Translate

Saturday, December 6, 2025

जवाहरलाल नेहरू का बाबर प्रेम


रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के पिछले दिनों दिए एक बयान पर विवाद हो गया। रक्षा मंत्री ने एक कार्यक्रम के दौरान कहा कि, सरदार वल्लभ भाई पटेल उदार व्यक्ति थे। वे सच्चे अर्थों में सेकुलर थे, पंथनिरपेक्ष थे। वे तुष्टीकरण में विश्वास नहीं करते थे। जब पंडित जवाहरलाल नेहरू ने बाबरी मस्जिद के मुद्दे पर सरकारी खजाने के पैसे से बाबरी मस्जिद बनवाने की बात कही थी तो उसका भी विरोध अगर किसी ने किया था तो वो गुजराती मां की कोख से पैदा हुए सरदार वल्लभ भाई पटेल ने किया था। उस समय उन्होंने सरकारी पैसे से बाबरी मस्जिद नहीं बनने दी। इसपर नेहरू जी ने सोमनाथ मंदि के पुनर्निमाण का सवाल उठाया तो बहुत ही शांत लेकिन दृढ़ स्वर में सरदार पटेल ने स्पष्ट किया कि सोमनाथ मंदिर का मामला अलग है, वहां 30 लाख रुपए जनता ने दान दिए हैं और एक ट्रस्ट बनाया गया है। इस काम में सरकार का एक कौड़ी भी खर्च नहीं हुआ है। राजनाथ सिंह ने आगे कहा कि अयोध्या में भव्य राम मंदिर के निर्माण में ऐसा ही हुआ। अयोध्या में भी जनता के पैसे से ही श्रीराममंदिर का निर्माण हुआ। यही पंथ निरपेक्षता की सच्ची परिभाषा है। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के इस बयान के बाद आनन-फानन में कांग्रेस के नेता ने इसे झूठ करार दिया और कहा कि इन बातों का कोई दस्तावेजी प्रमाण नहीं है। कांग्रेस के नेता माणिकराम टैगोर ने एक्स पर लिखा कि राजनाथ जी का बयान इतिहास नहीं बल्कि राजनीति है और ये वर्तमान को बांटने के लिए भूतकाल का पुनर्लेखन है। कांग्रेस के अन्य नेताओं ने भी राजनाथ सिंह के इस बयान पर कठोर प्रतिक्रिया दी। जो लोग रक्षा मंत्री के बयान का आधार और दस्तावेजी सबूत मांग रहे थे उनको भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता सुधांशु त्रिवेदी ने सरदार पटेल की पुत्री मणिबेन पटेल की पुस्तक पढ़ने की सलाह दी। वैसे भी ये समझा जाना चाहिए था कि राजनाथ सिंह सार्वजनिक जीवन में कोई हल्की बात नहीं करते हैं।

ये पूरा प्रसंग मणिबेन पटेल की पुस्तक ‘इनसाइड स्टोरी आफ सरदार पटेल’ में पृष्ठ संख्या चौबीस पर है। वो लिखती हैं कि नेहरू ने बाबरी मस्जिद का प्रश्न भी उठाया था लेकिन सरदार पटेल ने साफ कर दिया था कि सरकार एक भी पैसा किसी मस्जिद को बनवाने पर खर्च नहीं करेगी। उन्होंने नेहरू को स्पष्ट किया था कि सोमनाथ मंदिर के पुनर्निमाण का मसला अलग है। वहां एक ट्रस्ट बनाया गया था और उस ट्रस्ट ने जनता से तीस लाख रुपए जमा किए थे। सरदार पटेल ने नेहरू को बताया कि इस ट्रस्ट के चेयरमैन जामसाहब हैं और मुंशी इसके सदस्य हैं। इसमें सरकार का कोई पैसा नहीं दिया गया है जो मंदिर निर्माण के लिए खर्च किया जाए। इतना सुनकर नेहरू चुप हो गए थे। सरदार पटेल की पुत्री मणिबेन पटेल की पुस्तक के अनुसार ये पूरा प्रसंग 20 सितंबबर 1950 को घटित हुआ था। इस प्रसंग को पढ़ते हुए यही लगता है कि नेहरू और पटेल के बीच बाबरी मस्जिद पुनर्निमाण पर बा हुई थी जिसमें नेहरू ने सोमनाथ मंदिर के फिर से बनाए जाने का उदाहरण दिया था। जो कांग्रेस के नेता या समर्थक राजनाथ सिंह के बयान के बारे में प्रमाण मांग रहे हैं उनके लिए मणिबेन की पुस्तक उपयोगी हो सकती है। पुस्तक में उल्लिखित उपरोक्त प्रसंग से स्पष्ट है कि नेहरू जी सरकारी धन से बाबरी मस्जिद बनवाना चाहते थे जिसको सरदार पटेल ने रुकवा दिया था। दरअसल बाबर को लेकर नेहरू के मन में आदर का भाव हमेशा से था। उनके हिसाब से वो पुनर्जागरण के दूत जैसे थे। नेहरू ने अपनी पुस्तक डिस्कवरी आफ इंडिया (शताब्दी संस्करण, आक्सफोर्ड युनिवर्सिटी प्रेस, नई दिल्ली, 1989) में लिखा है कि बाबर एक आकर्षक व्यक्ति था, पुनर्जागरण का साहसी और दबंग राजकुमार जिसकी कला और साहित्य में रुचि थी और शानदार जीवन जीना चाहता था। यहां यह प्रश्न तो उठता ही है कि बाबर ने भारत में किस तरह से पुनर्जागरण किया जिसके कारण नेहरू को उनमें पुनर्जागरण के राजकुमार की छवि दिखाई देती थी। इस पूरी पुस्तक में नेहरू ने बहुधा बाबर को आदर के साथ याद किया है। बाबर ही क्यों नेहरू मुगल राजवंश के अनेक शासकों के प्रति उदार दिखाई पड़ते हैं। अकबर को तो वो बाबर से अधिक आकर्षक और साहसी बताते हैं। मुगलों के भारतीयकरण के वामपंथी इतिहासकारों के प्रयास को गति देते भी दिखते हैं। इसलिए अगर डिस्कवरी आफ इंडिया में बाबर के प्रति नेहरू के व्यक्त आदर को मणिबेन पटेल की पुस्तक में वर्णित प्रसंग से जोड़कर देखा जाए तो किसी प्रकार की शंका शेष नहीं बचती है कि बाबर के नाम से बनी मस्जिद को वो सरकारी पैसे से बनवाना चाहते थे। 

