Translate

Thursday, May 16, 2024

बिना पायल के बजे घुंघरू


माधुरी दीक्षित। हिंदी फिल्म जगत का ऐसा सितारा जिसने फिल्मों में नृत्य की समृद्ध परंपरा को अपने नवाचार से समृद्ध किया। माधुरी दीक्षित जब पर्दे पर नृत्य करती थीं तो सिनेमाघऱ में बैठे दर्शक मंत्रमुग्ध होकर नायिका के शरीर के मूवमेंट्स में खो जाते थे। चाहे तेजाब का प्रख्यात गाना एक दो तीन चार हो या बेटा का धक धक करने लगा या फिर खलनायक का चोली के पीछे क्या है या देवदास का डोला रे डोला हो। यह सूची और लंबी हो सकती है। हिंदी फिल्मों में सितारा देवी से लेकर त्रावणकोर सिस्टर्स के नाम से मशहूर रागिनी, पद्मिनी और ललिता के अलावा वैजयंती माला, आशा पारिख, वहीदा रहमान, हेमा मालिनी, रेखा और श्रीदेवी की जो परंपरा रही उसको माधुरी ने अपने नृत्य कौशल से नई ऊंचाई दी। यह अनायास नहीं था कि लता मंगेशकर ने कहा था कि माधुरी की नृत्यकला को देखकर उनको वहीदा रहमान की याद आती है क्योंकि माधुरी उनकी ही तरह की समर्थ नृत्यांगना हैं। लता मंगेशकर ही नहीं बल्कि चित्रकार एम एफ हुसैन से लेकर बिरजू महाराज तक माधुरी की नृत्य प्रतिभा के कायल थे। बिरजू महाराज ने तो संजय लीला भंसाली की फिल्म देवदास में माधुरी के गाने को कोरियोग्राफ भी किया था। हुसैन ने तो यहां तक कह दिया था कि माधुरी दीक्षित के चेहरे का भाव और शरीर की लय और लचक देखकर उनको ग्रेटा गार्बो और मर्लिन मुनरो की याद आती है। 

कहीं पढ़ा था कि माधुरी दीक्षित का जब फिल्मों में पदार्पण हो रहा था तो वो दौर बदलाव का था। एंग्री यंगमैन की टाइप्ड भूमिकाओं वाली फिल्मों से लोगों का मोहभंग हो गया था। सिनेमा घर में जाकर फिल्म देखने की दर्शकों की रुचि भी बदल रही थी। लोग किराए पर फिल्मों के कैसेट लाकर घर पर ही वीडियो कैसेट प्लेयर पर फिल्में देखने लगे थे। कहा जाता है कि माधुरी दीक्षित के डांस ने दर्शकों की इस बदलती रुचि पर ब्रेक लगाया था। उनको फिर से सिनेमाहाल तक खींच लाए थे। दरअसल माधुरी जब नृत्य करती थीं तो उनके चेहरे का भाव और कैमरे के लेंस को देखती आंखें दर्शकों को रिझाती थीं। शारीरिक लय भी। माधुरी दीक्षित के अंग प्रत्यंग से एक भाव तरंग उत्पन्न होता था जिसमें मादकता होती थी, अश्लीलता नहीं। आप याद करिए फिल्म खलनायक का गाना चोली के पीछे क्या है। इस गाने में माधुरी के शरीर का मूवमेंट उसका रिदम और कैमरे पर देखती आंखें गजब प्रभाव पैदा करती हैं। ये बहुत कम होता है कि किसी गाने के बोल पर नायिका का नाम पड़ जाए। फिल्म बेटा का एक गाना है धक-धक करने लगा। इस गाने के बाद से माधुरी का नाम ही धर-धक गर्ल पड़ गया। इस गाने के नृत्य के दौरान उनकी सेंसुअस अदा को जिस तरह से फिल्माया गया है वो अप्रतिम है। गाने के दौरान जिस तरह की लाइटिंग की गई वो पूरे माहौल को मादक बना देता है। इस माहौल को माधुरी के स्टेप्स, मूवमेंट और चेहरे के भाव की सपनीली दुनिया से दर्शकों का निकलना मुश्किल हो जाता था। ये माहौल सिनेमा हाल में ही मिलता था। फिल्म बेटा के गीत का मुखड़ा है, धक धक करने लगा, हो मोरा जियरा डरने लगा/ सैंया बैंया छोड़ ना, कच्ची कलियां तोड़ ना। मुखड़े के पहले गायिका आउच बोलती हैं। आउच के बाद गहरी सांस का साउंड इफेक्ट है। आउच और गहरी सांस के साउंड इफेक्ट पर माधुरी जिस प्रकार से अपने अपने शरीर में लय पैदा करती हैं वो इस गाने को शेष बना देता है। इस गीत के मुखड़े के पहले आउच जोड़ने की दिलचस्प कहानी है। जब समीर ने इसको लिखा था तब मुखड़े के पहले आउच नहीं था। गाने की रिकार्डिंग के समय गायिका अनुराधा पौडवाल ने संगीतकार आनंद-मिलिंद को आउच जोड़ने का सुझाव दिया था। फिर आउच के हिसाब से ही गहरी सांस का साउंड इफैक्ट रचा गया। 

