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Saturday, May 17, 2025

काल की चौहद्दी तोड़ती कविताएं


पहलगाम  में आतंकी हमले के बाद भारत ने पाकिस्तान के आतंकी ठिकानों को निशाना बनाया तो देश के माहौल में अलग ही स्तर की राष्ट्रभक्ति दिखाई दे रही थी। हर भारतीय अपनी इस राष्ट्रभक्ति को भिन्न भिन्न तरीके से प्रकट कर रहा था। आतंकी हमले के बाद और इसके पहले भी कई महत्वपूर्ण अवसरों पर राष्ट्रकवि दिनकर की पंक्तियों से लोग और संस्थाएं अपनी भावनाओं को प्रकट करती रहीं। आपरेशन सिंदूर के बाद जब भारतीय सेना पूरे घटनाक्रम की जानकारी देने आई तो दिनकर की प्रसिद्ध कविता की पंक्तियों से आरंभ किया। वे पंक्तियां कुछ इस तरह से हैं –हित वचन नहीं तूने माना/मैत्री का मूल्य न पहचाना/तो ले, मैं भी अब जाता हूं/अंतिम संकल्प सुनाता हूं/याचना नहीं, अब रण होगा/जीवन जय या कि मरण होगा। दिनकर की ये पंक्तियां रश्मिरथी के तृतीय सर्ग में है। इस कविता के माध्यम से भारत ने पाकिस्तान को संदेश देते हुए अपना अंतिम संकल्प सुना दिया। इसके पहले जब पहलगाम आतंकी हमला हुआ था। जनता आतंकवादियों से प्रतिशोध की अपेक्षा कर रही थी, तब भी दिनकर की पंक्तियां सुनाई दे रही थीं। रे रोक युधिष्ठिर को न यहां/ जाने दे उसको स्वर्ग धीर/ पर फिरा हमें गांडीव गदा/ लौटा दे अर्जुन भीम वीर। कह दे शंकर से आज, करें वो प्रलय नृत्य फिर एक बार/सारे भारत में गूंज उठे, हर हर बम का फिर महोच्चार। दिनकर की इस कविता का शीर्षक हिमालय है। जनता के मन में आतंकवादी हमला का बदला लेने की आकांक्षा प्रबल होने लगी तो वे इन पंक्तियों के माध्यम से अपनी भावनाओं का प्रकटीकरण कर रहे थे। आशय ये था कि बहुत हुई बातचीत, बहुत हुई समाझाने बुझाने की प्रक्रिया। अब समय है सबक सिखाने का । सबक सिखाने के लिए धर्मराज युधिष्ठिर की आवश्यकता नहीं है उसके लिए बलशाली अर्जुन और भीम की जरूरत है।

दिनकर की ये कविता हिमालय, भारत चीन युद्ध के दौरान भी खूब गाई गई थी। उस समय जवाहरलाल नेहरू की छवि शांति चाहनेवाले नेता के रूप में थी। जब चीन, भारतीय सेना पर भारी पड़ने लगा था तब दिनकर की इस कविता से नेहरू को ललकारा गया था। इसी तरह से दिनकर के प्रबंध काव्य रश्मिरथी के तीसरे सर्ग की ही कुछ और पंक्तियां बहुधा सुनाई देती हैं। वे पंक्तियां हैं, जब नाश मनुज पर छाता है तो पहले विवेक मर जाता है। दिनकर हिंदी कविता के ऐसे कवि हैं जो देश काल और परिस्थिति से ऊपर उठ चुके हैं। सही मायनों में अगर देखा जाए तो तुलसीदास के बाद दिनकर ऐसे कवि हैं जिनकी रचनाएं लोक में काफी पसंद की जाती हैं। कई लोगों को कंठस्थ भी हैं। चाहे वो उर्वशी के सर्ग हों या कुरुक्षेत्र या रश्मिरथी के। सिर्फ युद्ध ही नहीं, इमरजेंसी के दौरान भी दिनकर की कविताएं गाई जा रही थीं। पूरा देश इंदिरा गांधी के विरुद्ध खड़ा था। जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में आंदोलन जोर पकड़ रहा था। कहा तो यहां तक जाता है कि दिल्ली के रामलीला मैदान में जयप्रकाश नारायण ने दिनकर की कविता का पाठ किया था। इसकी कविता की अंतिम पंक्तियां हैं, फावड़े और हल राजदंड बनने को हैं /धूसरता सोने से श्रृंगार सजाती है/दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो /सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। समय का घर्घर-नाद है उसके माद्यम से इंदिरा गांधी को जयप्रकाश नारायण संदेश दे रहे थे। क्या जनता पार्ची का चुनाव चिन्ह हलधर किसान भी इस कविता से ही प्रेरित है? दिनकर की यही पंक्तियां 2011 में दिल्ली में हुए भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के दौरान भी सुनने को मिली थीं। दिनकर ने ये कविता देश में इमरजेंसी लगाए जाने के दशकों पहले लिखी थी। इतने वर्षों बाद भी लोगों के मानस पर अंकित थीं। इसी तरह से रश्मिरथी का रचनाकाल भी 1952 का है, लेकिन जब सेना को 2025 में पाकिस्तान को संदेश देना था तो उसने दिनकर की कविता चुनी।