नेहरू सत्ता में बने रहने के लिए कोई भी उपक्रम करने को तैयार रहते थे। जो ये कहते हैं कि नेहरू के समय में सरकार के समर्थन से धार्मिक कार्य नहीं किए जा सकते थे उनको भी इतिहास की पुस्तकों में वर्णित और दबा दिए गए तथ्यों को देखना चाहिए। एक पुस्तक है ‘आफ्टरमाथ आफ पार्टिशन इन साउथ एशिया’। उसमें 14 अगस्त 1947 का एक प्रसंग है जब शाम को डा राजेन्द्र प्रसाद के दिल्ली के घर पर पूजा और हवन का आयोजन किया गया। हवन के लिए पुरोहितों को बुलाया गया था। भारत की नदियों का पवित्र जल मंगवाया गया था। राजेन्द्र प्रसाद और नेहरू हवन कुंड के सामने बैठे थे। उपस्थित महिलाओं ने दोनों के माथे पर चंदन का तिलक लगाया। नेहरू और राजेन्द्र प्रसाद ने हवन पूजन किया। पूजा और हवन के पहले नेहरू ने कहा था कि उनको ये सब पसंद नहीं है। तब उनके कई मित्रों ने समझाया कि सत्ता प्राप्त करने का हिंदू तरीका यही है। उसके फौरन बाद नेहरू तैयार हो गए। नेहरू के बाद तुष्टीकरण की ये नीति कांग्रेस की नीति बन गई। दिरा से लेकर राजीव गांधी और मनमोन सिंह तक सभी इसी पर चलते रहे। प्रणब मुखर्जी ने सक्रियय राजनीति से अलग होने के बाद तीन पुस्तकें लिखीं जो उनके अनुभवों पर आधारित है। अपनी तीसरी पुस्तक द कोएलीशन इयर्स में उन्होंने कांची के शंकराचार्य की गिरफ्तारी के प्रसंग पर कैबिनेट की चर्चा का वर्णन किया है। लिखा कि ‘कैबिनेट की बैठक में शंकराचार्य जयेन्द्र सरस्वती की गिरफ्तारी की टाइमिंग पर सवाल उठाते हुए मैं गुस्सा हो गया और पूछा कि इस देश में धर्मनिरपेक्षता सिर्फ हिंदुओं के लिए ही है, किसी की हिम्मत है कि वो ईद के समय किसी मुस्लिम धर्मगुरू को गिरफ्तार कर ले? ये वो समय था जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे और प्रणब मुखर्जी उनके कैबिनेट के सदस्य थे। सरकारी पैसे से बाबरी मस्जिद बनवाने की कोशिश और सोमनाथ मंदिर के भव्य स्वरूप को बनाने को लेकर हिचक। जनता से पैसे से सोमनाथ मंदिर जब बनकर तैयार हुआ तो राष्ट्रपति को वहां जाने से रोकने का प्रयास नेहरू ने किया। नेहरू की नीतियों पर चलनेवाली कांग्रेस ने अयोध्या में प्रभु श्रीराम के नव्य और भव्य मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा समारोह का आमंत्रण यूं ही नहीं ठुकराया ।      

a

जीते हैं शान से


हिंदी फिल्मों के इतिहास में कई ऐसी फिल्में हैं जो कारोबार के हिसाब से बेहद सफल नहीं हो सकीं लेकिन कल्ट फिल्म के तौर पर याद की जाती हैं। उन फिल्मों के क्राफ्ट के कारण उनको वर्षों बाद भी याद किया जाता है। जाने भी दो यारो, मेरा नाम जोकर और लम्हे कुछ ऐसी ही फिल्में हैं जिनको आज भी बेहतरीन फिल्म के तौर पर याद किया जाता है लेकिन वो सफल फिल्मों की श्रेणी में नहीं आती। ऐसी ही एक और फिल्म है आज से 45 वर्ष पूर्व रिलीज हुई शान। फिल्म शोले की सफलता के बाद रमेश सिप्पी एक शहरी और आधुनिक कहानी पर फिल्म बनाना चाहते थे। ऐसी फिल्म जिसमें नायक, नायिकाएं, खलनायक सभी शहरी हों और फिल्म का वातावरण भी आधुनिक लगे। लेखक सलीम-जावेद की हिट जोड़ी उनके साथ थी। फिल्म शान की कहानी तैयार हो गई। इस कहानी में इयान फ्लेमिंग के उपन्यासों और जेम्स बांड सीरीज की फिल्मों के खलनायक ब्लोफेल्ड पर आधारित एक खलचरित्र रचा गया। शाकाल नाम का ये चरित्र गंजा है। शोले की तरह ही इस फिल्म को मल्टी स्टारर बनाने की योजना बनी। रमेश सिप्पी चाहते थे कि फिल्म शोले में काम करनेवाले अभिनेता और अभिनेत्री फिल्म शान में भी अलग अलग भूमिका करें। शाकाल की भूमिका के लिए रमेश सिप्पी पहले संजीव कुमार को चाहते थे लेकिन उनकी अन्यत्र व्यस्तता थी। धर्मेन्द्र और हेमा मालिनी भी शान फिल्म के लिए समय नहीं निकाल सके तो शशि कपूर और बिंदिया गोस्वामी को भूमिकाएं दी गईं। कुछ दिनों पहले धर्मेन्द्र ने एक साक्षात्कार में कहा था कि वो चाहते थे कि फिल्म शान में काम कर सकें लेकिन उनके पास डेट्स नहीं थी। जब फिल्म शोले बन रही थी तब भी गब्बर सिंह के किरदार के लिए रमेश सिप्पी की पसंद संजीव कुमार थे। इस बात का उल्लेख कई पुस्तकों में मिलता है। फिल्म शोले के रिलीज होने के दो वर्ष बाद शान का निर्माण आरंभ हो गया था। तीन वर्षों में ये फिल्म बनकर तैयार हुई। इस फिल्म पर निर्माता ने काफी खर्च किया था। ये उस समय की सबसे महंगी फिल्मों में एक थी। एक द्वीप पर फिल्म का भव्य सेट और सुनहरी चील ने दर्शकों का ध्यान खींचा था। 

आज से करीब 45 वर्ष पूर्व एक द्वीप के अंदर तकनीक के तामझाम के साथ शूट करना कठिन था। कुलभूषण खरबंदा अभिनीत किरदार शाकाल जिस कुर्सी पर बैठता था उसके सामने कई रंगों की जलती बुझती बत्तियां और कई तरह के स्विच और लीवर एक शहरी खलनायक की ऐसी छवि दर्शकों के समक्ष उपस्थित करते थे जिसके मोहपाश में बंधने की संभवना थी। अमिताभ बच्चन, शत्रुघ्न सिन्हा, शशि कपूर, जीनत अमान, राखी जैसे कलाकार फिल्म को हिट कराने के लिए काफी थे। शाकाल के गुर्गों की भूमिका भी बेहतरीन अभिनेताओं को दी गई। शोले में सांभा की भूमिका निभानेवाले मैकमोहन शाकाल के साथी जगमोहन की भूमिका में थे। सितारों और भव्यता के बावजूद फिल्म को अपेक्षित सफलता नहीं मिल पाई थी। बाद में शान को लोगों ने पसंद किया। यह अद्भुत संयोग है कि रमेश सिप्पी की फिल्म शोले भी पहले सफल नहीं हुई लेकिन बाद के दिनों में जबरदस्त हिट रही। शान जबरदस्त हिट तो नहीं हो सकी लेकिन इसके क्राफ्ट ने इसको कल्ट फिल्म बना दिया। रमेश सिप्पी ने सलीम जावेद के लिखे किरदार शाकाल को इस तरह से पर्द पर गढ़ा कि उसका गंजापन और संवाद अदायगी दर्शकों को पसंद आई। कुलभूषण खरबंदा ने पर्दे पर शाकाल को जीवंत कर दिया। फिल्म के अंतिम दृष्य में जब उसको गोली लगती है और तो वो कहता है कि मुझे मालूम है कि मैं मरनेवाला हूं लेकिन तुमलोग भी बचोगे नहीं। ऐसा कहने के पहले शाकाल एक हैंडल को नीचे की ओर झुका देता है जिससे उसका ठिकाना धमाके में नष्ट हो जाए। कुलभूषण खरबंदा की संवाद अदायगी बढिया थी। इस फिल्म में एक गाना है यम्मा यम्मा, इसको आर डी बर्मन और मोहम्मद रफी ने साथ मिलकर गाया है। दोनों का साथ गाया ये एकमात्र गाना है। आज इस फिल्म को बने 45 वर्ष हो गए लेकिन जब भी हिंदी फिल्मों के खलनायकों की बात होती है तो शाकाल का नाम भी उसमें आता है। 

