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Monday, September 29, 2014

फिल्मों में नायिका शक्ति

हिंदी साहित्य में जब नब्बे के दशक में स्त्री विमर्श की आंधी चल रही थी तब किसी ने सोचा भी नहीं होगा कि हिंदी फिल्मों में भी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इसका असर देखने को मिलेगा । साहित्य में स्त्री विमर्श अभी तक अपने मुकाम पर नहीं पहुंच पाया है और लगातार अपने होने के लिए संघर्ष कर रहा है वहीं हिंदी फिल्मों में स्त्री यानि नायिका पूरे तौर पर स्थापित हो चुकी है । कई बार रामधारी सिंह दिनकर की संस्कृति के चार अध्याय में लिखी हुई यह उक्ति याद आती है जहां वो कहते हैं विद्रोह क्रांति या बगावत कोई ऐसी चीज नहीं है जिसका विस्फोट अचानक होता है । घाव भी फूटने के पहले लंबे समय तक पकता रहता है । दिनकर की इस उक्ति में हम यह जोड़ सकते हैं कि साहित्य और कला में भी किसी प्रवृत्ति के स्थापित होने में वक्त लगता है और उसकी स्वीकार्यता में और भी समय लगता है । साहित्य में यह समय फिल्मों से ज्यादा लग रहा है । इन दिनों साहित्य में तो स्त्रियां केंद्र में हैं, बहुधा अरनी रचना की वजह से और कभी कभार अपने बयानों की वजह से । साहित्य के स्त्री पात्र लगातार बोल्ड होते चले जा रहे हैं । घूंघट में रहनेवाली स्त्रियां अब अपने बिंदासपन की वजह से पुरानी छवि को छिन्न भिन्न कर आगे बढ़ चुकी है । इस वक्त हिंदी साहित्य में जो युवा पीढ़ी सक्रिया है उसमें लेखिकाओं का पलड़ा भारी है और आलोचकों की आत्मा भी उनकी ओर झुकी हुई नजर आती है । लेकिन वहां अब भी लेखिकाओं को लेकर एक झिझक दिखाई देती है । यह एक अवांतर प्रसंग है जिसपर फिर कभी विस्तार से चर्चा होगी । हम बात कर रहे हैं हिंदी फिल्मों में नायिकाओं के बदलते किरदारों की और उनके बढ़ते हुए दबदबे की । हिंदी फिल्मों के इतिहास पर नजर डालें तो फिल्में पुरुष प्रधान ही बना करती थी और नायकों के होने या ना होने से फिल्मों के चलने या फ्लॉप होने का अनुमान लगया जाता था । चूंकि किसी भी कथानक में स्त्रियों की उपस्थिति अनिवार्य होती थी लिहाजा फिल्मों में नायिकाओं को रखा जाता था । जैसे परिवार में पत्नी, बहू और बहन उसका अनिवार्य अंग होते हैं उसी तरह से फिल्मों में नायिकाओं को रखा जाता था । नायिकाएं भी वैसी कि अपने पहनावे में बिल्कुल घरेलू, नख से शिख तक ढ़की हुई । दिल के अरमानों को दिल में ही दफन करने को हरदम तैयार । जैसे जैसे समय बदला नायिकाओं के रंगरूप में तो परिवर्तन हुआ लेकिन फिल्मों में वो रहीं शोभा के तौर पर ही । फिल्मों के क्रमिक विकास के साथ साथ नायिकाओं के कपड़े थोड़े कम होने लगे । फिल्म संगम में वैजयंतिमाला ने कपड़ों ने उस वक्त काफी धूम मचाई थी। तब यह तक लिखा गया था कि भारतीय फिल्मों की नायिकाएं बोल्ड होना शुरू हो गई हैं । पहनावे में बोल्डनेस के बावजूद हिंदी फिल्मों की नायिकाएं अपने नायकों के मुकाबले दोयम दर्जे पर ही रहीं । बॉलीवुड में अगर हीरो को किसी एक फिल्म के लिए एक करोड़ रुपए मिलते थे नायिकाओं को पच्चीस लाख पर ही संतोष करना होता था । माना यह जाता था कि फिल्में तो हीरो के बल पर चलती हैं । साठ के दशक में एकाध प्रयोग हुए जिसमें नायिकाओं के बूते पर फिल्म चलने की बात सामने आई । मीना कुमारी की फिल्म मैं चुप रहूंगी की सफलता से इस बात की वकालत करनेवालों को बल मिला । उस दौर में मीना कुमारी का जादू दर्शकों के सर चढ़कर बोलता था । किसी भी फिल्म में मीना कुमारी की मौजूदगी उसके हिट होने की गारंटी मानी जाती थी । आलम यह था कि एक ही साल मीना कुमारी की तीन फिल्में फिल्मफेयर अवॉर्ड के लिए नामांकित हुई थी । यह फिल्मफेयर अवॉर्ड में एक रिकॉर्ड था कि एक  ही साल में एक ही अभिनेत्री अलग अलग तीन फिल्मों से सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के लिए नामांकित हुई थी ।  मीना कुमारी के बाद फिल्मी दुनिया में हेमा मालिनी के वक्त एक बार फिर से ऐसा मौका आया कि लगा कि नायिका भी अपने बूते पर फिल्म को सफल बना सकती हैं । सीता और गीता पूरे तौर पर हेमा मालिनी की फिल्म थी । आगे चलकर रेखा ने भी कुछ फिल्में अपने बूते पर सफल करवाई । अब यहां एक बात गौर करने लायक है । इस दौर में फिल्मों की नायिकाओं का जो संघर्ष था वह अपने आपको बचाने, अपने वजूद को बचाने, अपने को साबित करने या फिर अपने परिवार को बचाने का संघर्ष था । फिल्मों की नायिकाएं वैसी सामाजिक संरचना का हिस्सा थी जहां कि एक महिला का जीवन संघर्ष केंद्र में था । यही चरित्र के इर्द-गिर्द पूरी फिल्म घूमती थी । अब अगर हम गौर से देखें तो उस वक्त इस तरह की फिल्में इस वजह से हिट हो रही थी कि समाज की महिलाओं का भी वही संघर्ष था । तो फिल्में देखकर महिलाएं कथानक के साथ अपने आपको भी आईडेंटिफाई कर रही थी । इस बात पर भी शोध किया जाना चाहिए कि उन्नीस सौ बासठ में मीना कुमारी की फिल्म मैं चुप रहूंगी के सफल होने के बावजूद फिल्म निर्माताओं ने नायिका प्रधान फिल्मों पर दांव क्यों नहीं लगाया ।

