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Saturday, July 20, 2024

हिंदू-मुसलमान के चक्रव्यूह में शासनादेश


उत्तर प्रदेश सरकार के एक आदेश की इन दिनों बहुत चर्चा है। कई विपक्षी दल और बयान बहादुर किस्म के नेता इस आदेश को समाज को बांटनेवाला बता रहे हैं। आदेश ये है कि कांवड़ यात्रियों के मार्ग में पड़नेवाले सभी दुकानों, ढाबों और ठेलों पर दुकान मालिक का नाम, रेट लिस्ट और दुकान मालिक का मोबाइल नंबर लिखना अनिवार्य कर दिया गया है। यह आदेश समान रूप से सभी दुकानों के लिए है। किसी जाति और मजहब के दुकानदारों के लिए नहीं। इस आदेश के बाद तथाकथित सेक्युलर ब्रिगेड को लगने लगा कि ये मुसलमानों को चिन्हित करने के लिए किया जा रहा है। जमीयत उलमा-ए-हिंद ने भी एक बयान जारी कर सरकार से इस फैसले को वापस लेने की मांग की है। जमीयत उलमा-ए-हिंद के अध्यक्ष मौलाना महमूद असद मदनी ने इस निर्णय को अनुचित, पूर्वाग्रह पर आधारित और भेदभावपूर्ण बताया है। उन्होंने अपने बयान में आगे ये भी कहा कि ये फैसला मुसलमानों को दोयम दर्जे का नागरिक बनाने की घिनौनी साजिश है। अपने बयान में मदनी ने सभी धर्म के लोगों से अपील की है कि वो एकजुट होकर इसके विरुद्ध आवाज उठाएं। अब जरा निर्णय की बात कर ली जाए। खानपान व्यवसाय के लिए उत्तर प्रदेश सरकार ने 2006 में एक नियम बनाया था। उसको खाद्य सुरक्षा और मानक अधिनियम कहा गया। इस अधिनियम के अनुसार प्रत्येक रेस्तरां या ढाबा संचालक को अपनी फर्म का नाम, अपना नाम और लाइसेंस संख्या लिखना अनिवार्य है। ग्राहक जागो अभियान के अंतर्गत भी इस बात की अनिवार्यता की गई थी कि हर प्रतिष्ठान पर उसके मालिक का नाम, पंजीयन संख्या और वहां की सेवाओं या वस्तुओं का रेट कार्ड लगाया जाएगा। तब किसी भी कोने अंतरे से इसके विरोध की आवाज नहीं आई थी। कारण कि तब तथाकथित सेक्यूलरों की सरकार थी। अब योगी आदित्यनाथ की सरकार है तो उनको घेरने के लिए इसका एक राजनीतिक औजार की तरह उपयोग हो रहा है। पुराने कानून को लागू करने से कैसे समाज में हिंदू-मुसलमान विभेद उत्पन्न हो जाएगा, ये समझ से परे है। 

स्वाधीनता के 75 वर्षों बाद भी अगर समाज में हिंदू और मुसलमान के बीच सिर्फ नाम जानने के बाद विभेद पैदा हो रहा है तो इस बात पर विचार किया जाना चाहिए कि हमने कैसा समाज बनाया। गंगा-जमुनी संस्कृति को नारे की तरह उपयोग करनेवालों को ये सोचना चाहिए कि इस कथित गंगा-जमुनी संस्कृति की नींव कितनी कमजोर थी जो सिर्फ नाम जान लेने से दरक जा रही है। नाम उजागर करने से मुसलमान चिन्हित कैसे हो जाएंगे। जमीयत के नेता इसको घिनौनी साजिश बता रहे हैं, लेकिन कैसे, ये नहीं बता पा रहे हैं। जहां तक नाम के सार्वजनिक करने का प्रश्न है तो नाम तो हर जगह सार्वजनिक होता है। किसी जिलाधिकारी के कमरे में जाइए तो उसकी मेज पर उसकी नाम पट्टिका रखी होती है। यहां तक कि प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति की भी नेमप्लेट, जहां आवश्यक होता है, वहां लगाई जाती है। हर पुलिस आफिसर और सैनिक की वर्दी पर उसका नाम लगा होता है। नाम जान लेने से समाज के बंटने का तर्क बेहद सतही है। समाज को इस बात पर चिंता करनी चाहिए कि कुछ लोग हर बात को हिंदू-मुसलमान के चश्मे से देखने लगते हैं। 