किसे पता था कि राजश्री प्रोडक्शन की फ्लाप फिल्म अबोध से अपनी फिल्मी करियर का आरंभ करनेवाली माधुरी दीक्षित एक दिन हिंदी फिल्मों की सुपरस्टार बनेंगी। ऐसी सुपरस्टार जिनका फिल्म के पोस्टर पर नाम होना ही फिल्मों की सफलता की गारंटी होगी। इस सफलता के पीछे एक लंबा संघर्ष है। पहली फिल्म के असफल होने के बाद वो वापस पढ़ाई की ओर लौट गईं। लेकिन फिल्मों में काम करने की ललक बनी रही। इसी ललक के कारण माधुरी ने कई बी ग्रेड फिल्मों में छोटी-मोटी भूमिकाएं कीं। लगातार पांच फिल्में फ्लाप। ये वो दौर था जब माधुरी को बी ग्रेड फिल्मों की हिरोइन कहा गया था। इन असफलताओं ने माधुरी के इरादों को मजबूती दी। माधुरी ने एक इंटरव्यू में कहा था कि फिल्मों के असफल होने के कारण उनके अंदर गुस्सा था। उनको लगता था कि वो जो करना चाहती हैं उसमें असफल कैसे हो रही हैं। वो स्वयं को सही और दूसरों को गलत साबित करना चाहती थीं। तभी एन चंद्रा की फिल्म तेजाब आई और माधुरी स्टार बन गईं। उसके बाद की कहानी तो इतिहास में दर्ज है।   


Saturday, May 11, 2024

संविधान बदलने का भ्रामक नैरेटिव


लोकसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस और आईएनडीआईए के घटक दल संविधान को बदलने का नैरेटिव गढ़ने का प्रयत्न रही है। कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी अपने चुनावी भाषणों में भारतीय जनता पार्टी पर संविधान बदलने की मंशा का आरोप लगा रहे हैं। जनता को ये बताकर भयभीत करने का प्रयत्न भी कर रहे हैं कि अगर नरेन्द्र मोदी की सरकार बनती है तो वो संविधान को बदल देंगे। राहुल गांधी तो चुनावी सभाओं में संविधान हाथ में लेकर निरंतर इस बात पर बल दे रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह बहुत स्पष्ट रूप से ये कह चुके हैं कि वो संविधान उनके लिए सबसे पवित्र है और उनकी पार्टी संविधान को बदलने के बारे में सोच भी नहीं सकती है। बावजूद इसके आईएनडीआईए में शामिल क्षेत्रीय दलों के नेता भी संविधान बदलने के नैरेटिव को मजबूती देने के लिए प्रयत्नशील हैं। कोई एक हाथ में संविधान की प्रति लेकर वीडियो बना रहे है तो कोई इसको आरक्षण से जोड़ रहे हैं। कोई इस नैरेटिव को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक रहे माधव सदाशिवराव गोलवलकर से जोड़कर नई व्याख्या कर रहे हैं। कुछ लोग इस नैरेटिव को मजबूती देने के लिए गोलवलकर की पुस्तक बंच आफ थाट्स का हवाला दे रहे हैं। कुल मिलाकर संविधान बदलने के नैरेटिव के जरिए वंचित समाज के मतदाताओं के मन में ये बात डालने की कोशिश हो रही है कि अगर मोदी सरकार तीसरी बार आएगी तो  आरक्षण खत्म कर देगी। ये पिछले कई चुनावों से होता आया है। जब भी देश में कोई महत्वपूर्ण चुनाव आता है तो विपक्ष, भारतीय जनता पार्टी पर आरक्षण खत्म करने की कोशिश करने का आरोप लगाते हैं। कभी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से संबद्ध किसी अधिकारी की बात को तोड़-मरोड़ कर तो कभी किसी पुरानी पुस्तक की पंक्तियों को उठाकर तो कभी डीप फेक वीडियो बनाकर ये भ्रम फैलाने की कोशिश होती है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत, सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले, प्रधानमंत्री मोदी तक इस बारे में कई बार ये बात कह चुके हैं कि आरक्षण खत्म करने जैसी कोई बात ही नहीं है। बाबा साहब के बनाए संवैधानिक व्यवस्था में कोई बदलाव नहीं किया जाएगा। लेकिन चुनाव के समय विपक्ष बार-बार ये राग बजाता ही रहता है।   

कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी को संविधान बदलने के इस नैरेटिव को गढ़ते और रैलियों में संविधान की प्रति लहराते देखकर पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर की जेल डायरी में 13 अप्रैल 1976 को लिखी एक टिप्पणी याद आ गई। चंद्रशेखर ने लिखा था, आज कांग्रेस कार्यसमिति ने संविधान में किए जानेवाले संशोधन के संबंध में स्वर्ण सिंह समिति की रिपोर्ट पर विचार किया। जो सुझाव दिए गए हैं, उनके अनुसार संविधान में व्यापक संशोधन होगा। उच्च न्यायालयों के अधिकारों में भारी कटौती होगी। उच्चतम न्यायालय पर भी बहुत कुछ प्रतिबंध लग जाएगा। संविधान संशोधनों को चुनौती नहीं दी जा सकेगी और अन्य विधेयकों की वैधता की जांच के बारे में भी उच्चतम न्यायालय के सात न्यायाधीशों की पीठ ही सुनवाई कर सकेगी। वह भी निर्णय दो तिहाई बहुमत से होना चाहिए। चुनाव के मुकदमे न्यायालयों की परिधि से बाहर होंगे। उनका निर्णय एक समिति द्वारा होगा जिसमें संसद के प्रतिनिधि और राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत सदस्य होंगे। इस प्रकार यह समिति पूरी तरह बहुमत प्राप्त राजनीतिक दल के पक्ष में होगी। सरकारी सेवा संबंधी मामलों का निर्णय इसके लिए नियुक्त ट्रिब्यूनल द्वारा किया जाएगा। मौलिक अधिकारों के बारे में प्रत्यक्षीकरण की याचिका सुनने का अधिकार उच्च न्यायालयों को होगा, किंतु आपातकालिन स्थिति में इसे भी समाप्त कर दिया गया है। इन सुझावों में, कुछ ऐसे हैं, जो आवश्यक हैं, किंतु जिस प्रकार न्यायालयों के अधिकारो को सीमित करने का प्रयास हो रहा है और जिस वृत्ति का परिचय थोड़े दिनों में संसद ने दिया है उससे अनेक भयंकर संभावनाओं को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है। चुनावों में धांधली पर कोई अंकुश नहीं रह जाएगा। ऐसी स्थिति में सारी लोकशाही को ही खतरा पैदा हो सकता है। कानून-व्यवस्था, शिक्षा और कृषि में अब केंद्र को सामान्य रूप से हस्तक्षेप करने का अधिकार हो जाएगा। इस प्रकार राज्यों द्वारा अधिकार और सत्ता प्राप्त करने की मांग को ठेस लगेगी। इन सुझावों के पीछे उद्देश्य कितने भी उच्च हों, केंद्र को अधिक से अधिक अधिकार देकर सत्ता के विकेन्द्रीकरण की बात को पीछे धकेला जा सकता है। यह स्वस्थ विकास नहीं है।

