Translate

Sunday, October 13, 2024

देविका रानी के सामने कांपे थे अशोक


सुबह के साढे नौ बजे थे। बांबे टाकीज की एक फिल्म की शूटिंग शुरु होनेवाली थी। बांबे टाकीज के कर्ता-धर्ता हिमांशु राय ने अपनी नई फिल्म में एक नए लड़के को नायक के तौर पर लेने का निर्णय किया था। फिल्म का नाम था जीवन नैया और युवक थे अशोक कुमार। सुबह सुबह जब अशोक शूटिंग के लिए फिल्म के सेट पर पहुंचे तो उनको देखकर हिमांशु राय चौंके। अशोक कुमार ने बेतरतीब तरीके से अपने बाल कटवा लिए थे। हिमांशु राय ने उनसे पूछा कि ये क्या है अशोक? हकलाते हुए अशोक कुछ बोलते इसके पहले ही हिमांशु राय ने हेयर ड्रेसर को बुलाकर कहा कि इनके बाल ठीक करो। विग लगाओ। अशोक ने हिमांशु राय की ओर कातर भाव से देखा, सर कुछ कहना चाहता हूं। हिमांशु राय ने अपने अंदाज में कहा कि बोलो। अशोक ने हिमांशु राय का हाथ पकड़ा और उनको सेट के एक कोने में लेकर जाकर धीरे से बोले कि मैं आपके कहने पर फिल्म में काम तो कर लूंगा पर मुझे नायिका के आलिंगन के लिए मत कहिएगा। वो मुझसे हो नहीं हो पाएगा। क्यों? पूछा हिमांशु राय ने। अशोक चुप रहे तो हिमांशु ने आश्वस्त किया कि ऐसा कोई दृष्य फिल्म में नहीं होगा। उसके बाद मेकअप आर्टिस्ट अशोक को लेकर चली गई। मेकअप और गेटअप ठीक होकर जब अशोक सेट पर पहुंचे तो उनके होश उड़ गए। सामने देविका रानी थीं जिनके साथ उनको पहला ही शाट देना था।

अशोक को निर्देशक ने सीन समझाया। अशोक नर्वस हो रहे थे। हिमांशु राय उनके पास पहुंचे उनके कंधे पर हाथ रखकर बोले कि ये बहुत ही सामान्य बात है कि एक लड़का अपनी प्रेमिका के लिए सोने का हार लाता है और फिर उसके गले में डालता है। तुमको इतना ही करना है। अशोक कुमार हाथ में सोने की चेन लेकर देविका रानी के पास पहुंचते हैं। नायिका के करीब पहुंचते ही वो नर्वस हो जाते हैं और दौड़कर बाथरूम की ओर भाग जाते हैं। थोड़ी देर बाद वापस आते हैं। दृश्यांकन आरेभ होता है। अशोक कांपते हाथों से देविका रानी के गले में हार डालने का प्रयास करते हैं। हार उनकी बालों में उलझ जाता है। फिर से प्रयास करने को कहा जाता है। इस बार निर्देशक शूटिंग नहीं रोकते हैं और अशोक कुमार को कहते हैं कि वो गले में हार डालें। अशोक कुमार ने इतनी जोर से हार पहनाने का प्रयास किया कि देविका रानी के बाल ही खुल गए और फिर निर्देशक ने सर पीट लिया। दरअसल अशोक कुमार दो बातों से बुरी तरह से घबरा रहे थे। एक तो उनके बास की पत्नी नायिका थी, दूसरे उनकी मां ने कह रखा था कि फिल्मों में काम करने जा तो रहे हो लेकिन लड़कियों से दूर ही रहना। आखिरकार ये सीन बाद में शूट करने का निर्णय हुआ। दूसरा सीन कुछ यूं था कि फिल्म का खलनायक अभिनेत्री को छेड़ने की कोशिश करेगा। अशोक कुमार को उसको धक्का देकर गिराना था। निर्देशक ने उनको सीन समझाया। कहा कि वो दस गिनेंगे और जैसे ही दस पूरा होगा धक्का देना था। शाट आरंभ हुआ। निर्देशक ने गिनती आरंभ की। घबराए अशोक कुमार ने दस पूरा होने की प्रतीक्षा नहीं की और खलनायक को धक्का दे दिया। धक्का इतनी जोर का था कि देविका रानी और खलनायक दोनों धड़ाम से फर्श पर गिरे। खलनायक का पांव टूट गया। देविका रानी खिलखिलाते हुए उठ खड़ी हुईं। उस दिन शूटिंग रोकनी पड़ी। 

दरअल अशोक कुमार के जीवन की कहानी बहुत दिलचस्प है। उनका ननिहाल बिहार के भागलपुर में था। उनकी मां ने एक लड़की के साथ उनका रिश्ता तय किया था। लड़की के पिता को जब पता चला कि अशोक कुमार फिल्मों में काम करनेवाले हैं तो उन्होंने रिश्ता तोड़ दिया था। 1934 में अशोक कुमार ने हिमांशु राय की कंपनी बांबे टाकीज में नौकरी आरंभ की थी। हिमांशु राय ने उनको अभिनेता बना दिया। उधर उनकी मां को भी जब पता चला कि उनका बेटा फिल्मों में काम करनेवाला है तो उन्होंने नसीहत दी कि फिल्मी लड़कियों से दूर रहना। 

