कर दिया है। केंद्रीय हिंदी संस्थान भी हिंदी सेवियों के अलावा गैर हिंदी भाषियों को हिंदी में श्रेष्ठ कार्य करने के लिए पुरस्कृत करती है। प्रवासी लेखकों को भी। केंद्रीय हिंदी संस्थान के पुरस्कार बेहद सम्मानित माने जाते हैं। ये राष्ट्रपति के हाथों दिए जाते थे जो परंपरा कई वर्षों से बंद है। संस्थान से सुब्रह्मण्य भारती, दीनदयाल उपाध्याय, सरदार वल्लभ भाई पटेल, गंगा शरण सिंह, गणेश शंकर विद्यार्थी जैसे महानुभावों के नाम से वर्षों से दिए जा रहे पुरस्कारों को बंद कर दिया गया। प्रश्न ये उठता है कि इन महत्वपूर्ण पुरस्कारों को बंद करने का निर्णय सरकार के स्तर पर हो गया या हिंदी भाषा के लिए कार्य कर रहे विद्वानों या इन संस्थाओं में शीर्ष पर बैठे लोगों से विमर्श किया गया। 

शिक्षा मंत्रालय की तरफ से इन संस्थानों को 4 मई 2023 को जो आदेश आया है उसमें लिखा है कि गृह मंत्रालय के निर्देश पर राष्ट्रपति द्वारा दिए जानेवाले पुरस्कारों और अन्य भाषाई पुरस्कारों का युक्तिकरण किया जा रहा है। इस सिलसिले में शिक्षा मंत्री की अध्यक्षता में एक बैठक 15.11.2022 को हुई। इस बैठक में चर्चा के दौरान ये बात सामने आई कि हिंदी के लिए विभिन्न मंत्रालयों और संस्थाओं द्वारा पुरस्कार दिए जाते हैं। इसलिए शिक्षा मंत्रालय के अंतर्गत केंद्रीय हिंदी संस्थान और केंद्रीय हिंदी निदेशालय के पुरस्कार के संबंध में किसी प्रकार की कार्यवाही न की जाए। कुछ इसी तरह का निर्देश राष्ट्रीय सिंधी भाषा विकास परिषद को भी प्राप्त हुआ है। उनको भी निर्देशित किया गया है कि वो अपने पुरस्कारों पर किसी तरह की कार्यवाही न करें। 

इन सूचनाओं से ये पता चलता है कि गृह मंत्रालय के निर्देश के आलोक में शिक्षा मंत्रालय ने हिंदी के पुरस्कारों को बंद करने का निर्णय लिया है। हैरानी की बात है कि गृह मंत्री अमित शाह हिंदी की व्याप्ति को बढ़ाने के लिए निरंतर प्रयासरत हैं और उनके ही मंत्रालय के निर्देश पर हिंदी और हिंदीतर भाषियों के पुरस्कारों को बंद किया जा रहा है। जब 2014 में नरेन्द्र मोदी की सरकार सत्ता में आई थी तो उसके दो वर्ष बाद 2016 में केंद्रीय हिंदी संस्थानों के पुरस्कारों की राशि एक लाख रुफए से बढ़ाकर पांच लाख रुपए कर दी गई थी। तब उसका हिंदी जगत में स्वागत हुआ था। सात वर्षों में ऐसा क्या हो गया कि यही सरकार उन पुरस्कारों को बंद कर रही है। एक अनुमान के मुताबिक देश में हिंदी भाषियों की संख्या 60-70 करोड़ के करीब है। ऐसे में अगर अलग अलग मंत्रालय और संस्थाएं हिंदी सेवियों को पुरस्कृत करती हैं तो उसमें हानि क्या है। अगर इन पुरस्कारों को युक्तिसंगत करने के लिए बंद किया गया है तो हिंदी भाषी लोगों से इस बारे में चर्चा करनी चाहिए थी। 

एक तरफ गृह मंत्रालय हिंदी और हिंदीतर भाषा के पुरस्करों को बंद कर रही है दूसरी तरफ वित्त मंत्रालय के अंतर्गत आनेवाला एक बैंक 61 लाख रुपए के पुरस्कारों की घोषणा कर चुका है। पुरस्कारों के लिए उसकी लांगलिस्ट प्रकाशित हो चुकी है। ये अलग बात है कि बैंक का ये पुरस्कार अनुवाद के लिए है। हैरानी की बात है कि इस पुरस्कार के लांगलिस्ट में भी हिंदी में अनूदित कोई पुस्तक नहीं है। इस पुरस्कार की जूरी के सदस्यों के नाम देखने पर फिल्म द कश्मीर फाइल्स के एक संवाद का स्मरण होता है- सरकार कोई भी हो सिस्टम तो अपना ही चलता है। इस पुरस्कार की जूरी में बुकर पुरस्कार से सम्मानित और वैचारिक रूप से वामपंथ के साथ गीतांजलिश्री, प्रसिद्ध वामपंथी लेखक अरुण कमल और पुष्पेश पंत आदि हैं। इसमें अनुवाद के लिए पहला पुरस्कार कृति की मूल भाषा के लेखक को रु 21 लाख और अनुवादक को 15 लाख रुपए देने का प्रविधान है। इसके अलावा 5 अन्य अनुवाद के पुरस्कार दिए जाने हैं जिसमें मूल कृति के लेखक को तीन लाख रुपए और अनुवादक को 2 लाख रु दिए जाएंगे। राशि के लिहाज से अगर देखें तो ये भारत का सबसे बड़ा पुरस्कार है। क्या ये वित्त मंत्रालय की बिना सहमति के आरंभ हुआ है। अगर बगैर भारत सरकार की सहमति के इतनी भारी भरकम रकम का पुरस्कार सरकारी बैंक से दिया जा रहा है तो भी चिंता की बात है। पुरस्कार की ये राशि भी करदाताओं के पैसे दिए जाने हैं और हिंदी निदेशालय या हिंदी संस्थान के पुरस्कार भी करदाताओं के पैसे दिए जाने हैं। अगर गृह मंत्रालय पुरस्कारों को युक्तिसंगत करना चाहता है तो क्या वहां से वित्त मंत्रालय को किसी प्रकार का निर्देश गया था। 

