झारखंड के पाकुड़ में नक्सलियों ने एक बार फिर से बड़ी वारदात
का अंजाम दिया और जिले के पुलिस अधीक्षक को गोलियों से भून कर मार डाला । इसके पहले
हाल ही में नक्सलियों ने छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के काफिले को घेर कर उनके नेताओं समेत
कई लोगों की हत्या कर दी । इसके बाद नक्सलियों के एक गुट ने बिहार के जमुई के पास एक
ट्रेन पर हमला किया और सुरक्षा बलों के हथियार लूट ले गए । इन बड़ी वारदातों के अलावा
छोटे मोटे अपराध को नियमित अंतराल पर अंजाम दिया जा रहा है । इन वारदातों को गिनाने
का मकसद सिर्फ इतना बताना है कि देश के कई हिस्सों में कानून के राज पर ग्रहण लगा हुआ
है । केंद्र सरकार और प्रधानमंत्री कई बार इस बात को दुहरा चुके हैं कि नक्सली इस देश
के लिए बड़ा खतरा है । तमाम दावों और बयानों के बावजूद उनसे निबटने के उपायों पर सख्ती
से अमल करने की इच्छा शक्ति दिखाई नहीं देती, बल्कि सरकार की नाकामी ही उजागर होती
है । नक्सलियों से निबटने को लेकर प्रधानमंत्री के बयान खोखले लगते हैं । दरअसल कांग्रेस
के कुछ नेताओं और केंद्र सरकार के कई मंत्रियों को नक्सलियों से सहानुभूति है । उन्हें
अब भी लगता है कि नक्सल समस्या एक सामाजिक समस्या है और उसका हल उसी को आदार मानकर
किया जाना चाहिए । लेकिन इस उहापोह के बीच और किसी ठोस रणनीति के आभाव में नक्सली बार
बार बड़ी वारदातों को अंजाम देकर केंद्र सरकार को चुनौती दे रहे हैं । नक्सलियों ने
जिस तरह से अपने प्रभाव वाले इलाकों में रंगदारी, वसूली, लड़कियों को जबरन उठाकर शादी
करने की घटनाओं को अंजाम दिया है उसकी जड़ में ना तो विचारधारा हो सकती है और ना ही
किसी लक्ष्य को हासिल करने का संघर्ष । कौन सी विचारधारा इस बात की इजाजत दे सकता है
शिक्षा के मंदिर स्कूल को बम से उड़ा दिया जाए और आदिवासी इलाकों के बच्चों को शिक्षा
से वंचित कर दिया जाए । दरअसल नक्सलियों की एक रणनीति यह भी है कि आदिवासियों को शिक्षित
नहीं होने दो ताकि उनको आसानी से बरगलाया जा सके । अधिकारों के नाम पर बंदूक उठाने
के लिए अशिक्षित आदिवासियों को प्रेरित करना ज्यादा आसान है । इन सबके उसके पीछे सिर्फ और सिर्फ अपराध की मानसिकता
है और सरकार को नक्सलियों से अपराधी और हत्यारे की तरह सख्ती के साथ निबटना चाहिए ।
सरकार के अलावा इस देश के तथाकथित व्यवस्था विरोधी बुद्धिजीवी
नक्सलियों के रोमांटिसिज्म से ग्रस्त हैं और नक्सलियों के वैचारिक समर्थन को जारी रखने
की बात करते हैं । उन्हें नक्सलियों के हिंसा में अराजकता नहीं बल्कि एक खास किस्म
का अनुशासन नजर आता है । नक्सलियों की हिंसा को वो सरकारी कार्रवाई की प्रतिक्रिया
या फिर अपने अधिकारों के ना मिल पाने की हताशा में उठाया कदम करार देते हैं । नक्सल
मित्रों को सुरक्षा बलों के तथाकथित अत्याचार नजर आते और उनकी कार्रवाई को राज्य सत्ता
की संगठित हिंसा तक करार देते हैं। दरअसल नक्सलियों के विचारधारा के रोमांटिसिज्म से
ग्रस्त ज्यादातर लोग मार्क्सवाद के बड़े पैरोकार हैं या वैसा होना का दावा करते हैं
। दरअसलमार्क्सवादियोंकेसाथसबसेबड़ीदिक्कतहैकिउनकीदीक्षाहीहिंसाऔरहिंसकराजनीतिमेंहोतीहै।उन्नीससौसाठमेंविभाजनकेबादसीपीआईतोलोकतांत्रिकआस्थाकेसाथकामकरतीरहीलेकिनसीपीएमतोसशस्त्रसंघर्षकेबलपरभारतीयगणतंत्रकोजीतनेकेसपनेदेखतीरही।चेयरमैनमाओकानारालगानेवालीपार्टीचीनकेतानाशाहीकेमॉडलकोइसदेशपरलागूकरनेकरवानेकाजतनकरतीरही।चीनमेंजिसतरहसेराजनीतिकविरोधियोंकोकुचलाडालाजाताहै , विरोधियोंकासामूहिकनरसंहारकियाजाताहैवहीइनकेरोलमॉडलबने।उसीचीनीकम्युनिस्टविचारधाराकीबुनियादपरबनीपार्टीभारतमेंभीलगातारकत्लऔरबंदूककीराजनीतिकोजायजठहरानेमेंलगीरही। पिछले साल
केरल में एक मार्क्सवादी नेता ने खुले आम सार्वजनिक सभा में हिंसा और मरने मारने की
बात की थी । अब वक्त आ गया है कि हमें देखना होगा कि जिनकी दीक्षा
ही हिंसा और हिंसक राजनीति से शुरू होती है और जिनकी आस्था अपने देश से ज्यादा दूसरे
देश में हो उनकी बातों को कितनी गंभीरता से ली जानी चाहिए । मेरा मानना है कि मार्क्स
और माओ के इन अनुयायियों की बातों का बेहद गंभीरता से प्रतिकार किया जाना चाहिए । देश
की जनता को उनके प्रोपगंडा और उसके पीछे की मंशा को बताने की जरूरत है । जब यह मंशा
उजागर होगी तो उनके खंडित यथार्थ का असली चेहरा सामने आएगा । आज देश के बुद्धिजीवियों
के सामने नक्सलमित्रों और नक्सलमित्रों की चालाकियों को सामने लाने की बड़ी चुनौती
है । इसमें बहुत खतरे हैं । मार्क्सवाद के नाम पर अपनी दुकान चलानेवाले लोग बेहद शातिराना
ढंग से आपको सांप्रदायिक, संघी आदि आदि करार देकर बौद्धिक वर्ग में अछूत बनाने की कोशिश
करेंगे । अतीत में उन्होंने कई लोगों के साथ ऐसा किया भी है । लेकिन सिर्फ इस वजह से
हिंसा की राजनीति को बढ़ावा देने उसको जायज ठहरानेवालों को बेनकाब करने से पीछे हटना
अपने देश और उसकी एकता और अखंडता के साथ छल करना है ।
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