मैं चुप रहूंगी के रिलीज होने के लगभग चालीस साल बाद अब हिंदी फिल्मों में एक ऐसा दौर आया
है जब लगातार एक के बाद एक नायिका प्रधान फिल्में आ रही हैं और हिट भी हो रही हैं । अभी अभी रानी मुखर्जी अभिनीत मर्दानी और प्रियंका चोपड़ा की फिल्म मैरी कॉम आई जो काफी सफल रही । फिल्मों के जानकारों के मुताबिक मैरी कॉम पर फिल्म निर्माता को करीब सौ फीसदी का मुनाफा हुआ है । ट्रेड पंडितों के मुताबिक फिल्म मैरी कॉम के निर्माण पर कुल अठारह करोड़ रुपए की लागत आई थी और अबतक उसकी कुल कमाई पैंतीस करोड़ रुपए को पार कर चुकी है । इसी तरह से रानी मुखर्जी अभिनीत फिल्म मर्दानी भी पचास फीसदी से ज्यादा मुनाफा कमाने में कामयाब हो चुकी है । मर्दानी की लागत उन्नीस करोड़ रुपए के आसपास थी और रिलीज होने से लेकर अबतक फिल्म ने करीब तीस करोड़ रुपए का कारोबार कर लिया है । इन दो फिल्मों के अलावा भी कई फिल्में आई जिसमें नायिकाओं ने अपने बूते पर फिल्म की लागत तो वसूल ही ली बल्कि ठीक ठाक मुनाफा भी कमाया । इस साल रिलीज हुई हाईवे, रागिनी एमएमएस, बॉबी जासूस और गुलाब गैंग में से सिर्फ गुलाब गैंग ही अपनी लागत नहीं निकाल पाई । अब इन महिला प्रधान फिल्मों की सफलता के पीछे दो तीन वजहें हैं । एक तो मल्टीप्लैक्सों की संख्या बढ़ने और लाइफस्टाइल में बदलाव की वजह की से महिला दर्शकों की संख्या में काफी इजाफा हुआ है । दूसरे अब फिल्मों की नायिकाओं का चरित्र भी बदला है । पहले जहां फिल्मों की नायिकाएं अपने या अपने परिवार के अस्तित्व को बचाने के लिए संघर्ष करती थी वहीं अब जो फिल्में आ रही हैं उसमें महिला समाज के लिए लड़ती हुई दिखाई दे रही है । भारतीय फिल्मों में यह एक बड़ा बदलाव है जिसको रेखांकित किया जाना आवश्यक है । जैसे मर्दानी और गुलाब गैंग में तो समाज के लिए संघर्ष ही फिल्म की केंद्रीय थीम है । उसी तरह से मैरी कॉम में देश के लिए कुछ कर गुजरने का जज्बा और उसका संघर्ष ही नायिका के तौर पर प्रतिबिंबित होता है । अब यह जो समाज के लिए कुछ करने का संघर्ष है, वह आज के मल्टीप्लैक्स में जानेवाली महिलाओं के मूड से मेल खाता है । इस तरह के चरित्र से आज मल्टीप्लैक्स की महिला दर्शक अपने आप को आईडेंटिफाई करती हैं । महिला दर्शकों की बढ़ती संख्या और फिर फिल्म के किरदार से एक तरह का उनका जुड़ाव नायिका प्रधान फिल्मों की सफलता के लिए आधार प्रधान कर रही है । लिहाजा फिल्में लोकप्रिय हो रही हैं । नायिकाओं को हीरो बनाती इस तरह की फिल्मों में फिल्म निर्माताओं की भी रुचि काफी बढ़ी है । निर्माताओं की बढ़ती रुचि के पीछे आर्थिक कारण है । नायिकाओं को केंद्र में रखकर बनने वाली फिल्मों की लागत बहुत कम होती है । हीरो की तुलना में हिरोइन का मेहनताना कम होता है । अगर हम हाल में रिलीज हुई फिल्मों पर नजर डालें तो जय हो और सिंघम रिटर्न्स की लागत सौ करोड़ या उससे ज्यादा रही है, जबकि नायिका प्रधान फिल्मों की औसत लागत पच्चीस से सत्ताइस करोड़ रही है । अब अगर हम तुलनात्मक रूप से देखें तो नायिका प्रधान फिल्में कम बजट में तैयार हो जाती है और उनका औसत मुनाफा भी ठीक ठाक रहता है । ज्यादा निवेश पर जोखिम ज्यादा होता है और जो निर्माता ज्यादा निवेश का जोखिम नहीं उठाना चाहते हैं वो कम लागत पर बनने वाली नायिका प्रधान फिल्में बना रहे हैं । वजह चाहे जो भी हो लेकिन इतना तय है कि हिंदी सिनेमा में बदलाव का एस ऐसा दौर आया है जहां अब हिरोइनों के बल पर लगातार एक के बाद एक फिल्म सफल हो रही है । 

Saturday, September 27, 2014

विदूषकों की मनोरंजक उपस्थिति

हिंदी साहित्य का इतिहास जितना पुराना है लगभग उतना ही पुराना साहित्य में वाद विवाद और संवाद की परंपरा है । वाद विवाद और संवाद की इस गंभीर परंपरा में साहित्यक विदूषकों की अपनी अलग ही परंपरा और पहचान रही है । दिल्ली की साहित्यक राजधानी में तब्दील होने के पहले साहित्य में अलग अलग शहरों का अपना अलग अलग महत्व था । पटना, वाराणसी, इलाहाबाद, कलकत्ता, हैदराबाद जैसे बड़े शहरों में बड़े साहित्यकारों की मौजूदगी साहितय् के परिदृश्य को आश्वस्त करती रहती थी । इन साहित्यकारों के बीच एक जीवंत संवाद हुआ करता था और एक दूसरे की स्वस्थ आलोचना भी । दिनकर की रचना उर्वशी पर लंबा विवाद हुआ था, जिसने उस वक्त के साहित्यक परिदृश्य को झकझोर कर रख दिया था । उर्वशी पर उठे विवाद के बीच भी कई हल्की और व्यक्तिगत टिप्पणियां हुई थी जिसे उस विदूषकों की टिप्पणियां कहकर हिंदी जगत ने खारिज कर दिया । हिंदी में विवादों की लंबी परंपरा के बीच साहित्यक विदूषकों का अपना एक अलग स्थान है । वो रचना से अधिक रचनाकारों के बारे में अपने पूर्वग्रहों के आधार पर टिप्पणी करते चलते थे । वर्तमान साहित्य के जनवरी 2001 के अंक में जब राजेन्द्र यादव का विवादास्पद लेख होना सोना एक खूबसूरत दुश्मन के साथ छपा था तब भी हिंदी साहित्य ने इन विदूषकों ने अपने होने का एहसास करवाया था । उस वक्त भी उनके लिखे पर उनका मजाक उड़ा था । दरअसल विदूषकों की यह प्रजाति अपनी अज्ञानता और मूढ़ता में कुछ ऐसी बातें कह जाते हैं जो उनके पूर्वग्रह को उजागर और कुंठा को सार्वजनिक कर देते हैं । होना सोना के बाद वर्तमान साहित्य के ही मई 2001 अंक में कवि उपेन्द्र कुमार की एक कहानी झूठ का मूठ छपी थी । इस कहानी में तलवार को एक रूपक के तौर पर उठाया गया था । इस कहानी में तलवार को एक प्रतीक के तौर पर जातीय दंभ से जोड़कर देखनेवाले साहित्यकारों ने चुप्पी साध ली थी, लेकिन कई विदूषकों ने खूब हल्ला गुल्ला मचाया था और अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई थी ।
कालांतर में जब साहित्यक विवाद कम हुए तो इन विदूषकों की प्रजाति के सामने अपने अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया । मार्क जुकरबर्ग का लाख लाख शुक्र कि उन्होंने फेसबुक का प्लेटफॉर्म पेश किया और इन साहित्यक विदूषकों को मंच मिल गया । फेसबुक के मंच पर लिखने की अराजक आजादी ने इन साहित्यक विदूषकों के हौसले बुलंद कर दिए । अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रहे ये विदूषक जोर शोर से अपनी अज्ञानता और कुंठा का प्रदर्शन करने लगे । साहित्य विदूषकों की इस गौरवशाली परंपरा में इन दिनों कुछ पत्रकार और समीक्षकनुमा लेखक भी शामिल हो गए हैं । तकरीबन एक दशक पहले तक साहित्यक विदूषकों का भी एक स्तर होता था वो रचना पढ़ते थे और फिर उसके आधार पर रचनाकारों पर टिप्पणी करते थे । इन दिनों विदूषकों ने पढ़ना छोड़ दिया है आजकल वो लिफाफा देखकर खत का मजमून भांपने लगे हैं । नतीजा यह हो रहा है कि लिफाफे के आधार पर ये विदूषक जो टिप्पणी करते हैं उससे इनका ही मजाक उड़ता है । किसी प्रवृत्ति पर लिखे लेख को किताब की समीक्षा बताकर ये घरने की कोशिश करते हैं और खुद को एक्सपोज कर डालते हैं । एक और बार बात हुई है कि इन दिनों साहित्यक विदूषकों की कुंठा इतनी बढ़ गई है कि वो भाषा की मर्यादा भी भूल गए हैं । विदूषकों की इस मनोरंजक उपस्थिति के बीच भी साहित्य में संवेदना बची हुई है, कही विवेक भी । हिंदी भाषी समाज पहले भी और अब भी इन विदूषकों को पहचानता है और हास्य के इन इन बुलबुलों को देखता निकल जाता है ।