चंद्रशेखर की इस टिप्पणी के बाद जब कांग्रेस पार्टी किसी अन्य दल पर संविधान बदलने की मंशा का आरोप लगाती है तो आरोप खोखले लगते हैं। कांग्रेस की उस समय की कार्यसमिति में कितनी खतरनाक बातें हुई थीं। स्वर्ण सिंह समिति की सिफारिशों में संविधान को बदलने का जो मंसूबा था वो पूरा हो पाया नहीं ये अलग बात है। महत्वपूर्ण ये है कि कांग्रेस पार्टी का सोच कैसा था। किस तरह के प्रस्तावों पर उनकी कार्यसमिति में चर्चा होती थी। उच्चतम न्यायालयों के अधिकारों की कटौती की चर्चा भी कार्यसमिति में हो चुकी है। चुनावी मुकदमों की सुनवाई का फैसला न्यायालयों की परिधि से बाहर रखने पर कांग्रेस के दिग्गज नेताओं ने मंथन किया था। इसकी तो पृष्ठभूमि भी थी, इंदिरा गांधी के चुनाव को कोर्ट ने रद कर दिया था। बाद में उच्चतम न्यायालय में क्या हुआ उसको दोहराने का अर्थ नहीं है। कांग्रेस की लोकतंत्र को लेकर मंशा को समझने के लिए इंदिरा गांधी और बीजू पटनायक के एक संवाद का हवाला दिया जा सकता है। बीजू पटनायक का दावा था कि इंदिरा गांधी ने 1970-71 के आसपास कभी उनसे कहा था कि राजनीति में नैतिकता कुछ नहीं होती। सफलता ही सबकुछ है। उसे किसी भी प्रकार प्राप्त करना चाहिए। इंदिरा जी चुनावों को इतना महंगा बना देना चाहती थीं कि कोई भी विरोधी पार्टी उस दौड़ में शामिल ही न हो पाए। बकौल बीजू पटनायक इंदिरा गांधी वैसा ही अधिकार चाहती थीं जैसा टीटो और नासिर के पास थे। 1975 में देश में इमरजेंसी लगाकर इंदिरा गांधी ने ये प्रयास भी किया। चंद्रशेखर इंदिरा गांधी की अधिनायकवादी प्रवृत्तियों को लेकर चिंतित रहा करते थे।

हमारे देश के संविधान में सौ से अधिक संशोधन हो चुके हैं लेकिन उन बदलावों को देखा जाना चाहिए जिसने व्यापक वर्ग को प्रभावित किया। यह काम किन प्रधानमंत्रियों ने किया, इसको भी देखे जाने की आवश्यकता है। पहला संविधान संशोधन जिसमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सीमित किया गया वो नेहरू के कार्यकाल में हुआ। मूल संविधान की प्रस्तावना से छेड़छाड़ करके उसमें समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता को जोड़ा जाना इंदिरा गांधी के कार्यकाल में हुआ। राजीव गांधी ने तो शाहबानो केस में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को बदलने के लिए संविधान में ही बदलाव कर दिया। मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री रहते टीवी चैनलों की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने का प्रस्ताव आया था। अगर पिछले 10 वर्षों में देखें तो मुस्लिम महिलाओँ की जिंदगी बेहतर करने के लिए तीन तलाक की व्यवस्था को खत्म किया गया। अनुच्छेद 370 को खत्म करने के लिए संविधान में संशोधन किया गया। आज जो दल नरेन्द्र मोदी पर संविधान बदलने की मंशा का आरोप लगा रहे हैं उनको ये समझना चाहिए कि अगर संविधान में बदलाव करना होता तो पिछले 10 साल में इसकी कोशिश दिखाई देती। जब अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी करने जैसा साहसिक कदम उठा लिया गया तो अगर अन्य बदलाव करने का भी उद्देश्य होता तो उसको भी किया जा सकता था। राहुल गांधी और उनके कामरेड भले ही संविधान बदलने का नैरेटिव बनाने का प्रयास करें लेकिन कांग्रेस पर अतीत के निर्णयों और चर्चाओं का जो बोझ है वो इस नैरेटिव को प्रमाणिकता दे पाएगी, इसमें संदेह है। संदेह तो इस नैरेटिव के जनस्वीकृति में भी है।  

