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Saturday, November 16, 2024

महान कलाकारों के स्मरण का संयोग


किसी भी फिल्म फेस्टिवल के आयोजन का उद्देश्य देश में फिल्म संस्कृति का निर्माण करना होता है। इस उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए भारत सरकार ने भी फिल्म फेस्टिवल की कल्पना की थी। आगामी 20 नवंबर से गोवा में अंतराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिव का आरंभ हो रहा है। उसके बाद 5 दिसंबर से विश्व के सबसे बड़े घुमंतू फिल्म फेस्टिवल जागरण फिल्म फेस्टिवल की दिल्ली से शुरुआत हो रही है। भारत सरकार के सूचना और प्रसारण मंत्रालय के आयोजन अंतराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल का आयोजन गोवा में होने जा रहा है। इस बार गोवा में आयोजित इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल आफ इंडिया (ईफी) में भारतीय सिनेमा के चार दिग्गजों को भी याद किया जा रहा है। महान शोमैन राज कपूर, गायक मुहम्मद रफी, फिल्मकार तपन सिन्हा और अभिनेता ए नागेश्वर राव की जन्मशती मनाई जा रही है। इन चारों के फिल्मों का प्रदर्शन, उनके कार्यों और समाज पर उसके प्रभाव पर बात होगी। उनके जीवन और फिल्मों के आधार पर प्रदर्शनी लगाई जा रही है। जब हम फिल्म फेस्टिवल पर बात करते हैं और ये मानते हैं कि इससे देश में फिल्म संस्कृति का विकास होगा तो हमारे मानस में एक प्रश्न खड़ा होता है कि इसमें युवाओं की कितनी भागीदारी होगी। ईफी ने एक सराहनीय पहल की है। इस बार फिल्म फेस्टिवल की थीम ही युवा फिल्मकार है। इसमें युवा फिल्मकारों को मंच देने का प्रयास किया जा रहा है। देशभर के फिल्म स्कूलों से जुड़े चुनिंदा छात्रों को ना केवल ईफी में आमंत्रित किया गया है बल्कि उनके कार्यों को रेखांकित कर अंतराष्ट्रीय दर्शकों तक पहुंचाने का उपक्रम भी किया गया है। पहली बार किसी फिल्म का निर्देशन करनेवाले युवा निर्देशक को सम्मानित करने के लिए जूरी ने मेहनत की है। कुछ वर्षों पूर्व 75 क्रिएटिव माइंड्स नाम से युवा फिल्मकारों को प्रोत्साहित करने का एक कार्यक्रम आरंभ किया गया था। इस अभियान के आरंभ में जुड़ने का अवसर मिला था। यह एक बेहद महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट था। ईफी के इस 55वें संस्करण में 75 क्रिएटिव माइंड्स की संख्या बढ़ाकर 100 क्रिएटिव माइंड्स कर दी गई है। 

अब बात कर लेते हैं उन महान फिल्मी हस्तियों की जिनकी जन्म शताब्दी वर्ष में उनपर विशेष आयोजन हो रहा है। ए नागेश्वर राव तेलुगु फिल्म इंडस्ट्री को पहचान और नाम देने वाले कलाकार थे। करीब सात दशकों तक उन्होंने फिल्मों में जितना काम किया उसने तेलुगू सिनेमा की पहचान को गाढ़ा किया। उन्होंने एन टी रामाराव के साथ मिलकर तेलुगु फिल्मों को खड़ा किया। कहा जाता है कि तेलुगु फिल्मों के ये दो स्तंभ हैं। नागेश्वर राव का संघर्ष बहुत बड़ा है। वो एक बेहद गरीब परिवार में पैदा हुए थे। वो बचपन से ही फिल्मों में अभिनय करने का स्वप्न देखते थे। वो जब आठ नौ वर्ष के थे तभी से आइने के सामने खड़े होकर अभिनय किया करते थे। उनकी मां जब इसको देखती तो अपने बेटे को प्रोत्साहित करती। नागेश्वर राव की मां ने ही उनको अभिनय के लिए ना केवल प्रेरित किया बल्कि अपनी गरीबी के बावजूद उनको थिएटर में भेजने लगीं। इस बात को नागेश्वर राव स्वीकार भी करते थे कि अगर उनकी मां ना होती तो वो फिल्मों में नहीं आ पाते। रंगमंच पर नागेश्वर राव के काम की प्रशंसा होने लगी थी। 1941 में उनको फिल्मों में पहला काम मिला जब पुलैया ने अपनी फिल्म धर्मपत्नी में कैमियो रोल दिया। उनके इस काम पर प्रलिद्ध फिल्मकार जी बालारमैया की नजर पड़ी और उन्होंने अपनी फिल्म सीतारामम जन्मम में केंद्रीय भूमिका के लिए चयनित कर लिया। स्वाधीनता के पूर्व 1944 में जब ये फिल्म रिलीज हुई तो नागेश्वर राव के काम की चर्चा हुई। पहचान मिली। 1948 में जब उनकी फिल्म बालाराजू आई तो उसको दर्शकों का भरपूर प्यार मिला। उसके बाद तो वो तेलुगु सिनेमा के सुपरस्टार बन गए। ए नागेश्वर राव ने ढाई सौ से अधिक तेलुगु, तमिल और हिंदी फिल्मों में काम किया। एएनआर के नाम से मशहूर इस कलाकार को भारत सरकार ने पद्मभूषण से सम्मानित किया। 