Sunday, September 21, 2014

क्राइम फिक्शन की कमी

हिंदी में अगर हम क्राइम फिक्शन की ओर देखें तो एक बड़ा सन्नाटा नजर आता है । सुरेन्द्र मोहन पाठक, वेद प्रकाश शर्मा आदि ने कई क्राइम थ्रिलर लिखे लेकिन मुख्यधारा के हिंदी साहित्य पर नजर डालें तो क्राइम को केंद्र में रखकर बहुत कम रचनाएं लिखी गईं है । पिछले दिनों दिल्ली विश्वविद्यालय में स्पेनिश की प्रोफेसर डॉ मनीषा तनेजा ने जब इस बाबत सवाल पूछा तो मेरे पास कोई जवाब नहीं था । फिर इस दिशा में सोचना शुरू किया । ले देकर सुरेन्द्र मोहन पाठक ही नजर आए। इसके उलट अगर हम अंग्रेजी में देखें तो कई रियल लाइफ स्टोरी को केंद्र में रखकर बेहतरीन क्राइम थ्रिलर लिखे गए । यहां बात सिर्फ उन लेखकों की हो रही है जो भारतीय हैं या फिर जिन्होंने भारतीय पृष्ठभूमि पर केंद्रित अपकराध कथाएं लिखी हैं । पत्रकार एस हसन जैदी की नई किताब- भायखला टू बैंकाक, मुंबईज महाराष्ट्रियन माबस्टर्स की नई किताब में उन्होंने मुंबई के हिंदू माफिया डॉन को फिक्शनलाइज किया है । इस उपन्यास में छोटा राजन को देखा जा सकता है जबकि इसके पहले हसन जैदी ने डोंगरी टू दुबई, सिक्स डिकेड्स ऑफ मुंबई माफिया के केंद्र में दाऊद को रखा था । अंग्रेजी उपन्यासों के प्रकाशन के ट्रेंड को अगर देखें तो साफ तौर पर यह दिखाई देता है कि भारतीय अंग्रेजी लेखक क्राइम फिक्शन लिखने की ओर चल पड़े हैं । मीनल बघेल की किताब डेथ इम मुबंई भी खासी चर्चित रही थी । बेहतरीन खोजी पत्रकार जे डे की हत्या के पहले दो हजार दस में उनकी किताब- जीरो डायल, द डेंजरस वर्ल्ड ऑफ इंफॉरमर्स को भी लोगों ने काफी सराहा था । अंग्रेजी में लिखी जा रही अपराध कथाओं में एक और कॉमन सूत्र रेखांकित किया जा सकता है वह यह कि सारे उपन्यास किसी ना किसी रूप में मुंबई से जुड़े हैं । क्राइम लिखनेवालों को मुंबई के अपराध का परिवेश अगर आकर्षित करता है तो उसके पीछे की वजह फिल्मों में अपराधियों को नायकों की तरह पेश करना रहा है और उन फिल्मों का हिट होना भी।

हिंदी के नए लेखकों की रचनाओं पर नजर डालने से यह लगता है कि वो विषयों को लेकर खतरा उठाने को तैयार नहीं हैं । हिंदी के युवा लेखकों का फॉर्मूलाबद्ध लेखन से मुक्त नहीं होना चिंता की बात है । अगर युवा लेखिका है तो वो स्त्री पुरुष के संबंधों पर हाथ आजमाती हैं । अपनी रचना की नायिका को बोल्ड दिखाकर पाठकों को चौंकाने की कोशिश करती है । युवा लेखक हैं तो वो समाज की समस्याओं को अपनी रचना के केंद्र में रखते हैं, घर परिवार, विस्थापन से लेकर मजदूरों पर होनेवाले जुल्म जैसे विषयों पर ही लिखते हैं । नई जमीन तोड़ने की घोषणा के शोर में नए विषय की ओर जाने का जोखिम बहुधा हिंदी के युवा लेखक नहीं उठा पाते हैं । इसके पीछे एक वजह यह भी है कि हिंदी में वरिष्ठ लेखकों और आलोचकों ने ऐसा माहौल बना रखा है जिसमें अपराध कथा लेखक लुगदी साहित्य लेखकों के कोष्ठक में आंकें जाते हैं । इस मानसिकता को तोड़ना होगा । हिंदी साहित्य के विकास और फैलाव के लिए विषयों में विविधता जरूरी है । साहित्य के पाठकों को जबतक अलग-अलग रंग नहीं मिलेंगे, अलग अलग स्वाद नहीं दिखेंगें तो फिर नए पाठक नहीं जुड़ेंगे । कोई भी साहित्य अगर अपने साथ नए पाठकों को जोड़ने का उपक्रम नहीं करती है तो फिर उसका पिछड़ना और कालांतर में सिमट जाना तय माना जाता है ।   

Tuesday, September 16, 2014

पत्रकारिता पर सवाल ?

