पुस्तकों के विमोचन कार्यक्रमों में आमतौर पर चर्चा पुस्तक केंदित होती है। वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी आशुतोष अग्निहोत्री के काव्य संग्रह ‘मैं बूंद स्वयं खुद सागर हूं’ के विमोचन में इस परंपरा से हटकर बातचीत हुई। मंच पर गृह मंत्री अमित शाह और गृह सचिव गोविंद मोहन थे। इस कारण वहां जो चर्चा हुई उसके महत्व को रेखांकित करना आवश्यक है। मंच पर पहले तो एक दिलचस्प वाकया हुआ। विमोचन के लिए सबको आग्रह किया जा रहा था। अमित शाह को लगा कि गृह सचिव के बोले बिना उनको आमंत्रित किया जा रहा है। उन्होंने इशारों से बताया कि गोविंद मोहन जी को बोलना है। खैर..स्थिति स्पष्ट हुई और पुस्तक विमोचन के बाद गृह सचिव बोलने आए। उन्होंने आशुतोष अग्निहोत्री की पुस्तक पर टिप्पणी करने के पहले विस्तार से हिंदी की विकास यात्रा पर अपनी बात रखी। हिंदी-उर्दू संबंध पर चर्चा करते हुए दोनों भाषा को बहन बताया। हिंदी के परिष्कृत शब्दों को लेकर समाज में जिस तरह उपहास होता है उसको रेखांकित किया। अतीत में जिस तरह से हिंदी और भारतीय भाषाओं को एक दूसरे विरुद्ध खड़ा करके हिंदी को नुकसान पहुंचाया गया उसका भी उल्लेख हुआ। अंत में उन्होंने कहा कि हिंदी का सूरज लुप्त हो रहा है लेकिन आशा की जानी चाहिए कि एक दिन उसका उदय होगा। गृह सचिव ने हिंदी के संदर्भ में कई बार विलुप्त होने जैसे शब्द बोले। विस्तार का समय नहीं रहा होगा अन्यथा वो इस बात की चर्चा अवश्य करते कि हिंदी कैसे विलुप्त हो रही है। गोविंद मोहन की ये बात भी कि हिंदी-उर्दू बहनें हैं, विस्तृत और गंभीर चर्चा की अपेक्षा रखती है।
अब बारी गृह मंत्री अमित शाह की थी। उन्होंने आशुतोष अग्निहोत्री और उनके संग्रह की प्रशंसा की। परिवर्तन में लगनेवाले समय और मेहनत पर भी बोले। अंत में वो भाषा पर आए। उन्होंने गृह सचिव से असहमति प्रकट करते हुए कहा कि गोविंद मोहन जी ने हिंदी के प्रति चिंता व्यक्त की, हिंदी की यात्रा का अच्छे से वर्णन किया लेकिन मैं उनसे थोड़ा असहमत हूं। गृह मंत्री ने कहा कि हिंदी पर कोई संकट नहीं है। अमित शाह ने कहा कि हमारे देश की भाषाएं हमारी संस्कृति का गहना है। हमारे देश की भाषाओं के बगैर हम भारतीय ही नहीं रहते हैं। हमारा देश, इसका इतिहास, इसकी संस्कृति और हमारे धर्म को किसी विदेशी भाषा से नहीं समझ सकते। भारतीय भाषाओं पर जब अमित शाह बोल रहे थे तो उनकी वाणी में दृढता महसूस की जा सकती थी। वो इतने पर ही नहीं रुके बल्कि यहां तक कह गए कि आधी अधूरी विदेशी भाषाओं से संपूर्ण भारत की कल्पना नहीं हो सकती। वो केवल और केवल भारतीय भाषाओं से हो सकती है। अमित शाह ने ये भी माना कि लड़ाई बड़ी है, लेकिन भारत का समाज इतना सक्षम है कि इस लड़ाई में विजय प्राप्त कर सके। इस विजय के बाद एक बार फिर आत्मगौरव के साथ हमारी भाषाओं में हम हमारा देश भी चलाएंगे, सोचेंगे भी, शोध भी करेंगे, परिणाम भी निकालेंगे और विश्व का नेतृत्व भी करेंगे। अमित शाह ने जिस सभागार में ये बात कही वहां बड़ी संख्या में भारत सरकार के विभिन्न मंत्रालयों में काम करने वाले वरिष्ठ अधिकारी उपस्थित थे। बताते चलें कि अब भी भारत सरकार के मंत्रालयों के कामकाज में अंग्रेजी का बोलबाला है।
