आज से तकरीबन पचानवे साल पहले 1 जुलाई 1917 को महात्मा गांधी ने लिखा था- चौथी प्रवृत्ति हिंदी भाषा के प्रचार की है । जो स्थान इस समय अनुचित ढंग से अंग्रेजी भोग रही है वह स्थान हिंदी को मिलना चाहिए । इस विषय में मतभेद का कोई कारण ना होने पर भी मतभेद होना दुर्भाग्य की बात है । शिक्षित वर्ग को एक भाषा अवश्य चाहिए और वह हिंदी ही हो सकती है । हिंदी के द्वारा करोड़ों व्यक्तियों में आसानी के काम किया जा सकता है । इसलिए उसे उचित स्थान मिलने में जितनी देर हो रही है, उतना ही देश का नुकसान हो रहा है । (सं. गां. वा, खंड 13, पृ. 425)
गांधी के इस वक्तव्य के साढे नौ दशक बाद भी हम अपनी भाषाई अस्मिता को लेकर सजग नहीं हो पा रहे हैं । वैश्वीकरण और बाजारवाद के प्रभाव में आज हिंदी पहले से ज्यादा संक्रमण काल से गुजर रही है । आज हिंदी के साथ अंग्रेजी के शब्दों का ऐसा घालमेल शुरू हो गया है जिससे हम अपनी भाषा को दूषित करने में जाने अनजाने सहयोग कर रहे हैं । हम दिल मांगे मोर कहने लगे हैं । किसी भी भाषा के शब्दों के प्रयोग में कोई बुराई नहीं है । यह भी तय है कि हिंदी इतनी कमजोर भी नहीं है कि दूसरी भाषा के शब्द उसमें समाहित होकर उसको खत्म कर दे । लेकिन जब दूसरी भाषा के शब्द हिंदी के मूल शब्दों को विस्थापित करने लगे तो खतरे की घंटी बजने लगती है । हिंदी को अगर हम वैश्विक संदर्भों के परिप्रेक्ष्य में देखते हैं तो वो पहले से ज्यादा डरी और सहमी नजर आती है । वैश्वीकरण के प्रभाव और बाजारवाद के दबाव के बावजूद हिंदी का फैलाव तो हुआ है लेकिन उसका प्रयोग कम होने लगा है जो चिंता की बात है । यहां यह सवाल उठता है कि हिंदी के कर्ता-धर्ता या फिर जिनके मजबूत कंधों पर हिंदी को आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी है वो उसकी दशा और दिशा को लेकर कितने संजीदा हैं । अगर हम इस सवाल से टकराते हैं तो हमें साफ तौर पर यह नजर आता है कि हमारी भाषा हिंदी को हिंदी के दिग्गजों से अपेक्षित महत्व नहीं मिलने की वजह से वो सहमी और डरी नजर आती है और दिल मांगे मोर कहने वालों की संख्या में लगातार इजाफा होता जा रहा है । अंग्रेजी और अन्य भाषाओं द्वारा हिंदी की भाषाई अस्मिता पर हो रहे इस मौन हमले को लेकर हिंदी समाज का चिंतित नहीं होना ही खतरनाक है ।
हिंदी के प्रचार प्रसार के लिए कई सरकारी और गैर सरकारी संस्थाएं काम कर रही हैं । केंद्रीय हिंदी संस्थान से लेकर महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय तक । सरकारी स्तर पर भी हिंदी के फैलाव को लेकर गाहे बगाहे गंभीर प्रयास होते हैं बहुधा रस्म अदायगी होती है । आज आवश्यकता राजसत्ता की भाषा में आमूलचूल बदलाव लाने की । इसके लिए सरकार के स्तर पर मजबूत इच्छाशक्ति और गंभीरता से प्रयास होना जरूरी है । हिंदी आज भारत में करीब साठ करोड़ लोगों की भाषा है, देश की राजभाषा है लेकिन अब भी वो देश के सत्ता प्रतिष्ठानों की भाषा नहीं है । आज अंग्रेजी का गुणगान करनेवाले लोग बहुधा ये तर्क