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Saturday, August 2, 2025

लोकप्रिय फिल्मों और कलाकारों को सम्मान


राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों की घोषणा कर दी गई। कोरोना महामारी के चलते राष्ट्रीय फिस्म पुरस्कार देर से घोषित हो रहे हैं। शुक्रवार को घोषित पुरस्कार 2023 के लिए है। पुरस्कारों में कई प्रकार की विविधता देखने को मिली। शाह रुख खान को पहली बार किसी फिल्म में उनके अभिनय के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार देने की घोषणा की गई। उनको फिल्म जवान के लिए और विक्रांत मैसी को 12वीं फेल के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का साझा पुरस्कार दिया जाएगा। अभिनेत्री रानी मुखर्जी को भी पहली बार उनकी फिल्म मिसेज चटर्जी वर्सेस नार्वे के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार दिया जाएगा। रानी मुखर्जी ने इसके पहले भी कई बेहतरीन फिल्में की हैं, जिनपर उनको राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार दिया जा सकता था। ब्लैक और हिचकी में उनका अभिनय शानदार रहा था। राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार कई मानदंडों पर आधारित होता है। संभव है कि जिस वर्ष रानी की ये फिल्में आई हों उस वर्ष किसी और फिल्म में किसी और अभिनेत्री ने बेहतर अभिनय किया हो। ब्लैक और हिचकी दो ऐसी फिल्में हैं जो रानी मुखर्जी की अभिनय प्रतिभा के लिए और फिल्म की विषयवस्तु और ट्रीटमेंट के लिए याद किया जाता है। फिल्म मिसेज चटर्जी वर्सेस नार्वे एक तरह से रानी मुखर्जी की दूसरी पारी की बेहतरीन फिल्म है। हिचकी में भी रानी मुखर्जी ने जिस विषय पर काम किया था वो लगभग अनजाना था। ये ब्रैड कोहेन की आत्मकथा ‘फ्रंट आफ द क्लास, हाउ टौरेट सिंड्रोम मेड मी टीचर आई नेवर हैड’ पर आधारित है। कहा जाता है कि इस फिल्म में अभिनय के पहले रानी घंटों तक इस सिंड्रोम को समझने का प्रयास करती थी। इस सिंड्रोम से ग्रस्त लोग कैसे व्यवहार करते हैं उसको जानने  में लंबा समय बिताया था। पर्दे पर ये मेहनत दिखी भी थी। कहना ना होगा कि फिल्म की जूरी के सदस्यों का चयन रेखांकित करने योग्य है। 

शाह रुख खान को फिल्म जवान के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार अवश्य कई प्रश्न खड़े करता है। राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार के चयन के समय अभिनय तो आधार होता ही है, फिल्म की कहानी और समाज पर उसके प्रभाव पर भी चर्चा की जाती है। जवान एक ऐसी फिल्म है जो सिस्टम को चुनौती देती है। संवैधानिक व्यवस्थाओं पर भी चोट करती है। फिल्म में देश की स्वास्थ्य व्यवस्था बेहतर करने के लिए मंत्री का अपहरण करना जैसी घटनाएं हैं। ये फिल्म एक्शन थ्रिलर है। जनता ने इस फिल्म को खूब पसंद किया था। बताया गया था कि इस फिल्म ने एक हजार करोड़ से अधिक का कारोबार किया था। उन चर्चाओं के दौरान शाह रुख खान के अभिनय की बहुत प्रशंसा हुई हो ऐसा याद नहीं पड़ता। पर जूरी के अध्यक्ष आशुतोष गोवारिकर और अन्य सदस्यों को शाह रुख खान के अभिनय में वो तत्त्व अवश्य दिखे होंगे जो अन्य समीक्षक भांप नहीं पाए। शाह रुख शानदार अभिनेता हैं, उन्होंने वर्षों तक अपने अभिनय से इसको साबित भी किया था। 2004 में जब उनकी फिल्म स्वदेश आई थी तो उनके अभिनय की जमकर सराहना हुई थी। उस वर्ष के सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार सैफ अली खान को दिया गया था। एक अवसर पर शाह रुख का दर्द झलका भी था। उन्होंने मजाकिया लहजे में कहा भी था कि स्वदेश के लिए उनको राष्ट्रीय पुरस्कार मिलना चाहिए था। फिल्म स्वदेश और फिल्म हम तुम या यों कहें कि शाह रुख और सैफ के साथ दो संयोग हैं। जब सैफ को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार मिला था तब उनकी मां शर्मिला टैगोर केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड की अध्यक्ष थीं। शाह रुख को नेशनल अवार्ड मिला है तो जूरी के चेयरमैन आशुतोष गोवारिकर हैं जो स्वदेश के निर्देशक थे। इंटरनेट मीडिया के विभिन्न प्लेटफार्म पर इन दो संयोगों की खूब चर्चा हो रही है। पर स्वदेश के लिए शाह रुख को अवार्ड नहीं मिलने का कारण अलग था। स्वदेश रिलीज हुई थी तब निर्देशक टी एस नागबर्ना ने आरोप लगाया था कि स्वदेश उनकी फिल्म चिगुरिदा कनासू की नकल है। 2004 के राष्ट्रीय अवार्ड की जूरी के चेयरमैन सुधीर मिश्रा थे। अन्य सदस्यों के साथ टी एस नागवर्ना भी उस समिति में थे। जूरी के सामने स्वदेश का प्रदर्शन हुआ तो नागबर्ना ने वहां बताया था कि स्वदेश उनकी फिल्म की नकल है। उसके बाद जूरी के सदस्यों को चिगुरिदा कनासू दिखाई गई। सर्वसम्मति से निर्णय हुआ कि स्वदेश के लिए शाह रुख खान को पुरस्कार नहीं दिया जा सकता है। पहली बार ऐसा नहीं हुआ था। पहले भी और 2004 के बाद भी इस आधार पर कई फिल्मों और अभिनेताओं को पुरस्कार के योग्य नहीं माना गया। इसलिए सैफ अली खान के राष्ट्रीय पुरस्कार को शर्मिला टैगोर से जोड़ना गलत है। चर्चा तो उन बातों की भी हो जाती है जिसका होना ही संदिग्ध होता है। 

