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Saturday, June 25, 2022

अमृत काल में सकारात्मक पहल


देश में इस वक्त राष्ट्रपति चुनाव की हलचल है। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की तरफ से द्रौपदी मुर्मू को उम्मीदवार बनाया गया है जबकि विपक्ष की ओर से पूर्व बीजेपी नेता यशवंत सिन्हा राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार हैं। नरेन्द्र मोदी के बारे में कहा जाता है कि वो हमेशा अपने निणयों से चौंकाते हैं। इस बार भी उन्होंने ओडीशा की आदिवासी महिला नेता द्रोपदी मुर्मू को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाकर चौंकाया। नरेन्द्र मोदी के इन चौंकानेवाले निर्णयों के पीछे एक सुविचारित और सुचिंतित सोच होता है। जब द्रोपदी मुर्मू के नाम की घोषणा हुई तो उसको लेकर विपक्षी खेमे से सकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं आई। हर चीज में, हर निर्णय में नकारात्मकता खोजनेवाले लिबरल झंडाबरदारों ने भी द्रोपदी मुर्मू को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाने के निर्णय को भी उसी ढंग से लिया।  कुछ लोगों ने इस आधार पर इस निर्णय की आलोचना आरंभ कर दी कि राष्ट्रपति बनाकर किसी समुदाय का क्या भला हो सकता है। क्या ए पी जे अब्दुल कलाम को राष्ट्रपति बनाने से मुसलमानों का भला हो गया। ऐसे बालक बुद्धि लोगों को राजनीतिक टिप्पणियों से बचना चाहिए। राजनीति में हमेशा से प्रतीकों का महत्व रहा है। प्रतीकों की राजनीति का असर भी समाज पर होता है। आज दलितों में अपने सम्मान का भाव गाढ़ा हुआ है। इसके पीछे के कारणों की पड़ताल करेंगे तो उसमें एक कारण प्रतीकों की राजनीति भी नजर आती है। इस तरह के प्रतीकों से किसी समुदाय के लोगों के मन में सम्मान का भाव तो जगता ही है वो समाज के अन्य समुदा के लोगो के साथ जुड़ते भी हैं। उनके अंदर ये भावना बी उत्पन्न होती है कि देश उनके समुदा का सम्मान करता है और उनके बीच का कोई किसी भी सर्वोच्च पद पर पहुंच सकते हैं। ये भावना और ये सोच परोक्ष रूप से देश को मजबूत करता है। किसी भी देश की जनता का जब उस देश की व्यवस्था में भरोसा गाढ़ा होता है तो वो राष्ट्रहित में होता है। 

बालक बुद्धि लिबरल्स को ये समझना चाहिए कि जब द्रोपदी मुर्मू राष्ट्रपति बन जाएंगी तो देश के आदिवासी समुदाय के लोगों पर उसका कितना सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। आदिवासी समुदाय के लोग जब ये देखेंगे कि देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद पर उनके बीच की एक महिला विराजमान है तो उनके अंदर जो गर्व का भाव पैदा होगा वो हमारे राष्ट्र के समावेशी आधार को मजबूती प्रदान करेगा। एक आदिवासी महिला का नाम देश के सबसे उच्च संवैधानिक पद के लिए प्रस्तावित करने के लिए स्वाधीनता के अमृत महोत्सव वर्ष से अधिक उपयुक्त कोई समय हो नहीं सकता। राजनीति में हर कदम के प्रतीकात्मक महत्व के साथ साथ जमीनी प्रभाव भी होता है। द्रोपदी मुर्मू को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाकर भारतीय जनता पार्टी के शीर्ष नेतृत्व ने कई स्तर पर जनआकांक्षा का ध्यान रखा। अगर हम ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करें तो इस वक्त ओडीशा का जो क्षेत्र है वो लंबे कालखंड से अपनी उपेक्षा को लेकर कभी मुखर तो कभी मौन विरोध करता रहा है। प्रचीन भारत के इतिहास पर नजर डालें तो सम्राट अशोक के शासनकाल में कलिंग में भयानक युद्ध लड़ा गया था। इस युद्ध की भयावहता के बारे में बहुत अधिक लिखा जा चुका है। उस युद्ध के बाद उस क्षेत्र पर या उस क्षेत्र के लोगों पर बहुत अधिक ध्यान दिया हो ऐसा उल्लेख इतिहास की पुस्तकों में नहीं मिलता है। कलिंग युद्ध के बाद एक लंबा कालखंड बीतता है। उसके बाद जब मुगलों ने उस क्षेत्र पर कब्जा किया तो उन्होंने वहां लूटपाट की, वहां के नागरिकों पर अत्याचर किए लेकिन उस क्षेत्र को मुख्य धारा में लाने कि कोशिश नहीं दिखती। मुगलों के बाद जब अंग्रेजों ने वहां अपना राज कायम किया तो उन्होंने भी वहां के प्राकृतिक संसाधनों को तो लूटा, मानव संसाधन का दोहन किया लेकिन उस क्षेत्र पर बहुत अधिक ध्यान नहीं दिया। उस क्षेत्र में अपनी उपेक्षा को लेकर रोष भी रहा है। 

