स्वाधीनता के अमृत महोत्सव के अवसर पर हमें फिल्म से जुड़े उन लोगों को भी याद करना चाहिए जिन्होंने पराधीन भारत में फिल्म विधा को सशक्त करने में बड़ी भूमिका का निर्वाह किया। मूक फिल्मों के दौर में फिल्मों का छायांकन बेहद कठिन कार्य होता था क्योंकि कैमरा और तकनीक उन्नत नहीं थे। जो उन्नत कैमरा थे उनतक भारतीय फोटोग्राफर्स की पहुंच नहीं थी। ऐसे में उनके सामने चुनौती थी कि विदेश से आनी वाली फिल्मों के मुकाबले स्वदेशी फिल्मों के छायांकन की स्तरीयता बरकरार रखने का। महान फिल्मकार देवकी बोस जब धीरेन गांगुली की ब्रिटिश डोमेनियन कंपनी से जुड़े तो उन्होंने उस कंपनी के लिए कई मूक फिल्मों के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उस दौरान उनकी मित्रता लखनऊ के मूल निवासी और कैमरापर्सन कृष्ण गोपाल से हुई। कृष्ण गोपाल इतने कुशल कैमरामैन थे कि बहुत कम समय में उन्होंने देवकी बोस का दिल जीत लिया। फिल्म कंपनी में साथ काम करते हुए उन दोनों में गाढ़ी दोस्ती हो गई।
कृष्ण गोपाल की फिल्मों में जाने की कहानी भी बेहद दिलचस्प है। वो पराधीन भारत में लखनऊ में स्वास्थ्य विभाग में काम करते थे। मनमोहन चड्ढा ने अपनी पुस्तक में इस बात का उल्लेख किया है कि कृष्ण गोपाल जब लखनऊ में स्वास्थ्य विभाग में काम कर रहे थे तो उनकी पहचान विभाग में काम करनेवाले कुछ अंग्रेजों से हो गई थी। उनमें से कुछ अंग्रेज शौकिया तौर पर फिल्में बनाया करते थे। 1926 से 1929 के दौर में कृष्ण गोपाल ने अपने विभाग के अंग्रेजों के साथ फिल्में बनाने के काम में जुड़े थे। उसी समय उन्होंने कैमरा चलाना और फिल्मों के लिए छायांकन की तकनीक सीखी थी। जब उन्हें कैमरा चलाना आ गया और उनके काम को प्रशंसा मिलने लगी तो स्वास्थ्य विभाग की नौकरी छोड़ दी। फिल्मों में छायांकन का काम करने के लिए कोलकाता (तब कलकत्ता) चले गए। वहां उनकी मुलाकात धीरेन गांगुली से हुई। उन्होंने उनको ‘ब्रिटिश डोमेनियन कंपनी’ में नौकरी पर रख लिया। वहां रहकर कृष्ण गोपाल ने अपनी कला को और समृद्ध किया। फिर देवकी बोस की मित्रता और साथ ने ख्याति दिलाई।
कृष्ण गोपाल भले ही कोलकाता पहुंच गए थे लेकिन उनका मन लखनऊ में ही बसा हुआ था। वो चाहते थे कि लखनऊ में भी फिल्में बने। अपनी माटी के प्रेम में वो लखनऊ आ गए। यहां पहुंचे तो उनको पता चला कि लखनऊ की एक कंपनी ‘यूनाइटेड फिल्म कार्पोरेशन’ एक फिल्म बनाना चाहती है। हिंदी सिनेमा का इतिहास में चड्ढा लिखते हैं कि कृष्ण गोपाल ने इस फिल्म के निर्माण के लिए देवकी बोस को कोलकाता से लखनऊ बुलवा लिया। 1930 में देवकी बोस लिखित और निर्देशित फिल्म ‘द शैडो आफ द डेड’ बनकर तैयार हुई। फिल्म दर्शकों को पसंद नहीं आई और निर्माताओं को नुकसान उठाना पड़ा। इसके बाद की घटना बेहद दिलचस्प है। फिल्म कंपनी के मालिकों को लगा कि कृष्ण गोपाल ने ही उनका नुकसान करवा दिया है। उन्होंने कृष्ण गोपाल को लखनऊ में ही रोक लिया। उनसे कहा कि वो लखनऊ छोड़कर तभी जा सकते हैं जब वो कंपनी के नुकसान की भारपाई कर दें। कई जगह उनको बंधक बनाने की बात भी मिलती है। जब देवकी बोस को इस बात का पता चला तो वो बेहद दुखी हो गए। उस समय देवकी बाबू प्रथमेश बरुआ के साथ काम कर रहे थे। देवकी बोस अपने मित्र कृष्ण गोपाल को छुड़ाने के लिए लखनऊ आए। देवकी बोस की फिल्म कंपनी के मालिकों के साथ लंबी-लंबी बैठकें हुईं। किसी तरह कंपनी मालिक इस बात पर राजी हुए कि कृष्ण गोपाल को लखनऊ छोड़ने की अनुमति तभी मिलेगी जब वो किश्तों में नुकसान की भारपाई की शर्त मान लें । तय हुआ कि जब तक नुकसान पूरा नहीं होगा कृष्ण गोपाल अपने वेतन से एक हिस्सा कंपनी मालिकों को भेजते रहेंगे। किसी तरह से देवकी बोस उनको अपने साथ लेकर लखनऊ से कोलकाता गए। फिल्म और अपनी माटी के मुहब्बत में कृष्ण गोपाल लंबे समय तक अपने वेतन का हिस्सा लखनऊ की उस फिल्म कंपनी के मालिकों को भेजते रहे थे। बाद के दिनों में कृष्ण गोपाल ने देवकी बोस के साथ कई फिल्मों में काम किया और अपने छायांकन से उस दौर के कई महान फिल्मकारों को प्रभावित किया। विदेश से आनेवाली फिल्मों के मुकाबले कृष्ण गोपाल का छायांकन किसी भी तरह से कम नहीं होता था।