12वीं फेल के लिए विक्रांत मैसी का चयन अच्छा है। विक्रांत मैसी ने अपने अभिनय कौशल से ध्यान खींचा है। हाल ही में आई उनकी फिल्म साबरमती रिपोर्ट में भी उनका अभिनय शानदार है। द केरल स्टोरी के निर्देशक सुदीप्तो सेन ने भी धारा के विपरीत जाकर फिल्म बनाई। द केरल स्टोरी को लेकर काफी विवाद हुए। मामला कोर्ट में भी गया। कई राज्यों में उसको अघोषित प्रतिबंधित भी झेलना पड़ा। पर इस फिल्म ने भारतीय समाज में धीरे-धीरे जगह बनाते लव जिहाद के खतरों से दर्शकों को अवगत करवाया था। निर्देशक के तौर पर सुदीप्तो सेन ने इस फिल्म से अपनी पहचान स्थापित की। उनको पुरस्कार देना वैकल्पिक धारा की फिल्मों का स्वीकार है। एक और फिल्म ने ध्यान खींचा वो है हिंदी फिल्म कटहल। छोटे बजट की इस फिल्म की खूब चर्चा रही थी। कहानी और उसके ट्रीटमेंट को लेकर। सिनेमा पर सर्वश्रेष्ठ लेखन का पुरस्कार असम के उत्पल दत्ता को मिला। वो काफी लंबे समय से फिल्मों पर असमी और अंग्रेजी में लिख रहे हैं। इस श्रेणी में किसी पुस्तक का चयन नहीं होना चौंकाता है। चयन समिति के सामने अंबरीश रायचौधरी की श्रीदेवी पर लिखी अंग्रजी की पुस्तक, अमिताव नाग की सौमित्र चटर्जी पर लिखी पुस्तक, यतीन्द्र मिश्र की गुलजार पर लिखी पुस्तक के अलावा अन्य भाषाओं की दो दर्जन से अधिक पुस्तकें थीं। घोषणा के समय अन्यत्र व्यस्तता के कारण रायटिंग जूरी के चेयरमैन गोपालकृष्ण पई उपस्थित नहीं थे। मंत्री को जूरी की अनुशंसा के समय की जो तस्वीरें जारी हुई हैं उसमं भी रायटिंग जूरी के चेयरमैन या सदस्य दिख नहीं रहे। ऐसा कम ही होता है कि किसी श्रेणी की जूरी के चेयरमैन या उसके सदस्य मंत्री को अपनी अनुशंसा देने और पुरस्कार की घोषणा के समय अनुपस्थित रहें। जूरी चेयरमैन या उनके प्रतिनिधि को ये बताना चाहिए था कि किन कारणों से किसी पुस्तक का चयन राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार के लिए नहीं किया गया।कोरोना महामारी के बाद भी एक वर्ष ब्रेस्ट क्रिटिक का अवार्ड घोषित नहीं किया गया। तब उसका कारण ये बताया गया था कि जूरी ने किसी भी प्रविष्टि को पुरस्कार के योग्य नहीं माना। उस वर्ष वैध एंट्री की संख्या बहुत ही कम थी। अब पुरस्कारों की घोषणा हो गई है। 2024 के पुरस्कारों का चयन भी जल्द हो ताकि 2025 के पुरस्कारों की घोषणा समय से हो सके।  


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जमीनी कहानियों के बीच काल्पनिक जवान


राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार की घोषणा के साथ ही इंटरनेट मीडिया पर शाह रुख खान को लेकर टिप्पणियां आने लगीं। शाह रुख को फिल्म जवान के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार देने की घोषणा की गई । यह पुरस्कार उनको विक्रांत मैसी के साथ दिया जाएगा। पुरस्कार की घोषणा होते ही इंटरनेट मीडिया पर लिखा जाने लगा कि शाह रुख को 2004 में स्वदेश के लिए पुरस्कार दिया जाना चाहिए था। उस वर्ष सैफ अली खान को उनकी फिल्म हम तुम के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार दिया गया था। लिखा गया कि सैफ की मां शर्मिला टैगोर उस वक्त केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड की अध्यक्ष थीं इस कारण उनको पुरस्कार मिल गया। पर कहानी दूसरी है। 2004 में जब स्वदेश फिल्म आई थी तो शाह रुख के अभिनय की सराहना हुई थी। राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार नहीं मिला था जिसका मलाल शाह रुख को है। एक अवसर पर शाह रुख का दर्द झलका भी था। उन्होंने कहा था कि स्वदेश के लिए उनको राष्ट्रीय पुरस्कार मिलना चाहिए था। शाह रुख को स्वदेश के लिए राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार नहीं मिलने का किस्सा दिलचस्प है। 2004 के लिए जब राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार तय करने के लिए जूरी बैठी तो उनके सामने शाह रुख की फिल्म स्वदेश भी आई थी। जूरी के सदस्यों में निर्देशक टी एस नागबर्ना भी शामिल थे। जब स्वदेश रिलीज हुई थी तब निर्देशक टी एस नागबर्ना ने आरोप लगाया था कि स्वदेश उनकी फिल्म चिगुरिदा कनासू की नकल है। 2004 के राष्ट्रीय अवार्ड की जूरी के चेयरमैन सुधीर मिश्रा थे। जूरी के सामने जब स्वदेश का प्रदर्शन हुआ तो नागबर्ना ने वहां भी अपना आरोप दोहराया। उनके ऐसा कहने पर जूरी के कुछ सदस्यों ने नागबर्ना की फिल्म देखने की इच्छा जताई। चेयरमैन समेत कई सदस्य शाह रुख के अभिनय की प्रशंसा कर रहे थे। नागबर्ना ने जूरी सदस्यों को चिगुरिदा कनासू दिखाई । स्वदेश और चिगुरिदा कनासू में बहुत अधिक समानता पाई गई थी। फिल्म को देखने के बाद निर्णय हुआ कि स्वदेश के लिए शाह रुख खान को पुरस्कार नहीं दिया जा सकता। राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार के चयन का आधार अभिनय तो होता ही है, फिल्म की कहानी और समाज पर उसके प्रभाव पर भी चर्चा की जाती है। किसी भी रीमेक को या दूसरी भाषा में बनी फिल्म की कहानी पर बनी फिल्म को पुरस्कृत नहीं किया जाता है। 

अब बात कर लेते हैं फिल्म जवान की जिसमें नायक के तौर पर शाह रुख खान सिस्टम को चुनौती देते है। संवैधानिक व्यवस्थाओं पर चोट करते हैं। फिल्म में देश की स्वास्थ्य व्यवस्था बेहतर करने के लिए मंत्री का अपहरण करना जैसी घटनाएं हैं। क्या जूरी के सदस्यों ने जवान पर निर्णय करते हुए ये नहीं सोचा होगा कि जिस फिल्म की कहानी में संवैधानिक व्यवस्थाओं को चुनौती दी जा रही है उसके अभिनेता को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार कैसे दिया जा सकता है। ये फिल्म एक्शन थ्रिलर है जिसमें भरपूर हिंसा है। जनता को ये फिल्म खूब पसंद आई थी। फिल्म ने एक हजार करोड़ से अधिक का कारोबार किया था। उन चर्चाओं के दौरान जवान में शाह रुख खान की अभिनय की बहुत प्रशंसा हुई हो ऐसा याद नहीं पड़ता। जूरी के अध्यक्ष आशुतोष गोवारिकर और अन्य सदस्यों को शाह रुख खान के अभिनय में वो तत्त्व अवश्य दिखे होंगे जो अन्य समीक्षक भांप नहीं पाए। शाह रुख शानदार अभिनेता हैं, उन्होंने वर्षों तक अपने अभिनय से इसको साबित भी किया था। फिल्म स्वदेश और फिल्म हम तुम या यों कहें कि शाह रुख और सैफ के साथ दो संयोग हैं। जब सैफ को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार मिला था तब उनकी मां शर्मिला टैगोर केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड की अध्यक्ष थीं। शाह रुख को नेशनल अवार्ड मिला है तो जूरी के चेयरमैन आशुतोष गोवारिकर हैं जो स्वदेश के निर्देशक थे। यहां ये भी बताते चलें कि शाह रुख को पहली बार नेशनल अवार्ड मिला है। 

