इन दिनों न्यायपालिका उन वजहों से चर्चा में है जिसने उसकी साख पर बट्टा लगाया। पहले गाजियाबाद के करोड़ों के पीएफ घोटाले में माननीय न्यायाधीशों पर सवाल खड़े हुए, उसके बाद कलकत्ता हाईकोर्ट के जज सौमित्र मोहन पर आरोप लगे और उनके खिलाफ महाभियोग की प्रक्रिया शुरू की गई। अब राज्यसभा के सभापति ने कर्नाटक के चीफ जस्टिस पी डी दिनाकरन के खिलाफ पचहत्तर सांसदों की उस याचिका को मंजूरी दी है जिसमें उनके खिलाफ महाभियोग की मांग की गई। न्यायिक इतिहास में यह तीसरा मौका है जब किसी भी जज के खिलाफ महाभियोग की प्रक्रिया शुरू की गई है। इसके पहले जस्टिस वी रामास्वामी के खिलाफ संसद में महाभियोग की प्रक्रिया चली थी, लेकिन कांग्रेसी सांसदों के सदन से वॉक आउट करने के बाद ये प्रस्ताव गिर गया था। माननीय न्यायाधीशों पर इस तरह के इल्जाम से देश की जनता न्याय के मंदिर से विश्वास दरकने लगा है। भारत के लोगों की अपने देश की न्यायपालिका की ईमानदारी और साख पर जबरदस्त आस्था है । यही आस्था भारतीय लोकतंत्र को मजबूती प्रदान करती है । लेकिन इस तरह के आरोपों से इस आस्था को ठेस लगती है । इसलिए यह बेहद जरूरी है कि न्यायाधीशों पर किसी भी तरह के आरोप लगाने से पहले ठोंक बजाकर तथ्यों को पुख्ता कर लिया जाए।
अगर हम कर्नाटक हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस दिनाकरन पर लगे आरोपों की बात करें तो इस विवाद की शुरूआत तब हुई जब उनको सुप्रीम कोर्ट के जज बनाए जाने की प्रक्रिया शुरू हुई । उनके खिलाफ जो महाभियोग की अर्जी राज्यसभा के सभापति को सौंपी गई है, उसमें बारह आरोपों की एक लंबी फेहरिस्त संलग्न है । इन आरोपों के मुताबिक जस्टिस दिनाकरन पर आय के ज्ञात स्त्रोत से ज्यादा संपत्ति अर्जित करने के अलावा पांच हाउसिंग बोर्ड के प्लॉट आवंटित करवाने के साथ-साथ अपने और अपने रिश्तेदारों के नाम से अकूत संपत्ति अर्जित करने का आरोप है। दिनाकरन पर एक गंभीर आरोप यह है कि थिरुवल्लूर के कावेरीराजपुरम और वेल्लोर के अनाइपक्कम, मुलवॉय और पुवलई में उनके पास पांच सौ पचास एकड़ जमीन है । इस जमीन का मालिकाना हक खुद उनके, उनकी पत्नी और दो अन्य के नाम है । पांच सौ पचास एकड़ के अलावा जस्टिस दिनाकरन के पास थिरुव्ललूर जिले के तिरुतानी तालुका में और चार सौ चालीस एकड़ जमीन है, जिसमें से तीन सौ दस दशमलव तेरह एकड़ जमीन पट्टे पर ली गई है और बाकी के एकतालीस दशमलव सत्ताइस एकड़ सरकारी गैरमजरुआ ( पोरोमबोक) जमीन है । उनपर यह इल्जाम भी है कि तिरासी दशमलव तैंतीस एकड़ वैसी सरकारी जमीन पर कब्जा किया गया है, जिसे सरकार ने भूमिहीन गरीबों के बीच बांटे जाने के लिए चिन्हित किया था । खबरों के मुताबिक इलाके के जिलाधिकारी ने सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम को जो रिपोर्ट सौंपी उनमें इन तथ्यों की पुष्टि हुई है । माना यह जाता है कि इस रिपोर्ट के बाद ही कॉलेजियम ने सुप्रीम कोर्ट में उनके प्रमोशन को ठंडे बस्ते में डालने का फैसला लिया ।
लेकिन जहां तक तमिलनाडु में सरकारी गैरमजरुआ ( पोरोमबोक) जमीन पर कब्जे के आरोप का सवाल है, उसे वहां अपराध नहीं माना जाता । यह एक सिविल मैटर है । दरअसल अंग्रेजों के जमाने में ब्रिटिश राज ने मद्रास प्रेसिडेंसी में लैंड सेटलमेंट स्कीम लागू की थी क्योंकि उस वक्त सरकारी जमीनों पर अतिक्रमण बेहद आम था। उस वक्त सरकारी जमीन पर कब्जे से निबटने के लिए द वेरिटेबल बोर्ड स्टैंडिंग ऑर्डर था जो अब रेवेन्यू स्टैंडिंग ऑर्डर कहलाता है । ब्रिटिश राज में अंग्रेजों ने जब अपना पांव जमाना शुरू किया तो राजे रजवाड़ों की जमीनों को सरकारी जमीन घोषित करने लगे । बाद में लैंड सेटलमैंट स्कीम लागू कर जमीन पर रहनेवाली जनता या फिर मालिकाना हक वाली जमीन को पट्टा भूमि के अंदर वर्गीकरण कर दिया गया । इसके अलावा दो और श्रेणियों में जमीन का वर्गीकरण हुआ- सरकारी गैरमजरुआ और बंजर या ऊसर भूमि । गैरमजरुआ जमीन वो थी जो आम जनता के काम आती थी जिसमें सामाजिक कार्य करने की छूट होती थी लेकिन अगर कोई व्यक्ति उसपर कब्जा करता था तो गांव में मौजूद तहसीलदार उसे बी मेमो जारी कर जबाव तलब करता था । लेकिन उस वक्त भी इस बात का ध्यान रखा जाता था कि वो जमीन आम जनता के काम आती थी या फिर बेकार पड़ी थी । अगर उसका कोई इस्तेमाल नहीं था तो मसला सिर्फ रेवेन्यू का होता था और इस गैरमजरूआ जमीन पर कर लगाकर उसके इस्तेमाल की इजाजत अतिक्रमण करनेवाले को दे दी जाती थी । लेकिन अगर उसका सार्वजनिक या सामाजिक कार्य के लिए उपयोग होता था तो उसपर से अतिक्रमण हटाने के लिए कानूनी प्रक्रिया तत्काल शुरू की जाती थी ।
जस्टिस दिनाकरन के केस में ये जानना जरूरी है कि जिस गैरमजरुआ जमीन को कब्जाने का आरोप उनपर लगा है उसमें जिला प्रशासन ने मेमो जारी किया है या नहीं । अगर मेमो जारी किया है तो उस पर फाइन लगाकर उसे नियमित किया जा सकता है । लेकिन अगर उस जमीन का सार्वजनिक उपयोग होता था तो तो उसे खाली कराने के लिए जिला प्रशासन ने कोई कदम क्यो नहीं उठाया । आरोप लगानेवालों का तर्क यह है कि जस्टिस दिनाकरन ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर इस प्रक्रिया को रुकवाया हुआ है। दरअसल तमिलनाडु के तिरुवल्लूर जिले में गैरमजरुआ सरकारी जमीन पर कब्जा करना आम है । लेकिन एक सूबे के हाईकोर्ट का चीफ जस्टिस आम अतिक्रमणकारी नागरिक की तरह व्यवहार नहीं कर सकता । एक न्यायाधीश से उसके आचरण और व्यवहार में ईमानदारी के साथ संविधान और कानून के प्रति निष्ठा का सार्वजिन प्रदर्शन अपेक्षित है ।
जस्टिस दिनाकरन के खिलाफ महाभियोग की अर्जी में और भी कई संगीन इल्जाम हैं । इन आरोपों में से एक है - ऊटी और नीलगिरी जिले में दिनाकरन की अस्सी साल की सास एम जी परिपूर्णम के नाम से बेहद महंगे प्लॉट खरीदे गए जो उनकी आय के ज्ञात स्त्रोत से कहीं ज्यादा की है । इसके अलावा दिनाकरन पर अपने घरों की साज सज्जा पर भी बेशुमार खर्च करने का आरोप लगाया गया है । आरोपों की इस लंबी फेहरिश्त की जांच तो अब राज्यसभा के सभापति द्वारा गठित तीन सदस्यीय समिति करेगी जिसमें सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश, किसी हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस और मशहूर न्यायविद शामिल होंगे । लेकिन कांग्रेस पार्टी की उदासीनता की वजह से यह लगता नहीं है कि दिनाकरन पर महाभियोग साबित हो पाएगा और उन्हें पद छोड़ना पड़ेगा ।
जस्टिस दिनाकरन के पीछे लग रहे इन आरोपों का एक दूसरा पहलू भी सामने आ रहा है । खबरों के मुताबिक मद्रास हाईकोर्ट के कुछ वकीलों ने जस्टिस कन्नादासन के खिलाफ मुहिम चलाकर राज्य उपभोक्ता फोरम में उनकी नियुक्ति रुकवा दी थी। न्यायपालिका पर नजर रखनेवालों का कहना है कि वकीलों की उसी जमात ने दिनाकरन के खिलाफ भी मोर्चा खोला था । दूसरी बात ये कि मद्रास हाईकोर्ट में जिन लोगों ने दिनाकरन पर जमीन कब्जाने का केस किया है उसके याचिकार्ताओं के वकीलों ने भी दिनाकरन के खिलाफ मुहिम को जोरदार समर्थन दिया है। इन बातों में आंशिक सच्चाई भी है तो इसकी पूरी तफ्तीश की जानी चाहिए । क्योंकि अगर ऐसा हो रहा है तो यह भारतीय न्यायिक प्रक्रिया को दबाब में लेने की कोशिश है जिसपर तत्काल रोक लगाने के लिए सरकार को आवश्यक कदम उठाना चाहिए। जस्टिस दिनाकरन पर लगे इल्जाम संगीन है, उसकी गंभीरता से जांच होनी ही चाहिए और होगी भी । लेकिन अगर इस केस में किसी खास समूह का कोई मोटिव नजर आता है तो उसकी जांच भी उतनी ही गंभीरता से होनी चाहिए ताकि देश की न्यायपालिका बगैर किसी दबाव के संविधान और कानून की रक्षा कर सके, ताकि देश की सवा करोड़ जनता की जो आस्था देश की न्यायिक प्रणाली में है वो अक्षुण्ण रह सके ।
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Thursday, December 31, 2009
Tuesday, December 22, 2009
कैलाश वाजपेयी को मिला साहित्य अकादमी पुरस्कार
आखिरकार इस वर्ष का साहित्य अकादमी पुरस्कार कैलाश वाजपेयी को मिल ही गया । हमने ये जानकारी ऐलान होने के पहले ही दे दी थी । इस बार के निर्णायक मंडल में हिंदी के वरिष्ठ कथाकार और नया ज्ञानोदय के संपादक रवीन्द्र कालिया, वरिष्ठ कवि केदारनाथ सिंह और गुजरात के रघुबीर चौधरी थे । बैठक की शुरुआत में रघुबीर चौधरी ने रामदरश मिश्र, अनामिका और उदय प्रकाश का नाम प्रस्तावित किया । लेकिन इन नामों पर सहमति नहीं बन पाई । इसके बाद कैलाश वाजपेयी के नाम का प्रस्ताव आया जिसपर केदार नाथ सिंह और रवीन्द्र कालिया ने अपनी सहमति जता दी । रघुबीर चौधरी तो जैसे तैयार ही बैठे थे और सर्वसम्मति से कैलाश वाजपेयी के नाम पर सहमति बन गई ।
दरअसल जैसे कि मैं पहले ही लिख चुका था- अकादमी पुरस्कार के लिए जो खेल होता है उसके लिए निर्णायक मंडल के चयन में अपने लोगों को रखने का खेल सबसे बड़ा होता है । रघुबीर चौधरी का नाम ही इसलिए डाला गया था कि हिंदी के संयोजक की मर्जी चल सके । और हुआ भी वही । कैलाश वाजपेयी को पुरस्कार देने की भूमिका या यों कहें कि डील पहले ही हो चुकी थी । जब गोपीचंद नारंग पद से हटे थे और सुनील गंगोपाध्याय ने अकादमी अध्यक्ष पद की कुर्सी संभाली थी तो कैलाश वाजपेयी ने हिंदी भाषा के संयोजक के लिए अपनी दावेदारी पेश की थी । लेकिन उस वक्त उनको समझाय़ा गया था कि अगर वो संयोजक हो जाएंगे तो पुरस्कार नहीं मिल पाएगा । कैलाश जोशी ने पुरस्कार के आश्वासन के बाद अपना नाम वापस ले लिया था और गोरखपुर के विश्वनाथ तिवारी हिंदी के संयोजक बने थे । उस वक्त हुई डील अब पूरी हो पाई है और कैलाश वाजपेयी को अकादमी पुरस्कार देने का फैसला हो गया है ।
दरअसल जैसे कि मैं पहले ही लिख चुका था- अकादमी पुरस्कार के लिए जो खेल होता है उसके लिए निर्णायक मंडल के चयन में अपने लोगों को रखने का खेल सबसे बड़ा होता है । रघुबीर चौधरी का नाम ही इसलिए डाला गया था कि हिंदी के संयोजक की मर्जी चल सके । और हुआ भी वही । कैलाश वाजपेयी को पुरस्कार देने की भूमिका या यों कहें कि डील पहले ही हो चुकी थी । जब गोपीचंद नारंग पद से हटे थे और सुनील गंगोपाध्याय ने अकादमी अध्यक्ष पद की कुर्सी संभाली थी तो कैलाश वाजपेयी ने हिंदी भाषा के संयोजक के लिए अपनी दावेदारी पेश की थी । लेकिन उस वक्त उनको समझाय़ा गया था कि अगर वो संयोजक हो जाएंगे तो पुरस्कार नहीं मिल पाएगा । कैलाश जोशी ने पुरस्कार के आश्वासन के बाद अपना नाम वापस ले लिया था और गोरखपुर के विश्वनाथ तिवारी हिंदी के संयोजक बने थे । उस वक्त हुई डील अब पूरी हो पाई है और कैलाश वाजपेयी को अकादमी पुरस्कार देने का फैसला हो गया है ।
Monday, December 21, 2009
साहित्य अकादमी पुरस्कारों का खेल खुला
रामदरश मिश्र को मिलेगा अकादमी पुरस्कार !