ओडिया लेखक बिजय चंद्र रथ की एक पुस्तक है ‘जयी राजगुरु, खोर्धा विद्रोह के अप्रतिम क्रांतिकारी’ जिसका हिंदी में अनुवाद सुजाता शिवेन ने किया है। इस पुस्तक में ओडिशा के कम ज्ञात स्वाधीनता संग्राम सेनानी राजगुरु जयकृष्ण महापात्र की कहानी है। अंग्रेजों ने कटक पर आक्रमण करके उसको अपने अधिकार में ले लिया था। ईस्ट इंडिया कंपनी के सैनिक या उसके मुखिया पहले स्थानीय राजाओं के साथ समझौता करते थे और फिर खुद को मजबूत करने के बाद समझौते से मुकर जाया करते थे। इस तरह का बर्ताव  ईस्ट इंडिया कंपनी ने खोर्धा के राजा के साथ किया। कंपनी सरकार ने राजा के साथ किए गए करार को मानने से इंकार कर दिया। परिणाम ये हुआ कि वहां विद्रोह की आग सुलगने लगी। 1804 में जब वहां की जनता ने कंपनी सरकार के खिलाफ विद्रोह कर दिया । राजगुरु जयकृष्ण महापात्र ने इस विरोध का नेतृत्व किया लेकिन अंग्रेजों ने उनको बंदी बना लिया और फिर उनकी जान ले ली। पुस्तक में जनश्रुतियों के हवाले से ये बताया गया है कि कंपनी सरकार के सैनिकों ने राजगुरु को पेड़ की दो टहनियों से बांध दिया। इसके बाद उन टहनियों को विपरीत दिशा में गिरा दिया। राजगुरु का शरीर दो हिस्सों में फट गया और उनकी मृत्यु हो गई। इस नृशंसता का कोई दस्तावेजी साक्ष्य मौजूद नहीं है लेकिन वहां के लोक में मौखिक रूप से राजगुरु की ये कहानी अब भी जीवंत है। इतिहासकारों ने इस वीर की भी उपेक्षा की। क्रांतिकारी योद्धा जयकृष्ण महापात्र, जिनको उस क्षेत्र के लोग जयी राजगुरु के नाम से जानते हैं, के संघर्ष और उनके बलिदान के बारे में कम ही लोगों को पता है। उस क्षेत्र के नायकों की उपेक्षा का ये उदाहरण है। उस क्षेत्र के कई नायक इस तरह की उपेक्षा के शिकार बने। 

ये सिर्फ ओडीशा क्षेत्र की बात नहीं है बल्कि अगर पूरे देश के आदिवासियों पर नजर डालें तो अनेक ऐसे क्रांतिकारी या क्रांतिवीर हैं जिनकी इतिहास लेखन में घोर उपेक्षा की गई है। भगवान बिरसा मुंडा के बारे में तो सब जानते हैं लेकिन तिलका मांझी से लेकर सिदो मुर्मू और कान्हो मुर्मू के बारे में पूरे देश को बताया जाना चाहिए था। जून 1855 में संताल हूल विद्रोह के बारे में भी अब जाकर थोड़ी बहुत जानकारी उपलब्ध होने लगी है अन्यथा भारतीय स्वाधीनता संग्राम के इस अध्याय के बारे में स्वाधीन भारत के इतिहासकारों ने न्याय नहीं किया। अब भी इस विद्रोह के बारे में, उसके नायकों के बारे में, उनकी वीरता के बारे में विस्तार से राष्ट्र को बताने की आवश्यकता है। इतनी उपेक्षाओं के बीच अगर आदिवासी समाज की किसी महिला को देश के राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया गया है तो विपक्षी दलों समेत तमाम बौद्धिकों को इसका स्वागत करना चाहिए था। 2014 में जब नरेन्द्र मोदी देश के प्रधानमंत्री बने थे तो उन्होंने सबका साथ और सबका विकास की बात की थी। बाद में उन्होंने इसको और व्यापक बनाकर इसमें प्रयास और विश्वास भी जोड़ा। सबका साथ और सबका विकास को वामपंथ से जुड़े बौद्धिकों ने मुसलमानों से जोड़कर देखने और व्याख्यायित करने की कोशिश की। इसको नारे और जुमला आदि कहकर उपहास भी किया। जबकि अगर पिछले आठ साल में नरेन्द्र मोदी सरकार के निर्णयों को देखा जाए तो ये नारा नहीं बल्कि भारतीय समाज के सभी वर्गों को साथ लेकर आगे बढ़ने का उपक्रम नजर आता है। भारतीय संविधान भी तो यही कहता है कि बिना किसी भेदभाव के सभी वर्गों को समान अवसर मिलना चाहिए। द्रोपदी मुर्मू को देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद पर बिठाकर कृतज्ञ राष्ट्र उन आदिवासी नायकों को श्रद्धांजलि तो देगा ही उनको सपनों को भी साकार होते देखेगा।

सिनेमा पर आपातकाल का कहर

सिनेमा एक ऐसा माध्यम है जिसका भारतीय समाज पर जबरदस्त प्रभाव पड़ता है। सिने अभिनेता और अभिनेत्रियों की लोकप्रियता का कई बार राजनीति में उपयोग किया जाता है। कभी चुनाव जीतने के लिए तो कभी भीड़ जुटाने के लिए। दब देश में इमरजेंसी लगी थी और संजय गांधी खुद को इंदिरा गांधी के राजनीतिक वारिस के तौर पर स्थापित करने में लगे थे तब उन्होंने भी फिल्मी क
लाकारों की लोकप्रियता का सहारा लेने की कोशिश की थी। जब इंदिरा गांधी ने देश पर इमरजेंसी थोपी उस वक्त कांग्रेस पार्टी में इंदिरा इज इंडिया और इंडिया इज इंदिरा का नारा हकीकत हो चुका था। कांग्रेस पार्टी के दिग्गज नेता घुटने टेक चुके थे। संजय गांधी का बोलबाला था। इमरजेंसी में हुई ज्यादतियों का सारा ठीकरा इंदिरा गांधी के सर फोड़ा जाता है और संजय गांधी की कारगुजारियों पर कम चर्चा होती है। इमरजेंसी के दौरान फिल्म इंडस्ट्री से जुड़े कलाकारों पर जो पाबंदियां लगाई गईं उसके लिए संजय गांधी और उस दौर के उनके चमचे जिम्मेदार थे। इमरजेंसी के दौर में किशोर कुमार के गानों पर प्रतिबंध की खूब चर्चा होती है लेकिन देवानंद की फिल्मों और उनकी फिल्मों के गानों पर लगे प्रतिबंध के बारे में कम ही लोगों का पता है। देवानंद पर प्रतिबंध की वजह भी लगभग वही है जिसकी वजह से किशोर कुमार के गानों को प्रतिबंधित किया गया। 