देते हैं कि हिंदी में अभिव्यक्ति की वो ताकत नहीं है जो अंग्रेजी भाषा के शब्द हमें उपलब्ध करवाते हैं । ऐसे लोगों की मशहूर भाषाविज्ञानी जॉर्ज ग्रियर्सन की एक टिप्पणी को देखनी चाहिए जो उन्होंने लिगंविस्टिक सर्वे के खंड नौ के पहले भाग में कही है – ‘जिन बोलियों से हिंदी की उत्पत्ति हुई है उनमें ऐसी विलक्ष्ण शक्ति है कि वो किसी भी ऐसे विचार को पूरी सफाई के साथ अभिवयक्त कर सकती है, जो विचार मनुष्य के मस्तिष्क में समा सकते हैं और इन बोलियों में ये शक्ति आज उत्पन्न नहीं हुई वह उनके भीतर पिछले पांच सौ साल से विद्यमान है.....हिंदी के पास देशी शब्दों का अपार भंडार है और सूक्ष्म से सूक्ष्म विचारों को सम्यक रूप से अभिव्यक्त करने के उसके साधन भी अपार हैं ।‘ इसके बाद सारे तर्क धरे रह जाते हैं ।
इसी विषय – भाषा की अस्मिता और हिंदी का वैश्विक संदर्भ- पर दक्षिण अफ्रीका में तीन दिनों तक देश विदेश के विद्वान मंथन करने जा रहे हैं । मौका है नवें विश्व हिंदी सम्मेलन का जिसे भारत का विदेश मंत्रालय करीब पांच साल बाद आयोजित कर रहा है । इसके पहले आठवां विश्व हिंदी सम्मेलन जुलाई 2007 में न्यूयॉर्क में आयोजित हुआ था । इस बार विश्व हिंदी सम्मेलन को नौ सत्रों में बांटा गया है जिसमें महात्मा गांधी की भाषा दृष्टि और वर्तमान का संदर्भ, हिंदी- फिल्म, रंगमंच और मंच की भाषा, सूचना प्रद्योगिकी-देवनागरी लिपि और हिंदी का सामर्थ्य, लोकतंत्र और मीडिया की भाषा के रूप में हिंदी, ज्ञान-विज्ञान और रोजगार की भाषा के रूप में हिंदी आदि प्रमुख हैं । इस मंथन से क्या निकलता है ये तो भविष्य के गर्भ में है लेकिन हमें ये देखना होगा कि इसके पहले आयोजित आठ विश्व हिंदी सम्मेलनों में पारित प्रस्ताव पर हम कितना अमल कर पाए हैं । पहला विश्व हिंदी सम्मेलन 10-12 जनवरी 1975 को नागपुर में आयोजित हुआ ता जिसमें मुख्य रूप से तीन प्रस्ताव पारित हुए थे । पहला- संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी को आधिकारिक भाषा के रूप में मान्यता दिलाई जाए । दूसरा विश्व हिंदी विद्यापीठ की स्थापना वर्धा में हो और तीसरा विश्व हिंदी सम्मेलनों को स्थायित्व प्रदान करने के लिए अत्यंत विचारपूर्वक एक योजना बनाई जाए । सबसे पहले तो हमें ये देखना चाहिए कि पहले विश्व हिंदी सम्मेलन के आयोजन के सैंतीस साल बाद भी तीसरे प्रस्ताव पर अमल नहीं हो पाया है । अभी तक विश्व हिंदी सम्मेलन की ना तो कोई तारीख तय है और ना ही उसके आयोजन की आवर्तिता । सैंतीस साल में सिर्फ नौ सम्मेलन का आयोजन इस बात को दर्शाता है कि हम अपनी भाषा को लेकर कितने गंभीर हैं , हमें उसकी कितनी चिंता है । 