हिंदी फिल्मों के इतिहास और हिंदी साहित्य पर नजर
डालें तो बहुत दिलचस्प चीजें सामने आती हैं। कुछ लेखकों का फिल्मों का अनुभव बहुत
बुरा है। हिंदी के कथा सम्राट प्रेमचंद तो फिल्मों को लेकर बहुत दुखी रहते थे। रामवृक्ष
बेनीपुरी जी ने अपने एक संस्मरण में प्रेमचंद के दर्द को सार्वजनिक किया है- ‘1934 की बात है । बंबई
में कांग्रेस का अधिवेशन हो रहा था । इन पंक्तियों का लेखक कांग्रेस के अधिवेशन
में शामिल होने आया । बंबई में हर जगह पोस्टर चिपके हुए थे कि प्रेमचंद जी
का ‘मजदूर’ अमुक
तारीख से रजतपट पर आ रहा है । ललक हुई, अवश्य देखूं कि
अचानक प्रेमचंद जी से भेंट हुई । मैंने ‘मजदूर’ की
चर्चा कर दी । बोले ‘यदि तुम मेरी इज्जत करते हो तो ये फिल्म कभी नहीं देखना ।’ यह
कहते हुए उनकी आंखें नम हो गईं । और, तब से इस कूचे में
आने वाले जिन हिंदी लेखकों से भेंट हुई सबने प्रेमचंद जी के अनुभवों को ही दोहराया
है ।‘हिंदी फिल्मों का
साहित्य से बड़ा गहरा और पुराना नाता रहा है। कई लेखक साहित्य के रास्ते फिल्मी
दुनिया पहुंचे थे। प्रेमचंद से लेकर विजयदान देथा की कृतियों पर फिल्में बनीं।
कइयों को शानदार सफलता और प्रसिद्धि मिली तो ज्यादातर बहुत निराश होकर लौटे
।प्रेमचंद, अमृत लाल नागर, उपेन्द्र नाथ अश्क, पांडेय बेचन शर्मा उग्र, गोपाल सिंह नेपाली,सुमित्रानंदन पंत जैसे साहित्यकार भी फिल्मों से जुड़ने को आगे बढ़े थे,
लेकिन जल्द ही उनका मोहभंग हुआ और वो वापस साहित्य की दुनिया में
लौट आए ।
लेकिन इससे इतर या इसका एक दूसरा पक्ष भी है । कुछ
ऐसी कहानियां या उपन्यास हैं जिसपर फिल्मकार दशकों बाद आजतक तक फिदा हैं। कहानी की
मूल आत्मा को बरकरार रखते हुए उसकी स्थितियों और घटनाओं में परिवर्तन कर नयापन
लाने की कोशिश करते हैं। शरतचंद्र चट्टोपाध्याय की कृति ‘देवदास’ फिल्मों के इसी
कोष्ठक में है। ये उपन्यास लगभग हर पीढ़ी के भारतीय फिल्मकारों को अपनी ओर खींचता
रहा है। यह अकारण नहीं है कि देवदास पर आधारित अबतक छह फिल्में तो सिर्फ हिंदी में
बन चुकी हैं। अन्य भारतीय भाषाओं में भी दर्जनों फिल्में इस उपन्यास पर बनी हैं। हिंदी
में ‘देवदास’ पर सबसे पहले फिल्म
बनाई प्रमथेस बरुआ ने जिसमें के एल सहगल प्रोटेगनिस्ट की भूमिका में थे। बरुआ ने
हिंदी और बांग्ला में इस फिल्म का निर्माण किया था। हलांकि इस बात की चर्चा भी
मिलती है कि नरेश मिश्रा ने 1928 में ‘देवदास’ के नाम से एक मूक फिल्म बनाई थी। बरुआ के बाद
विमल रॉय ने भी देवदास पर फिल्म बनाई जिसमें दिलीप कुमार ने यादगार भूमिका निभाई। यहां
यह जानना दिलचस्प होगा कि विमल रॉय प्रमथेस बरुआ की फिल्म देवदास के कैमरापर्सन
थे। बीस साल बाद जब उन्होंने दिलीप कुमार को लेकर फिल्म बनाई वो दर्शकों को खूब
