लंबे समय तक कई अंग्रेजी अखबारों के संपादक रहे एस निहाल सिंह की संस्मरणात्मक आत्मकथा- इंक इन माई वेन- अ लाइफ इन जर्नलिज्म। उसमें देश पर इंदिरा गांधी द्वारा थोपे गए इमरजेंसी पर लिखते हुए निहाल सिंह ने जयप्रकाश नारायण को रिलक्टेंट रिवोल्यूशनरी (अनिच्छुक क्रांतिकारी)कहा है । एक लेखक को शब्दों के चयन में सावधान रहना चाहिए और अगर वो दो दशक से ज्यादा समय तक संपादक रहा है तो यह अपेक्षा और बढ़ जाती है । कोई भी क्रांतिकारी अनिच्छुक नहीं हो सकता । क्रांति का पथ तो वो खुद चुनता है तो फिर अनिच्छा कहां से । आगे निहाल सिंह लिखते हैं कि अगर इंदिरा गांधी बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री को हटाने और बिहार विधानसभा को भंग करने की मांग मान लेती तो जेपी संतुष्ट हो जाते । मुझे लगता है कि निहाल सिंह ने जयप्रकाश नारायण के आंदोलन और उनके विजन को बेहद हल्के ढंग से लिया है और दिल्ली में बैठकर अपनी राय बनाई है । जयप्रकाश नारायण को समझने की भूल अक्सर लोग कर जाते हैं । निहाल सिंह भी उसी दोष के शिकार हो गए हैं । ना तो उन्होंने संपूर्ण क्रांति आंदोन को समझा और ना ही जयप्रकाश के योगदान को । किस तरह से गुजरात के विद्यार्थियों ने उन्हें अहमदाबाद बुलाया था और उनसे मार्गदर्शन की अपील की थी ये सर्वविदित तथ्य है । निहाल सिंह की राय उसी तरह की है कि बगैर दिल्ली के रामलीला मैदान में अन्ना हजारे के अनशन के मूड को महसूस किए लोग अन्ना पर टिप्पणी कर रहे हैं । जयप्रकाश नारायण के बारे में निहाल सिंह की चाहे जो राय हो लेकिन गांधी ने कहा था कि - जयप्रकाश एक फकीर हैं जो अपने सपनों में खोए रहते हैं । इसके अलावा 25 जून 1946 को लिखा कि मैं जयप्रकाश की पूजा करता हूं । इसके बाद कुछ कहने को शेष रहता नहीं है ।
लेखक मोरार जी देसाई से काफी प्रभावित लगते हैं । जब भी उनका कोई प्रसंग उठता है तो लेखक यह बताना नहीं भूलते हैं कि मोरार जी भाई बेहद शुद्धतावादी थे । जब वो प्रधानमंत्री थे तो उस वक्त का एक दिलचस्प प्रसंग है - उस वक्त के विदेश मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने प्रधानमंत्री के सामने ये प्रस्ताव रखा कि विजयलक्ष्मी पंडित की बेटी और लेखिका नयनतारा सहगल को रोम में राजदूत बना दिया जाए । लेकिन मोरार जी भाई ने कहा कि राजदूत बनने से पहले नयनतारा को मंगत राय से शादी करनी होगी । मंगत राय और नयनतारा उस वक्त लिव इन रिलेशनशिप में थे । नयनतारा ने यह बात मान ली लेकिन दुर्भाग्य से मोरार जी भाई की सरकार ही गिर गई और वो राजदूत बन ना सकी । लेकिन 27 अगस्त 1978 को रविवार के अंक में संतोष भारतीय का एक लेख छपा था जिसमें लिखा गया था- मोरार जी भाई का इतिहास एक अक्खड़ वयक्तिवादी और परंपरावादी शुद्धता के आवरण को ओढे हुए एक जिद्दी आदमी का इतिहास रहा है । संतोष भारतीय ने उस लेख में तर्कों के आधार पर अपनी बात साबित भी की है जबकि निहाल सिंह टिप्पणी करके निकल जाते हैं । शायद निहाल सिंह को यह मालूम हो कि जब जयप्रकाश नारायण देश के अग्रिम पंक्ति के नेताओं में शुमार हो चुके थे उस वक्त मोरार जी भाई अंग्रेजी सरकार में डिप्टी कलेक्टर थे । मोरार जी देसाई से ऑबसेस्ड लगते हैं । क्यों इस बात के संकेत भी इस किताब में हैं लेकिन वो अवांतर प्रसंग है ।
