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Sunday, May 8, 2011

तद्भव और अन्य पत्रिकाएं

हिंदी में साहित्यिक पत्रिकाओं का एक समृद्ध इतिहास रहा है और हिंदी के विकास में इनकी एक ऐतिहासिक भूमिका भी रही है । व्यावसायिक पत्रिकाओं के विरोध में शुरू हुआ लघु पत्रिकाओं के इस आंदोलन ने एक वक्त हिंदी साहित्य में विमर्श के लिए एक बड़ा और अहम मंच प्रदान किया था । लेकिन बदलते वक्त के साथ इन पत्रिकाओं की भूमिका भी बदलती चली गई । नब्बे के दशक में तो आलम यह था कि कई ऐसे व्यक्ति जो लेखक के रूप में हिंदी जगत में मान्यता नहीं पा सके उन्होंने किसी तरह से जुगाड़ लगा कर एक पत्रिका छाप ली । लेखक ना बन पाने की टीस संपादक बनकर दूर होने लगी । फिर तो यह फॉर्मूला चल निकला और एकल अंकी पत्रिका के संपादकों की हिंदी में बाढ़ आ गई । लगभग एक दशक में इस तरह की सभी पत्रिकाएं कहां बिला गई यह पता भी नहीं चला । उस दौर में कई पत्रिकाएं ऐसी भी निकली जिसने हिंदी साहित्य को गहरे तक प्रभावित ही नहीं किया बल्कि अपनी उपस्थिति से उसमें सार्थक हस्तक्षेप भी किया । इस तरह की एक गंभीर पत्रिका का प्रकाशन लखनऊ से कहानीकार अखिलेश ने शुरू की-तद्भव ( संपादक अखिलेश,18/20 इंदिरानगर, लखनऊ-226016, उत्तर प्रदेश) । अबतक इस पत्रिका के तेइस अंक निकल चुके हैं और हर अंक ने अपनी सामग्री की वजह से हिंदी जगत का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया । अपने संवादकीय में अखिलेश हर बार कोई विचारोत्तजक मुद्दा उठाते रहे हैं जिसपर पर्याप्त बहस की गुंजाइश भी रहती है ।
इस बार के अपने संपादकीय में अखिलेश ने इंटरनेट पर छप रहे लेखों और साहित्य को पुस्तकों की उपयोगिता का तुलनात्मक विवेचन किया है । अपने संपादकीय की शुरुआत ही अखिलेश करते हैं - इन दिनों कुछ लोगों द्वारा इस बात की चिंता प्रकट की जाती है कि इंटरनेट का विस्तार किताबों के वर्तमान स्वरूप को समाप्त कर देगा जाहिर है यहां आशय छपी हुई पुस्तकों से है । इस बात के समर्थन और विरोध की बातें कहते हुए अखिलेश फिल्मों तक पहुंचते हैं और कहते हैं कि - सिनेमा के अभ्युदय में भी साहित्य की समाप्ति का दुस्वपन देखा गया था । टेलीविजन को सिनेमा और साहित्य दोनों का संहारक माना गया । रंगीन टेलीविजन के खिलाफ तो बकायदा वैचारिक संघर्ष हुआ था और कंप्यूटर की भर्त्सना में बौद्धिक दुनिया ने विराट प्रतिरोध दर्ज किया था । इतना ही नहीं हमारे कुछ महत्वपूर्ण कवियों ने कंप्यूटर की निंदा करते हुए अपनी कविता में उसे ना छूने तक की प्रतिज्ञा की थी । अपने इस पूरे संपादकीय में अखिलेश तकनीक को लेकर हिंदी के द्वंद को सामने लाते हैं । इसके साथ ही इशारों-इशारों में इंटरनेट और ब्लॉग में फैली अराजकता पर भी सवाल खड़े करते हैं । यह सही है कि इंटरनेट और ब्लाग की दुनिया एक वैकल्पिक मीडिया के तौर पर सामने आया, साथ ही विचारों को अभिवयक्त करने का एक मंच प्रदान किया । इंटरनेट पर हिंदी में काफी महत्वपूर्ण काम किया जा रहा है लेकिन चंद लोग इसका इस्तेमाल व्यक्ति विशेष को बदनाम करने से लेकर लाभ-लोभ की आशा में ब्लैकमेलिंग के हथियार के तौर पर करते हैं । ब्लाग जगत के मूर्धन्य लोगों को आत्म नियंत्रण जैसा कोई मैकेनिज्म विकसित करना होगा । अगर ऐसा नहीं होता है तो सरकारी नियंत्रण की मांग उठेगी जो इसके हित में नहीं होगी ।
