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Saturday, April 5, 2025

अज्ञान से उपजता अहंकार


इस वर्ष कई साहित्य उत्सवों में जाने का अवसर मिला। विभिन्न विषयों पर विभिन्न श्रोताओं को सुना भी। बहुत कुछ सीखने को मिला। एक साहित्य उत्सव में अजीब घटना घटी। एक सत्र में हिंदी उपन्यास पर चर्चा हो रही थी। चर्चा के दौरान उपन्यास की कथावस्तु पर बात होते-होते उसके आकार-प्रकार पर चली गई। इस चर्चा में तीन अलग अलग पीढ़ियों के उपन्यासकार थे। इनमें से एक कथित नई वाली हिंदी के युवा उपन्यासकार थे। एक वरिष्ठ पीढ़ी के उपन्यासकार ने समकालीन युवा लेखकों के उपन्यासों पर कहा कि आज तो सौ डेढ सौ पेज के उपन्यास लिखे जा रहे हैं। हलांकि उन्होंने इसके बाद आज के पाठकों की रुचि पर भी विस्तार से बोला लेकिन नई वाली हिंदी के उपन्यासकार का मन सौ डेढ़ सौ पेज पर ही अटक गया। उन्होंने जिस प्रकार की टिप्पणी की उससे लगा कि वो सौ डेढ सौ पेज वाली टिप्पणी से आहत हो गए हैं। यह बात सही है कि आजकल मोटे उपन्यास कम लिखे जा रहे हैं। चंद्रकिशोर जायसवाल का चिरंजीव या दीर्घ नारायण का रामघाट में कोरोना आठ सौ से अधिक पृष्ठों का उपन्यास है। पर इस शताब्दी के आरंभिक वर्षों में अमरकांत का इन्हीं हथियारों से, भगवानदास मोरवाल का बाबल तेरे देस में, असगर वजाहत का कैसी आग लगाई जैसे चार पांच सौ पन्नों के उपन्यास प्रकाशित होते थे। अब ज्यादातर उपन्यास सौ से सवा सौ पेज का होता है। उस समय भी पतले उपन्यास प्रकाशित होते थे लेकिन इतने पतले नहीं होते थे कि मंचों पर उनकी चर्चा हो। 

सत्र में बैठे नई वाली हिंदी के उपन्यासकार इतने उत्तेजित हो गए कि उन्होंने कहा कि पुराने उपन्यासों को पढ़ने से क्या होता है, ना तो उनमें भारतीय समाज होता है और ना ही शहरी जीवन दिखता है। गांव और कस्बों की कहानियों में उलझा रहा हिंदी उपन्यास। इस क्रम में उन्होंने प्रेमचंद से लेकर रेणु और मोरवाल तक के नाम गिना दिए। वो इतने पर ही नहीं रुके। उन्होंने कहा कि प्रेमचंद के उपन्यासों को पढ़ने की आवश्यकता नहीं है। उनकी कृतियों को पढ़ा जाना चाहिए। उत्तेजना में तो वो यहां तक कह गए कि परंपरा आदि बेकार की बातें हैं और ये सब कोर्स के लिए ठीक हो सकती हैं, साहित्य के लिए नहीं। मामला उलझता इसके पहले ही संवादकर्ता ने बहुत चतुराई से विषय बदल दिया। लेकिन मेरे दिमाग में उनकी बात अटकी रह गई।

कुछ दिनों बाद एक अन्य साहित्य उत्सव में कविता पर हो रही एक चर्चा सत्र में बैठा कवियों को सुन रहा था। वहां भी इस बात की चर्चा होने लगी कि आज के कवियों को हिंदी कविता की परंपरा का ज्ञान है या नहीं। छह प्रतिभागी थे जिनमें से अधिकतर की ये राय थी कि परंपरा हमको रचना सिखाती है। यहां भी एक युवा कवि एकदम से ये मानने को तैयार नहीं थे कि परंपरा से साहित्य सृजन का कोई लेना देना है। वो यहीं पर नहीं रुके बल्कि आत्मप्रशंसा में जुट गए कि वो कितने महान हैं। उनकी कविताएं इंटरनेट ममीडिया पर कितनी लोकप्रिय होती हैं। उनको हजारों लाइक्स मिलते हैं आदि आदि। इस पैनल में ही एक और युवा कवि था। वो बार बार कहने का प्रयास कर रहा था कि परंपरा हमें बहुत सिखाती है। हम परंपरा को अगर जान पाएं तो हमें कविताएं लिखने में, शब्दों के चयन में, कविताओं में भावों को अभिव्यक्ति करने में मदद मिलती है। इससे रचने में बड़ा लाभ होता है। पर दूसरा युवा कवि सुनने को तैयार नहीं था। वो तो बस परंपरा को ही नकार रहा था। जोश में तो यहां तक कह गया कि हमें निराला और पंत से सीखने की क्या जरूरत है। अगर हम उनकी कविताएं अधिक पढ़ेंगे तो उनके जैसे ही लिखने लग जाएंगे, आदि आदि। इस सत्र की बातें सुनकर उपन्यास वाले सत्र का स्मरण हो उठा। सत्र के बाद ये सोचने लगा कि आज के कुछ युवा लेखक स्वयं को इतना महान क्यों समझते हैं। महान समझने को लेकर मैंने स्वयं को समझा लिया कि आत्मप्रशंसा हर अवस्था के लेखकों में पाई जाती है। यह विभिन्न परिस्थितियों पर निर्भर करता है लेकिन परंपरा का नकार क्यों। अपने पूर्वज लेखकों की कृतियों को लेकर उपेक्षा भाव क्यों। इस बात का उत्तर नहीं मिल पा रहा था। 