Saturday, May 4, 2024

अमेठी से जीत का नहीं था भरोसा


लोकसभा चुनाव के दौरान अमेठी और रायबरेली से कांग्रेस प्रत्याशी की घोषणा को लेकर अनिश्चितता नामांकन के अंतिम दिन दूर हुई। कांग्रेस पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी रायबरेली से कांग्रेस के उम्मीदवार बने। प्रियंका गांधी वाड्रा के चुनाव लड़ने पर भी कयास लगाए जा रहे थे लेकिन चुनावी रण से दूर रहेंगी। भारतीय जनता पार्टी के नेताओं ने राहुल गांधी पर अमेठी का रण छोड़ने का आरोप लगाया। प्रियंका गांधी वाड्रा के बारे में ये कहा गया कि वो कांग्रेस की स्टार प्रचारक हैं, पूरे देश में पार्टी का प्रचार करना है, इस कारण वो चुनाव नहीं लड़ रही हैं। इस पूरे प्रकरण के दौरान कई ऐसी बातें आईं जिनके बारे में विचार करना आवश्यक है। तथ्यों को देखना भी। निरंतर ये कहा जाता रहा है कि रायबरेली और अमेठी गांधी परिवार का गढ़ है। आंकड़े इस बात की गवाही देते हैं कि रायबरेली कांग्रेस पार्टी का गढ़ तो हो सकता है लेकिन गांधी परिवार का नहीं। इमरजेंसी के बाद हुए चुनाव में इंदिरा गांधी रायबरेली से चुनाव हारी थीं। उसके बाद के चुनाव में उन्होंने दक्षिण भारत की मेडक और रायबरेली सीट से चुनाव लड़कर जीत हासिल की। फइर रायबरेली सीट से इस्तीफा दे दिया। अब फिर से प्रश्न उठ रहा है कि अगर राहुल गांधी भी रायबरेली और वायनाड, दोनों क्षेत्र से चुनाव जीत जाते हैं, तो वायनाड को प्राथमिकता देंगे या रायबरेली को। केरल में दो वर्ष बाद विधानसभा का चुनाव होना है और अगर राहुल गांधी केरल के वायनाड की सीट से जीतने के बाद इस्तीफा दे देते हैं तो उसका असर उस चुनाव पर पड़ सकता है। कांग्रेस को लगातार दो बार केरल के विधानसभा चुनाव में पराजय का सामना करना पड़ा है। आगामी चुनाव को लेकर कांग्रेस को बड़ी उम्मीदें हैं। अगर वो वायनाड को प्राथमिकता देते हैं तो उसका असर उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के भविष्य पर पड़ेगा। राहुल गांधी के सामने ये संकट है। देश का राजनीतिक इतिहास इस बात की पुष्टि करता है कि दिल्ली की सत्ता पर काबिज होने के लिए उत्तर प्रदेश में बेहतरीन प्रदर्शन करना आवश्यक होता है। इसका कांग्रेस क्या उत्तर ढूंढती है ये देखना दिलचस्प होगा। 

अब बात अमेठी की। अमेठी से राहुल गांधी तीन बार सांसद निर्वाचित हुए। 2019 में स्मृति इरानी से पराजित हो गए। कई राजनीतिक पंडितों और कांग्रेस समर्थक विश्लेषकों का मानना है कि राहुल गांधी ने अमेठी को छोड़कर स्मृति इरानी की महत्ता को कम कर दिया। अब यहीं से निष्कर्ष दोषपूर्ण हो जाता है। स्मृति इरानी दो दशक से अधिक समय से राजनीति में सक्रिय हैं। पिछले दस वर्षों से वो कैबिनेट मंत्री हैं। उसके पहले भाजपा की महिला मोर्चा की अध्यक्ष रह चुकी हैं। दो बार पार्टी की राष्ट्रीय सचिव रही हैं। उनका एक सफल करियर रहा है। राहुल गांधी को एक बार पराजित कर इतिहास बना चुकी हैं। 2019 में जब राहुल गांधी पराजित हुए थे तब वो कांग्रेस पार्टी के अखिल भारतीय अध्यक्ष थे। स्मृति इरानी को कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष को हराने का गौरव भी हासिल है। राहुल गांधी के अमेठी से चुनाव नहीं लड़ने से उनकी अबतक बनी महत्ता कम नहीं होने वाली है। दोषपूर्ण निष्कर्षों से आगे जाकर हमें तथ्यों और आंकड़ों पर बात करनी चाहिए कि राहुल गांधी ने अमेठी का रण क्यों छोड़ा। राहुल गांधी पहली बार अमेठी से 2004 में सांसद बने। इस चुनाव में उनको दो लाख 90 हजार से अधिक वोटों से जीत मिली। 2009 में जीत का अंतर तीन लाख सत्तर हजार वोटों तक पहुंच गया। पर 2014 में जब स्मृति इरानी पहली बार अमेठी पहुंचीं तो उनके जीत का अंतर घटकर एक लाख सात हजार रह गया। जबकि स्मृति को करीब तीन सप्ताह का समय मिला था। 2019 में राहुल 55 हजार वोटों से हार गए। पिछले दो चुनावों में उनको मिलनेवाले मतों की संख्या कम हुई। इतना ही नहीं 2017 में हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में अमेठी संसदीय क्षेत्र के पांच विधानसभा क्षेत्रों में से कांग्रेस एक पर भी जीत हासिल नहीं कर पाई। चार सीटें भारतीय जनता पार्टी को और एक समाजवादी पार्टी को मिली। 2022 के विधानसभा चुनाव में अमेठी लोकसभा के पांच विधानसभा क्षेत्रों में तीन पर भारतीय जनता पार्टी और दो पर समाजवादी पार्टी को जीत मिली। समाजवादी पार्टी के एक विधायक अब भारतीय जनता पार्टी के साथ हैं। इस विधानसभा चुनाव में पूरे प्रदेश में कांग्रेस को मिले वोटों का प्रतिशत बहुत ही कम रहा, जबकि प्रियंका गांधी की देखरेख में वहां चुनाव हुए थे। 