भारत सरकार को हिंदी भाषा की समृद्धि और उसके विस्तार के लिए काम करनेवालों को दिए जानेवाले इन पुरस्कारों को बंद किए जाने के अपने निर्णय पर पुनर्विचार करना चाहिए। गृह मंत्री अमित शाह को हस्तक्षेप करना चाहिए। कुछ वर्षों पूर्व इसी तरह से हिंदी की संस्थाओं के विलय का प्रस्ताव आया था लेकिन तब प्रधानमंत्री के हस्तक्षेप के बाद उसका कार्न्वयन रोक दिया गया था। सरकार को हिंदी के पुरस्कारों को युक्तिसंगत बनाते समय हिंदी भाषा-भाषियों की संख्या पर भी विचार करना चाहिए। 


Saturday, May 20, 2023

मेरा दर्शक-तेरा दर्शक का खतरनाक खेल


जिस दिन फिल्म ‘द केरल स्टोरी’ प्रदर्शित हुई उसी दिन एक और फिल्म का प्रदर्शन हुआ, जिसका नाम है ‘अफवाह’ । एक तरफ द केरल स्टोरी में कोई चमकता सितारा नहीं है वहीं दूसरी तरफ अफवाह फिल्म में नवाजुद्दीन सिद्दिकि और भूमि पेडणेकर जैसे सितारों ने काम किया है। फिल्म अफवाह को सुधीर मिश्रा ने निर्देशित किया है। ‘द केरल स्टोरी’ न केवल चर्चित हुई, हो रही है, बल्कि सुदीप्तो सेन निर्देशित इस फिल्म ने बंपर कारोबार भी किया। फिल्म ‘अफवाह’ को पालिटिकल थ्रिलर बताया गया लेकिन इस फिल्म की न तो चर्चा हो पाई और न ही इसने औसत कारोबार किया। उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार इस फिल्म ने पहले सप्ताह में करीब तीस लाख का कारोबार किया। कुछ ट्विटरवीरों ने इस फिल्म के पक्ष में माहौल बनाने का प्रयास किया लेकिन हवा बन नहीं पाई। फिल्म फ्लाप हो गई। इस पृष्ठभूमि को बताने का आशय ये नहीं है कि किस फिल्म ने कितना बिजनेस किया। इसको बताने का उद्देश्य ये है कि फिल्म अफवाह के निर्देशक सुधीर मिश्रा ने एक ट्वीट किया जिसके निहितार्थ बेहद गंभीर हैं। इस ट्वीट में सुधीर ने लिखा, द कश्मीर फाइल्स के बारे में लिबरल्स को शिकायत रहती है। क्यों? विवेक अग्निहोत्री ने एक फिल्म बनाई और उसके दर्शक इस फिल्म को देखने के लिए थिएटर में आए। लेकिन जब हम फिल्म बनाते हैं तो हमारे दर्शक, जो विवेक की आलोचना करते हैं, चुपचाप बैठे रहते हैं। वो फिल्म देखने के लिए सिनेमा हाल नहीं पहुंचते हैं। क्षमा करें, मुझे ये कहना पड़ा। फिर उन्होंने हैशटैग लगाकर अपनी फिल्म का नाम अफवाह लिखा।

सुधीर मिश्रा के इस ट्वीट पर ‘द कश्मीर फाइल्स’ के निर्देशक विवेक अग्निहोत्री ने उत्तर दिया। लिबरल का अर्थ जानना चाहा। सुधीर मिश्रा को चर्चा के लिए आमंत्रित किया। दोनों के बीच चर्चा भी हुई। सुधीर ने अपना पक्ष रखा और विवेक का अपना पक्ष था। हम यहां उस चर्चा के बिंदुओं पर नहीं जाएंगे। सुधीर ने अपने ट्वीट में जो लिखा उसके पीछे की मानसिकता को डिकोड करने का प्रयास करेंगे। सुधीर ने लिखा कि विवेक के दर्शक और हमारे दर्शक। सुधीर की छवि एक संजीदा फिल्मकार की है । जाने किस मानसिकता में उन्होंने हिंदी फिल्मों के दर्शकों का बंटवारा कर दिया। दर्शकों को बांटने की बात सार्वजनिक रूप से कहकर सुधीर ने एक विभाजक रेखा खींच दी। इस विभाजन की बात बहुत दूर तक जाएगी और इसके खतरनाक परिणाम भी हो सकते हैं। अगर निर्देशकों का अपना दर्शक वर्ग होने लगा तो फिल्म उद्योग संकट में फंस सकता है। हिंदी फिल्म जगत जिसको बालीवुड के नाम से भी जाना जाता है, पहले से ही कई खेमों में बंटा हुआ है। बावजूद इसके दर्शकों को लेकर कभी भी बंटवारे की बात नहीं होती थी। यह विभाजन हिंदी फिल्म जगत के लिए ठीक नहीं है। अभी तक ऐसा कोई संदर्भ या प्रसंग नहीं आया जिसमें किसी गंभीर फिल्मकार ने अपने और दूसरे के दर्शक की बात की हो। सुधीर ने ऐसा क्यों किया। क्या उनकी फिल्मों के लगातार फ्लाप होने की कुंठा से ये शब्द उपजे या कारण कुछ और है। अगर हम देखें तो सुधीर की पिछली कई फिल्में अच्छा बिजनेस नहीं कर पाई हैं। वो लाख कहें कि वो सौ करोड़, दो सौ करोड़ कमाने की होड़ में नहीं हैं लेकिन फिल्म अपनि लागत वसूल सके, इतना तो चाहते ही होंगे। संभव है कि उनको लगता हो कि वो जिस विचारधारा के अनुयायी हैं उस विचारधारा को माननेवाले लोग उनकी फिल्में देखने क्यों नहीं आते हैं। ये बात इस वजह से कह रहा हूं कि उन्होंने विवेक से बातचीत के क्रम में ये स्वीकार किया कि वो लेफ्टिस्ट हैं। उनकी फिल्मों में सर्वहारा की जीत होती है। उनकी फिल्मों का अंत सुखांत नहीं होता है। उनकी फिल्में कई असुविधाजनक सवाल खड़े करती हैं। आदि आदि। यदि ऐसा है तो सुधीर को अभी वामपंथियों को समझना शेष है।