1938 तक अशोक कुमार की छह फिल्में आ चुकी थीं। फिल्म अछूत कन्या से उनको प्रसिद्धि भी मिल चुकी थी। उधर उनकी मां परेशान थी कि बेटा इतनी लड़कियों के बीच रहता है क्या पता क्या कर ले। वो अपने बेटे की शादी को लेकर चिंतित रहने लगी थी। 1938 के अप्रैल में मुंबई में अशोक कुमार को एक टेलीग्राम मिला जो उके पिता ने भेजा था। उसमें लिखा था जल्द से खंडवा आ जाओ अति आवश्यक है। उस समय अशोक कुमार फिल्म वचन की शूटिंग कर रहे थे। उन्होंने फौरन निर्देशक और निर्माता से बात की खंडवा रवाना हो गए। ट्रेन खंडवा पहुंची। अशोक कुमार ट्रेन से उतरने लगे तो देखा कि उनके पिताजी ट्रेन के अंदर आ रहे हैं। वो रुक गए। पिताजी ने आते ही कहा कि ट्रेन से उतरने की जरूरत नहीं है। हमें आगे कलकत्ता (अब कोलकाता) जाना है। उनको पिताजी से पूछने की हिम्मत नहीं हुई। पिताजी ने ही कहा कि लेडीज डब्बे में जाकर अपनी भाभी से मिल लो। वो भाभी से मिलने पहुंचे तो भाभी मुस्कुरा दीं। अशोक कुमार ने पूछा कि हम कोलकाता क्यों जा रहे हैं। भाभी ने शरारती मुस्कान के साथ कहा कि देवर जी बनो मत, हम तुम्हारी शादी के लिए कलकत्ता जा रहे हैं। अशोक जोर से हंसे और अपने डब्बे में आ गए। कलकत्ता पहुंचे तो उनकी मां और अन्य रिश्तेदार पहले से वहां थे। नाटकीय घटनाक्रम में अशोक कुमार की शादी कर दी जाती है। उनके बहनोई शशधर मुखर्जी भी शादी में नहीं पहुंच पाते हैं। ये दिन था 14 अप्रैल 1938 और अशोक कुमार की पत्नी का नाम था शोभा। अशोक कुमार शादी के बाद वापस मुंबई (तब बांबे) लौटे। शादी के बाद अशोक कुमार की प्रसिद्धि और आय दोनों में बढ़ोतरी हुई। अशोक कुमार की मां निश्चिंत हो गईं कि बेटा फिल्मों में काम करके भी बिगड़ेगा नहीं।  


Saturday, October 12, 2024

शील के साथ सबल राष्ट्र का आह्वान


विजयादशमी पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपनी स्थापना के शताब्दी वर्ष में प्रवेश कर रहा है। इस लंबी यात्रा में संघ ने बहुत उतार चढ़ाव देखे। स्वयंसेवकों की निरंतर तपस्या ने इसको विश्व का सबसे बड़ा संगठन बना दिया। एक ऐसा संगठन जो व्यक्ति निर्माण के माध्यम से राष्ट्र को सशक्त करने में लगा है। ऐसा नहीं है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को 100 वर्ष तक की यात्रा पूरी करने में विरोध नहीं झेलना पड़ा। अकादमिक और पत्रकारिता के क्षेत्र में तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का नाम सुनकर ही आगबबूला होनेवाले लोगों की बड़ी संख्या रही है। अकादमिक जगत में सैकड़ों पुस्तकें लिखी गईं जिनमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के क्रियाकलापों को बिना जाने धारणा के आधार पर निष्कर्ष निकाले गए। अब भी निकाल रहे हैं। अंग्रेजी के कई लेखक जो स्वयं को लिबरल कहते हैं वो सहजता के साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को मिलिटेंट संगठन लिख रहे हैं। संघ को कट्टरपंथी संगठन और प्रगतिशील नहीं माननेवाले अकादमिक जगत के तथाकथित विद्वानों को विजयादशमी के अवसर पर सरसंघचालक मोहन भागवत का व्याख्यान सुनना और समझना चाहिए। अपने इस व्याख्यान में मोहन भागवत जी ने जिस तरह से भारतीय समाज के यथार्थ को उद्घाटित किया उसके गहरे निहितार्थ हैं। समाज में क्या चल रहा है, किस तरह से भारतीय समाज को बांटने की राजनीति हो रही है, किस तरह से भारत को कमजोर करने के लिए अंतराष्ट्रीय स्तर पर रणनीति बनाई जा रही है, किस तरह से देश के कुछ लोगों और समूहों को प्रभावित करके भारत विरोधी ताकतें सक्रिय हैं उन सब पर मोहन भागवत जी ने विस्तार से बोला। समाज को सचेत भी किया।

मोहन भागवत जी ने स्पष्ट रूप से कहा कि पिछले कुछ वर्षों में भारत की धमक पूरे विश्व में बढ़ी है। देशहित की प्रेरणा से युवा शक्ति, मातृशक्ति, उद्यमी किसान, श्रमिक, जवान, प्रशासन, शासन सभी से प्रतिबद्धतापूर्वक अपने कार्य में डटे रहने से विश्वपटल पर भारत की छवि, शक्ति, कीर्ति व स्थान निरंतर उन्नत हो रहा है। यह कहने के बाद वो समाज को चेताते भी हैं, हम सबके इस कृतनिश्चय की परीक्षा लेने के लिए कुछ मायावी षडयंत्र हमारे सामने उपस्थित हुए हैं जिनको ठीक से समझना आवश्यक है। अगर पूरे देश पर नजर डालें तो चारो तरफ के क्षेत्रों को अशांत व अस्थिर करने के प्रयास गति पकड़ते हुए दिखाई देते हैं। मोहन भागवत के भाषण को अगर समग्रता में विश्लेषित करने की कोशिश करें तो इस चेतावनी के बाद वो उन अदृष्य अंतराष्ट्रीय शक्तियों की भी चर्चा करते हैं जो पूरी दुनिया में अपने स्वार्थ के कारण लोकतंत्र के नाम पर दूसरे देशों में गड़बड़ियां फैलाने का कार्य करते हैं। वो अरब स्प्रिंग से लेकर बांग्लादेश में हिंसक तख्तापलट का उदाहरण देते हुए हिंदू समाज को संगठित और सबल बनने की बात को रेखांकित करते हैं।