देश में जब इमरजेंसी लगी थी तो हिंदी फिल्मों के ज्यादातर नायक और नायिकाएं उसके पक्ष में थे। बाद में उनमें से कइयों को कांग्रेस सरकार ने राज्यसभा में नामित करके पुरस्कृत भी किया। इनमें से एक अभिनेत्री तो वो भी हैं जो इन दिनों अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर और फासीवाद की आहट पर लगातार टिप्पणी करती हैं। ये अभिनेत्री इमरजेंसी के दौर में कांग्रेस के एक कार्यक्रम में नृत्य करने आई थीं और स्टेज पर परफार्म भी किया था। संजय गांधी के पक्ष में माहौल बनाने के लिए काम भी किया था। दिलीप कुमार और नरगिस तो घोषित तौर पर कांग्रेस और संजय गांधी के पक्ष में थे और हिंदी फिल्मों के अन्य कलाकारों को उनके पक्ष में मोबलाइज भी कर रहे थे। देवानंद ने अपनी  आत्मकथा रोमांसिंग विद लाइफ में संजय गांधी के समर्थकों के बारे में लिखा है। उन्होंने लिखा है कि इमरजेंसी के दौर में युवा कांग्रेस की एक बेहद खूबसूरत और आकर्षक महिला बांबे (अब मुंबई) आई थी और उसने बालीवुड में संजय के पक्ष में समर्थन जुटाने का अभियान चलाया था। वो चाहती थी कि हिंदी फिल्मों के लोकप्रिय अभिनेता और अभिनेत्री संजय गांधी की अगुवाई में दिल्ली में होनेवाली रैली में शामिल हों। देवानंद को भी उसने तैयार कर लिया। देवानंद जब दिल्ली की रैली में पहुंचे तो दिलीप कुमार वहां पहले से मंच पर मौजूद थे। देवानंद के मुताबिक उस रैली में संजय गांधी को नेता के तौर पर स्थापित करनेवाले भाषण हो रहे थे और नारे लग रहे थे। रैली खत्म होने के बाद देवानंद को कहा गया कि उनको दूरदर्शन के स्टूडियो जाकर युवा कांग्रेस और उसके नेता की प्रभावी नेतृत्व क्षमता के बारे में अपनी बात रिकार्ड करवानी है। देवानंद ने लिखा है कि ऐसा प्रतीत हो रहा था कि उस वक्त की प्रोपगंडा मंशीनरी एकदम से फासीवादी तरीके से हर अवसर और हर व्यक्ति का उपयोग संजय गांधी की छवि चमकाने में लगी हुई थी। देवानंद को प्रोपगंडा मशीनरी का ये प्रस्ताव नहीं भाया और उन्होंने न सिर्फ दूरदर्शन जाने से मना कर दिया बल्कि इसका विरोध भी किया। उस दौर में कई अभिनेताओं और अभिनेत्रियों ने इमरजेंसी और संजय गांधी के पक्ष में बयान दिया था जो दूरदर्शन पर प्रसारित भी हुआ था। अगर दूरदर्शन के आर्काइव में वो सामग्री हो तो उसको निकालकर देश की जनता को बताना चाहिए कि कौन कौन से फिल्मी कलाकार इमरजेंसी के पक्ष में थे। खैर.. ये अवांतर प्रसंग है। 

देवानंद के मना करने की उस वक्त की सरकार में बेहद तीखी प्रतिक्रिया हुई। दूरदर्शन पर उनकी फिल्मों को तो बैन किया ही गया किसी भी सरकारी माध्यम में देवानंद का नाम नहीं आए ऐसी व्यवस्था बना दी गई। ये जानकर देवानंद को बहुत बुरा लगा था और उन्होंने उस वक्त के सूचना और प्रसारण मंत्री से इसकी शिकायत भी की थी लेकिन कोई परिणाम नहीं निकला। जब वो बांबे लौटे तो एक पार्टी मं उनको इस बात का एहसास हुआ कि उनके मना करने का कांग्रेस नेतृत्व ने कितना बुरा माना है। एक पार्टी में उनको अभिनेत्री नरगिस मिलीं और उनका हाथ पकड़कर एक कोने में ले गईं। वहां उन्होंने देवानंद से कहा कि आपने संजय गांधी के पक्ष में बोलने से मना कर अच्छा नहीं किया। उन्होंने देवानंद को दूरदर्शन पर जाने की सलाह भी दी। जब देवानंद ने उनको भी मना किया तो वो झल्ला गईं और बोली कि आप बेवजह हठ कर रहे हैं। आपको ये हठ छोड़ देना चाहिए। देवानंद नहीं माने और उन्होंने लिखा है कि उसके बाद वो संजय गांधी के चमचों और दरबारियों के निशाने पर आ गए थे। देवानंद की फिल्म देस परदेश रिलीज होनेवाली थी और उनको डर सता रहा था कि संजय गांधी के दरबारी उनकी फिल्म को नुकसान न पहुंचा दें। डर जायज भी था क्योंकि इमरजेंसी के दौर में जो भी संजय गांधी के विरोध में गया था उसको काफी परेशानियां झेलनी पड़ी थीं। फिल्मकारों को भी और कलाकारों को भी।   