इतना ही नहीं आप न्यूज चैनलों पर चलनेवाले डिबेट्स में या विचार गोष्ठियों में एक पंक्ति अवश्य सुनते होंगे। कई बार नेता अपनी चुनावी रैलियों में भी इस पंक्ति का उपयोग करते हुए दिखाई देते हैं। वो पंक्ति है, समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध, जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनके भी अपराध। अब दिनकर की कविता के साथ एक खूबसूरत बात ये है कि अलग अलग पक्षों के लोग उनकी पंक्तियों का उपयोग अपने तर्कों को बल प्रदान करने के लिए करते हैं। अगर विपक्षी दलों को प्रधानमंत्री मोदी के समर्थकों को घेरना होता है तो वो इस पंक्ति का उपयोग करते हैं। मोदी के कुछ समर्थक जिनका दिनकर की इस कविता से परिचय है वो विपक्षी दलों को इसी कविता की अन्य पंक्ति से घेर लेते हैं। वो पंक्ति है, समर शेष है, शपथ धर्म की लाना है वह काल। इस तरह से देखें तो दिनकर की एक ही कविता पक्ष और विपक्ष दोनों उद्धृत करते हैं। इतना ही नहीं जब देश में जाति गणना की बात हुई तो समाचार चैनलों पर बहस चलने लगी थी। अलग अलग पक्ष के लोग अलग अलग दलीलें दे रहे थे। जाति गणना में भी दिनकर की कविता की पंक्ति सामने आ रही थी। रश्मिरथी के प्रथम सर्ग में जब कर्ण से कहा जाता है कि वो अगर अर्जुन से लड़ना चाहता है तो उसको अपनी जाति बतानी होगी। तब कर्ण व्यथित होता है। झुब्ध भी। कर्ण की मनोदशा को चित्रित करते हुए दिनकर रचते हैं- ‘जाति!, हाय री जाति!’ कर्ण का ह्रदय क्षोभ से डोला/कुपित सूर्य की ओर देख वह वीर क्रोध से बोला/जाति-जाति रटते, जिनकी पूंजी केवल पाखंड/मैं क्या जानूं जाति?/जाति हैं मेरे ये भुजदंड। इस कविता की पंक्ति जाति-जाति रटते, जिनकी पूंजी केवल पाखंड जमकर उद्धृत होती है।    

दरअसल दिनकर की कविताओं विशेषकर उनके प्रबंध काव्य या कथा काव्य पर गंभीरता से विचार करें तो ये स्पष्ट होता है कि दिनकर अतीत और वर्तमान दोनों को साथ लेकर चलते हैं। ना केवल साथ लेकर चलते हैं बल्कि परंपरा और आधुनिकता का निर्वाह भी करते हैं। कई लोग उनके इन काव्यों को युद्ध काव्य कहते हैं लेकिन अगर समग्रता में विचार करें तो दिनकर अपने इन प्रबंध काव्यों में कहीं भी युद्ध का समर्थन नहीं करते हैं। दिनकर का कवित्व इन्हीं गुणों के कारण समकालीन बना रहता है। दिनकर की सिर्फ कविताएं ही नहीं बल्कि उनके लिखे गद्या भी असाधारण रूप से काल की चौहद्दी को तोड़ते चलते हैं। इसी असाधारण गुण के कारण उनकी रचनाएं कालजयी हो गई हैं।  

Saturday, May 10, 2025

साइबर आतंकवादी भी युद्ध में सक्रिय


भरत-पाकिस्तान के बीच भले ही युद्ध विराम की सहमति बन गई हो लेकिन  एक युद्ध इंटरनेट मीडिया पर भी लड़ा गया और ऐसा लगता है कि आगे भी लड़ा जाएगा। एक्स, फेसबुक और अन्य इंटरनेट प्लेटफार्म पर तरह तरह के वीडियो की बाढ आई है। पुराने वीडियो भी नए बताकर चलाए जा रहे हैं। कई पाकिस्तानी हैंडल से फेक सूचनाओं को प्रसारित किया जा रहा है। एआई का उपयोग करके फेक वीडियो इंटरनेट मीडिया पर प्रचलित हो रहे हैं। आपरेशन सिंदूर के चौथे दिन एआई से बना एक वीडियो इंटनेट मीडिया पर खूब प्रचलित हो रहा है। इस फेक वीडियो में विदेश मंत्री डा एस जयशंकर युद्ध के लिए क्षमा मांगते दिख रहे हैं। एआई की मदद से बने इस फेक वीडियो को इंटरनेट मीडिया पर पाकिस्तानी साइबर आतंकवादी प्रचलित कर रहे हैं। इस कारण सूचनाओं के लिए इन प्लेटफार्म्स पर आ रहे वीडियो को सही मानना जोखिम भरा है। दो देशों के बीच गोला बारूद से लड़े गए युद्ध में एक युद्ध साइबर स्पेस में भी लड़ा गया और आगे भी ये जारी रह सकता है। दिन रात कई साइबर लड़ाके इस काम में लगे हुए हैं। उनका काम ही मिसइनफार्मेशन फैलाना है। ये एक ऐसा स्पेस है जहां मनोबल बढ़ाने या तोड़ने का काम होता है। पाकिस्तान से सक्रिय कई एक्स हैंडल हिंदू नाम से बनाए गए। वो प्रामाणिक तरीके से पोस्ट करते हैं जिससे ये प्रतीत हो कि वो भारत से पोस्ट हो रहे हैं। इन फेक पोस्ट को लेकर पाकिस्तान  मीडिया अपने चैनलों पर चलाने लगते हैं। शनिवार को पाकिस्तान के साइबर फिदायीनों ने इसी तरह का समाचार चलाया। इसे पहले तो राष्ट्रभक्त नाम के एक हैंडल से प्रसारित किया गया। लेकिन अब इन मूर्खों को कौन समझाए कि युद्ध के समय थोड़ी सी चूक भी किसी भी पक्ष के लिए भारी पड़ सकती है। इस हैंडल ने लिख दिया कि पाकिस्तानी नेवी के हमले में बेंगलुरू और पटना के पोर्ट तबाह हो गए। इसको लेकर पाकिस्तान के एक न्यूज चैनल ने खबर चला दी। कहने लगे कि भारतीय खुद मान रहे हैं कि पाकिस्तानी नेवी के हमले में उनके दो बंदरगाह तबाह हो गए। अब इन अक्ल के कच्चों को कौन बताए कि ना तो पटना में बंदरगाह है और ना ही बेंगलुरू में। थोड़ी बाद ये खबर पाकिस्तानी न्यूज चैनल से हटा। 