डा मोहन भागवत समाज में भारतीय संस्कारों के नष्ट करनेवाली शक्तियों की पहचान करते हुए उनसे सतर्क भी करते हैं। डीप स्टेट, वोकिज्म, कल्चरल मार्क्सिस्ट जैसे शब्दों की चर्चा करते हुए इसको सांस्कृतिक परंपराओं का घोषित शत्रु करार देते हैं। वो बेहद तीखे शब्दों में इनपर आक्रमण करते हैं, सांस्कृतिक मूल्यों, परंपराओं तथा जहां जहां जो भी भद्र, मंगल माना जाता है उसका समूल उच्छेद इस समूह की कार्यप्रणाली का अंग है। समाज मन बनाने वाले तंत्र व संस्थानों यथा शिक्षा तंत्र, शिक्षा संस्थान, संवाद माध्यम, बौद्धिक संवाद से अपने प्रभाव में लाना, उनके द्वारा समाज का विचार, संस्कार तथा आस्था को नष्ट करना यह इस कार्यप्रणाली का प्रथम चरण है। इसको हम इस तरह से भी समझ सकते हैं कि हिंदू त्योहारों के समय इस समूह को पर्यावरण की चिंता सताने लगती है। हिंदू धर्म प्रतीकों को पिछड़ेपन की निशानी बताने का अभियान चलाया जाता है। हिंदू समाज की किसी एक घटना से पूरे समाज को प्रश्नांकित किया जाता है। समाज में टकराव की संभावनाओं की निरंतर तलाश की जाती रहती है। जैसे ही कहीं कोई फाल्ट लाइन मिलती है तो ऐसे वातावरण का निर्माण करते हैं कि प्रतीत होता है कि ये समस्या बहुत बड़ी है। प्रत्यक्ष टकराव की जमीन भी तैयार कर दी जाती है। इसको नागरिकता संशोधन कानून के समय, किसान आंदोलन के समय और 2015 के पुरस्कार वापसी अभियान में देखा जा सकता है। किस तरह से एक छोटी सी घटना को इकोचैंबर में बैठे अकादमिक, लेखन, सिनेमा से जुड़े लोगों ने गुब्बारे की तरह फुला दिया था। मोहन भागवत की राय है कि देश में बिना कारण कट्टरपन को उकसानेवाली घटनाओँ में अचानक वृद्धि हो रही है। परिस्थिति या नीतियों को लेकर मन में असंतुष्टि हो सकती है परंतु उसको व्यक्त करने या विरोध करने के प्रजातांत्रिक मार्ग होने चाहिए। उनका अवलंबन न करते हुए हिंसा पर उतर आना और भय पैदा करने के प्रयास करने को वो बेहद तल्ख शब्दों में गुंडागर्दी कहते हैं। अकारण हिंसा फैलाकर तंत्र को बाधित करने के इन प्रयासों को बाबासाहेब अराजकता का व्याकरण कहते थे।

विजयादशमी पर डा मोहन भागवत के भाषण को दो हिस्सों में बांटकर देखा जाना चाहिए। पहला हिस्सा जिसमें वो सबल राष्ट्र की बात करते हैं। वो हिंदुओं के संगठित होने की अपेक्षा करते हैं। कहते हैं कि इस देश को एकात्म, सुख शांतिमय, समृद्ध और बल संपन्न बनाना यह सबकी इच्छा है और सबका कर्तव्य भी है। इसमें हिंदू समाज की जिम्मेवारी अधिक है। यहां वो बहुत अच्छा उदाहरण देते हैं, समाज स्वयं जगता है, अपने भाग्य को अपने पुरुषार्थ से लिखता है तब महापुरुष, संगठन, संस्थाएं, शासन, प्रशासन आदि सब सहायक होते हैं। शरीर की स्वस्थ अवस्था में क्षरण पहले आता है बाद में रोग उसको घेरते हैं। वो जब सबलता की बात करते हैं तो एक सुभाषित के माध्यम से कहते हैं कि दुर्बलों की परवाह तो देव भी नहीं करते। अपने भाषण के दूसरे हिस्से में वो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शताब्दी वर्ष में संगठन की कार्ययोजना प्रस्तुत करते हैं। सामाजिक समरसता, पर्यावरण, संस्कार जागरण, नागरिक अनुशासन और स्व गौरव आदि की बात करते हैं। वो इस बात की अपेक्षा भी जताते हैं कि संवाद माध्यमों का उपयोग करनेवालों को इनका उपयोग समाज को जोड़ने के लिए करना चाहिए ना कि तोड़ने के लिए, सुसंस्कृत बनाने के लिए हो ना कि अपसंस्कृति फैलाने के लिए। अपने व्याख्यान में उन्होंने ओटीटी प्लेटफार्म पर चलनेवाली सामग्री की गुणवत्ता को लेकर चिंता प्रकट की। ओटीटी पर आनेवाली सामग्री पर कानून के नियंत्रण पर भी बल दिया। यह सरकार के लिए भी एक संदेश है। जब संस्कारों और उसके क्षरण की बातें होंगी या जब सरकार के विरुद्ध जन के मानस में गलत छवि आरोपित करने की बात होगी तो ओटीटी प्लेटफार्म्स पर परोसी जानेवाली मनोरंजन सामग्री पर विचार करना ही होगा। समाज को संगठित करते हुए सबल बनाने की बात करते हुए मोहन भागवत ने ये भी स्पष्ट किया कि सबलता शील के साथ आनी चाहिए। विश्व मंगल की अवधारणा पर आधारित व्यवस्था में भारत को एक सबल राष्ट्र के तौर पर स्थापित करने के लिए प्रत्येक भारतवासी को कार्य करना चाहिए। उन तत्वों की पहचान करके उनको परास्त करना होगा जो भारत के सिस्टम में रहते हुए भारत को कमजोर करने के प्रयत्न में लगे रहते हैं।