Saturday, June 18, 2022

फिल्मों की सफलता की नई राह


कोरोना महामारी के दौर में सिनेमाघरों के बंद होने का फिल्म उद्योग पर बहुत बुरा असर पड़ा था। फिल्म प्रदर्शन का व्यवसाय बंद होने के कारण भारतीय फिल्म उद्योग पर भी संकट मंडराने लगा था। कई फिल्में पूरी हो गई थीं लेकिन उनका प्रदर्शन लगातार टलता रहा था। बड़े प्रोड्यूसर तो किसी तरह से फिल्मों की रिलीज के टलनेवाले नुकसान को झेल गए लेकिन छोटे प्रोड्यूसरों पर इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ा। कई फिल्में आधे में बंद हो गईं तो कई फ्लोर पर ही नहीं जा सकीं। कोरोना महामारी का प्रकोप कम होने के बाद कई तरह की पाबंदियों के साथ जब सिनेमाघर खुले तो भी अपेक्षित कारोबार नहीं हो पा रहा था। इन परिस्थितियों को देखते हुए फिल्मों पर लिखनेवाले कुछ लेखकों ने फिल्म व्यवसाय के बदलते स्वरूप को रेखांकित करना आरंभ कर दिया। सिनेमाघर के कारोबार पर भई प्रश्नचिन्ह लगाना आरंभ कर दिया। उन्होंने महामारी के कारण सिनेमाघरों में दर्शकों की कम उपस्थिति को दर्शकों की बदलती रुचि मान लिया। सिनेमाघरों के बजाए वो एप आधारित प्लेटफार्म को फिल्मों के प्रदर्शन के नए प्लेटफार्म के तौर पर स्थापित करने में जुट गए। सिनेमाहाल में जानेवाले परंपरागत दर्शकों को लेकर जल्दबाजी में टिप्पणी करने लगे। इस तरह के आकलन और निष्कर्ष पर पहुंचने के पहले उन्होंने कोरोना और उसके फैलाव की आशंका पर विचार किया हो, ऐसा नहीं लगता। बंद और वातानुकूलित वातावरण में कोरोना के फैलने की आशंका जताई गई थी। ये बात कहीं न कहीं परंपरागत सिने दर्शकों के अवचेतन मन में थी। इस वजह से सिनेमाघरों में दर्शकों की अपेक्षित उपस्थिति नहीं हो रही थी पर सिनेमा के प्रति प्रेम कम नहीं हो रहा था। जैसे जैसे कोरोना के मरीजों की संख्या कम हुई, अधिकांश लोगों को वैक्सीन की डोज लगी, निश्चिंतता बढ़ने लगी। और बढ़ने लगी सिनेमाघरों में दर्शकों की संख्या भी। फिल्मों के व्यवसाय के विभिन्न आयामों का आकलन करनेवाली संस्था ओरमैक्स मीडिया की रिपोर्ट के मुताबिक इस वर्ष जनवरी से लेकर अप्रैल तक रिलीज फिल्मों ने चार हजार करोड़ रुपए से अधिक का बिजनेस किया। इसका अर्थ ये हुआ कि इस वर्ष हर महीने फिल्मों ने एक हजार करोड़ रुपए से अधिक का कारोबार किया। फिल्म इंडस्ट्री के लिए ये बेहद सुखद आंकड़ा है। लेकिन इस कारोबार में एक संदेश भी है, उसपर हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के लोगों को विचार करना चाहिए।

इस वर्ष जिन फिल्मों को दर्शकों का प्यार मिला उसमें दक्षिण भारतीय फिल्मों के हिंदी संस्करण का योगदान अधिक है। ओरमैक्स मीडिया की रिपोर्ट के अनुसार फिल्मों के बिजनेस में मूल रूप से हिंदी में बनी फिल्मों की हिस्सेदारी अड़तीस प्रतिशत है जबकि साउथ की हिंदी में डब की गई फिल्मों की हिस्सेदारी साठ प्रतिशत है। अब जरा दक्षिण भारत की उन फिल्मों पर विचार करते हैं जिनको दर्शकों का अपार स्नेह मिला और जिसने पांच सौ करोड़ रुपए से अधिक का व्यवसाय किया। ओरमैक्स मीडिया की रिपोर्ट के मुताबिक फिल्म केजीएफ चैप्टर 2 ने 1008 करोड़ का कारोबार किया वहीं आरआरआर ने 875 करोड़ रु और द कश्मीर फाइल्स ने 293 करोड़ रु का बिजनेस किया। द कश्मीर फाइल्स की असाधारण सफलता के पीछे असधारण वजहें हैं। इसकी सफलता पर इस स्तंभ में पहले भी विचार किया जा चुका है। अब अगर हम केजीएफ चैप्टर 2 और आरआरआर की बात करें तो इसमें ज्ञान, भाषण और सैद्धांतिकी की प्रत्यक्ष बातें नहीं हैं। लेकिन फिल्मकार ने परोक्ष रूप से बहुत बड़ा संदेश दिया है। दर्शकों ने फिल्मकार के उस संदेश को पकड़ा भी और उसको पसंद भी किया। आरआरआर की कहानी राम, भीम और सीता के इर्द गिर्द घूमती है। राम-सीता और भीम हमारे दो महान पौराणिक ग्रंथ- रामायण और महाभारत के पात्र हैं। इस फिल्म की कहानी इस तरह से लिखी गई है कि राम और भीम एक दूसरे की मदद करते हैं। सीता-राम और भीम की ये कहानी कहीं न कहीं रामराज्य में भीम की महत्ता को स्थापित करने का परोक्ष संदेश देती है। दर्शकों को ये अच्छा लगता है। इसके अलावा फिल्म की भव्यता भी दर्शकों को बांधती है। इसी तरह से फिल्म केजीएफ चैप्टर 2 में का नायक अपने संवाद में राजनीति में वंशवाद की विषबेल पर टिप्पणी करता है। फिल्म में नायक जब वंशवाद पर टिप्पणी करता है तो सिनेमाहाल में तालियां गूंजती हैं। इसका अर्थ ये है कि दर्शक फिल्मकार की सोच से खुद को एकाकार करता है। इन दो फिल्मों से उदाहरण से ये संकेत तो मिलता ही है कि आज का दर्शक मनोरंजन के साथ साथ अपनी परंपरा और विरासत से खुद को एकाकार करना चाहता है। साथ ही उसको मनोरंजक तरीके से समकालीन राजनीति की विसंगतियों पर की गई टिप्पणियां भी पसंद आती हैं। फिल्मों में इस तरह मनोरंजन की चाशनी में लिपटी राजनीतिक टिप्पणियों को देखने पर एक शिफ्ट का संकेत भी है। इसके पहले तो हिंदी फिल्मों में इस तरह के संवाद सुनने को मिलते थे कि वो आएंगे भारत माता की जय के नारे लगाएंगे और तुम्हारी हत्या कर देंगे। इस संबंध में हिंदी फिल्मों के कई उदाहरण हमारे सामने हैं।   