दरअसल एआई के आने और उसके टूल्स के निरंतर विकसित होने से से ये सब काम आसान हो गया है। अब किसी भी व्यक्ति की आवाज में वक्तव्य दिलवाया जा सकता है। अगर जनता शिक्षित नहीं है और उसको एआई और उसके कारनामों का ज्ञान नहीं है तो वो इनको सच मान लेती है। वक्तव्यों के अलावा भी एआई से कई ऐसे वीडियो बनाए जा रहे हैं जिसमें विमानों को नष्ट करते हुए दिखाया जा सकता है।किसी भी पुराने वीडियो को नए स्वरूप में ढालकर पेश किया जा सकता है। जब तक फैक्ट चेक होगा तब तक उसका असर हो चुका होता है। जैसे भारत पाकिस्तान युद्ध के दौरान पाकिस्तानी हैंडल से साइबर आतंकवादियों ने एक वीडियो पोस्ट किया जिसमें वो ये दिखा रहे हैं कि एक पायलट पैराशूट से किसी खेत में उतर रही है और उसके सामने पाकिस्तानी सैनिक खड़ा है। फिर महिला पायलट की एक जमीन पर लेटी फोटो आती है जिसमें वो मुंह ढ़के है। उसके हाथ में फोन है। इसमें टिप्पणी लिखी है कि इंडियन फीमेल पायलट अरेस्टेड। माशाअल्लाह फोन नहीं छूटा लेकिन जहाज नष्ट हो गया। इस फेक वीडियो और फोटो को इस तरह से चलाया गया कि भारतीय पायलट शिवांगी सिंह के विमान को पाकिस्तानी फाइटर प्लेन ने गिरा दिया। शिवांगी सिंह बच गई और पाकिस्तानी सेना के कब्जे में है। सचाई ये है कि ये पुरानी इमेज है। जून 2023 में कर्नाटक में एक ट्रेनर विमान गिरा था उसकी महिला पायलट की फोटो है। भारत के प्रेस इंफैर्मेशन ब्यूरो (पीआईबी) ने फैक्ट चेक करके बता दिया। इस युद्ध के दौरान प्रोपगैंडा को थामने में पीआईबी की फैक्ट चेकिंग यूनिट ने शानदार काम किया है। 

दूसरी समस्या भारत के कथित बुद्धिजीवियों की है। जो पता नहीं किस दबाव में या किन परिस्थितियों के चलते युद्ध के विरोध में लिखने लगते हैं। कुछ कथित नारीवादियों ने आपरेशन सिंदूर को लेकर प्रश्न उठाए। उनको इस नाम में पितृसत्तात्मकता की बू आ रही थी। ऐसे लोगों की मानसिक स्थिति का सहसा अनुमान लगाना कठिन है। इनके लिखे का नोटिस लेकर अकारण इनको चर्चित करने से भी बचा जाना चाहिए। सिंदूर की भारतीय समाज में क्या महत्ता है इसको ये नारीवादी शायद समझती नहीं हैं। भारतीय समाज, यहां की परंपरा, यहां के रीति रिवाजों को मूर्खतापूर्ण विदेशी वाक्यांशों और अधकचरे ज्ञान से समझना मुश्किल है। हां इतना अवश्य है कि उनको फेसबुक आदि पर थोड़ी चर्चा मिल जाती है। इंगेजमेंट से रीच बढ़ाने में मदद मिलती है। इस तरह की ऊलजलूल टिप्पणी भी तकनीक और उससे होनेवाले लाभ को ध्यान में रखकर की जाती है। फेसबुक के प्रोफेशनल डैशबोर्ड पर जाकर इंगेजमेंट से होनेवाले लाभ को देखा जा सकता है। जिस तरह से कुछ यूट्यूबर्स हर दिन मोदी की सरकार गिरा देते हैं, मोदी और अमित शाह के बीच झगड़ा करवा देते हैं जैसे मूर्खतापूर्ण और मनोरंजक थंबनेल लगाकर दर्शकों को खींचने का प्रयास करते हैं उसी तरह से फेसबुकिया फेमीनाजी भी इस तरह का उपक्रम करती हैं। 

भारत पाकिस्तान युद्ध के दौरान भारत सरकार ने कुछ यूट्यूब चैनल्स को उनकी कंटेंट के आधार पर प्रतिबंधित किया। इसके अलावा कुछेक वेबसाइट्स को भी प्रतिबंधित किया गया। ऐसे ही एक बेवसाइट को प्रतिबंधित करने की खबर पर हिंदी की बुजुर्ग साहित्यकार मृदुला गर्ग ने लिखा, लास्ट नेल इन द काफीन आफ डेमोक्रेसी। मृदुला जी की प्रतिष्ठा एक पढ़ी लिखी समझदार लेखिका के तौर पर हिंदी समाज में थी। पहलगाम में आतंकवादी हमले के बाद से उन्होंने जिस तरह की टिप्पणियां करनी आरंभ की जिससे लगा कि उनकी समझ पर उनकी उम्र हावी हो गई है। उपरोक्त टिपप्णी से तो ऐसा प्रतीत होता है कि मृदुला जी को ना तो लोकतंत्र की समझ है और ना ही युद्ध के समय सरकार के निर्णयों को लेकर उनकी समझ परिपक्व हुई है। कहीं से कुछ सुन लिया किसी ने कुछ समझा दिया और फेसबुक पर आकर टिप्पणी कर क्रांति करने लगीं। मृदुला जी जैसी कई अन्य लेखिकाएं हिंदी में हैं जो इस कारण से हर विषय में कूदती हैं ताकि उनको भी वैचारिक रूप से समृद्ध माना जाए। ऐसा करने के क्रम में वो खुद को उपहास का पात्र बना डालती हैं।  