 

Saturday, October 5, 2024

शास्त्रीय भाषाओं परअकारण राजनीति


पिछले दिनों भारत सरकार ने पांच भाषाओं को शास्त्रीय भाषा का दर्जा देने की घोषणा की। मराठी, बंगाली, पालि, प्राकृत और असमिया को हाल ही में संपन्न केंद्रीय कैबिनेट की बैठक में शास्त्रीय भाषा के तौर पर स्वीकार किया गया। जैसे ही इस, बात की घोषणा की गई कुछ विघ्नसंतोषी किस्म के लोग इसको महाराष्ट्र चुनाव के जोड़कर देखने लगे। इस तरह की बातें की जाने लगीं कि चूंकि कुछ दिनों बाद महाराष्ट्र में विधानसभा के चुनाव होने जा रहे हैं इस कारण सरकार ने मराठी को क्लासिकल भाषा का दर्जा देने की घोषणा की। इसको मराठी मतदाताओं को लुभाने के प्रयास की तरह देखा गया। हर चीज में राजनीति ढूंढनेवालों को ये समझना चाहिए कि इन पांच भाषाओं को क्लासिकल भाषा की श्रेणी में रखने का निर्णय आकस्मिक तौर पर नहीं लिया गया है। भारतीय भाषाओं के इतिहास में आकस्मिक कुछ नहीं होता। बड़ी बड़ी क्रांतियां भी भाषा में कोई बदलवा नहीं कर पाती हैं। उसके लिए सैकड़ों वर्षों का समय लगता है। पांच भाषाओं को क्लासिकल भाषा का दर्जा देना मोदी सरकार का सुचिंतित निर्णय है। प्रधानमंत्री मोदी ने स्वाधीनता के अमृत महोत्सव के बाद लालकिले की प्राचीर से अमृतकाल में विकसित भारत बनाने के लिए पंच-प्रण की घोषणा की थी। उसमें से एक प्रण था विरासत पर गर्व। विरासत पर गर्व को व्याख्यायित करने का प्रयास करें तो इन भाषाओं को शास्त्रीय भाषा का दर्जा देना राजनीति नहीं लगेगी। न ही किसी चुनाव में मतदाता को लुभाने के लिए उठाया गया कदम प्रतीत होगा। प्रधानमंत्री मोदी अपने निर्णयों में स्वयं उन पंच प्रण तो लेकर सतर्क दिखते हैं। प्रतीत होता है कि वो विरासत पर गर्व को लेकर देश में एक ऐसा वातावरण बनाना चाहते हैं जिसपर पूरे देश को गर्व हो सके। अपनी भाषाओं को शास्त्रीय भाषा की श्रेणी में डालने के पीछे इस तरह का सोच ही संभव है। 

किसी भी भाषा को जब शास्त्रीय भाषा के तौर पर मानने का निर्णय केंद्र सरकार लेती है तो उसके साथ कई कदम भी उठाए जाते हैं। शिक्षा मंत्रालय इन भाषाओं के उन्नयन के लिए कई प्रकार के कार्य आरंभ करती हैं। 2020 में तीन संस्थाओं को संस्कृत के लिए केंद्रीय विश्वविद्यालय बना दिया गया। पूर्व में घोषित भारतीय भाषाओं के लिए सेंटर आफ एक्सिलेंस बनाया गया। मराठी की बात कुछ देर के लिए छोड़ दी जाए। विचार इसपर होना चाहिए कि पालि और प्राकृत को क्लासिकल भाषा का दर्जा देने में इतनी देर क्यों लगी। पालि और प्राकृत में इतनी अकूत बौद्धिक संपदा है जिसके आधार पर इन दोनों भाषाओं को तो आरंभ में ही शास्त्रीय भाषा की श्रेणी में रखना चाहिए था। बौद्ध और जैन साहित्य तो उन्हीं भाषाओं में लिखा गया। इनमें से कई पुस्तकों का अनुवाद आधुनिक भारत की भाषाओं में अबतक नहीं हो सका है। हम अपनी ही ज्ञान परंपरा से कितने परिचित हैं इसके बारे में विचार करना आवश्यक है। इन दिनों उत्तर भारत के किसी भी विश्वविद्यालय के किसी सेमिनार में जाने पर विषय या वक्तव्य में भारतीय ज्ञान परंपरा अवश्य दिखाई या सुनाई देगा। इन सेमिनारों में उपस्थित कथित विद्वान वक्ताओं में से अधिकतर को भारतीय ज्ञान परपंरा के बारे में ज्यादा कुछ पता नहीं होता है। भारत की शास्त्रीय भाषाओं के बारे में जितना अधिक विचार होगा, उसमें उपलब्ध उत्कृष्ट सामग्री का जितना अधिक अनुवाद होगा वो हमारी समृद्ध विरासत के बारे में लोगों को बताने का एक उपक्रम होगा। आज अगर बौद्ध मठों में पाली या प्राकृत भाषा में लिखी सामग्री हैं तो आवश्यकता है उनको बाहर निकालकर अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद करवाकर आमजन तक पहुंचाने का कार्य किया जाए। इससे सबका लाभ होगा। संभव है कि देश का इतिहास भी बदल जाए। 