इस वर्ष जनवरी से अप्रैल के बीच रिलीज फिल्मों से जो सकारात्मक संकेत मिले हैं वो उसके बाद रिलीज फिल्मों में भी दिखाई देता है। मनोरंजन, मनोरंजन और मनोरंजन यही फिल्मों की सफलता का आधार है। इस वर्ष मई में दो फिल्में रिलीज हुई जिसके कारोबारी परिणाम इस अवधारणा को मजबूती प्रदान करते हैं। एक फिल्म है भूल भुलैया-2 और दूसरी फिल्म है अनेक। भूल भुलैया 2 को दर्शकों ने खूब पसंद किया। चार सप्ताह में इसका कलेक्शन करीब पौने दो सौ करोड़ रुपए तक पहुंच गया है जबकि फिल्म अनेक बाक्स आफिस पर बुरी तरह से पिट गई। पहले भूल भुलैया 2 पर विचार करते हैं कि क्यों दर्शकों ने इसको पसंद किया जबकि ये 2007 में आई फिल्म भूल भुलैया का सीक्वल है।इसमें कर्तिक आर्यन, तब्बू और कियारा आडवाणी लीड रोल में हैं। ये हारर मूवी है बावजूद इसके इसमें जबरदस्त हास्य है। पिछले दिनों एक निजी बातचीत में गीतकार और कवि प्रसून जोशी ने फिल्मों के बारे में बेहद महत्वपूर्ण बात कही थी। कोरोना महामारी के बाद के दौर में जिस तरह की फिल्में सफल हो रही हैं, उनको देखकर प्रसून जोशी की बात सहसा याद आ गई। प्रसून ने कहा था कि ‘ऐसा लगता है कि हमारा ये युग मनोरंजन का युग है। अब लोग रिश्तों में भी मनोरंजन तलाशने लगे हैं। आज लोग अपने परिवार में भी इंटरटेनिंग पर्सनैलिटी की तलाश करने लगे हैं। पुत्र भी पिता से अपेक्षा करता है कि वो इंरटेनिंग हों।‘ अगर आज हमारा समाज परिवार में भी इंटरटेनमेंट खोज रहा है तो उसके पीछे के मनोविज्ञान को समझना होगा। इंटरटेनमेंट को खुशहाली के व्यापक अर्थ में देखा जाना चाहिए। समाज के इन बदलते मनोभावों को जो फिल्मकार अपनी फिल्मों में दिखा पा रहे हैं उनको दर्शक मिल रहे हैं और वो अच्छा मुनाफा भी कमा रहे हैं। जो फिल्मकार इसमें असफल हो जा रहे हैं उनको दर्शकों का प्यार नहीं मिल पाता है। आज जब फिल्म उद्योग पटरी पर लौटता दिख रहा है तो फिल्मकारों को बेहद सावधानी के साथ व्यापक अर्थ और संदर्भ में दर्शकों के मनोरंजन का ध्यान रखना होगा। फिल्मों के पुराने घिसे पिटे फार्मूले को छोड़कर मनोरंजन के नए रास्ते तलाशने होंगे। सितारों की छवि के सहारे फिल्म हिट हो जाए ये आवश्यक नहीं है. छवि के साथ साथ कहानी में दर्शकों को बांधे रखने की क्षमता भी होनी चाहिए। पौराणिक कथा को भी अगर फिल्मकार नए संदर्भ और समकालीन विमर्श से परोक्ष रूप से नहीं जोड़ पाएंगे तो फिल्मों की सफलता में संदेह है। ऐसा लगता है कि दक्षिण भारत के फिल्मकार इस ट्रेंड को समझ गए हैं। 


Saturday, June 11, 2022

सत्य को भी चाहिए शक्ति का आधार


शुक्रवार को जुमे की नमाज के बाद देश के कई राज्यों में जिस तरह से उपद्रव और बवाल हुआ उसके बाद हिंदुओं और मुसलमानों के रिश्तों को लेकर चर्चा आरंभ हो गई है। न्यूज चैनलों और इंटरनेट मीडिया पर पर कई स्वयंभू विचारक नए नए सिद्धांत पेश कर रहे हैं। कुछ लोग राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत के हाल में संघ शिक्षा वर्ग के तृतीय वर्ष के समापन समारोह में दिए उनके वक्तव्य को उद्धृत कर रहे हैं। कुछ उत्साही विश्लेषक मोहन भागवत के वक्तव्य के उस अंश को उद्धृत करते हुए उनकी आलोचना कर रहे हैं जहां उन्होंने ज्ञानवापी के संदर्भ में अपनी बात रखी। वो लगातार चीख रहे थे कि संघ ने मुसलमानों को लेकर अपना स्टैंड बदल लिया है और अब संघ अपनी मुस्लिम विरोध की छवि में सुधार करना चाहता है। इंटरनेट मीडिया पर हिंदुत्व की ध्वजा लेकर विचरण करनेवाले कई विद्वान तो मोहन भागवत के इस बयान की तुलना लालकृष्ण आडवाणी के जिन्ना के मजार पर लिखी टिप्पणी से कर बैठे। उनकी इन बचकानी टिप्पणियों पर बात करने से पहले जरा देख लेते हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने कहा क्या था। 