साल के आखिरी दिनों में साहित्यिक हलके में अकादमी पुरस्कारों को लेकर सरगर्मियां तेज हो जाती हैं । राजधानी दिल्ली में तो अटकलों का बाजार इस कदर गर्म हो जाता है कि तथाकथित साहित्यिक ठेकेदारों की जेब में पुरस्कृत होनेवाले लेखकों की सूची रहती है । जहां भी तीन चार लेखक जुटते हैं कयासबाजी का दौर शुरू हो जाता है और गिनती चालू हो जाती है कि किस लेखक की पुस्तक पिछले तीन वर्षों में आई और किसका जुगाड़ इस बार फिट बैठ रहा है । किसने अपनी गोटी सेट कर ली है । साहित्य अकादमी और उसके अध्यक्ष को नजदीक से जानने वालों का मानना है कि इस बार हिंदी लेखक को मिलनेवाले पुरस्कार में हिंदी के भाषा संयोजक विश्वनाथ तिवारी की चलेगी । पिछले अध्यक्ष गोपीचंद नारंग के कार्यकाल में उनकी चलती थी और उन्होंने हिंदी के संयोजक और वरिष्ठ लेखक गिरिराज किशोर को पुरस्कारों के मामले में पैदल कर दिया था । गिरिराज किशोर को जब ये इलहाम हुआ था तो उन्होंने विरोध का झंडा तो उठाया था पर कुछ कर नहीं सके थे और गोपीचंद नारंग ने जिसे चाहा उसे पुरस्कार दे दिया ।
अगर अकादमी के अंदर के सूत्रों की मानें तो इस बार साहित्य अकादमी के पुरस्कारों की दौड़ में हिंदी के वरिष्ठ कवि कैलाश वाजपेयी और रामदरश मिश्र रेस में सबसे आगे चल रहे हैं । माना जा रहा है कि कैलाश वाजपेयी को उनके कविता संग्रह हवा में हस्ताक्षर पर इस बार का साहित्य अकादमी पुरस्कार मिल सकता है । दूसरे मजबूत दावेदार रामदरश मिश्र हैं । उनकी उम्र और वरिष्ठता को देखते हुए जूरी उनपर भी मेहरबान हो सकती है । साहित्य अकादमी की परंपरा के मुताबिक इस बार कविता का नंबर है, क्योंकि पिछले साल गोविन्द मिश्र को उनके उपन्यास पर साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था । संयोग यह था कि गोविन्द मिश्र और हिंदी के संयोजक विश्वनाथ प्रसाद तिवारी दोनों गोऱखपुर इलाके के हैं । हलांकि इस बार परंपरा के मुताबिक कविता संग्रह को अकादमी पुरस्कार मिलना चाहिए लेकिन भगवानदास मोरवाल का उपन्यास रेत भी एक प्रमुख दावेदार है । पिछले दिनों जब रेत को लेकर विवाद हुआ और मामला अदालत तक जा पहुंचा तो तो इस बात की भी जोर शोर से चर्चा हुई कि साहित्य अकादमी ने अबतक किसी दलित लेखक को हिंदी के लिए पुरस्कार नहीं दिया । अगर साहित्य अकादमी अपने उपर लगे इस कलंक को धोना चाहती है तो भगवानदास नोरवाल को इस बार अकादमी अवार्ड मिल सकता है । लेकिन इस किताब पर अदालत में चल रहा मामला मोरवाल को इस रेस में पीछे धकेल सकता है ।
दरअसल साहित्य अकादमी के पुरस्कारों का खेल काफी पहले से शुरू हो जाता है । प्रक्रिया के मुताबिक अकादमी पिछले तीन वर्षों में प्रकाशित कृतियों की एक आधार सूची बनाती है और हिंदी भाषा की जो सलाहकार समिति या एडवायजरी बोर्ड होती है उसके सदस्यों से उसमें से तीन किताबों का चयन कर सुझाव देने का अनुरोध करती है । एडवायजरी बोर्ड के सदस्य को तीन से ज्यादा कृतियों की सिफारिश करने की भी छूट होती है । जब इन सदस्यों की सिफारिश अकादमी को प्राप्त हो जाती है उसके बाद हर विधा अलग अलग सूची बनाई जाती है । मोटे तौर पर एडवायजरी बोर्ड के सदस्यों की राय मिलने के बाद हर विधा की तीन तीन किताबों को पुरस्कार के लिए चुना जाता है । इन तीन किताबों में से तीन सदस्यीय जूरी एक कृति का चुनाव करती है जिसको पुरस्कृत किया जाता है । लेकिन किताबों की आधार सूची से लेकर जूरी के चयन तक में जो़ड-तोड़ और तिकड़मों का ऐसा खेल खेला जाता है कि सियासत भी शरमा जाती है । अपनी या अपने गैंग के लेखकों की किताब को आधार सूची में डलवाने इस खेल की शुरुआत होती है । उसके बाद की सारी मशक्कत एडवायजरी बोर्ड के सदस्यों के पास से अपने नाम की सिफारिश भिजवाने की होती है । पुरस्कार की चाह में लेखक इसके लिए दिन रात एक कर देते हैं । इस किले की घेरेबंदी के बाद शुरु होती है कि किसे फाइनल जूरी का सदस्य बनवाया जाए । इस कमिटी के सदस्यों का चुनाव अध्यक्ष की मर्जी से होता है, लेकिन अगर अध्यक्ष की रुचि हिंदी भाषा में ना हो या फिर वो इसको लेकर तटस्थ रहे तो फिर हिंदी भाषा के संयोजक का काम आसान हो जाता है और वो अपनी मर्जी के लोगों को जूरी में नामित करवा लेता है । पुरस्कार के लिए किताबों के अंतिम चयन के लिए जूरी की जो बैठक होती है उसमें भाषा के संयोजक की कोई भूमिका नहीं होती वो सिर्फ बैठक का संयोजन और शुरुआत करते हैं । हलांकि जब नामवर सिंह हिंदी के संयोजक हुआ करते थे तो ये स्थिति नहीं थी । तब नामवर जी की ही मर्जी चला करती थी । एक बार फिर से गोपीचंद नारंग के अध्यक्ष पद से हटने और विश्वनाथ तिवारी के हिंदी के संयोजक बनने के बाद स्थिति लगभग वैसी ही हो गई है । नामवर जी जैसी दबंगई से तो तिवारी जी काम नहीं करते हैं लेकिन लेकिन अंदरखाने चलती तो उनकी ही है। जब से विश्वनाथ तिवारी हिंदी भाषा के संयोजक बने हैं तब से हिंदी में तो उनकी ही मर्जी चल रही है । अपने पसंदीदा लेखक गोविंद मिश्र को उनकी कमजोर कृति पर पुरस्कार दिलवा कर उन्होंने पिछले वर्ष इसे साबित भी किया । जब जूरी के सदस्य फैसला ले लेते हैं उसके बाद उस फैसले को एक्जीक्यूटिव कमिटी की स्वीकृति के लिए भेजा जाता है और वहां से स्वीकृति मिलने के बाद अंतिम मुहर अध्यक्ष लगाते हैं,जोसिर्फ एक प्रक्रिया का हिस्सा भर है ।
साल के आखिरी दिनों में साहित्यिक हलके में अकादमी पुरस्कारों को लेकर सरगर्मियां तेज हो जाती हैं । राजधानी दिल्ली में तो अटकलों का बाजार इस कदर गर्म हो जाता है कि तथाकथित साहित्यिक ठेकेदारों की जेब में पुरस्कृत होनेवाले लेखकों की सूची रहती है । जहां भी तीन चार लेखक जुटते हैं कयासबाजी का दौर शुरू हो जाता है और गिनती चालू हो जाती है कि किस लेखक की पुस्तक पिछले तीन वर्षों में आई और किसका जुगाड़ इस बार फिट बैठ रहा है । किसने अपनी गोटी सेट कर ली है । साहित्य अकादमी और उसके अध्यक्ष को नजदीक से जानने वालों का मानना है कि इस बार हिंदी लेखक को मिलनेवाले पुरस्कार में हिंदी के भाषा संयोजक विश्वनाथ तिवारी की चलेगी । पिछले अध्यक्ष गोपीचंद नारंग के कार्यकाल में उनकी चलती थी और उन्होंने हिंदी के संयोजक और वरिष्ठ लेखक गिरिराज किशोर को पुरस्कारों के मामले में पैदल कर दिया था । गिरिराज किशोर को जब ये इलहाम हुआ था तो उन्होंने विरोध का झंडा तो उठाया था पर कुछ कर नहीं सके थे और गोपीचंद नारंग ने जिसे चाहा उसे पुरस्कार दे दिया ।
अगर अकादमी के अंदर के सूत्रों की मानें तो इस बार साहित्य अकादमी के पुरस्कारों की दौड़ में हिंदी के वरिष्ठ कवि कैलाश वाजपेयी और रामदरश मिश्र रेस में सबसे आगे चल रहे हैं । माना जा रहा है कि कैलाश वाजपेयी को उनके कविता संग्रह हवा में हस्ताक्षर पर इस बार का साहित्य अकादमी पुरस्कार मिल सकता है । दूसरे मजबूत दावेदार रामदरश मिश्र हैं । उनकी उम्र और वरिष्ठता को देखते हुए जूरी उनपर भी मेहरबान हो सकती है । साहित्य अकादमी की परंपरा के मुताबिक इस बार कविता का नंबर है, क्योंकि पिछले साल गोविन्द मिश्र को उनके उपन्यास पर साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था । संयोग यह था कि गोविन्द मिश्र और हिंदी के संयोजक विश्वनाथ प्रसाद तिवारी दोनों गोऱखपुर इलाके के हैं । हलांकि इस बार परंपरा के मुताबिक कविता संग्रह को अकादमी पुरस्कार मिलना चाहिए लेकिन भगवानदास मोरवाल का उपन्यास रेत भी एक प्रमुख दावेदार है । पिछले दिनों जब रेत को लेकर विवाद हुआ और मामला अदालत तक जा पहुंचा तो तो इस बात की भी जोर शोर से चर्चा हुई कि साहित्य अकादमी ने अबतक किसी दलित लेखक को हिंदी के लिए पुरस्कार नहीं दिया । अगर साहित्य अकादमी अपने उपर लगे इस कलंक को धोना चाहती है तो भगवानदास नोरवाल को इस बार अकादमी अवार्ड मिल सकता है । लेकिन इस किताब पर अदालत में चल रहा मामला मोरवाल को इस रेस में पीछे धकेल सकता है ।
दरअसल साहित्य अकादमी के पुरस्कारों का खेल काफी पहले से शुरू हो जाता है । प्रक्रिया के मुताबिक अकादमी पिछले तीन वर्षों में प्रकाशित कृतियों की एक आधार सूची बनाती है और हिंदी भाषा की जो सलाहकार समिति या एडवायजरी बोर्ड होती है उसके सदस्यों से उसमें से तीन किताबों का चयन कर सुझाव देने का अनुरोध करती है । एडवायजरी बोर्ड के सदस्य को तीन से ज्यादा कृतियों की सिफारिश करने की भी छूट होती है । जब इन सदस्यों की सिफारिश अकादमी को प्राप्त हो जाती है उसके बाद हर विधा अलग अलग सूची बनाई जाती है । मोटे तौर पर एडवायजरी बोर्ड के सदस्यों की राय मिलने के बाद हर विधा की तीन तीन किताबों को पुरस्कार के लिए चुना जाता है । इन तीन किताबों में से तीन सदस्यीय जूरी एक कृति का चुनाव करती है जिसको पुरस्कृत किया जाता है । लेकिन किताबों की आधार सूची से लेकर जूरी के चयन तक में जो़ड-तोड़ और तिकड़मों का ऐसा खेल खेला जाता है कि सियासत भी शरमा जाती है । अपनी या अपने गैंग के लेखकों की किताब को आधार सूची में डलवाने इस खेल की शुरुआत होती है । उसके बाद की सारी मशक्कत एडवायजरी बोर्ड के सदस्यों के पास से अपने नाम की सिफारिश भिजवाने की होती है । पुरस्कार की चाह में लेखक इसके लिए दिन रात एक कर देते हैं । इस किले की घेरेबंदी के बाद शुरु होती है कि किसे फाइनल जूरी का सदस्य बनवाया जाए । इस कमिटी के सदस्यों का चुनाव अध्यक्ष की मर्जी से होता है, लेकिन अगर अध्यक्ष की रुचि हिंदी भाषा में ना हो या फिर वो इसको लेकर तटस्थ रहे तो फिर हिंदी भाषा के संयोजक का काम आसान हो जाता है और वो अपनी मर्जी के लोगों को जूरी में नामित करवा लेता है । पुरस्कार के लिए किताबों के अंतिम चयन के लिए जूरी की जो बैठक होती है उसमें भाषा के संयोजक की कोई भूमिका नहीं होती वो सिर्फ बैठक का संयोजन और शुरुआत करते हैं । हलांकि जब नामवर सिंह हिंदी के संयोजक हुआ करते थे तो ये स्थिति नहीं थी । तब नामवर जी की ही मर्जी चला करती थी । एक बार फिर से गोपीचंद नारंग के अध्यक्ष पद से हटने और विश्वनाथ तिवारी के हिंदी के संयोजक बनने के बाद स्थिति लगभग वैसी ही हो गई है । नामवर जी जैसी दबंगई से तो तिवारी जी काम नहीं करते हैं लेकिन लेकिन अंदरखाने चलती तो उनकी ही है। जब से विश्वनाथ तिवारी हिंदी भाषा के संयोजक बने हैं तब से हिंदी में तो उनकी ही मर्जी चल रही है । अपने पसंदीदा लेखक गोविंद मिश्र को उनकी कमजोर कृति पर पुरस्कार दिलवा कर उन्होंने पिछले वर्ष इसे साबित भी किया । जब जूरी के सदस्य फैसला ले लेते हैं उसके बाद उस फैसले को एक्जीक्यूटिव कमिटी की स्वीकृति के लिए भेजा जाता है और वहां से स्वीकृति मिलने के बाद अंतिम मुहर अध्यक्ष लगाते हैं,जोसिर्फ एक प्रक्रिया का हिस्सा भर है ।
Sunday, December 20, 2009
दर्द को भुनाने की कोशिश