आवश्यकता इस बात की है कि मोदी कैबिनेट ने जो निर्णय लिया है उसको लागू करवाया जाए। शिक्षा मंत्रालय के मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान योग्य और समर्पित व्यक्ति हैं। उनको भाषा के बारे में विशेष रूप से रुचि लेकर, संगठन के कार्य के व्यस्त समय से थोड़ा सा वक्त निकालकर इसको देखना चाहिए। उनके मंत्रालय के अधीन एक संस्था है भारतीय भाषा समिति। इस समिति का गठन 2021 में भारतीय भाषाओं के प्रचार प्रसार के लिए किया गया था। इस संस्था के आधे अधूरे वेवसाइट पर उपलब्ध जानकारी के अनुसार इसका कार्य राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में परिकल्पित भारतीय भाषाओं के समग्र और बहु-विषयक विकास के मार्गों की सम्यक जानकारी प्राप्त करना और उनके क्रयान्वयन की दिशा में सार्थक प्रयास करना है। इस समिति का जो तीसरा उद्देश्य है वो बहुत ही महत्वपूर्ण है। समिति को मौजूदा भाषा-शिक्षण और अनुसंधान को पुनर्जीवित करने और देश में विभिन्न संस्थाओं में इसके विस्तार से संबंधित सभी मामलों पर मंत्रालय को परामर्श का कार्य भी सौंपा गया है। ये महत्वपूर्ण अवश्य है लेकिन इसका दूसरा पहलू ये है कि समिति ने मंत्रालय को क्या परामर्श दिए इसका पता नहीं चल पाता है। पता तो इसका भी नहीं चल पाता है कि समिति के किन परामर्शों पर मंत्रालय ने कार्य किया और किस पर नहीं किया। इस संस्था के गठन के तीन वर्ष होने को आए हैं लेकिन इसकी एक ढंग की वेबसाइट तक नहीं बन पाई। इनके कार्यों के बारे में भी कुछ ज्ञात नहीं हो पाया है। बताया जाता है कि इनके परामर्श पर कुछ संपादित पुस्तकों का प्रकाशन हुआ है। इसके अध्यक्ष चमू कृष्ण शास्त्री संस्कृत के ज्ञाता हैं। संस्कृत को लेकर उनका प्रेम सर्वज्ञात है। संस्कृत के कितने ग्रंथ ऐसे हैं जिनका भारतीय भाषाओं में अनुवाद करवाकर उसको स्कूलों से लेकर महाविद्यालयों की शिक्षा से जोड़ा जा सकता है। बताया जाता है कि काशी-तमिल संगमम जैसे कार्यक्रम इस समिति के परामर्श पर आयोजित किए गए थे। आयोजन से अधिक ठोस कार्य करने की आवश्यकता है जो दीर्घकालिक प्रभाव छोड़ सके । 

दरअसल सबसे बड़ी दिक्कत शिक्षा और संस्कृति मंत्रालय के अधिकतर संस्थानों के साथ यही हो गई है कि वो आयोजन प्रेमी हो गए हैं। आयोजनों में कुछ ही चेहरे आपको हर जगह दिखाई देंगे। वो इतने प्रतिभाशाली हैं कि उनको हर विषय़ का ज्ञान है या फिर किसी के कृपापात्र। समितियों और संस्थाओं को लगता है कि किसी विषय पर आयोजन करवाकर, उसके व्याख्यानों को संपादित कराकर पुस्तक प्रकाशन से भारतीय भाषाओं का भला हो जाएगा। संभव है कि हो भी जाए। पर आयोजनों से अधिक आवश्यक है कि इस तरह की समितियां सरकार को शोध प्रस्ताव दें, विषयों का चयन करके उसपर कार्य करवाने की सलाह विश्वविद्यालयों को दें। प्राचीन और अप्राप्य ग्रंथों की सूची बनाकर मंत्रालय को सौंपे जिससे उनका प्रकाशन सुनिश्चित किया जा सके। और इन सारी जानकारियों को अपनी वेबसाइट पर अपलोड करे। जबतक शास्त्रीय भाषाओं को लेकर गंभीरता से कार्य नहीं होगा, जबतक भाषा के प्राचीन रूपों के ह्रास और नवीन रूपों के विकास की प्रक्रिया से पाठकों को अवगत नहीं करवाया जाएगा तबतक ना तो भाषा की समृद्धि आएगी और ना ही गौरव बोध। भारतीय भाषाओं के लिए कार्य करनेवाली संस्थाओं की प्रशासनिक चूलें कसने की भी आवश्यकता है। मैसूर स्थित भाषा संस्थान मृतप्राय है उसको नया जीवन देना होगा तभी वहां भाषा संबंधी कार्य हो सकेगा। इसपर फिर कभी चर्चा लेकिन फिलहाल इन शास्त्रीय भाषाओं को लेकर जो चर्चा आरंभ हुई है उसको लक्ष्य तक पहुंचते देखना सुखद होगा।   

Saturday, September 28, 2024

फिल्मों से गांधी की उदासीनता क्यों ?


कुछ सप्ताह पूर्व मुंबई इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल के सिलसिले में मुंबई जाना हुआ था। राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम के परिसर में इस फेस्टिवल का आयोजन था। उसी परिसर में स्थित गुलशन महल में भारतीय सिनेमा के राष्ट्रीय संग्रहालय को जाने और उसको देखने का अवसर प्राप्त हुआ। संग्रहालय में एक जगह गांधी गांधी का पुतला बनाकर उसको कुर्सी पर बिठाया गया है। उनके सामने स्क्रीन पर राम राज्य फिल्म का एक स्टिल लगा हुआ है। ऐसा प्रतीत होता है कि महात्मा गांधी राम राज्य फिल्म देख रहे हैं। कहा जाता है कि बापू ने अपने जीवनकाल में एक ही फिल्म देखी थी जिसका नाम है राम राज्य। इस बात का उल्लेख देश-विदेश के कई लेखकों ने किया है। एक बेहद दिलचस्प पुस्तक है ‘द चैलेंजेस आफ सिल्वर स्क्रीन’ जिसमें राम, जीजस और बुद्ध के सिनेमाई चित्रण पर विस्तार से लिखा गया है। इस पुस्तक के लेखक हैं फ्रीक एल बेकर। इस पुस्तक में भी गांधी के राम राज्य देखने की चर्चा की गई है। सिनेमा और संस्कृति पर विपुल लेखन करनेवाली रेचल ड्वायर ने भी अपनी पुस्तक में भी गांधी के राम राज्य देखने का उल्लेख किया है। गांधी और सिनेमा पर लिखी अपनी पुस्तक में इकबाल रिजवी ने विस्तार से और रोचक तरीके से इस प्रसंग पर लिखा है। 