जिस तरह से एएनआर ने तेलुगू फिल्मों को संवारा, कह सकते हैं कि राज कपूर ने भी हिंदी फिल्मों को एक दिशा दी। उनकी फिल्म आवारा का प्रदर्शन ईफी के दौरान किया जा रहा है। कौन जानता था कि जो बालक कोलकाता के स्टूडियो में केदार शर्मा से रील का रहस्य जानना चाहता था, जो किशोरावस्था में कॉलेज में पढ़ाई न करके अन्य सभी बदमाशियां किया करता था, जिसके पिता उसके करियर की चिंता में सेट पर उदास बैठा करते थे, वो रील की इस दुनिया में इतना डूब जाएगा, उसकी बारीकियों को इस कदर समझ लेगा या फिर रील में चलने फिरनेवाले इंसान के व्याकरण को इतना आत्मसात कर लेगा कि पहले अभिनेता राज कपूर के तौर पर और बाद में शोमैन राज कपूर के रूप में उनकी ख्याति पूरे विश्व में फैल जाएगी। राज कपूर ने ना केवल कालजयी फिल्में बनाईं बल्कि उन्होंने नई प्रतिभाओं को भी अवसर दिया। उनकी संगीत की समझ इतनी व्यापक थी कि अक्सर वो संगीतकारों के साथ होनेवाली संगत में फीडबैक दिया करते थे जिससे संगीत बेहद लोकप्रिय हो जाया करता था। कई गीतकारों और संगीतकारों ने इसको स्वीकार किया है। राज कपूर के सहायक रहे और फिर कई हिट फिल्मों का निर्देशन करनेवाले राहुल रवैल ईफी दौरान रणबीर कपूर के साथ संवाद करेंगे। 

तपन सिन्हा एक ऐसे निर्देशक थे जिन्होंने बेहतरीन फिल्में बनाईं। काबुलीवाला एक ऐसी फिल्म जिसको अंतराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता मिली। तपन सिन्हा की समाज और समकालीन राजनीति पर पैनी नजर रहती थी। वो अपनी फिल्मों के माध्यम से मनोरंजन तो करते ही थे फिल्मों के जरिए राजनीति की विसंगतियों पर प्रहार भी करते थे। तपन सिन्हा ने बंगाली, हिंदी और ओडिया में फिल्में बनाई। तपन सिन्हा ने बिहार के भागलपुर में अपनी स्कूली पढ़ाई की फिर पटना विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा। तपन सिन्हा ने अपना करियर साउंड इंजीनियर के तौर पर आरंभ किया था लेकिन उनके दिमाग में तो कुछ और ही चल रहा था। वो फिल्म बनाना चाहते थे। जब उन्होंने फिल्मों का निर्देशन आरंभ किया तो फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा। उनको डेढ़ दर्जन से अधिक राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिले। सत्यजित राय और तपन सिन्हा ने मिलकर बांग्ला फिल्मों को एक नई ऊंचाई दी। वो एक बेहद अनुशासित निर्देशक थे और सुबह दस बजे फिल्मों की शूटिंग आरंभ करते थे और शाम पांच बजे समाप्त। उसके बाद गोल्फ खेलना उनकी दिनचर्या में शामिल था। 

मोहम्मद रफी के बारे में क्या ही कहना। वो भारत के ऐसे पार्श्व गायक थे जिनके गीतों को आज भी गुनगुनाया जाता है। ये देखना दिलचस्प होगा कि मोहम्मद रफी को ईफी में कैसे याद किया जाता है। ईफी की ओपनिंग फिल्म स्वातंत्र्य वीर सावरकर है। इस फिल्म को रणदीप हुडा ने निर्देशित किया है। गैर फीचर फिल्म श्रेणी में ओपनिंग फिल्म घर जैसा कुछ है जो लद्दाखी फिल्म है। इसके अलावा गीतकार प्रसून जोशी, संगीतकार ए आर रहमान और निर्देशक विधु विनोद चोपड़ा फिल्मों की बारीकियों पर बात करेंगे। गोवा में आयोजित होनेवाले इस फिल्म फेस्टिवल को लेकर अंतराष्ट्रीय फिल्म जगत में भी एक उत्सकुता रहती है। इसमें कई बेहतरीन अंतराष्ट्रीय फिल्मों का भी प्रदर्शन होगा। चार भारतीय फिल्मी दिग्गजों को समर्पित ये फेस्टिवल लंबी लकीर खींच सकता है।      


Sunday, November 10, 2024

प्रगतिशीलता का अधिनायकवाद


इन दिनों हिंदी साहित्य जगत में एक बार फिर से वाम दलों से संबद्ध लेखक संगठनों की चर्चा हो रही है। चर्चा इस बात पर नहीं हो रही है कि लेखक संगठनों ने लेखकों के हित में कोई कदम उठाया है बल्कि इस बात पर हो रही है कि जनवादी लेखक संघ के संस्थापक सदस्य और राष्ट्रीय अध्यक्ष असगर वजाहत ने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया। उन्होंने 2 नवंबर को अपना त्यागपत्र संगठन के महासचिव और कार्यकारिणी सदस्यों को भेजा। उसके बाद गुरुवार को प्रगतिशील लेखक संघ के उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष पद से वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना ने भी त्यागपत्र दे दिया। उनके त्याग पत्र में उनका दर्द झलक रहा है। नरेश सक्सेना ने लिखा कि मैं मित्रों की असहमति का सम्मान करता हूं, किंतु अपने प्रति व्यंग्य और संदेह का नहीं। हार्दिक विनम्रता के साथ मैं तत्काल प्रभाव से उत्तर प्रदेश प्रगतिशील लेखख संघ के अध्यक्ष पद से इस्तीफा देता हूं। गौर करने की बात है कि नरेश सक्सेना जी ने ये बात फेसबुक पर लिखी। उनके लिखने के बाद उनके समर्थन और विरोध में टिप्पणियां आने लगीं। कम्युनिस्ट पार्टी के प्रति आस्थावान कुछ लेखकों ने उनको नसीहत दी तो अधिकतर लेखकों ने उनका समर्थन किया। कर्मेन्दु शिशिर ने अच्छी टिप्पणी की, संगठन और सृजन दोनों का अपना महत्व है। जब एक रचनाकार को संगठन और सृजन में चयन करना पड़े तो सच्चा रचनाकार तो सृजन का ही चयन करेगा। असगर वजाहत जैसे बड़े कथाकार/नाटककार और नरेश सक्सेना जैसे बड़े कवि को जब संगठन ही ट्रोल करने लगे तो वो क्या करें। नरेश सक्सेना का त्याग पत्र और उनपर आई टिप्पणियों को पढ़ने के बाद इस बात के संकेत मिलते हैं कि संघ की कोई बैठक चंडीगढ़ में हुई थी जिसमें ये तय किया गया था कि संघ से जुड़ा कोई लेखक किस मंच पर जाएगा ये संगठन तय करेगा। 