चंद दिनों पहले की बात है । इतिहासकार बिपिन चंद्रा का निधन हुआ । राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ में दीक्षित होकर भारतीय जनता पार्टी में पहुंचे राम माधव ने उनके निधन पर शोक जताते हुए ट्वीट किया था कि बिपिन चंद्रा का इतिहास लेखन में अप्रतिम योगदान है  । राम माधव के ट्वीट पर संघ मामलों के जानकार होने का दावा करनेवाले राकेश सिन्हा ने आपत्ति जताई और कहा कि वो राम माधव से इस मामले में सहमत नहीं हैं । मैंने राकेश सिन्हा के ट्वीट पर हस्तक्षेप करते हुए लिखा कि आपको असहमत होने का पूरा अधिकार है । ठीक उसी तरह से राम माधव को अपनी राय व्यक्त करने का । इसपर राकेश ने मुझे ट्वीट पर ही जवाब दिया कि आप अपने मिजाज में संघ विरोधी हैं लिहाजा संघ के बारे में अपमानजनक बात कहनेवाले आपको प्रिय लगते हैं । यहां सिर्फ यह याद दिलाना चाहता हूं कि बातें राम माधव और उनके बिपिन चंद्रा की श्रद्धांजिल पर हो रही थी । अब अगर राम माधव संघ के बारे में अपमानजनक बातें कहते हैं और इसलिए मैंने उनका समर्थन किया तो फिर कुछ कहना व्यर्थ है । दूसरी बात यह कि बिपिन चंद्रा ने जो विपुल इतिहास लेखन किया उसको देखते हुए उन्हें कम से कम राकेश सिन्हा के प्रमाण पत्र की आवश्कता तो नहीं है । अब एक और प्रसंग सुनिए- हिंदी के एक वरिष्ठ आलोचक हैं, सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर खासे सक्रिय हैं । वामपंथी विचारधारा की शव साधना में तल्लीन रहते हैं । फेसबुक और अन्य जगहों पर वो मुझे संघी घोषित कर चुके हैं और गाहे बगाहे राष्ट्रवादी पत्रकार कहकर चुटकी लेते रहते हैं । उनका दर्द यह है कि मैं वामपंथ में व्याप्त कमियों और खामियों पर लगातार क्यों लिखता हूं । उनका दुराग्रह ये होता है कि मोदी और संघ के बारे में उसी तीव्रता से क्यों नहीं लिखता हूं जिसके आधार पर वामपंथ और वामपंथियों को कटघरे में खड़ा करता हूं । लिहाजा वो पेसबुक पर कई बार मुझे खुले आम चुनौती दे चुके हैं कि मैं नरेन्द्र मोदी या फिर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की आलोचना करूं । इसका एक तीसरा कोण भी है । एक समूह संपादक ने एक बार अपने संपादकीय पृष्ठ प्रभारी से पूछा था कि अनंत विजय क्यों राहुल गांधी के खिलाफ लिखते रहते हैं । सवाल एक सिन्हा, आलोचक या समूह संपादक का नहीं है । सवाल उस प्रवृत्ति का है जो अपने वैचारिक विरोधियों को किसी खास रंग में रंग कर छोटा दिखाने की कोशिश करते हैं । दरअसल यह प्रवृत्ति बौद्धिक दिवालियापन से उपजता है । उपर के वाकयों में एक साझा सूत्र है, वह यह कि किसी विचारधारा, दल या उसके नेताओं या नीतियों की आलोचना पर अब बौद्धिक तर्कों के आधार पर विमर्श की गुंजाइश नहीं रही । बौद्धिक होने का दावा करनेवाले लोग भी अब विरोधियों की ब्रांडिंग कर देने पर अपनी सारी उर्जा और तर्क शक्ति खर्च करने लगे हैं । दरअसल अगर हम देखें तो इस प्रवृत्ति का विकास नब्बे के दशक में प्रारंभ हुआ । सोवियत रूस के विखंडन और चीन में विचारधारा के नाम पर अधिनायकवादी कदमों  पर कुछ लेखकों और विद्वानों ने सवाल खड़े करने शुरू कर दिए । सोवियत रूस और चीन के बहाने से हमारे देश के वामपंथियों और उनकी करतूतों पर भी सवाल खड़े होने लगे। हमारे वामपंथी विद्वान मित्र उन सवालों से मुठभेड़ की बजाए सवाल करनेवालों को संघी करार देकर उसे हंसी में उड़ाकर अपमानित करने लगे । सवाल तो फिर भी सुरसा की तरह मुंह बाए खड़े रहे । कालांतर में संघ की वकालत करनेवाले स्वयंभू विद्वानों ने वामपंथियों की इस तकनीक या तरकीब का अनुसरण शुरू कर दिया । फिर वही हुआ । एक दूसरे से नफरत की हद तक वैचारिक मतभेद करनेवाले अपने अपने विरोधियों को परास्त करने के लिए एक ही वैचारिक औजार का इस्तेमाल करने लगे ।
मेरे मन में बहुधा यह सवाल उठता है कि क्या एक पत्रकार को इस या उस विचारधारा के साथ खड़ा होना चाहिए । क्या एक पत्रकार को बगैर वस्तुनिष्ठ हुए अपने तर्कों में विचाचारधारा विशेष का सहारा लेना चाहिए । क्या एक पत्रकार के लिए यह उचित है कि वो दल विशेष की प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से स्तुतिगान करे या फिर खबरों को इस तरह से मोड़ दे कि किसी दल या नेता विशेष को फायदा पहुंचे । ऐसे कई उदाहरण है जब पत्रकारों ने ऐसा किया हो । इस सच को स्वीकारने का साहस वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर ने दिखाया है । अपनी किताब एक जिंदगी काफी नहीं में उन्होंने स्वीकार किया है यूएनआई की नौकरी में रहते हुए वो लालबहादुर शास्त्री को सलाह देते थे । इसके अलावा उन्होंने माना कि यूएनआई की टिकर में उन्होंने मोरारजी देसाई के खिलाफ एक खबर लगा दी जिसका फायदा लालबहादुर शास्त्री को हुआ । पर मेरा मानना है कि पत्रकार को अपने लेखन में ईमानदार होना चाहिए । वहां किसी भी तरह की बेईमानी पूरे पेशे को संदिग्ध करती है । मेरा अपना मानना है कि पत्रकारों की आत्मा हमेशा सत्य के पक्ष में झुकी होनी चाहिए । किसी और की तरह झुकाव उसकी लेखनी को संदिग्ध करती है । अगर बगैर किसी पक्ष में झुके लेखन होता रहा तो यह तय मानिए कि हर पक्ष में आपको किसी और पक्ष का दिखाने या साबित करने की होड़ लगी रहेगी । पत्रकार की सफलता इसी में है ।