इंदिरा गांधी की हत्या के पच्चीस साल पूरे हुए । साथ ही दिल्ली और देश के अन्य हिस्सों में सिखों के कत्लेआम के भी पच्चीस साल पूरे हुए । 31 अक्तूबर 1984 की सुबह दिल्ली में सफदरजंग रोड के पीएम निवास पर इंदिरा गांधी की सुरक्षा में लगे दो लोगों ने इंदिरा गांधी को गोलियों से छलनी कर दिया था । लेकिन उसके बाद दिल्ली में सिखों को योजनाबद्ध तरीके से कत्ल किया गया । पच्चीस सालों से कई कमीशन और आयोग ने इसकी जांच की लेकिन अबतक इंसाफ हुआ हो ऐसा लगता नहीं है । सिखों के नरसंहार के पच्चीस साल पूरे होने के मौके पर पत्रकार जरनैल सिंह की किताब- कब कटेगी चौरासी , सिख कत्लआम का सच प्रकाशित हुई है । पेंग्विन प्रकाशन से आई ये किताब एक साथ तीन भाषाओं में छपी है, अंग्रेजी, हिंदी के अलावा इसका प्रकाशन पंजाबी में भी हुआ है । जरनैल सिंह वही पत्रकार हैं जिन्होंने इस वर्ष हुए आम चुनाव के पहले देश के गृहमंत्री पी चिदंबरम पर जूता फेंका था । बाद में जरनैल ने अपने इस कृत्य पर अफसोस तो नहीं जताया था लेकिन उन्होंने ये जरूर कहा था कि उसे इस कृत्य पर गर्व नहीं है ।
1984 के सिख कत्लेआम के पीडितों को समर्पित जरनैल की इस किताब की प्रस्तावना वरिष्ठ पत्रकार खुशवंत सिंह ने लिखी है । खुशवंत सिंह ने लिखा है कि- कब कटेगी चौरासी ...एक चौंका देनेवाली किताब है, जिसे पढ़ने के बाद हर भारतीय को शर्मसार हो जाना चाहिए । यह दस्तावेज है दिल्ली और उत्तरी भारत के कई भागों में सिखों पर हुए नृशंस कत्लेआम का, जो श्रीमती इंदिरा गांधी की उनके दो सिख अंगरक्षकों द्वारा हत्या किए जाने के बाद हुआ । खुशवंत सिंह ने अपनी छोटी सी प्रस्तावना में इस किताब को उन लोगों के लिए एक बड़ा अभियोग करार दिया है जिन्होंने इस कत्लेआम की साजिश रची और अपने कारिंदों के मार्फत इसे अंजाम दिया ।
इस किताब की भूमिका में लेखक ने अपने पत्रकार बनने की कथा विस्तार से लिखी है । जब जरनैल पत्रकारिता के कोर्स में दाखिला के लिए इंटरव्यू देने पहुंचे दो यू एन आई के पत्रकार बी बी नागपाल ने उनसे पंजाब में उग्रवाद के बारे में सवाल पूछे । जरनैल के जबाव से नागपाल संतुष्ट हुए और उसे दाखिला मिल गया लेकिन जरनैल के मन में ये सावल मुंह बाए खड़ा था कि क्या किसी दूसरे प्रत्याशी से भी यह सवाल पूछा गया होगा । जरनैल के मन में ये सवाल उठना जायज है लेकिन सवाल तो इस किताब की खुशवंत सिंह से भूमिका लिखवाने पर मेरे मन में भी उठ रहे हैं । क्या जरनैल को खुशवंत सिंह से इतर कोई व्यक्ति नजर नहीं आया । यह एक मानसिकता है जिसका कोई इलाज नहीं है । हम हर मुस्लिम सहयोगी को भाई लगाकर ही संबोधित करते हैं । इसमें सांप्रदायिकता ढूंढना गलत है ।
जरनैल सिंह का कहना है कि ये किताब इसलिए लिखी गयी कि उस वक्त मीडिया ने सही तरीके से अपनी ज़िम्मेदारी नहीं निभायी। इस कत्लेआम को जितनी कवरेज मिलनी चाहिए थी उतनी मिली नहीं और पीड़ितों का पक्ष संवेदनशील तरीके से सामने नहीं आ पाया । जरनैल ने इस मामले में दूरदर्शन के संदिग्ध रवैये पर भी सवाल खड़ा किया है । जरनैल ने लिखा है कि दूरदर्शन नरसंहार भड़काने में जुटा था । पूरे समय इंदिरा गांधी का शव और उसके आसपास खून का बदला खून के लग रहे नारों को टेलिकास्ट किया जा रहा था । अख़बार भी सही खबर देने के अपने धर्म को भूल चुके थे। हो सकता है उनकी आपत्ति जायज हो लेकिन उस वक्त जनसत्ता और इंडियन एक्सप्रेस में आलोक तोमर और अश्विन सरीन जैसे पत्रकारों ने जान की बाजी लगाकर रिपोर्टिंग की थी । फोटोग्राफर संदीप शंकर की दंगाईयों ने जमकर पिटाई की थी । जरनैल को मीडिया पर सवाल करने के पहले उस दौर के रविवार के अंक भी देखने चाहिए । उन दिनों दिल्ली से उदयन शर्मा और उत्तर प्रदेश से संतोष भारतीय की रिपोर्ट ने देश को हिलाकार रख दिया था । चंद लोगों के लिखे पर पूरी मीडिया को कठघरे में खड़ा कर देने से जरनैल की हड़बड़ी दिखाई देती है ।
इस किताब का एक बड़ा हिस्सा उन लोगों के दर्द का है जिन्हें इस कत्ले आम के 25 साल बाद भी न्याय नहीं मिला। दो महीने के बच्चे को चूल्हे पर रखकर जला दिया गया, लोगों को टायर में फंसा कर आग लगा दी गयी। बेटे का सामने पिता को, पत्नी के सामने पति को, बहन के सामने भाई को कत्ल कर दिया गया । किस तरह से एक शहर से एक पूरी कौम को खत्म करने की कोशिश की गई । किताब के पहले हिस्से में इस दर्द को जगह मिली है । दूसरे हिस्से में न्याय कर्ता और अन्यायकर्ता की चर्चा की गई है । इस हिस्से में जरनैल ने एच के एल भगत, सज्जन कुमार, जगदीश टाइटलर की भूमिका पर लिखा है है साथ ही उस दौर में पूर्नी दिल्ली के त्रिलोकपुरी इलाके के एसएचओ त्यागी के कारनामों को भी बयान किया है । जरनैल ने मौन साधे रहने पर तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह और गृहमंत्री नरसिम्हा राव पर भी उंगली उठाई है । लेकिन जरनैल की इस किताब में नया कुछ भी नहीं है । सिर्फ आयोग की फाइलों से केस स्टडीज को निकालकर सामने रखा गया है । दरअसल इस कत्लेआम पर इतनी हृदय विदारक घटनाएं और परिस्थितियां हैं कि पाठक उसे पढ़ते वक्त भाषा और शैली को बिल्कुल ही भूल जाता है । लेकिन अगर चंद पलों के लिए हम एक किताब के तौर पर इसपर विचार करें को जिस तरह से जल्दबाजी में लोगों के दर्द को बयां किया गया है वो यह महसूस कराता है कि इसमें पर्याप्त शोध की जरूरत थी । इस विषय पर ही दो हजार सात के अक्तूबर में रोली बुक्स से वरिष्ठ पत्रकार मनोज मिट्टा और वकील एच एस फुल्का की किताब -व्हेन ए ट्री शुक डेल्ही- आई थी । जो कि इस विषय पर लिखी गई एक बेहतीन किताब है । मनोज मिट्टा की किताब का फलक बहुत बडा़ है और उसमें जो दर्द है, उसमें जो घटनाएं और परिस्थियां बयान की गई हैं वो सचमुच दिल दहला देनी हैं । शाहदरा स्टेशन पर एक नवविवाहिता के पति को मार देनेवाली घटना दो साल पहले पढ़ी थी लेकिन अब भी मेरे जेहन में बरकरार है । मिट्टा और फुल्का की उक्त किताब में ना केवल कत्लेआम के शिकार हुए परिवार के दुखों की दास्तां है बल्कि उसमें न्याय के लिए उनका संघर्ष भी प्रमुखता से सामने रखकर पूरी व्यवस्था पर चोट की गई है । मुझे नहीं मालूम कि जरनैल ने वह किताब देखी थी या वहीं लेकिन इतना जरूर तय है कि जरनैल ने बेहद हड़बड़ी में यह किताब लिखी है और जल्दबाजी पूरी किताब में हर जगह दिखाई देती है । हो सकता है कत्लेआम के पच्चीस साल पूरे होने पर किताब के बाजार में लाने की जल्दबाजी हो या फिर कोई और वजह जिसपर से पर्दा तो सिर्फ लेखक ही उठा सकता है ।
1984 के सिख कत्लेआम के पीडितों को समर्पित जरनैल की इस किताब की प्रस्तावना वरिष्ठ पत्रकार खुशवंत सिंह ने लिखी है । खुशवंत सिंह ने लिखा है कि- कब कटेगी चौरासी ...एक चौंका देनेवाली किताब है, जिसे पढ़ने के बाद हर भारतीय को शर्मसार हो जाना चाहिए । यह दस्तावेज है दिल्ली और उत्तरी भारत के कई भागों में सिखों पर हुए नृशंस कत्लेआम का, जो श्रीमती इंदिरा गांधी की उनके दो सिख अंगरक्षकों द्वारा हत्या किए जाने के बाद हुआ । खुशवंत सिंह ने अपनी छोटी सी प्रस्तावना में इस किताब को उन लोगों के लिए एक बड़ा अभियोग करार दिया है जिन्होंने इस कत्लेआम की साजिश रची और अपने कारिंदों के मार्फत इसे अंजाम दिया ।
इस किताब की भूमिका में लेखक ने अपने पत्रकार बनने की कथा विस्तार से लिखी है । जब जरनैल पत्रकारिता के कोर्स में दाखिला के लिए इंटरव्यू देने पहुंचे दो यू एन आई के पत्रकार बी बी नागपाल ने उनसे पंजाब में उग्रवाद के बारे में सवाल पूछे । जरनैल के जबाव से नागपाल संतुष्ट हुए और उसे दाखिला मिल गया लेकिन जरनैल के मन में ये सावल मुंह बाए खड़ा था कि क्या किसी दूसरे प्रत्याशी से भी यह सवाल पूछा गया होगा । जरनैल के मन में ये सवाल उठना जायज है लेकिन सवाल तो इस किताब की खुशवंत सिंह से भूमिका लिखवाने पर मेरे मन में भी उठ रहे हैं । क्या जरनैल को खुशवंत सिंह से इतर कोई व्यक्ति नजर नहीं आया । यह एक मानसिकता है जिसका कोई इलाज नहीं है । हम हर मुस्लिम सहयोगी को भाई लगाकर ही संबोधित करते हैं । इसमें सांप्रदायिकता ढूंढना गलत है ।
जरनैल सिंह का कहना है कि ये किताब इसलिए लिखी गयी कि उस वक्त मीडिया ने सही तरीके से अपनी ज़िम्मेदारी नहीं निभायी। इस कत्लेआम को जितनी कवरेज मिलनी चाहिए थी उतनी मिली नहीं और पीड़ितों का पक्ष संवेदनशील तरीके से सामने नहीं आ पाया । जरनैल ने इस मामले में दूरदर्शन के संदिग्ध रवैये पर भी सवाल खड़ा किया है । जरनैल ने लिखा है कि दूरदर्शन नरसंहार भड़काने में जुटा था । पूरे समय इंदिरा गांधी का शव और उसके आसपास खून का बदला खून के लग रहे नारों को टेलिकास्ट किया जा रहा था । अख़बार भी सही खबर देने के अपने धर्म को भूल चुके थे। हो सकता है उनकी आपत्ति जायज हो लेकिन उस वक्त जनसत्ता और इंडियन एक्सप्रेस में आलोक तोमर और अश्विन सरीन जैसे पत्रकारों ने जान की बाजी लगाकर रिपोर्टिंग की थी । फोटोग्राफर संदीप शंकर की दंगाईयों ने जमकर पिटाई की थी । जरनैल को मीडिया पर सवाल करने के पहले उस दौर के रविवार के अंक भी देखने चाहिए । उन दिनों दिल्ली से उदयन शर्मा और उत्तर प्रदेश से संतोष भारतीय की रिपोर्ट ने देश को हिलाकार रख दिया था । चंद लोगों के लिखे पर पूरी मीडिया को कठघरे में खड़ा कर देने से जरनैल की हड़बड़ी दिखाई देती है ।
इस किताब का एक बड़ा हिस्सा उन लोगों के दर्द का है जिन्हें इस कत्ले आम के 25 साल बाद भी न्याय नहीं मिला। दो महीने के बच्चे को चूल्हे पर रखकर जला दिया गया, लोगों को टायर में फंसा कर आग लगा दी गयी। बेटे का सामने पिता को, पत्नी के सामने पति को, बहन के सामने भाई को कत्ल कर दिया गया । किस तरह से एक शहर से एक पूरी कौम को खत्म करने की कोशिश की गई । किताब के पहले हिस्से में इस दर्द को जगह मिली है । दूसरे हिस्से में न्याय कर्ता और अन्यायकर्ता की चर्चा की गई है । इस हिस्से में जरनैल ने एच के एल भगत, सज्जन कुमार, जगदीश टाइटलर की भूमिका पर लिखा है है साथ ही उस दौर में पूर्नी दिल्ली के त्रिलोकपुरी इलाके के एसएचओ त्यागी के कारनामों को भी बयान किया है । जरनैल ने मौन साधे रहने पर तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह और गृहमंत्री नरसिम्हा राव पर भी उंगली उठाई है । लेकिन जरनैल की इस किताब में नया कुछ भी नहीं है । सिर्फ आयोग की फाइलों से केस स्टडीज को निकालकर सामने रखा गया है । दरअसल इस कत्लेआम पर इतनी हृदय विदारक घटनाएं और परिस्थितियां हैं कि पाठक उसे पढ़ते वक्त भाषा और शैली को बिल्कुल ही भूल जाता है । लेकिन अगर चंद पलों के लिए हम एक किताब के तौर पर इसपर विचार करें को जिस तरह से जल्दबाजी में लोगों के दर्द को बयां किया गया है वो यह महसूस कराता है कि इसमें पर्याप्त शोध की जरूरत थी । इस विषय पर ही दो हजार सात के अक्तूबर में रोली बुक्स से वरिष्ठ पत्रकार मनोज मिट्टा और वकील एच एस फुल्का की किताब -व्हेन ए ट्री शुक डेल्ही- आई थी । जो कि इस विषय पर लिखी गई एक बेहतीन किताब है । मनोज मिट्टा की किताब का फलक बहुत बडा़ है और उसमें जो दर्द है, उसमें जो घटनाएं और परिस्थियां बयान की गई हैं वो सचमुच दिल दहला देनी हैं । शाहदरा स्टेशन पर एक नवविवाहिता के पति को मार देनेवाली घटना दो साल पहले पढ़ी थी लेकिन अब भी मेरे जेहन में बरकरार है । मिट्टा और फुल्का की उक्त किताब में ना केवल कत्लेआम के शिकार हुए परिवार के दुखों की दास्तां है बल्कि उसमें न्याय के लिए उनका संघर्ष भी प्रमुखता से सामने रखकर पूरी व्यवस्था पर चोट की गई है । मुझे नहीं मालूम कि जरनैल ने वह किताब देखी थी या वहीं लेकिन इतना जरूर तय है कि जरनैल ने बेहद हड़बड़ी में यह किताब लिखी है और जल्दबाजी पूरी किताब में हर जगह दिखाई देती है । हो सकता है कत्लेआम के पच्चीस साल पूरे होने पर किताब के बाजार में लाने की जल्दबाजी हो या फिर कोई और वजह जिसपर से पर्दा तो सिर्फ लेखक ही उठा सकता है ।