सुधीर के तथाकथित दर्शक अगर उनकी फिल्म देखने के लिए नहीं आते हैं। सुधीर को इस बात की तकलीफ है। क्या ये माना जाए कि सुधीर मिश्रा सिर्फ अपने वैचारिक मित्रों के लिए ही फिल्में बनाते रहे हैं। समाज और फिल्मों से प्रश्न खड़े करने और दर्शकों से संवाद के दावे खोखले हैं। क्या उनकी फिल्मों में वामपंथ का एजेंडा या उस विचारधारा का प्रोपेगैंडा होता रहा है। सुधीर को ये बातें स्पष्ट करनी चाहिए। फिल्म जगत में वामपंथियों का एजेंडा किस तरह से चलता रहा है,किस प्रकार से हिंदी फिल्मों की दुनिया में में रूसियों के सहयोग से वामपंथियों ने अपना ईकोसिस्टम तैयार किया। उसके बारे में पिछले सप्ताह इस स्तंभ में चर्चा की गई थी। सुधीर की टिप्पणी से उस चर्चा को बल मिलता है। सुधीर ने विवेक अग्निहोत्री से बातचीत में ये भी कहा कि अब फिल्म उद्योग के लोग चुप हो गए हैं। शायद वो भूल गए कि उनके इर्दगिर्द जिन फिल्म निर्देशकों को देखा जाता है या जिनके साथ उनकी तस्वीरें इंटरनेट मीडिया पर आती हैं वो मुखरता से न सिर्फ अपनी बातें कहते हैं बल्कि कई बार तो सार्वजनिक मंचों पर गाली गलौच की भाषा का भी उपयोग करते हैं। दिल्ली के शाहीन बाग में नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में धरने में शामिल होकर बिरयानी खाते हुए नारे लगाते भी देखे जाते हैं। सुधीर अपने मित्रों की भाषा तो नहीं बोलते हैं लेकिन उनके मन में क्या चलता है ये उनकी टिप्पणी से पता चलता है। विवेक से बातचीत में वो कहते हैं कि इन दिनों लोग चुप हो गए हैं। दबी जुबान में भय के माहौल की चर्चा भी करते हैं। फिल्म इंडस्ट्री में कई सितारों ने पहले भी भय की चर्चा की थी। उनमें से एक शाह रुख खान की फिल्म पठान ने बंपर बिजनेस किया। तब तो किसी ने तुम्हारा दर्शक और मेरा दर्शक का प्रश्न नहीं उठाया। दरअसल जो लेफ्ट की विचारधारा में आस्था रखते हैं वो लगातार अर्धसत्य के साथ चलते रहते हैं। सुधीर भी इस दोष के शिकार हो गए प्रतीत होते हैं। 

वामपंथी लगातार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात करते हैं। अवसर मिलने पर आक्रामक होकर अपनी बात ऱखना और नारे लगाना उनका शौक है। उनके नारे, उनकी आक्रामकता सब खोखले हैं। अपनी विचारधारा को प्रभावी बनाने के लिए वो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उपयोग करते हैं। कई बार जब उनकी विचारधारा से जुड़े लोग कुछ ऐसा कर जाते हैं जो उनके विचारों के विपरीत होता है तो वहां उनको अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की चिंता नहीं सताती है। अभी कुछ दिनों पहले एक फिल्म आई थी। गांधी और गोडसे, एक युद्ध। ये फिल्म हिंदी के वरिष्ठ लेखक और जनवादी लेखक संघ के अध्यक्ष असगर वजाहत के नाटक गोडसे@गांधी.काम पर आधारित था। असगर वजाहत पर आरोप लगे कि उन्होंने इस फिल्म में गोडसे को गांधी के समकक्ष खड़ा कर दिया। गांधी के परिवार के तुषार गांधी भी इस विवाद में कूदे थे। हिंदी साहित्य जगत में इस बात की खूब चर्चा रही कि जनवादी लेखक संघ का एक धड़ा असगर वजाहत को संगठन के अध्यक्ष पद से हटाना चाहता है। हिंदी साहित्य की इस चर्चा को मानें तो प्रश्न उठता है कि वामपंथी लेखकों के इस संगठन, जनवादी लेखक संघ, को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार की कितनी चिंता थी। उनके संगठन के अध्यक्ष ने एक नाटक लिखा, उस नाटक में उन्होंने गांधी के विचारों के आधार पर एक काल्पनिक परिदृष्य गढ़ा, जिसपर फिल्म बनी। ये उनकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता थी। चूंकि असगर वजाहत के विचार उनके संगठन के विचारों से अलग थे लिहाज उनके विरुद्ध एक माहौल बनाया गया। आवश्यकता इस बात की है फिल्म के दर्शक सुधीर की टिप्पणी के निहितार्थों को समझें और अपने विवेक से निर्णय लें।       

Saturday, May 13, 2023

वेब सीरीज ने खोली कम्युनिस्टों की पोल


इन दिनों एजेंडा फिल्म की चर्चा हो रही है। फिल्म द केरल स्टोरी को एक विशेष वर्ग के लोग एजेंडा या प्रोपगैंडा फिल्म कहकर प्रचारित कर रहे हैं। उल्लेखनीय है कि द केरल स्टोरी को एजेंडा फिल्म बतानेवालों ने फिल्म नहीं देखी है। दरअसल एक पूरा ईकोसिस्टम है जो वैकल्पिक विमर्श वाली फिल्मों को एजेंडा के तौर पर प्रचारित कर परोक्ष रूप से बहिष्कार करते हैं। कई फिल्में, डाक्यूमेंट्री या वेबसीरीज ईकोसिस्टम की विचारधारा के अनुकूल नहीं होती हैं। उनमें उनकी विचारधारा की करतूतों का पर्दाफाश होता है। ऐसी फिल्मों या वेबसीरीज के उन बिंदुओं को लेकर शोर मचाते हैं जिसमें विचारधारा की आड़ में की गईं करतूतें दब जाती हैं। उनपर जनता या दर्शकों का पर्याप्त ध्यान नहीं जा सके। ऐसी ही एक सीरीज है, जुबली। इस सीरीज में स्वाधीनता के कुछ वर्ष पहले और उसके बाद के चंद वर्षों की हिंदी फिल्मों की कहानी कही गई है। इसमें राय टाकीज के बनने उसके खत्म होने से लेकर नायकों के बनने और नायिकाओं की स्थितियों का चित्रण किया गया है। विक्रमादित्य मोटवानी के निर्देशन में बनी इस सीरीज में उस दौर के कई नायकों और नायिकाओं का चित्रण किया गया है। इस वेब सीरीज को लेकर जो विमर्श हो रहा है वो ये कि इसका नायक मदन कुमार किस हीरो के चरित्र से मेल खाता है।नायिका नीलोफर में किसकी छवि दिखती है। राय टाकीज के मालिक श्रीकांत राय का चरित्र क्या हिमांशु राय से मिलता है या मालकिन का किरदार देविका रानी से। क्या इसका एक और नायक जय खन्ना राज कपूर के व्यक्तित्व से प्रेरित है आदि। इस बात की दबी जुबान में भी चर्चा नहीं हो रही है कि रूसियों ने किस तरह से हिंदी फिल्मों में अपना एजेंडा चलाया। 