Saturday, November 29, 2025

घटनाओं का काल्पनिक कोलाज


हाल ही में दो वेब सीरीज प्रदर्शित हुई। द फैमिली मैन का सीजन तीन और महारानी का सीजन चार। महारानी सीजन चार बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान रिलीज हुई। बिहार की राजनीति को केंद्र में रखकर बनी ये वेबसीरीज उस दौरन चर्चा में रही। प्रधानमंत्री कार्यालय के खबर रोकने के लिए फोन किए जाने के दृश्य को लेकर चुनाव के दौरान विपक्षी ईकोसिस्टम के कुछ लोगों ने माहौल बनाने का प्रयास किया था। इन दोनों सीरीज में समानता है। दोनों कहीं न कहीं राजनीति और उसके दाव-पेंच पर आधारित है। राजनीति के साथ-साथ अपराध और आतंकवाद भी समांतर कहानी के तौर पर चलती है। दोनों वेबसीरीज में लेखक ने पिछले दशकों की राजनीतिक घटनाओं को उठाया है और उसका काकटेल बनाकर एक काल्पनिक कहानी गढ़ने का प्रयास किया है। ऐसी काल्पनिक कहानी जिसमें भारतीय राजनीति की कुछ घटनाएं तो दिखती हैं लेकिन उसका कालखंड मेल नहीं खाता है। कई प्रधानमंत्रियों के स्वभाव और उनके कालखंड में घटी घटनाओं को जोड़कर एक ऐसा प्रधानमंत्री बना दिया गया जिससे कि इसको काल्पनिक कहा जा सके। महारानी सीरीज में जिस प्रधानमंत्री को दिखाया गया है उसमें नरसिम्हाराव से लेकर अटल जी की छवि दिखती है। इसी तरह से फैमिली मैन में महिला प्रधानमंत्री दिखाया गया है लेकिन घटनाएं अलग अलग दौर की जोड़ दी गई हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि लेखक किरदार के राजनीतिक पहचान को उजागर तो करना चाहता है लेकिन बचने का रास्ता भी बनाकर चलता है। कहानी कहने की ये प्रविधि अपेक्षाकृत नई है। दर्शकों के सामने ये चुनौती होती है कि वो राजनीति के पात्रों को सीरीज में पहचाने और फिर घटनाओं का आनंद ले।

एक और चीज जो दोनों वेबसीरीज में समान रूप से प्रमुखता से उपस्थित है। वो है इसका अंत। फैमिली मैन के सात एपिसोड देखने के बाद भी दर्शकों को पूर्णता का एहसास नहीं होता और एक जिज्ञासा रह जाती है कि आगे क्या? म्यांमार में आपरेशन के बाद तमाम भारतीय सिपाही और एजेंट भारत लौट आते हैं लेकिन नायक मनोज वाजपेयी म्यांमार की सीमा में ही अचेत होकर गिरते दिखते हैं। सीरीज समाप्त हो जाती है। खलनायक की भूमिका निभा रहे जयदीप अहलावत भी फरार हो जाते हैं और दर्शकों के मन में प्रश्न अनुत्तरित रह जाता है कि उसका क्या हुआ? वो भी घायल है। महारानी सीरीज में हुमा कुरैशी ने रानी भारती का किरदार निभाया है जिसको पहले सीजन से ही राबड़ी देवी से प्रेरित बताकर प्रचारित किया जा रहा है। इस सीजन में वो प्रधानमंत्री बनना चाहती है लेकिन उसके मंसूबों पर प्रधानमंत्री जोशी पानी फेर देते हैं। राजनीति के इन चालों के बीच उसके बेटे जयप्रकाश भारती और उसके दोस्त की लाश मिलती है। जयप्रकाश क्षेत्रीय दलों को रानी भारती के समर्थन केक लिए तैयार कर रहा था। रानी भारती की बेटी जिसको बिहार की मुख्यमंत्री दिखाया गया है उसको भी एक घोटाले का आरोपी बनाकर जेल में डाल दिया जाता है। इस सीरीज में भी कई घटनाक्रम भारतीय राजनीति से जुड़े हैं। रानी भारती की पार्टी के अधिकतर विधायक उसका साथ छोड़कर नई पार्टी बना लेते हैं। रानी के विश्वस्त मिश्रा के नेतृत्व में बिहार में नई सरकार बनती है। ये दृष्य कुछ दिनों पहले महाराष्ट्र की राजनीति में शिवसेना का विभाजन याद दिलाती है। रानी भारती के बड़े बेटे की लाश मिलती है, बेटी जो मुख्यमंत्री थी अब जेल में है। रानी बिल्कुल अकेली पड़ जाती है। विदेश में पढ़ रहा उसका दूसरा बेटा उसके साथ खड़ा हो जाता है। रानी भारती को पता चलता है कि उसके बेटे की योजनाबद्ध तरीके से हत्या की गई है। जब प्रधानमंत्री जोशी उसके पुत्र के निधन पर संवेदना प्रकट करने आते हैं तो वो उनसे कहती है कि जिस तरह से उसने अपने पति भीमा भारती के हत्यारों को सजा दी उसी तरह से वो अपने बेटे जयप्रकाश के हत्यारों को भी ढूंढ निकालेगी और सजा देगी या दिलवाएगी। कहानी यहीं समाप्त हो जाती है।  

दोनों वेब सीरीज के अंत में दर्शकों को पूर्णता का अहसास नहीं होता है। ऐसा लगता है कि निर्माता या प्लेटफार्म अगले सीजन के लिए उत्सुकता बनाए रखना चाहते हैं। यह ठीक है कि निर्माता और प्लेटफार्म दर्शकों की उत्सुकता बनाए रखने के लिए कहानी को ऐसे मोड़ पर छोड़ देते हैं ताकि दर्शकों को इस बात का अनुमान रहे कि अगले सीजन में कहानी आगे बढ़ेगी। प्रश्न यही उठता है कि जो दर्शक सात और आठ एपिसोड देख रहा है और तीन या चार सीजन देख रहा है उसको पूरी कहानी के लिए कितनी प्रतीक्षा करनी चाहिए। सीक्वल का एक तरीका तो ये भी हो सकता है जो साधरणतया फिल्मों में अपनाया जाता है। फिल्म दबंग या फिर एक था टाइगर, टाइगर जिंदा है और टाइगर 3 को देखा जा सकता है। तीनों फिल्म अपने आप में पूर्ण है लेकिन सीक्वल की संभावना भी बनी हुई है। पर वेब सीरीज तो जैसे दर्शकों के धैर्य की प्रतीक्षा लेना चाहते हैं। क्या दर्शकों को छह सात घंटे देखने के बाद कहानी की पूर्णता नहीं मिलनी चाहिए। इन दोनों सीरीज के आखिर में लगता है कि कुछ मिसिंग है। इस मीसिंग को सीक्वल की संभावना बताकर सही नहीं ठहराया जा सकता है। अगर इसी तरह का व्यवहार दर्शकों के साथ किया जाता रहा तो संभव है कि दर्शकों का वेब सीरीज से मोहभंग हो जाए। वेब सीरीज के लेखक को, फिल्म के निर्देशक को और उसको प्रसारित करनेवाले प्लेटफार्म को इसपर विचार करना चाहिए।