Saturday, May 3, 2025

स्क्रीन का आकार छोटा संभावनाएं अनंत


भारत कथावाचकों का देश रहा है, इस बात की लंबे समय से चर्चा होती रही है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने पिछले कार्यकाल में मन की बात कार्यक्रम में इस बात को रेखांकित भी किया था। मनोरंजन के विभिन्न प्लेटफार्म्स पर इस बात को कहा जाता रहा है। इस स्तंभ में भी इसकी चर्चा होती रही है। मुंबई के नीता मुकेश अंबानी कल्चरल सेंटर में 1 से 4 मई तक विश्व दृश्य श्रव्य और मनोरंजन शिखर सम्मेलन- वेव्स का आयोजन हुआ। इसके शुभारंभ के अवसर भी प्रधानमंत्री ने इस बात को दोहराया कि भारत कथावाचकों की भूमि रही है। उन्होंने कहा कि भारत न केवल एक अरब से अधिक आबादी का घर है, बल्कि एक अरब से अधिक कहानियों का भी घर है। देश के समृद्ध कलात्मक इतिहास का संदर्भ  देते हुए उन्होंने याद दिलाया कि दो हज़ार साल पहले, भरत मुनि के नाट्य शास्त्र ने भावनाओं और मानवीय अनुभवों को आकार देने में कला की शक्ति पर बल दिया था। उन्होंने कहा कि सदियों पहले, कालिदास के अभिज्ञान-शाकुंतलम ने शास्त्रीय नाटक में एक नई दिशा प्रस्तुत की। प्रधानमंत्री ने भारत की गहरी सांस्कृतिक जड़ों को रेखांकित करते हुए कहा कि हर गली की एक कहानी है, हर पहाड़ का एक गीत है और हर नदी एक धुन गुनगुनाती है। उन्होंने कहा कि भारत के छह लाख गांवों में से प्रत्येक की अपनी लोक परंपराएं और अनूठी कहानी कहने की शैली है, जहां समुदाय लोकगीतों के माध्यम से अपने इतिहास को संरक्षित करते हैं। उन्होंने भारतीय संगीत के आध्यात्मिक महत्व का भी उल्लेख करते हुए कहा कि चाहे वह भजन हो, ग़ज़ल हो, शास्त्रीय रचनाएं हों या समकालीन धुनें हों, हर धुन में एक कहानी होती है और हर लय में एक आत्मा होती है। इस शिखर सम्मेलन में चार दिनों तक कई सत्रों में देश विदेश के फिल्मों, ब्राडिंग, मार्केटिंग,गेमिंग और एनिमेशन से जुड़े लोगों ने इन क्षेत्रों में वैश्विक स्तर पर उफलब्ध संभावनाओं पर चर्चा की। कई देशों के मंत्री भी इसमें शामिल हुए।

इस सम्मेलन के दौरान काफी बड़ी संख्या में लोग जुटे। इससे ये पता चलता है कि मनोरंजन जगत में लोगों की बहुत रुचि है। यहां गेमिंग और एनिमेशन से जुड़े युवाओं को प्रोत्साहित किया गया। मंच पर पुरस्कृत होनेवाले कटेंट क्रिएटर्स की औसत उम्र 25 वर्ष के आसपास लग रही थी। लगभग सभी युवा थे जिन्होंने बेहतर कटेंट क्रिएट किया। भारत को विकसित राष्ट्र बनाना है तो सिर्फ पारपंरिक तरीके से विकास के रास्ते पर चलकर इस लक्ष्य को हासिल नहीं किया जा सकता है। इसके लिए गैर पारंपरिक क्षेत्रों से देश की आर्थिकी को मजबूती प्रदान करनेवाले और आय बढ़ाने के रास्ते खोजने होंगे। भारत में जिस तरह की कहानियों का भंडार है और उन कहानियों पर बेहतर कटेंट क्रिएट करने की प्रतिभा है उसका वैश्विक स्तर पर उपयोग करके देश की आय बढ़ाई जा सकती है। भारत में हर क्षेत्र में कितनी प्रतिभा है इसका आकलन सिलिकान वैली में कंप्यूटर साफ्टवेयर के क्षेत्र में कार्य कर रहे भारतीयों और उनकी उपल्बधियों को देखकर सहज ही किया जा सकता है। गेमिंग के बढ़ते हुए बाजार को ध्यान में रखते हुए उस दिशा में कार्य करना होगा। गेमिंग का वैश्विक बाजार बहुत बड़ा हो गया है। बड़ी बड़ी कंपनियां इसमें हजारों करोड़ रुपए का निवेश कर रही हैं। इस शिखर सम्मेलन के दौरान होने वाली चर्चाओं में ये बात स्पष्ट रूप से निकलकर आई कि भारत को इस क्षेत्र में मजबूती से स्थापित होने की आवश्यकता है। सरकार ने इस दिशा में पहल की है। इसका स्वागत अभिनेता आमिर खान जैसे लोगों ने भी किया। आमिर खान ने माना कि पहली बार किसी सरकार ने मनोरंजन जगत के लोगों से संवाद करने की पहल की है। उनके साथ बैठकर इस क्षेत्र को आगे बढ़ाने की योजनों और संभावनों पर विचार किया है। वेव्स में दुनिया भर के क्रिएटर्स, स्टार्टअप्स, उद्योग प्रमुखों और नीति निर्माताओं को एक मंच पर लाकर मीडिया, मनोरंजन और डिजिटल नवाचार का वैश्विक केंद्र बनाना लक्ष्य है।