गृह मंत्री अमित शाह की बातों का विश्लेषण कर रहा था। अचानक एक घटना दिमाग में कौंधी। पिछले दिनों मित्र-मिलन कार्यक्रम में गया था। वहां कई मित्र थे जो अलग अलग मंत्रालयों और विभागों में कार्यरत थे। हम कुछ मित्र एक जगह खड़े होकर बातें कर रहे थे। एक मित्र के फोन की घंटी बजी। उसने कहा जी सर मैं पहुंचता हूं, करके आपको भेजता हूं। उसने हमसे विदा लेने का उपक्रम आरंभ किया तो हमने पूछा कि क्या बात है? क्या करने की जल्दी है। उसने बताया कि गृह मंत्री अमित शाह हमारे विभाग के एक कार्यक्रम में आ रहे हैं। उस कार्यक्रम का विवरण उनको भेजा जाना है। मुझे आफिस जाना होगा। मैंने मजे लेने के लिए बोला कि क्या अपने आफिस में तुम्हीं एक हो जिसको विवरण बनाना आता है। उसने जो बोला वो चौंकानेवाला था। उसने बताया कि किसी भी मंत्रालय से कोई भी पत्र अगर गृह मंत्रालय जाता है और उस पत्र को गृह मंत्री तक जाना होता है तो वो हिंदी में ही जाता है। गृह मंत्री हिंदी के ही पत्र या फाइल नोटिंग पढते और निर्णय करते हैं। बाद में मैंने गृह मंत्रालय में कार्यरत एक दो लोगों से जानकारी ली। पता चला कि मेरा मित्र सही कह रहा था। एक ऐसा बदलाव जिसका असर गृह मंत्रालय की कार्यशैली पर स्वाभाविक है। अमित शाह का हिंदी प्रेम जगजाहिर है। हिंदी के साथ वो हमेशा भारतीय भाषाओं की बात आवश्यक रूप से करते हैं। हिंदी चूंकि उनके मंत्रालय से संबद्ध है इस कारण उनका दायित्व भी है कि वो इसको बढ़ावा दें। दे भी रहे हैं।
अमित शाह के गृह मंत्री रहते ही अखिल भारतीय राजभाषा सम्मेलन का आरंभ हुआ था। सूरत में पहला सम्मेलन आयोजित किया गया था। उसमें देशभर के हिंदी अधिकारी आए थे। विभिन्न सत्रों में अलग अलग क्षेत्र के विद्वानों ने हिंदी पर मंथन किया था। साहित्य, कला, संस्कृति और फिल्म से जुड़े लोग जो हिंदी से प्यार करते हैं, आमंत्रित किए गए थे। उस राजभाषा सम्मेलन की व्यापक चर्चा हुई थी। उसके बाद के सम्मेलन में हिंदी भाषी वक्ता तो थे पर इस बात का भी ध्यान रखा गया था कि वो सभागार के लोगों को बांध सकें। उन फिल्मी लोगों का आमंत्रित किया गया जो पर्दे पर तो हिंदी बोलते हैं लेकिन उनके रोमन में स्क्रिप्ट पढ़ने की बात सामने आती रहती है। सरकारी कार्यक्रमों की सीमा होती है। वहां हर तरह और वर्ग के लोगों को समायोजित करना पड़ता है। आशुतोष अग्निहोत्री के कविता संग्रह के विमोचन समारोह में जिस तरह से पहले गृह सचिव ने चिंता जताई और उसके बाद गृह मंत्री ने उन चिंताओं को दूर करते हुए लंबी लड़ाई की बात की है उसको रेखांकित किया जाना चाहिए। लंबी लड़ाई विदेशी भाषा से तो है ही, औपनिवेशिक मानसिकता से भी है। उस मानसिकता से जो ये तय करती है कि ज्ञान की भाषा अंग्रेजी ही हो सकती है। उस मानसिकता से जो ये भ्रम फैलाती है कि विज्ञान और तकनीक को जानने के लिए विदेशी भाषा का ज्ञान आवश्यक है। इन भ्रमों का, इन धारणाओं का प्रतिकार आवश्यक है। इनका प्रतिकार गोष्ठियों में दिए जानेवाले भाषणों से नहीं होगा। इनका प्रतिकार अपने काम से करना होगा। गृह मंत्रालय, शिक्षा मंत्रालय और संस्कृति मंत्रालय को इसके लिए बेहतर समन्वय करके साथ मिलकर आगे बढ़ना होगा। समग्रता में एक दिशा में साथ चलकर भारतीय भाषा को समृद्ध करना होगा। तब जाकर भारतीय भाषा का ध्वज लहरा सकेगा।
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