तद्भव के नए अंक में प्रसिद्ध कथाकार और अपनी धर्मनिरपेक्षता के लिए मशहूर विभूति नारायण राय की आनेवाली किताब के दो अंश छपे हैं - हाशिमपुरा 22 मई । 1987 में मेरठ के भीषण दंगों के दौरान विभूति नारायण राय बगल के जिले गाजियाबाद के पुलिस कप्तान थे । उन दंगों के दौरान उत्तर प्रदेश की पीएसी ने अंल्पसंख्यकों पर जिस तरह से जुल्म किए थे, उसके बारे में विभूति नारायण राय किताब लिख रहे हैं । यह पूरी घटना दिल दहला देने वाली है कि किस तरह 22-23 मई 1987 की रात को दिल्ली-गाजियाबाद बॉर्डर पर स्थित मकनपुर गांव के पास ट्रकों में भरकर लाए गए लोगों को पीएसी के जवानों ने अपनी गोली का शिकार बनाया था । पुलिस कप्तान के तौर पर जब राय सूचना मिलने के बाद उस जगह पहुंचे तो लाशों के ढेर के बीच सरकंडे को पकड़ कर नहर में झूलता एक जीवित व्यक्ति उन्हें मिला जिसका नाम बाबूदीन था । उसने पूरी घटना पुलिस कप्तान और उस वक्त के जिलाधिकारी नसीम जैदी को बतलाई । इस पूरे लेख में दो अधिकारियों के भय के उस मनोदशा का भी चित्रण है जहां उन्हें लगता है कि सुबह अफवाह फैलने के बाद उनके जिले में भी दंगा भड़क सकता है । यहां यह भी बताते चलें कि 1987 में चौथी दुनिया में सबसे पहले इस नरसंहार का खुलासा हुआ था । इसके अलावा तद्भव के इस अंक में वरिष्ठ साहित्यकार काशीनाथ सिंह की दो कहानियां खरोंच और पायल पुरोहित प्रकाशित है । काशीनाथ सिंह ने इस बार अपनी कहानियों में एक अलग ही तरह का प्रयोग किया है जो पाठकों को चौंकाती है । कविताओं में बद्री नारायण और प्रेम रंजन अनिमेष की कविताएं उल्लेखनीय हैं जबकि जितेन्द्र श्रीवास्तव की कविताएं उनकी तुलना में काफी कमजोर है । जितेन्द्र अपनी कविताओं को संभाल नहीं पा रहे हैं और उनके कथन में भटकाव को साफ तौर पर देखा जा सकता है ।
पुस्तक समीक्षाओं पर केंद्रित त्रैमासिक पत्रिका- समीक्षा ( संपादक-सत्यकाम, 3320-21, जटवाड़ा, नेताजी सुभाष मार्ग, दरियागंज नई दिल्ली-110002) का भी नया अंक आया है । मैं लंबे अरसे से इस पत्रिका को देख पढ़ रहा हूं । जब से सामयिक प्रकाशन ने इस पत्रिका का अधिग्रहण किया है तो कुछ बदलाव तो लक्षित किए जा सकते हैं लेकिन लेकिन घूम फिर कर वही-वही लेखक फिर से छप रहे हैं जो सालों से छपते आ रहे हैं । हां इतना अवश्य हुआ है कि महेश भारद्वाज ने कुछ नए लेखकों के लिए पत्रिका का सिंहद्वार खोल दिया है । अप्रैल में प्रकाशित अंक में वर्ष 2010 में प्रकाशित किताबों का लेखा-जोखा प्रकाशित होना चकित करता है । 2011 के तकरीबन चार महीने बीत जाने के बाद पिछले वर्ष का लेखा-जोखा छापना मेरी समझ से बाहर है । इन चार महीनों में तो हिंदी में कई अहम किताबें छपकर आ गई, खुद समायिक से ही कई किताबें छप गई । इस तरह के लेख से एक तो यह लगता है कि प्लानिंग के स्तर पर कुछ खामियां है जिसे दूर किया जा सकता है ताकि पत्रिका की ताजगी और लेखों की प्रासंगिकता बनी रही । इस पत्रिका के संस्थापक संपादक गोपाल राय जी ने इस बार प्रेमचंद की किताबों के बहाने एक अच्छा