किसी भी
समाज के लोगों का दिल जीतने और उन पर राज करने के लिए उस क्षेत्र विशेष की सामाजिक
संरचना को जानना और समझना बेहद आवश्यक है । हमारे देश की सामजिक संरचना का आकलन और
उसके हिसाब से उस संरचना को अपने अनुकूल करने के लिए शासक वर्ग हमेशा से रणनीति बनाता
रहा है । सिर्फ शासक वर्ग ही नहीं बल्कि बल्कि राजा बनने की ख्वाहिश रखनेवाले भी सामाजिक
संरचना को अपने अनुकूल बनाने के लिए प्रयत्नशील रहता है और उसी हिसाब से अपनी चालें
चलता है । इतिहास इस बात का गवाह है कि किस तरह से अंग्रेजों ने भारत की सामाजिक संरचना
का बेहतरीन आकलन और इस्तेमाल कर अपनी सत्ता लंबे समय तक कायम रखी । समाजिक संरचना में
जितनी तरह की विषमताएं या जटिलताएं होती हैं वो शासक लर्ग को अनुकूल स्थितियां प्रदान
करती है । यह बात औपनिवेशिक काल से लेकर उत्तर औपनिवेशिक काल तक में कई बार साबित होती
रही है । बिहार की राजनीति में जाति लंबे समय से अहम स्थान रखती है । देश के तकरीबन
हर प्रांत में चुनाव के वक्त उम्मीदवारों के चयन में जाति को ध्यान में रखा जाता है
लेकिन बिहार में कई सीटों की उम्मीदवारी तो सिर्फ और सिर्फ जाति के आधार पर किया जाता
है । जातिगत आधार पर चुने गए ज्यादातर उम्मीदवार चुनाव जीतकर संसद और विधानसभा में
पहुंचते भी रहे हैं । बिहार में जातिगत आधार पर चुनाव की जड़े बेहद गहरी हैं । नबंवर
1926 के काउंसिल चुनावों को अगर हम जातिगत वोटिंग पैटर्न का आधार मानें तो हम देखते
हैं कि यह पैटर्न साल दर साल और ज्यादा मजबूत होता चला गया । 1927 में बोर्ड चुनाव
के बाद तिरहुत के उस वक्त के कमिश्नर मिडलटन ने अपनी रिपोर्ट में इस बात के पर्याप्त
संकेत दिए थे कि उम्मीदवारों के चयन का आधार सिद्धांत या सामाजिक क्रियाकलाप नहीं है
बल्कि उनकी जाति है और कांग्रेस को भी यह मालूम है । यह कहना सही नहीं होगा कि बिहार
में छियासी साल बाद भी हालात बदले नहीं हैं लेकिन इतना तो अवश्य कहा जा सकता है कि
चुनाव में अब भी जाति एक मुख्य फैक्टर है । अन्य पिछड़ा वर्ग को मंडल कमीशन के तहत
आरक्षण देने के फैसले के बाद से सूबे में एक बार फिर से जातीय ध्रुवीकरण हुआ । उसी
ध्रुवीकरण और पिछड़ों की अस्मिता के नाम पर लालू यादव ने डेढ दशक तक बिहार पर राज किया
। लेकिन लालू राज से त्रस्त लोगों ने बाद के चुनावों में विकास की राह को अपनाने की
ठानी और नीतीश को सूबे की कमान मिली । नीतीश कुमार को भी यह मालूम था कि बगैर जातिगत
वोट बैंक के लिए लंबे समय तक शासक बने रहना मुमकिन नहीं है । तो उन्होंने भी विकास
के रास्ते पर चलते हुए अगड़ी जातियों और अति पिछड़ा, महादलित और पसमांदा मुसलमान के
गठजोड़ की जमीन तैयार करने की लगातार कोशिश की । मेरा मकसद बिहार चुनाव में जातियों
का इतिहास बताना नहीं बल्कि 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी को लेकर बिहार
में भारतीय जनता पार्टी की विशेष रणनीति पर बात करना है । इन तमाम गुणा भाग के बीच मोदी की हिंदू हृदय सम्राट और विकास पुरुष की छवि को बिहार में पेश तो किया जाएगा साथ ही बोधगया में सीरियल धमाकों के बाद राष्ट्रीय सुरक्षा का तड़का भी लगाया जाएगा । उधर जेडीयू मोदी के उग्र हिदुवादी छवि को प्रचारित कर मुसलमानों के वोट खींचने की कोशिश करेगी । मुसलमानों का वोट नीतीश को उस स्थिति में मिलने की उम्मीद है जब वो कांग्रेस के साथ जाने का फैसला करेगी । क्योंकि अगर ध्रुवीकरण होता है तो मुसलमान वोटर उसकी तरफ ही जाएगा जो मोदी को रोक पाएगा । लेकिन विराट हिंदू समाज की बात करनेवाली पार्टी का तेली और पिछड़े के नाम पर वोट मांगने की रणनीति बनाना उनके असली चाल चरित्र और चेहरे को भी उजागर करता है ।
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