शास्त्रीय संगीत की बात करें। क्या कभी भी उस्ताद बिस्मिल्ला खां की शहनाई को इस कारण से सुनना बंद किया कि वो मुसलमान हैं। किसी ने उस्ताद अल्लारखा खान से लेकर उस्ताद अलाउद्दीन खान, बड़े गुलाम अली खां, विलायत खां, बेगम अख्तर, रसूलन बाई जैसे दिग्गज कलाकारों के सम्मान में कोई कमी की। सबके नाम सार्वजनिक थे हैं और सभी कलाकार समान रूप से हिंदुओं को भी पसंद हैं। नाम को लेकर जो फिजूल की बातें हो रही हैं वो विरोध करनेवालों की मानसिकता को ही दर्शाते हैं। सवाल मुसलमान नाम का नहीं है मानसिकता का है, राजनीति का है। जिन मुस्लिम कलाकारों ने अपना नाम बदलकर हिंदू नाम रख लिए उनको भी हमारे देश की जनता ने इतना सम्मान और प्यार दिया जिसका हिसाब नहीं लगाया जा सकता है। आज भी जब सिनेमा के दमदार कलाकारों की बात होती है तो दिलीप कुमार का नाम लिया जाता है। युसूफ खान जब फिल्मों में आए तो दिलीप कुमार बन गए। लोगों को इस बात का पता भी चला लेकिन उनकी लोकप्रियता में किसी प्रकार की कमी नहीं आई। इसी तरह जब हमारे देश के दर्शकों को पता चला कि अभिनेत्री मीना कुमारी का नाम महजबीन बानो है तब भी कोई अंतर नहीं आया। मधुबाला भी मुमताज जहां बेगम देहलवी थीं लेकिन आज भी हिंदी फिल्मों की सबसे सुंदर अभिनेत्री के तौर पर समादृत है। इन सबके प्रशंसक हैं, न हिंदू न मुसलमान। दर्जनभर से अधिक मुसलमान अभिनेता और अभिनेत्रियों ने अपना नाम बदलकर हिंदू नाम रख लिया था। देश की जनता को पता भी चला लेकिन किसी को कुछ फर्क नहीं पड़ा। इसी तरह से शाहरुख खान या सलमान खान अपने मुस्लिम नाम और पहचान के साथ ही फिल्मों में आए लेकिन उनके नाम से न तो फिल्म हिट हुई न ही उनके नाम और मजहब को देखकर दर्शक फिल्म देखने गए। यहां तक कि 2002 के गुजरात के सांप्रदायिक दंगों के बाद आमिर खान एक पार्टी विशेष के एजेंडा को बढ़ाने के लिए एक्टिविस्ट बन गए थे लेकिन जनता ने न तो उनकी राजनीति देखी और न ही उनका नाम। देखा तो सिर्फ उनका काम। आज भी फैज से लेकर मीर तक की शायरी भारत में लोगों की जुबान पर है। तो फिर कैसी बात करते हैं कि दुकान पर मुस्लिम नाम लिखे होने के कारण हिंदू वहां नहीं जाएंगे। या दुकानों पर नाम लिखने का नियम लागू होने से मुसलमान इस देश में दोयम दर्ज के नागरिक हो जाएंगे।

जब भी हमारे देश में इस तरह की बातें होती है तो लगता है कि जो लोग धर्मनिरपेक्षता के झंडाबरदार होने का दावा करते हैं उनका सोच कितना संकुचित है। जो लोग इस तरह के नियमों से सामाजिक समरसता खत्म होने की बात करते हैं उनको न तो हिंदुओं पर भरोसा है न मुसलमानों पर विश्वास। दरअसल जबसे संविधान की प्रस्तावना में पंथनिरपेक्ष शब्द को अवैध तरीके से जोड़ा गया तब से ही सायास इस तरह का वातावरण बनाया गया जिससे हिंदुओं और मुसलमानों के बीच वैमनस्यता बढ़े। पिछले दस वर्षों से ये प्रवृत्ति और बढ़ी है। कांग्रेस और उसके इकोसिस्टम को ये लगता है कि मुसलमानों को इस तरह से डराकर ही अपने पाले में ला सकती है। उनका वोट एकमुश्त उनकी पार्टी को मिल सकता है। 2024 के चुनाव में हलांकि कांग्रेस पार्टी को सफलता नहीं मिली लेकिन मुसलमानों को एक वोटबैंक के तौर पर अपने गठबंधन में लाने में सफल रहे। अब उनके सामने इस वोटबैंक को अपने साथ बनाए रखने की चुनौती है। इस चुनौती से निबटने के लिए वो दुकानों पर नाम लिखने के सरकारी आदेश को राजनीति के टूल की तरह उपयोग कर रहे हैं। हिंदू मुसलमान में देश को उलझानेवाली इन कोशिशों से तात्कालिक रूप से वोट मिल सकता है, कहीं कहीं सत्ता भी लेकिन देश कहीं पीछे छूट जाएगा। इसके बारे में समाज को सोचना होगा।  

1 comment:

अजय कुमार झा said...

सामयिक सटीक और सार्थक आलेख अनंत जी , आपने विषय पर बहुत अच्छे से सब कुछ स्पष्ट कर दिया। साधुवाद आपको