Monday, September 15, 2014

साहित्येतास लेखन का विकेन्द्रीकरण

हिंदी में साहित्येतास लेखन की परंपरा कापई समृद्ध है । मेरे जानते अबतक करीब पच्चीस तीस पुस्तकें तो साहित्य के इतिहास पर प्रकाशित हो चुकी हैं । इसमें अगर विश्वविद्यालयों से प्रकाशित होनेवाले रस्मी शोध की किताबों की संख्या को जोड़ दें तो यह आंकड़ा और भी ज्यादा हो सकता है । मिश्र बंधु से लेकर रामचंद्र शुक्ल तक ने हिंदी साहित्य का इतिहास लिखा । रामचंद्र शुक्ल का लिखा हिंदी साहित्य का इतिहास इस वक्त भी सबसे प्रामाणिक और वाज्ञानिक माना जाता है । उसके बाद द्विवेदी जी ने भी इस विषय पर लिखा । हिंदी के मूर्धन्य आलोचक नंददुलारे वाजपेयी और डॉ नागेन्द्र ने भी हिंदी साहित्य का इतिहास लिखा । डॉ नागेन्द्र का हिंदी साहित्य का इतिहास में तो हिंदी की अलग अलग प्रवृत्तियों पर अलग अलग लेखकों ने लिखा । उस पुस्तक की भूमिका में ड नागेन्द्र ने लिखा था गुण और परिमाण में समृद्ध निरन्तर विकासशील हिंदी साहित्य का परिपूर्ण इतिहास तो कोई एक कृती लेखक ही लिख सकता है, परंतु उसके अभाव में यह संकलन ग्रन्थ भी शायद, कुछ सीमा तक, रिक्तिपूर्ति कर सके । यह अलहदा विषय है कि डॉ नागेन्द्र का संपादित वह ग्रंथ कितना उपयोगी है, लेकिन नागेन्द्र की उस किताब ने हिंदी साहित्य लेखन में उस समय के सन्नाटे को तोड़ने का काम तो किया ही था । जब हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन की बात हो रही है तो बच्चन सिंह और विजेन्द्र स्नातक को नहीं भूला जा सकता है । बच्चन सिंह ने तो हिंदी साहित्य का दूसरा इतिहास नाम से किताब लिखी थी । रामनिरंजन परिमलेंदु ने भी हिंदी साहित्य के इतिहास पर सिलसिलेवार ढंग से लिखा । हिंदी के अलावा विदेशी विद्वानों ने भी साहित्य के इतिहास पर लिखा जिसमें ग्रियर्सन का नाम सर्वप्रमुख है । लेकिन कालांतर में हिंदी साहित्य का इतना अधिक विस्तार हो गया कि किसी भी एक लेखक के लिए पूरे हिंदी साहित्य का इतिहास लिखना संभव नहीं रहा । एक अनुमान के मुताबिक वर्तमान समय में सिर्फ दिल्ली में विभिन्न पीढ़ियों के पांच सौ से ज्यादा कवि सक्रिय हैं । इन सब को समेटना किसी एक लेखक के बूते की बात है नहीं और व्यावहारिक भी नहीं है । रचनाकारों की बहुलता की वजह से संपूर्ण हिंदी साहित्य का इतिहास लिखने की बजाए विधाओं का इतिहास लिखा जाने लगा । गोपाल राय ने हिंदी कहानी का उपन्यास और हिंदी उपन्यास का इतिहास लिखा । गोपाल राय ने हिंदी उपन्यास का इतिहास में माना है कि इतिहास की किताब में सबसे मुश्किल काम उसे कालखंडों में बांटना और उसका नामकरण करना होता है । गोपाल राय के अलावा विजय मोहन सिंह ने भी कथा साहित्य के इतिहास पर काम किया और नंदकिशोर नवल ने कविता का इतिहास लिखा । इसके अलावा सुरेन्द्र चौधरी से लेकर देवीशंकर अवस्थी तक ने कहानी के इतिहास पर गंभीर काम किया है । मधुरेश और सत्यकेतु सांकृत ने भी इस दिशा में उल्लेखनीय काम किया है । लेकिन मेरे जानते किसी शहर को केंद्र में रखकर साहित्यकारों और साहित्यिक गतिविधियों का इतिहास कम ही लिखा गया है । उन्नीस सौ चौरानवे में बिहार के एक लेखक उमाशंकर निशेष ने - जमालपुर का साहित्य और इतिहास विषय पर एक पुस्तक लिखी थी जिसे विजय प्रकाशन जमालपुर ने छापा था । उस किताब की भूमिका में लेखक उमाशंकर निशेष ने दावा किय़ा था कि- मेरे विचार से हिंदी में यह पहला साहित्यक इतिहास है जो किसी एक छोटे से कस्बाई शहर पर हीपूरीतरह से केंद्रित है । हलांकि लेखक ने अपने इस विचार के समर्थन में किसी तरह का कोईसबूत या तर्क नहीं दिया था । कहना ना होगा कि उन्नीस सौ चौरानबे में इस तरह की कम किताब रही होगी क्योंकि पहला होने का दावा करना जोखिम भरा काम है ।

शहरों के साहित्यक इतिहास लेखन की इस कड़ी में डॉ देवेन्द्र कुमार शर्मा की किताब हिंदी साहित्य का विकास ऐतिहासिक दृष्ठिकोण (प्रयाग 1900-1950) प्रकाशित हुआ है । इस किताब में लेखक ने इलाहाबाद के पचास साल का इतिहास लिखने की कोशिश की है । इस पुस्तक के प्रकाशन से एक बात साफ है कि अब हिंदी में साहित्य का इतिहास लिखने के कार्य का विकेन्द्रीकरण जोर पकड़ने लगा है । इतिहास लेखन एक श्रमसाध्य काम है । इतिहास लेखन में लेखक को एक कउसल नट की तरह से बेहद सावधानी से चलते हुए पतली सी रस्सी पर चलते हुए अपनी साख बचानी होती है । डॉ देवेन्द्र शर्मा की इस किताब में दो तीन उल्लेखनीय भूलें हैं जिन्हें ठीक किया जाना चाहिए । इन चंद भूलों को अगर दरकिनार कर दें तो देवेन्द्र शर्मा ने बहुत ही मेहनत के साथ इलाहाबाद शहर के पचास साल का इतिहास लिखा है । उन्होंने विस्तार से सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, सुमित्रानंदन पंत, महादेवी वर्मा, रामकुमार वर्मा, हरिवंश राय बच्चन और उनकी कृतियों के हवाले से इतिहास लेखन किया है । इसके अलावा लेखक ने उस दौर में इलाहाबाद में चलनेवाली साहित्यक संस्थाएं, पत्र-पत्रिकाएं और युगीन साहित्यकार और उनकी साधना के आदार पर एक शहर का इतहास प्रस्तुत किया है । इस किताब में साहित्यक संस्थाएं वाले अध्याय में कई दिलचस्प और उपयोगी जानकारियां हैं । इन जानकारियों से इस वक्त भी कई सवाल खड़े होते हैं । जैसे हिंदी साहित्य सम्मेलन ने 10 अक्तूबर 1910 को प्रस्ताव पारित किया था विश्वविद्यालय शिक्षा में हिंदी का आदर, राष्ट्रभाषा और राष्ट्र लिपि का निर्धारण । तकरीबन सौ साल बाद भी हमारे शीर्ष विश्वविद्लायों में हिंदी को अबतक आदर नहीं मिल पाया है और अब भी अंग्रेजी के बरक्श दोयम दर्जे पर ही है । इसी तरह से दीसरे अधिवेशन में पुरुषोत्तम दास टंडन के बनाए प्रस्तावों को पास किया गया । इसमें सबसे अहम था सारे देश में हिंदी के प्रति अनुराग उत्पन्न करने और उसकी श्रीवृद्धि के लिए प्रयत्न करना और हिंदी साहित्य की श्रीवृद्धि के लिए मानविकी, समाज शास्त्र वाणिज्य, विधि तथा विज्ञान और तकनीकी विषयों की पुस्तकों को लिखवाना और प्रकाशित करवाना । आजादी के करीब तीन दशक पहले लिए गए हमारे पुरखों के प्रण अब भी अधूरे हैं । इस मायने में देखें तो यह किताब कई गंभीर सवाल भी खड़े करती है । किसी भी किताब की सार्थकता इस बात में है कि वो अपने लेखों या संदर्भों से वैचारिक हलचल पैदा करती है या नहीं । इस कसौटी पर देवेन्द्र शर्मा की यह किताब खरी उतरती है । 