एक और तथ्य की बात करना आवश्यक है जिसने अमेठी से राहुल की उम्मीदवारी टाली गई। जब 2019 के संसदीय चुनाव में राहुल गांधी अमेठी से पराजित हुए तो उसके बाद वो इस क्षेत्र के दौरे पर बहुत ही कम गए। चुनाव के समय वहां उनकी उपस्थिति पर मतदाताओँ के मन में स्वाभाविक तौर पर ये प्रश्न उठता कि इतने दिनों तक कहां थे। जबकि 2014 में पराजित होने के बाद स्मृति इरानी निरंतर अमेठी आती जाती रहीं। चुनाव हारने के 15 दिन के अंदर ही स्मृति इरानी अमेठी पहुंच गई थीं। राहुल गांधी अपने मतदाताओं के आसन्न प्रश्नों का उत्तर नहीं खोज पाने के कारण भी रायबरेली चले गए प्रतीत होता है। राजनीतिक विश्लेषकों का ये भी कहना है कि कांग्रेस पार्टी ने जो आंतरिक सर्वे करवाया उसमें अमेठी से बहुत सकारात्मक रुझान कांग्रेस पार्टी के उम्मीदवार के पक्ष में नहीं मिले। जबकि रायबरेली के मतदाता राहुल को लेकर उत्साहित होने का संकेत दे रहे थे। चर्चा तो ये भी रही थी कि प्रियंका गांधी वाड्रा को अमेठी से और राहुल को रायबरेली से प्रत्याशी बना दिया जाए। विश्लेषकों का आकलन है कि सोनिया गांधी की सीट से जो भी प्रत्याशी होता उसको सोनिया की राजनीति का स्वाभाविक उत्तराधिकारी माना जाता। अगर रायबरेली से प्रियंका गांधी चुनाव लड़तीं तो संभव है कि ये संदेश जाता। सोनिया जी निरंतर राहुल गांधी के पक्ष में दिखती रही हैं। वो उनको ही आगे लाना चाहती हैं। अगर प्रियंका चुनावी राजनीति में आतीं तो पार्टी में एक और पावर सेंटर उभरने का खतरा था। दूसरे भारतीय जनता पार्टी का परिवारवाद का आरोप और गाढ़ा होता। रायबरेली से प्रियंका और वायनाड से राहुल गांधी जीत जाते तो परिवार के तीन लोग संसद के सदस्य होते। इन आरोपों से बचने के लिए भी प्रियंका को चुनाव नहीं लड़वाया गया। कुल मिलाकार अगर देखें तो राहुल के अमेठी से नहीं लड़ने के बहुत सारे कोण हैं। एक कोण जो बेहद महत्वपूर्ण है वो ये है कि स्मृति इरानी ने क्षेत्र में अपनी उपस्थिति से और वहां के मतदाताओं के साथ संवाद कायम करके अमेठी की जनता को गांधी परिवार के मोह से लगभग मुक्त कर दिया। अमेठी में ऐसे लोग अब कम ही हैं जो गांधी परिवार के साथ अपने रिश्तों को याद करते हुए आंख मूंदकर परिवार को वोट देते रहे हैं। राजीव गांधी के सांसद रहते तक तो क्षेत्र के लोगों से उनका मिलना जुलना था। राहुल गांधी के वहां आने के बाद से राजनीति को एक अलग ही तरह से चलाने का प्रयास हुआ। राजनीतिक संबंध रागात्मक न होकर प्रोफेशनल जैसे होने लगे। राजनीति कार्यकर्ताओं का स्थान प्रोफेशनल्स ने ले लिया। ऐसा प्रतीत होता है कि संजय गांधी ने 1976 में जिस राजनीतिक संबंध की नींव अमेठी में रखी थी उसका अंत हो गया। किशोरी लाल शर्मा को कांग्रेस का प्रत्याशी बनाने से स्मृति इरानी की राह आसान हो गई है। कांग्रेस के प्रत्याशी की छवि नेता की नहीं रही है। वो गांधी परिवार के सहयोगी के तौर पर जाने जाते हैं। व्यवस्थापक और राजनेता का अंतर तो मतदाता समझता ही है। 


