कौन जानता था कि सिमरिया घाट की बालू की रेत पर खेलनेवाला बालक एक
दिन अपनी तर्जनी उठाकर कह सकेगा ‘लोहे के पेड़ हरे होंगे तू गान प्रेम
का गाता चल, नम होगी यह मिट्टी जरूर, आंसू के कण बरसाता चल ।‘ सिमरिया घाट है
बिहार के मौजूदा बेगूसराय जिले में और उसकी बालू की रेत पर खेलनेवाला बालक था रामधारी
सिंह दिनकर । यह दिनकर की कल्पनाशीलता है कि वो प्रेम के बल पर लोहे के पेड़ के
हरे होने की बात करते हैं । यह दिनकर का आत्मविश्वास है कि वो खुद को अपने समय का
सूर्य घोषित करता है – ‘मर्त्य मानव की विजय का तूर्य हूं
मैं, उर्वशी ! अपने समय का सूर्य हूं मैं ।‘ हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा भी था
कि दिनकर अपने ढंग का अकेला हिंदी कवि है । यौवन और जीवन उसे आकृष्ट करते हैं,
सौंदर्य के मोहन संगीत उसे मुग्ध करते हैं पर वह इनसे अभिभूत नहीं होता है । रामधारी
सिंह दिनकर हिंदी के ऐसे कवि लेखक हैं जिनका रेंज इतना व्यापक है कि वो अपने में
साहित्य, समाज, इतिहास और राजनीति को एक साथ समेट कर चलते हैं । नामवर सिंह का
मानना है कि ‘दिनकर जी को सूर्य
कहते समय हम यह भूल जाते हैं कि सूर्य का एक ही रंग नहीं होता है और सूर्य में ताप
हीनहीं होता है, रोशनी भी होती है । उस प्रकाश के उस आलोक के अनेक रंग होते हैं,
बल्कि धरती पर जितने रंग दिखाई पड़ते हैं, वे सारे के सारे रंग और रंग बिरंगे
पुष्प सूरज की रोशनी से ही हैं । सूरज न हों तो उतने रंग धरती पर नहीं होंगे ।‘ करीब पांच दशक लंबे
कालखंड में सृजनरत दिनकर समय के साथ कदम से कदम मिलाकर चल रहे थे । आजादी के पहले
बारदोली विजय पर ‘विजय संदेश’ के नाम से उनकी
कविताओ की एक पुस्तिका प्रकाशित हुई थी जिसके बारे में दिनकर ने खुद लिखा है कि
उसमें एक उदयीमान कवि के रेंगने की रेखाएं देखने को मिलती हैं ।
दिनकर की रचनाओं की व्यपकता का आलम यह है कि वो गांधी से लेकर
मार्क्स तक, आर्य से लेकर अनार्य तक, हिन्दू संस्कृति के आविर्भाव से लेकर प्राचीन
हिन्दुत्व से विद्रोह के अलावा हिंदू संस्कृति और इस्लाम से लेकर भारतीय संस्कृति
और यूरोप के संबंधों को परखते हुए विपुल लेखन किया है । गांधी और मार्क्स को लेकर
दिनकर में एक खास तरह का द्वंद् देखने को मिलता है । वो गांधी की अहिंसा और
मार्क्स के हिंसक सिद्धातों के बीच फंसे हुए नजर आते हैं । हिंसा ओर अहिंसा के बीच
का उनका द्वंद्व उनकी रचनाओं में भी दिखाई देता है । जब चीन ने भारत पर आक्रमण कर
दिया था तब दिनकर जी ने परशुराम की प्रतीक्षा लिखी जिसमें उन्होंने अपने तर्कों के
आधार पर हिंसा और अहिंसा के इस्तेमाल के दर्शन को साफ किया । दिनकर ने स्वीकार भी
किया है कि – ‘मैं जीवनभर गांधी
और मार्क्स के बीच झटके खाता रहा हूं । इसलिए उजले को लाल से गुणा करने पर जो रंग
बनता है वही रंग मेरी कविता का रंग है ।‘ लेकिन जब साहित्य की बात आती है तो
दिनकर बेहद साफगोई से कहते हैं कि – ‘साहित्य के क्षेत्र में हम न तो किसी
गोयबेल्स की सत्ता मानने को तैयार हैं, जो हमसे नाजीवाद का समर्थन लिखवाए औप न
किसी स्टालिन की ही, जो हमे साम्यवाद से तटस्थ रहकर फूलने फलने नहीं दे सकता । हमारे
लिए फरमान न तो क्रेमलिन से आ सकता है और न आनंद भवन से ही । अपने क्षेत्र में तो
हम सिर्फ उन्हीं नियंत्रणों को स्वीकार करेंगे जिन्हें साहित्य की कला अनंत काल से
मानती चली आ रही है ।‘ दिनकर इस बात से बहुधा खिन्न नजर आते
थे कि मार्क्सवादियों को लेखन की स्वतंत्रता नहीं थी । उन्हें पार्टी लाइन पर लेखन
करना पड़ता था और दिनकर इस क्षोभ को दृढता से प्रकट भी करते थे । 14 मई 1957 को राज्यसभा के अपने भाषण में दिनकर