इसी साहित्य उत्सव में अपने एक मित्र से दोनों घटनाओं की चर्चा की और बुझे मन से पूछा कि साहित्य की युवा पीढ़ी के कुछ लेखक क्यों सार्वजनिक रूप से ऐसा व्यवहार करते हैं। मित्र ने फटाक से कहा कि तुम नाहक इस बात को लेकर परेशान हो। जो लोग अपनी परंपरा को या पूर्वज लेखकों को नकारते हैं उन्हें न तो अपनी परंपरा का ज्ञान होता है और ना ही उन्होंने पूर्वज लेखकों की रचनाओं को ध्यान से पढ़ा है। आप इसको इस तरह से समझिए कि ज्ञान तो सीमित होता है जबकि अज्ञान असीमित होता है। जो चीज असीमित होती है उसके बारे में सोचकर किसी निष्कर्ष तक पहुंचना संभव नहीं है। परंपरा को समझने और उसको अपनी रचनाओँ में बरतने के लिए बहुत श्रम करना पड़ता है। परंपरा से जुड़े लेखन का संपूर्ण अध्ययन आवश्यक ना भी हो लेकिन उससे परिचय तो होना ही चाहिए। उन्होंने एक वाकया बताया। कुछ दिनों पहले महिला दिवस पर एक गोष्ठी का आयोजन हुआ था जिसका विषय था – रामचरितमानस और स्त्रियां। एक से एक धुरंधर वक्ता उसमें उपस्थित थीं। उनमें से एक ने बहुत जोशीला भाषण दिया। इसी क्रम में श्रीराम को सीता को त्यागने को लेकर कठघरे में खड़ा करने लगीं। एक श्रोता अचानक खड़े हो गए, कहा कि आपने ये कहां पढ़ लिया कि श्रीराम ने सीता का त्याग किया था। उन्होंने हंसते हुए कहा कि जब विषय ही रामचरितमानस है तो और कहां पढेंगी, वहीं पढ़ी है पूरी कहानी। इसपर श्रोता ने उनको आड़े हाथों लेते हुए खूब खरी खोटी सुना दी। कहा कि रामचरितमानस तो प्रभु श्रीराम  के राज्याभिषेक के साथ समाप्त हो जाता है। उसके बाद कागभुसुंडि और गरुड़ जी का संवाद है जिसको विद्वान मानस वेदांत कहते हैं। पर वो महिला नहीं मानीं। 

इन प्रसंगों को सुनने के बाद ये लगा कि हमारे समाज में भांति भांति के लोग हैं। भांति-भांति की भ्रांतियां हैं। इतिहास से लेकर साहित्य तक में भ्रम की स्थिति बनाई गई। इन्हीं भ्रम और भ्रांतियों का जब अज्ञान से मिलन होता है तो उससे अहंकार का जन्म होता है। यही अहंकार परंपरा को नकारता है। रचनात्मकता को कुंद करता है। हर दौर में इस प्रकार की घटनाएं होती होंगी परंतु इंटरनेट मीडिया के इस दौर में इस तरह की घटनाएं अधिक होने लगी हैं। युवा रचनाकार अपनी थोड़ी सी प्रशंसा पर स्वयं को निर्मल और अज्ञेय मानने लगते हैं। आज स्वयं को दिनकर और निराला से श्रेष्ठ मानने वाले कई कवि आपको फेसबुक पर नजर आएंगे। उनकी श्रेष्ठता बोध का आधार फेसबुक के लाइक्स हैं। आज आवश्यकता इस बात की है कि हम अपनी परंपरा को पहचानें, अध्ययन करें और स्वयं को उस परंपरा में रखकर देखें कि हम कहां हैं, अन्यथा इतिहास के बियावान में खोते समय नहीं लगता।