शाह रुख के साथ विक्रांत मैसी को 12वीं फेल के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार दिया जाएगा। 12वीं फेल के लिए विक्रांत मैसी का चयन अच्छा है। विक्रांत मैसी ने अपने अभिनय कौशल से सिनेप्रेमियों का ध्यान खींचा है। हाल ही में आई उनकी फिल्म साबरमती रिपोर्ट में भी उनका अभिनय शानदार है। 12वीं फेल को बेस्ट फीचर फिल्म का अवार्ड भी दिया जाएगा। वास्तविक जीवन की घटनाओं से प्रेरित इस फिल्म में सभी कलाकारों ने बेहतरीन अभिनय किया था। इस फिल्म के निर्देशक विधु विनोद चोपड़ा थे ने नेशनल अवार्ड की घोषणा के बाद इसको अपनी टीम के उत्कृष्ट काम को श्रेय दिया है। कम बजट में बनी इस फिल्म ने अपनी लागत से करीब तीन गुणा अधिक कारोबार किया था। नेशनल फिल्म अवार्ड में कारोबार कोई आधार नहीं होता लेकिन इस कलात्मक फिल्म ने बगैर किसी हिंसा या आयटम सांग के लोकप्रियता हासिल की थी। 

अभिनेत्री रानी मुखर्जी को भी पहली बार नेशनल अवार्ड मिलेगा। उनकी फिल्म मिसेज चटर्जी वर्सेस नार्वे के लिए उनको ये अवार्ड दिया जाएगा। संयोग देखिए कि ये फिल्म भी 12वीं फेल की तरह वास्तविक जीवन की घटना पर आधारित है। यह फिल्म एक बंगाली हिंदू अप्रवासी की कहानी है। इसमें भारतीय मूल्यों और पाश्चात्य मान्यताओं की टकराहट है। बंगाली महिला अपने बच्चों के साथ सोती है, अपने हाथ से खाना खिलाती है इस कारण नार्वे में उसको बच्चों से अलग कर दिया जाता है। वो कानूनी लड़ाई भी हारती है लेकिन उसका बच्चों को अपने पास लाने का संघर्ष जारी रहता है। उसी संघर्ष की कहानी है ये फिल्म। रानी मुखर्जी ने इसके पहले भी कई बेहतरीन फिल्में की हैं, जिनपर उनको राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार दिया जा सकता था। फिल्म ब्लैक और हिचकी में उनका अभिनय शानदार था। संभव है कि जिस वर्ष रानी की ये फिल्में आई हों उस वर्ष किसी और फिल्म में किसी और अभिनेत्री ने बेहतर अभिनय किया हो। ब्लैक और हिचकी दो ऐसी फिल्में हैं जो रानी मुखर्जी की अभिनय प्रतिभा के लिए और फिल्म की विषयवस्तु और ट्रीटमेंट के लिए याद किया जाता है। फिल्म हिचकी में रानी मुखर्जी ने जिस विषय पर काम किया था वो लगभग अनजाना था। ये ब्रैड कोहेन की आत्मकथा ‘फ्रंट आफ द क्लास, हाउ टौरेट सिंड्रोम मेड मनी टीचर आई नेवर हैड’ पर आधारित है। कहा जाता है कि इस फिल्म में अभिनय के पहले रानी घंटों तक इस सिंड्रोम को समझने का प्रयास करती थी। इस सिंड्रोम से ग्रस्त लोग कैसे व्यवहार करते हैं उसको जानने  में लंबा समय बिताया था। पर्दे पर ये मेहनत दिखी भी थी। 

द केरल स्टोरी के निर्देशक सुदीप्तो सेन को बेस्ट डायरेक्टर का अवार्ड दिया जाएगा। उन्होंने धारा के विपरीत जाकर फिल्म बनाई। द केरल स्टोरी को लेकर काफी विवाद हुए। मामला कोर्ट में भी गया। कई राज्यों में उसको अघोषित प्रतिबंध भी झेलना पड़ा। इस फिल्म ने भारतीय समाज में धीरे-धीरे जगह बनाते लव जिहाद के खतरों से दर्शकों को अवगत करवाया था। निर्देशक के तौर पर सुदीप्तो सेन ने इस फिल्म से अपनी पहचान स्थापित की। उनको पुरस्कार देना वैकल्पिक धारा की फिल्मों का स्वीकार है। एक और फिल्म ने ध्यान खींचा वो है हिंदी फिल्म कटहल। छोटे बजट की इस फिल्म की खूब चर्चा रही थी। कहानी और उसके ट्रीटमेंट को लेकर। ये फिल्म सामाजिक व्यवस्था पर व्यंग्य है। विधायक के घर में लगे कटहल के पेड़ से दो कटहल गायब हो जाते हैं। कटहल को ढूंढने के लिए पुलिस लगाई जाती है और फिर शुरू होती है कहानी जिसमें महात्वाकांक्षाओं की टकराहट है, जातिगत भेदभाव जैसे मुद्दे हैं। कुल मिलाकर अगर देखें तो 2023 के लिए घोषित राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों में हिंदी फिल्मों के कामों को प्रमुखता से रेखांकित किया गया है। 


