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Saturday, July 1, 2023

प्रतिभा विकास में भाषा बाधक न बने


दिल्ली विश्वविद्यालय के शताब्दी समारोह में भाग लेने के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी मेट्रो रेल से विश्वविद्यालय गए। मेट्रो की यात्रा के दौरान प्रधानमंत्री ने साथ यात्रा कर रहे छात्रों से बातचीत की। छात्रों से चर्चा के समय प्रधानमंत्री मोदी ने बहुत ही अच्छी बात कही जिसपर देशव्यापी सोच बनना चाहिए। प्रधानमंत्री ने एक छात्र से जानना चाहा कि वो मूल रूप से कहां के रहनेवाले हैं। छात्र ने बताया कि वो रांची, झारखंड का है। प्रधानमंत्री ने सहजता से पूछा कि बाहर के किसी को दोस्त बनाया। रांची के उस छात्र ने उत्साह से बताया कि यूपी के लड़कों से दोस्ती की। वो जिस कालेज में पढ़ते हैं उसका प्रबंधन बालाजी मंदिर भी चलाते हैं तो वहां तेलुगु भाषी भी हैं। उसने तेलुगु बोलनेवालो से भी दोस्ती की है। वो उत्साह से बोले जा रहा था लेकिन प्रधानमंत्री कुछ और जानना चाह रहे थे। वो जानना चाह रहे थे कि दक्षिण भारत के राज्यों के छात्रों से दोस्ती की और उनसे उनकी भाषा के पांच-दस वाक्य सीखे या नहीं। प्रधानमंत्री के इतना बोलते ही एक छात्रा फटाक से बोल पड़ी कि उसने ऐसा किया है। एक वाकया भी बताया। वो अपने कालेज परिसर में थी तो उसने देखा कि एक लड़की फोन पर बात कर रही थी। बातचीत की भाषा वो नहीं समझ पा रही थी। बात खत्म होने के बाद उसने जानना चाहा कि किस भाषा में बात हो रही थी। पता चला कि बातचीत मलयालम में हो रही थी। इसके बाद उसने उस लड़की से अनुरोध किया कि उसे भी मलयालम के कुछ वाक्य बता दे। जैसे कि अगर को किसी को हैलो करना हो या हालचाल पूछना हो तो मलयालम में कैसे और क्या बोलेंगे। जब उस लड़की ने मलयालम में बताना आरंभ किया तो हिंदी भाषी लड़की ने फोन पर रिकार्ड कर लिया, ताकि बाद में उसको सुनकर सीख सके। इसी तरह से एक छात्रा ने बताया कि उसने मणिपुरी छात्राओं से मित्रता करके उनको हिंदी सिखाई तो असम की छात्रा ने बताया कि दिल्ली विवविद्यालय में अपने अध्ययन के दौरान उसने अपने कई साथियों का असमिया सिखाई। 

देखने में ये पूरा प्रसंग बहुत सामान्य लग रहा है लेकिन अगर सूक्ष्मता और गंभीरता से विचार करें तो एक देश के प्रधानमंत्री अपने देश के छात्रों को देश के अलग अलग हिस्सों में बोली जानेवाली भाषाओं को सीखने के लिए प्रेरित कर रहे थे। सहजता के साथ। इस देश ने भाषा के नाम पर अतीत में बहुत हिंसा झेली है। राज्यों का बंटवारा देखा है। खून खराबा देखा है। भारतीय भाषाओं को राजनीति का औजार बनते देखा है। अभी भी कभी कभार इस तरह के प्रसंग देखने को मिल जाते हैं। तमिलनाडु जैसे भाषाई रूप से समृद्ध प्रदेश के नेता अकारण हिंदी विरोध का झंडा उठाते रहते हैं। अब स्थितियां कुछ बदलती दिखने लगी हैं। सत्ता के शीर्ष स्तर पर बैठे नेताओं ने भारतीय भाषाओं को आगे बढ़ाने और उसके बल देने का उपक्रम आरंभ किया है। भाषा की राजनीति अपेक्षाकृत कम होने लगी है। प्रधानमंत्री मोदी से बातचीत के क्रम में एक छात्र ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भारतीय भाषाओं के महत्व की चर्चा की। इसपर प्रधानमंत्री मोदी का उत्तर बेहद सधा हुआ था। सधा हुआ इस वजह से कि उन्होंने अंग्रेजी की आलोचना नहीं की। बिना अंग्रेजी की आलोचना के उन्होंने भारतीय भाषाओं की प्रशंसा की। उन्होंने कहा कि हमारे देश के गांवों में बहुत प्रतिभा है लेकिन अधिकतर को अंग्रेजी का सौभाग्य नहीं मिला तो वे प्रतिभाएं बाधित हो गईं, रुक गईं। बातचीत के क्रम में ही प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि प्रतिभा के विकास में भाषा बाधक नहीं होनी चाहिए। इस बातचीत से जो संदेश निकल रहा था वो ये भी था कि भारतीय भाषाओं के बीच किसी प्रकार का वैमनस्य नहीं होना चाहिए। हर भारतीय को मातृभाषा के अलावा एक और भाषा सीखनी चाहिए। 