कम्युनिस्ट पार्टियों के बौद्धिक प्रकोष्ठ की तरह काम करनेवाला प्रगतिशील लेखक संघ हो, जनवादी लेखक संघ हो या जन संस्कृति मंच सबमें एक अधिनायकवादी प्रवृत्ति दिखाई देती है। इस संबंध में राहुल सांकृत्यायन से जुड़ा एक प्रसंग का उल्लेख उचित होगा। स्वाधीनता के बाद दिसंबर 1947 में हिंदी साहित्य सम्मेलन का एक अधिवेशन बांबे (अब मुंबई) में होना था। राहुल सांकृत्यायन को अधिवेशन की अध्यक्षता के लिए मंत्रित किया गया था। उस समय राहुल सांकृत्यायन कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य थे। जब वो बांब पहुंचे तो पार्टी के कार्यालय पहुंचे। वहां कामरेडों ने उनके तैयार भाषण की कापी पढ़ी। उसके बाद तो वहां विवाद खड़ा हो गया। राहुल सांकृत्यायन ने अपने भाषण में लिखा था इस्लाम को भारतीय बनना चाहिए। उनका भारतीयता के प्रति विद्वेष सदियों से चला आया है। नवीन भारत में कोई भी धर्म भारतीयता को पूर्णतया स्वीकार किए बिना फल फूल नहीं सकता।ईसाइयों, पारसियों और बौद्धों को भारतीयता से एतराज नहीं फिर इस्लाम को ही क्यों? इस्लाम की आत्मरक्षा के लिए भी आवश्यक है कि वह उसी तरह हिन्दुस्तान की सभ्यता, साहित्, इतिहास, वेशभूषा, मनोभाव के साथ समझौता करे जैसे उसने तुर्की, ईरान और सोवियत मध्य-एशिय़ा के प्रजातंत्रों में किया। कामरेड चाहते थे कि राहुल अपने लिखे भाषण में बदलाव करें। उन हिस्सों को हटा दें जहां उन्होंने इस्लाम के भारतीयकरण की बात की है। मामला काफी गंभीर हो गया। राहुल जी भाषण में संशोधन के लिए बिल्कुल तैयार नहीं हो रहे थे। कम्युनिस्ट पार्टी के कामरेड ने उनको पत्र लिखा और कहा कि आप अपने भाषण में आवश्यक रूप से ये कहें कि ये पार्टी का स्टैंड नहीं है। इसका राहुल सांकृत्यायन ने बहुत अच्छा इत्तर दिया । उन्होंने लिखा कि पार्टी की नीति के साथ नहीं होने के कारण वो स्वयं को पार्टी में रहने लायक नहीं समझते हैं और उन्होंने पार्टी छोड़ दी। कुछ ऐसा ही भाव नरेश सक्सेना के त्याग पत्र से भी प्रतिबिंबित हो रहा है। 

एक भयावह उदाहरण है शायर कैफी आजमी की पत्नी शौकत कैफी से जुड़ा।  शौकत कैफी ने अपनी किताब ‘यादों की रहगुजर’ में लिखा है कि जब उनकी शादी हुई तो वो मुंबई में एक कम्यून में रहते थे। उनका जीवन सामान्य चल रहा था। उनके घर एक बेटे का जन्म हुआ था। अचानक सालभर में बच्चा टी बी का शिकार होकर काल के गाल में समा गयॉ। इस विपदा से शौकत पूरी तरह से टूट गई थीं। अपने इस पहाड़ जैसे दुख से उबरने की कोशिश में जैसे ही शौकत को पता चला कि वो फिर से मां बनने जा रही हैं तो उनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा । अपनी इस खुशी को शौकत ने कम्यून में साझा की । उस वक्त तक शौकत कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता ले चुकी थी । जब शौकत की पार्टी को इसका पता चला तो तो पार्टी ने शौकत से गर्भ गिरा देने का फरमान जारी किया। उस वक्त शौकत पार्टी के इस फैसले के खिलाफ अड़ गईं थी और तमाम कोशिशों के बाद बच्चे को जन्म देने की अनुमति मिली थी। स्वाधीनता, स्त्री अधिकार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात करनेवाले कम्युनिस्ट पार्टी के लोगों को जैसे ही अवसर मिलता है इनको दबाने का पूरा प्रयत्न करते हैं। नरेश सक्सेना इसके हालिया शिकार हैं।  