Saturday, July 26, 2025

बूढ़ा गिद्ध क्यों पंख फैलाए


मई 2013 के अपने संपादकीय में 'हंस' पत्रिका के संपादक राजेंद्र यादव ने लिखा था, इधर हमारे अशोक वाजपेयी अपने रोजनामचे यानी कभी-कभार (साप्ताहिक स्तंभ) में अक्सर ही बताते रहते हैं कि उन्होंने देश-विदेश की किन गोष्ठियों में भाग लिया और उनकी तुलना में हिंदी कहां कहां और कितनी दरिद्र है। वस्तुत: यह सुनते सुनते मेरे कान पक गए हैं कि हम लोगों में क्या कमी है और हिंदी कहां कहां पिछड़ी हुई है। यह हिंदी वैशिंग मुझे मनोरोग जैसा लगने लगा है। मेरे दफ्तर में आनेवाले ज्यादातर लोग जब हिंदी कविता और कहानियों की कमजोरी और कमियों का रोना रोते हैं तो उसके पीछे भावना यही होती है कि देखिए इन कमियों और कमजोरियों को किस तरह अपनी महान रचनाओं के द्वारा मैं पूरा कर रहा हूं। इस टिप्पणी में उaन्होंने मेरा भी नाम लिया था। राजेंद्र यादव आगे कहते हैं कि यह अशोक और अनंत विजय जैसों की तरह ज्यादा पढ़ने और घूमने से उपजी हुई तकलीफ नहीं, बल्कि एक सुना सुनाया और आत्मप्रचार को सही सिद्ध करने का हथकंडा है। लगता है या तो ये लोग केवल अपने बारे में बोल सकते हैं या हिंदी को लेकर छाती माथा कूटने की लत में लिप्त हैं। कभी-कभी तो मुझे कहना पड़ता है कि हम हिंदुस्तानी या हिंदीवाले का रोदन बंद कीजिए और बताइए कि हमें क्या करना है। लगभग 12 वर्ष पहले यह संपादकीय लिखा गया था। समय का चक्र घूमा, राजेंद्र यादव का निधन हो गया। संजय सहाय हंस के संपादक बने। संपादक बदलने से पसंद नापसंद भी बदले। हंस पत्रिका अलग ही राह पर चल पड़ी। जिस हिंदी वैशिंग को राजेंद्र यादव मनोरोग जैसा मानते थे उसी अशोक वाजपेयी के हिंदी, हिंदी साहित्य और हिंदी समाज के वैशिंग को हंस के जुलाई अंक में छह पृष्ठों में जगह दी गई है। राजेंद्र यादव के निधन के बाद पत्रिका की नीतियों में ये विचलन अलग विमर्श की मांग करता है। इस पर चर्चा फिर कभी। अशोक वाजपेयी के लेख पर विचार करते हैं जिसका शीर्षक है, हिंदी समाज ने आधुनिक हिंदी साहित्य को खारिज कर दिया है? शीर्षक में जो प्रश्नवाचक चिह्न है उसका उत्तर अपने आलेख में खोजने का प्रयत्न किया है। अशोक वाजपेयी का यह लेख सामान्यीकरण और फतवेबाजी का काकटेल बनकर रह गया है। वाजपेयी को अपने द्वारा बनाई चलाई संस्थानों की विफलता और व्यर्थता का तीखा अहसास होता है। अपने इस एहसास में वे हिंदी विश्वविद्यालय को भी शामिल करते हैं जिसके वह पहले कुलपति थे। जिस हिंदी साहित्य की मृत्यु की संभावना अशोक वाजपेयी तलाश रहे हैं, उसी हिंदी साहित्य में एक कहावत है कि जैसा बोओगे वैसा काटोगे। हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति पद पर रहते हुए उसको दिल्ली से चलाना। मित्रों-परिचितों और उनके बेटे बेटियों को विश्वविद्यालय के विभिन्न पदों पर नियुक्त करना। वर्षों बाद उसकी विफलता और व्यर्थता के अहसास में ऊभ-चूभ करके प्रचार तो हासिल किया जा सकता है, लेकिन इससे पाठकों को विमर्श के लिए प्रेरित नहीं किया जा सकता है। साहित्य की मृत्यु की संभावना की जगह आशंका जताते तो उचित रहता। अशोक वाजपेयी हिंदी समाज की व्यापक समझ पर भी प्रश्न खड़े करते हैं। वह कहते हैं कि हिंदी समाज कितना पारंपरिक रहा, कितना आधुनिक हो पाया है, इस पर विस्तार से विचार करने की आवश्यकता है। इसके फौरन बाद अपना निष्कर्ष थोपते हैं कि हमारी व्यापक सामाजिक समझ जितनी आधुनिकता की अधकचरी है, उतनी परंपरा की भी। अब यहां अशोक जी से यह पूछा जाना चाहिए कि वह लंबे समय तक सरकार में रहे, कांग्रेसी मंत्रियों के करीबी रहे, संसाधनों से संपन्न रहे, लेकिन हिंदी समाज की समझ को विकसित करने के लिए क्या किया। दूसरों को कोसने से बेहतर होता है स्वयं का मूल्यांकन करना। यह देखना भी मनोरंजक है कि अशोक वाजपेयी आज के समय में वासुदेवशरण अग्रवाल और हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसे मेधा के लेखक ढूंढ रहे हैं। अशोक जी साहित्य में परंपरा की अंतर्ध्वनि भी सुनना चाहते हैं। लेकिन इसके कारण पर नहीं जाते हैं। हिंदी साहित्य में स्वाधीनता के पहले जो भारतीयता या हिंदू परंपरा थी उसको किस पीढ़ी ने बाधित किया। हिंदू या भारतीय परंपरा को खारिज करनेवाले कौन लोग थे। किन आलोचकों ने साहित्य में भारतीय परंपरा की जगह आयातित विचारों को तरजीह दी। हिंदी समाज से अगर भारतीयता की परंपरा नहीं संभली तो क्या हिंदी के साहित्यकारों ने उस पर उसी समय अंगुली उठाई। तब तो उसको प्रगतिशीलता बताकर जय-जयकार किया गया। परंपरा के अधकचरेपन को अशोक वाजपेयी हिंदुत्व के अधकचरेपन से भी जोड़ते हैं। यहां यह प्रश्न पूछा जाना चाहिए कि कैसे हिंदी समाज का मानस अधकचरेपन को स्वीकार करने के लिए तैयार किया गया। कैसे भारतेंदु से लेकर जयशंकर प्रसाद तक, कैसे मैथिलीशरण गुप्त से लेकर धर्मवीर भारती तक और कैसे दिनकर से लेकर शिवपूजन सहाय तक के भारतीय विचारों को हाशिए पर डालने का षड्यंत्र रचा गया। योजनाबद्ध तरीके से भारतीय विचारों पर मार्क्सवादी विचार लादे गए। आज अशोक वाजपेयी को हिंदी विभागों में विमर्श की चिंता सताती है, लेकिन जब वह कुलपति थे तो एक दो पत्रिका के प्रकाशन के अलावा हिंदी विभागों को उन्नत करने के लिए क्या किया? ये बताते तो उनकी साख बढ़ती, अन्यथा सारी बातें बुढ़भस सी प्रतीत हो रही हैं। अशोक स्वयं मानते हैं कि डेढ़ दो सदियों पहले उत्तर भारत में उच्च कोटि की सर्जनात्मकता थी। उसका श्रेष्ठ भारत का श्रेष्ठ था। वह साहित्य, चित्रकला, स्थापत्य, संगीत आदि में उत्कृष्टता अर्जित कर सका। यहां भी कारण पर नहीं जाते हैं और ऐसा लगता है कि उनकी अपनी कुंठा इस लेख पर हावी हो गई है। दिनकर बच्चन, पंत, प्रसाद, निराला की तरह अशोक वाजपेयी की कविता किसी भी पाठक को याद है। नहीं है। अशोक वाजपेयी को हिंदुत्व की विचारधारा से तकलीफ है। वह हिंदुत्व की विचाधारा को हिंदू धर्म चिंतन और अध्यात्म से अलग मानते हैं। दरअसल यहां भी वह इसी दोष के शिकार हो जाते हैं। अपने मन के भावों को लच्छेदार भाषा में पाठकों को भरमाते हैं। तर्क और तथ्य हों या न हों। पत्रकारिता को भी वह चालू मुहावरे में परिभाषित करने का प्रयास करते हैं। घिसे पिटे शब्द उठाकर लाते हैं। वह साहित्य के प्रतिपक्ष होने की कल्पना करते तो हैं, लेकिन अपने सक्रिय साहित्यिक जीवन को बिसरा देते हैं। संस्कृति मंत्रालय में रहते हुए साहित्य अकादमी का पुरस्कार लेना कौन सा प्रतिपक्ष रच रहा था। दरअसल अशोक वाजपेयी जिस हिंदी समाज के पतन को लेकर चिंतित हैं, कमोबेश उन प्रदेशों में भारतीय जनता पार्टी की सरकारें हैं। उनकी आलोचना करने के लिए उन्होंने साहित्य का मैदान चुना। राहुल गांधी की पैदल यात्रा में शामिल होकर वह अपनी प्रतिबद्धता सार्वजनिक कर ही चुके हैं। इसलिए अशोक वाजपेयी के इस लेख की आलोचनाओं को उसी आईने में सिर्फ देखा ही नहीं जाना चाहिए, बल्कि उसका मूल्यांकन भी किया जाना चाहिए। इस पूरे लेख को पढ़ने के बाद अशोक वाजपेयी के ही दशकों पूर्व अज्ञेय और पंत को निशाना बनाकर लिखे एक लेख का शीर्षक याद आ रहा है, बूढ़ा गिद्ध क्यों पंख फैलाये। उस लेख में वाजपेयी ने लिखा था कम से कम हिंदी में तो कवि के बुजुर्ग होने का सीधा मतलब अकसर अप्रसांगिक होना है।   