Friday, May 3, 2024

फिल्म फेस्टिवल की रोचक कथा


कोरोना महामारी के दौरान फिल्मों के भविष्य को लेकर खूब चर्चा हुई। फिल्म के कई विशेषज्ञों ने सिनेमा हाल में फिल्मों के प्रदर्शन के अंत की आशंका भी जताई थी। इस तरह की तमाम आशंकाएं गलत साबित हुईं और भारतीय फिल्में न केवल पहले की तरह लोकप्रिय हुईं बल्कि पूरे देश में फिल्म संस्कृति और गाढ़ी हुई। फिल्मों की संस्कृति को मजबूत करने में फिल्म फेस्टिवल्स का बड़ा योगदान रहा है। दिल्ली में कई फिल्म फेस्टिवल्स होते रहे हैं। विश्व का सबसे बड़ा घुमंतू फिल्म फेस्टिवल का आयोजन पिछले ग्यारह वर्षों से दैनिक जागरण करता रहा है। जागरण फिल्म फेस्टिवल का आरंभ दिल्ली से होता है और देश के 18 शहरों में आयोजित होता है। दिल्ली में ओशियान फिल्म फेस्टिवल भी होता था। बीते कल (शुक्रवार) से दिल्ली में हैबिटैट फिल्म फेस्टिवल का आरंभ हुआ है। गोवा में आयोजित होनेवाला इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल आफ इंडिया (इफी) की शुरुआत मुंबई में हुई थी लेकिन उसी वर्ष दिल्ली में भी इसका आयोजन किया गया था। तब इस फेस्टिवल का आयोजन भारत सरकार के फिल्म प्रभाग ने किया था। दिल्ली में अंतराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल शुरु होने की भी एक दिलचस्प कहानी है। जब देश स्वाधीन हुआ तो उसके करीब एक वर्ष बाद 1948 में भारत सरकार ने फिल्म प्रभाग की स्थापना की थी। तब इसका काम भारत सरकार से जुड़े कार्यों के बारे में जनता को बताना था। महेन्द्र मिश्र ने अपनी पुस्तक ‘भारतीय सिनेमा’ में लिखा है, ‘सूचना और प्रसारण मंत्रालय के अंतर्गत फिल्म्स डिवीजन की स्थापना 1948 में हुई। फिल्म्स डिवीजन उस समय शायद दुनिया का सबसे बड़ा उत्पादक केंद्र था जिसमें समाचार और अन्य राष्ट्रीय विषयों पर वृत्तचित्र बनाए जाते थे। ये वृत्तचित्र, समाचार चित्र और लघु फिल्में पूरे देश में प्रदर्शन के लिए बनती थीं। प्रत्येक फिल्म की नौ हजार प्रतियां बनती थीं जिनकी संख्या कभी कभी चालीस हजार तक पहुंच जाती थीं। ये भारत की तेरह प्रमुख भाषाओं और अंग्रेजी में पूरे देश में सभी सिनेमाहॉलों में मुफ्त प्रदर्शित की जाती थीं। समाचार चित्रों और लघु फिल्मों एवं वृत्तचित्रों का परोक्ष रूप से दर्शकों पर व्यापक प्रभाव पड़ा जिसने उनकी रुचि बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।‘ 

फिल्म प्रभाग के चीफ प्रोड्यूसर थे मोहन भवनानी। वो दिल्ली में ही सूचना और प्रसारण मंत्रालय के कार्यालय में बैठते थे। मोहन भवनानी जून 1951 में फिल्म विशेषज्ञों के एक कार्यक्रम में भाग लेने के लिए पेरिस गए थे। ये कार्यक्रम यूनेस्को ने आयोजित किया था। उस कार्यक्रम में फिल्म फेस्टिवल के आयोजनों और उसके प्रभाव पर जमकर चर्चा हुई थी। वहां से लौटकर मोहन भवनानी ने भारत सरकार को फिल्म फेस्टिवल के आयोजन संबंधी एक प्रस्ताव दिया। उनके इस प्रस्ताव को भारत सरकार ने स्वीकार कर लिया। उस समय तय ये किया गया था कि फिल्म फेस्टिवल का आयोजन देश के चार शहरों- बांबे (अब मुंबई), दिल्ली, कलकत्ता (अब कोलकाता) और मद्रास (अब चेन्नई) में करवाने का निर्णय हुआ। तय ये किया गया कि इनमें देशी विदेशी दोनों फिल्में दिखाई जाएंगी। दिल्ली में इस आयोजन को लेकर काफी तैयारियां की गई थीं। फिल्मी सितारों ने नईदिल्ली इलाके में रोडशो किया था। सितारों को देखने के लिए दिल्ली की सड़कों पर भारी भीड़ उमड़ी थी। कहीं-कहीं इस बात का उल्लेख मिलता है कि राजकपूर और नरगिस के अलावा भी कुछ कलाकारों ने दिल्ली में आयोजित प्रथम इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में भाग लिया था। दिल्ली में उस समय सिनेमाघरों की संख्या कम थी इस कारण कई जगहों पर अस्थायी टेंट लगाकर सिनेमाघर बनाए गए थे और प्रोजोक्टर पर फिल्में दिखाई गई थीं। दिल्ली में चार हजार दर्शकों के लिए अस्थायी सिनेमाघर तैयार किए गए थे। 21 फरवरी 1952 को तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने दिल्ली में आयोजित फिल्म फेस्टिवल का शुभारंभ किया था। इस समारोह में भाग लेनेवाले कलाकारों के लिए तत्कालीन राष्ट्रपति डा राजेन्द्र प्रसाद ने राष्ट्रपति भवन में विशेष भोज का आयोजन किया था और बताया जाता है कि राजेन्द्र बाबू पूरे समय उपस्थित रहे थे। उन्होंने दुनियाभऱ में फिल्मों के ट्रेंड के बारे में कलाकारों से बातचीत की थी। इस रात्रिभोज में उस समय के सूचना और प्रसारण मंत्री आर आर दिवाकर भी उपस्थित थे।