एक और बात जो इन वेब सीरीज से जुड़े लोगों को सोचना होगा कि जिस कालखंड की कहानी दिखा रहे हैं उस कालखंड में वो सारी चीजें होनी चाहिए जो वेब सीरीज में दिखाई जा रही हैं। अगर 2005 के कालखंड की घटनाओं को मुंबई में घटित होते दिखा रहे हैं तो बांद्रा वर्ली सी लिंक कैसे दिखा सकते हैं। 2005 में तो वो बना ही नहीं था। उस कालखंड की कहानी दिखाते समय इस बात का ध्यान भी रखना चाहिए कि उस समय ट्वीटर प्रचलन में था या नहीं। अगर नहीं था तो फिर उस दौर की घटनाओं को ट्वीटर पर ट्रेंड करते हुए कैसे दिखा सकते हैं। ये छोटी बाते हैं लेकिन इनका अपना एक महत्व है। घटनाओं का कोलाज बनाने के चक्कर में इस तरह की छोटी पर महत्वपूर्ण भूल दिख जाती है जो लेखक और निर्देशक की सूझबूझ पर प्रश्नचिन्ह लगा देते हैं। आज के दौर की कई वेबसीरीज में इस तरह की घटनाएं आपको दिख जाएंगी। कल्पनिकता की आड़ में इस तरह की छूट नहीं ली जा सकती है। कहानी जिस कालखंड में सेट होती है उस कालखंड की विशेषताओं का ध्यान रखना होता है। अलग अलग समय पर हुए प्रधानमंत्रियों के गुणों और अवगुणों को मिलाकर एक चरित्र तो गढ़ सकते हैं लेकिन उस दौर की स्थायी चिन्हों को नहीं बदल सकते। किसी पात्र को संसद भवन ले जाते हैं तो उसको नई संसद के गेट पर उतरते हुए दिखाना होगा ना कि पुरानी संसद के पोर्टिको में। काल्पनिकता को भी एक प्रकार की प्रामाणिकता की जरूरत होती है।  

Saturday, November 22, 2025

फिल्मों से छूटता संवेदना का सिरा

पिछले दिनों मुंबई में जागरण फिल्म फेस्टिवल, 2025 का समापन हुआ। सितंबर के पहले सप्ताह में दिल्ली में आरंभ हुआ जागरण फिल्म फेस्टिवल 14 शहरों से होता हुआ मुंबई पहुंचा। मुंबई में फिल्म फेस्टिवल के अंतिम दिन पुरस्कार वितरण का कार्यक्रम था। प्रख्यात निर्देशक प्रियदर्शन को जागरण फिल्म फेस्टिवल में जागरण अचीवर्स अवार्ड से सम्मानित किया गया। प्रियदर्शन ने बताया कि उनके पिता लाइब्रेरियन थे इस कारण उनको पुस्तकों तक पहुंचने की सुविधा थी।  घर पर भी ढेर सारी पुस्तकें थीं। उन्हें बचपन से अलग अलग विधाओं की पुस्तकें पढ़ने का आदत हो गई। किशोरावस्था में उन्होंने कामिक्स भी खूब पढ़ा। इससे उनको फ्रेम और अभिव्यक्ति की समझ बनी। प्रियदर्शन ने कहा कि उनका अध्ययन उनके निर्देशक होने की राह में सहायक रहा। आगे बताया कि पुस्तकों में पढ़ी गई घटना किसी
फिल्म की शूटिंग के दौरान याद आ जाती है जिससे फिल्मों के दृश्यों को इंप्रोवाइज करने में मदद मिलती है। प्रियदर्शन ने विरासत, हेराफेरी जैसी कई सफल हिंदी फिल्में बनाई हैं। इसके अलावा अंग्रेजी, मराठी, मलयालम, तमिल और तेलुगू में उन्होंने बेहतर फिल्में बनाई हैं। पुरस्कार वितरण समारोह समाप्त होने के बाद फिल्मों से जुड़े लोगों से बात होने लगी। इसी दौरान फिल्म ओ माय गाड- 2 के निर्देशक अमित राय वहां आए। उनसे मैंने प्रियदर्शन की पुस्तक वाली बात बताई। वो मुस्कुराए और बोले मेरे पास भी एक अनुभव है सुनाता हूं। 

अमित राय ने जो सुनाया वो बेहद चिंताजनक बात थी। उन्होंने कहा कि एक दिन किसी फिल्म पर चर्चा हो रही थी। वहां एक निर्देशक भी थे। अपेक्षाकृत युवा हैं लेकिन उनकी दो तीन फिल्में सफल हो चुकी हैं। कहानियों पर बात होने लगी। एक उत्साही लेखक ने कहा कि उसने कहानी पर स्क्रिप्ट डेवलप की है और वो सुनाना चाहता है। निर्देशक महोदय ने सुनने की स्वीतृति दी। दो दिन बाद मिलना तय हुआ। तय समय पर स्क्रिप्ट लेकर लेखक महोदय वहां पहुंचे। दो घंटे की सीटिंग हुई। स्क्रिप्ट और कहानी सुनकर निर्देशक महोदय बेहद खुश हो गए। उन्होंने जानना चाहा कि ये किसकी कहानी है। स्क्रिप्ट लेखक ने बहुत उत्साह के साथ बताया कि कहानी प्रेमचंद की है। निर्देशक महोदय ने फौरन कहा कि प्रेमचंद को फौरन टिकट भिजवाइए और मुंबई बुलाकर इस कहानी के अधिकार उनसे खरीद लिए जाएं।। कहानी के अधिकार के एवज में उनको बीस पच्चीस हजार रुपए भी दिए जा सकते हैं। निर्देशक महोदय की ये बातें सुनकर बेचारे स्क्रिप्ट लेखक को झटका लगा। उन्होंने कहा कि सर प्रेमचंद जी अब इस दुनिया में नहीं हैं और उनकी कहानियां कापीराइट मुक्त हो चुकी हैं। निर्देशक महोदय ये सुनकर प्रसन्न हुए और बोले तब तो कोई झंझट भी नहीं है। इसपर काम आरंभ किया जाए। उस समय तो अमित राय की बातें सुनकर हंसी आई। हम सबने इस प्रसंग को मजाक के तौर पर लिया। देर रात जब मैं होटल वापस लौट रहा था तब अमित को फोन कर पूछा कि क्या सचमुच ऐसा घटित हुआ था। अमित ने बताया कि ये सच्ची घटना है। मैं विचार करने लगा कि हिंदी फिल्मों का निर्देशक प्रेमचंद को नहीं जानता। जो हिंदी प्रेमचंद के नाम पर गर्व करती है, जो हिंदी के शीर्षस्थ लेखक हैं और जिनकी कितनी रचनाओं पर फिल्में बनी हैं उनको एक सफल निर्देशक नहीं जानता। ये अफसोस की बात है। 