Saturday, July 19, 2025

हिंदी हिंदू हिन्दुस्तान पर चर्चा हो


महाराष्ट्र में भाषा को लेकर जब राज ठाकरे के कार्यकर्ताओं ने मारपीट आरंभ की तो उसने पूरे देश का ध्यान खींचा। हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के संबंध पर फिर से बहस आरंभ हुई। इस चर्चा में लोगों ने भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वययंसेवक संघ को खींचने का प्रयत्न किया। जबकि पिछले ग्यारह वर्षों से भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में चल रही सरकार ने भारतीय भाषाओं में बेहतर समन्वय किया। राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भारतीय भाषाओं को प्राथमिकता दी गई। मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा को बढ़ावा देने का उद्देश्य रखा गया। इसके अच्छे परिणाम भी मिलने लगे हैं। कुछ लोगों ने भाषा विवाद में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को घसीटने का प्रयत्न किया। हिंदी, हिंदू, हिन्दुस्तान के नारे को संघ का नारा और मंसूबा बताकर उसकी आलोचना शुरू की। यहां यह बताना उचित रहेगा कि संघ हमेशा से भारतीय भाषाओं को प्राथमिकता देने की बात करता रहा है। संघ के सरसंचालक रहे माधव सदाशिव गोलवलकर सभी भारतीय भाषाओं को राष्ट्रभाषा मानते थे। संघ अब भी यही मानता है। रही बात हिंदू और हिन्दुस्तान की तो उसको लेकर स्वाधीनता पूर्व के लेखन को देखा जाना चाहिए। कुछ दिनों पूर्व इस स्तंभ में मैथिलीशरण गुप्त की पुस्तक ‘हिंदू’ को आधार बनाकर उनके कवि मन की पड़ताल की गई थी। स्वाधीनता के पूर्व हिंदी में अधिकांश लेखकों का लेखन हिंदू और हिन्दुस्तान को केंद्र में रखकर ही किया गया है। प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना के बाद इससे जुड़े कम्युनिस्ट लेखकों ने पार्टी प्रतिबद्दता के आधार पर लेखन और मूल्यांकन आरंभ किया। परिणाम ये हुआ कि हिंदू, हिंदुस्तान और भारतीयता को ओझल करने का खेल आरंभ हुआ। एक एक करके हिंदी के दिग्गज लेखकों की उन रचनाओं को जनता से दूर किया गया जिसमें हिंदू और भारतीय को एक मानकर लेखन हुआ था। उन रचनाओं को योजनाबद्ध तरीके से हाशिए पर डाला गया जिनमें हिंदू और भारतीय को एक बताया गया था। उन रचनाओं की उपेक्षा की गई जिनमें मुसलमानों के लिए नसीहत थी। 

हिंदी के लेखकों को समग्रता में पढ़ने से उपरोक्त धारणा दृढ़ होती जाती है। प्रतापनारायण मिश्र को पढ़ें, भारतेन्दु को पढ़ें, बालकृष्ण भट्ट को पढ़ें, महावीर प्रसाद द्विवेदी को पढ़ें या फिर प्रेमचंद से लेकर निराला और शिवपूजन सहाय तक को पढ़ें, आपको हिंदू और भारतीय में अंतर नहीं दिखाई देगा। भारतेन्दु युग के लेखक जब ये लिख रहे थे तबतक तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक की स्थापना भी नहीं हुई थी। प्रताप नारायण मिश्र ने जब अपनी प्रसिद्ध कविता हिंदी हिन्दू हिन्दुस्तान लिखी थी तब तो गांधी जी भी राष्ट्रीय पटल पर नहीं आए थे। इस कविता का रचना वर्ष ठीक ठीक नहीं मालूम। उपलब्ध जानकारी के अनुसार प्रतापनारायण मिश्र का निधन सन् 1894 में हो गया था। जाहिर है कि उन्होंने ये कविता 1894 पहले लिखी होगी। अपनी इस कविता में उन्होंने लिखा था, चहहु जु सांचो निज कल्यान/तो सब मिलि भारत संतान/जपो निरंतर एक जबान/हिंदी हिंदू हिन्दुस्तान/तबहिं सुधिरिंहै जन्म निदान/तबहि भलो करिंहै भगवान/जब रहिहै निसिदिन यह ब्यान /हिंदी हिंदू हिन्दुस्तान। अब अगर संघ की स्थापना के तीन-चार दशक पहले ही हिंदी के ख्यात लेखक ऐसा लिख रहे थे तो उसको समझने की आवश्यकता है। हिंदी के पाठकों को बताने की भी। कुछ लोगों को लगता है कि इस तरह की बातें सार्वजनिक रूप से करना अनुचित है। क्या इस तरह के लेखन को छुपाना बौद्धिक बेईमानी नहीं है? क्या ये पाठकों के साथ छल नहीं है। ये तर्क दिया जाता है कि ये सब तो पुस्तकों में उपलब्ध है। बिल्कुल है। पर विचार इस बात पर होना चाहिए कि क्या ये सामाजिक और साहित्यिक विमर्श का हिस्सा है। क्या स्वाधीनता के बाद हिंदी के आलोचकों ने प्रतापनारायण मिश्र की इस रचना पर विचार किया, विमर्श का हिस्सा बनाया। क्या मैथिलीशरण गुप्त के हिंदू और भारत-भारती में लिखी गई पंक्तियों पर ईमानदारी से विचार हुआ। हिंदी के आलोचकों ने तो ये कह दिया कि मैथिलीशरण गुप्त ने हाली की कविता और शैली मुसद्दस से प्रेरित होकर ‘हिंदू’ लिखा। जब इस बात की पड़ताल की गई तो पता चला कि मैथिलीशरण गुप्त ने हाली के ‘मुसद्दस’ के उत्तर में ‘हिंदू’ लिखी थी। हाली ने अपने इस काव्य में मुसलमानों को सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और धार्मिक महानता की याद दिलाया था। उनके इस काव्य को पढ़ने के बाद मैथिलीशरण गुप्त ने हिंदुओं के गौरवशाली अतीत का स्मरण किया था। जो हिंदू नाम के पुस्तक में सामने आया था। क्या इसकी बात करना अनुचित है। क्या स्वाधीनता के बाद हिंदी आलोचना की बेईमानियों की ओर संकेत करना गुनाह है।