विक्रमादित्य मोटवानी ने इस सीरीज में उस दौर में हिंदी फिल्मों में सोवियत रूस और अमेरिका के एजेंडे को सामने लाकर रख दिया है। इस फिल्म के एक संवाद पर नजर डालते हैं। आवाम तक अपनी आवाज पहुंचाने के दो जरिए हैं, सिर्फ दो। सिनेमा और रेडियो। सोवियत संघ और अमेरिका इस समय दोनों भारत सरकार की खुशामद कर रहे हैं, सिनेमा और रेडियो में अपने पैर जमाने के लिए। कोल्ड वार शुरु हो चुका है। दोनों ही मुल्क अपने अपने प्रोपगैंडा के लिए फिल्में बनाना चाहते हैं। और इसी सिलसिले में सोवियत संघ ने अपना खास आदमी ब्लादीमीर यहां भेजा है। इन्होंने प्रोपगैंडा फिल्मों के लिए काफी काम किया है चाइना में। संवाद से स्पष्ट है कि सोवियत संघ हिंदी फिल्मों को लेकर कितना गंभीर था। वो उस दौर के उभरते हुए सितारे मदन कुमार को अपने एजेंडा के लिए काम करवाने के लिए उत्सुक था। उसको प्रोत्साहित करनेवाले राय टाकीज के मालिक श्रीकांत राय से रूस के प्रतिनिधियों की भेंट भी होती है। श्रीकांत राय उनके प्रस्ताव को ठुकरा देते हैं। रूसी उस समय हिंदी फिल्मों  में काफी निवेश करना चाहते थे। उनको कोई भी स्टार नहीं मिल रहा था जिसकी फिल्मों पर पैसा लगाया जा सके। परिस्थितियां इस प्रकार की बनती है कि जय खन्ना अपने फाइनेंसर वालिया को फिल्म बनाने के लिए तैयार करता है। ये दोनों रूसियों के संपर्क में आते हैं। एक बेहतरीन दृश्य है जब वालिया एक फिल्म का पोस्टर तैयार करवाता है। फिल्म का नाम होता है मजदूर। मजदूर की कहानी भी उसके पास नहीं होती है लेकिन वो कमिटमेंट कर देता है। उसके और जय खन्ना के बीच बहस होती है। जय कहता है कि उसके पास कहानी नहीं है तो वालिया उत्तर देता है कि मास्को में ढेर सारी टैरेटरी खुलनेवाली है। रूस का दरवाजा खुलावाना है। रशियन तीन फिल्मों का फाइनेंस करने को तैयार हैं। रशियन इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल का आयोजन होगा जिसमें इन फिल्मों को दिखाया जाएगा। आदि आदि। इसलिए मजदूर की कहानी तो लिखनी होगी। उस दौर को याद करिए जिस दौर की बात हो रही है। राज कपूर की कई फिल्में आती हैं, रूस में रिलीज होती हैं। वहां के अंतराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल में उनको दिखाया जाता है। राज कपूर की आरंभिक फिल्मों के बारे में कहा गया कि वो समाजवाद से प्रेरित हैं। उसी दौर में भारतीय जन नाट्य संघ या इप्टा लोकप्रिय होने लगा था। फिल्मों में रुचि रखनेवालों को याद होगा कि महबूब खान जिन्होंने मदर इंडिया बनाई उनके प्रोडक्शन हाउस का लोगो हशिया और हथौड़े के निशान के बीच में अंग्रेजी में एम लिखा था। वही हंशिया और हथौड़ा जो कम्युनिस्ट पार्टी आफ इंडिया का निशान था। प्रश्न यही उठता है कि क्या इन सबके बीच किसी प्रकार का कोई संबंध था। वेब सीरीज जुबली ने इन परिस्थितियों को दस एपिसोड में दर्शकों के सामने पेश कर दिया है। ये सिर्फ मनोरंजन के लिए नहीं है बल्कि ये बताता है कि कम्युनिस्टों ने हिंदी फिल्मों में अपना एजेंडा किस तरह से चलाया। विचार और विचारधारा का प्रोपगैंडा कैसे किया। 