Wednesday, December 16, 2009
निर्मल वर्मा का मेडल चोरी
मशहूर साहित्यकार स्वर्गीय निर्मल वर्मा के दिल्ली के पटपड़गंज स्थित घर से उनका पद्मभूषण मेडल चोरी हो गया है । चोरों ने पटपड़गंज के सहविकास सोसाइटी के उनके घर से लाखों के गहने के साथ उनके मेडल भी चुरा लिए । निर्मल वर्मा की पत्नी कवयित्री गगन गिल ने दिल्ली में इस बाबत एफ आईआर दर्ज करवा दिया है । गगन गिल ने आज दिनभर पुलिस थानों के चक्कर लगाए लेकिन पुलिस को अबतक कोई सुराग नहीं मिल पाया है । रविन्द्र नाठ टैगोर के नोबेल मैडल के बाद यह दूसरी बड़ी वारदात है जिसमें चोरों ने एक मशहूर साहित्यकार के मेडल पर हाथ साफ किया है । इस वारदात के बाद साहित्य जगत सकते में है ।
Tuesday, December 15, 2009
कांग्रेस का महिला (अ)प्रेम
देश की प्रथम नागरिक यानि राष्ट्रपति महिला, लोकसभा की अध्यक्ष महिला, देश की सत्तरूढ पार्टी की अध्यक्ष महिला ...कांग्रेस पार्टी हर वक्त इस बात का दंभ भरती है कि उसने महिलाओं को आगे बढ़ाने और उसको अवसर देने के लिए पर्याप्त कदम उठाए हैं । यह ठीक है कि राष्ट्रपति और लोकसभा अध्यक्ष के पद पर महिलाओं को चुनवाकर कांग्रेस ने एक प्रतीकात्मक काम किया लेकिन अगर हम इसे व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखें तो कांग्रेस के महिला सशक्तिकरण का दावा खोखला नजर आता है, और ऐसा प्रतीत होता है कि कांग्रेस की रुचि कुछ खास महिलाओं को आगे बढाने में है जिससे उसे इस बात का दावा करने में सहूलियत होती रहे कि पार्टी महिलाओं के उत्थान के लिए प्रतिबद्ध है ।
नौकरी के दौरान महिलाओं के सेक्सुअल हेरसमेंट के खिलाफ लंबे समय से बहस चल रही है । लगभग बारह साल पहले यानि उन्नीस सौ सनतानवे में सुप्रीम कोर्ट ने कार्यस्थल पर महिलाओं के सेक्सुअल हेरासमेंट को लेकर एक गाइडलाइन जारी किया था और हर कंपनी, विश्वविद्यालय और कॉलेजों के लिए यह अनिवार्य कर दिया था कि वहां इन शिकायतों पर गौर करने के लिए एक कमिटी बनाई जाए । इस कमेटी में आधी हिस्सेदारी महिलाओं की हो और इसमें एक वकील की भागीदारी भी सुनिश्चित की जाए । सर्वोच्च न्यायलय के मुताबिक इस कमिटी की प्रमुख का महिला का होना अनिवार्य है । इस गाइडलाइन के जारी होने के बाद राष्ट्रीय महिला आयोग ने संबंद्ध पक्षों से बातचीत शुरू की और लगभग नौ साल बाद प्रस्तावित कानून के लिए एक ड्राफ्ट तैयार हो पाया ।
बिल के ड्राफ्ट को तैयार हुए भी तीन साल हो गए लेकिन अब तक इसे संसद में पेश नहीं किया जा सका । पिछले दिनों प्रधानमंत्री से जब एक प्रतिनिधिमंडल ने मुलाकात की तो मनमोहन सिंह ने जल्द ही इस विषय में कुछ करने का आश्वासन देकर इससे पल्ला झाड़ लिया । दरअसल द प्रीवेंशन ऑफ द सेक्सुअल हेरासमेंट एट द वर्कप्लेस बिल दो मंत्रालयों के बीच झूल रहा है और शास्त्री भवन के कमरों में धूल चाट रहा है । बाल और महिला क्लयाण मंत्री कृष्णा तीरथ का दावा है कि इस बिल को जल्द से जल्द कानूनी जामा पहना दिया जाएगा । कृष्णा तीरथ का दावा है कि बिल तैयार है और उसपर कानून मंत्रालय की सलाह ली जा रही है । लेकिन देश के कानून मंत्री से जब पूछा जता है तो उनका कहना है कि अभी प्रस्तवित बिल को देखा जाना बाकी है । संकेत साफ है कि सरकार अभी इस बिल को लेकर गंभीर नहीं है। इस तरह के बयानों से इस प्रस्तावित बिल को सरकार का उपेक्षा भाव साफ तौर पर परिलक्षित किया जा सकता है । कानून के जानकारों का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट के गाइडलाइंस से काम की जगह पर यौन शोषण से निबटना आसान नहीं है । इस गाइडलाइंस में यौन शोषण को परिभाषित करना मुश्किल है और दंड का कोई प्रावधान नहीं है, सिर्फ सिफारिश की जा सकती है , कार्रवाई तो अभी के कानून के मुताबिक ही संभव है । इस गाइडला के मुताबिक बनी जांच कमिटी में शिकायतकर्ता को भी बुलाकर पूछताछ की जाती है और उसके आरोपों के बहाने ऐसे तेजाब बुझे शब्दों के प्रयोग किया जाता है कि शिकतायत करनेवाली महिला के होश उड़ जाते हैं । जिस महिला ने यौन शोषण की शिकायत की हो उससे फिर से पूरी घटना को बयान करने को कहना कितना बड़ा मानसिक उत्पीड़न है ।
प्रस्तावित बिल में जिसके बारे में शिकायत की गई है उसको यह साबित करना होगा कि वो निर्दोष है । य़ह एक बड़ी राहत है क्योंकि अभी हो यह रहा है कि जिसने शिकायत की उसे ही दोष साबित करना पड़ता है । और शिकायतकर्ता को अपने साथियों के तानों का भी शिकार होना पड़ता है । प्रस्तवित बिल में इससे भी बचाव का प्रावधान है ।
आईपीसी में बलात्कार और महिलाओं से छेड़छाड़ के लिए सजा का प्रावधान है लेकिन अगर किसी महिला को उसका बॉस हर दो मिनट पर अपने केबिन में बुलाता है या फिर बड़े ही शातिराना अंदाज में उसके कंधे पर हाथ रखकर उसको तंग करता है तो इसके लिए कोड ऑफ क्रिमिनल प्रोसीड्यूर या आईपीसी की किसी धारा में ना तो शिकायत का प्रावधान है और ना ही सजा का । ऐसी किसी शिकायत को लेकर कोई भी लड़की या महिला पुलिस थाने जाती भी है तो पुलिसवाले ही उसका मजाक उड़ाकर बात को हवा में उड़ा देते हैं । लेकिन प्रस्तावित कानून में इस तरह की ज्यादतियों को भी ध्यान में ऱखकर धाराएं और सजा निर्धारित की गई हैं ।
अगर सरकार कामकाजी महिलाओं के अधिकारों को लेकर सचमुच गंभीर है तो इस प्रस्तावित बिल को तत्काल संसद के चालू सत्र में पेश कर इसपर बहस करवाई जाए । सरकार की यह भी जिम्मेदारी बनती है कि इस बिल को संसद से पास करवाकर कानून बनवाए ताकि महिलाओं को कार्य स्थल पर सुरक्षा का माहौल मिल सके । नहीं तो यूपीए सरकार और उसकी चेयरपर्सन सोनिया गांधी पर भी सवाल खड़े होंगे क्योंकि महिला आरक्षण बिल पर भी कांग्रेस कोई टोस कदम अबतक उठा नहीं पाई है ।
नौकरी के दौरान महिलाओं के सेक्सुअल हेरसमेंट के खिलाफ लंबे समय से बहस चल रही है । लगभग बारह साल पहले यानि उन्नीस सौ सनतानवे में सुप्रीम कोर्ट ने कार्यस्थल पर महिलाओं के सेक्सुअल हेरासमेंट को लेकर एक गाइडलाइन जारी किया था और हर कंपनी, विश्वविद्यालय और कॉलेजों के लिए यह अनिवार्य कर दिया था कि वहां इन शिकायतों पर गौर करने के लिए एक कमिटी बनाई जाए । इस कमेटी में आधी हिस्सेदारी महिलाओं की हो और इसमें एक वकील की भागीदारी भी सुनिश्चित की जाए । सर्वोच्च न्यायलय के मुताबिक इस कमिटी की प्रमुख का महिला का होना अनिवार्य है । इस गाइडलाइन के जारी होने के बाद राष्ट्रीय महिला आयोग ने संबंद्ध पक्षों से बातचीत शुरू की और लगभग नौ साल बाद प्रस्तावित कानून के लिए एक ड्राफ्ट तैयार हो पाया ।
बिल के ड्राफ्ट को तैयार हुए भी तीन साल हो गए लेकिन अब तक इसे संसद में पेश नहीं किया जा सका । पिछले दिनों प्रधानमंत्री से जब एक प्रतिनिधिमंडल ने मुलाकात की तो मनमोहन सिंह ने जल्द ही इस विषय में कुछ करने का आश्वासन देकर इससे पल्ला झाड़ लिया । दरअसल द प्रीवेंशन ऑफ द सेक्सुअल हेरासमेंट एट द वर्कप्लेस बिल दो मंत्रालयों के बीच झूल रहा है और शास्त्री भवन के कमरों में धूल चाट रहा है । बाल और महिला क्लयाण मंत्री कृष्णा तीरथ का दावा है कि इस बिल को जल्द से जल्द कानूनी जामा पहना दिया जाएगा । कृष्णा तीरथ का दावा है कि बिल तैयार है और उसपर कानून मंत्रालय की सलाह ली जा रही है । लेकिन देश के कानून मंत्री से जब पूछा जता है तो उनका कहना है कि अभी प्रस्तवित बिल को देखा जाना बाकी है । संकेत साफ है कि सरकार अभी इस बिल को लेकर गंभीर नहीं है। इस तरह के बयानों से इस प्रस्तावित बिल को सरकार का उपेक्षा भाव साफ तौर पर परिलक्षित किया जा सकता है । कानून के जानकारों का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट के गाइडलाइंस से काम की जगह पर यौन शोषण से निबटना आसान नहीं है । इस गाइडलाइंस में यौन शोषण को परिभाषित करना मुश्किल है और दंड का कोई प्रावधान नहीं है, सिर्फ सिफारिश की जा सकती है , कार्रवाई तो अभी के कानून के मुताबिक ही संभव है । इस गाइडला के मुताबिक बनी जांच कमिटी में शिकायतकर्ता को भी बुलाकर पूछताछ की जाती है और उसके आरोपों के बहाने ऐसे तेजाब बुझे शब्दों के प्रयोग किया जाता है कि शिकतायत करनेवाली महिला के होश उड़ जाते हैं । जिस महिला ने यौन शोषण की शिकायत की हो उससे फिर से पूरी घटना को बयान करने को कहना कितना बड़ा मानसिक उत्पीड़न है ।
प्रस्तावित बिल में जिसके बारे में शिकायत की गई है उसको यह साबित करना होगा कि वो निर्दोष है । य़ह एक बड़ी राहत है क्योंकि अभी हो यह रहा है कि जिसने शिकायत की उसे ही दोष साबित करना पड़ता है । और शिकायतकर्ता को अपने साथियों के तानों का भी शिकार होना पड़ता है । प्रस्तवित बिल में इससे भी बचाव का प्रावधान है ।
आईपीसी में बलात्कार और महिलाओं से छेड़छाड़ के लिए सजा का प्रावधान है लेकिन अगर किसी महिला को उसका बॉस हर दो मिनट पर अपने केबिन में बुलाता है या फिर बड़े ही शातिराना अंदाज में उसके कंधे पर हाथ रखकर उसको तंग करता है तो इसके लिए कोड ऑफ क्रिमिनल प्रोसीड्यूर या आईपीसी की किसी धारा में ना तो शिकायत का प्रावधान है और ना ही सजा का । ऐसी किसी शिकायत को लेकर कोई भी लड़की या महिला पुलिस थाने जाती भी है तो पुलिसवाले ही उसका मजाक उड़ाकर बात को हवा में उड़ा देते हैं । लेकिन प्रस्तावित कानून में इस तरह की ज्यादतियों को भी ध्यान में ऱखकर धाराएं और सजा निर्धारित की गई हैं ।
अगर सरकार कामकाजी महिलाओं के अधिकारों को लेकर सचमुच गंभीर है तो इस प्रस्तावित बिल को तत्काल संसद के चालू सत्र में पेश कर इसपर बहस करवाई जाए । सरकार की यह भी जिम्मेदारी बनती है कि इस बिल को संसद से पास करवाकर कानून बनवाए ताकि महिलाओं को कार्य स्थल पर सुरक्षा का माहौल मिल सके । नहीं तो यूपीए सरकार और उसकी चेयरपर्सन सोनिया गांधी पर भी सवाल खड़े होंगे क्योंकि महिला आरक्षण बिल पर भी कांग्रेस कोई टोस कदम अबतक उठा नहीं पाई है ।
Sunday, December 13, 2009
स्त्री आकांक्षा की नई उड़ान
हमेशा संपूर्ण भारतीय परिधान में रहनेवाली महामहिम राष्ट्रपति को जब अचानक वायुसेना की खास वर्दी में पुणे के लोहेगांव एयरबेस पर लड़ाकू विमान सुखोई की ओर बढ़ते देखा तो सहसा यकीन नहीं हुआ कि एक भारतीय नारी इस सुपरसोनिक विमान में यात्रा कर सकती है । वायुसेना की वर्दी में जब प्रतिभा पाटिल सुखोई की सीढियां चढ़ रही थी तो वो एक नए इतिहास की ओर कदम बढ़ा रही थी । शांत, सौम्य चेहरे में प्रतिभा पाटिल जब सुखोई में बैठकर हाथ हिला रही थी वह दृश्य बुलंद होते भारत की एक ऐसी तस्वीर थी जिसपर हर भारतवासी गर्व कर सकता था । कहते हैं जब कुछ कर गुजरने का जज्बा हो तो कुछ भी नामुमकिन नहीं है । और हुआ भी वही- उम्र के चौहत्तर साल पूरे कर चुकी महामहिम प्रतिभा पाटिल ने आसमान में आठ हजार फीट की उंचाई पर आधे घंटे तक उड़ानभर कर इतिहास रच दिया । वो भारतीय गणतंत्र की पहली महिला राष्ट्रपति बन गई जिन्होंने सुपरसोनिक लडाकू विमान में इतनी ऊंचाई पर उडी । इस उड़ान के लिए महामहिम ने दो महीने तक जबरदस्त तैयारी की। उन्हें विमान में उड़ने के तौर तरीकों को बताया गया था । आपातस्थति से तैयार रहने के हर नुस्खे की बारिकियों को बताया गया। जोखिमों से निबटने की हर ट्रेनिंग लेने के बाद प्रतिभा पाटिल ने पुणे के लोहेगांव एयरबेस से उडान भरी । लगभग आधे घंटे तक आठ हजार फीट की उंचाई पर उड़ान भरने के बाद प्रतिभा पाटिल ने माना कि योग और नियमित व्याययाम से उन्हें इस कठिन उड़ान में मदद मिली । तो एक बार फिर साबित हुआ कि कड़ी मेहनत और हौसले के आगे कोई भी लक्ष्य बौना है ।