इस पर बाद में चर्चा होगी लेकिन उसके पहले गांधी के फिल्मों और नाटक को लेकर विचार को जानना भी दिलचस्प होगा। फिल्म संग्रहालय में ही कुछ पट्टिकाएं लगी हैं जिनपर कुछ टिप्पणियां प्रकाशित हैं। ऐसी ही एक पट्टिका पर लिखा है, मद्रास (अब चेन्नई) के अत्यंत प्रतिष्ठित वकील बी टी रंगाचार्यार के नेतृत्व में इंडियन सिनेमैटोग्राफ कमेटी रिपोर्ट (आईसीसी) का गठन ब्रिटिश प्राधिकारियों द्वारा सेन्सरशिप विनिमयों में अमेरिकी आयात को रोकने के लिए किया गया था। इस वृहदाकर रिपोर्ट में ब्रिटिश इंडिया के सभी भागों को शामिल किया गया है तथा महात्मा गांधी, लाला लाजपत राय, दादासाहेब फाल्के जैसे सैकड़ों महान हस्तियों के मौखिक एवं लिखित राय शामिल हैं। इसका प्रकाशन 1928 में किया गया। इसके खंड संख्या 4 में पृष्ठ संख्या 56 पर महात्मा गांधी का दिनांक 12 नवंबर 1927 का बयान दर्ज है। जो इस प्रकार है- भले ही मुझे जितना भी बुरा लगा हो मुझे आपके प्रश्नों का उत्तर देना चाहिए। क्योंकि मैंने कभी सिनेमा देखा ही नहीं। लेकिन किसी बाहरी का भी इसने जितना अहित किया है और कर रहा है वो प्रत्यक्ष है। यदि इसने किसी का भला किसी भी रूप में किया है तो इसका प्रमाण मिलना अभी बाकी है। इस टिप्पणी से गांधी की फिल्मों को लेकर राय का स्पष्ट पता चलता है। ऐसा नहीं है कि गांधी जी की फिल्मों को लेकर ये राय अकारण बनी थी। वो जब स्कूली छात्र थे तब नाटक देखा करते थे और उससे प्रभावित भी थे।

संग्रहालय की एक दूसरी पट्टिका पर इसका उल्लेख है, मोहनदास करमचंद गांधी जब स्कूली विद्यार्थी थे उन्होंने एक गुजराती नाटक देखा था, जिसका नाम हरिश्चन्द्र था। इस नाटक का प्रभाव आजीवन उन पर रहा। अपनी आत्मकथा में उन्होंने लिखा है- मैंने किसी ड्रामा कंपनी द्वारा मंचित नाटक को देखने की अनुमति अपने पिता से प्राप्त कर ली थी। हरिश्चन्द्र नामक इस नाटक ने मेरा ह्रदय जीत लिया। मैं इसे देखकर कभी नहीं थकता। लेकिन उसे देखने की अनुमति मैं कितनी बार प्राप्त करता। इसने मुझे परेशान किया और मैं सोचता रहा कि मैंने स्वयं असंख्य बार हरिश्चन्द्र की भूमिका निभाई होती। हम सभी हरिश्चंद्र की भांति सत्यवादी क्यों नहीं होते? यही प्रश्न मुझे दिन रात परेशान किए रखता। हरिश्चन्द्र की भांति सत्य का अनुसरण करना और सारे कष्टों को झेलना एक ऐसा आदर्श था जिसने मुझे प्रेरित किया । मैं पूर्णत: हरिश्चन्द्र की कहानी में विश्वास करने लगा। इन सभी विचारों से बेचैन होकर मैं अक्सर रोने लगता। किशोरावस्था से ही गांधी को ये पता चल गया था कि फिल्मों या नाटकों का मानस पर कितना असर होता है। जब वो स्वाधीनता के संघर्ष के लिए मैदान में उतरे तो उन्होंने कई जगहों पर देखा कि कई युवा पार्सी नाटकों की महिला कलाकारों के चक्कर में घर बार छोड़कर नाटक कंपनी के पीछे चल देते थे। इसको देखकर गांधी के मन में इस माध्यम को लेकर उदासीनता बढ़ने लगी। उसके बाद एक और घटना घटी। मीराबेन की सिफारिश पर गांधी जी ने एक फिल्म देखने की हामी भरी। फिल्म का नाम था मिशन टू मास्को। रिजवी लिखते हैं कि इस फिल्म में तंग कपड़े पहनकर लड़कियां नाच रही थीं। थोड़ी देर तक तो बापू झेलते रहे लेकिन फिर बीच में ही उठकर चले गए। उस दिन उनका मौन व्रत था सो कुछ कहा नहीं। अगले दिन उन्होंने लिखा, ‘मुझे नंगे नाच दिखाने की कैसे सूझी। मैं तो दंग रह गया, मुझे तो कुछ पता ही नहीं था।‘ दरअसल मीराबेन को एक पारसी फोटोग्राफर ने गांधी को फिल्म दिखाने के लिए राजी कर लिया था। सबको इस घटना के बाद काफी अफसोस हुआ। फिल्म राम राज्य देखने के लिए बापू को कनु देसाई ने तैयार किया था। कनु देसाई गांधी की सेवा करते थे। वो विजय भट्ट की फिल्म राम राज्य के कला निदेशक रह चुके थे। उनकी बात बापू ने मान ली और कहा कि एक विदेशी फिल्म देखने की गलती कर चुका हूं इसलिए भारतीय फिल्म देखनी पड़ेगी। बापू की सहयोगी सुशीला नायर ने फिल्म के लिए गांधी के 40 मिनट तय किए थे, लेकिन कहा जाता है कि बापू को ये फिल्म इतनी अच्छी लगी थी कि वो पूरे डेढ़ घंटे तक बैठकर राम राज्य देखते रहे थे। फिर विजय भट्ट की पीठ थपथपाई और निकल गए। 

