अभी हाल ही में केंद्रीय विदेश राज्यमंत्री मंत्री वी के सिंह ने शहरी
विकास मंत्री वेंकैया नायडू को पत्र लिखकर दिल्ली के अकबर रोड का नाम बदलकर महाराणा
प्रताप के नाम पर करने का अनुरोध किया । यह खबर अभी चल ही रही थी कि ऋषि कपूर ने
एक के बाद एक दनादन ट्वीट करके सियासत की दुनिया में सनसनी फैला दी । ऋषि कपूर ने
गांधी-नेहरू परिवार पर सीधे हमला बोला और सवाल पूछा कि क्या सिर्फ एक ही परिवार के
सदस्यों के नाम पर एयरपोर्ट और सड़कों के नाम रखे जाने चाहिए । साथ ही ऋषि कपूर ने
कलाकारों के नाम लिखकर ये प्रश्न खड़ा किया कि उनके नाम पर कोई सड़क, कोई एयरपोर्ट
या किसी सरकारी इमारत का नाम क्यों नहीं रखा जाता है । ऋषि कपूर ने चूंकि इसमें
गांध-नेहरू परिवार का नाम ले लिया था इस वजह से जो सियासत शुरू हुई उसमें कई बातें
दबकर रह गई । ऋषि के ट्वीट्स की भाषा पर भी कई लोगों ने सवाल खड़े किए। यह सब अपनी
जगह पर ठीक है लेकिन कपूर ने अपने एक ट्वीट में कलाकारों के नाम पर सड़क, एयरपोर्ट
या सरकारी इमारत का नाम नहीं रखने की जो बात की वो कहीं इस राजनीतिक बयानबाजी के
कोलाहल में दबकर रह गई । इस सवाल पर हमें गंभीरता से विचार करना चाहिए कि किसी
राजधानी में हमें कोई प्रेमचंद मार्ग या निराला मार्ग क्यों नहीं मिलता है । किसी
एयरपोर्ट का नाम रामधारी सिंह दिनकर या सुमित्रानंदन पंत के नाम पर क्यों नहीं
दिखाई देता है । किसी विश्वविद्लाय का नाम मुक्तिबोध या मोहन राकेश के नाम पर
क्यों नहीं दिखाई देता है । हमारे समाज में साहित्यकारों को लेकर इस उदासीनता के
भाव की वजह क्या है । हमें इस बात पर गंभीरता से विचार करना चाहिए । क्या इन
सड़कों, इन इमारतों या फिर एयरपोर्ट्स के नाम पर सिर्फ और सिर्फ हक नेताओं का ही
है । इस बात पर राष्ट्रव्यापी बहस क्यों नहीं होती है कि नामकरण के वक्त
साहित्यकारों के नाम पर भी विचार हो । राजधानी दिल्ली में हर छोटे-बड़े-मंझोले
नेता के नाम पर सड़क, चौक, फ्लाईओवर आदि है लेकिन अगर सुब्रह्ण्यम भारती और दिनेश
नंदिनी डालमिया का नाम छोड़ दिया जाए तो मुझे याद नहीं पड़ता कि किसी सड़क का नाम
किसी भी भाषा के साहित्यकार के नाम पर है । साहित्य अकादमी के भवन का नाम छोड़
दिया जाए तो याद नहीं पड़ता कि किसी सरकारी इमारत का नाम किसी वरिष्ठ साहित्यकार
के नाम पर हो । ऐसा क्यों होता है । क्या सत्ता में रहनेवाले लोग ही बारी बारी से
अपने नेताओं के नाम पर सड़को इमारतों का नामकरण करते रहेंगे । क्या साहित्यकारों
के प्रति हमारी कोई श्रद्धा नहीं है । क्या देश रचनात्मक लेखन करनेवालों का ऋणी
नहीं है ।
दरअस अगर हम देखें तो आजादी के बाद हमारे देश में साहित्यकारों की
बहुत इज्जत थी । हिंदी समेत अन्य भारतीय भाषाओं के विद्वानों को राज्यसभा में जगह
दी जाती थी । भारतीय भाषाओं के नुमाइंदे तब संसद में हुआ करते थे । बाद में
कलाकारों के कोटे से फिल्म अभिनेताओं को जगह दी जाने लगी ।यह गलत भी नहीं है । साहित्यकारों
