‘राग दरबारी’ तो घटिया उपन्यास है । मैं उसे हिंदी के पचास उपन्यासों
की सूची में भी नहीं रखूंगा । पता नहीं ‘राग दरबारी’ कहां से आ जाता है ? वह तीन कौड़ी का उपन्यास है । हरिशंकर
परसाईं की तमाम चीजें राग दरबारी से ज्यादा अच्छी हैं । वह व्यंग्य बोध भी श्रीलाल
शुक्ल में नहीं है जो परसाईं में है । उनके पासंग के बराबर नहीं है श्रीलाल शुक्ल और
उनकी सारी रचनाएं – यह बात कही है हिंदी के बुजुर्ग लेखक
और कथालोचक विजय मोहन सिंह ने । महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय विश्वविद्लाय की पत्रिका
बहुवचन में कृष्ण कुमार सिंह ने विजय मोहन सिंह का साक्षात्कार किया है । इस इंटरव्यू
में विजय मोहन सिंह ने और भी कई ऐसी मनोरंजक बातें कहीं हैं । एक जगह विज मोहन सिंह
कहते हैं – नागार्जुन का जिक्र मैंने अपनी किताब में काका हाथरसी
के संदर्भ में भी किया था जो बाद में मैने हटा दिया । केदारजी उसको पढ़कर दुखी हो गए
थे ।उन्होंने ही उसे निकलवा दिया । नागार्जुन की कमजोरियों का हाल तो यह है कि कई जगह
उन्हें पढ़ते हुए लगा और मैंने लिखा भी कि वे बेहतर काका हाथरसी हैं । केदार जी इससे
दुखी और कुपित हो गए थे कि येक्या कर रहे हैं । मैने वह वाक्य हटा जरूर दिया लेकिन
मेरी ऑरिजिनल प्रतिक्रिया यही थी । कुल मिलाकर नागार्जुन की कमजोरियां वह नहीं हैं
जो निराला की हैं । इस तरह की कई बातें और फतवे विजयमोहन जी के इस साक्षात्कार में
है जहां वो प्रेमचंद के गोदान से लेकर शिवमूर्ति तक को खारिज करते हुए चलते हैं । विजयमोहन
सिंह के इस पूरे इंटरव्यू को पढ़ने के बाद लगता है कि वो हर जगह पर रचनाकारो का सतही
मूल्यांकन करते हुए निकल जाते हैं । इसकी वजह से उनका यह साक्षात्कार सामान्यीकरण के
दोष का भी शिकार हो गया है ।
जिस तरह से विजय मोहन सिंह ने श्रीलाल शुक्ल के कालजयी उपन्यास राग दरबारी को घटिया
और तीन कौ़ड़ी का उपन्यास कहा है वह उनकी सामंती मानसिकता का परिचायक है । इस तरह की
भाषा बोलकर विजय मोहन सिंह ने खुद का स्तर थोड़ा नीचे किया है । साहित्य में भाषा की
एक मर्यादा होनी चाहिए । किसी भी कृति को लेकर किसी भी आलोचक का अपना मत हो सकता है
, उसके प्रकटीकरण के लिए भी वह स्वतंत्र होता है लेकिन मत प्रकटीकरण मर्यादित तो होना
ही चाहिए । अपनी किताब हिंदी उपन्यास का इतिहास में गोपाल राय ने भी राग दरबारी को
असफल उपन्यास करार दिया है । उन्होंने इसकी वजह उपन्यास और व्यंग्य जैसी दो परस्परविरोधी
अनुशासनों को एक दूसरे से जोड़ने के प्रयास बताया है । गोपाल राय लिखते हैं – व्यंग्य के लिए कथा का उपयोग लाभदायक होता है पर उसके लिए उपन्यास का ढांचा भारी
पड़ता है । उपन्यास में व्यंग्य का उपयोग उसके प्रभाव को धारदार बनाता है पर पूरे उफन्यास
को व्यंग्य के ढांचे में फिट करना रचनाशीलता के लिए घातक होता है । व्यंग्यकार की सीमा
यह होती है कि वह चित्रणीय विषय के साथ अपने को एकाकार नहीं कर पाता है । वह स्त्रटा
से अधिक आलोचक बन जाता है । स्त्रष्टा अपने विषय से अनुभूति के स्तर पर जुड़ा होता
है जबकि व्यंग्यकार जिस वस्तु पर व्यंग्य करता है उसके प्रति निर्मम होता है । यहां
गोपाल राय ने किसी आधार को उभारते हुए राग दरबारी को असफल उपन्यास करार दिया है लेकिन
उन्होंने भी इसे घटिया या तीन कौड़ी का करार नहीं दिया है । ऐसा नहीं है कि राग दरबारी
को पहली बार आलोचकों ने अपेन निशाने पर लिया है । जब यह 1968 में यह उपन्यास छपा था
तब इसके शीर्षक को लेकर श्रीलाल शुक्ल पर हमले किए गए थे और उनके संगीत ज्ञान पर सावल
खड़े किए गए थे । आरोप लगानेवाले ने तो यहां तक कह दिया था कि श्रीलाल शुक्ल को ना
तो संगीत के रागों की समझ है और ना ही दरबार की । लगभग आठ नौ साल बाद जब भीष्म साहनी
के संपादन में 1976 में आधुनिक हिंदी उपन्यास का प्रकाशन हुआ तो उसमें श्रीलाल शुक्ल ने लिथा था- दूसरों की प्रतिभा और कृतित्व
पर राय देकर कृति बननेवाले हर आदमी को बेशक दूसरों को अज्ञानी और जड़ घोषित करने का
हक है, कुछ हद तक यह उसके पेश की मजबूरी भी है, फिर भी किताब पढ़कर कोई भी देख सकता