सरसंघचालक ने कहा था कि ज्ञानवापी का अपना एक इतिहास है जिसको हम बदल नहीं सकते हैं। इसको न आज के हिंदू ने बनाया न आज के मुसलमानों ने बनाया। ये उस समय घटा। इस्लाम बाहर से आया, आक्रामकों के साथ आया। उस आक्रमण में भारत की स्वतंत्रता चाहनेवाले व्यक्तियों का मनोधैर्य खर्च करने के लिए देवस्थान तोड़े गए, जिनकी संख्या हजारों में है। उनमें से कइयों का हिंदुओं की आस्था में विशेष स्थान है। आगे उन्होंने कहा कि हिंदुओं को लगता है कि पुनर्उत्थान का कार्य करना चाहिए। राममंदिर का एक आंदोलन हुआ अब उस तरह का आंदोलन नहीं करना है। लेकिन इश्यू जो मन में हैं वो उठते तो हैं। वो किसी के विरुद्ध नहीं हैं। ...आपस में मिल बैठकर सहमति से रास्ता निकालना चाहिए। हर बार सहमति से रास्ता नहीं निकलता तो संविधान सम्मत न्याय व्यवस्था को मानना चाहिए और उसपर प्रश्न चिन्ह नहीं लगाना चाहिए। इसी क्रम में वो कहते हैं कि ज्ञानवापी में हिंदुओं की श्रद्धा है लेकिन हर मस्जिद में शिवलिंग क्यों देखना। उसके आगे भी उनका वक्तव्य चलता है जिसमें वो बाहर से आई पूजा पद्धति को अपनाने वालों को भी भारतीय बताते हैं। उनके और हिंदुओं के पूर्वजों के एक होने की बात करते हैं। लेकिन उनका पूरा जोर शक्ति पर होता है। 

अपने वक्तव्य के आरंभ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने बहुत स्पष्टता के साथ राष्ट्र और राष्ट्रीयता की बात रखी। विस्तार से धर्म और स्व को परिभाषित किया। समन्वय, संतुलन, सबको साथ लेकर चलने, सबकी उन्नति करना ही स्व है और उसके आधार पर ही देश के तंत्र को स्थापित करने की बात होती है। धर्म के संरक्षण के लिए मोहन भागवत जी ने स्पष्ट किया कि वो दो प्रकार से होता है। एक तो जब धर्म पर आक्रमण होता है तो उसको आक्रमण से बचाना होता है, बलिदान देना होता है। लड़ाई भी करनी पड़ती है। इसके अलावा धर्माचरण के माध्यम से धर्म की अभिवृद्धि की बात भी उन्होंने की। संघ प्रमुख ने जो बात रखी वो कोई नई बात नहीं कही है। नए विचारकों के लिए ये नई बात हो सकती है लेकिन मुसलमानों को लेकर संघ का ये विचार वर्षों से रहा है। हिंदुत्व और आक्रामक हिंदुत्व को परिभाषित करनेवाले राजनीतिक विश्लेषक गुरुजी गोलवलकर का नाम लेना नहीं भूलते हैं और ना ही भूलते हैं उनकी पुस्तक ‘वी आर आवर नेशनहुड डिफाइंड’ को। इस पुस्तक के आधार पर वो मुसलमानों के प्रति संघ की सोच को व्याख्यायित करते हैं। लेकिन हिंदुत्व को या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सोच को विश्लेषित करनेवाले नए विचारक इस तथ्य से या तो अनभिज्ञ हैं या फिर उसको जानबूझकर उजागर नहीं करते कि जिस वक्त गुरु गोलवलकर ने ये पुस्तक लिखी थी वो न तो संघ के पदाधिकारी थे और न ही सरसंघचालक। मुसलमानों को लेकर संघ का क्या सोच रहा है इसको जानने के लिए गुरू गोलवलकर और पत्रकार सैफुद्दीन जिलानी की 30 जनवरी 1970 की बातचीत देखनी चाहिए। ये बातचीत नरेन्द्र ठाकुर के संपादन में प्रकाशित पुस्तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का दृष्टिकोण में संकलित है। इसमें जब सैफउद्दीन साहब ने मुसलमानों को लेकर उनके दृष्टिकोण के बारे में पूछा तो गुरुजी का कहना था कि हमें ये बात हमेशा ध्यान में रखनी होगी कि हम सबके पूर्वज एक ही हैं। हम सब उनके वंशज हैं। आप अपने-अपने धर्मों का प्रामाणिकता से पालन करें परंतु राष्ट्र के मामले में हम सबको एक रहना चाहिए। राष्ट्रहित के लिए बाधक सिद्ध होनेवाले अधिकारों और सहूलियतों की मांग बंद होनी चाहिए। हम हिंदू हैं, इसलिए हम विशेष सहूलियतों या अधिकारों की कभी बात नहीं करते। इसी बातचीत में गुरूजी एक जगह कहते हैं कि भारतीयकरण का अर्थ सबको हिंदू बनाना तो नहीं है। तो अगर गुरू गोलवलकर की बातों को ध्यान से देखें तो यही लगेगा कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वर्तमान सरसंघचालक मोहन भागवत उन्हीं बातों को समकालीन परिप्रेक्ष्य में आगे बढ़ा रहे हैं। संघ अपनी नीति पर कायम है, न तो कोई स्टैंड बदला है और न ही राष्ट्रविरोधियों को लेकर साफ्ट हुआ है। 