फिल्मकारों को सोवियत रूस के प्रतिनिधि बताते थे कि सिस्टम के खिलाफ लड़नेवाला नायक कैसा होना चाहिए। फिल्मों में सेठ को गाली दी जानी चाहिए। यह बताया जाना चाहिए कि गरीब अपने वेतन पर कपड़ा नहीं खरीद सकता, पूरे परिवार को खाना नहीं खिला सकता। अगर गरीब जाग गया तो सबकी रातों की नींद उड़ा देगा। फिल्मकारों को प्रलोभन दिया जाता था कि अगर उनकी फिल्में रूसियों की विचारधारा का प्रोपगैंडा करेंगी और उनके एजेंडा पर चलेंगी तो उनकी फिल्मों को तत्कालीन सोवियत संघ, तुर्की और यूरोप में प्रदर्शित करवाया जाएगा। फिल्म बनाने के लिए पैसे दिए जाएंगे। एक और बेहद चौंकानेवाला प्रसंग इस सीरीज में है। रूसी हिंदी फिल्मी गानों के विरुद्ध थे। 1952 में तत्कालीन सूचना और प्रसारण मंत्री ने आकाशवाणी पर हिंदी गानों पर प्रतिबंध लगा दिया। कारण ये दिया गया कि ये गाने भारतीय संस्कृति के खिलाफ है। रूसी भफी यही कहते थे। प्रश्न ये उठता है कि गाने भारतीय संस्कृति के विरुद्ध थे या रूसी अपनी विचारधारा को गाढ़ा करने के लिए इनपर प्रतिबंध लगवाना चाहते थे। प्रतिबंध के दौर में अमरीकियों ने हिंदी गानों को रेडियो सिलोन पर बजवाने का प्रबंध किया था। राय टाकीज के मालिक जब रूसियों के सामने नहीं झुकते हैं तो उनकी तबाही का षडयंत्र रचा जाता है। उनकी पत्नी सुमित्रा को रूसी अपनी तरफ करते हैं। उनके वित्त विभाग की देखरेख करनेवाले को घूस भी दिया जाता है और वादा भी किया जाता है कि उनके बेटे का दाखिला मास्को के इंजीनियरिंग कालेज में करवा दिया जाएगा। उस दौर में इंजीनियरिंग और मेडिकल की पढ़ाई के लिए कई छात्र सोवियत रूस गए थे। गजब समानता है। उस वक्त रूसियों ने फिल्मकारों के फोन टैप करके उनको ब्लैकमेल भी किया था। सरकारें खबरें भी रुकवा देती थीं। कहानी में इन सबका चित्रण है।  

आज जो कम्युनिस्ट या वाम विचारधारा के लोग फिल्मों में एजेंडा और प्रोपगैंडा की बात करते हैं उनको इस वेब सीरीज को देखना चाहिए। किस तरह से भारत की स्वाधीनता के बाद से लेकर सोवियत संघ के विघटन तक हिंदी फिल्मों में रूसियों की विचारधारा का एजेंडा चलता रहा। किस तरह से वर्ग संघर्ष को बढ़ावा दिया गया।। कई फिल्मों में इसको नेहरू के समाजवाद और गांधी की ग्राम-व्यवस्था के बीच के संघर्ष के तौर पर दिखाया गया। उद्देश्य और मंशा तो वामपंथी विचार को बढ़ावा देना था। यह अनायास नहीं था कि इप्टा जैसे संगठन और ख्वाजा अहमद अब्बास जैसे लेखक लोकप्रिय होने लगे थे। कैफी आजमी से लेकर जावेद अख्तर तक इस तरह का लेखन कर रहे थे जिसमें वर्ग संघर्ष का चित्रण था। दस एपिसोड में विक्रमादित्य मोटवानी ने कुछ ही परतें खोली हैं, संभव है कि दूसरे सीजन में और भी दिलचस्प खुलासे हों।   


Saturday, May 6, 2023

फिल्म विरोध का एजेंडा नाकामयाब


फिल्म ‘द केरल स्टोरी’ इन दिनों चर्चा में बनी हुई है। इसके पक्ष-विपक्ष में लगातार दलीलें दी जा रही हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर देशभर में एक बार फिर से बहस हो रही है। केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड से प्रमाण पत्र मिलने के बाद भी इस फिल्म के प्रदर्शन को रोकने के लिए हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक का दरवाजा खटखटाया गया। केरल हाईकोर्ट में फिल्म के रिलीज होने वाले दिन तक सुनवाई हुई। अदालतों ने इस फिल्म के प्रदर्शन पर रोक लगाने से इंकार कर दिया। आश्चर्य की बात है कि कलात्मक अभिव्यक्ति के नाम पर किसी भी तरह की सामग्री दिखाने के पक्षधर और स्वयं को लिबरल कहनेवाले लोग भी इस फिल्म के प्रदर्शन के विरुद्ध थे। इस शोरगुल के बीच केरल हाईकोर्ट में सुनवाई के दौरान न्यायाधीशों की टिप्पणियां अलक्षित रह गईं। न्यायमूर्ति एन नागरेश और न्यायमूर्ति एस थामस की पीठ ने इस फिल्म के प्रदर्शन को रुकवाने की याचिका की सुनवाई के दौरान कई महत्वपूर्ण टिप्पणियां कीं। कोर्ट की कार्यवाही की लाइव रिपोर्टिंग करनेवाली वेबसाइट लाइव ला के अनुसार पीठ ने स्पष्ट किया इस फिल्म को केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड से सार्वजनिक प्रदर्शन के लिए प्रमाण पत्र मिल चुका है। ऐसे में इसको रोकना उचित नहीं होगा। न्यायपीठ ने इस बात को भी रेखांकित किया कि याचिकाकर्ताओँ में से किसी ने भी फिल्म देखी नहीं है। अब यहां यह प्रश्न उठता है कि अगर किसी ने फिल्म देखी नहीं थी तो इसको रुकवाने की याचिका लेकर अदालत के सामने क्यों उपस्थित हो गए। कुछ लोगों का आरोप है कि ये फिल्म एजेंडा फिल्म है लेकिन क्या फिल्म को बगैर देखे उसके प्रदर्शन को रुकवाने के लिए उच्च न्यायालय पहुंच जाना एजेंडा नहीं है। असल एजेंडा तो यही प्रतीत होता है कि आपने फिल्म देखी नहीं लेकिन कथित आसन्न खतरे को लेकर अदालत पहुंच गए। इस एजेंडा की चर्चा कहीं नहीं हो रही है न ही याचिकाकर्ताओं की मंशा पर प्रश्न खड़े किए जा रहे हैं। 