भारत की फिल्मों को साफ्ट पावर के तौर पर उपयोग करने की बात भी लंबे समय से होती रही है। मुझे याद आ रहा है 2012 का एक किस्सा। इस वर्ष जोहानिसबर्ग में विश्व हिंदी सम्मेलन का आयोजन हुआ था। मारीशस के तत्कालीन कला और संस्कृति मंत्री चुन्नी रामप्रकाश ने कहा था कि हिंदी के प्रचार प्रसार में फिल्में और टेलीविजन पर चलनेवाले सीरियल्स का बड़ा योगदान है। उन्होंने मंच से स्वीकार किया कि हिंदी फिल्मों और टीवी सीरियल्स के कारण ही उन्होंने हिंदी सीखी। अपने वक्तव्य में उन्होंने भारत में बनने वाले टीवी सीरियल्स के नाम भी लिए और कहा उनकी लोकप्रियता की वजह से विदेश में गैर हिंदी भाषी भी उसको देखते हैं। इसी तरह 2023 में फिजी के नांदी में विश्व हिंदी सम्मेलन के दौरान मंच पर भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर और फिजी के राष्ट्रपति रातू विलियामे काटोनिवेरी बैठे थे। दोनों के बीच बातचीत हो रही थी। राष्ट्रपति रातू हिंदी फिल्मों की चर्चा कर रहे थे। जयशंकर ने इनसे पूछा कि उनको सबसे अच्छी हिंदी फिल्म कौन से लगी तो राष्ट्रपति ने उनसे कहा कि शोले। इस फिल्म का कोई मुकाबला नहीं है। 

वेव्स का आयोजन पहले दिल्ली में होना था लेकिन बाद में किसी कारणवश इसको मुंबई शिफ्ट किया गया। आयोजन की भव्यता और भागीदारी देखने के बाद लगा कि मुंबई ही सही जगह है। वेव्स के आयोजन के बाद अब गोवा में होनेवाले अंतराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल (ईफ्फी) के कई आयामों को लेकर संशय उत्पन्न हो गया है। ईफ्फी में फिल्म बाजार लगता है और वेव्स में भी इस प्रकार का ही एक आयोजन है। ईफ्फी में 75 क्रिएटिव माइडंस का आयोजन होता है, वेव्स में भी क्रिएटिव अवार्ड दिए गए। ईफ्फी में फिल्मकारों को कई तरह के पुरस्कार दिए जाते हैं, वेव्स के लिए भी प्रधानमंत्री ने घोषणा की कि अगले संस्करणों में पुरस्कार देने की योजना है। दोनों आयोजन भारत सरकार के सूचना और प्रसारण मंत्रालय के हैं। जब वेव्स के आयोजन को सरकार प्राथमिकता देगी तो ईफ्फी पर इसका असर पड़ सकता है। वैसे भी ईफ्फी को लेकर एक कंफ्यूजन लंबे समय से है कि वो फिल्म फेस्टिवल रहे या उसको अवार्ड का मंच बने। ईफ्फी के आयोजन के दौरान ये ब्रम दिखता है। ईफ्फी को बेहतरीन फिल्म फेस्टिवल बनाने पर जोर देना चाहिए। वहां जिस तरह से प्रदर्शनियां और फूड कोर्ट आदि लगाए जाते हैं उससे बचना होगा। इसमें खर्च होनेवाले संसाधनों को फेस्टिवल में बेहतर फिल्मों को लाने और चर्चा सत्रों पर उपयोग किया जा सकता है। वेव्स के सफल आयोजन के बाद ईफ्फी को लेकर सूचना और प्रसारण मंत्रालय को पुनर्विचार करना चाहिए। 

वेव्स का आयोजन मनोरंजन जगत के लिए अच्छे दिन का संकेत तो है भविष्य में इनसे जुड़कर युवाओं को रोजगार की संभावनाएं तलाशने में मदद मिलेगी। प्रधानमंत्री ने भी माना कि स्क्रीन का आकार छोटा हो सकता है, लेकिन दायरा अनंत होता जा रहा है, स्क्रीन छोटी हो रही है, लेकिन संदेश व्‍यापक होता जा रहा है। कहा जा सकता है कि यही समय है सही समय है। 


Saturday, April 26, 2025

सीन के बाद रील आधारित लेखन


पिछले सप्ताह कुछ मित्रों के साथ हिंदी में प्रकाशित नई पुस्तकों पर चर्चा हो रही थी। हिंदी में लिखा जा रहा साहित्य भी इस चर्चा में आया। साहित्य में जिस तरह का लेखन हो रहा है उसको लेकर एक दो मित्रों की राय नकारात्मक थी। चर्चा में ये बात भी आई कि औसत या खराब तो हर काल में लिखा जाता रहा है। जो रचना अच्छी या स्तरीय होती है वो लंबे समय तक पाठकों की पसंद बनी रहती है। इसी चर्चा में एक दिलचस्प बात निकलकर आई। वो ये कि इन दिनों हिंदी के कई प्रकाशक उन्हीं विषयों को प्राथमिकता दे रहे हैं जिन विषयों पर बहुतायत में रील्स इंस्टा या एक्स पर प्रसारित हो रहे हैं। इसके लिए प्रकाशक किसी भी भाषा में लिखी पुस्तक के अधिकार खरीदकर उसको हिंदी में प्रकाशित भी कर रहे हैं। आज रील्स की दुनिया में सफल बनने के नुस्खे, पैसे कमाने की विधि, जल्द से जल्द अमीर कैसे बनें, करियर में बेहतर कैसे करें, नौकरी कैसे मिलेगी, शेयर बाजार में निवेश से कैसे बनें करोड़पति, भगवान की aपूजा कैसे करें, किस भगवान की पूजा किस दिन करने से प्रभु प्रसन्न होते हैं आदि आदि विषय पर काफी कंटेंट है। सफलता कैसे प्राप्त करें, नौकरी में कैसे व्यवहार करें, टाइम मैनेजमेंट, शेयर बाजार में निवेश पर दर्जनों किताब हाल के दिनों में मेरी नजर से गुजरी है। एक और विषय इन दिनों हिंदी के प्रकाशकों को लुभा रहा है वो है आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस( एआई) यानि कृत्रिम बुद्धिमत्ता। इस वुषय पर भी हिंदी में कुछ पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं लेकिन अभी इन पुस्तकों को स्तर प्राप्त करना शेष है। इस विषय की अधिकतर पुस्तकें गूगल बाबा की कृपा से प्रकाशित हुई हैं। 