के नाम पर फिल्मों के स्क्रिप्ट लिखनेवाले राज्यसभा पहुंचने लगे । हिंदी का आखिरी
साहित्यकार, अगर हम याद करें. जो कि राज्यसभा पहुंचे थे वो थे विद्यानिवास मिश्र ।
विद्यानिवास मिश्र को अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने मनोनीत किया था । उसके बाद तो
फिल्मों से, खेल जगत से तो लोग नामांकित होते रहे लेकिन साहित्य को लेकर उदासीनता
बनी रही । कालांतर में तो सक्रिय राजनीति कर रह और चुनाव में हारे हुए नेताओं को सरकार
राज्यसभा में मनोनीत करने लगी । साहित्य और साहित्यकारों की जगह कम होती चली गई ।
साहित्यकारों को लेकर कुछ नेताओं के मन में किस तरह के विचार हैं यह
वी के सिंह के उस बयान से पता चलता है जो उन्होंने पिछले साल भोपाल में आयोजित
विश्व हिंदी सम्मेलन के ठीक पहले दिया था । यह उस सरकार के मंत्री का बयान था जिसके मुखिया
यानि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी स्वयं कवि हैं और उनकी कविता की पुस्तकें
प्रकाशित हैं । स्वयं वी के सिंह की बी किताब प्रकाशित है और पाठकों द्वारा पसंद
की की जा रही है । हलांकि वी के सिंह ने बाद में सफाई देकर कहा था कि लेखकों को
अपमानित करने की उनकी मंशा नहीं थी ।
दरअसल अगर हम विचार करें तो देखते हैं कि साहित्य और राजनीति के बीच
खाई गहरी होती जा रही है, साहित्यकारों और नेताओं के बीच की दूरी बढ़ती जा रही है
। सत्तर के दशक के बाद हिंदी में इस प्रवृत्ति ने जोर पकड़ा था कि लेखकों को
नेताओं के साथ मंच शेयर नहीं करना चाहिए । लेखकों ने नेताओं को हेय दृष्टि से
देखना शुरू किया था । इनमें वो लेखक ज्यादा थे जो कि अपनी रचनाओं के लिए अजय भवन
के संदेशों का इंतजार करते थे । इसका नतीजा यह हुआ कि राजनीति और साहित्य में
दूरियां बढ़ती चली गईं । मुझे याद पड़ता है कि दो एक साल पहले बिहार के सांसद
पप्पू यादव की आत्मकथा का विमोचन नामवर सिंह ने किया था तो नामवर सिंह पर जमकर
हमले हुए थे । पिछले साल एक कहानी पुरस्कार वितरण समारोह में एक वरिष्ठ साहित्यकार
ने इस वजह से आने से इंकार कर दिया था क्योंकि वहां दिल्ली के उपराज्यपाल को भी
होना था । राजनेताओं के साथ मंच साझा नहीं करने की प्रवृत्ति ने साहित्य और
राजनीति के विचारों की आवाजाही को रोक दिया । आयातित विचारधारा की संस्कृति ने
अपनी सोच को आगे बढ़ाने के लिए हर तरह के बैरियर लगाए थे । अपनी संस्कृति को छोड़कर
हम बाहर से आई संस्कृति के हिसाब से काम करने लगे थे । तभी तो राष्ट्रकवि रामधारी
सिंह दिनकर ने लिखा था – जातियों का सांस्कृतिक विनाश तब होता है जब वे अपनी
परंपराओं को भूलकर दूसरों की परंपराओं का अनुकरण करने लगते हैं । जब वे मन ही मन
अपने को हीन दूसरों को श्रेष्ठ मानकर मानसिक दासता को स्वेच्छया स्वीकार कर लेती
है । पारस्परिक आदान-प्रदान तो संस्कृतियों का स्वाभाविक धर्म है, किन्तु जहां
प्रवाह एकतरफा हो, वहां यही कहा जाएगा कि एक जाति दूसरे जाति की सांस्कृतिक दासी