आज हिंदी फिल्म इंडस्ट्री की बात करें तो वहां हिंदी जानने वाले कम होते जा रहे हैं। हिंदी की परंपरा को जानने वाले तो और भी कम। आज हिंदी फिल्मों के गीतों के शब्द देखें तो लगता है कि युवा गीतकारों के शब्द भंडार कितने विपन्न हैं।  हिंदी पट्टी के शब्दों से उनका परिचय ही नहीं है। वो शहरों में बोली जानेवाली हिंदी और उन्हीं शब्दों के आधार पर लिख देते हैं। यह अकारण नहीं है कि समीर अंजान के गीत पूरे भारत में पसंद किए जाते हैं। समीर वाराणसी के रहनेवाले हैं और नियमित अंतराल पर काशी या हिंदी पट्टी के साहित्य समारोह से लेकर अन्य कार्यक्रमों में जाते रहते हैं। एक बातचीत में उन्होंने बताया था कि लोगों से मिलने जुलने से और उनको सुनने से शब्द संपदा समृद्ध होती है। इससे गीत लिखने में मदद मिलती है। हिंदी फिल्मों के एक सुपरस्टार के बारे में भी एक किस्सा मुंबई में प्रचलित है। कहा जाता है कि उनके पास तीन चार सौ चुटकुलों का एक संग्रह है। वो अपनी हर फिल्म में चाहते हैं कि उनके चुटकुला बैंक से कुछ चुटकुले निकालकर संवाद में जोड़ दिए जाएं। उनका इस तरह का प्रयोग एक दो फिल्मों में सफल रहा है। नतीजा ये कि अब वो अपनी हर फिल्म में चुटकुला बैंक का उपयोग करना चाहते हैं। आज हिंदी फिल्मों के संकट के मूल में यही प्रवृत्ति है। हिंदी पट्टी की जो संवेदना है उसको मुंबई में रहनेवाले हिंदी के निर्देशक न तो पकड़ पा रहे हैं और ना ही उसको अपनी फिल्में में चित्रित कर पा रहे हैं। भारत की कहानियों की और भारतीय समाज की ओर जब फिल्में लौटती हैं तो दर्शकों को पसंद आती हैं। दर्शकों को फिल्म पसंद आती है तो वो अच्छा बिजनेस भी करती है। कोई हिंदी फिल्म 100 करोड़ का बिजनेस करती है तो शोर मचा दिया जाता है कि फिल्म ने 100 करोड़ या 200 करोड़ का आंकड़ा पार कर लिया। उनको ये समझ क्ययों नहीं आता कि कन्नड फिल्म कांतारा ने सिर्फ कन्नड़ दर्शकों के बीच 300 करोड़ का कारोबार किया। कन्नड़ की तुलना में हिंदी फिल्मों के दर्शक कई गुणा अधिक हैं। अगर अच्छी फिल्म बनेगी कितने सौ करोड़ पार कर सकेगी। फिल्मकारों को ये सोचना होगा। 

ऐसे कई उदाहरण हैं जहां हिंदी फिल्मों में हिंदी के दर्शकों की संवेदना को छुआ नहीं और दर्शकों ने उसको नकार दिया। पौराणिक पात्रों पर फिल्में बनाने वालों से भी इस तरह की चूक होती रही है। कई बार तो आधुनिकता के चक्कर में पड़कर पात्रों से जो संवाद कहलवाए जाते हैं वो भी दर्शकों के गले नहीं उतरते हैं। हिंदी का लोक बहुत संवेदनशील है। जब उसकी संवेदना से छेड़छाड़ की जाती है तो नकार का सामना करना पड़ता है। राज कपूर यूं ही नहीं कहा करते थे कि हिंदी फिल्मों की कहानियां प्रभु राम के चरित से या रामकथा से प्रेरित होती हैं। एक नायक है, एक नायिका है और खलनायक आ गया। अब ये लेखक के ऊपर है कि वो रामकथा को क्या स्वरूप प्रदान करता है और निर्देशक उसको किस तरह से ट्रीट करता है। जो भी लेखक या निर्देशक रामकथा के अवयवों को पकड़ लेता है उसकी फिल्में बेहद सफल हो जाती हैं। कारोबार भी अच्छा होता है। लेकिन जो निर्देशक पहले से ही 100 या 200 करोड़ का लक्ष्य लेकर चलता है वो कहानी में मसाला डालने के चक्कर में राह से भटर जाता है और फिल्म असफल हो जाती है। आज आवश्यकता इस बात की है कि फिल्मों के लेखक और निर्देशक भारतीय मानस को समझें और उसकी संवेदना की धरातल पर फिल्मों का निर्माण करें। बेसिरपैर की कहानी एक दो बार करोड़ों कमा सकती है लेकिन ये दीर्घकालीन सफलता का सूत्र बिल्कुल नहीं है। 


सर्वोच्च शिखर पर धर्म-ध्वजा


भारतवासियों के आराध्य प्रभु श्रीराम की जन्मभूमि पर अयोध्या में भव्य और दिव्य श्रीराम मंदिर परिसर का निर्माण कार्य पूरा होने को है। श्रीराम मंदिर परिसर में मुख्य मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा तो 22 जनवरी 2024 को हुआ था लेकिन परिसर में अन्य मंदिरों और टीलों के निर्माण से पूरे परिसर को भव्यता मिल रही है। आगामी 25 नवंबर को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी मुख्य मंदिर का पताकारोहण करेंगे। मुख्य मंदिर का ध्वज  बाइस फीट और ग्यारह फीट आकार का  होगा। केसरिया रंग के ध्वज में रामायणकालीन कोविदार वृक्ष और इक्ष्वाकु वंश के प्रतीक सूर्यदेव, ओंकार के साथ अंकित होंगे। इसके अलावा परिसर में जो अन्य सात मंदिर हैं उन सभी के ध्वज का रंग केसरिया होगा जिसके केंद्र में सूर्यदेव ओंकार के साथ अंकित किए जाएंगे । इस विशाल और भव्य मंदिर के निर्माण की आधारशिला प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने 5 अगस्त 2020 को विधि विधान के साथ रखी थी। मंदिर की आधारशिला के दौरान 1989 में विश्वभर से आई शिलाओं में से 9 शिलाओं की भी पूजा की गई थी और उन्हें मंदिर  की नींव में डाली गई । 1989 में श्रीरामजन्मभूमि आंदोलन के दौरान दुनिया भर से मंदिर निर्माण के लिए शिलाएं पूजित करके अयोध्या भेजी गई थीं। लगभग 5 वर्षों में नव्य मंदिर का परिसर पूर्ण हुआ। परिसर के मंदिरों के निर्माण में करीब 5 लाख बीस हजार घनफुट गुलाबी सैंड स्टोन का उपयोग किया गया है जो राजस्थान के बंसी पहाड़पुर से लाया गया। इससे मंदिर की भव्यता अलग ही दिखती है। 

मुख्य मंदिर में जहां से गर्भगृह आरंभ होता है वहां सफेद संगमरमर शिलाओं पर उकेरी गई चंद्रधारी गंगा यमुना की बहुत ही सुंदर मूर्तियां हैं। गर्भगृह की बाईं तरफ बड़े से मंडप में एक ताखे पर गणेश जी की मूर्ति है और उसके ऊपर रिद्धि सिद्धि और शुभ लाभ के चिन्ह बनाए गए हैं। एक ताखे में हनुमान जी की प्रणाम मुद्रा की मूर्ति के ऊपर अंगद, सुग्रीव और जामवंत की मूर्तियां बनाई गई हैं। गर्भगृह के मुख्यद्वार के ठीक ऊपर समस्त सृष्टि के पालक विष्णु भगवान की शेषनाग पर लेटी मुद्रा को पत्थर पर उकेरा गया है। उनके पांव के पास देवी लक्ष्मी जी बैठी हुई हैं। शेषशैया पर लेटे विष्णु भगवान के साथ ब्रह्माजी और शिवजी की मूर्तियां भी बनाई गई हैं। गर्भगगृह के ऊपर वाले तल पर श्रीराम दरबार है और उसके ऊपरी तल पर विशाल जगमोहन बनाया गया है जो अभी खाली है। इस जगह का क्या उपयोग होगा ये श्रीरामतीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट तय करेगा। मुख्य मंदिर के उत्तर-पूर्व में विशाल यज्ञमंडप का निर्माण किया गया है और उसके पास ही सीता कूप भी बनाया गया है।परिसर में भगवान गणेश, शंकर, सूर्य भगवान, हनुमान जी, मां दुर्गा और माता अन्नपूर्णा का मंदिर भी निर्मित किया गया है। मंदिर निर्माण से जुड़े लोगों ने बताया कि जहां पहले सीता रसोई हुआ करती थी उसी जगह या उसके पास ही माता अन्नपूर्णा का मंदिर बनाया गया है। इन मंदिरों के अलावा शेष रूप में लक्ष्मण जी की मूर्ति वाले शेषावतार मंदिर को भी नव्य स्वरूप प्रदान किया गया है। इन मंदिरों की मूर्तियों का स्केच पद्मश्री वासुदेव कामत ने तैयार किया और मूर्तियों का निर्माण जयपुर में करवाया गया। वहां से प्रतिमा को अयोध्या लाकर मंदिरों में स्थापित किया गया है।   