इस उड़ान का सिर्फ प्रतीकात्मक महत्व नहीं है बल्कि इसके गंभीर निहितार्थ हैं । प्रतिभा पाटिल ने सुखोई में यात्रा कर भारतीय महिलाओं की आकांक्षाओं को भी एक नई उड़ान दे दी है । एक ऐसे देश में जहां आज भी महिलाओं के साथ लगातार और हर रोज नाइंसाफी होती है, उन्हें उनके अधिकारों से वंचित रखा जाता हो, वहां एक उस देश की प्रथम नागरिक ने अपने देश की आधी आबादी को यह संकेत दे दिया कि अगर कड़ी मेहनत का जज्बा हो और हौसले बुलंद हो तो कुछ भी किया जा सकता है । प्रतिभा पाटिल ने यह भी माना कि इस देश की महिलाओं की योग्यता में उन्हें पूरा यकीन है । तकनीकी और अन्य दिक्कतों को दरकिनार कर अगर महिलाओं को मौका मिले तो वो हर क्षेत्र में अपनी सफलता के झंडे गाड़ सकती हैं । राष्ट्रपति जब यह कह रही थी देश की महिलाओं को एक ऐसा आत्मबल मिल रहा था जो उनके उत्थान के लिए बहुत मददगार साबित हो सकता है । इस प्रतीकात्मक उड़ान के दूरगामी परिणाम हो सकते हैं, जो देश में महिलाओं को नए -नए क्षेत्र में हाथ आजमाने के लिए प्ररित कर सकते हैं । और जब भी इस देश में किसी महिला ने किसी भी काम के लिए कमर कसी तो उसे सफलता ही मिली, राष्ट्रपति का यह विश्वास गलत भी नहीं है ।
राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल से पहले आठ जून दो हजार छह को उस वक्त के राष्ट्रपति ए पी जे अबुल कलाम ने सुखोई में य़ात्रा की थी । चालीस मिनट की य़ात्रा के बाद उस वक्त के राष्ट्रपति कलाम ने भी यही कहा था कि उन्हें यकीन हो गया है कि देश सुरक्षित हाथों में है । अब कलाम के बाद प्रतिभा पाटिल ने भी सुपरोसिनक विमान में यात्रा कर भारतीय सेना को ये संदेश दे दिया है कि राष्ट्रपति सिर्फ नाम मात्र के लिए तीनों सेना का सुप्रीम कमांडर नहीं है बल्कि वो हर कदम पर अपनी सेना के साथ है । चौहत्तर साल में इस अदम्य साहस के लिए देश के राष्ट्रपति की जितनी प्रशंसा की जाए वो कम है ।
इस उड़ान का सिर्फ प्रतीकात्मक महत्व नहीं है बल्कि इसके गंभीर निहितार्थ हैं । प्रतिभा पाटिल ने सुखोई में यात्रा कर भारतीय महिलाओं की आकांक्षाओं को भी एक नई उड़ान दे दी है । एक ऐसे देश में जहां आज भी महिलाओं के साथ लगातार और हर रोज नाइंसाफी होती है, उन्हें उनके अधिकारों से वंचित रखा जाता हो, वहां एक उस देश की प्रथम नागरिक ने अपने देश की आधी आबादी को यह संकेत दे दिया कि अगर कड़ी मेहनत का जज्बा हो और हौसले बुलंद हो तो कुछ भी किया जा सकता है । प्रतिभा पाटिल ने यह भी माना कि इस देश की महिलाओं की योग्यता में उन्हें पूरा यकीन है । तकनीकी और अन्य दिक्कतों को दरकिनार कर अगर महिलाओं को मौका मिले तो वो हर क्षेत्र में अपनी सफलता के झंडे गाड़ सकती हैं । राष्ट्रपति जब यह कह रही थी देश की महिलाओं को एक ऐसा आत्मबल मिल रहा था जो उनके उत्थान के लिए बहुत मददगार साबित हो सकता है । इस प्रतीकात्मक उड़ान के दूरगामी परिणाम हो सकते हैं, जो देश में महिलाओं को नए -नए क्षेत्र में हाथ आजमाने के लिए प्ररित कर सकते हैं । और जब भी इस देश में किसी महिला ने किसी भी काम के लिए कमर कसी तो उसे सफलता ही मिली, राष्ट्रपति का यह विश्वास गलत भी नहीं है ।
राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल से पहले आठ जून दो हजार छह को उस वक्त के राष्ट्रपति ए पी जे अबुल कलाम ने सुखोई में य़ात्रा की थी । चालीस मिनट की य़ात्रा के बाद उस वक्त के राष्ट्रपति कलाम ने भी यही कहा था कि उन्हें यकीन हो गया है कि देश सुरक्षित हाथों में है । अब कलाम के बाद प्रतिभा पाटिल ने भी सुपरोसिनक विमान में यात्रा कर भारतीय सेना को ये संदेश दे दिया है कि राष्ट्रपति सिर्फ नाम मात्र के लिए तीनों सेना का सुप्रीम कमांडर नहीं है बल्कि वो हर कदम पर अपनी सेना के साथ है । चौहत्तर साल में इस अदम्य साहस के लिए देश के राष्ट्रपति की जितनी प्रशंसा की जाए वो कम है ।
Friday, December 4, 2009
होश में आओ हिंदीवालो
महाराष्ट्र विधानसभा में महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के विधायकों की गुंडागर्दी और हिंदी के नाम पर थप्पड़ कांड के बाद हिंदी को लेकर अच्छी खासी बहस चल पड़ी है । हिंदी के पक्ष और विपक्ष के समर्थकों के बीच तलवारें खिंच गई हैं । लेकिन अगर हम ठंढे दिमाग से विचार करें को हिंदी की व्यापक स्वीकार्यता नहीं होने के पीछे हिंदी के लोग ही जिम्मेदार हैं । हिंदी के लोगों का दिल बेहद छोटा है और वो अपनी जरा भी आलोचना बर्दाश्त नहीं कर सकते हैं । कुछ दिनों पहले मैंने एक लेखक के उपन्यास पर लिखा और तर्कों के आधार पर यह साबित किया कि उनका उपन्यास पांच छह साल पहले आए एक हिट फिल्म की तर्ज पर लिखा गया है और पाठकों को उसको सीरियसली लेने की जरूरत नहीं है। मेरा वह लेख एक राष्ट्रीय दैनिक में प्रकाशित हुआ । समीक्षा प्रकाशित होने के पहले यह अफसर लेखक मुझे गाहे-बगाहे फोन कर लेते थे और अपनी रचनाओं पर लंबी चर्चा भी करते थे । लेकिन मेरी समीक्षा छपने के बाद उनका फोन आना बंद हो गया और वो मुझे जानी दुश्मन समझने लगे और अपने मित्रों के बीच मेरी क्रडिबिलिटी पर ही सवाल खड़े करने लगे । इस बीच कई ख्यातिप्राप्त समीक्षकों ने उस उपन्यास की जमकर तारीफ कर दी । इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि बाद में वो मेरी समझ पर सार्वजनिक रूप से उलजलूल बोलने लगे । लेकिन उनकी इन बातों से मुझे जरा भी दुख नहीं हुआ क्योंकि जब आप लिखना शुरू करते हैं तो इस तरह के खतरे के लिए खुद को तैयार रखते हैं । और हर लेखक का सोचने समझने का नजरिया अलग-अलग होता है । अब एक दूसरा उदाहरण देता हूं - अंगेजी के एक युवा उपन्यासकार ने फिल्मी दुनिया के ग्लैमर के स्याह पक्ष को सामने रखते हुए एक उपन्यास लिखा । उस उपन्यास का प्लॉट दिल्ली के जेसिका लाल हत्याकांड से मिलता जुलता था । मैंने उसपर लिखते हुए इन उपन्यास की कई खामियों की ओर इशारा किया, और तर्कों के आधार पर उसे एक कमजोर कृति करार दे दिया । लेकिन अचानक एक दिन मुझे सुखद आश्चर्य हुआ जब उक्त लेखक ने फेसबुक पर मुझे ढूंढकर पहले मुझे अपना मित्र बनाया फिर मेरा नंबर लेकर मुझसे बात की । और अब हमारी नियमित बात होती है और वो अपने नए लेखन पर हमेशा मेरी राय चाहते हैं । मेरे लिखे पर अपनी बेबाक राय देते भी हैं ।
ये दो उदाहरण इसलिए दे रहा हूं कि इससे हिंदी और अंग्रेजी लेखकों की मानसिकता को समझा जा सके । हिंदी के कमोबेश कई लेखकों की यही मनोदशा है । जब तक आप उनके लेखन की प्रशंसा करते रहें. उनकी कृतियों को महान कारर देते रहें और जब भी जहां भी मौका मिले उसकी प्रशंसा करें तबतक वो आपको सर आंखों पर बिठाए रखेंगे लेकिन ज्योंही आपने उनके लेखन पर उंगुली उठाई तो आप दुश्मन हो जाएंगे, आपकी समझ सावलों के घेरे में हो जाएगी । लेकिन अंग्रेजी में हालात इससे उलट हालात है । अंग्रेजी में लोग अपनी आलोचना को बेहद स्वस्थ और गंभीर तरीके से लेते हैं और समीक्षक ,आलोचक को कभी दुश्मन नहीं समझते हैं । अंग्रेजी के लोग कबीर की - नंदक नियरे राखिए को आत्मसात कर चुके हैं जबकि हिंदी के लोग ही अबतक कबीर को ना तो समझ पाए हैं और ना ही अपना सके हैं ।
हुंदुस्तान की एक बड़ी आबादी के बीच हिंदी की व्यापक स्वीकार्यता नहीं होने के पीछे एक वजह इसका राजभाषा होना भी है । सरकारी बाबुओं और अफसरों की सरकारी भाषा हिंदी इतनी कठिन और दुरूह होती है कि अगर कोई सरकारी ऑर्डर आपके हाथ लग जाए को उसे समझने के लिए आपको उसका अंग्रेजी में अनुवाद करवाना होगा । जरूरत इस बात की है कि हिंदी को राजभाषा के चंगुल से मुक्त कर जनभाषा बनाने की दिशा में प्रयास किया जाना चाहिए । जनभाषा के लिए जरूरी है कि इसे लोगों से जोडा जाए और सरकारी चंगुल से मुक्त किया जाए । लेकिन हिंदी के शुद्धतावादियों को इसपर आपत्ति होगी । उन्हें लगने लगेगा कि यह तो हिंदी के खिलाफ एक साजिश है और इससे भाषा का चरित्र और उसका स्वरूप बदल जाएगा । हिंदी में अंग्रेजी और अन्य बारतीय भाषाओं के शब्दों का इस्तेमाल भी हिंदी के तथाकथित ठेकेदारों को नागवार गुजरती है । उन्हें लगता है कि इससे भाषा भ्रष्ट हो जाएगी, वो हिंदी को इतना कमजोर समझते हैं कि उसे अपने पंखों के नीचे उसी तरह रखना चाहते हैं जैसे कि कोई पक्षी अपने अंडे को सेती है । लेकिन हिंदी के इन तथाकथित ठेकेदारों और शुद्धतावादियों को यह समझना होगा कि किसी अन्य भाषा का अगर हिंदी में इस्तेमाल होता है तो इससे भाषा भ्रष्ट नहीं होती बल्कि समृद्ध होती है । उन्हें यह भी समझ नहीं आता कि हिंदी कोई इतनी कमजोर भाषा नहीं है कि अगर दूसरी भाषा के चंद लोकप्रिय शब्दों का इस्तेमाल होगा तो हिंदी का नाश नहीं हो जाएगा । यहां भी हमें अंग्रेजी से सीख लेनी चाहिए । अंग्रेजी के ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी के नए संस्करण में हर साल विश्व की कई भाषाओं के लोकप्रिय शब्दों को शामिल किया जाता है, और गर्व से अंग्रेजीवाले इसका ऐलान भी करते हैं । आज अंग्रेजीवाले धड़ल्ले से बंदोबस्त और जंगल शब्द का इसेतामल करते हैं और कहीं किसी तरफ से कोई विरोध की आवाज नहीं उठती । यही वजह है कि अंगेजी की विश्व भाषा के रूप में स्वीकार्यता है और हिंदी जो तकरीबन 50 करोड़ लोगों की भाषा है उसका विरोध उस देश में होता है, जहां की वो मूल भाषा है ।
इस मसले पर हम हिंदीवालों को गंभीरता पूर्वक विचार करना चाहिए और संकीर्ण मानसिकता से उपर उठकर उसकी स्वीकार्यता बढ़ाने के लिए ज्यादा उदार होना पड़ेगा ।
हमे यह भी सोचना पड़ेगा कि दक्षिण भारत के राज्यों में जहां हिंदी का विरोध सबसे ज्यादा है और कई आंदोलन भी हो चुके हैं । लेकिन आश्चर्य की बात है कि इन राज्यों में भी हिंदी फिल्मों का बेहद बड़ा बाजार है । क्या वजह है कि लोग हिंदी फिल्मों पर तो अपनी जान न्योछावर कर देते हैं लेकिन जब भाषा का सवाल आता है तो वो जान लेने और देने पर उतारू हो जाते हैं । हिंदी को व्यापक स्वीकार्यता दिलाने के लिए जरूरी है कि हिंदी को खुले दिल से अन्य भारतीय भाषाओं और अंगेजी के उन शब्दों को अपनाना होगा जो कि लोगों की जुबान पर चढे हुए हैं । इसका लाभ यह होगा कि दूसरी भाषा के लोगों को यह भरोसा होगा कि हिंदी भी उनकी अपनी ही भाषा है और उनके शब्द इस भाषा के लिए अछूत नहीं है । इसी भरोसे से जो विश्वास पैदा होगा वो हिंदी के व्यापक हित में होगा ।