हो रही है । किन्तु सांस्कृतिक गुलामी का इन सबसे भयानक रूप वह होता है, जब कोई
जाति अपनी भाषा को छोड़कर दूसरों की भाषा को अपना लेती है और उसी में तुतलाने को
अपना परम गौरव मानने लगती है । यह गुलामी की पराकाष्ठा है, क्योंकि जोजाति अपनी
भाषा में नहीं सोचती, वह अपनी परंपरा से छूट जाती है और उसके स्वाभिमान का प्रचंड
विनाश हो जाता है ।‘ दिनकर जी की बातों को अगर हम वृहत्तर परिप्रेक्ष्य में देखें तो सारी
बातें साफ हो जाती है । दिनकर के इस कथन से सूत्र पकड़ने की जरूरत है जब वो एकतरफा
प्रवाह की बात करते हैं ।
दूसरी बात यह है कि दूसरों को श्रेष्ठ मानकर मानसिक दास्ता को स्वीकार
कर लेते हैं तो विकास अवरुद्ध हो जाता है । आत्मविश्वास की कमी हो जाती हैं । अपने
सांस्कृतिक विचारों से मार्क्स के विचारों को श्रेष्ठ मानने का नतीजा आज हम सबके
सामने है । किसी मार्क्सवादी कवि में ये नैतिक साहस नहीं है जो दिनकर में था । आज
कौन सा कवि लिख सकता है कि – मर्त्य मानव की विजय का तूर्य हूं मैं, उर्वशी ! अपने समय का सूर्य हूं
मैं । अब यह पंक्ति कहने का साहस कवि को
है तो उसके पीछे उसका अपनी परंपराओ पर अपनी संस्कृति पर गर्व और विश्वास की ताकत
है । उसका आत्मविश्वास है । अपने समय का सूर्य हूं कहना मामूली बात नहीं है । सवाल
यही है कि जिस तरह से हमारे साहित्यकार एक पक्ष में खड़े होते चले गए उसने साहित्य
को राजनीति का एक पक्ष बना दिया और जब आप एक पक्ष बन जाते हैं तो दूसरा पक्ष आपका
अनदेखी करता ही है । साहित्य और साहित्यकारों की अनदेखी तो दोनों पक्षों ने की । हिंदी
के सबसे बड़े लेखक नामवर सिंह ने तो विचारधारा की ध्वजा भी उठाई थी और चुनाव भी
लड़ा था लेकिन उस विचारधारा ने कभी भी नामवर सिंह को संसद में भेजने का नहीं सोचा
। बंगाल के हर तरह के छोटे मोटे नेता, प्रोफेसर आदि को राज्यसभा में भेजा गया
नामवर सिंह के बारे में सोचा भी नहीं गया । आज जरूकत इस बात की है कि हमारे देश
में सड़को, इमारतों और एयरपोर्ट के नामकरण के लिए एक नीति और समिति बनाई जानी
चाहिए । उसमें साहित्य कला और संस्कृति के नुमाइंदे भी हो जो सरकार को इस बात का
सुझाव दें । अगर ऐसा हो पाता है तो अच्छा होगा वर्ना नामकरण को लेकर राजनीतिक वर्ग
खासकर सत्ताधारी दल की मनमानी चलती रहेगी और जिस परिवार या वर्ग का उस दल पर
वर्चस्व रहेगा वो अपनी मनमानी करता रहेगा । वक्त आ गया है कि आजादी के बाद से हुई
गलतियों से सबक लेने की और उसको ठीक करने की योजना पर अमल करने की ।
3 comments:
भाईसाहब हाहाकार मचा ही दी आपने, शानदार लेख के लिये बधाई।
यह पूरा सत्य नहीं है.. लखनऊ में निराला नगर उनकी प्रतिमा के साथ है...पन्तनगर एक जिला है ,माखनलाल चतुर्वेदी के नाम पर विश्वविद्यालय है..
यह पूरा सत्य नहीं है.. लखनऊ में निराला नगर उनकी प्रतिमा के साथ है...पन्तनगर एक जिला है ,माखनलाल चतुर्वेदी के नाम पर विश्वविद्यालय है..
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