लेख लिखा है । संपादकीय में सत्यकाम ने कई हल्की बातें कह दी हैं,गौर करिए - पत्रिकाओं के दम पर आज साहित्य जिंदा है, वर्ना पुस्तकें पुस्तकालयों में जाकर कैद होने के लिए अभिशप्त हैं । ऐसी ही एक पत्रिका है नया पथ । यह जनवादी लेखक संघ की केंद्रीय पत्रिका है । लेखक संघों में जनवादी लेख संघ ही सर्जानत्मक रूप से सक्रिय है और इसी पर साहित्य की आशा टिकी है । पता नहीं सत्यकाम किस आधार पर कह रहे हैं कि जलेस ही सर्जनात्मक रूप से सक्रिय है और साहित्य की आशा उसपर ही टिकी है । यहां सत्यकाम फतवेबाजी के दोष के शिकार हो गए हैं । उन्हें यह बताना चाहिए था कि किस तरह से साहित्य की आशा जलेस पर टिकी है । सत्यकाम की छवि एक समझदार शिक्षक की है उनसे इस तरह की बचकानी टिप्पणी की उम्मीद नहीं थी । लेखक संघ किस तरह से अपने कर्तव्य से च्युत हो चुके हैं यह पूरा हिंदी साहित्य जानता है । उनकी साहित्य जगत में अब कोई भूमिका शेष नहीं रह गई है क्योंकि लेखकों से जुडे़ किसी भी बड़े मसले पर वो हमेशा खामेश ही रहते हैं ।
पिछले दिनों एक गोष्ठी में एक मित्र ने आधारशिला ( संपादक दिवाकर भट्ट, बड़ी मुखानी,हलद्वानी, नैनीताल, उत्तराखंड -263139) का कवि त्रिलोचन पर केंद्रित अंक-बारंबार त्रिलोचन की प्रति दी । इस अंक का संपादन वाचस्पति ने किया है । इस अंक के संपादकीय से पता चला कि इसके पहले भी आधारशिला ने अपना एक अंक त्रिलोचन पर फोकस करते हुए निकाला था और दिवाकर भट्ट की मानें तो - आधारशिला का त्रिलोचन विशेषांक -एक त्रिलोचन इतने अपने पास, अपनी सामग्री व प्रस्तुति की दृष्टि से देश-विदेश में खासा चर्चित रहा । मुझे इस बात का अफसोस है कि देश-विदेश में चर्चित उक्त अंक मैं देख नहीं पाया । अगर इस अंक को देखें तो अतिथि संपादक ने पहले ही मान लिया है कि - कुछ निजी और सार्वजनिक कारणों से त्रिलोचन विषयक अत्यंत महत्वपूर्ण सामग्री अभी हम नहीं दे पा रहे हैं । इस याचित सामग्री का उपयोग हम यथासमय अवश्य करेंगे । बावजूद इसके इस अंक में कई महत्वपूर्ण लेख प्रकाशित हैं । कथाकार उदय प्रकाश का संस्मरणात्मक लेख-पथ पर बिखरा जीवन-बेहतरीन लेखों में से एक है । इस लेख के अलावा हिंदी के तमाम लेखकों के त्रिलोचन पर समय समय पर लिखे लेख इस अंक में हैं जिसमें शमशेर बहादुर सिंह, राजेश जोशी, लीलाधर जगूड़ी, रामविलास शर्मा, रमेशचंद्र शाह आदि के नाम शामिल हैं । त्रिलोचन पर केंद्रित य़ह अंक हिंदी में सानेट के जनक को जानने के लिहाज से अहम है ।
पिछले दिनों डाक में एक ऐसी पत्रिका मिली जिसके शीर्षक के मुझे चौंकाया । प्रवासी भारतीयों की मासिक पत्रिका- पत्रिका गर्भनाल ( संपादक सुषमा शर्मा, डीएक्सई-23, मीनाल रेसीडेंसी, जे के रोड भोपाल-462023) । मैं इसके कवर और शार्षक से यह अनुमान नहीं लगा पाया कि यह किस तरह की पत्रिका है । लेकिन उलटने पुलटने के बाद पता चला कि यह पत्रिका कमोबेश साहित्यक ही है । इसमे विदेशो में बसे कुछ भारतीयों के लेखों के अलावा देसी लेखकों की भी रचनाएं प्रकाशित हैं लेकिन दो अंक देखने के बाद भी मेरी यही राय है कि अभी इस पत्रिका का कोई ठोस स्वरूप नहीं बन पाया है ।

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