हिंदू धर्म और संघ की नीतियों के नए विश्लेषकों को मोहन भागवत जी के हाल के भाषण को फिर से सुनना समझना चाहिए। इस भाषण में मोहन भागवत ने एकाधिक स्थान पर शक्ति की महत्ता को रेखांकित किया है। वो तो यहां तक कहते हैं कि सत्य को भी शक्ति का आधार चाहिए होता है। बिना शक्ति के दुनिया नहीं मानती। उनके वक्तव्य की बारीकियों को समझे बिना किसी तरह का विश्लेषण अधूरा लगता है। वो हिंदू समाज को शक्ति देने की बात कर रहे हैं। बार बार कर रहे हैं, क्योंकि उनका मानना है कि बगैर शक्ति के दुनिया आपकी बात मानना तो दूर सुनेगी भी नहीं। आज अगर भारत में हिंदुओं की बात सुनी जा रही है तो उसके पीछे समाज की शक्ति है। वो स्पष्ट तौर पर कहते हैं कि दुनिया में दुष्ट लोग हैं जो हमको जीतना चाहेंगे इसलिए शक्ति की आराधना करनी चाहिए। उनके लगभग इकतीस मिनट के भाषण में हिंदू समाज को शक्ति देने की बात प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से कई बार आती है। मोहन भागवत की आलोचना करनेवाले व्याख्याकारों और टीकाकारों को उनके वक्तव्य को समग्रता में देखना चाहिए। संघ प्रमुख ने न तो संघ का कोई स्टैंड बदला है न ही वो मुसलमानों को खुश करने के लिए ऐसी बात कर रहे हैं। संघ हमेशा से भारतीय मुलमानों को यहां का मानता है। उनको आक्रमणकारियों के साथ जोड़कर नहीं देखता है और यही अपेक्षा करता है कि इतिहासकार और भारतीय मुसलमान भी अपने को भारतीय मानें और आक्रांताओं के साथ खुद को जोड़कर नहीं देखें। नए नए संघ विचारक बने टीवी चैनलों की खिड़कियों पर रात दिन टंगे रहनेवाले स्वयंभू विद्वान किसी भी चीज को समग्रता में नहीं देख पाते हैं। नतीजा यह होता है कि किसी वक्तव्य के एक छोटे हिस्से के आधार पर उसका मूल्यांकन करके निर्णय देने लग जाते हैं और दोष के शिकार हो जाते हैं। हर मस्जिद में शिवलिंग खोजने का जो बयान है उसके पहले भी काफी देर तक हिंदू समाज को शक्ति देने की, धर्म की, स्व की, धर्माचरण के बारे में कहा गया लेकिन न तो उसको सुनने की किसी को फुर्सत है और न ही उसकी बारीकियों को विश्लेषित करने की कला। इसका नुकसान ये होता है कि समाज में गलत संदेश जाता है और भ्रम की स्थिति बनती है। इससे बचा जाना चाहिए।  


Saturday, June 4, 2022

सत्य होती सत्यजित राय की चिंताएं


प्रख्यात फिल्मकार सत्यजित राय के शताब्दी वर्ष में उनकी फिल्मों पर चर्चा हो रही है। फिल्म  निर्माण की उनकी कला के बारे में सेमिनार और गोष्ठियां आदि आयोजित हो रही हैं। फ्रांस में आयोजित होनेवाले कान फिल्म फेस्टिवल से लेकर देश के फिल्म उत्सवों में उनकी फिल्मों का प्रदर्शन किया जा रहा है। कुछ फिल्मकार उनके जीवन और उनकी कला पर डाक्यूमेंट्री भी बना रहे हैं। लेकिन सत्यजित राय के जन्म शताब्दी वर्ष में फिल्मों को लेकर उन्होंने जो चिंताएं व्यक्त की थीं उनपर भी बात होनी चाहिए। फिल्मों की कहानियों और फिल्म और साहित्य के रिश्ते पर उन्होंने जो चिंता व्यक्त की थीं, उसपर कम बात होती है। 1980 में सत्यजित राय ने एक सेमिनार में कहा था कि इन दिनों लेखन में एक खास तरह की गिरावट देखी जा सकती है। अब जिस तरह के उपन्यास प्रकाशित हो रहे हैं या कहानियां छप रही हैं वो फिल्मकारों को फिल्म बनाने के लिए उकसा नहीं पा रही हैं। लेखकों ने एक खास किस्म की लेखन प्रविधि अपना ली है । वो अपने लेखन में जोखिम नहीं उठा रहे हैं और किसी प्रकार का प्रयोग भी नहीं कर पा रहे हैं। नतीजा ये हुआ है कि उनके लेखन में एक ठहराव आ गया है। सत्यजित राय के समकालीन लेखन पर इस टिप्पणी का बंगाल के लेखकों ने प्रतिवाद किया था और फिर कहा था कि ये लेखकों का दायित्व नहीं है कि वो फिल्मकारों को ध्यान में रखकर कहानियां या उपन्यास लिखे। लेखकों और सत्यजित राय के बीच इस विषय पर लंबा संवाद हुआ था। करीब चालीस वर्ष बाद आज भी सत्यजित राय के प्रश्न चुनौती बनकर लेखकों के सामने खड़े हैं। इस प्रश्न का उत्तर ढूंढना चाहिए कि समकालीन लेखन में ऐसे उपन्यास या कहानियां क्यों नहीं लिखी जा रही हैं जो फिल्मकारों को प्ररित कर सकें कि वो उसपर उत्साहित होकर फिल्म बनाने के लिए आगे आएं। 

इन प्रश्नों का उत्तर ढूंढने के लिए हमें अतीत में जाना होगा। हमें ये देखना होगा कि कैसे लेखकों ने एक विचारधारा का दामन थामा और वो फार्मूलाबद्ध लेखन के जाल में फंसते चले गए। 1967 में जब नक्सबाड़ी आंदोलन का आरंभ हुआ तो उससे बंगाल के अलावा हिंदी प्रदेश के लेखक भी प्रभावित हुए। नक्सलवाद के रोमांटिसिज्म में हिंदी लेखन भी फंसा और इसमें भी नक्सलवाद का या मार्क्सवाद का प्रभाव दिखने लगा। इस आंदोलन के प्रभाव में ही समांतर सिनेमा का आरंभ हुआ जिसको न्यू वेव सिनेमा भी कहा गया। हिंदी सिनेमा भी इससे अछूता नहीं रहा और यहां भी इस समानंतर सिनेमा की छतरी के नीचे फिल्मकारों ने फिल्में बनानी शुरू की। उस वक्त की सरकार की तरफ से भी इन फिल्मकारों को मदद मिली थी। फिल्म डेवलपमेंट कारपोरेशन ने इस तरह की फिल्म बनाने वालों को आर्थिक मदद की । मुनाफा या फिल्म पर आनेवाले खर्चे की चिंता नहीं होने की वजह से समांतर सिनेमा से जुड़े फिल्मकारों ने कला को छोड़कर विचारधारा को दिखाना आरंभ कर दिया। सरकारी खर्चे से बबनेवाली फिल्मों की चर्चा तो बहुत हुई लेकिन दर्शकों का प्यार कम मिला। ये दौर बहुत लंबे समय तक चला। अपनी विचारधारा के फिल्मकारों को फिल्म समीक्षकों ने बढ़ाना और स्थापित करना आरंभ कर दिया। सत्यजित राय जब तक जीवित रहे वो इस इस तरह की फिल्मो के चक्कर में नहीं पड़े। उनपर हमले भी हुए, उनकी फिल्मों की आलोचना भी होने लगी। उनपर बंगाल की संस्कृति से दूर जाने के आरोप भी लगाए गए लेकिन वो हर तरह की फिल्म बनाते रहे और वैश्विक स्तर पर उनकी फिल्मों को सराहना मिली। आज भी कान फिल्म फेस्टिवल के दौरान सत्यजित राय की फिल्मों का न केवल प्रदर्शन होता है बल्कि उनकी फिल्म कला पर चर्चा होती है। जैसे जैसे विचारधारा का प्रभाव कम हुआ उसके आधार पर बनी फिल्में भी नेपथ्य में चली गईं। उपन्यास और कहानी के नाम पर वैचारिकी परोसनेवाले लेखक भी पिछड़ गए। 