सुनवाई के दौरान न्यायपीठ ने कहा कि देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है और कलात्मक स्वतंत्रता को संतुलित तरीके से देखा जाना चाहिए। इस टिप्पणी के गहरे निहितार्थ हैं। अगर हम कोर्ट की इस टिप्पणी के आलोक में देखें तो स्पष्ट है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हर वर्ग और समुदाय के लिए एक समान है। संविधान में इसकी ही व्यवस्था है। सुनवाई के दौरान कोर्ट की ये टिप्पणी भी उल्लेखनीय है जिसमें कहा गया कि इस फिल्म में इस्लाम के विरुद्ध कुछ नहीं है, इस्लाम पर किसी तरह का आरोप नहीं लगाया गया है। इस फिल्म में आतंकवादी संगठन आईएसआईएस के करतूतों को दिखाया गया है। इस टिप्पणी से के बाद ये सवाल उठता है कि अगर किसी फिल्म में अगर फिल्मकार आतंकवादी संगठन के खिलाफ दिखाता है तो उस फिल्म को बिना देखे इस्लाम के खिलाफ या मुसलमानों के खिलाफ कैसे मान लिया जाता है। सिर्फ मान ही नहीं लिया जाता है बल्कि उनकी रक्षा के लिए हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच जाते हैं। वो भी ऐसे लोग जो खुद को लिबरल या सेक्युलर मानते हैं। क्या इस देश में किसी आतंकवादी संगठन के खिलाफ फिल्म बनाना अपराध है। अबतक इस देश में कई ऐसी फिल्में बनीं जिसमें स्पष्ट रूप से आतंकवादियों को लेकर फिल्मकार साफ्ट रहे हैं। अधिकतर फिल्मों में आतंकवादी के बनने के लिए परिस्थितियों को जिम्मेदार दिखाया गया है। फिल्म मिशन कश्मीर में ऋतिक रोशन ने जिस अल्ताफ खान का चरित्र निभाया है, उसको याद करिए या फिर फिल्म फना में आमिर खान ने जिस आतंकी रेहान का रोल किया। आतंकी रेहान की कब्र पर जब उसका बेटा अपनी मां से पूछता है कि क्या रेहान ने गलत किया था तो उसकी मां कहती है कि रेहान ने वही किया जो उसको ठीक लगता था। इस तरह के संवाद आतंकवाद का परोक्ष समर्थन न भी हो लेकिन आतंकवाद को लेकर एक रोमांटिसिज्म तो है ही। इस तरह के कई प्रसंग हिंदी फिल्मों में देखे जा सकते हैं। 

केरल हाईकोर्ट की न्यायपीठ की एक और टिप्पणी थी। कोर्ट ने याचिकाकर्ताओं के साथ फिल्म के ट्रेलर को कोर्ट में ही देखा और कहा कि ये काल्पनिक है। याचिकाकर्ताओं की दलील थी कि इस फिक्शनल फिल्म का उद्देश्य मुसलमानों को खलनायक के रूप में पेश करना है। कोर्ट ने इससे भी असहमति जताई और कहा कि फिल्मों में कई तरह की चीजें दिखाई जाती हैं। भूत और पिशाच भी नहीं होते हैं लेकिन फिल्मों में काल्पनिक रूप से उनको भी दिखाया जाता है। सबसे महत्वपूर्ण टिप्पणी न्यायमूर्ति नागरेश ने की वो ये कि कई फिल्मों में हिंदू संन्यासियों को तस्कर और बलात्कारी दिखाया गया है लेकिन कभी भी किसी ने उसपर आपत्ति नहीं जताई। आपने हिंदी और मलयालम में इस तरह की कई फिल्में देखी होगी। मलयालम में तो एक फिल्म में पुजारी को मूर्ति पर थूकते दिखाया गया था लेकिन उससे भी किसी प्रकार की कोई समस्या उत्पन्न नहीं हुई थी। आप कल्पना कर सकते हैं कि वो फिल्म पुरस्कृत भी हुई थी। इस टिप्पणी ने भारतीय फिल्म जगत के उस एजेंडे को बेनकाब कर दिया जो अबतक निर्बाध रूप से चल रहा था। आईआईएम रोहतक के निदेशक धीरज शर्मा ने अपनी पुस्तक फिल्में और संस्कृति में लिखा है कि ऐसी फिल्में हमारे मूल्यों, परंपरा, हिंदुत्व की विचारधारा और भारतीय संस्कृति की जड़ें कमजोर कर रही हैं। बालीवुड व्यवस्थित तरीके से हिंदू धर्म को नीचा दिखाने में लगा हुआ है। धर्म के खिलाफ नकारात्मक धारणा, भावना या गतिविधि को बढ़ा रहा है। उदाहरण के लिए फिल्म वास्तव, संजू, सिंघम, सरकार में जितने भी नकारात्मक पात्र दिखाए गए हैं, उन सबने हिंदुओं के प्रतीक चिन्ह धारण कर रखे हैं और वे साफ नजर भी आते हैं। संभवत: यह दर्शाने के लिए हिंदू धर्म के प्रतीक जिन्होंने धारण कर रखे हैं, वे बुरे इंसान हैं। इसके उलट अगर किसी ने अन्य धर्म के प्रतीक धारण कर रखे हैं तो उसको पवित्र व्यक्ति के तौर पर पेश किया जाता है। फिल्म दीवार के नायक को भी इस संदर्भ में याद किया जाना चाहिए। अमिताभ बच्चन ने फिल्म दीवार में जिस विजय वर्मा का किरदार निभाया है वो हिंदू मंदिरों में जाने का इच्छुक नहीं होता है, लेकिन हमेशा अपनी जेब में 786 नंबर का बिल्ला रखता है। पुलिस से बचकर भागते समय उसका बिल्ला कहीं खो जाता है और उसको जान गंवानी पड़ती है। इससे परोक्ष रूप से क्या संदेश दिया जाता है। 