श्रीरामजन्मभूमि परिसर में बहुत ही सुंदर तरीके से सप्त मंदिर बनाया गया है। इन सात मंदिरों में आदिकवि महर्षि वाल्मीकि का मंदिर है। महर्षि वाल्मीकि ने ही भारतीय स्संकृति के जीवनदर्शों के दीपस्तंभ रूप रामायण की रचना की थी। इनके साथ ही सूर्यवंश के कुलगुरू महर्षि वसिष्ठ के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने अपने तपोबल से रघुवंश के नरेशों को बल प्रदान किया और सनातन के सुयश का विस्तार किया। किशोर श्रीराम को शिक्षित करने के लिए अपने साथ ले गए और प्रशिक्षण के दौरान महादेव से प्राप्त विविध दिव्यास्त्र श्रीराम को प्रदान किए। इनके साथ ही देवी अहल्या का मंदिर बनाया गया है। वाल्मीकि रामायण के अनुसार प्रभु श्रीराम के वंदन स्पर्श से पाषाण रूपी अहल्या शापमुक्त होकर स्त्री रूप में वापस आईं। महर्षि अगस्त्य को राष्ट्रसंरक्षक ऋषि कहा जाता है, इनका मंदिर भी जन्मभूमि परिसर में सप्त मंदिर में से एक है। माता शबरी और निषादराज गुह के मंदिर भी बनाए गए हैं। मंदिरों के अलावा इस परिसर में कई टीलों को भी भव्य स्वरूप प्रदान किया गया है। श्री कुबेर टीला इनमें से एक है। पार्वती-शंकर संवाद में जिन प्रमुख तीर्थों की चर्चा आती है उनमें श्रीरामकोट जैसे पवित्र स्थान पर जन्मभूमि समेत कई स्थानों की चर्चा है जिनमें से कुबेर टीला का उल्लेख भी है। मान्यता है कि धन-धान्य के प्रतीक स्वरूप कुबेर जी का यहां निवास है। रुद्रमयाल में इस बात का भी उल्लेख है कि कुबेर टीला के पूर्व में सुषेण जी और उत्तर में गवाक्ष जी स्थापित हैं। 1902 में एडवर्ड तीर्थ विवेचनी सभा का शिलालेख यहां स्थापित किया गया है। इसके अलावा अंगद टीला को भी नव्य स्वरूप प्रदान किया गया है। जटायु की बड़ी सी आकृति भी मंदिर परिसर में स्थापित की गई है। जनश्रुतियों में रामकथा में गिलहरी की खूब चर्चा होती है। रामसेतु के निर्माण में गिलहरी ने भी अपना योगदान किया था। लोक की इस मान्यता को भी परिसर में स्थापित किया गया है। स्थल का नाम है पावन गिलहरी। ये संदेश देती है कि सूक्ष्म जीव भी अपने प्रयास से किसी बड़े अभियान का हिस्सा हो सकते हैं। तीर्थयात्री सहायता केंद्र के बिल्कुल समीप तुलसीदास जी की भव्य प्रतिमा स्थापित की गई है। 

जन्मभूमि परिसर के चार दरवाजे वैष्णव परंपरा के संतों के नाम पर रखे गए हैं। जगदगुरु श्रीरामानंदाचार्य जगदगुरु श्री माध्वाचार्य, जगदगुरु आद्य शंकराचार्य और जगदगुरु श्रीरामानुजाचार्य। इसके अलावा परिसर में 732 मीटर लंबा एक परकोटे का निर्माण किया गया है जिसपर भारत दर्शन और नीति व बोध कथाएं, ब्रॉन्ज पैनल के रूप में उकेरी गई हैं। इनकी संख्या 79 है। इसे गोविंद देव गिरी के निर्देशन में संस्कृतिकर्मी यतीन्द्र मिश्र ने चयनित किया है। इसकी ड्राइंग वासुदेव कामथ जी ने बनाई है, जिसे देश भर के अलग अलग कलाकारों ने तैयार किया है। मुख्य मंदिर के लोअर प्लिंथ पर वाल्मीकि रामायण की कथा के अनुरूप विविध विषयों के चित्र प्रख्यात चित्रकार वासुदेव कामथ ने बनाया है। इसका परिचयात्मक लेखन यतीन्द्र मिश्र ने तैयार किया है। पत्थर पर निर्मित ये थ्री डी कलात्मक संयोजन देश के पत्थर पर काम करने वाले विशिष्ट कलाकारों ने बनाया है। इनकी कुल संख्या 87 है। मंदिर परिसर में एक स्मृति स्तंभ का भी निर्माण किया गया है जिसपर उन सभी ज्ञात-अज्ञात लोगों के नाम अंकित हैं जिन्होंने श्रीराम मंदिर के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग किया। पताकारोहण के साथ ही श्रीराम मंदिर विश्व भर के श्रद्धालुओं के लिए परम पूज्य पावन तीर्थ के नव्य स्वरूप का निर्माण पूर्णता प्राप्त कर लेगा । 