Saturday, November 9, 2024

अनौपचारिक चर्चा में उठते गंभीर प्रश्न


वर्षों बाद मित्रों से मिलने दिल्ली विश्वविद्यालय जाना हुआ। विश्वविद्यालय के पास विजयनगर की चाय दुकान पर मिलना तय हुआ। ये वही ठीहा है जहां छात्र जीवन में मित्रों के साथ बैठकी होती थी। पुराने दिनों को याद करने और कालेज के जमाने के मित्रों से मिलने का अवसर था। उत्साहित होकर हम सब विजयनगर वाली चाय दुकान पर जुटे। हम छह मित्र थे। वहीं फुटपाथ पर बैठकर छात्र जीवन को याद करने लगे। हमने तय किया था कि राजनीति पर बात नहीं करेंगे। ऐसा संभव नहीं हो सका। आधे पौने घंटे तक दिल्ली विश्वविद्यालय की बातें होती रहीं। इसके बाद बात राष्ट्रीय शिक्षा नीति तक पहुंच गई। मैंने कहा कि ये मोदी सरकार का शिक्षा व्यवस्था में आमूल चूल सुधार करने का बड़ा और ऐतिहासिक कदम है। 1986 के बाद शिक्षा पर विशेष ध्यान नहीं दिया गया था। हमारी शिक्षा व्यवस्था विदेशी भाषा और विदेशी शैक्षणिक तौर तरीकों में उलझी हुई थी। अब अकादमिक जगत के चर्चा के केंद्र में भारतीय ज्ञान परंपरा है। कोई भी सेमिनार या गोष्ठी ऐसी नहीं जिसमें भारतीय ज्ञान परंपरा की बात न हो। स्वाधीनता के बाद पहली बार शिक्षा का भारतीयकरण हो रहा है। मेरे दो मित्र ने सहमति जताई। उसमें से एक ने मेरी बातों में ये जोड़ा कि शिक्षा का ना केवल भारतीयकरण हो रहा है बल्कि विद्यार्थियों और शिक्षकों के मानस में भी परिवर्तन हो रहा है। वो अभी ये बातें कह ही रहा था कि एक मित्र ने हस्तक्षेप किया। उसने कहा कि शिक्षा नीति तो ठीक है, ऐतिहासिक भी है, इससे भारतीयकरण भी हो रहा है, चर्चा भी हो रही है लेकिन इसका क्रियान्वयन बहुत धीरे हो रहा है। मेरा तर्क था कि संभव है कि क्रियान्वयन धीमा हो पर बदलाव में समय तो लगता है। ये कोई सामान नहीं है कि एक को हटाकर उसकी जगह दूसरा रख दिया जाए। 

राष्ट्रीय शिक्षा नीति कि चर्चा में अब राजनीति भी आ गई। एक मित्र, जो शिक्षक संगठन में सक्रिय हैं, अबतक ब्रेड पकौड़ा खा रहे थे। पकौड़े से फारिग होते ही हमारी चर्चा में घुसे और आक्रामक तरीके से बोले कि चार वर्ष बीत गए अबतक पाठ्यक्रम तो बना नहीं पाए। लागू कैसे करेंगे। उनके पास काफी जानकारी थी। उन्होंने कहा कि अभी दिल्ली में शिक्षाविदों की दो दिन की बैठक हुई है जिसमें पाठ्यक्रम बनाने को लेकर चर्चा हुई। उस बैठक में भी इस बात पर सहमति नहीं बन पाई कि पाठ्यक्रम कब तक तैयार हो पाएगा। पुस्तकों की बात तो बाद की है। कांग्रेस तो 2004 में सत्ता में आई थी और 2006 तक सारे पुस्तकों में बदलाव करके अपने अनुकूल सामग्री लागू कर दी थी। यहां तो चार साल में चले ढाई कोस वाली बात है। इसका प्रतिरोध एक अन्य मित्र ने जोरदार तरीके से किया। उसका कहना था कि कांग्रेस के पास एक ईकोसिस्टम था जिसने सबकुछ आनन फानन में कर दिया। इसपर पहले वाले मित्र ने कहा कि दस वर्ष से अधिक हो गए ईकोसिस्टम नहीं बना पाए भाजपा वाले। मेरा तर्क था कि दस और साठ वर्ष में अंतर होता है, इसको समझना होगा। मेरी इस बात पर वो चुप तो हो गया लेकिन बड़बड़ाता रहा कि जब गलत लोगों का चयन करोगो, अपने लोगों पर भरोसा नहीं करोगे, काम नहीं दोगे तो सिस्टम बनेगा कैसे। खैर बातचीत खत्म हो गई। हम सबने फिर से चाय पीने का मन बनाया। चाय आ गई। 