‘द केरल स्टोरी’ को लेकर जिस तरह की बातें इन दिनों हो रही है लगभग उसी तरह की बातें पिछले वर्ष ‘द कश्मीर फाइल्स’ को लेकर हो रही थीं। उसको भी एजेंडा फिल्म से लेकर समाज को बांटनेवाली फिल्म तक करार दिया गया था। ‘द कश्मीर फाइल्स’ के बाद ‘द केरल स्टोरी’ में आतंकवादियों की करतूतों को दिखाया गया है। कुछ लोग इसको बेवजह इस्लाम से जोड़ कर अपना एजेंडा चलाना चाह रहे हैं। इन दोनों फिल्मों में किसी धर्म के खिलाफ कुछ भी आपत्तिजनक नहीं दिखाया गया है। अगर ऐसा होता तो देश की अदालतें इसका संज्ञान अवश्य लेतीं। जो लोग इन फिल्मों को इस्लाम और मुसलमानों के विरुद्ध बता रहे हैं उनको गंभीरता से इस बारे में सोचना चाहिए कि वो ऐसा क्यों कह रहे हैं। कश्मीर में हिंदू पंडितों का नरसंहार करनेवाले आतंकवादी या आईएसआईएस के आतंकवादियों को मुसलमानों या इस्लाम जोड़ना अनुचित है। फिल्म इंडस्ट्री में कुछ ऐसे निर्माता हैं जिनकी आस्था न तो भारत में है न ही भारतीयता में। उनका लक्ष्य है किसी तरह से कला की आड़ में अपना एजेंडा चलाना। लेकिन इस बार अदालत ने उसे नाकाम कर दिया।  


Friday, May 5, 2023

'बुखारा' के स्वाद का क्रेज


कोलकाता से एक मित्र का फोन आया और उसने चौंकानेवाली बात की। उन्होंने अनुरोध किया कि दिल्ली के आईटीसी मार्या होटल स्थित बुखारा रेस्तरां में चार लोगों के डिनर के लिए अमुक तारीख को व्यवस्था करवा दें। मैंने उनसे कहा कि क्या सिर्फ खाने के लिए आपलोग कोलकाता से दिल्ली आ रहे हैं। उत्तर मिला कि हां वो लोग शाम की फ्लाइट से आएंगे और डिनर के बाद रात की फ्लाइट से वापस लौट जाएंगे। मैंने भी उनको हां कह दिया। सोचा किसी से कहकर उनके लिए बुखारा में टेबल का इंतजाम करवा देंगे। टेबल के लिए जब प्रयास करना आरंभ किया तो पता चला कि ये बेहद कठिन कार्य है। बताया गया कि चाणक्यपुरी के जिस इलाके में होटल मौर्या है उस क्षेत्र के पुलिस अधिकारियों, इंकम टैक्स अधिकारियों से लेकर एक्साइज वालों तक पर बुखारा में टेबल का इंतजाम करने/करवाने का भारी दबाव होता है। जब कई लोगों ने इस काम के लिए हाथ खड़े कर दिए तो मन में जिज्ञासा हुई कि क्यों न चलकर इस रेस्तरां को देखा जाए कि क्या कारण है कि इसमें टेबल मिलना इतना कठिन है। 

चाणक्यपुरी के आलीशान पांच सितारा होटल आईटीसी मौर्या के इस रेस्तरां में पहुंचा तो इसके बाहर लगे टेबलों पर बैठे लोग अपनी बारी का इंतजार कर रहे थे। रेस्तरां में अंदर घुसते ही उसके इंटीरियर ने ध्यान खींचा। पत्थरों से सजी दीवारें और लकड़ी से बने आकर्षक खंभे इसको अलग ही लुक दे रहे थे। खाने की मेज की एक तरफ दीवार से लगी बेंच थी और दूसरी तरफ स्टूल लगे हुए थे। टेबल और स्टूल की ऊंचाई भी कम थी लेकिन लोग चाव से आनंदित होकर भोजन करने में लीन थे। सौभाग्य से हमें भी जगह मिली और हम वहां खाने बैठ गए। वेज और नानवेज प्लैटर के अलावा दाल बुखारा और भरवां कुलचा और पुदीना पराठा की खेप आई। दाल बुखारा बेहद स्वादिष्ट था। बुखारा की रसोई में काम करनेवाले शेफ ने बताया कि दाल को बनाने में कई घंटे लगते हैं। उड़द की दाल को सात-आठ घंटे तक पानी में भिगो कर रखा जाता है। उसके टमाटर को उबालकर और पीस कर मसालों और मक्खन में मिलाकर धीमी आंच पर पकाया जाता है। इस प्रक्रिया में करीब सत्रह से अठारह घंटे लगते हैं। धीमी आंच पर पकाने की वजह से दाल बुखारा बेहद स्वादिष्ट बन जाता है। दाल बुखारा को पुदीना पराठा के साथ खाने का अपना अलग ही मजा है। कई लोग दाल बुखारा को खस्ता रोटी के साथ खाना पसंद करते हैं। बुखारा की एक और विशेषता है वहां एक बहुत बड़े साइज का नान परोसा जाता है। बड़े आकार का एक नान चार पांच लोगों के लिए काफी होता है। नानवेज पसंद करनेवालों के लिए भी यहां कई तरह के विक्लप उपलब्ध थे। सीक कबाब और पेशावरी कबाब के अलावा यहां आनेवाले लोग सिकंदरी रान को पसंद कर रहे थे। सिकंदरी रान कम उम्र के लैंब के मांस से तैयार किया जाता है। उसको सिरका में मैरीनेट करने के बाद उसमें दालचीनी, काला जीरा और मिर्ची का पेस्ट डालकर धीमी आंच पर पकाया जाता है। इसके अलावा तंदूरी झींगा भी यहां की खास डिश है। बताते हैं कि जब अमेरिका के राष्ट्रपति ओबामा भारत के दौरे पर आए थे तो उनको बुखारा का तंदूरी झींगा बेहद पसंद आया था। बड़े आकार की झींगा मछली को अजवाइन फ्लैवर वाली दही में मैरिनेट किया जाता है। मैरिनेट करने के दौरान इसमें लाल मिर्च, हल्दी और गरम मसाला भी मिला दिया जाता है। थोड़ी देर बाद इसको सीक में डालकर धीमी आंच पर सेंका जाता है। 

मेनकोर्स के बाद बारी आई डेजर्ट्स की। बुखारा अपने ग्राहकों के लिए गुलाब जामुन, कुल्फी, फिरनी और रसमलाई पेश करते हैं। मिट्टी के बरतन में परोसा जानेवाला फिरनी बेहद स्वादिष्ट था। एक छोटे बाउल में 6 छोटी छोटी रसमलाई थी जिसका स्वाद बाजार में मिलनेवाले अन्य रसमलाई से अलग। थोड़ा कम मीठा लेकिन स्वाद अप्रतिम। दिल्ली के चाणक्यपुरी इलाके में स्थित इस रेस्तरां में जगह मिलने में भले ही कठिनाई होती हो लेकिन एक बार आपको जगह मिल जाती है तो बेहतरीन खाने का स्वाद संघर्ष के बाद मिली सफलता सरीखी होती है।  