इन प्रसंगों को जानने के बाद ये लगता है कि बापू फिल्मों के विरोध में नहीं थे बल्कि फिल्मों में दिखाई जानेवाली सामग्री के विरोधी थे। 1927 का उनका बयान इसकी ओर ही संकेत करता है। उनको फिल्मों का जनमानस पर पड़नेवाले असर का अनुमान भी था। वो चाहते थे कि फिल्मों के माध्यम से लोगों को स्वाधीनता के लिए तैयार किया जाए। स्वाधीनता के संघर्ष में गांधी के पदार्पण के बाद कई ऐसी फिल्मों का निर्माण हुआ जिसने स्वाधीनता आंदोलन के दौरान गांधीवादी विचारों को फैलाने में बड़ा योगदान किया। 1939 में तमिल भाषा में बनी फिल्म त्यागभूमि को उस दौर की सर्वाधिक सफल फिल्मों में माना जाता है। ये फिल्म प्रख्यात तमिल लेखक आर कृष्णमूर्ति की कृति पर आधारित है। इस फिल्म में गांधीवादी विचारों को प्रमुखता से दिखाया गया था। बाद में इसको अंग्रेजों ने प्रतिबंधित कर दिया था। इसी तरह से अगर देखें तो तेलुगु में बनी फिल्म वंदे मातरम ने भी गांधी के विचारों को तेलुगु भाषी जनता के बीच पहुंचाने का बड़ा काम किया। भालजी पेंढारकर ने अपनी मूक फिल्म वंदे मातरम में अंग्रेजों की शिक्षा नीति की आलोचना की थी।  1943 में बनी हिंदी फिल्म किस्मत के गाना दूर हटो ये दुनियावालो हिंदुस्तान हमारा है बेहद लोकप्रिय हुआ था। ऐसा नहीं है कि गांधी को ये पता नहीं होगा कि इस तरह की फिल्में बन रही हैं। वो चाहते होंगे कि फिल्मकार राष्ट्र के प्रति अपने दायित्वों को समझें और अपनी फिल्मों के कंटेंट के बारे में निर्णय लें। गांधी जैसा व्यापक दृष्टिकोण वाला व्यक्ति सिनेमा विरोधी हो ये मानना कठिन है।  


Saturday, September 21, 2024

वैश्विक धरोहर पर लापरवाही का पौधा


पिछले दिनों ये आगरा के ताजमहल के गुंबद से पानी टपकने का समाचार चर्चा में आया। कारण ये बताया गया कि ताजमहल के गुंबद पर एक पौधा उग आया था और उसकी जड़ों से होकर पानी टपका। उस पौधे का वीडियो और फोटो इंटरनेट मीडिया पर खूब प्रचलित हुआ। तरह-तरह की टिप्पणियां की गईं। ताजमहल वैश्विक धरोहर की श्रेणी में आता है और इसके रख-रखाव का दायित्व भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण का है। गुंबद से पानी टपकने के समाचार को पढ़ने के बाद जिज्ञासा हुई कि देखा जाए भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण की वेबसाइट पर ताजमहल के सबंध में क्या जानकारियां हैं। भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण की वेबसाइट खोलते ही इसके मुख्य पृष्ठ पर ताजमहल की तस्वीर नजर आती है जहां लिखा भी है कि ये वैश्विक धरोहर है। वैश्विक धरोहर की देखरेख या रखरखाव इस तरह से की जाती है कि उसके ऊपर पौधा उग आए और अधिकारियों को हवा तक नहीं लगे। यहां ये बात ध्यान दिलाने योग्य है कि भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण का एक कार्यालय आगरा में भी है। इतना ही नहीं आगारा किला की एक दीवार पर भी छोटे-छोटे पौधे उग आए हैं और वो बढ़ रहे हैं। उसपर पता नहीं कब तक भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण के जिम्मेदार अफसरों का ध्यान जाएगा। दरअसल इस बात को संस्कृति मंत्रालय के रहनुमाओं को समझना होगा कि संस्कृति और सांस्कृतिक विरासत को संभालने और सहेजने के लिए संवेदनशील मानव संसाधन की आवश्यकता है। ऐसे मानव संसाधन की जिनको संस्कृति की समझ भी हो और उसको सहेजने को लेकर एक उत्साह भी हो।

ताजमहल की ही अगर बात करें तो ना सिर्फ गुंबद में पौधे उग आए हैं बल्कि ध्यान से देखें तो मुख्य मकबरे में पश्चिम की दिशा में जो पत्थरों के बीच बीच लगे हुए कई शीशे टूटे हुए हैं। शीशे के अलावा भी दीवारों और गुंबदों के अंदर की तरफ की गई पच्चीकारी के रंगीन पत्थर कई जगह से निकले हुए हैं। पच्चीकारी के उन पत्थरों के निकल जाने से उतना क्षेत्र अजीब सा लगता है। पच्चीकारी के पत्थरों की कीमत को कम ही होती है फिर क्या समस्या है। जानकारों का कहना है कि पत्थरों की कीमत भले ही कम होती है लेकिन उसको लगाने में बहुत श्रम और समय लगता है। इस कारण उसको तत्काल नहीं बनवाया जाता है। दूसरा पक्ष ये है कि अगर पच्चीकारी के पत्थरों के टूटने के बाद अविलंब उसकी मरम्मत नहीं की जाती है तो पत्थरों को जोड़ना और भी मुश्किल हो जाता है। क्या भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण के अधिकारी या कर्मचारी ताजमहल का चक्कर नहीं लगाते या उनको ये सब दिखाई नहीं देता है या देखकर अनदेखा किया जाता है। बात तो इसपर भी होनी चाहिए कि क्या भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण के पास इस वैश्विक धरोहर की देखभाल करने के लिए पर्याप्त धन है या नहीं। ऐसा नहीं है कि सिर्फ ताजमहल में ही आपको इस तरह के लापरवाही दिखाई देगी बल्कि कई विश्व प्रसिद्ध धरोहरों में और सैकड़ों वर्षों से भारतीय शिल्पकला के उदाहरण के तौर पर सीना ताने खड़े इमारतों में भी इस तरह के उदाहरण आपको मिल सकते हैं।