वैचारिक लेखन के कई नुकसान सामने आए। विशेष रूप से अगर हम हिंदी में उपन्यास और कहानी लेखन को देखें तो वामपंथी विचारधारा के प्रभाव में जिस तरह से यथार्थ के नाम पर लेखन आरंभ हुआ वो एकांगी होता चला गया। कहानी में किस्सागोई का स्थान नारेबाजी ने ले लिया। गांव-देहात, किसान-मजदूर के नाम पर लिखी जानेवाली कहानियों में परोक्ष रूप से विचारधारा को मजबूत करनेवाली बातें कही जाने लगीं। विचारधाऱा के खूंटे से बंधे लेखकों की कृतियों में कथित यथार्थवाद जड़ हो गया। मजदूरों, गरीबों और किसानों की समस्याएं बदलीं, उनका संकट बदला लेकिन हिंदी के अधिकांश लेखक उन समस्याओं को या संकट को पकड़ने में नाकाम रहे। लगातार एक तरह के लेखन से पाठक भी दूर होते गए और साहित्यिक कृतियों पर फिल्म बनानेवालों के सामने भी संकट आ खड़ा हो गया। जिसको सत्यजित राय ने अस्सी के शुरुआती दशक में ही भांप कर प्रकट कर दिया था। सत्यजित राय ने जब कहानियों में विविधता और प्रयोगात्मकता की ओर संकेत किया था तो उसके करीब एक दशक बाद देश में आर्थिक उदारीकरण का दौर आरंभ हुआ। वामपंथ के किले ढहने लगे थे, वामपंथी विचारधारा के सामने बड़ी चुनौती आकर खड़ी हो गई थी। रूस और चीन में भी खुलेपन की बयार बहने लगी। लेकिन विचारधारा वाले लेखक इस बदलाव को भांप नहीं पा रहे थे। भारतीय समाज भी पर आर्थिक उदारीकरण का गहरा प्रभाव पड़ा। भारत में एक नया मध्यवर्ग पैदा हो गया। भारत में गरीबों का किसानों का, मजदूरों का जीवन स्तर बेहतर होने लगा था। 

आर्थिक उदारीकरण के बाद नए मध्यवर्ग की आशा और आकांक्षाएं बदलने लगी थीं। मध्यवर्ग की बदलती आशा और आकांक्षाओं का प्रकटीकरण साहित्य में आनुपातिक रूप में कम हो रहा था। भारत के इस मध्यवर्ग की जीवनशैली को अंधाधुंघ शहरीकरण ने भी प्रभावित किया। युवाओं और महिलाओं की समस्याओं और सपने भी अलग हो गए। विचारधारा की गुलामी की बेड़ियों में जकड़े हिंदी के लेखक यथार्थ के नाम पर जो परोस रहे थे वो इस बदले हुए यथार्थ से कोसों दूर था। परिणाम यह हुआ कि ऐसे लेखन के पाठक कम होते चले गए और तब हिंदी के लेखकों ने हिंदी में पाठकों की कमी का रोना आरंभ कर दिया। लेखकों के इस रुदन में कई प्रकाशक भी शामिल हो गए। उन्होंने भी पुस्तकों की कम होती बिक्री के बारे में कहना शुरु कर दिया। इस स्थिति पर अगर समग्रता से विचार किया जाए तो इस समस्या के मूल में हिंदी लेखकों का अपने पाठकों की रुचि को समझ पाने में नाकामी बड़ी वजह है। अब भी अगर स्वाधीनता क बाद के समय में किसानों और मजदूरों की समस्या का समकालीन बताकर पाठकों के सामने पेश किया जाएगा तो पाठक उसको स्वीकार करेंगे इसमें संदेह है। अब कुछ युवा लेखकों ने अपने समय को अपने उपन्यासों में या अपनी कहानियों में स्थान देना शुरू किया है तो उनको पाठक मिलने लगे हैं। हिंदी में पाठक नहीं है, यह अवधारणा गलत है। पाठक हैं और वो खरीदकर पढ़ना भी चाहते हैं लेकिन जरूरत इस बात की है कि उनकी रुचि की पुस्तकें लिखी जाएं और वो अपने पाठकों तक पहुंचने का उपक्रम करें। फिल्मकार भी साहित्यिक कृतियों पर फिल्में बनाना चाहते हैं। फिल्म एक ऐसा माध्यम है जो समय के साथ चलता है और अपने समय के यथार्थ को दर्शकों के सामने पेश करता है।  साहित्यिक कृतियों से कहानियां उठाकर निर्देशक उसको इस तरह से पेश करता है कि कई बार कहानी बदली हुई लगती है लेकिन वो माध्यम की मांग होती है। सत्यजित राय ने भी प्रेमचंद की कृति शतरंज के खिलाड़ी में कई बदलाव किए थे। आज अगर साहित्य को व्यापक दर्शक/पाठक वर्ग तक पहुंचना है तो उसको फिल्म के साथ साहचर्य स्थापित करने के बारे में सोचना चाहिए।