चर्चा में ही एक बात और निकल कर आई कि इन दिनों कई प्रकाशक नए लेखकों की पुस्तकें प्रकाशित करने के पहले  जानना चाहते हैं कि उनके इंस्टाग्राम और एक्स या फेसबुक पर कितने फालोवर हैं। पुस्तक प्रकाशन की शर्त पहले बेहतर कृति होती थी लेकिन समय बदला और पुस्तक प्रकाशन के मानक और निर्णय के कारक भी बदलने लगे। इस शताब्दी के आरंभिक वर्षों तक इंटरनेट मीडिया का चलन इतना अधिक नहीं था। डाटा की उपलब्धता भी कम थी। इंटरनेट का देश में घनत्व कम था और डाटा इतना सस्ता भी नहीं था। जैसे जैसे कम मूल्य पर डाटा की उपलब्धता बढ़ी तो लोग इंटरनेट मीडिया का उपयोग करने लगे। 2009 के आसपास फेसबुक और ट्विटर (अब एक्स) पर लोग जुड़ने लगे थे। ये जुड़ाव समय के साथ बढ़ता चला गया। याद है कि 2014-15 के आसपास मेरे कई मित्र कहा करते थे कि फेसबुक समय बर्बादी की जगह है। वे इस माध्यम पर कभी नहीं आएंगे। उन्हीं मित्रों के फेसबुक अकाउंट की हरी बत्ती दिनभर जली देखकर मजा आता है। अब तो अधिकतर साहित्यिक बहसें फेसबुक पर ही होती हैं, कई बार सकारात्मक और बहुधा नकारात्मक। साहित्यकारों के कुंठा प्रदर्शन का भी सार्वजनिक मंच बन गया है फेसबुक। पहलगाम में हिंदुओं के नरसंहार पर कई साहित्यकारों ने ना केवल अपनी अज्ञान का सार्वजनिक प्रदर्शन किया बल्कि अपनी विचारधारा के पोषण की वफादारी में अपनी जगहंसाई भी करवाई। खैर ये अवांतर प्रसंग है जिसकी चर्चा फिर कभी। 

हम बात कर रहे थे रील प्रेरित लेखन की। दरअसल हुआ ये है कि रील्स की विषयों की लोकप्रियता को देखते हुए कुछ प्रकाशकों ने पुस्तक प्रकाशन में भी उसका प्रयोग किया। पटना और दिल्ली में आयोजित पुस्तक मेला के अनुभव ये बताते हैं कि युवा पाठक इस तरह की पुस्तकों की ओर आकर्षित हुए। अब भी हो रहे हैं। एक बात तो तय माननी चाहिए कि हिंदी के प्रकाशकों को अगर लाभ नहीं होगा तो वो बहुत दिनों तक किसी भी ट्रेंड को लेकर नहीं चलेंगे। ये कारोबार का आधार भी है। हिंदी में कविता के पाठक कम होने आरंभ हुए तो प्रकाशकों ने कविता संग्रह का प्रकाशन लगभग बंद कर दिया। कुछ दिनों पहले नई वाली हिंदी के कई लेखक आए थे। उनकी पुस्तकें खूब बिकीं । दैनिक जागरण हिंदी बेस्टसेलर की सूची में कईयों को स्थान मिला, अब भी मिल रहा है। नई वाली हिंदी का परचम लेकर चलनेवाले लेखकों में से सत्य व्यास और नीलोत्पल मृणाल के अलावा कम ही लेखकों के यहां विषयों कि विविधता दिखती है। 

सत्य व्यास ने अपने उपन्यासों में लिखने की प्रविधि में बदलाव किया। कथा के प्रवाह के साथ नहीं बहे बल्कि इन्होंने शिल्प में बदलाव किया। सत्य ने अपने उपन्यासों में सीन लिखना आरंभ किया। लंबे लंबे सीन जिसका उपयोग या तो फिल्म में या फिर वेब सीरीज में किया जा सकता हो। सत्य के एक उपन्यास पर बेव सीरीज भी बनी, एकाध पर और बनने की खबर है। सत्य की सफलता से उत्साहित होकर कई नए लेखकों ने अपनी कहानियों के शिल्प में बदलाव करके सीन को अपनाया। छोटी कहानियां और छोटो उपन्यासों में सीन लेखन आसान भी है। अगर आप 600 पन्ने का कोई उपन्यास लिखेंगे तो आपको सीन की निरंतरता को बरकार रखने में पसीने छूट जाएंगे। क्रमभंग का खतरा भी उपस्थित हो सकता है। इस कारण से भी उपन्यास 150-200 पृष्ठों के आने लगे। इसको पाठकों ने भी पसंद किया। पुरानी प्रविधि से लिखे जा रहे कथा साहित्य को अपेक्षाकृत कम पाठक मिल रहे हैं। पहले इस तरह के सीन लिखने का प्रयोग सुरेन्द्र मोहन पाठक से लेकर वेद प्रकाश शर्मा, और इस जानर के ही अन्य उपन्यासकार करते थे। उन सबकी लोकप्रियता का एक कारण ये भी था। 