मित्रगण एक दूसरे से मजे भी ले रहे थे। इसमें से दो मित्र बाहर से आए थे। वो दोनों प्रोफेसर हैं। अचानक से विश्वविद्यालय की बात आरंभ हुई। इस बात पर चर्चा होने लगी कि आजकल शिक्षकों के मजे हैं। शिक्षकों के लिए सुविधाएं बहुत हो गई हैं। वो दोनों सहमत थे। ये भी बताया गया कि शिक्षा के क्षेत्र में अब संसाधनों की कमी नहीं है। क्लासरूम बेहतरीन हो गए हैं। चर्चा चल ही रही थी कि एक मित्र ने चुटकी ले ली। सुविधाएं तो अपार हैं समय भी खूब है। क्लास तो लेनी नहीं है। इसपर दोनों भड़क गए। कहने लगे कि हमें जितना काम करना पड़ता है उसकी कल्पना भी बाहर वालों को नहीं है। फिर वो लोग आपस में वर्कलोड आदि की बातें करने लगे। इतने में पहले वाले मित्र जो शिक्षक राजनीति में सक्रिय हैं फिर से टपक पड़े। बोले शिक्षकों के मजे तो होंगे ही। जब 56 केंद्रीय विश्वविद्यालयों में से एक दर्जन से अधिक विश्वविद्यालयों में कुलपति नहीं होंगे तो मजे को कौन रोक सकता है। कामचलाऊ व्यवस्था में तो हर कोई मजे लूटता है। उसकी बात काटते हुए मैंने कहा कि कुलपति चयन की प्रक्रिया में समय तो लगता है। हो जाएगा। हमारे देश में चुनाव भी तो चलते रहते हैं। शिक्षा मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान जी चुनाव प्रबंधन के माहिर हैं। पार्टी उनका उपयोग करती है। कुछ विलंब हो गया होगा। इसको इस तरह से पेश करना गलत है। उसने पलटकर विश्वविद्यालयों के नाम गिनाने शुरू कर दिए। वर्धा का हिंदी विश्वविद्यालय, लखनऊ का अंबेडकर विश्वविद्ययालय, गढ़वाल का केंद्रीय विश्वविद्यालय, बंगाल का विश्वभारती विश्वविद्यालय, सिक्किम, अरुणाचल, पुडेचेरी आदि के केंद्रीय विश्वविद्यालय बगैर कुलपति के चल रहे हैं। धमकाने के अंदाज में बोला कि सूची लंबी है कहो तो पूरी गिनाऊं। कुछ विश्वविद्ययालयों के कुलपति का कार्यकाल अभी से लेकर जनवरी तक समाप्त हो जाएगा। बात आगे ना बढ़े इसलिए उसको बदलने का प्रयास करते हुए कहा कि यार तुम तो प्रक्रियागत देरी पर राजनीति करने लग गए। वो माना नहीं कहा कि शिमला के उच्च अध्ययन संस्थान में 2021 से नियमित निदेशक नहीं है। मैं इसका तुरंत उत्तर नहीं दे पाया। 

चर्चा वहीं पहुंच गई जिसको लेकर हम सभी आरंभ से आशंकित थे। अब बारी हमारे दो शिक्षक मित्रों की थी। वो इन तर्कों से सहमत नहीं हो पा रहे थे। उन्होंने कहा कि कांग्रेस की तरह बीजेपी अपने लोगों को भरने की जगह प्रतिभा को प्राथमिकता देती है। कांग्रेस की तरह भाई-भतीजावाद से पद भरने में इस सरकार की रुचि नहीं है। जब से प्रधानमंत्री मोदी ने पद संभाला है उन्होंने इस बात पर सबसे अधिक बल दिया है कि प्रतिभा को किसी भी तरह से हाशिए पर ना रखा जाए। योग्य व्यक्ति को पद मिले। चाहे वो शिक्षा का क्षेत्र हो या विज्ञान का या कला का। कांग्रेस के ईकोसिस्टम को जब भी चुनौती मिलती है तो वो इसी तरह से बिलबिलाने लगते हैं। धर्मेन्द्र प्रधान और उनके पहले के शिक्षा मंत्रियों ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति पर बहुत मेहनत की है। उसको समावेशी बनाने के लिए हजारों लोगों की राय ली गई थी। दिनकर का नाम तो सुना होगा। संस्कृति के चार अध्याय में उन्होंने कहा है कि विद्रोह, क्रांति या बगावत कोई ऐसी चीज नहीं जिसका विस्फोट अचानक होता है। जब शिक्षा के क्षेत्र में ऐतिहासिक बदलाव की बात हो रही है तो उसमें विलंब तो होगा ही। दोनों मित्रों की आक्रामकता देखकर आलोचना करनेवाला मित्र चुप तो हो गया लेकिन फिर धीरे से बोला अगर विश्वविद्यालय और शैक्षणिक संस्थान नेतृत्वविहीन रहेंगी तो बदलाव में संदेह है। इतनी गर्मागर्मी हो गई कि अगली बार मिलने की तिथि नियत न हो सकी। हम घर की ओर चल पड़े।        


Saturday, November 2, 2024

हिंदुओं की वैश्विक व्याप्ति और समाज


महाराष्ट्र और झारखंड में विधानसभा के लिए चुनाव में प्रचार चरम पर है। इन दोनों राज्यों में चुनाव प्रचार के बीच उत्तर प्रदेश की नौ विधानसभा सीटों पर होनेवाले उपचुनाव को लेकर भी राजनीतिक सरगर्मी तेज है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के बंटेंगे तो कटेंगे वाले बयान की काट ढूंढने में विपक्ष परेशान प्रतीत हो रहा है। कभी जीतेंगे तो पिटेंगे जैसा बयान आते हैं तो कभी जुड़ेंगे तो जीतेंगे जैसे नारे होर्डिंग पर लगते हैं। पूरे चुनाव प्रचार में हिंदू और सनातन की ही चर्चा हो रही है। योगी आदित्यनाथ ने तो रामभक्त ही राष्ट्रभक्त का नारा भी दे दिया है। इसपर पलटवार करते हुए अखिलेश यादव ने कहा कि उनका नारा निराशा और नाकामी का प्रतीक है। अखिलेश यादव ने आदर्श राज्य की कल्पना की बात की। यहां वो राम राज्य कहने से बच गए, लेकिन पूरे पोस्ट से भाव यही निकल रहा है। उनके दल के प्रवक्ता भी श्रीरामचरितमानस की चौपाइयां सुना रहे हैं। हिंदू विमर्श और पौराणिक चरित्र विधानसभा चुनाव प्रचार का केंद्रीय विमर्श है। कुछ लोगों को हिंदू और श्रीराम नाम लेने में कष्ट होता है। वो इशारों में अपनी बात कहते हैं। हिंदुओं की एकजुटता और हिंदू वोटरों को अपने पाले में करने के लिए सभी राजनीतिक दल बेचैन हैं। कोई जाति कार्ड खेल रहा है तो कोई जाति जनगणना की बात को हवा दे रहा है। 