Sunday, September 14, 2014

सबका साथ, हिंदी का विकास

आज हिंदी दिवस है । एक फिर से सालाना उत्सव की तरह हिंदी पर खतरे की बात होगी । हिंदी पखवाड़े के नाम पर सरकारी कार्यालयों में पंद्रह दिनों तक हिंदी के उत्थान पर बातें होंगी। हिंदी के नाम पर, उसके विकास के नाम पर होनेवाले इस सालाना आयोजन पर करोड़ों रुपए खर्च होंगे । यह सब एक कर्मकांड की तरह होगा और फिर हालात सामान्य । हर साल की तरह इस बार भी ज्यादातर वक्ता हिंदी में अंग्रेजी शब्दों के बढ़ते इस्तेमाल और उसके भ्रष्ट होने पर छाती कूटते नजर आएंगें । हिंदी को लेकर इस तरह की चिंता दशकों से जताई जा रही है लेकिन समस्या की जड़ में जाने का गंभीर प्रयास नहीं हो रहा है । अब अगर हम अगर इतिहास की ओर चलें तो हिंदी को लेकर गंभीर चिंता वहां भी दिखाई देती है । हिंदी साहित्य सम्मेलन ने 10 अक्तूबर 1910 को प्रस्ताव पारित किया था विश्वविद्यालय शिक्षा में हिंदी का आदर, राष्ट्रभाषा और राष्ट्र लिपि का निर्धारण । तकरीबन सौ साल बाद भी हमारे शीर्ष विश्वविद्लायों में हिंदी को अबतक आदर नहीं मिल पाया है और अब भी अंग्रेजी के बरक्श दोयम दर्जे पर ही है । इसी तरह से साहित्य सम्मेलन के तीसरे अधिवेशन में पुरुषोत्तम दास टंडन के बनाए प्रस्तावों को पास किया गया । इसमें सबसे अहम था सारे देश में हिंदी के प्रति अनुराग उत्पन्न करने और उसकी श्रीवृद्धि के लिए प्रयत्न करना और हिंदी साहित्य की श्रीवृद्धि के लिए मानविकी, समाज शास्त्र वाणिज्य, विधि तथा विज्ञान और तकनीकी विषयों की पुस्तकों को लिखवाना और प्रकाशित करवाना । आजादी के करीब तीन दशक पहले लिए गए हमारे पुरखों के प्रण अब भी अधूरे हैं । हिंदी दिवस पर हिंदी की स्थिति पर विलाप करने से बेहतर होगा कि हम साहि्तय सम्मेलन में करीब सौ साल पहले पारित प्रस्तावों पर अब भी गंभीरता से काम करने की कोशिश करें । इन विषयों पर अगर हिंदी में मौलिक लेखन शुरू करवाने में कामयाब हो सकें तो यह हिंदी को मजबूत करने की दिशा में उठाया गया एक संजीदा कदम होगा ।
हिंदी के साथ दूसरी बड़ी समस्या है कि इसको हमेशा से अन्य भारतीय भाषाओं और अंग्रेजी के दुश्मन के तौर पर पेश किया गया । हमें अन्य भारतीय भाषाओं के साथ सहोदर जैसा व्यवहार करना होगा । अंग्रेजी से भी हिंदी को दुश्मनी छोड़कर उसके साथ कदम से कदम मिलाकर चलने की कोशिश करनी पड़ेगी क्योंकि दुश्मनी से नुकसान दोनों पक्षों का होता है । महात्मा गांधी भी हिंदी के प्रबल समर्थक थे और वो इसको राष्ट्रभाषा के तौर पर देखना भी चाहते थे लेकिन गांधी जी ने भी कहा भी था कि हिंदी का उद्देश्य यह नहीं है कि वो प्रांतीय भाषाओं की जगह ले ले । वह अतिरिक्त भाषा होगी और अंतरप्रांतीय संपर्क के काम आएगी । हमारा देश फ्रांस या इंगलैंड की तरह नहीं है जहां एक भाषा है । विविधताओं से भरे हमारे देश में दर्जनों भाषा और सैकड़ों बोलियां हैं लिहाजा यहां आपसी समन्वय और सामंजस्य के सिद्धांत को लागू करना होगा । इतना अवश्य है कि हमें यह सोचना होगा कि हिंदी राजभाषा तो बनी लेकिन अंग्रेजी का दबदबा कायम रहा । जनता की भाषा और शासन की भाषा एक नहीं हो सकी । इसका बड़ा नुकसान यह हुआ कि अंग्रेजी में कामकाज करनेवालों ने हिंदी को उसके हक से वंचित रखा । अंग्रेजी के पैरोकारों ने ऐसा माहौल बना दिया कि हिंदी अगर हमारे देश की भाषा बन गई तो अन्य भारतीय भाषाएं खत्म हो जाएंगी । लेकिन बावजूद इसके हिंदी बगैर किसी सरकारी मदद के अपना पांव फैला रही है और पूरे देश में संपर्क भाषा के रूप में स्थापित हो चुकी है । इसने विंध्य को पार किया भारत के सुदूर दक्षिणी छोर तक पहुंची, पूर्वोत्तर में भी हिंदी को लेकर एक माहौल बनने लगा है । हिंदी दिवस पर अगर हम सचमुच चिंता में हैं और दिल से इस भाषा का विकास चाहते हैं तो हमें भारतीय भाषाओं से संवाद को बढ़ाना होगा । एक भाषा से दूसरी भाषा के बीच के अनुवाद को बढ़ाना होगा । अन्य भारतीय भाषाओं में यह विश्वास पैदा करना होगा कि हिंदी के विकास से उनका भी विकास होगा । इस काम में भारत सरकार की बहुत अहम भूमिका है । उसको साहित्य अकादमी या अन्य भाषाई अकादमियों के माध्यम से इस काम को आहे ब़ढ़ाने के काम को बढ़ावा देने के उपाय ढूंढने होंगे । साहित्य अकादमी ने भाषाओं के समन्वय का काम छोड़ दिया । एक भाषा से दूसरी भाषा के बीच अनुवाद का काम भी अकादमी गंभीरता से नहीं कर पा रही है । अन्य भारतीय भाषाओं की हिंदी को लेकर जो शंकाए हैं उसको भी यह आवाजाही दूर कर सकेगी । हिंदी के विकास के लिए केंद्र सरकार ने वर्धा में महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय विश्वविद्यालय का गठन किया था । लेकिन यह विश्वविद्यालय अपने स्थापना के लगभग डेढ दशक बाद भी अपनिी पहचान बनाने के लिए ही संघर्ष कर रहा है । इस विश्वविद्यालय के माध्यम से भी हिंदी के विकास के लिए काम करने कीअनंत संभावनाएं हैं जिसपर काम होना अभी शेष है । हिंदी में शुद्धता की वकालत करनेवालों को भीअपनिी जिद छोड़नी होगी । नहीं तो हिंदी के सामने भी संस्कृत जैसा खतरा उत्पन्न हो जाएगा । गुलजार ने एक गाना लिखा था कजरारे कजरारे जो काफी हिट रहा । उसकी एक लाइन है आंखें भी कमाल करती हैं, पर्सनल से सवाल करती है । अब इसमें पर्सनल हटा कर व्यक्तिगत करने पर वो तीव्रता नहीं महसूस की जाती है ।

एक और अहम काम करना होगा कि सरकारी हिंदी को थोड़ा सरल बनाया जाए । सरकार में हिंदी की जिन शब्दावलियों का इस्तेमाल होता है उसको आसान बनाने के लिए शिद्दत के साथ जुटना होगा । भारत सरकार के पत्रकारिता और मुद्रण शब्दकोश को आज के हिसाब से बनाने के प्रोजेक्ट से जुड़े होने के अवुभव के आधार पर मैं कह सकता हूं कि सरकारी कामकाज के लिए जिन शब्दकोशों का उपयोग होता है वो बहुत पुराने हो चुके हैं । हिंदी इस बीचकाफी आधुनिक हो गई है । उसने अंग्रेजी के कई शब्दों को अपने में समाहित कर लिया है । इन शब्दकोशों को आधुनिक बना देने से सरकारी हिंदी भी आधुनिक हो जाएगी । इसकी वजह से एक बड़ा वर्ग लाभान्वित होगा और हिंदी ज्यादा लोकप्रिय हो पाएगी । तब ना तो हिंदी दिवस पर स्यापा होगा और ना ही उसकी चिंता पर करोड़ों रुपए खर्च होंगे ।  

Sunday, September 7, 2014

हिंदी कविता का ‘ब्रह्मराक्षस’