Thursday, May 4, 2023

लव जेहाद की परतें खोलती फिल्म


आज फिल्म ‘द केरल स्टोरी’ रिलीज हो रही है। ये फिल्म हिंदी, तमिल, तेलुगु और मलयालम में प्रदर्शित होगी। फिल्म अपने प्रदर्शन के पहले ही चर्चा के केंद्र में आ गई है। फिल्म की रिलीज को रुकवाने का मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा था। इस फिल्म के ट्रेलर को लेकर लोगों में जबरदस्त उत्साह देखने को मिला । यूट्यूब पर फिल्म के ट्रेलर को सात दिनों में एक करोड़ अस्सी लाख से अधिक लोगों ने देखा और एक लाख से अधिक लोगों ने कमेंट किए। इंटरनेट मीडिया के लिहाज से ये बहुत बड़ी संख्या है। फिल्मों के बारे में आनलाइन आंकड़े देनेवाली साइट आईएमडीबी पर सबसे अधिक प्रतीक्षावाली फिल्मों और सीरीज की सूची में ‘द केरला स्टोरी’ शीर्ष पर है। इस फिल्म को करीब पचास प्रतिशत पेज व्यू  मिला है वहीं शाह रुख खान की जून में रिलीज होनेवाली फिल्म जवान को लेकर करीब सोलह प्रतिश्त पेज व्यू है। स्पष्ट है कि द केरला स्टोरी को लेकर दर्शकों के बीच जबरदस्त उत्सुकता है। 

‘द केरल स्टोरी’ में कोई बड़ा स्टार नहीं है, कोई ग्लैमरस अभिनेत्री नहीं है, बावजूद इसके इस फिल्म को लेकर अगर इतनी उत्सुकता है तो उसके पीछे कारण है इस फिल्म की कहानी। इस फिल्म की कहानी केरल के उन हिंदू लड़कियों की कहानी है जिनका मतांतरण करवाकर आतंकी संगठन आईएसआईएस के गिरोह में शामिल करवा दिया जाता है। फिल्म के ट्रेलर का एक संवाद है, एक गरीब को लाओ, खानदान से जुदा करो, जिस्मानी रिश्ते बनाओ, जरूरत पड़ने पर उनको प्रेगनेंट करो और जल्द से जल्द उनको अगले मिशन के लिए हैंडओवर करो। फिल्म में ये भी दिखाया गया है कि किस तरह से हिंदू लड़कियों का ब्रेनवाश करके मतांतरण के लिए तैयार किया जाता है। ब्रेनबाश भी संवाद की शैली में किया जाता है। हिजाब पहने एक लड़की का हिंदू लड़कियों से बातचीत दिखता है। पूछा जाता है कि तुमलोग किस गाड को मानता है। उत्तर मिलता है शिव। तब कहा जाता है कि जो गाड अपनी पत्नी के मरने पर आम इंसानों की तरह रोता हो वो कैसा भगवान। लव जिहाद के जरिए हिंदू लड़कियों को आतंकी संगठन में भेजने का षडयंत्र कितना भयावह होता है, ये फिल्म उसकी तस्वीर दिखाती है। फिल्मकारों का दावा है कि ये फिल्म सत्य घटनाओं पर आधारित है। फिल्म के क्रिएटिव डायरेक्टर और प्रोड्यूसर विपुल शाह का मानना है कि उन्होंने इस फिल्म का निर्माण इसलिए किया क्योंकि इसकी कहानी बेहद शाकिंग है। अगर हमारे देश के किसी हिस्से में ऐसा घटित हो रहा है तो उसको सबके सामने आना चाहिए। इसमें किसी भी तरह का कोई एजेंडा नहीं है बल्कि पूरी कहानी को मानवता के दृष्टिकोण से पेश किया गया है। गीतकार मनोज मुंतशिर कहते हैं कि धोखे या दबाव से धर्मांतरण के लिए विवश करना, भारत के संविधान की अवमानना है। जो लोग फिल्म की प्रामाणिकता पर संदेह कर रहे हैं उनको मैं ये बता दूं कि मैं व्यक्तिगत तौर पर फिल्म के निर्देशक सुदीप्तो सेन और निर्माता विपुल शाह के भागीरथ प्रयास का साक्षी रहा हूं। तीन सौ घंटे के वीडियो रिसर्च और पांच सौ केस स्टडीज के आधार पर ये फिल्म बनी है। 

दरअसल केरल में लव जिहाद और वहां की लड़कियों के आतंकी संगठन आईएसआएस में जाने की खबरें आती रही हैं। उनके बारे में चर्चा भी होती रही है लेकिन उन घटनाओं को केंद्र में रखकर और आईएसआईएस में जाने के कारणों, और परिस्थितियों को पहली बार फिल्मी पर्दे पर उतारा गया है। पहले हिंदू लड़कियों को प्रेम के जाल में फंसाया जाता है, तरह तरह से प्रलोभन देकर सुनहले भविष्य का सपना दिखाया जाता है फिर आतंकी संगठन आईएसआईएस में शामिल करके नारकीय जीवन जीने को मजबूर कर दिया जाता है। इस पूरे प्लाट को ये फिल्म एक्सपोज करती है। दैनिक जागरण से बातचीत में इस फिल्म के निर्देशक सुदीप्तो सेन ने कहा कि इस फिल्म में हम ऐसे सत्य को उद्घाटित करने जा रहे हैं जिसने दशकों से हमारी मां-बेटियों की जिंदगी नरक बना दी थी। उनका दावा है कि इस फिल्म में उन परिस्थितियों को दिखाया गया है जिसके बारे में अबतक सोचा भी नहीं गया था। उनका कहना है कि उन्हें इस बात की खुशी है कि सात साल की मेहनत आखिरकार जनता के बीच पहुंच रही है। वो इस बात को लेकर आशान्वित हैं कि इससे देश की बहनों की जिंदगी पर सकारात्मक असर पड़ेगा।