Saturday, November 15, 2025

जड़ों की ओर लौटता हिंदी लेखन


पिछले दिनों जब बुकर पुरस्कार की घोषणा हुई तो लेखक प्रभात रंजन ने फेसबुक पर एक टिप्पणी लिखी, देर रात बुक प्राइज की घोषणा हुई और इस बार ये पुरस्कार DAVID SZALAY के उपन्यास फ्लेश को मिला। वो कनाडा मूल के लेखक हैं। सबसे पहले उनके नाम का उच्चारण ढूंढा – वह है डेविड सोलले । अमेजन पर इनका उपन्यास खरीदा। सबसे सस्ता किंडल संस्करण मिला, 704 रु में।... एक बात समझ में आई कि इस बार शार्टलिस्ट में एक से अधिक उपन्यास ऐसे थे जिनमें अकेलापन, बेमेल दुनिया की बातें थीं। यह भी कुछ उसी तरह का उपन्यास है। अलग अलग भाषाओं में इस तरह की कहानियां और उपन्यास बहुत लिखे जा रहे हैं। प्रभात रंजन की इस टिप्पणी को पढ़ने के बाद ध्यान वैश्विक लेखन की ओर चला गया। कुछ दिनों पहले साहित्य के नोबेल पुरस्कार की घोषणा हुई थी। नोबेल पुरस्कार से सम्मानित लेखक लास्जलो क्रास्जनाहोरकाई के लेखन में भी अकेलापन और निराशा कई बार प्रकट होता है। पहले के लेखक भी इस तरह का लेखन करते रहे हैं। पश्चिमी देशों के अलावा जापान और कोरिया के कई लेखकों के उपन्यासों और कहानियों में भी अकेलापन और उसका दंश, उससे उपजी निराशा और फिर समाज पर उसका प्रभाव दिखाई पड़ता है। जापान के विश्व प्रसिद्ध लेखक हारुकी मुराकामी के उपन्यासों में भी अकेलापन प्रमुखता से आता है। जापान के समाज में अकेलापन एक बड़ी समस्या है तो जाहिर सी बात है कि वहां के लेखकों पर इस समस्या का प्रभाव होगा। उनकी कहानियों के पश्चिमी देशों में लाखों पाठक हैं। क्या कारण है कि पश्चिमी दुनिया में उनके अपने लेखकों और अन्य देशों के लेखकों की वो रचनाएं लोकप्रिय होती हैं जिसका विषय अकेलापन और अवसाद होता है। मुराकामी मूल रूप से जापानी में लिखते हैं। अमेरिका में रहते हैं। विश्व की कई अन्य भाषाओं में उनकी कृतियों का अनुवाद होता है। अनूदित पुस्तकें लाखों की संख्या में बिकती हैं। क्या पश्चिमी देश के पाठक अकेलेपन की इस समस्या से स्वयं को जोड़ते हैं इसलिए उनको इस तरह का लेखन पसंद आता है ? इसका एक पहलू ये भी है कि नोबेल विजेता से लेकर बुकर से पुरस्कृत कई लेखक अध्यात्म और भारत की चर्चा करते हैं।  

बुकर पुरस्कार की घोषणा के पहले दैनिक जागरण हिंदी बेस्टसेलर की जुलाई सितंबर 2025 की तिमाही की सूची प्रकाशित हुई। ये सूची हिंदी में सबसे अधिक बिकनेवाली पुस्तकों के आधार पर विश्व प्रसिद्ध एजेंसी नीलसन तैयार करती है। इस सूची में कथा, कथेतर, अनुवाद और कविता की पुस्तकें होती हैं। इसमें जो पुस्तकें आई हैं उसकी अनुवाद श्रेणी पर नजर डालते हैं, द हिडन हिंदू (सभी खंड), महागाथा, पुराणों से 100 कहानियां, नागा वारियर्स दो खंड, शौर्य गाथाएं, संसार, देवताओं की घाटी में प्रवेश। इनको देखने पर ये प्रतीत होता है कि भारत में हिंदी के पाठक धर्म और अध्यात्म से जुड़ी कथाएं पढ़ने में रुचि ले रहे हैं। पाठकों को वर्गीकरण करना आसान नहीं है कि किस आयुवर्ग के कितने पाठक हैं और वो कौन सी पुस्तकें पसंद कर रहे हैं। लेकिन सूची को देखने से एक बात तो स्पष्ट होती है कि हिंदी में उन विषयों पर लिखी पुस्तकें खूब बिक रही हैं जहां धर्म है, अध्यात्म है और जहां मन की शांति की बातें है। पश्चिम के पाठक अकेलेपन, अवसाद और निराशा की कहानियां पढ़ रहें हैं वहीं हिंदी के पाठक उससे बिल्कुल अलग धर्म और अध्यात्म से जुड़ी कहानियों या पुस्तकों में रुचि दिखा रहे हैं। इसके पीछे क्या कारण हो सकते हैं इसपर विचार करने की आवश्यकता है। क्या पश्चिम के समाज में और भारतीय समाज में जो मूलभूत अंतर है वो इसका कारण है या जो पारिवारिक संस्कार भारत में पीढ़ियों से चले आ रहे हैं वो वजह है? 

अगर हम विचार करते हैं तो पाते हैं कि पश्चिम के समाज में जो संस्कार हैं वो भारतीय संस्कारों से अलग है। हमारे यहां जिस प्रकार के सामाजिक मूल्य, नैतिकता और मर्यादा की स्थापना की बात होती है वैसी बातें पाश्चात्य समाज में नहीं होती है। हमारे समाज में विवाह से संतान प्राप्ति की बात होती है, विवाह संस्कार के बाद सात जन्मों के रिश्ते की बात है। विवाहोपरांत संतानोत्पत्ति की महत्ता स्थापित है और उसको मोक्ष से जोड़ा जाता रहा है। पश्चिमी देशों में सात जन्मों के रिश्ते की बात तो दूर वहां एक ही जन्म में सात रिश्ते की बातें होती हैं। वहां मोक्ष आदि की अवधारणा नहीं है इस कारण संतानोत्पत्ति को एक जैविक क्रिया तक ही सीमित रखा जाता है। पश्चिम के लेखन में मानसिक अवसाद एक कला के तौर पर रेखांकित की जाती रही है जिसमें मानवीय संवेदना और सकारात्मकता अनुपस्थित होता है। पश्चिम के नाटकों में ट्रेजडी महत्वपूर्ण है। जबकि हमारे यहां का नाट्यशास्त्र फल-प्राप्ति पर आधारित है। कोई भी काम किया जाता है तो उसके पीछे के संदेश और समाज या मानव के बेहतरी का भाव रहता है। ज्ञान के प्रकार के बारे में श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय 18 के श्लोक 20, 21 और 22 में बताया गया है। कहा गया है कि जिस ज्ञान से मनुष्य पृथक -पृथक सब भूतों में एक अविनाशी परमात्मा भाव को विभाग रहित समभाव से देखता है, उस ज्ञान को सात्विक ज्ञान कहते हैं। अगले श्लोक में बताया गया है कि जिस ज्ञान के द्वारा मनुष्य संपूर्ण भूतों में भिन्न-भिन्न प्रकार के नाना भावों को अलग-अलग जानता है, उस ज्ञान को राजस ज्ञान कहा गया है। ज्ञान के अंतिम प्रकार के बारे में गीता में कहा गया है कि जो ज्ञान एक कार्यरूप शरीर में ही संपूर्ण के सदृश आसक्त है तथा जो बिना युक्तिवाला तात्विक अर्थ से रहित और तुच्छ है उसको तामस कहा गया है। गीता के इन तीन श्लोकों के ज्ञान के प्रकार को विश्लेषित करते हैं तो ये स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय लेखन क्यों और किस कारण से पश्चिमी लेखन से अलग है। समभाव की बात को रेखांकित किया जाना चाहिए। राष्ट्रीय शिक्षा नीति के संदर्भ में जिस भारतीय ज्ञान परंपरा की बात होती है उसके सूत्र भी गीता के इन श्लोकों में देखे जा सकता हैं। 

हिंदी में भी निर्मल वर्मा, कृष्ण बदलदेव वैद्य, स्वदेश दीपक जैसे कुछ लेखकों ने अकेलेपन और अवसाद को विषय बनाकर लिखा है लेकिन माना गया कि पाश्चात्य प्रभाव में ऐसा किया गया। वामपंथ के प्रभाव या दबाव में जो लेखन हुआ वो अति यथार्थवाद का शिकार होकर लोक से दूर होता चला गया क्योंकि उसमें विद्रोह तो था पर अविनाशी परमात्मा को विभाग रहित समभाव से देखने की युक्ति नहीं थी। स्वाधीनता पूर्व का अधिकतर हिंदी लेखन रचनात्मकता समभाव की जमीन पर खड़ी नजर आती है। हिंदी साहित्य में जितना पीछे जाएंगे ये भाव उतना ही प्रबल रूप में दिखता है। यह अकारण नहीं है कि साठोत्तरी कविता और कहानी ने इस भाव से दूर जाकर नई पहचान बनाने की कोशिश की। जब इस तरह का लेखन फार्मूलाबद्ध हो गया तो पाठक इससे दूर होने लगे। आवश्यकता इस बात की है कि हिंदी लेखन अपनी जड़ों की ओर लौटे, संकेत मिल रहे हैं लेकिन इसको प्रमुख स्वर बनाना होगा। 