हिंदी कविता के महानतम हस्ताक्षरों में से एक गजानन माधव मुक्तिबोध के ऩिधन के पचास साल इसी सितंबर में पूरे हो रहे हैं । सितंबर उन्नीस सौ पैंसठ के नया ज्ञानोदय में कवि श्रीकांत वर्मा का एक लेख छपा था जिसमें उन्होंने कहा था अप्रिय सत्य की रक्षा का काव्य रचनेवाले कवि मुक्तिबोध को अपने जीवन में कोई लोकप्रियता नहीं मिली और आगे भी, कभी भी, शायद नहीं मिलेगी । श्रीकांत वर्मा ने अपने उसी लेख में आगे मुक्तिबोध के कवित्व के वैशिष्ट्य को व्याखायित भी किया था । कालांतर में श्रीकांत वर्मा की आशंका गलत साबित हुई और मुक्तिबोध निराला के बाद हिंदी के सबसे बड़े कवि के तौर पर ना केवल स्थापित हुए बल्कि आलोचकों ने उनकी कविताओं की नई नई व्याखाएं कर उनको हिंदी कविता की दुनिया में शीर्ष पर बैठा दिया । आलोचकों में मुक्तिबोध की कविताओं का सिरा पकड़ने को लेकर घमासान भी हुआ । डॉ रामविलास शर्मा ने उन्नीस सौ अठहत्तर में प्रकाशित अपनी किताब- नई कविता और अस्तित्ववाद में मुक्तिबोध की कविताओं का विस्तार से मूल्यांकन किया था । अपनी किताब में रामविलास शर्मा ने मुक्तिबोध की कविताओं को अस्तित्ववाद और रहस्यवाद से प्रभावित साबित करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी । डॉ शर्मा ने तो मुक्तिबोध को सिजोफ्रेनिया नामक बीमारी से ग्रस्त बता दिया था । नामवर सिंह ने डॉ रामविलास शर्मा की मुक्तिबोध को लेकर स्थापना का जबरदस्त विरोध किया । इन दो आलोचकों के बीच इस बात को लेकर लंबे समय तक बहस हुई कि कि मुक्तिबोध की रचनाओं में संघर्ष दिखाई देता है वह उनका अपना संघर्ष है या फिर पूरे मध्यवर्ग का संघर्ष है । कालांतर में अन्य आलोचकों ने रामविलास शर्मा की स्थापनाओं पर सवाल उठाए । मुक्तिबोध पर रामविलास शर्मा की स्थापनाओं को वरिष्ठ आलोचक नंदकिशोर नवल उनके संकीर्णतावादी मार्क्सवादी होने का परिणाम करार देते हैं और कहते हैं कि मुक्तिबोध ना केवल मानसिक रोगी नहीं थे बल्कि अपने युग के सर्वाधिक सुगठित व्यक्तित्ववाले रचनाकार थे । हिंदी साहित्य में मुक्तिबोध के कम्युनिस्ट होने या नहीं होने को लेकर भी लंबा विवाद चला । मुक्तिबोध कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य थे यह नेमिचंद्र जैन को उज्जैन से 12 मार्च 1943 को लिखे पत्र से साफ है । उस पत्र में उन्होंने लिखा था कि मैं पुन: पार्टी का सदस्य बना लिया गया हूं । मुझे कुछ निश्चित कार्य दिए गए हैं जिन्हें करना मेरे लिए खुशी की बात है । लेकिन उनकी रचनाओं का निकट से अध्ययन करने के बाद यह साफ होता है कि मार्क्सवाद में उनकी आस्था अवश्य थी लेकिन वो उसको अपने गले में गिरमलहार बनाकर नहीं लटकाए चलते थे ।
लीलाधर मंडलोई के संपादन में नया ज्ञानोदय ने सितंबर का अंक मुक्तिबोध पर एकाग्र किया है । इस अंक में मुक्तिबोध की कुछ अप्रकाशित रचनाओं के अलावा शमशेर बहादुर सिंह, श्रीकांत वर्मा अशोक वाजपेयी समेत कई लेखकों के लेख प्रकाशित हैं । इस अंक से नई पीढ़ी को मुक्तिबोध के बारे में जानने की मदद मिलेगी । श्रीकांत वर्मा ने उन्नीस सौ पैंसठ में आशंका जताई थी कि मुक्तिबोध को शायद कभी लोकप्रियता नहीं मिलेगी । अब यह ठीक से नहीं पता कि श्रीकांत वर्मा का लोकप्रियता से क्या आशय था लेकिन पिछले पचास साल से तो मुक्तिबोध की कविताओं ने हिंदी साहित्य को झकझोर कर रखा हुआ है। उनकी रचनाएं आलोचकों को लगातार चुनौती दे रही जिससे आलोचक मुठभेड़ भी कर रहे हैं । उनकी मशहूर कविता अंधेर में और चांद का मुंह टेढा है को लेकर अब भी आलोचकों में व्याख्यायित करने की होड़ सी लगी है । गजानन माधव मुक्तिबोध की पचासवीं पुण्य तिथिपर उनको नमन 