ने साफ किया था- कम्युनिस्ट देश के लेखकों और कवियों ने पाया तो क्या पाया ? शारीरिक सुख और
रुपया तो बहुत पाया, आराम तो उनको सबसे अधिक है। उनके साथ इंकम टैक्स की दरों में
रियारतें रखी जाती हैं, लेकिन बदले में उनको देना क्या पड़ा है ? देना यह पड़ा है कि अपनी स्वाधीनता का हनन करना
पड़ा है । रेजीमेंटेशन को स्वीकार करना पड़ा है । मैं पूछना चाहता हूं कि क्रांति
हुए इतने दिन हुए हैं, तो दस्तोव्स्की, तुर्गनेव, चेखोव, टॉलस्टाय और गोर्की के
समान लेखक क्यों नहॆं पैदा हुए कम्युनिज्म में ? फिर पैदा हो नहीं सकते क्योंकि मनुष्य
की आत्मा को जहां स्वाधीनता नहीं है वहां सच्चा साहित्य, सच्ची कविता, सच्ची कला
कभी पैदा नहीं हो सकती।‘
इसी तरह से पिछले दिनों जब पूरे देश में राष्ट्रीयता और असहिष्णुता
को लेकर बहस चली थी तो पक्ष और विपक्ष दोनों तरफ के नेताओं और विद्वानों ने दिनकर
को उद्धृत करते हुए अपने तर्कों को वैधता प्रदान करने की कोशिश की । दिनकर की
कविता समर शेष है की आखिरी पंक्ति– ‘समर शेष है नहीं पाप का भागी केवल
व्याघ्र, जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध ।‘ के हवाले से उस बहस में तटस्थ रहनेवालों
की लानत मलामत की गई थी । लेकिन उस वक्त किसी को याद नहीं आया कि इसी कविता में
दिनकर कहते हैं – समर शेष है, अभी मनुज भक्षी हुंकार रहे हैं, गांधी का पी रुधिर,
जवाहर पर फुंकार रहे हैं ।‘ दिनकर को उस बहस में लोगों ने
सुविधानुसार उद्धृत किया और विरोधियों ने बगैर दिनकर को समग्रता में पढ़े उनपर
जाने कैसे कैसे आरोप मढ़ दिए । दिनकर राष्ट्रवादी कवि हैं इसमें कोई दो राय नहीं
है । उनकी कविताओं में उग्र राष्ट्रवाद के स्वर भी मुखर रहे हैं । उनकी रचनाओं में
इस उग्र राष्ट्रीयता के पीछे अपने गौरवशाली अतीत का भान और मान था । संस्कृति के
चार अध्याय में दिनकर ने अतीत के इस गौरव को बेहद करीने और सलीके से सजाया है । लेकिन
इसका यह मतलब नहीं हुआ कि दिनकर की राष्ट्रीयता सांप्रदायिक या फिर जनता विरोधी है
। इसको उनकी कविता ‘दिल्ली’ को पढ़कर समझा जा
सकता है । दिनकर साहित्य में मार्क्सवाद की सत्ता की गुलामी को भी तैयार नहीं थे
लेकिन इसका ये मतलब कतई नहीं निकाला जाना चाहिए कि दिनकर उस राष्ट्रवाद के समर्थक
थे जो नफरत की बुनियाद पर टिका था । दिनकर ने घृणा को राष्ट्रीयता की बुनियाद
बताया था लेकिन उसको उद्धरणों से स्पषट भी किया था । दिनकर का मानना है कि बहुधा
राष्ट्रीयता का जन्म घृणा से होता है । उनका मानना है कि नेपोलियन की हुकूमत के
खिलाफ लोगों में एकता हुकूमत से घृणा की वजह से आई । इसी तरह से भारत में
राष्ट्रीयता इस वजह से पनपी कि यहां के लोग अंग्रेजों से घृणा करने लगे । अब यहां
अगर पूरे संदर्भ से काटकर सिर्फ ये बताया जाए कि दिनकर की राष्ट्रीयता का आधार
घृणा है तो यह उनके साथ अन्याय होगा । कुछ लोगों ने उनके साथ ये अन्याय पिछले
दिनों किया । दिनकर ने अपने लेखों में टैगोर के राष्ट्रीयता और अंतराष्ट्रीयता की
अवधारणा पर भी विचार करते वक्त अपनी मान्यताओ को सामने रखा है । दिनकर की एक कविता
भी है – ‘राष्ट्रदेवता का
विसर्जन’, जिसमें उन्होंने
साफ तौर पर कहा है कि राष्ट्रीयता अगर अंतराष्ट्रीयता के खिलाफ खड़ी हो रही हो तो
उसका विदा होना बेहतर है । कहना ना होगा कि दिनकर विश्व शांति और मैत्री की वकालत
भी कर रहे थे । दरअसल अगर देखा जाए तो दिनकर का सभी ने अपने अपने हक में इस्तेमाल
किया लेकिन उनका समग्र मूल्यांकन करने में किसी ने रुचि नहीं दिखाई
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