पिछले दिनों भारतीय भाषाओं के बीच बेहतर समन्वय और अतीत की कटुता को दूर करने के लिए वाराणसी और गुजरात में तमिल संगम जैसे कार्यक्रम हुए। उसके पहले पिछले वर्ष शिमला में साहित्य अकादमी ने उन्मेष नाम से चार दिनों का एक कार्यक्रम किया था। शिमला में आयोजित उस कार्यक्रम में भारतीय भाषाओं के चार सौ के करीब लेखकों की भागीदारी रही थी। विभिन्न विषयों पर मंथन किया गया था। आगामी अगस्त के पहले सप्ताह में फिर से साहित्य अकादमी भोपाल में उन्मेष का आयोजन कर रही है। इसमें भी भारतीय भाषाओं के विद्वानों की भागीदारी होगी। तमिल से लेकर कश्मीरी तक, गुजराती-मराठी से लेकर बांगला और पूर्वोत्तर की भाषाओं के लेखकों के बीच विचारों का आदान-प्रदान होगा। अगर देखा जाए तो केंद्र सरकार के स्तर पर भारतीय भाषाओं के बीच संवाद बढ़ाने का प्रयास निरंतर चल रहा है। 

स्वाधीनता के पहले हिंदी और तमिल के बीच इतना अधिक साहचर्य था कि 1910 में तत्कालीन मद्रास से काशी आकर बी कृष्णस्वामी अय्यर ने घोषणा की थी कि हिंदी ही भारत की राष्ट्रभाषा हो सकती है। तमिल और हिंदी भाषा के बीच कृतियों के अनुवाद की बेहद समृद्ध परंपरा थी। जयशंकर प्रसाद की कालजयी कृति कामायनी और आंसू दोनों काव्यों के अनुवाद तमिल में प्रकाशित हुए थे। प्रेमचंद के उपन्यास सेवासदन का भी तमिल में अनुवाद हुआ था और उसपर तो तमिल में एक फिल्म भी बनी थी। सुब्रह्मण्य भारती की रचनाओं को अनुवाद हिंदी में हो रहा था। आपको ये जानकर आश्चर्य हो सकता है कि तमिल के महावि कंब के रामायण का हिंदी में अनुवाद बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पटना से प्रकाशित हुआ था। अन्य भारतीय भाषाओं के बीच भी अनुवाद के क्रम चलते रहते थे। स्वाधीनता के कुछ वर्षों बाद जब भाषा के आधार पर राजनीति आरंभ हुई तो ये प्रक्रिया बाधित हुई। राजनीति ने भाषा को औजार बनाकर भारत को बांटने का काम किया। स्वाधीनता के पहले दक्षिण, पश्चिम और पूर्वी भारत से हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की बात उठती रहती थी। उन प्रदेशों के लोगों के मस्तिष्क में हिंदी को लेकर आशंका के बीज बो दिए गए। संविधान सभा में देश की भाषा समस्या पर तीन दिनों तक चर्चा हुई थी। वहां पुरषोत्तमदास टंडन जी के विचारों को आज याद करने की आवश्यकता है। टंडन जी को इस कारण क्योंकि वो हिंदी के प्रचंड समर्थक थे। जब हिंदी में अंतरराष्ट्रीय अंकों की स्वीकार या अस्वीकार करने पर बात हो रही तो किसी ने कहा कि जनमत लेने से तो हिंदी आएगी नहीं। इसपर टंडन जी का उत्तर था कि ‘यदि विभिन्न प्रांत हिंदी को स्वीकार नहीं करते हैं तो मैं किसी भी स्थिति में उनपर हिंदी लादने को तौयार नहीं हूं। प्रांत हिंदी को ग्रहण करेंगे या नहीं यह निश्चय तो उन्हीं को करना है। जो लोग आज जिम्मेदारी की जगहों पर बैठे हैं उनसे मैं अपील करूंगा कि वे अपनी अन्तरात्मा की बारीक आवाज को सुनने की कोशिश करें और ऐसी कोई भी बात स्वीकार नहीं करें जो उनके प्रांतों को अमान्य होगी।‘ 

भाषा को लेकर जिस प्रकार को जोश और उत्साह स्वाधीनता के पहले दिखता है वो स्वाधीनता के बाद शिथिल हो गया। जब भाषा में राजनीति का प्रवेश हुआ तो उसने भारतीय भाषाओं को लड़ाकर अंग्रेजी की स्थिति मजबूत कर दी। जब देश की अर्थव्यवस्था को खोला गया या उदारीकरण का दौर चला तब भी भारतीय भाषाओं को मजबूत करने के लिए कोई विशेष प्रयास नहीं किया गया। अंग्रेजी की स्थिति शासकों की भाषा वाली बनी रही। प्रधानमंत्री मोदी के आने के बाद भारतीय भाषाओं को लेकर एक सुचिंतित मुहिम शुरु हुई है। ये मुहिम निरंतर आगे बढ़ रही है जो भारतीय भाषाओं के लिए सुखद है। 


1 comment:

Anonymous said...

मुझे पता है 1960 से ही दक्षिण भारतीय लोग व गुजरात महाराष्ट्र बंगाल उड़ीसा, पूर्वोत्तर भारत के लोग हिंदी भाषी राज्यों में तेजी से आने लगे थे स्वाभाविक है वे लोग हिंदी भाषा धीरे-धीरे सीख लिए

रेलवे, अस्पताल, भारतीय सेना, अर्ध सैनिक बलों, केन्द्र सरकार की विभिन्न नौकरियां करते हुए हिंदी भाषा भी सीखें

मेरे समझ से हिंदी के विस्तार में किसी भी राजनेताओं‌‌ का व साहित्य गोष्ठियों का योगदान नहीं के बराबर है

विभिन्न राज्यों के लोग अपने जरूरतों के हिसाब से भारतीय भाषाओं को सिखते रहें और सिखते रहेंगे

विभिन्न भारतीय भाषाओं को सिखने के लिए केन्द्र सरकार केन्द्रीय विद्यालयों महाविद्यालयों में 2014 से 2022 तक कितने भाषाविद को नियुक्त की है?

भाषा पर सिर्फ राजनीति होता है और कुछ नहीं