ये दो उदाहरण इसलिए दे रहा हूं कि इससे हिंदी और अंग्रेजी लेखकों की मानसिकता को समझा जा सके । हिंदी के कमोबेश कई लेखकों की यही मनोदशा है । जब तक आप उनके लेखन की प्रशंसा करते रहें. उनकी कृतियों को महान कारर देते रहें और जब भी जहां भी मौका मिले उसकी प्रशंसा करें तबतक वो आपको सर आंखों पर बिठाए रखेंगे लेकिन ज्योंही आपने उनके लेखन पर उंगुली उठाई तो आप दुश्मन हो जाएंगे, आपकी समझ सावलों के घेरे में हो जाएगी । लेकिन अंग्रेजी में हालात इससे उलट हालात है । अंग्रेजी में लोग अपनी आलोचना को बेहद स्वस्थ और गंभीर तरीके से लेते हैं और समीक्षक ,आलोचक को कभी दुश्मन नहीं समझते हैं । अंग्रेजी के लोग कबीर की - नंदक नियरे राखिए को आत्मसात कर चुके हैं जबकि हिंदी के लोग ही अबतक कबीर को ना तो समझ पाए हैं और ना ही अपना सके हैं ।
हुंदुस्तान की एक बड़ी आबादी के बीच हिंदी की व्यापक स्वीकार्यता नहीं होने के पीछे एक वजह इसका राजभाषा होना भी है । सरकारी बाबुओं और अफसरों की सरकारी भाषा हिंदी इतनी कठिन और दुरूह होती है कि अगर कोई सरकारी ऑर्डर आपके हाथ लग जाए को उसे समझने के लिए आपको उसका अंग्रेजी में अनुवाद करवाना होगा । जरूरत इस बात की है कि हिंदी को राजभाषा के चंगुल से मुक्त कर जनभाषा बनाने की दिशा में प्रयास किया जाना चाहिए । जनभाषा के लिए जरूरी है कि इसे लोगों से जोडा जाए और सरकारी चंगुल से मुक्त किया जाए । लेकिन हिंदी के शुद्धतावादियों को इसपर आपत्ति होगी । उन्हें लगने लगेगा कि यह तो हिंदी के खिलाफ एक साजिश है और इससे भाषा का चरित्र और उसका स्वरूप बदल जाएगा । हिंदी में अंग्रेजी और अन्य बारतीय भाषाओं के शब्दों का इस्तेमाल भी हिंदी के तथाकथित ठेकेदारों को नागवार गुजरती है । उन्हें लगता है कि इससे भाषा भ्रष्ट हो जाएगी, वो हिंदी को इतना कमजोर समझते हैं कि उसे अपने पंखों के नीचे उसी तरह रखना चाहते हैं जैसे कि कोई पक्षी अपने अंडे को सेती है । लेकिन हिंदी के इन तथाकथित ठेकेदारों और शुद्धतावादियों को यह समझना होगा कि किसी अन्य भाषा का अगर हिंदी में इस्तेमाल होता है तो इससे भाषा भ्रष्ट नहीं होती बल्कि समृद्ध होती है । उन्हें यह भी समझ नहीं आता कि हिंदी कोई इतनी कमजोर भाषा नहीं है कि अगर दूसरी भाषा के चंद लोकप्रिय शब्दों का इस्तेमाल होगा तो हिंदी का नाश नहीं हो जाएगा । यहां भी हमें अंग्रेजी से सीख लेनी चाहिए । अंग्रेजी के ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी के नए संस्करण में हर साल विश्व की कई भाषाओं के लोकप्रिय शब्दों को शामिल किया जाता है, और गर्व से अंग्रेजीवाले इसका ऐलान भी करते हैं । आज अंग्रेजीवाले धड़ल्ले से बंदोबस्त और जंगल शब्द का इसेतामल करते हैं और कहीं किसी तरफ से कोई विरोध की आवाज नहीं उठती । यही वजह है कि अंगेजी की विश्व भाषा के रूप में स्वीकार्यता है और हिंदी जो तकरीबन 50 करोड़ लोगों की भाषा है उसका विरोध उस देश में होता है, जहां की वो मूल भाषा है ।
इस मसले पर हम हिंदीवालों को गंभीरता पूर्वक विचार करना चाहिए और संकीर्ण मानसिकता से उपर उठकर उसकी स्वीकार्यता बढ़ाने के लिए ज्यादा उदार होना पड़ेगा ।
हमे यह भी सोचना पड़ेगा कि दक्षिण भारत के राज्यों में जहां हिंदी का विरोध सबसे ज्यादा है और कई आंदोलन भी हो चुके हैं । लेकिन आश्चर्य की बात है कि इन राज्यों में भी हिंदी फिल्मों का बेहद बड़ा बाजार है । क्या वजह है कि लोग हिंदी फिल्मों पर तो अपनी जान न्योछावर कर देते हैं लेकिन जब भाषा का सवाल आता है तो वो जान लेने और देने पर उतारू हो जाते हैं । हिंदी को व्यापक स्वीकार्यता दिलाने के लिए जरूरी है कि हिंदी को खुले दिल से अन्य भारतीय भाषाओं और अंगेजी के उन शब्दों को अपनाना होगा जो कि लोगों की जुबान पर चढे हुए हैं । इसका लाभ यह होगा कि दूसरी भाषा के लोगों को यह भरोसा होगा कि हिंदी भी उनकी अपनी ही भाषा है और उनके शब्द इस भाषा के लिए अछूत नहीं है । इसी भरोसे से जो विश्वास पैदा होगा वो हिंदी के व्यापक हित में होगा ।
Monday, November 30, 2009
दार्शनिक लिब्राहन के सपने
छह दिसंबर उन्नीस सौ बानवे में अयोध्या में विवादित ढांचा के ढहाए जाने के दस दिनों बाद सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ट जज मनमोहन सिंह लिब्राहन की अध्यक्षता में 1952 में गठित जांच कमीशन एक्ट के तहत एक जांच कमीशन का गठन किया गया । इस कमीशन को तीन महीने के अंदर अपनी इस बात की पड़ताल कर अपवी रिपोर्ट देनी थी कि इस ढांचे के गिराए जाने के पीछे किसका हाथ है और कौन लोग इसके लिए जिम्मेदार हैं । लेकिन विद्वान जज ने इस काम को तीन महीन के बजाए सत्रह साल में पूरा किया । इस बीच कई सरकारें आई और गई और सबने इस जांच कमीशन को अड़तालीस एक्सटेंशन दिए । इन सत्रह सालों में आयोग के कामकाज पर आम आदमी का दस करोड़ रुपया खर्च हुआ । सत्रह साल की मेहनत और करोड़ों रुपये खर्च होने के बावजूद आम आदमी को इस रिपोर्ट से कुछ हाथ नहीं लगा । जिन लोगों को यह उम्मीद थी कि इस रिपोर्ट से कुछ ठोस निकलकर आएगा उन्हें खासी निराशा हुई । सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज मनमोहन सिंह लिब्राहन को विवादित ढांचा गिराए जाने के जिम्मेदार लोगों का पता लगाने का काम सौंपा गया था लेकिन लगभग हजार पन्नों की सारगर्भित रिपोर्ट इस बारे में लगभग मौन है । बजाए दोषियों का पता लगाने और उनके खिलाफ कार्रवाई की सिफारिश करने के जस्टिस लिब्राहन ने खुद ही अपना दायरा बढ़ाते हुए एक दार्शनिक की तरह समाज के हर क्षेत्र में सुधार की सिफारिश कर दी । लगभग हजार पन्नों की इस भारी भरकम रिपोर्ट में लिब्राहन ने छब्बीस पन्नों में प्रशासनिक और पुलिस सुधार, पुलिस राजनेताओं के नापाक गठजोड़, राजनीति का अपराधीकरण, राजनेताओं और धार्मिक नेताओं के गठजोड़, और राजनेताओं के साथ प्रशासनिक अधिकारियों के बढ़ते संबंधों पर रोक लगाने और उसे साफ सुथरा बनाने की सिफारिशें की है । जैसा कि उपर भी कहा जा चुका है कि इस कमीशन को अयोध्या में विवादित ढांचा ढहाने के पीछे के सच को उजागर करने का दायित्व सौंपा गया था लेकिन बजाए उसके लिब्राहन ने समाज में चल रहे अन्य गलत गतिविधियों पर अपना फोकस कर दिया । नतीजा सबके सामने है ।
अपनी सिफारिशों में लिब्राहन ने एक अलग संविधान सभा बनाने की वकालत भी की है और कहा है कि अब वक्त आ गया है कि भारतीय संसद एक नए संविधान सभा का गठन करे जो संविधान की समीक्षा करे और पिछले साठ सालों में उसकी कमियों और खामियों पर विचार करे और इन कमियों को दूर करने का सुझाव दे । (172.19) । लिब्राहन ने अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर ये सिफारिश की जिसे सरकार को इसे यह कर ठुकरा देना चाहिए कि ये बातें इस कमीशन के अधिकार क्षेत्र से बाहर की है लेकिन सरकार ने अपनी एक्शन टेकन रिपोर्ट में इसपर प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि रिटायर्ड चीफ जस्टिस की अध्यक्षता में एक कमीशन इस बात की जांच कर चुका है और केंद्र –राज्य संबंधों की जांच करने के लिए भी एक आयोग गठित की जा चुकी है जिसकी मार्च दो हजार दस में रिपोर्ट अपेक्षित है ।
जस्टिस लिब्राहन सिर्फ संविधान की समीक्षा पर ही नहीं रुके बल्कि राष्ट्रीय एकता परिषद को भी संवैधानिक अधिकार देने की सिफारिश कर और कहा – कि अब वक्त आ गया है कि राष्ट्रीय एकता परिषद को संवैधानिक अधिकार दे दिए जाएं । या फिर कोई ऐसी ही अलग संस्था बनाई जाए जिसमें देशभर के अलग अलग धर्मों के विद्वान और मशहूर समाज सेवकों को शामिल किया जाए जिनका किसी राजनीतिक पार्टी से संबंध नहीं हो (172.4) । यहां जस्टिस लिब्राहन ने बगैर इस बात को ध्यान में रखे कि यह एक एडवायजरी बॉडी है जिसमें समाज के हर तबके के लोग शामिल किए जाते हैं, यह सिफारिश कर डाली जो पूरी तरह से अव्यावहारिक है । सरकार में बैठे लोगों ने भी यही तर्क देकर लिब्राहन की इस सिफारिश को ठुकरा दिया ।
जस्टिस लिब्राहन इतने पर भी नहीं रुके और उन्होंने पत्रकारों के आचार व्यवहार को लेकर भी सिफारिश कर डाली – पैरा 173.3 में लिब्राहन ने यह चिंता जताई कि भारत में पीत पत्रकारिता पर अंकुश लगाने के लिए कोई संवैधानिक संस्था नहीं है । प्रेस काउंसिल को उतने अधिकार नहीं है कि वो गलत रिपोर्टिंग करनेवालों के दंडित कर सके । लिब्राहन की इच्छा है कि मेडिल काउंसिल या फिर बार काउंसिल ऑफ इंडिया की तर्ज पर कोई एक स्थायी संस्था का गठन किया जाए जो कि संवाददाओं और अखबारों और खबरिया चैनलों के खिलाफ गलत रिपोर्टिंग की जांच कर सके । इसके लिए लिब्राहन ने जोरदार शब्दों में इस बात की सिफारिश की है कि भारत में मीडिया के कामकाज पर नजर रखने के लिए एक संवैधानिक संस्था का गठन किया जाए और पत्रकारों को भी अन्य प्रोशनल्स की तरह लाइसेंस जारी किए जाएं और गलत पाए जाने पर उनके लाइसेंस निरस्त किए जा सकें । (177.5)
चूंकि सरकार को लिब्राहन की यह सिफारिश जंची इसलिए अपनी एक्शन टेकन रिपोर्ट में सरकार ने इस सिफारिश को सूचना और प्रसारण मंत्रालय को इस संस्था की आवश्यकता की संभावनाओं की तलाश के लिए अनुरोध पत्र भेजने की बात स्वीकार कर ली है । सिफारिश करते वक्त जस्टिस लिब्राहन ने ना तो कोई तर्क दिया और ना ही इसकी वजह बताई । सिर्फ इस आधार पर कि ऐसी कोई संस्था नहीं है इसलिए इस तरह की एक संस्था बनाई जानी चाहिए । लिब्राहन को यह भी पता लगाना चाहिए कि विश्व के किन किन देशों में पत्रकारों को लाइसेंस देने का प्रावधान है । यहां यह सवाल भी खड़ा होता है कि क्या इसकी आड़ में सरकारें मीडिया की आजादी को जब चाहे तब दबा नहीं सकती । क्या जस्टिस लिब्राहन ने इन तमाम पहलुओं पर विचार किया और अगर विचार कर के ये सिफारिश की तो मामला और भी गंभीर है । क्या लिब्राहन मीडिया पर अंकुश लगाने के सरकार के सपने को साकार होते देखना चाहते हैं ।
जस्टिस लिब्राहन यहीं पर नहीं रुके उन्होंने राजनीतिक जीवन में नैतिक मूल्य स्थापित करने के लिए भी कई सुझाव दे डाले । राजनीति व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन का सुझाव देते हुए लिब्राहन ने कहा कि – अगर कोई राजनीतिक दल धर्म के आधार पर अपनी राजनीति चलाती हो या फिर उसके एजेंडा में धार्मिक उद्देश्य हो तो उसे बैन कर दिया जाना चाहिए । एक सेक्यूलर राज्य की स्थापना के लिए यह जरूरी है कि जो व्यक्ति या दल धर्म और राजनीति का घालमेल करे उसपर चुनाव कानून के उल्लंघन का दोषी माना जाए और उसे अयोग्य करार दे दिया जाए । यहां भी लिब्राहन ने कोई नई बात नहीं कही है, पुरानी बात को नए और दार्शनिक अंदाज में पेश कर दिया है ।
यूपीए सरकार लिब्राहन की सिफारिशों से खुश है क्योंकि अपनी कई सिफारिशों में लिब्राहन ने सरकार की लाइन को ही आगे बढाया है और सरकार को अपने विरोधी दलों को घेरने के लिए हथियार मुहैया करवा दिया है ।