हिंदुओं की चिंता सिर्फ विधानसभा चुनावों में नहीं हो रही है बल्कि वैश्विक स्तर पर भी इसको लेकर चर्चा हो रही है। अमेरिका के राष्ट्रपति के चुनाव प्रचार में भी हिंदुओं को लेकर दोनों दल सतर्क हैं। रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रंप ने तो हिंदुओं पर बंगलादेश में हो रहे अत्याचार पर एक लंबी पोस्ट ही लिख डाली। ट्रंप ने लिखा कि वो बंगलादेश में हिंदुओं, ईसाइयों और अन्य अल्पसंख्यों पर होने वाले बर्बर हिंसा की निंदा करते हैं। उन्होंने अपने प्रतिद्वंदी कमला हैरिस और अमेरिका के वर्तमान राष्ट्रपति जो बाइडेन पर आरोप लगाया कि दोनों ने मिलकर अमेरिका और पूरे विश्व में हिंदुओं की अनदेखी की। ट्रंप ने स्पष्ट रूप से ये घोषणा की है कि धर्म के विरुद्ध रैडिकल लेफ्ट के एजेंडा से अमेरिकन हिंदुओं के अधिकारों की रक्षा के लिए वो प्रतिबद्ध हैं। हिंदुओं की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करेंगे। भारत और अपने मित्र प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ बेहतर समन्वय बनाकर चलेंगे। इसके बाद उन्होंने हिंदुओं को दीवाली की शुभकामनाएं दी और कहा कि ये ये पर्व बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है। उधर डेमोक्रैट पार्टी की उम्मीदवार और अमेरिका की उपराष्ट्रपति कमला हैरिस ने भी दीवाली मनाई। दीवाली मनाते हुए उनका वीडियो उनकी टीम ने इंटरनेट मीडिया पर साझा किया। जो बाइडेन ने भी व्हाइट हाउस में अपने परिवार के साथ दीवाली मनाई। जिस तरह से अमेरिका के चुनाव में हिंदुओं की बात हो रही है उतना खुलकर तो यहां भी हिंदुओं और हिंदू धर्म की चर्चा नहीं होती है। पिछले दिनों जब ब्रिटेन में चुनाव हुआ था तो वहां भी प्रधानमंत्री पद के दोनों उम्मीदवारों ने मंदिरों में जाकर पूजा आदि की थी। ऋषि सुनक ने तो खुलकर हिंदू देवी देवताओं के बारे में श्रद्धापूर्वक बात की थी। 

एक तरफ अमेरिका के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार बंगलादेश में हिंदुओं पर होनेवाले अत्याचार पर खुलकर बोल और लिख रहे हैं वहीं दूसरी तरफ हमारे देश में कई दलों के नेता इस मुद्दे पर खामोशी ओढे हुए हैं। जब भी बंगलादेश में हिंदुओं पर होनेवाले अत्याचार की चर्चा होती है और इन दलों के नेताओं या प्रवक्ताओं से इस बाबत प्रश्न पूछा जाता है तो वो अपने उत्तर के साथ साथ फिलस्तीन का मुद्दा भी उठा देते हैं। वो ये भूल जाते हैं कि फिलिस्तीनी आतंकवादियों ने इजरायल में घुसकर ना केवल नरसंहार किया बल्कि सैकड़ों बच्चों और महिलाओं को बंधक भी बना लिया था। इस क्रिया की प्रतिक्रिया में फिलस्तीन पर इजरायल हमले कर रहा है। इससे उलट बंगलादेश में तो हिंदुओं ने किसी प्रकार की कोई हिंसा नहीं की। उनपर तो वहां के बहुसंख्यकों ने अकारण हमले किए। हिंदुओं की हत्या की गई। मंदिरों को तोड़ा गया। जब भारत के सभी राजनीतिक दलों को इस हमले के खिलाफ एक स्वर में बोलना चाहिए था उस वक्त ये किंतु परंतु में अटके रहे। अब भी हैं। इसका कारण क्या हो सकता है। एक वजह है वोटबैंक की राजनीति। जो दल अल्पसंख्यकों विशेषकर मुसलमानों की राजनीति करते हैं उनको लगता है कि बंगलादेश में हिदुओं पर हो रहे हमलों का विरोध करने से उनका वोटबैंक दरक सकता है। इस कारण वो हिंदुओं पर होनेवाले हमले को लेकर तटस्थ हो जाते हैं। धर्म और राजनीति के घालमेल की आड़ लेते हैं। तर्क होता है कि धर्म को राजनीति से अलग रखना चाहिए। इस तर्क को इकोचैंबर में बैठे तथाकथित बुद्धिजीवी हवा देते हैं। ऐसा माहौल बनाते हैं कि राजनीति से धर्म को अलग रखना चाहिए। दरअसल इकोचैंबर वाले बुद्धिजीवी ये नहीं समझ पाते कि मार्क्स ने जिस धर्म की बात की थी और जो भारत का धर्म है वो दोनों बिल्कुल अलग हैं। 