इस स्तंभ में ही पूर्व में इस बात की चर्चा की जा चुकी है कि किस तरह से ओडिशा के कोणार्क मंदिर के प्रवेश द्वार पर लगे हाथी की सूंढ में दरार आ जाने के बाद उसको सीमेंट-बालू से भर दिया गया था। कोणार्क सूर्य मंदिर भी यूनेस्को की विश्व धरोहर की सूची में है। कोणार्क मंदिर में इस तरह की लापरवाही ना केवल भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण की लापरवाही बल्कि अपने धरोहर को सहेजने की असंवेदनशील प्रवृत्ति को भी सामने लाता है। इसी तरह कभी आप त्रिपुरा के उनकोटि चले जाइए। भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण की लापरवाही का उदाहरण आपको पूरे परिसर में सर्वत्र बिखरा हुआ नजर आएगा। एक तरफ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी स्वाधीनता के अमृत महोत्सव वर्ष में लाल किला की प्राचीर से देशवासियों से  पंच प्रण की बात करते हैं जिसमें अपनी विरासत पर गर्व की बात करते हैं। विरासत पर गर्व करने के लिए यह बेहद आवश्यक है कि हम अपनी विरासत को संरक्षित करें। संस्कृति मंत्रालय के अधीन आनेवाली संस्था भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण की अपनी विरासत को सहेजने में लापरवाही और उदासीनता दिखाई देती है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के दूसरे कार्यकाल में 13 दिसंबर 2022 को राज्यसभा में संस्कृति मंत्रालय की स्टैंडिंग कमेटी ने एक रिपोर्ट प्रस्तुत की थी। संस्कृति मंत्रालय से संबद्ध संसद की इस समिति ने अपनी रिपोर्ट संख्या 330 में भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण के कामकाज को लेकर गंभीर प्रश्न उठाए थे। 

रिपोर्ट में समिति ने मंत्रालय/ भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण में धनराशि के उपयोग को लेकर बेहद कठोर टिप्पणी भी की थी। समिति के मुताबिक मंत्रालय ने अपने उत्तर में इस बात का उल्लेख नहीं किया है कि भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण को जो धनराशि आवंटित की गई थी उसका आवंटन और उपयोग किस तरह से किया गया। इसके अलावा भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण में खाली पदों को भरने में हो रहे बिलंब पर भी समिति ने कठोर टिप्पणियां की थी। पता नही उसके बाद क्या हुआ। क्या भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण में विशेषज्ञों की नियुक्ति हुई या अफसरों के भरोसे ही कार्य चलाया जा रहा है। तब समिति की रिपोर्ट में बताया गया था कि भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण के आर्कियोलाजी काडर में 420 पद स्वीकृत हैं जिसमें से 166 पद खाली थे। संरक्षण काडर में कुल स्वीकृत पद 918 थे जिनमें से 452 पद रिक्त थे। संस्कृति मंत्रालय के कामकाज को लेकर संसदीय समिति की इस रिपोर्ट में इस बात पर नाराजगी जताई गई थी कि करीब पचास फीसद पद कैसे खाली हैं। क्या मंत्रालय या भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण इस बात का आकलन नहीं कर पाई थी कि भविष्य में कितने पद खाली होनेवाले हैं। 

दरअसल संस्कृति मंत्रालय में कामकाज की एक अजीब सी संस्कृति पनप गई है। मंत्रालय में संवेदनहीन अधिकारियों के साथ साथ उन बाहरी संस्थाओं को कई कार्य करने का दायित्व दिया गया है जिनको संस्कृति की समझ ही नहीं है। किसी पब्लिक रिलेशन एजेंसी को भारतीय संस्कृति को वैश्विक स्तर पर छवि बनाने के काम में लगाया गया था। उनके लोग संस्कृति से संबंद्ध लेखकों-कलाकारों की बैठकों में नोट्स लेते हैं। उसके आधार पर पावर प्वाइंट बनाकर भारतीय संस्कृति की छवि बनाने का कार्य करने का प्रयास करते हैं। पता नहीं ये कार्य हो पाया नहीं लेकिन इन बैठकों में जब पब्लिक रिलेशन कंपनी से जुड़े लोग कलाकारों या शिक्षाविदों से पूछते कि नृत्य या संगीत की इतनी शैलियों को कैसे समेटा जाए तो हास्यास्पद स्थिति बन जाती। सिर्फ प्रधानमंत्री मोदी ही नहीं बल्कि भारतीय जनता पार्टी से लेकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तक भारतीय सांस्कृतिक विरासत को लेकर गंभीरता से संवाद और कार्य करने के पक्षधर हैं। बावजूद इसके संस्कृति मंत्रालय के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती। सिस्टम अपनी गति से ही चलता रहता है। संस्कृति मंत्रालय में यथास्थितिवाद को झकझोरनेवाला नेतृत्व चाहिए जो संस्कृति की बारीकियों को समझ सके, उसके विविध रूपों को लेकर गंभीर हो और अधिकारियों को प्रधानमंत्री की नीतियों को लागू करने के लिए ना केवल प्रेरित कर सके बल्कि कस भी सके।