अपनी एक सिफारिश में लिब्राहन ने कहा है कि अगर केंद्र सरकार को लगता है कि सूबे के किसी खास इलाके में कोई ऐसा अपराध होनेवाला है जिसका फूरे देश पर प्रभाव पड़ सकता है और जिसको रोकने में सूबे की सरकार या तो विफल रही है या फिर उसे रोकने में इच्छाशक्ति का अभाव दिखता है तो केंद्र उस खास इलाके का प्रशासनिक कंट्रोल ले सकता है । यहां भी लिब्राहन ने इस बात की अनदेखी की है कि बारतीय संविधान में केंद्र और राज्यों को अलग-अलग अधिकार प्राप्त है । इसके अलावा इस तरह की आपात परिस्थितियों से निबटन के लिए अभी भी केंद्र सरकार के पास पर्याप्त अधिकार है, जरूरत पर्याप्त इच्छा शक्ति की है । संविधान में प्रापत् इन अधिकारों का केंद्र सरकरा गाहै बगाहे बेजा इस्तेमाल करती रही है । क्या लिब्राहन केंद्र के हाथ में ेक और हथियार देना चाहते हैं जिसी बिना पर वो राज्य सरकारों को जब चाहे तब डरा सकें । साथ ही लिब्राहन ने किसी खास भौगोलिक क्षेत्र का कंट्रोल लेने की बात की है । बारत के संघीय ढांचे में इससे कितनी दिक्कतें आ सकती हैं इस बारे में भी विद्वान लिब्राहन को विचार करना चाहिए था ।
दरअसल लिब्राहन आयोग की सिफारिशों में मनमोहन सिंह लिब्राहन की एक बेहतरीन दार्शनिक की भूमिका उभरती है जो समाज के हर क्षेत्र में आदर्श स्थिति देखना चाहता है ।
लेकिन सवाल यह उठता है कि जस्टिस लिब्राहन इस बात पर खामोश क्यों है कि जिस कमीशन को तीन महीने में अपनी रिपोर्ट देनी थी उसने सत्रह साल क्यों लगाए । आयोग की इतनी लंबी चली सुनवाई में टैक्स पेयर का जो दस करोड़ रुपया खर्च हुआ उसकी जिम्मेदारी किसकी है । आयोग पर जो सजिम्मेदारी दी गई थी उसका पूर्ण निर्वहण के लिए कौन जिम्मेदार है । जिस अटल बिहारी वाजपेयी पर आयोग की रिपोर्ट में उंगली उठाई गई है उसको एक बार भी अपनी सफाई का मौका नहीं दिया जाना लिब्राहन की मंशा पर गंभीर सवाल खड़ा करता है । कई लोगों का आरोप है कि जस्टिस लिब्राहन ने एक बार भी अयोध्या का दौरा नहीं किया अगर ये आरोप सही हैं तो यह बेहद गंभीर बात है कि बगैर मौक-ए-वारदात पर गए रिपोर्ट तैयार कर दी गई । पूरे समाज और देश को सुधारने का संदेश देनेवाली लिब्राहन को इस साधारण रिपोर्ट को लिखने में सत्रह साल लगे और दस करोड़ रुपये खर्च हुए उसे कोई भी रिस्चर स्कॉलर कुछ ही महीनों में लिख सकता था । जस्टिस लिब्राहन की यह रिपोर्ट आम जनता की आंखों में धूल झोंकने जैसा है, जिसमें अपनी
विफलताओं को छुपाने के लिए दार्शनिक को चोला ओढा गया है ।
अपनी सिफारिशों में लिब्राहन ने एक अलग संविधान सभा बनाने की वकालत भी की है और कहा है कि अब वक्त आ गया है कि भारतीय संसद एक नए संविधान सभा का गठन करे जो संविधान की समीक्षा करे और पिछले साठ सालों में उसकी कमियों और खामियों पर विचार करे और इन कमियों को दूर करने का सुझाव दे । (172.19) । लिब्राहन ने अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर ये सिफारिश की जिसे सरकार को इसे यह कर ठुकरा देना चाहिए कि ये बातें इस कमीशन के अधिकार क्षेत्र से बाहर की है लेकिन सरकार ने अपनी एक्शन टेकन रिपोर्ट में इसपर प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि रिटायर्ड चीफ जस्टिस की अध्यक्षता में एक कमीशन इस बात की जांच कर चुका है और केंद्र –राज्य संबंधों की जांच करने के लिए भी एक आयोग गठित की जा चुकी है जिसकी मार्च दो हजार दस में रिपोर्ट अपेक्षित है ।
जस्टिस लिब्राहन सिर्फ संविधान की समीक्षा पर ही नहीं रुके बल्कि राष्ट्रीय एकता परिषद को भी संवैधानिक अधिकार देने की सिफारिश कर और कहा – कि अब वक्त आ गया है कि राष्ट्रीय एकता परिषद को संवैधानिक अधिकार दे दिए जाएं । या फिर कोई ऐसी ही अलग संस्था बनाई जाए जिसमें देशभर के अलग अलग धर्मों के विद्वान और मशहूर समाज सेवकों को शामिल किया जाए जिनका किसी राजनीतिक पार्टी से संबंध नहीं हो (172.4) । यहां जस्टिस लिब्राहन ने बगैर इस बात को ध्यान में रखे कि यह एक एडवायजरी बॉडी है जिसमें समाज के हर तबके के लोग शामिल किए जाते हैं, यह सिफारिश कर डाली जो पूरी तरह से अव्यावहारिक है । सरकार में बैठे लोगों ने भी यही तर्क देकर लिब्राहन की इस सिफारिश को ठुकरा दिया ।
जस्टिस लिब्राहन इतने पर भी नहीं रुके और उन्होंने पत्रकारों के आचार व्यवहार को लेकर भी सिफारिश कर डाली – पैरा 173.3 में लिब्राहन ने यह चिंता जताई कि भारत में पीत पत्रकारिता पर अंकुश लगाने के लिए कोई संवैधानिक संस्था नहीं है । प्रेस काउंसिल को उतने अधिकार नहीं है कि वो गलत रिपोर्टिंग करनेवालों के दंडित कर सके । लिब्राहन की इच्छा है कि मेडिल काउंसिल या फिर बार काउंसिल ऑफ इंडिया की तर्ज पर कोई एक स्थायी संस्था का गठन किया जाए जो कि संवाददाओं और अखबारों और खबरिया चैनलों के खिलाफ गलत रिपोर्टिंग की जांच कर सके । इसके लिए लिब्राहन ने जोरदार शब्दों में इस बात की सिफारिश की है कि भारत में मीडिया के कामकाज पर नजर रखने के लिए एक संवैधानिक संस्था का गठन किया जाए और पत्रकारों को भी अन्य प्रोशनल्स की तरह लाइसेंस जारी किए जाएं और गलत पाए जाने पर उनके लाइसेंस निरस्त किए जा सकें । (177.5)
चूंकि सरकार को लिब्राहन की यह सिफारिश जंची इसलिए अपनी एक्शन टेकन रिपोर्ट में सरकार ने इस सिफारिश को सूचना और प्रसारण मंत्रालय को इस संस्था की आवश्यकता की संभावनाओं की तलाश के लिए अनुरोध पत्र भेजने की बात स्वीकार कर ली है । सिफारिश करते वक्त जस्टिस लिब्राहन ने ना तो कोई तर्क दिया और ना ही इसकी वजह बताई । सिर्फ इस आधार पर कि ऐसी कोई संस्था नहीं है इसलिए इस तरह की एक संस्था बनाई जानी चाहिए । लिब्राहन को यह भी पता लगाना चाहिए कि विश्व के किन किन देशों में पत्रकारों को लाइसेंस देने का प्रावधान है । यहां यह सवाल भी खड़ा होता है कि क्या इसकी आड़ में सरकारें मीडिया की आजादी को जब चाहे तब दबा नहीं सकती । क्या जस्टिस लिब्राहन ने इन तमाम पहलुओं पर विचार किया और अगर विचार कर के ये सिफारिश की तो मामला और भी गंभीर है । क्या लिब्राहन मीडिया पर अंकुश लगाने के सरकार के सपने को साकार होते देखना चाहते हैं ।
जस्टिस लिब्राहन यहीं पर नहीं रुके उन्होंने राजनीतिक जीवन में नैतिक मूल्य स्थापित करने के लिए भी कई सुझाव दे डाले । राजनीति व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन का सुझाव देते हुए लिब्राहन ने कहा कि – अगर कोई राजनीतिक दल धर्म के आधार पर अपनी राजनीति चलाती हो या फिर उसके एजेंडा में धार्मिक उद्देश्य हो तो उसे बैन कर दिया जाना चाहिए । एक सेक्यूलर राज्य की स्थापना के लिए यह जरूरी है कि जो व्यक्ति या दल धर्म और राजनीति का घालमेल करे उसपर चुनाव कानून के उल्लंघन का दोषी माना जाए और उसे अयोग्य करार दे दिया जाए । यहां भी लिब्राहन ने कोई नई बात नहीं कही है, पुरानी बात को नए और दार्शनिक अंदाज में पेश कर दिया है ।
यूपीए सरकार लिब्राहन की सिफारिशों से खुश है क्योंकि अपनी कई सिफारिशों में लिब्राहन ने सरकार की लाइन को ही आगे बढाया है और सरकार को अपने विरोधी दलों को घेरने के लिए हथियार मुहैया करवा दिया है ।
अपनी एक सिफारिश में लिब्राहन ने कहा है कि अगर केंद्र सरकार को लगता है कि सूबे के किसी खास इलाके में कोई ऐसा अपराध होनेवाला है जिसका फूरे देश पर प्रभाव पड़ सकता है और जिसको रोकने में सूबे की सरकार या तो विफल रही है या फिर उसे रोकने में इच्छाशक्ति का अभाव दिखता है तो केंद्र उस खास इलाके का प्रशासनिक कंट्रोल ले सकता है । यहां भी लिब्राहन ने इस बात की अनदेखी की है कि बारतीय संविधान में केंद्र और राज्यों को अलग-अलग अधिकार प्राप्त है । इसके अलावा इस तरह की आपात परिस्थितियों से निबटन के लिए अभी भी केंद्र सरकार के पास पर्याप्त अधिकार है, जरूरत पर्याप्त इच्छा शक्ति की है । संविधान में प्रापत् इन अधिकारों का केंद्र सरकरा गाहै बगाहे बेजा इस्तेमाल करती रही है । क्या लिब्राहन केंद्र के हाथ में ेक और हथियार देना चाहते हैं जिसी बिना पर वो राज्य सरकारों को जब चाहे तब डरा सकें । साथ ही लिब्राहन ने किसी खास भौगोलिक क्षेत्र का कंट्रोल लेने की बात की है । बारत के संघीय ढांचे में इससे कितनी दिक्कतें आ सकती हैं इस बारे में भी विद्वान लिब्राहन को विचार करना चाहिए था ।
दरअसल लिब्राहन आयोग की सिफारिशों में मनमोहन सिंह लिब्राहन की एक बेहतरीन दार्शनिक की भूमिका उभरती है जो समाज के हर क्षेत्र में आदर्श स्थिति देखना चाहता है ।
लेकिन सवाल यह उठता है कि जस्टिस लिब्राहन इस बात पर खामोश क्यों है कि जिस कमीशन को तीन महीने में अपनी रिपोर्ट देनी थी उसने सत्रह साल क्यों लगाए । आयोग की इतनी लंबी चली सुनवाई में टैक्स पेयर का जो दस करोड़ रुपया खर्च हुआ उसकी जिम्मेदारी किसकी है । आयोग पर जो सजिम्मेदारी दी गई थी उसका पूर्ण निर्वहण के लिए कौन जिम्मेदार है । जिस अटल बिहारी वाजपेयी पर आयोग की रिपोर्ट में उंगली उठाई गई है उसको एक बार भी अपनी सफाई का मौका नहीं दिया जाना लिब्राहन की मंशा पर गंभीर सवाल खड़ा करता है । कई लोगों का आरोप है कि जस्टिस लिब्राहन ने एक बार भी अयोध्या का दौरा नहीं किया अगर ये आरोप सही हैं तो यह बेहद गंभीर बात है कि बगैर मौक-ए-वारदात पर गए रिपोर्ट तैयार कर दी गई । पूरे समाज और देश को सुधारने का संदेश देनेवाली लिब्राहन को इस साधारण रिपोर्ट को लिखने में सत्रह साल लगे और दस करोड़ रुपये खर्च हुए उसे कोई भी रिस्चर स्कॉलर कुछ ही महीनों में लिख सकता था । जस्टिस लिब्राहन की यह रिपोर्ट आम जनता की आंखों में धूल झोंकने जैसा है, जिसमें अपनी
विफलताओं को छुपाने के लिए दार्शनिक को चोला ओढा गया है ।
Friday, November 27, 2009
स्त्री आकांक्षा की उंची उड़ान
हमेशा संपूर्ण भारतीय परिधान में रहनेवाली महामहिम राष्ट्रपति को जब अचानक वायुसेना की खास वर्दी में पुणे के लोहेगांव एयरबेस पर लड़ाकू विमान सुखोई की ओर बढ़ते देखा तो सहसा यकीन नहीं हुआ कि एक भारतीय नारी इस सुपरसोनिक विमान में यात्रा कर सकती है । वायुसेना की वर्दी में जब प्रतिभा पाटिल सुखोई की सीढियां चढ़ रही थी तो वो एक नए इतिहास की ओर कदम बढ़ा रही थी । शांत, सौम्य चेहरे में प्रतिभा पाटिल जब सुखोई में बैठकर हाथ हिला रही थी वह दृश्य बुलंद होते भारत की एक ऐसी तस्वीर थी जिसपर हर भारतवासी गर्व कर सकता था । कहते हैं जब कुछ कर गुजरने का जज्बा हो तो कुछ भी नामुमकिन नहीं है । और हुआ भी वही- उम्र के चौहत्तर साल पूरे कर चुकी महामहिम प्रतिभा पाटिल ने आसमान में आठ हजार फीट की उंचाई पर आधे घंटे तक उड़ानभर कर इतिहास रच दिया । वो भारतीय गणतंत्र की पहली महिला राष्ट्रपति बन गई जिन्होंने सुपरसोनिक लडाकू विमान में इतनी ऊंचाई पर उडी । इस उड़ान के लिए महामहिम ने दो महीने तक जबरदस्त तैयारी की। उन्हें विमान में उड़ने के तौर तरीकों को बताया गया था । आपातस्थति से तैयार रहने के हर नुस्खे की बारिकियों को बताया गया। जोखिमों से निबटने की हर ट्रेनिंग लेने के बाद प्रतिभा पाटिल ने पुणे के लोहेगांव एयरबेस से उडान भरी । लगभग आधे घंटे तक आठ हजार फीट की उंचाई पर उड़ान भरने के बाद प्रतिभा पाटिल ने माना कि योग और नियमित व्याययाम से उन्हें इस कठिन उड़ान में मदद मिली । तो एक बार फिर साबित हुआ कि कड़ी मेहनत और हौसले के आगे कोई भी लक्ष्य बौना है ।