आज पूरी दुनिया हिंदुओं की ओर देख रही है। वो सनातन धर्म को समझना चाहती है। हिंदुओं की उस जीवन शैली को समझना चाहती है जिसकी इकाई परिवार है। एकल परिवार से ऊब चुकी दुनिया भारतीय परिवारों और उनके बीच के लगाव को समझना चाहती है। संस्कारों के बारे में जानने को उत्सुक है। हिंदू धर्म और अध्यात्म को लेकर वैश्विक स्तर पर एक रुझान देखा जा रहा है। ऐसे में अपने देश में हिंदुओं और उनके ग्रंथों को लेकर और सनातन पर अपमानजनक टिप्पणियां करनेवालों को पुनर्विचार करना चाहिए। जब पूरी दुनिया हिंदुओं की ओर देख रही है ऐसे में अपने ही देश में हिंदुओं को लेकर घृणा भाव बहुत दिनों तक चलनेवाला नहीं है। हिंदू धर्म में जो भी कुरीतियां हों उसको दूर करने का सामूहिक प्रयास किया जाना चाहिए। ऐसा पहले होता भी रहा है। हिंदू समाज के अंदर से ही कोई ना कोई सुधारक आता है जो कुरीतियों पर प्रहार करता है और वृहत्तर हिंदू समाज उसको स्वीकार करता है। कुरीतियों और रूढ़ियों के आधार पर हिंदू समाज को बांटने का जो षडयंत्र चल रहा है उसका निषेध हिंदू समाज ही करेगा। अगर कोई सोचता है कि हिंदू समाज को अपमानित करके अपने वोटबैंक को मजबूत कर लेगा तो वो गलतफहमी में है। हिंदू एकता पर पहले भी बातें होती रही हैं, साहित्य में भी इसके उदाहरण मिलते हैं और इतिहास में भी। रामचंद्र शुक्ल से लेकर शिवपूजन सहाय और रामवृक्ष बेनीपुरी के लेखन में हिंदुओं को संगठित होने की अपेक्षा की गई है। यह अकारण नहीं है कि आज प्रबुद्ध हिंदू समाज भी इस ओर सोचने लगा है। सहिष्णुता हिंदुओं का एक दुर्लभ गुण है लेकिन सहिष्णुता को अगर निरंतर छेड़ा या कोंचा जाएगा तो एक दिन उसकी प्रतिक्रिया तो होगी ही। स्वाधीनता के बाद से ही विचारधारा विशेष के लोगों ने हिंदुओं को अपमानित करने का योजनाबद्ध तरीके से लेकिन परोक्ष रूप से उपक्रम चलाया। ऐसा करनेवाले अब परिधि पर हैं और हिंदू केंद्र में। 


Saturday, October 26, 2024

अमेरिकी चुनाव में धर्म की राजनीति


अपने देश में राजनीति में धर्म के उपयोग की खूब चर्चा होती है। एक विशेष वैचारिक ईकोचैंबर में बैठे कथित विचारक और विश्लेषक इस बात पर चुनाव के समय शोर मचाते हैं। वो राजनीति में धर्म के उपयोग के लिए भारतीय जनता पार्टी को आज से नहीं बल्कि बल्कि इसके गठन के बाद से ही दिम्मेदार ठहराते आ रहे हैं। किसी प्रकार का तर्क नहीं सूझता तो इस तरह के विश्लेषक राम मंदिर मुक्ति के लिए चलाए गए आंदोलन को भी धर्म से जोड़कर कर भारतीय जनता पार्टी पर प्रहार करने से नहीं चूकते। मंदिरों के भव्य और नव्य स्वरूप को देखकर भी इनको धर्म और राजनीति की याद आती है। धर्म के राजनीति में घालमेल को लेकर इसस ईकोचैंबर में बैठे लोग नेतों के मंदिरों में जाने से लेकर टीका लगाने पर टिप्पणी करते हैं। इस संदर्भ में वो अमेरिका और ब्रिटेन का उदाहरण देते हुए सलाह देते हैं कि भारत के राजनेताओं को अमेरिका से सीखना चाहिए। राजनीति में धर्म के कथित घालमेल को ऐसे लोग देश के सामाजिक तानेबाने के लिए खतरा मानते हैं। कई बार तो धर्मनिरपेक्षता को भी इस तरह परिभाषित करते हैं जैसे उसका अर्थ नास्तिकता हो। ईकोचैंबर में बैठे इस तरह के कथित विद्वान या विश्लेषक धर्म को समझने में चूक जाते हैं। संभव है कि समझकर भी ईकोचैंबर को प्राणवायु देनेवाली शक्तियों के प्रति स्वामिभक्ति के कारण गलत व्याख्या करते हों। इस तरह के कथित विद्वान आपको कई देशों में मिलेंगे जो भारतीय मूल के होते हुए भी धर्म को लेकर भ्रमित हैं या भ्रमित होने का दिखावा करते हैं। 