Monday, September 1, 2014

मोदी सरकार के सौ दिन

एक बहुत पुरानी कहावत है कि शासन इकबाल से चलता है । राजा या शासक की हनक हो तो फिर ज्यादातर काम बेहद सुचारू रूप से कार्यान्वित हो जाता है । नरेन्द्र मोदीकी सरकार ने जब जब 26 मई को कामकाज संभाला था तो प्रधानमंत्री के तौर पर नरेन्द्र मोदी की हनक साफ हो चुकी थी । इन सौ दिनों में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का इकबाल भी पूरे तौर पर स्थापित हो चुका है लिहाजा गवर्नेंस में, नीतिगत फैसलों में कहीं कोई दिक्कत देखने को नहीं मिल रही है । पिछले दस साल से सहयोगी दलों की वैशाखी और सोनिया गांधी की मर्जी पर चल रही मनमोहन सरकार के दूसरे कार्यकाल में शासक का नो तो इकबाल दिखता था और ना ही उनकी हनक । ऐसा लगता था कि एक ही सरकार में कई कई प्रधानमंत्री काम कर रहे हैं । सरकार का हाल वैसा ही था जैसा उस रथ का होता है जिसमें जुते चारों घोड़े अलग अलग दिशा में दौड़ने लगते हैं । मोदी की अगुवाई में जब भारतीय जनता पार्टी ने प्रचंड बहुमत हासिल किया तो इस बात की उ्ममीद बढ़ गई थी कि एक लोकतांत्रिक संस्था के तौर पर प्रधानमंत्री के पद की गरिमा बहाल होगी । मोदी सरकार के सौ दिन के कार्यकाल की यह सबसे बड़ी उपलब्धि है कि देश में प्रधानमंत्री के पद की गरिमा बहाल और उसकी सर्वोच्च सत्ता स्थापित हुई । इसका असर देश में हर ओर दिखने लगा । चाहे वो विदेशी निवेशकों का भरोसा हो या फिर विकास दर हो या फिर विदेश नीति हो । यह प्रधानमंत्री की हनक ही है कि अमेरिका भी उनकी आगवानी के लिए पलक पांवड़े विछाए हुए है । अपने शपथ ग्रहण समारोह में ही नरेन्द्र मोदी ने इस बात के संकेत दे दिए थे कि पड़ोसी देशों के साथ बेहतर संबंध उनकी प्राथमिकता होंगे । अपनी सरकार के सौ दिन पूरे होने के पहले उन्होंने भूटान और नेपाल की यात्रा की और विदेश मंत्री को बांग्लादेश और म्यांमार के दौरे पर भेजा । इन कदमों से सरकार की नीति औरनीयत दोनों के संकेत तो मिलते ही हैं क्योंकि भारत जैसे विशाल देश में किसी भी सरकार के आकलन के लिए सौ दिन का वक्त बहुत ही कम है ।
मोदी सरकार के सौ दिन की एक उपलब्धि यह मानी जा सकती है कि सरकार काम करती हुई दिखने लगी है । मंत्रालयों में बाबू वक्त पर मौजूद रहने लगे हैं । यह एक ऐसा बदलाव है जो सीधे सीधे लोगों को दिखाई देता है । पर किसी भी सरकार के आकलन के लिए यह बड़ा आधार नहीं हो सकता है । मोदी सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती शिक्षा, स्वास्थ्य और पर्यावरण के क्षेत्र में काम करना है । पिछले सौ दिन में अगर हम मानव संसाधन मंत्रालय के कामकाज पर नजर डालते हैं तो वहां से कोई बिग टिकट आइडिया दिखाई नहीं देता है । मोदी सरकार की शुरुआत ही में मानव संसाधन मंत्रालय दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति से उलझ गया था । हमारे देश में युवाओं की इतनी बड़ी संख्या है और प्रधानमंत्री लगातार कौशल विकास की बात करते हैं ऐसे में मानव संसाधन विकास मंत्रालय की महती जिम्मेदारी है कि वो देश में कौशल विकास के लिए जमीन तैयार करे । मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी खुद युवा और उर्जावान हैं तो उनसे यह अपेक्षा और बढ़ जाती है । बावजूद इसके मानव संसाधन मंत्रालय में फैसलों में देरी हो रही है । देश के दर्जनभर से ज्यादा विशवविद्यालयों के कुलपति के पद खाली हैं लेकिन उसको भरने की प्रक्रिया भी काफी धीमे गति से चल रही है । इसी तरह से पर्यावरण मंत्रालय में जयंति टैक्स भले ही खत्म हो गया है लेकिन विकास री राह में बाधा बन रहे कानूनों को बदलने की बातें तो हो रही हैं लेकिन ठोस पहल नहीं दिखाई दे रही है । पर्यावरण मंत्रालय ने हलांकि 5 जून से लेकर 28 जुलाई तक कई अहम फैसले लिए । 24 जुलाई को एक अहम फैसले में पर्यावरण की मंजूरी के लिए रुके डेढ सौ प्रोजेक्टों को एक साथ हरी झंडी दी गई ।
लोकसभा चुनाव जीतने के बाद सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती देश की अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने की थी । अप्रैल जून की तिमाही में आर्थिक विकास दर 5.7 फीसदी होने से अर्थव्यवस्था के पटरी पर लौटने के संकेत मिले हैं । इसके पहले के दो तिमाही में आर्थिक विकास दर 4.6 फीसदी के करीब थी । मोदी सरकार के काबिल वित्त मंत्री अरुण जेटली भले ही अर्थव्यवस्था को पटरी पर लौटाने में लगे हों लेकिन खराब मॉनसून की वजह से चुनौती और बढ़ती जा रही है । इसके अलावा वित्त मंत्रालय के सुधार प्रस्तावों को अमली जामा पहनाना बाकी है । रेट्रोस्पेक्टिव टैक्स के बारे में कानून में बदलाव का एलान हो गया है लेकिन उसपर कार्रवाई शेष है । इंश्योरेंस में 49 फीसदी विदेशी निवेश का कानून नहीं बन पाया है । एक्सपेंडिचर मैनेजमैंट कमीशन बना दिया गया है, कमेटी का एलान भी हो गया है लेकिन अबतक उसका टर्म ऑफ रेफरेंस सार्वजनिक नहीं हो पाया है । इस सरकार ने गुड्स एंड सर्विस टैक्स को देशभर में लागू करवाने का दावा किया था लेकिन अब इस बात के संकेत मिल रहे हैं कि यह कानून इस साल के अंत तक लागू हो पाएगा ।
मोदी सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती बढ़ती महंगाई पर काबू पाना था । जानकारों का मानना है कि सरकार को इस दिशा में अभी बहुत काम करना है । फल, सब्जी, चीनी जैसे आवश्यक वस्तुओं की कीमतो में कमी नहीं आने से मध्यमवर्ग के माथे पर चिंता की लकीरें कम नहीं हो रही है । सरकार को यह कोशिश करनी होगी कि चिंता की इन लकीरों को लोगों के माथे पर गहराने ना दें । इस दिशा में ही कदम उठाते हुए सरकार ने पेट्रोल की कीमतों और गैर सब्सिडी वाले सिलिडरों की कीमत में कमी की है । लेकिन अगर पिछले सौ दिन के सरकार के कार्यकाल में महंगाई पर उटाए गए कदमों को देखें तो वो नाकाफी हैं । सरकार को इस दिशा में ठोस कदमन उठाने होंगे । साथ ही सरकार को चाहिए कि वो अपनी पार्टी के नेताओं को महंगाई पर संवेदनहीन बयान देने से रोकें । प्रधानमंत्री के हाथ में जादू की छड़ी नहीं है जैसे बयान मध्यवर्ग की भावनाओं को आहत करते हैं ।
इसके अलावा पिछले सौ दिन में सरकार ने जजों की नियुक्ति के लिए नया कानून बनाया और कोलेजियम सिस्टम को खत्म कर दिया । यह मोदी सरकार के अहम फैसलों में से एक है । कोलेजियम सिस्टम पर अपने पसंद के लोगों को जज नियुक्त करने के आरोप लगते थे जिसकीआड़ में सरकार ने यह कदम उठाया । अब हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति छह सदस्यीय न्यायिक नियुक्ति कमीशन करेगी । सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश, सुप्रीम कोर्टके ही दो वरिष्ठ जज, कानून मंत्री और दो मशहूर न्यायविद या नागरिक इस कमीशन के सदस्य होंगे । नए कानून के मुताबिक कमीशन में दो न्यायविदों की नियुक्ति प्रधानमंत्री, मुख्य न्यायाधीश और नेता विपक्ष या लोकसभा में सबसे बड़े दल के नेता की तीन सदस्यीय कमेटी करेगी । कानून के मुताबिक अगर छह सदस्यीय कमीशन के दो सदस्य किसी भी उम्मीदवार के चयन से सहमत नहीं हैं तो उनका नाम राष्ट्रपति के पास नहीं भेजा जाएगा । नियुक्ति के लिए कम से कम पांच सदस्यों की सहमति आवश्यक की गई है । अब पेंच यहीं से शुरू होता है । संविधान कहता है कि हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में न्यायाधीशों की नियुक्ति में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की राय को वरीयता (प्राइमेसी) होगी । कल्पना कीजिए कि किसी भी जज की नियुक्ति के वक्त पांच सदस्य सहमत हैं और सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश उससे असहमत हैं तो क्या होगा । क्या सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की राय को दर किनार करते हुए पांच सदस्यों की राय पर जज की नियुक्ति के लिए राष्ट्रपति को संस्तुति कर दी जाएगी । अगर ऐसा होता है तो राष्ट्रपति के सामने बड़ा संकट खड़ा हो जाएगा । राष्ट्रपति इस मसले को प्रेसिडेंशियल रेफरेंस के तहत फिर से सुप्रीम कोर्ट की राय मांग सकते हैं । वहां जाकर एकबार फिर से मामला फंस सकता है । इस कानून में और भी कई झोल हैं और अंतिम फैसला सुप्रीम कोर्ट में होगा । सरकार के लिए यह सरदर्द बन सकता है । इसके अलावा सालों पुराने योजना आयोग को खत्म करके नई संस्था बनाने का कदम भी बेहतर है ।  
सौ दिन के मोदी सरकार की से लोगों को काफी उम्मीदें हैं । सरकार काम करती हुई दिख रही है । यह आनेवाले दिनों में तय होगा कि जिन उम्मीदों पर मोदी सरकार को जनता ने चुना था उन अपेक्षाओं पर सरकार खड़ी उतर पाई है या नहीं लेकिन इसके लिए सौ दिन नाकाफी हैं ।