2007 में अमेरिका में हुए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन में सिर्फ सवा छह करोड़ रुपए खर्च हुए थे लेकिन अंतराष्ट्रीय मंच पर हिंदी की धमक को महसूस किया गया था । लेकिन उसके पांच साल बाद तक सम्मेलन का आयोजन नहीं होने से उस धमक की गूंज पहले तो हल्की हुई और फिर विश्व पटल पर कहीं गुम सी हो गई । पहले विश्व हिंदी सम्मेलन मे हिंदी को संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषा बनाने के लिए प्रयत्न के प्रस्ताव के अट्ठाइस साल बाद पारामारिबो, सूरीनाम में आयोजित सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन में भी वही प्रस्ताव पारित किया गया । आजादी के पैंसठ साल बाद भी अगर हम अबतक संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी को मान्यता नहीं दिलवा पाए हैं तो ये करोड़ों हिंदी भाषी लोगों की रहनुमाई करनेवालों की इच्छाशक्ति की कमी को उजागर करता है ।
इस बार जोहानिसबर्ग में आयोजित होनेवाले विश्व हिंदी सम्मेलन में सत्रों में सार्थक विमर्श की गुंजाइश नजर आ रही है । उम्मीद की जा रही है कि जिस धरती पर गांधी ने लंबा समय बिताया वहां की धरती से एक बार फिर हिंदी को मजबूत करने का संकल्प लिया जा सकेगा । राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने लिखा है कि अंग्रेजी के विरुद्ध भारतीय भाषाओं की महिमा गांधी ने भारत आकर नहीं समझी, उसे वो दक्षिण अफ्रीका में ही समझ चुके थे । गांधी ने भी हिंद स्वराज्य में लिखा है – हर एक पढ़े लिखे हिन्दुस्तानी को अपनी भाषा का, हिंदू को संस्कृत का, मुसलमान को अरबी का, पारसी को पर्शियन का और सबको हिंदी का ज्ञान होना चाहिए ।‘ अब एक बार फिर से हिंदी के तमाम कर्ता-धर्ता गांधी की उसी धरती पर जा रहे हैं जहां पर गांधी को अपने अनुभवों से इस बात के ज्ञान की प्राप्ति हुई थी कि जनता को उसकी ही भाषा में जगाया जा सकता है । विश्व हिंदी सम्मेलन की सार्थकता इस बात में होगी कि हम गांधी के विचारों पर सिर्फ विमर्श नहीं करें बल्कि उसपर अमल में लाने के लिए हर कोई अपने स्तर पर प्रयास करे । हिंदी को लोकप्रिय बनाने के लिए यह आवश्यक है कि सबसे पहले सरकारी और शासन की जो भाषा है उसको दुरुस्त कियया जाए । आप किसी भी सरकारी बेवसाइट की हिंदी को देख लीजिए आपको इस बात का अंदाजा हो जाएगा कि वहां किस तरह की हिंदी लिखी जा रही है । अगर जोहानिसबर्ग में आयोजित विश्व हिंदी सम्मेलन में सरकारी हिंदी को सरल बनाने के लिए प्रस्ताव पारित कर भारत सरकार को सलाह दी जा सके तो यह हिंदी पर बड़ा उपकार होगा । सरकार में बैठे लोग जिस शब्दकोश का संदर्भ लेते हैं या फिर जिस शब्दावली का इस्तेमाल करते हैं उसमें तत्काल सुधार करने की आवश्यकता है । दूसरा हमें विश्व हिंदी सम्मेलनों की आवर्तिता को तय करना चाहिए कि ये हर साल होगा या हर दो साल बाद होगा । इसका एक फायदा यह होगा कि हिंदी की विश्व की मीडिया में इस पर चर्चा होगी और हिंदी भाषा के पक्ष में विश्व जनमानस में एक उत्सुकता पैदा होगी ।
अंत में रामधारी सिंह दिनकर का एक वाक्य याद आ रहा है - भाषा का प्रश्न केवल सांस्कृतिक प्रश्न नहीं है । अवस्था विशेष में वह राजनीतिक एकता से भी जुड़ जाता है, उसका असर देश की स्वाधीनता पर भी पड़ता है । - मैं सिर्फ उसमें एक शब्द जोड़ना चाहता हूं कि उसका असर हमारी संप्रभुता पर भी पड़ता है ।