अब हिंदी के पाठक सीन को तो पसंद कर ही रहे हैं लेकिन सीन के बाद अब रील वाले विषयों को भी पसंद करने लगे हैं। हिंदी लेखन में आए इस बदलाव को या इस नए ट्रेंड को समझना आवश्यक है। आज के इस भौतिकवादी युग में हर कोई सफल और अमीर बनना चाहता है। इंटरनेट और मीडिया के प्रसार ने भारत की अधिकांश जनता को भैतिक सुख सुविधाओं से परिचित करवा दिया। हमारे देश में प्रति व्यक्ति आय बढ़ रही है, साक्षरता भी। जाहिर है सपने भी बड़े होते जा रहे हैं। इन सपनों और आकांक्षाओं को पुरानी प्रविधि से लेखन करनेवाले पकड़ नहीं पा रहे हैं। वे अब भी खेत-खलिहान, गरीब-अमीर, शोषण-शोषित, जात-पात जैसे विषयों में उलझे हैं। हमारा समाज काफी आगे बढ़ गया है। जो युवा लेखक नए विषयों को लेकर आगे बढ़े और कहानी का ट्रीटमेंट अलग तरीके से किया उनकी  पुस्तकें बिक रही हैं। प्रकाशक भी उनको छापने के लिए पलक पांवड़े बिछाए हैं। इस बात का सामने आना शेष है कि जिन लेखकों के फेसबुक या इंस्टाग्राम के फालोवर्स अधिक हैं उनकी पुस्तकें उसी अनुपात में बिक पाती हैं या नहीं। बिकने की बात हिंदी में जरा मुश्किल से पता चलती हैं। पर इतना तय है कि जिनके इंटरनेट मीडिया प्लेटफार्म्स पर फालोवर्स की संख्या अधिक है उनको अपनी पुस्तकों के प्रचार प्रसार में सहूलियत होती है। अगर ढंग से प्रचार हो जाए तो पुस्तकों के बारे में आनलाइन और आफलाइन प्लेटफार्म पर एक प्रकार की जिज्ञासा देखी जाती है। कई बार ये जिज्ञासा बिक्री तक पहुंचती है। 


Saturday, April 19, 2025

उर्दू अलग भाषा नहीं, हिंदी की बोली


हिंदी से उर्दू बनी है, उर्दू से हिंदी नहीं। हिंदी में अरबी, फारसी, तुर्की शब्द बढ़ा देने और फारसी मुहावरे चला देने से उर्दू का जन्म हुआ। वस्तुस्थिति यह है कि हिंदी के बिना उर्दू एक पग नहीं धर सकती और उर्दू के बिना हिंदी के महाग्रंथ लिखे जा सकते हैं- पंडित अंबिका प्रसाद वाजपेयी ।

आज से उन्नीस वर्ष पहले जब हिंदी साहित्य सम्मेलन का जन्म नहीं हुआ था और उसके जन्म के पश्चात भी कई वर्षों तक अपनी मातृभाषा का स्वतंत्र अस्तित्व सिद्ध करने के लिए पग-पग पर न केवल संस्कृत, प्राकृत, शौरसैनी, मागधी, सौराष्ट्री आदि की छानबीन करते हुए शब्द-विज्ञान और भाषा-विज्ञान के आधार पर यह सिद्ध करने की आवश्यकता पड़ा करती थी कि हिंदी भाषा संस्कृत या प्राकृत की बड़ी कन्या है, किंतु बहुधा बात यहां तक पहुंच जाया करती थी और यह भी सिद्ध करना पड़ता था कि नानक और कबीर, सूर और तुलसी की भाषा का बादशाह शाहजहां के समय जन्म लेनेवाली उर्दू बोली के पहले, कोई अलग गद्य रूप भी था- गणेश शंकर विद्यार्थी- 2 मार्च 1930, गोरखपुर। 

उर्दू जिस जमीन पर खड़ी है. वह जमीन हिंदी की है। हिंदी को हम अपनी जबान के लिए उम्मुलिसान (भाषा की जननी) और हमूलाए-अव्वल (मूल तत्व) कह सकते हैं। इसके बगैर हमारे जबान की कोई हस्ती नहीं है। इसकी मदद के बगैर हम एक जुमला भी नहीं बोल सकते। जो लोग हिंदी से मुहब्बत नहीं रखते वे उर्दू जबान के हामी नहीं हैं। फारसी, अरबी या किसी दूसरी जबान के हामी हों तो हों- प्रोफेसर मौलवी वहीउद्दीन अपनी पुस्तक वजै-इस्तलाहात (परिभाषा निर्माण) में। 

इन तीन विद्वानों के उर्दू के संबंध में जो बात कही है लगभग वही बात 15 अप्रैल 2025 के अपने निर्णय में सुप्रीम कोर्ट के विद्वान न्यायाधीशों ने कही। दो जजों की बेंच ने अपने फैसले में हिंदी और उर्दू के विद्वानों के कथन के आधार पर हिंदी और उर्दू को एक ही माना प्रतीत होता है। जब अपने जमनेंट में डा रामविलास शर्मा को उद्धृत करते हुए कहते हैं कि, हिंदी और उर्दू दो अलग भाषाएं नहीं है बल्कि मूलत: दोनों एक ही हैं। दोनों के सर्वनाम, क्रिया और शब्द भंडार भी लगभग एक जैसे हैं। पूरी दुनिया में ऐसा उदाहरण नहीं मिलता जहां दो भाषाओं के सर्वनाम और क्रिया एक ही हों। रूसी और यूक्रेनियन भाषा एक जैसे हैं लेकिन उनमें भी वो समानता नहीं है जो हिंदी और उर्दू में है। इसके अलावा भी कई लोगों के लेखन को विद्वान जजों ने उद्धृत करते हुए हिंदी और उर्दू को एक ही बताया है। बावजूद इसके सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद बहुत ही करीने से उर्दू को अलग भाषा के तौर पर स्थापित करने वाली टिप्पणियां देखने को मिली। कुछ लोगों ने लेख लिखकर उर्दू को बहुत खूबसूरत भाषा के तौर पर रेखांकित करने का प्रयास किया। 