अगर भारतेन्दु हरिश्चंद्र के लेखों को देखते हैं तो वहां हिंदू और भारतीय में अंतर नहीं मिलता। जब वो भारतवर्ष की उन्नति की बात करते हैं तो उसमें स्पष्टता के साथ इस बात को स्वीकारते हैं, भाई हिंदुओं! तुम भी मत-मतांतर का आग्रह छोड़ो। आपस में प्रेम बढ़ाओ। इस महामंत्र का जाप करो, जो हिन्दुस्तान में रहे, किसी चाहे किसी रंग,जाति का क्यों न हो, वह हिंदू। हिंदू की सहायता करो। बंगाली, मराठा, पंजाबी, मदरासी, वैदिक, जैन, ब्राह्मणों, मुसलमानों सब एक का हाथ एक पकड़ो। इसी लेख में वो आक्रांताओं को भी चिन्हित करते हैं और मुसलमानों से भी कहते हैं, मुसलमान भाइयों को भी उचित है कि इस हिन्दुस्तान में बसकर वो हिंदुओं को नीचा समझना छोड़ दें। ठीक भाइयों की भांति हिंदुओं से बर्ताव करें, ऐसी बात जो हिंदुओं का दिल दुखानेवाली हो वो ना करें।  इस तरह की बातों पर वो विमर्श खड़ा करते हैं। दरअसल स्वाधीनता के पूर्व और उन्नीसवीं शताबदी के अंतिम दशकों में इस तरह की बौद्धिक बातें खूब हो रही थीं। हिंदी-उर्दू को लेकर भी बौद्धिक विमर्श हो रहा था।रचना का उत्तर रचना से दिया जा रहा था। लेखक खुलकर अपनी बात लिख-बोल रहे थे। प्रश्न यही है कि स्वाधीनता के बाद ऐसा क्या हो गया कि हिंदू संस्कृति और हिंदू सभ्यता की बातें कम होने लगीं। भारतीयता और भारतीय शिक्षण पद्धति को छोड़कर हमारा बौद्धिक समाज पश्चिम की ओर उन्मुख होने लगा। बौद्धिक जगत में कथित गंगा-जमुनी तहजीब के सिद्धांत को गाढ़ा करने का प्रयास होने लगा। हिंदी में तो भारतेन्दु युग से लेकर द्विवेदी युग तक हिंदू होने पर लेखकों को गर्व होता था। ये गर्व उनके लेखन में झलकता भी था। दो उदाहरण तो उपर ही दिए गए हैं। इस तरह के दर्जनों उदाहरण दिए जा सकते हैं। भारतीय लेखन से भारतीयता या हिंदू विमर्श को मलिन करने के षडयंत्र के कारण बौद्धिक बेईमानी का एक अजीब सा वातावरण बना। इसने अकादमिक जगत को भी अपनी चपेट में लिया। हिंदू की बात करनेवालों की उपेक्षा की जाने लगी। हाल के वर्षों में देखें तो उस उपेक्षा का दंश नरेन्द्र कोहली जैसे विपुल लेखन करनेवाले साहित्यकार को भी झेलना पड़ा। आज आवश्यकता इस बात की है कि स्वाधीनता पूर्व जिस तरह का हिंदू लेखन हो रहा था उसपर विमर्श हो और उस विमर्श को समाज जीवन के केंद्र में लाया जाए। अकादमिक जगत में कार्य कर रहे शोधार्थियों को भी इस दिशा में विचार करना चाहिए। ये अतीत की बात नहीं है बल्कि अपनी परंपरा और धरोहर से एकाकार होने का उपक्रम होगा। 

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Saturday, July 12, 2025

और फिल्मिस्तान बिक गया...


हिंदी फिल्मों में जब स्टूडियो युग का आरंभ हुआ तो न्यू थिएटर्स और प्रभात स्टूडियो ने कई फिल्में बनाई। अनेक फिल्मी प्रतिभाओं को तराश कर दर्शकों के सामने पेश किया। यह कालखंड 1935 से 1955 तक का रहा। एक और स्टूडियो की स्थापना हुई थी जिसका नाम था बंबई टाकीज। हिमांशु राय और देविका रानी ने मिलकर इसे स्थापित किया था। विदेश से वापस भारत लौटे हिमांशु राय और देविका रानी ने बंबई टाकीज को प्रोफेशनल तरीके से स्थापित ही नहीं किया उसी ढंग से चलाया भी। स्टूडियो की स्थापना के लिए हिमांशु राय ने फरवरी 1934 में अपनी कंपनी के 100 रुपए के शेयर जारी किए थे। 25 हजार शेयर बेचकर जुटाई पूंजी से बंबई टाकीज की स्थापना की गई। कंपनी को चलाने के लिए एक बोर्ड का गठन हुआ। इस स्टूडियो से बनी पहली कुछ फिल्में असफल हुईं। बंबई टाकीज ने धीरे-धीरे भारतीय दर्शकों की पसंद के हिसाब से फिल्में बनानी आरंभ की और सफलता मिलने लगी। हिमांशु राय ने देशभर से कई युवाओं को फिल्म से जोड़ा। इन युवाओं ने कालांतर में हिंदी सिनेमा को अपनी प्रतिभा और मेहनत से समृद्ध किया। इनमें शशधर मुखर्जी, सेवक वाचा, आर के परीजा, अशोक कुमार आदि प्रमुख हैं। अशोक कुमार को तो हिमांशु राय ने लैब सहायक से सुपरस्टार बना दिया। वो फिल्मों में अभिनेता का काम नहीं करना चाहते थे लेकिन राय के दबाव में अभिनेता बने। ये बेहद ही दिलचस्प किस्सा है जिसके बारे में फिर कभी चर्चा होगी। 

स्टूडियो की स्थापना के करीब 6 वर्ष बाद हिमांशु राय के असामयिक निधन ने बंबई टाकीज की नींव हिला दी थी। उसके बाद इस कंपनी के शेयरधारकों और हिमांशु राय के प्रिय कलाकारों में से कुछ ने मिलकर देविका रानी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। इस मोर्चे का नेतृत्व शशधर मुखर्जी कर रहे थे। शशधर मुखर्जी हिमांशु राय के जीवनकाल में ही बंबई टाकीज में महत्वपूर्ण हो गए थे। कुछ फिल्म इतिहासकारों का मानना है कि देविका रानी के व्यवहार और उनके अपने पसंदीदा लोगों को बढ़ाने के निर्णयों से शशधर मुखर्जी आहत थे। हिमांशु राय के निधन के बाद बंबई टाकीज में जो घटा वो एक फिल्मी कहानी है। शशधर मुखर्जी चाहते थे कि बंबई टाकीज उनकी मर्जी से चले और देविका रानी उनके हिसाब से निर्णय लें। ये देविका रानी को स्वेकार्य नहीं था। वो अपनी मर्जी से निर्णय ले रही थीं। अमिय मुखर्जी उनको सहयोग कर रहे थे। उस दौर की पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित लेखों से संकेत मिलता है बंबई टाकिज में कुछ लोगों को देविका रानी के महिला होने के कारण उनको संस्था प्रमुख मानने और उनसे निर्देश लेने में दिक्कत होती थी। चूंकि बंबई टाकीज में होनेवाले प्रमुख निर्णयों को कंपनी का बोर्ड तय करता था। इस कारण जब देविका रानी ने अपने निर्णयों को लागू करना आरंभ किया तो कारपोरेट दांव पेच भी चले गए। शेयरधारकों का बहुमत जुटाने के लिए भी देविका रानी ने भी प्रयास किया। इस काम में उनको सहयोग मिला केशवलाल का। देविका प्रतिदिन सुबह आठ बजे कार्यलय पहुंच जातीं और देर रात तक वहीं रहती। शशधर मुखर्जी समेत अन्य लोगों के निर्णयों की समीक्षा होने लगी थी। देविका रानी के दखल के बाद शशधर मुखर्जी आदि असहज होने लगे थे। शशधर मुखर्जी प्रोडक्शन का पूरा काम संभालते थे लेकिन देविका रानी ने इस विभाग में भी दखल देना आरंभ कर दिया था। फिल्मों की स्क्रिप्ट से लेकर उसके प्रोडक्शन तक हर विभाग पर वो नजर ही नहीं रखती बल्कि अपने निर्णयों को लागू भी करवाने लगीं। 