अब जरा अमेरिका चलते हैं। अमेरिका में राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव प्रचार हो रहे हैं। डेमोक्रैट्स और रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवारों डोनाल्ड ट्रंप और कमला हैरिस के बीच बेहद कड़ा मुकाबला है। कई तरह के सर्वे आ रहे हैं जो इस कड़े मुकाबले में ट्रंप की स्थिति थोड़ी बेहतर दिखा रहे हैं। जो लोग भारत में धर्म के राजनीति में घालमेल को लेकर विलाप करते रहते हैं उनको अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव को देखना चाहिए। वहां किस प्रकार से चुनाव में जीजस क्राइस्ट और क्रिश्चियन धर्म की चर्चा होती है। चुनावी रैलियों में धर्म और आस्तिकता को जोर शोर से उठाया जाता है। राष्ट्रपति पद के दोनों उम्मीदवारों की रैली में बार-बार लार्ड जीजस का नाम गूंजता रहता है। इस समय अमेरिका के राजनेता इंटरनेट मीडिया पर निरंतर आस्था और आस्तिकता को लेकर पोस्ट लिख रहे हैं। अपनी रैलियों में बोल रहे हैं। वहां के समाचारपत्रों में भी उम्मीदवारों के जीजस को लेकर रैलियों में दिए गए बयानों की चर्चा हो रही है। अमेरिका के समाज में धर्म को लेकर जिस प्रकार की बातें की जाती हैं या जिस प्रकार से वहां जीजस और बाइबिल को लेकर श्रद्धा और उसका सार्वजनिक प्रकटीकरण होता है उसको भी देखना चाहिए। चुनावी रैलियों में क्राइस्ट इज किंग और जीजस इज लार्ड जैसे नारे उछाले जा रहे हैं। क्रिश्चियन आबादी में इसको लेकर एक अलग ही तरह का माहैल देखने को मिल रहा है। अमेरिका में जेन जी की बहुत चर्चा है। जो युवा इस चुनाव में वहां पहली बार वोट डालने जा रहे हैं उनमें से कई ने इंटरनेट मीडिया पर लिखा है कि मैं एक प्राउड क्रिश्चियन हूं। पहली बार वोट डालने को लेकर उत्साहित हूं। मैं डोनाल्ड ट्रंप को वोट डालूंगा। इस टिप्पणी में गौर करनेवाली बात ये नहीं है कि वो डोनाल्ड ट्रंप को वोट डालेगा। इस बात को देखा जानिए कि किस तरह वो अपने धर्म को लेकर गौरवान्वित है। जो अमेरिका भारत और भारतीयों को धर्म और कट्टरता पर ज्ञान देता है उस देश के युवा खुलेआम धर्म के आधार पर वोट डालने की बात कर रहा है। लेकिन भारत में वैचारिक ईकोचैंबर में बैठे लोगों को ये नहीं दिखता है। अमेरिकी ज्ञान को लेकर यहां शोर मचाने में लग जाते हैं। हमेशा से भारत के बाहर के विचार को लेकर यहां आरोपित करनेवाले इन कथित बौद्धिकों को ये सोचना चाहिए कि इस देश में आयातित विचार लंबे समय तक नहीं चल सकता है। मार्क्सवाद को लेकर भी एक जमाने में रोमांटिसिज्म दिखता था लेकिन समय के साथ वो रोमांटिसिज्म खत्म हो गया। इसका कारण ये रहा कि मार्क्सवादी भारत और भारतीय विचारों को समझ नहीं सके। 

अगर भारतीय जनता पार्टी का नेता अपने चुनाव प्रचार के समय किसी मंदिर में चले जाएं तो उसकी ये कहकर आलोचना होने लगती है कि वो हिंदुओं को आकर्षित करने के लिए ऐसा कर रहे हैं। अमेरिका में खुलेआम राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार प्रार्थना करते हैं और जीजस के नाम पर लोग उम्मीदवार को आशीर्वाद देते हैं। यहां अगर इस तरह से किसी नेता के लिए प्रार्थना की जाए और उसको धर्म से जोड़ा जाए तो जोड़नेवाले को भक्त या अंध भक्त कहकर उपहास किया जाता है। अपेक्षा ये की जाती है कि धर्म को लेकर हमारी राजनीति उदासीन रहे। क्यों? इसका उत्तर किसी के पास नहीं है। अगर उत्तर होता भी है तो वो ये कि इससे अल्पसंख्यकों की भावनाओं को ठेस पहुंच सकती है। संविधान का हवाला दिया जाने लगता है। क्या भारतीय समाज धर्म के बिना चल सकता है? उत्तर होगा नहीं। मुझे कई बार ये प्रसंग याद आता है। उस प्रसंग को बताने के पहले नेहरू के बारे में आधुनिक भारत के इतिहासकारों की राय देखते हैं। इतिहासकारों ने इस बात पर बल दिया है कि नेहरू धर्म को शासन से अलग रखना चाहते थे। इतिहासकारों से इस आकलन में चूक हुई। नेहरू को जब लगता था कि सत्ता के लिए धर्म का उपयोग आवश्यक है तो वो बिल्कुल नहीं हिचकते थे। अब उस प्रसंग की चर्चा। 14 अगस्त 1947। शाम के समय दिल्ली में डा राजेन्द्र प्रसाद के घर हवन-पूजा का आयोजन किया गया था। हवन के लिए पुरोहितों को बुलाया गया था। भारत की नदियों से जल मंगवाए गए थे। डा राजेन्द्र प्रसाद और नेहरू हवन कुंड के सामने बैठे। महिलाओं ने दोनों के माथे पर तिलक लगाया। फिर नेहरू और राजेन्द्र प्रसाद ने हवन किया। पूजा और हवन के पहले नेहरू ने सार्वजनिक रूप से ये स्टैंड लिया था कि उनको ये सब पसंद नहीं है। तब उनके कई मित्रों ने समझाया था कि सत्ता प्राप्त करने का ये हिंदू तरीका है। नेहरू इस हिंदू तरीके को अपनाने को तैयार हो गए थे। इसका उल्लेख ‘आफ्टरमाथ आफ पार्टिशन इन साउथ एशिया’ नाम की पुस्तक में मिलता है। इंदिरा गांधी तो निरंतर मंदिरों में जाती रही हैं। चुनाव हारने के बाद भी और चुनाव के समय भी। कई पुस्तकों में इस बात का उल्लेख है। लेकिन जब से सोनिया गांधी और उसके बाद राहुल गांधी ने कांग्रेस को संभाला तो धर्म पर ज्यादा ही कोलाहल होने लगा। अब कांग्रेस को अमेरिका में बैठे कुछ लोगों से ज्ञान और योजनाएं मिलने लगी हैं तो ये नैरेटिव और गाढ़ा होने लगा है। पर अब ये समझना होगा कि देश की जनता जागरूक हो चुकी है और धर्म को धारण करने में उनको कोई परेशानी भी नहीं।