दिल्ली में आयोजित फिल्म फेस्टिवल में अमेरिका, इटली, फ्रांस और रूस समेत 23 देशों के फिल्मकारों ने भाग लिया था। अमेरिका के प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व मशहूर निर्देशक फ्रैंक कैपरा ने किया था। इसमें 40 फीचर फिल्में और करीब 100 गैर फीचर फिल्में प्रदर्शित की गई थीं। दिल्ली के दर्शकों ने इटली की फिल्म बायसकिल थीब्स, मिरेकल इन मिलान और ओपन सिटी को खूब पसंद किया था। इस फिल्म फेस्टिवल में ही जापान के प्रख्यात फिल्म निर्देशक अकीरा कुरोसावा की फिल्म राशोमन भी दिखाई गई थी। कहा जाता है कि पहले फिल्म फेस्टिवल में ही बिमल राय ने इटली की फिल्म बायसकिल थीब्स देखने के बाद ही उनके मन में दो बीघा जमीन बनाने का आयडिया आया। कहा तो ये भी जाता है कि इस फिल्म ने ही भारतीय फिल्मकारों को यथार्थवादी फिल्में बनाने के लिए प्रेरित किया। 

1952 में आयोजित फिल्म फेस्टिवल के बाद अपने देश में विदेशी फिल्मों को लेकर रुचि जाग्रत हुई। कई अन्य देशों के फिल्मों से परिचय होना आरंभ हुआ। अंतराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल की उस समय काफी चर्चा हुई थी, प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू भी दिल्ली के आयोजन में उपस्थित थे। बावजूद इसके दूसरे आयोजन में नौ वर्ष लगे और अंतराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल का दूसरा संस्करण 1961 में आयोजित हो सका। फिल्म फेस्टिवल का दूसरा संस्करण नईदिल्ली के विज्ञान भवन में आयोजित किया था। चार वर्षों के बाद फिर फेस्टिवल का आयोजन हुआ। फिर चार वर्षों के अंतराल पर दिल्ली के अशोक होटल में इसका आयोजन हुआ। इसके बाद फिल्म फेस्टिवल का आयोजन तीन चार वर्षों के अंतराल पर होता रहा। 1983 में अंतराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल का आयोजन दिल्ली के सीरीफोर्ट आडिटोरियम में हुआ था।  फिल्म फेस्टिवल देश के अलग अलग शहरों में हो रहा था। लंबे अंतराल के बाद दिल्ली में होता था तो दर्शकों के बीच काफी उत्सुकता रहती थी। दिल्ली में भारतीय अंतराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव का 34वां संस्करण अक्तूबर 2003 में आयोजित किया गया था। इसके बाद से केंद्र सरकार ने निर्णय लिया और अंतराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल को प्रतिवर्ष गोवा में आयोजित किया जाएगा। तब से गोवा में आयोजित हो रहा है। दिल्ली में जागरण फिल्म फेस्टिवल, हैबिटैट फिल्म फेस्टिवल और आईआईसी फिल्म फेस्टिवल का आयोजन होता है जिसमें दर्शकों को क्षेत्रीय और विदेशी फिल्में देखना का अवसर मिल जाता है।