उधर बंबई टाकीज के शेयरों को लेकर मामला कोर्ट कचहरी तक गया। बोर्ड में देविका रानी का बहुमत होने के कारण उनको अपने निर्णयों को लागू करवाने में परेशानी नहीं हुई। बंबई टाकीज के इतिहास में जून 1942 में हुई बोर्ड मीटिंग बहुत महत्वपूर्ण है। इस दिन बोर्ड ने ये फैसला लिया कि बंबई टाकीज में देविका रानी प्रोडक्शन कंट्रोलर होंगी और शशधर मुखर्जी प्रोड्यूसर होंगे। देविका रानी को ये अधिकार दे दिया गया कि वो बंबई टाकीज की हर फिल्म में उनका दखल होगा। इसके पहले ये व्यवस्था थी कि एक फिल्म शशधर मुखर्जी प्रोड्यूस करेंगे और उसके बाद देविका रानी फिर शशधर। बोर्ड के निर्णय के बाद देविका रानी बंबई टाकीज में उस पद पर पहुंच जगई जहां हिमांशु राय होते थे। इन दो वर्षों में बंबई टाकीज में स्पष्ट रूप से दो गुट बन गए थे। एक गुट में देविका रानी और अमिय मुखर्जी थे और दूसरे में शशधर मुखर्जी, अशोक कुमार, राय बहादुर चुन्नी लाल, ज्ञान मुखर्जी आदि प्रमुख थे। बंबई टाकीज की इसी गुटबाजी और कारपोरेट वार ने फिल्मिस्तान की नींव डाली। शशधर मुखर्जी, अशोक कुमार, राय बहादुर चुन्नीलाल और ज्ञान मुखर्जी ने बंबई टाकीज से इस्तीफा दे दिया जिसे देविका रानी से फौरन स्वीकार कर लिया। फिल्मिस्तान की स्थापना बंबई (अब मुंबई) के गोरेगांव में स्थापित की गई। अशोक कुमार ने बंबई टाकीज छोड़ा था तब उनका मासिक वेतन एक हजार रु था। ये वो दौर था जब फिल्म अभिनेता और अन्य मासिक वेतन पर स्टूडियो में नौकरी करते थे। फिल्मिस्तान ने अशोक कुमार को रु 2000 प्रतिमाह देना तय किया था।  

फिल्मिस्तान आरंभ हुआ तो कंपनी ने देविका रानी को भी इसके उद्घाटन समारोह का आमंत्रण भेजा। देविका रानी इस समारोह में नहीं गई लेकिन उन्होंने जो पत्र लिखा उसमें खुद को मिसेज हिमांशु राय बताते हुए अपनी व्यस्तता का हवाला दिया था। फिल्मिस्तान ने जो पहली फिल्म बनाई उसका नाम था चल चल रे नौजवान। उसके बाद भी फिल्मिस्तान ने कई फिल्में बनाई। थोड़े दिनों तक तो उत्साह रहा लेकिन फिर इसके संस्थापकों को एहसास होने लगा था कि फिल्म कंपनी चलाना आसान नहीं। इसके लिए काफी मेहनत की आवश्यकता होती है। संसाधान जुटाना एक बड़ी समस्या थी। पांच वर्ष होते होते फिल्मिस्तान के संस्थापकों के बीच मतभेद उभरने लगे थे। उधर बंबई टाकीज भी देविका रानी के छोड़ने के बाद सही नहीं चल रहा था। अशोक कुमार ने बंबई टाकीज में निवेश किया और उसका आंशिक मालिकाना हक ले लिया। पांच वर्षों बाद जब अशोक कुमार ने बंबई टाकीज में कदम रखा तो हिमांशु राय की अर्ध प्रतिमा (बस्ट) को देखकर भावुक हो गए थे और उसको गले लगा लिया था। कहना न होगा कि फिल्मिस्तान की स्थापना फिल्म जगत के पहले कारपोर्ट वार के परिणामस्वरूप हुई थी। मुंबई के गोरेगांव में करीब 5 एकड़ में फैले इस स्टूडियो में कई अच्छी फिल्में भी बनीं जिनमें सरगम, मजदूर, शिकारी दो भाई आदि प्रमुख हैं। बाद में फिल्मिस्तान का मालिकाना हक बदला। फिल्में बनती रहीं। हाल के कुछ वर्षों में फिल्मिस्तान में गाने या टीवी सीरियल आदि शूट होने लगे थे। हाल में फिल्मिस्तान के मालिकों ने इसको बेच दिया। खबरों के मुताबिक इसकी जगह अब अपार्टमेंट बनाए जाएंगे। आरे के स्टूडियो के बाद फिल्मिस्तान का बिकना भारतीय सिनेमा के बदलते स्वरूप का संकेत है। लेकिन जब भी हिंदी फिल्मों के इतिहास पर बात होगी तो देविका रानी की बात होगी और देविका रानी के साथ साथ फिल्मितान का जिक्र भी होगा। 

Thursday, July 10, 2025

व्याकुल मन और संवेदना की धुन


किसे पता था कि अपराध कथाओं पर सफल फिल्म बनाने वाला एक निर्देशक दर्द और संवेदना के तार को ऐसे छुएगा कि उसकी फिल्में क्लासिक और कल्ट फिल्म बन जाएंगी। मात्र 39 वर्ष की आयु मिली लेकिन उस लघु अवधि में हिंदी सिनेमा को अपनी कला कौशल से झंकृत कर देने वाले कलाकार का नाम है गुरुदत्त। गुरुदत्त की अपराध कथाओं पर आधारित सफल फिल्मों, बाजी, जाल, बाज और सैलाब, की चर्चा कम होती है। गुरुदत्त को हिंदी सिनेमा में इन्हीं फिल्मों से पहचान मिली थी। गुरुदत्त ने ज्ञान मुखर्जी के सहायक के तौर पर कार्य करना आरंभ किया था। माना जाता है कि हिंदी फिल्मों में ज्ञान मुखर्जी अपराध कथाओं पर आधारित फिल्मों के पहले कुछ निर्देशकों में से एक थे। अब उन कारणों की चर्चा करना आवश्यक प्रतीत होता है कि एक अपराध कथाओं पर फिल्म निर्देशित करनेवाला सिद्धहस्त निर्देशक कैसे इतनी संवेदनशील फिल्मों को कैसे साध सके। गुरुदत्त के शताब्दी वर्ष में जब हम उनकी कलात्मकता पर बात करते हैं तो उनके साथ के लोगों की बात करनी चाहिए जिनके साथ ने गुरुदत्त को महान बनाया। कलाकार गुरुदत्त की शख्सियत तीन व्यक्तियों के बिना पूरी नहीं होती है। यै हैं गीता दत्त, वहीदा रहमान और अबरार अल्वी। जब गुरुदत्त अपनी पहली फिल्म बाजी निर्देशित कर रहे थे तो वो गीता राय को दिल दे बैठे। गुरुदत्त शादी के लिए जल्दी कर रहे थे। दोनों में महीनों तक रोमांस चला और शादी हुई। गीता दत्त के बाद उनकी जिंदगी में वहीदा रहमान का प्रवेश होता है । यहीं से आरंभ होता है प्यार से असफल होकर स्वयं से दूर भागने की उनकी प्रवृत्ति। 