पसंद आई। देवदास में दिलीप कुमार के साथ सुचित्रा सेन और वैजयंती माला थीं। यहां
भी एक दिलचस्प कहानी है जो इस फिल्म से जुड़ी है। इस फिल्म में अभिनय के लिए
वैयजंयती माला को बेस्ट सपोर्टिंग एक्ट्रेस का फिल्मफेयर अवॉर्ड देने की घोषणा हुई
थी जिसे उन्होंने ठुकरा दिया था।
इसके बाद संजय लीला भंसाली ने शाहरुख खान, माधुरी
दीक्षित और एश्वर्या राय को लेकर देवदास बनाई। जिसमें पारो की भूमिका में एश्वर्या
राय और चंद्रमुखी की भूमिका माधुरी दीक्षित ने निभाई। संजय लीला भंसाली ने भी
कहानी में बदलाव किया था। इसके पहले सत्तर के दशक में गुलजार ने धर्मेन्द्र, हेमा
मालिनी और शर्मिला टैगोर को लेकर ‘देवदास’ बनाने की कोशिश की थी लेकिन वो फिल्म बन नहीं
पाई। अगर वो फिल्म बनती तो प्रथमेश बरुआ की परंपरा जो विमल रॉय के माध्यम से
दर्शकों के सामने आई थी वो आगे बढ़ती। विमल रॉय, प्रथमेश बरुआ के कैमरामैन थे उसी
तरह से गुलजार भी विमल रॉय के असिस्टेंट थे। इसके बाद से देवदास पर आधारित ‘देव डी’ बनी जिसमें
फिल्मकार अनुराग कश्यप ने स्थितियां बहुत बदल दीं और कहानी को नए संदर्भ दिए लेकिन
मूल आत्मा वही रही। अंग्रेजी के एक समीक्षक ने ‘देव डी’ को बारे में लिखा था कि ये उपन्यास देवदास का लूज एडप्टेशन है।
‘देवदास’ उपन्यास पर ताजा
फिल्म है ‘दासदेव’। इस फिल्म को सुधीर
मिश्रा ने निर्देशित किया है और संजीव कुमार ने प्रोड्यूस किया है। यह फिल्म
आधारित तो है शरतचंद्र के उपन्यास पर इसको राजनीति की संवेदनहीन भूमि पर नए
संदर्भों और स्थितियों के आधार पर पेश किया है। कहानी उत्तर प्रदेश के एक गांव से
शुरू होती है और वहीं पर खत्म हो जाती है। दरअसल अगर हम शरतचंद्र के 1917 में लिखे
उपन्यास ‘देवदास’ में इसका नायक अपने
प्यार के लिए खुद को बर्बाद करता है। राजनीति की खूनी जमीन पर ‘दासदेव’ में सुधीर मिश्रा
ने देव चौहान के किरदार के माध्यम से इस थीम को मजबूती देने की कोशिश की है। राजनीति
की बंजर जमीन पर प्यार की कोमल भावनाओं को रिचा चड्डा और अदिति राव हैदरी ने अपनी जानदार
भूमिकाओं से जीवंत कर दिया है। दरअसल अगर हम सूक्ष्मता से देखें तो सुधीर मिश्रा
ने अपनी इस फिल्म ‘दासदेव’ में शरतचंद्र के
उपन्यास ‘देवदास’ और शेक्सपियर की
कृति ‘हैमलेट’ को मिला दिया है और
‘देवदास’ की कहानी को भी
थोड़ा सा उलट दिया है। शरतचंद्र में जहां नायक खुद को बर्बाद करता है वहीं दासदेव
का नायक खुद को बर्बाद करने के बाद नाम बदलकर अपने प्यार पारो को पाने में कामयाब
हो जाता है। अदिति राव हैदरी ने चांदनी की भूमिका में राजनीति के उस पक्ष को उजागर
कर दिया है जहां सत्ता के शीर्ष पर बैठे शख्स का विद्रूप चेहरा सामने आता है। इस