एस निहाल सिंह- पत्रकारिता का एक ऐसा प्रतिष्ठत नाम, एक ऐसा बड़ा संपादक जिसने लंबे समय तक देस विदेश में पत्रकारिता की । कईयों का कहना है कि उनके लिखे को पढ़कर उन्होंने पत्रकारिता सीखी । अपने छात्र जीवन के दौरान मैंने भी द स्टेट्समैन में निहाल सिंह के कई लेख पढ़े थे । स्कूल में हमें यह बताया जाता था कि अगर अंग्रेजी अच्छी करनी है तो स्टेट्समैन के लेख पढ़ा करो । उस जमाने से एस निहाल सिंह और उनके लेखन को लेकर मन में एक इज्जत थी । इमरजेंसी के दौरान उनके और उनके अखबार के स्टैंड के बारे में पढ़कर ये इज्जत और बढ़ गई थी । उनका कुछ भी लिखा हुलसकर पढता था । मैंने निहाल सिंह की किताब इंक इन माई वेन- अ लाइफ इन जर्नलिज्म इस उम्मीद से पढ़नी शुरू की कि उन्होंने आजादी के बाद के देश की राजनीति को परखा होगा और कुछ नए तरीके से उस कालखंड को व्याख्यायित भी किया होगा । पाठकों की भी यही अपेक्षा रही होगी कि निहाल सिंह देश की राजनीति के अपने कुछ ऐसे अनुभवों को लिखेंगे जो अबतक सामने नहीं आए थे । लेकिन पाठकों को इस किताब से घोर निराशा होगी, मुझे भी हुई ।
निहाल सिंह ने अपनी इस किताब को संस्मरणात्मक आत्मकथा बना दिया है जिस वजह से इसका कोई निश्चित स्वरूप नहीं बन पाया है । इस किताब के बहुत से पन्ने उन्होंने अपने, अपने परिवार और अपने परिवेश के बारे में निहायत गैरजरूरी विवरणों से भर दिया है । अब पाठकों को इन बातों से क्या लेना देना कि आपका पहला सेक्स एनकाउंटर किससे हुआ और उसने आपके अंगों की तुलना किन प्रतीकों से की । पाठक की इस बात में क्यों रुचि होगी लेखक बचपन में इतने खूबसूरत थे कि स्कूल के बाहर आइसक्रीम का ठेला लगानेवाला उनको गुलाब (द रोज) कहकर पुकारता था । इस तरह की कई बातें इस किताब में भरी पड़ी है। तकरीबन तीन सौ पन्नों की इस किताब में लगभग डेढ सौ पन्नों में निहाल सिंह के निहायत ही निजी और पारिवारिक प्रसंग हैं । जिसमें उनकी अमेरिका यात्रा, मास्को प्रवास के संस्मरण, खलीज टाइम्स के दौरान उनका रहना सहना, दिल्ली की पार्टियों में शराब और शबाब के किस्से आदि है । किताब के प्राक्कथन में निहाल सिंह लिखते हैं कि कोई भी व्यक्ति जब अपने बारे में लिखता है तो उसे यह विश्वास होता है कि उसका लेखन उसके परिचितों और मित्रों से अलग एक बृहत्तर समुदाय के लिए रुचिकर होगा । इसके अलावा आत्मकथा लेखन में एक और बात होती है कि लेखक जीवन और मृत्यु के अपने दर्शन के बारे में भी अपना मत प्रकट करता है । हो सकता है कि निहाल सिंह ये सोच रहे हों कि उनकी इस आत्मकथा में वृहत्तर पाठक वर्ग की रुचि होगी लेकिन उनकी इस सोच को अगर वस्तुनिष्ठता की कसौटी पर कसेंगे तो कम से कम आधी सोच गलत साबित होती है ।
लेकिन ऐसा नहीं है कि निहाल सिंह की इस आत्मकथा को पूरे तौर पर खारिज कर दिया जाए । जब भी निहाल सिंह अपनी व्यक्तिगत चीजें छोड़कर राजनीति और राजनीतिक घटनाक्रम पर आते हैं तो किताब पटरी पर लौटती नजर आती है । इमरजेंसी की घटनाओं पर निहाल सिंह ने विस्तार से लगभग एक पूरा अध्याय लिखा है । इस अध्याय में निहाल सिंह ने इंदिरा गांधी के बारे में उनके स्वभाव के बारे में कई जगहों पर बेहद संजीदगी से टिप्पणी की है । इंदिरा गांधी के साथ की अपनी मुलाकात का जिक्र भी किया है । जिक्र तो अतुल्य घोष, एस के पाटिल से लेकर बाबू जगजीवन राम तक का है । लेकिन निहाल सिंह की इस किताब में दो अध्याय अहम हैं - द इमरजेंसी और इंदिरा'ज पॉलिटिकल रिबर्थ । अहम इस वजह से कि इसमें लेखक के अपने कुछ विचार सामने आते हैं । इसके अलावा जो अन्य अध्याय है उसमें सामान्य बातें हैं । दूसरी जो कमजोरी इस किताब की है वो कि इसके लेखों में तारतम्यता का अभाव है । लंबे समय तक संपादक रहे निहाल सिंह की किताब को संपादन की सख्त आवश्यकता थी क्योंकि कई जगह घटनाएं गड्ड-मड्ड हैं, आगे-पीछे आती जाती है, जो पाठकों को कंफ्यूज करती है ।