Sunday, November 9, 2025

वादा तो निभाया


फिल्म जानी मेरा नाम आज से करीब 55 साल पहले प्रदर्शित हुई थी और जबरदस्त हिट रही थी। इस फिल्म से कई बेहद दिलचस्प कहानियां जुड़ी हैं। अभी बिहार विधान सभा के चुनाव चल रहे हैं तो सबसे पहले बिहार से जुड़ा एक किस्सा। शूटिंग के लिए हेमा मालिनी और देवानंद नालंदा विश्वविद्यालय के खंडहरों के पास चलनेवाले रोपवे पर रोमांटिक सीन शूट कर रहे थे। नीचे शूटिंग देखनेवालों की भीड़ जमा थी। अचानक रोपवे का केबिन रुक गया। पता चला कि बिजली कट गई है। सीढ़ी लगाकर देवानंद और हेमा को नीचे उतारा गया। शूटिंग देखनेवालों की भीड़ के बीच पुलिस ने घेरा बनाया। जब दूसरा सीन शूट होने लगा तो किसी ने देवानंद को बताया कि भीड़ के आगे कुर्ता पायजामा पहने एक व्यक्ति खड़े हैं वो जयप्रकाश नारायण हैं। वो शूटिंग देखने आए हैं। देवानंद ने चौंक कर उनकी ओर देखा। नजरें मिलीं। जयप्रकाश जी मुस्कुरा रहे थे। फिर दोनों मिले इस प्रसंग की चर्चा देवानंद ने अपनी आत्मकथा में की है। दोनों के बीच इस फिल्म के दौरान हुई भेंट एक रिश्ते में बदली और देवानंद ने इमरजेंसी में तमाम दबाव के बावजूद इंदिरा गांधी का समर्थन नहीं किया। 

ये तो हुई शूटिंग की बात। फिल्म बनाने के निर्णय के पहले भी काफी रोचक घटनाएं हुईं। इस फिल्म के प्रोड्यूसर थे गुलशन राय। इसके पहले उनकी फिल्म फ्लाप रही थी। उनके मित्र बी आर चोपड़ा ने उनको सलाह दी कि वो फिल्म डिस्ट्रीब्यूशन का ही काम किया करें। ये बात गुलशन राय को चुभ गई। उन्होंने तय किया कि वो एक ऐसी फिल्म जरूर बनाएंगे जो हिट हो। गुलशन राय का ज्योतिष में विश्वास था। वो पंजाब के होशियारपुर जाया करते थे। उन दिनों होशियारपुर में कई ज्योतिषी रहते थे जो महर्षि भृगु की परंपरा से खुद को जोड़ते हुए जन्मकुंडली बनाते थे। उनमें से एक ज्योतिष से गुलशन राय ने अपनी सफलता के बारे में जानना चाहा। उनको बताया गया कि गोल्डी नाम का एक व्यक्ति आपकी फिल्म बनाएगा तो बहुत हिट होगी। गुलशन राय की भी महर्षि भृगु में आस्था थी। आप याद करें उनकी फिल्मों में त्रिमूर्ति फिल्म्स के लोगो के पहले भृगु की तस्वीर आती थी। होशियारपुर से लौटकर उन्होंने गोल्डी (विजय आनंद) से बात की और फिल्म बनाना तय हुआ। विजय आनंद इस फिल्म का नाम ‘दो रूप’ रखना चाहते थे। गुलशन राय ज्योतिष और अंक गणना के हिसाब से फिल्म का नाम ज शब्द से रखना चाहते थे। आखिरकार फिल्म का नाम जानी मेरा नाम रखा गया। फिल्म में प्रेमनाथ का चयन भी ज्योतिष के कारण ही हुआ। प्रेमनाथ लगातार गोल्डी को फिल्म के लिए मना कर रहे थे। एक दिन गोल्डी उनसे मिलने पहुंच गए। अनीता पाध्ये ने लिखा है कि अचानक प्रेमनाथ को याद आया कि उनको हिमालय से आए एक ज्योतिषी ने कहा था कि उनको अगर किसी फिल्म का प्रस्ताव मिले तो मना मत करना। इसके बाद उन्होंने चेतन आनंद को स्वीकृति दे दी। 

राय ने फिल्म की नायिका के लिए हेमा का नाम सुझाया। गोल्डी को स्लिम नायिका चाहिए थी। उनको हेमा मालिनी के चलने का अंदाज और दक्षिण भारतीय उच्चारण भी नहीं भा रहा था। जब वो दोनों हेमा से मिले तो गोल्डी की राय बदल गई। हेमा मालिनी फिल्म में नायिका के तौर पर ले ली गईं। हीरो तो देवानंद थे ही। हीरो के भाई की खोज आरंभ हुई। गोल्डी को लगा कि प्राण से बेहतर कोई हो नहीं सकता। वो प्राण से मिलने पहुंचे। प्राण ने अपने अंदाज में डायरी उनके सामने रक दी और कहा कि जो डेट खाली हो ले लो। इतना सुनते ही गोल्डी वहां से उठे और चले गए क्योंकि उनको पता ता कि ये प्राण का मना करने का तरीका था। उधर प्राण को लग रहा था कि गोल्डी मिन्नतें करेंगे। जब ऐसा कुछ नहीं हुआ तो प्राण ने चकित होकर अपने सेक्रेट्री से कहा कि इस आदमी में कुछ तो बात है, इसको डेट्स दे दो। पद्मा खन्ना को चुने जाने की भी एक रोचक कहानी है। पद्मा जब चेतन आनंद से मिलने आईं तो उस समय् डंसर के रोल के लिए संघर्ष कर रही थीं। गोल्डी से जब मिलीं तो उनके दांत पान खाने के कारण लाल थे। बाल बिखरे हुए थे। बगैर मेकअप आदि के चेहरा भी पसीने से तरबतर था। चेतन आनंद ने पद्मा खन्ना से कहा कि डांसर का रोल तो दूंगा लेकिन पहले किसी अच्छे डेंटिस्ट से अपने दांत साफ करवाओ। वेस्टर्न कपड़े पहनो और पाश्चात्य डांस सीखो। पद्मा खन्ना ने ये सब किया। और आप याद करिए जानी मेरा नाम का पद्मा खन्ना पर फिल्माया गीत- हुस्न के लाखों रंग कौन सा रंग देखोगे। सेंसर बोर्ड ने इस गाने पर आपत्ति भी की थी। इन सबके बाद जब फिल्म रिलीज हुई तो जनता ने इसके गानों को, इसके फिल्मांकन को, इसके संवाद को, पात्रों के अभिनय को बेहद पसंद किया। हेमा मालिनी के करियर को नई राह मिली तो देवानंद भी नई ऊंचाई पर पहुंचे। पद्मा खन्ना को तो पहचान ही मिली। कहना ना होगा कि ये फिल्म जितनी अच्छी थी उतनी ही दिलचस्प है इसके बनने की कहानी।