अपने इस जजमेंट में सुप्रीम कोर्ट ने विस्तार से हिन्दुस्तानी का उल्लेख किया है। हिन्दुस्तानी के पक्ष में उन्होंने कांग्रेस पार्टी के संविधान को भी देखा और उसके अंश फैसले में लिखे। 1923 के एक संशोधन का उल्लेख करते हुए जजों ने हिन्दुस्तानी को भाषा के तौर पर लिखा है। कांग्रेस पार्टी ने अगर तय कर लिया कि उसकी कार्यवाही हिन्दुस्तानी में लिखी जाएगी तो उससे ये कैसे तय होता है कि हिन्दुस्तानी एक भाषा के तौर पर चलन में आ गया था। किसी भी भाषा का अपना विज्ञान और व्याकरण होता है। हिन्दुस्तानी का क्या है ? भारतेन्दु हरिश्चंद्र के समय भी हिंदी और हिन्दुस्तानी को लेकर विवाद उठा था। तब राजा शिव प्रसाद ने जो भाषा फारसी में चल रही थी उसको देवनागरी में लिखने का दुस्साहस किया, लेकिन उनको सफलता नहीं मिली। राजा शिवप्रसाद अंग्रेजों की नौकरी ही नहीं कर रहे थे उनके हिसाब से कार्य भी कर रहे थे। अंग्रेजों ने उनको सितारे-हिंद का खिताब भी दिया। दिनकर जी ने लिखा है कि राजा शिवप्रसाद जिसको हिंदुस्तानी कहकर चलाना चाहते थे वो चली नहीं, चली वो हिंदी जो फोर्ट विलियम में पंडित सदल मिश्र ने लिखी थी अथवा जिस शैली का प्रवर्तन मुंशी सदासुखलाल ने सन 1800 के आसपास किया था अथवा जो हिंदी काशी में हरिश्चंद्र लिख रहे थे। इसपर भी विद्वान जजों को ध्यान देना चाहिए कि भाषा किसी राजनीतिक दल के संविधान से नहीं बनती भाषा बनती है जनस्वीकार्यता और अपने स्वभाव से। गांधी जी ने हिंदुस्तानी की बहुत वकालत की थी। उन्होंने हिंदी साहित्य सम्मेलन के लोगों को मना लिया था लेकिन उस समय मुसलमानों ने गांधी पर आरोप लगा दिया कि वो हिन्दुस्तानी कि आड़ में हिंदी का प्रचार कर रहे हैं और उर्दू की हस्ती को मिटाना चाहते हैं। तब गांधी जी को 1 फरवरी 1942 के हरिजन में लिखना पड़ा- कभी कभी लोग उर्दू को ही हिन्दुस्तानी कहते हैं। तो क्या कांग्रेस ने अपने विधान में उर्दू को ही हिन्दुस्तानी माना है। क्या उसमें हिंदी का, जो सबसे अधिक बोली जाती है, कोई स्थान नहीं है। यह तो अर्थ का अनर्थ करना होगा। कहना ना होगा कि हिन्दुस्तानी के नाम पर हर जगह भ्रम की स्थिति बनी रही।  

दरअसल हिंदी की बोली उर्दू को अलग करने का काम अंग्रेजों ने आरंभ किया जब वो फोर्ट विलियम में भाषा पर काम करने लगे। अंग्रेजों ने हिंदी और उर्दू को दो अलग अलग भाषा माना और उसके आधार पर ही काम करवाना आरंभ किया। इसका कारण भी दिनकर बताते हैं जब वो कहते हैं कि नागरी का आंदोलन अगर 1857 की क्रांति की पीठ पर चलकर आया होता तो अंग्रेज इस मांग को तुरंत स्वीकार कर लेते। मगर अंग्रेज अबतक समझ चुके थे कि भारत में राष्ट्रीयता की रीढ हिंदू जाति है, अतएव, मुसलमानों का पक्ष लिए बिना हिंदुओं का उत्थान रोका नहीं जा सकता। इसके बाद अंग्रेजों ने मुसलामानों को उर्दू के पक्ष में गोलबंद करना आरंभ कर दिया। इसका भयंकर परिणाम विभाजन के समय देखने को मिला। जब इस्लाम के नाम पर पाकिस्तान अलग देश बना तो जिन्ना ने उर्दू को मुसलमानौं की भाषा करार दे दिया। जो बीज अंग्रेजों ने बोया था उसको जिन्ना ने खूब सींचा। हिंदुओं में इसकी प्रतिक्रिया हुई। वो हिंदी के पक्ष में खड़े हो गए। बाद में कुछ लोगों ने हिंदी को सांप्रदायिक भाषा भी कहा। संस्कृत के शब्दों को लेकर फिर उसके कठिन होने को लेकर प्रश्न खड़े किए गए। लेकिन अगर समग्रता में विचार करेंगे तो पाएंगे कि मजहब के नाम पर देश बनानेवालों मे उर्दू को मुसलमानों की भाषा बताकर हिंदी की बोली को सांप्रदायिक बना दिया। संस्कृत के शब्द तो कई भारतीय भाषाओं में मिलते हैं। आज अगर उर्दू को लेकर हिंदुओं के एक वर्ग के मन में शंका है तो उसके ऐतिहासिक कारण हैं। इसके लिए मुसलमानों का एक वर्ग जिम्मेदार है। हंस पत्रिका में एक लेख बासी भात में खुदा का साझा में नामवर सिंह ने भी स्पष्ट किया था कैसे सर सैयद अहमद ने अलीगढ़ में उर्दू डिफेंस एकेडमी कायम किया था। जब 1900 में संयुक्त प्रांत के गवर्नर मैकडानल ने हिंदी को उर्दू के बराबर दर्जा देने का ऐलान किया तो सर सैयद अहमद के उत्तराधिकारी नवाब मोहसिन ने विरोध की अगुवाई की। सुप्रीम कोर्ट को भाषा जैसे मुद्दे पर निर्णय देते समय समग्रता का ध्यान रखना चाहिए था।