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Monday, June 1, 2015

पत्रों में समय- संस्कृति

अभी हाल ही में वरिष्ठ पत्रकार अत्युतानंद मिश्रा के संपादन में निकली किताब पत्रों में समय संस्कृति देखने को मिली । यह किताब एक जमाने में मशहूर पत्रिका कल्याण के सर्वेसर्वा रहे हनुमान प्रसाद पोद्दार को लिखे पत्रों का संग्रह है । किताब को मैं जैसे जैसे पलटता चलता था मेरा अचंभा बढ़ता जाता था । कल्याण पत्रिका को अब की पीढ़ी नहीं जानती है । बचपन में हमारे घर में कल्याण पत्रिका आती थी । मुझे अब भी याद है कि खाकी रैपर में लिपटी कल्याण को डाकिया एक तय तिथि को हमारे घर दे जाता था । उस वक्त मुझे लगता है कि कल्याण हर घर के लिए जरूरी पत्रिका थी । कल्याण को बाद के दिनों में इस तरह से प्रचारित किया गया कि वो धार्मिक पत्रिका है । अच्युतानंद मिश्रा के संपादवन में निकली इस किताब को पढ़ने के बाद यह भ्रांति दूर होती है । हनुमान प्रस्दा पोद्दार जी के पत्रों को पढ़ते हुए यह साफ तौर पर साबित होता है कि उस वक्त कल्याण में समाज के हर क्षेत्र और वर्ग के विद्वान लिखा करते थे । इस किताब में नंद दुलारे वाजपेयी, जयशंकर प्रसाद, प्रेमचंद, महावीर प्रसाद द्विवेदी, मैथिलीशरण गुप्त, सियारामशरण गुप्त, कन्हैयालाल मिश्र, चतुरसेन शास्त्री आदि के तमाम पत्र हैं । तीन मार्च बत्तीस का प्रेमचंद का एक पत्र है जिसमें वो कहते हैं आपके दो कृपा पत्र मिले। काशी से पत्र यहां आ गया था । हंस के विषय में आपने जो सम्मति दी है उससे मेरा उत्साह बढ़ा । मैं कल्याण के ईश्वरांक के लिए अवश्य लिखूंगा । क्या कहें आप काशी गए और मेरा दुर्भाग्य कि मैं लखनऊ में हूं । भाई महावीर प्रसाद बाहर हैं या भीतर मुझे ज्ञात नहीं । उनकी स्नेह स्मृतियां मेरे जीवन की बहुमूल्य वस्तु हैं । वह तो तपस्वी हैं, उन्हें क्या खबर कि प्रेमभी कोई चीज है । इसी तरह के कई पत्र हैं जिनसे उस वक्त के परिदृश्य से परदा हटता है, धुंध भी छंटती है ।

इस किताब को पढ़ते हुए जेहन में एक बात बार बार कौंध रही थी कि इस वक्त को पकड़ने के लिए पत्र तो नहीं होंगे । इंटरनेट के फैलाव ने पत्रों की लगभग हत्या कर दी है । पत्रों की जगह ईमेल ने ली है । पत्रों की जगह एसएमएस ने ले ली है । पत्रों की बजाए अब फेसबुक पर संवाद होने लगे हैं । तकनीक ने पत्रों को महसूस करने के अहसास से हमें महरूम कर दिया । इन भावनात्मक नुकसान के अलावा एक और नुकसान हुआ है वह ये कि पत्रों में एक वक्त का इतिहास बनता था । उस वक्त चल रहे विमर्शों और सामाजिक स्थितियों पर प्रामाणिक प्रकाश डाला जा सकता था लेकिन पत्रों के खत्म होने से साहित्य की एक समृद्ध विधा तो लगभग खत्म हो ही गई है इतिहास का एक अहम स्त्रोत भी खत्म होने के कगार पर है । अब अगर हम महावीर प्रसाद पोद्दार जी के पत्रों की बात करें या मुक्तिबोध को लिखे पत्रों की बात करें तो यह साफ तौर पर कह सकते हैं कि इन संग्रहों में उस दौर को जिया जा सकता है । अच्युतानंद मिश्र जी द्वारा संपादित इस किताब में निराला जी का एक पत्र है सह अक्तूबर उन्नीस सौ इकतीस का जिसमें वो लिखते हैं प्रिय श्री पोद्दार जी, नमो नम: । आपका पत्र मिला । मैं कलकत्ता सम्मेलन में जाकर बीमार पड़ गया । पश्चात घर लौटने पर अनेक गृह प्रबंधों में उलझा रहा । कई बार विचार करने पर भी आपके प्रतिष्ठित पत्र के लिए कुछ नहीं लिख सका । क्या लिखूं , आपके सहृद्य सज्जनोचित बर्ताब के लिए मैं बहुत लज्जित हूं । आपके आगे के अंकों के लिए कुछ-कुछ अवश्य भेजता रहूंगा । एक प्रबंध कुछ ही दिनों में भेजूंगा । अब निराला के इन पत्रों या कल्याण में छपे निराला के लेखों का सामने आना शेष है । अगर मेरी स्मृति मेरा साथ दे रही है तो नंदकिशोर नवल द्वारा संपादित निराला रचनावली में ना तो ये पत्र हैं और ना ही कल्याण में छपी उनकी रचनाएं । कहने का अर्थ यह है कि पत्रों के माध्यम से हम साहित्येतास को भी सही कर सकते हैं । 

1 comment:

डॉ. मोनिका शर्मा said...

विचारणीय बात है । बढ़िया लेख