फिल्म में जबरदस्त हिंसा है, फिल्म बहुत तेजी से चलती है लेकिन प्रेम की गहराई तब
भी कहीं कम नहीं होती, प्रेम का आवेग कहीं बाधित नहीं होता। इस फिल्म में प्रेम की
इंटेंसिटी है लेकिन कई बार राजनीतिक षडयंत्रों के बीच वो नेपथ्य में जाती दिखती है,
फिर वापस केंद्र में आ जाती है।
इस तरह से अगर हम देखते हैं तो देवदास की मूल
कहानी को अपनाते हुए भी कई फिल्मकार उसमें बदलाव करते चलते हैं। नायक द्वारा अपने
प्यार को पाने के लिए खुद को बर्बाद करने की थीम पर भी कई फिल्में बनीं। साहित्यकारों
को बहुधा शिकायत रहती है कि उनकी रचना के साथ छेड़छाड़ की गई। प्रेमचंद का भी यही
दर्द था। लेकिन हमें इस संदर्भ में गुरुवर रवीन्द्र नाथ टैगोर के कथन को याद करना चाहिए। उन्होंने
1929 में शिशिर कुमार भादुड़ी के भाई मुरारी को लिखे एक पत्र में सिनेमा और
साहित्य पर अपने विचार प्रकट किए थे। टैगोर ने लिखा था- ‘कला
का स्वरूप अभिव्यक्ति के मीडियम के अनुरूप बदलता चलता है। मेरा मानना है कि फिल्म
के रूप में जिस नई कला का विकास हो रहा है वो अभी तक रूपायित नहीं हो पाई है। हर
कला अपनी अभिव्यक्ति की स्वाधीन शैली अपने रचना जगत में तलाश लेती है। सिनेमा के
लिए सृजनशीलता ही काफी नहीं है उसके लिए पूंजी भी आवश्यक है और सिनेमा में बिंबों
के प्रभाव के माध्यम से अभिव्यक्ति को पूर्णता प्राप्त होती है।‘ टैगोर ने आज से करीब नब्बे वर्ष पहले जो लिखा था वो आज भी मौजूं है। कला
अपने अभिव्यक्ति की स्वाधीन शैली तलाशती ही है। ध्यान सिर्फ इतना रखना चाहिए कि पूंजी
को आवश्यक तो माना जाए लेकिन सिर्फ उसको ही आवश्यक मानने से सृजनशीलता से लेकर
बिंबों तक पर असर पड़ने लगेगा। ‘दासदेव’ में यह तो नहीं दिखाई देता है क्योंकि सुधीर मिश्रा ने बेहद खूबसूरती के
साथ कहानी को शरतचंद्र के यहां से उठाते हुए उसको एक नई कल्पनाशीलता में पिरोया
है। अब इस बात पर बहस तो हो सकती है कि फिल्मकार किसी कृति में छेड़छाड़ की कितनी छूट
ले सकता है। इसपर साहित्य जगत मे लंबी बहसें पहले भी हुई हैं और अब भी की साहित्यक
कृति पर फिल्म का निर्माण होता है तो इस मुद्दे पर चर्चा शुरू हो जाती है। जब
सत्यजित राय प्रेमचंद की कृति ‘शतरंज के खिलाड़ी’ पर फिल्म बना रहे थे तब भी यह बहस हुई थी और कहा गया था कि सत्यजित राय
ने मूल कथानक के साथ छेड़छाड़ की । जब हिंदी के मशहूर कथाकार विजयदान देथा की
कहानी पर ‘पहेली’ फिल्म बनी थी तब भी उसमें
काफी बदलाव किया गया था। वाद विवाद भी हुए थे। अब जब दासदेव में शतरचंद्र और
शेक्सपियर को मिला दिया गया है, सुधीर मिश्रा ने फिल्म की शुरुआत में इसका
पर्याप्त संकेत भी किया है,तो साहित्य जगत में इसको लेकर क्या प्रतिक्रिया होती है
यह देखना दिलचस्प होगा।