है कि संगीत से इसका कोई सरोकार नहीं है और शायद मेरा समीक्षक भी जानता है कि यह राग
उस दरबार का है जिसमें हम देश की आजादी के बाद और उसके बावजूद, आहत अपंग की तरह डाल
दिए गए हैं या पड़े हुए हैं ।
हिंदी के आलोचकों के निशाने पर होने के बावजूद राग दरबारी अबतक पाठकों के बीच लोकप्रिय
बना हुआ है । अब भी पुस्तक मेलों में राग दरबारी और गुनाहों का देवता को लेकर पाठकों
में उत्साह देखनो को मिलता है । इसकी कोई तो वजह होगी कि अपने प्रकाशन के छयालीस साल
बाद भी राग दरबारी पाठकों की पसंद बना हुआ है । अब तक इसके हार्ड बाउंड और पेपर बैक
मिलाकर बहत्तर से ज्यादा संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं । इनमें छात्रोपयोगी संस्करणों
की संख्या शामिल नहीं है । यह सही है कि आजादी के बाद हिंदी लेखन में सरकारी तंत्र
पर सबसे ज्यादा व्यंग्य हरिशंकर परसाईं ने किया और उनके व्यंग्य बेजोड़ होते थे, मारक
भी । लेकिन हरिशंकर परसाईं के व्यंग्य की तुलना श्रीलाल शुक्ल के राग दरबारी के व्यंग्य
से करना उचित नहीं लगता है और इस आधार पर राग दरबारी को घटिया और तीन कौड़ी को कह देना
तो अनुचित ही है । रेणु के उपन्यासों में सरकारी तंत्र का उल्लेख यदा कदा मिलता है
। कुछ अन्य लेखकों ने भी सरकारी तंत्र को अपने कथा लेखन का विषय बनाया लेकिन पूरे उपन्यास
के केंद्र में सरकारी तंत्र को रखकर श्रीलाल शुक्ल ने ही लिखा । इसके बाद गिरिराज किशोर
ने यथा प्रस्तावित और गोविन्द मिश्र ने फूल इमारतें और बंदर में सरकारी तंत्र के अधोपतन
को रेखांकित किया । इस पूरे उपन्यास को व्यंग्य के आधार पर देखने की भूस विजय मोहन
सिंह जैसा आलोचक करे तो यह बढ़ती उम्र का असर ही माना जा सकता है । दरअसल हिंदी में
आलोचकों को लंबे अरसे से यह भ्रम हो गया है कि वो किसी लेखक को उठा या गिरा सकते हैं
। इसी भ्रमवश आलोचक बहुधा स्तरहीन टिप्पणी कर देते हैं और विजय मोहन सिंह की राग दरबारी
और नागार्जुन के बारे में यह टिप्पणी उसकी एक मिसाल है ।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने बहुत कोशिश की थी वो जायसी को हिंदी कविता की शीर्ष त्रयी-
सूर, कबीर और तुलसी – के बराबर खड़ा कर दें । रामचंद्र शुक्ल
ने जायसी पर बेहतरीन लिखा है, इसमें कोई दो राय नहीं लेकिन बावजूद इसके लोक या पाठकों
के बीच वो जायसी को सूर कबीर और तुलसी की त्रयी के बराबर खड़ा नहीं कर सके । दरअसल
आलोचकों की जो दृष्टि है वो वहां तक नहीं पहुंच पाती है जहां तक रचनाकारों की दृष्टि
पहुंचती है । या फिर कहें कि आलोचकों की दृष्टि रचनाकारों के बाद वहां तक पहुंच पाती
है । आलोचकों के उठाने गिराने के खेल के बारे में मिजय मोहन सिंह ने अपने इसी इंटरव्यू
में इशारा भी किया है । आलोचकों की अपनी एक भूमिका होती है, उनका एक दायरा होता है
लेकिन जब उनके दंभ से यह दायरा टूटता है तो फिर इस तरह की फतवेबाजी शुरू होती है कि
फलां रचना दो कौड़ी या तीन कौड़ी की है । इसका एक दुष्परिणाम यह हुआ है कि आलोचना में
संवाद कम वाद विवाद ज्यादा होने लगे हैं । यह वक्त आलोचना और आलोचकों के लिए गंभीर
मंथन का है कि कयोंकर वो साहित्य की धुरी नहीं रह गया है । एक जमाने में सूर्यकांत
त्रिपाठी निराला ने कहा था कि यदि उनकी कविताएं आचार्य रामचंद्र शुक्ल सुन रहे हैं
तो जैसे समूचा हिंदी जगत सुन रहा है । आज लेखकों और आलोचकों के बीच में यह विश्वास
क्यों खत्म हो गया । क्या इसके पीछे आलोचक के पूर्वग्रह हैं या फिर विजय मोहन सिंह
जैसी फतवेबाजी का नतीजा है । विजय मोहन सिंह ने अपने उसी इंटरव्यू में कहा है कि मापदंड
और कसौटी उनको कर्कश लगते हैं । उनेक मुताबिक रचना के समझ के आधार पर रचना का मूल्यांकन
किया जाता है । तो क्या यह मान लेना चाहिए कि विजय मोहन सिंह ना तो राग दरबारी को समझ
पाए और ना ही नागार्जुन की अकाल पर लिखी कविता को । जिस तरह से उन्होंने अपने इंटरव्यू
में लेखकों के लिए शब्दों का इस्तेमाल किया है वह आपत्ति जनक है – राग दरबारी तीन कौड़ी की, नागार्जुन बेहतर काका हाथरसी, शिवमूर्ति औसत दर्जे का
कहानी कार । आलोचना और रचना के बीच विश्वास कम होने की यह एक बड़ी वजह है ।