जब प्यासा फिल्म बन रही थी तो इस बात की चर्चा थी कि इसकी कहानी गुरुदत्त की निजी जिंदगी पर आधारित है। पर ये कहानी सिर्फ गुरुदत्त की कहानी नहीं है। इसमें लेखक अबरार अल्वी की जिंदगी की घटनाएं भी शामिल हैं। ये भी कहा जाता है कि इस फिल्म की कहानी गुरुदत्त ने लिखी थी। पर अबरार अल्वी ने बताया था कि गुरुदत्त ने सिर्फ छह पन्ने की कहानी लिखी थी और उसमें नायिका सिर्फ मीना थी। गुलाबो का चरित्र तो अबरार अल्वी ने जोड़ा। दरअसल जब अबरार मुंबई आए थे तो वो एक वेश्या के पास जाते थे। उस वेश्या के साथ के उनके अनुभव और गुरुदत्त की प्रेमिका रही मीना के किस्से को जोड़कर प्यासा की कहानी बुनी गई थी। गुरुदत्त की एक और अदा थी कि वो किसी चीज से बहुत जल्दी संतुष्ट नहीं होते थे। कई बार तो उन्होंने कई रील शूट होने के बाद फिल्म को रद करके नए सिरे से शूट किया। प्यासा फिल्म के कई रील शूट हो चुके थे। गुरुदत्त को अपना रोल पसंद नहीं आ रहा था। उन्होंने सोचा कि इस भूमिका के लिए दिलीप कुमार बेहतर अभिनेता हैं। वो दिलीप साहब के पास पहुंच गए। दिलीप कुमार ने कई शर्तें रखीं। गुरुदत्त ने सभी मान लीं। दिलीप कुमार ने डेट्स दीं लेकिन तय समय पर स्टूडियो के सेट पर नहीं पहुंचे। घंटों की प्रतीक्षा के बाद गुरुदत्त ने फिर से मेकअप किया और फिल्म पूरी की। फिल्म के प्रीमियर पर दिलीप कुमार, निर्देशक के आसिफ और बी आर चोपड़ा के साथ पहुंचे थे। फिल्म समाप्त होने के बाद दिलीप कुमार ने बी आर चोपड़ा से कहा, थैंक गाड, मैं बाल-बाल बच गया, इस फिल्म की भूमिका करता तो खूब हंसी उड़ती। ये अलग बात है कि बाद के दिनों में दिलीप कुमार को प्यासा में काम नहीं करने का अफसोस रहा। प्यासा लोगों को खूब पसंद आई थी और फिल्म जबरदस्त हिट रही। 

प्यासा के बाद गुरुदत्त ने फिल्म कागज के फूल बनाई। इसमें भी वो अशोक कुमार को लेना चाहते थे। फिल्म बाजी के समय से ही गुरुदत्त की इच्छा थी कि वो अशोक कुमार को डायरेक्ट करें लेकिन कई तरह की समस्याओं के कारण अशोक कुमार फिल्म नहीं कर पाए। गुरुदत्त ने चेतन आनंद से संपर्क किया। उन्होंने इतने पैसे मांग लिए कि गुरुदत्त को फिर से खुद ही मेकअप करवाकर फिल्म करनी पड़ी। फिल्म को दर्शकों ने नकार दिया। इस फिल्म में भी गुरुदत्त ने नायक की पीड़ा को उभारने का प्रयास किया लेकिन वो दर्शकों के गले नहीं उतरी। प्यासा का नायक बेहद गरीब था उसके दुख को दर्शकों ने स्वीकार कर लिया। कागज के फूल के नायक की अमीरी उसके दुख से दर्शकों को जोड़ नहीं पाई। एक अमीर आदमी का पारिवारिक दुख दर्शकों के गले नहीं उतर सका। फिल्म बेहद कलात्मक बनी पर भावनात्मक संघर्ष का चित्रण कमजोर माना गया। इस फिल्म की असफलता ने गुरुदत्त को अंदर से तोड़ दिया। तबतक उनकी पारिवारिक जिंदगी संघर्ष के रपटीली पथ पर आ चुकी थी। शराब की आदत बढ़ने लगी थी। वहीदा रहमान के साथ उनके संबंधों की चर्चा चरम पर थी। इस दौर में ही उन्होंने फिल्म चौदहवीं का चांद बनाने की सोची। फिल्म बन गई। इसके प्रदर्शन में बाधा खड़ी हो गई। ये फिल्म मुस्लिम समाज पर बनी है। देश का विभाजन हो चुका था। फिल्म डिस्ट्रीव्यूटर्स का मानना था कि विभाजन के बाद मुस्लिम समाज का बड़ा हिस्सा पाकिस्तान चला गया था। मुस्लिम समाज की कहानियों का बाजार सिकुड़ गया था। दरवाजा और चांदनी चौक जैसी फिल्में फ्लाप हो गई थीं। किसी तरह गुरुदत्त ने डिस्ट्रीव्यूटर्स को तैयार किया। फिल्म जबरदस्त हिट रही। 

इसके बाद गुरुदत्त ने साहब बीवी और गुलाम बनाई। मीना कुमारी से छोटी बहू का ऐसा अभिनय करवाया कि उनकी भूमिका अमर हो गई। इस फिल्म के दौरान भी अनेक बधाएं आईं। ऐसा प्रतीत होता है कि जिंदगी और कारोबार की बाधाएं और उससे उपजे दर्द से गुरुदत्त को बेहतर करने की उर्जा मिलती थी। वो व्याकुल मन से अपने दर्द को रूपहले पर्दे पर इस तरह से पेश करते थे कि दर्शक उसके मोहपाश में बंधता चला जाता था। कागज के फूल भले ही फ्लाप रही हो लेकिन आज उसकी कलात्मकता भारतीय फिल्म को गर्व का अवसर देती है। गुरुदत्त ने अपनी छोटी सी जिंदगी में हिंदी सिनेमा को वो ऊंचाई दी जहां पहुंचना किसी भी निर्देशक के लिए एक सपने जैसा है। फिल्मकार गुरुदत्त में बेहतर करने की जो ललक थी वो उनको हमेशा व्याकुल कर देती थी। व्याकुलता और दर्द ने असमय गुरुदत्त की जीवन लीला समाप्त कर दी।