इस उड़ान का सिर्फ प्रतीकात्मक महत्व नहीं है बल्कि इसके गंभीर निहितार्थ हैं । प्रतिभा पाटिल ने सुखोई में यात्रा कर भारतीय महिलाओं की आकांक्षाओं को भी एक नई उड़ान दे दी है । एक ऐसे देश में जहां आज भी महिलाओं के साथ लगातार और हर रोज नाइंसाफी होती है, उन्हें उनके अधिकारों से वंचित रखा जाता हो, वहां एक उस देश की प्रथम नागरिक ने अपने देश की आधी आबादी को यह संकेत दे दिया कि अगर कड़ी मेहनत का जज्बा हो और हौसले बुलंद हो तो कुछ भी किया जा सकता है । प्रतिभा पाटिल ने यह भी माना कि इस देश की महिलाओं की योग्यता में उन्हें पूरा यकीन है । तकनीकी और अन्य दिक्कतों को दरकिनार कर अगर महिलाओं को मौका मिले तो वो हर क्षेत्र में अपनी सफलता के झंडे गाड़ सकती हैं । राष्ट्रपति जब यह कह रही थी देश की महिलाओं को एक ऐसा आत्मबल मिल रहा था जो उनके उत्थान के लिए बहुत मददगार साबित हो सकता है । इस प्रतीकात्मक उड़ान के दूरगामी परिणाम हो सकते हैं, जो देश में महिलाओं को नए -नए क्षेत्र में हाथ आजमाने के लिए प्ररित कर सकते हैं । और जब भी इस देश में किसी महिला ने किसी भी काम के लिए कमर कसी तो उसे सफलता ही मिली, राष्ट्रपति का यह विश्वास गलत भी नहीं है ।
राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल से पहले आठ जून दो हजार छह को उस वक्त के राष्ट्रपति ए पी जे अबुल कलाम ने सुखोई में य़ात्रा की थी । चालीस मिनट की य़ात्रा के बाद उस वक्त के राष्ट्रपति कलाम ने भी यही कहा था कि उन्हें यकीन हो गया है कि देश सुरक्षित हाथों में है । अब कलाम के बाद प्रतिभा पाटिल ने भी सुपरोसिनक विमान में यात्रा कर भारतीय सेना को ये संदेश दे दिया है कि राष्ट्रपति सिर्फ नाम मात्र के लिए तीनों सेना का सुप्रीम कमांडर नहीं है बल्कि वो हर कदम पर अपनी सेना के साथ है । चौहत्तर साल में इस अदम्य साहस के लिए देश के राष्ट्रपति की जितनी प्रशंसा की जाए वो कम है ।
इस उड़ान का सिर्फ प्रतीकात्मक महत्व नहीं है बल्कि इसके गंभीर निहितार्थ हैं । प्रतिभा पाटिल ने सुखोई में यात्रा कर भारतीय महिलाओं की आकांक्षाओं को भी एक नई उड़ान दे दी है । एक ऐसे देश में जहां आज भी महिलाओं के साथ लगातार और हर रोज नाइंसाफी होती है, उन्हें उनके अधिकारों से वंचित रखा जाता हो, वहां एक उस देश की प्रथम नागरिक ने अपने देश की आधी आबादी को यह संकेत दे दिया कि अगर कड़ी मेहनत का जज्बा हो और हौसले बुलंद हो तो कुछ भी किया जा सकता है । प्रतिभा पाटिल ने यह भी माना कि इस देश की महिलाओं की योग्यता में उन्हें पूरा यकीन है । तकनीकी और अन्य दिक्कतों को दरकिनार कर अगर महिलाओं को मौका मिले तो वो हर क्षेत्र में अपनी सफलता के झंडे गाड़ सकती हैं । राष्ट्रपति जब यह कह रही थी देश की महिलाओं को एक ऐसा आत्मबल मिल रहा था जो उनके उत्थान के लिए बहुत मददगार साबित हो सकता है । इस प्रतीकात्मक उड़ान के दूरगामी परिणाम हो सकते हैं, जो देश में महिलाओं को नए -नए क्षेत्र में हाथ आजमाने के लिए प्ररित कर सकते हैं । और जब भी इस देश में किसी महिला ने किसी भी काम के लिए कमर कसी तो उसे सफलता ही मिली, राष्ट्रपति का यह विश्वास गलत भी नहीं है ।
राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल से पहले आठ जून दो हजार छह को उस वक्त के राष्ट्रपति ए पी जे अबुल कलाम ने सुखोई में य़ात्रा की थी । चालीस मिनट की य़ात्रा के बाद उस वक्त के राष्ट्रपति कलाम ने भी यही कहा था कि उन्हें यकीन हो गया है कि देश सुरक्षित हाथों में है । अब कलाम के बाद प्रतिभा पाटिल ने भी सुपरोसिनक विमान में यात्रा कर भारतीय सेना को ये संदेश दे दिया है कि राष्ट्रपति सिर्फ नाम मात्र के लिए तीनों सेना का सुप्रीम कमांडर नहीं है बल्कि वो हर कदम पर अपनी सेना के साथ है । चौहत्तर साल में इस अदम्य साहस के लिए देश के राष्ट्रपति की जितनी प्रशंसा की जाए वो कम है ।
Wednesday, November 18, 2009
अपराध की विचारधारा
पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्ददेव भट्टाचार्या के मिदनापुर के दौरे के वक्त माओवादियों ने फिर से एक बार सरकार को खुली चुनौती दी और तीन लोगों को गोलियों से छलनी कर उनकी लाशें बीच सड़क पर फेंक दी । अपराध का तरीका भी वही । पहले उनके घर पहुंचे, बातचीत के लिए बाहर बुलाया फिर हथियारों के बल पर अगवा किया और बर्बरतापूर्वक कत्ल कर सरेआम सड़क पर फेंक दिया । बीच सड़क पर पड़ी इन तीन लाशों की तस्वीर देखकर दिल दहल गया । दिल तो उस दिन भी दहला था जब अक्तूबर में माओवादियों ने दिन दहाड़े पश्चिमी मिदनापुर के संकरैल पुलिस स्टेशन पर हमला कर दो पुलिस वालों को मौत के घाट उतार दिया था और थाने के अफसर इंचार्ज अतीन्द्रनाथ दत्ता को अगवा कर अपने साथ ले गए थे । उस वक्त संकरैल थाने की जो तस्वीरें आई थी उसमें सब इंसपेक्टर दिवाकर भट्टाचार्य की लाश कुर्सी पर इस तरह पड़ी थी जैसे वो ड्यूटी के वक्त बैठा करते थे । इन दो तस्वीरों के अलावा अक्तूबर में ही माओवादियों के सरगना कोटेश्वर राव ने कुछ न्यूज चैनलों को इंटरव्यू दिए थे जिसमें उसके पीछे एके सैंतालीस लिए दो मुस्तंडे खड़े थे । ये तीन ऐसी तस्वीरें हैं जो माओवादियों के चरित्र को साफ तौर पर उभार कर सामने ला देती है । पहले की दो तस्वीरों में बर्बरता की पराकाष्ठा है और फिर कोटेश्वर राव की तस्वीर से ये सवाल खड़ा होता है कि आखिर माओवादियों के पास इतने खतरनाक हथियार कहां से आ रहे हैं । क्या ये हथियार विदेशों में बैठी भारत विरोधी ताकतें मुहैया करा रही हैं । इन हथियारों को खरीदने के लिए इनके पास पैसे कहां से आ रहे हैं । इन सवालों का जबाव माओवादियों के समर्थन में लेख लिखनेवाले विद्वान बुद्धिजीवियों के पास नहीं है ।
अभी एक साप्ताहिक पत्रिका में विश्व प्रसिद्ध लेखिका अरुंधति राय ने अपने जोरदार तर्कों और शानदार भाषा की बदौलत माओवादियों के आंदोलन को जन आंदोलन साबित करने की कोशिश की है । एक ऐसा आंदोलन जो आदिवासी अपनी परंपरा, अपनी विरासत और अपनी जमीन बचाने के लिए कर रहे हैं । अपने इस लंबे और सारगर्भित लेख में माओवादियों के आंदोलन को सही साबित करने के जोश में अरुंधति ने मीडिया से लेकर न्यायपालिका, सरकार से लेकर शासन तक को बिका हुआ करार दे दिया है, कहीं खुलकर तो कहीं इशारों-इशारों में । लेकिन अपने विद्वतापूर्ण लेख में अरुंधति ये भूल गईं कि वो स्थिति का सामान्यीकरण कर रही हैं । पूरे देश के अखबार और सभी न्यूज चैनल उनको बिका नजर आते हैं जो आदिवासियों के हितों पर पैसे को तरजीह देते हैं । सिर्फ फतवेबाजी से बात नहीं बनती है । वाक जाल में उलझाकर पाठकों को तो बांधा जा सकता है लेकिन बगैर किसी ठोस सबूत के देश की पूरी मीडिया को बगैर किसी ठोस सबूत के कठघरे में खड़ी करती हैं तो निसंदेह लेख और लेखक दोनों की गंभीरता पर प्रश्नचिन्ह लग जाता है । बजाए फतवा जारी करने के अरुंधति को अपने तर्कों के समर्थन में कुछ तो उदाहरण पेश करने चाहिए थे । जिस तरह से उसके लेख में खदान मालिकों के बारे में कोई जनरलाइज्ड कमेंट नहीं है, वहां उन्होंने उदाहरण दिए हैं- तो उनकी बातों में वजन लगता है ।
लेकिन माओवादियों के समर्थन में लिखे गए इस लेख को लिखते वक्त अरुंधति के सामने इस हिंसा के शिकार हुए लोगों के परिवारों के बिलखते चेहरे नहीं आए होंगे क्योंकि अगर आपने एक खास किस्म का चश्मा पहन लिया है तो आपको वही दिखाई देगा जो आप देखना चाहेंगी । अरुंधति को उड़ीसा के डोंगरिया कोंध की याद और उनका दर्द तो दिखाई देता है लेकिन माओवादियों की गोलियों के शिकार बने झारखंड के पुलिस इंसपेक्टर फ्रांसिस इंदुवर के परिवार का दर्द नहीं दिखाई देता । उसके छोटे बच्चे का वो बयान नहीं सुनाई दिया होगा जिसमें उसने बिलखते हुए कहा था कि मैं अपने पापा के हत्यारों से बदला लूंगा । अरुंधति को तो सिर्फ ये दिखता है कि पुलिसवाले आदिवासियों पर कितना अत्याचार करते हैं । क्या कभी किसी पुलिसवाले ने किसी भी माओवादी को उस बर्बर तरीके से कत्ल किया जिस तरह से गला रेत कर फ्रांसिस इंदुवर को मार डाला गया ।
अरुंधति जैसे लोगों का तर्क है कि अपनी जमीन लुटती देख कर माओवादियों ने हथियार उठा लिए हैं । लेकिन हाल के दिनों में जिस तरह से परंपरागत हथियारों की जगह अति आधुनिक हथियारों ने ली है वो ना सिर्फ चौंकानेवाला है बल्कि गंभीर विमर्श की मांग भी करता है कि तीर धनुष की जगह एके सैंतालीस कहां से आ गया । कौन सी ताकतें माओवादियों को हथियारों के लिए फंड उपलब्ध करवा रही हैं । जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है कि इनके सरगना कोटेश्नर राव की सुरक्षा में लगे लोगों के पास एके सैंतालीस हैं वैसे ही अत्याधुनिक हथियार संकरैल थाने पर हमला करनेवालों के हाथों में भी था जिसकी बदौलत उन्होंने वहां एक स्थानीय बैंक को लूटा था । सरकार को इन स्त्रोंतो का पता लगाने और उसे बंद करने की जरूरत है ।
अरुंधति ने अपने इस लेख में केंद्रीय गृहमंत्री पी चिदंबरम पर भी जमकर हमला बोला है और उन्हें इस बात की भी तकलीफ है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने चिंदबरम की तारीफ क्यों की । किसी की नजर में कोई अगर अच्छा काम कर रहा है तो क्या तारीफ सिर्फ इसलिए नहीं की जानी चाहिए कि वो विरोधी दल का सदस्य है । ये वह मानसिकता है जो इस तारीफ को भी हिंदू फंडामेंटलिज्म से जोड़कर भ्रम फैलाता है ।
अगर हम थोड़ा पीछ जाएं तो इस तरह के लेख और पत्र बुद्धिजीवियों ने लिखें हैं । 27 दिसंबर 1997 को महाश्वेता देवी ने भी पत्र लिखकर सीपीआई एमएल को बिहार में बदला लेने का आह्वाण किया था । उस वक्त भी महाश्वेता देवी के उस पत्र का खासा विरोध हुआ था । अब ये सारे लोग एक बार फिर से माओवादियों के समर्थन में खड़े हो गए हैं लेकिन इनमें से किसी भी बुद्धिजीवी ने फ्रांसिस इंदुवर, दिवाकर भट्टाचार्य और जयराम हासदा और लक्ष्मी दास की बर्बर हत्या के खिलाफ ना तो एक शब्द बोला और ना ही लिखा । साफ जाहिर है कि इनकी मंशा क्या है ।
अभी एक साप्ताहिक पत्रिका में विश्व प्रसिद्ध लेखिका अरुंधति राय ने अपने जोरदार तर्कों और शानदार भाषा की बदौलत माओवादियों के आंदोलन को जन आंदोलन साबित करने की कोशिश की है । एक ऐसा आंदोलन जो आदिवासी अपनी परंपरा, अपनी विरासत और अपनी जमीन बचाने के लिए कर रहे हैं । अपने इस लंबे और सारगर्भित लेख में माओवादियों के आंदोलन को सही साबित करने के जोश में अरुंधति ने मीडिया से लेकर न्यायपालिका, सरकार से लेकर शासन तक को बिका हुआ करार दे दिया है, कहीं खुलकर तो कहीं इशारों-इशारों में । लेकिन अपने विद्वतापूर्ण लेख में अरुंधति ये भूल गईं कि वो स्थिति का सामान्यीकरण कर रही हैं । पूरे देश के अखबार और सभी न्यूज चैनल उनको बिका नजर आते हैं जो आदिवासियों के हितों पर पैसे को तरजीह देते हैं । सिर्फ फतवेबाजी से बात नहीं बनती है । वाक जाल में उलझाकर पाठकों को तो बांधा जा सकता है लेकिन बगैर किसी ठोस सबूत के देश की पूरी मीडिया को बगैर किसी ठोस सबूत के कठघरे में खड़ी करती हैं तो निसंदेह लेख और लेखक दोनों की गंभीरता पर प्रश्नचिन्ह लग जाता है । बजाए फतवा जारी करने के अरुंधति को अपने तर्कों के समर्थन में कुछ तो उदाहरण पेश करने चाहिए थे । जिस तरह से उसके लेख में खदान मालिकों के बारे में कोई जनरलाइज्ड कमेंट नहीं है, वहां उन्होंने उदाहरण दिए हैं- तो उनकी बातों में वजन लगता है ।
लेकिन माओवादियों के समर्थन में लिखे गए इस लेख को लिखते वक्त अरुंधति के सामने इस हिंसा के शिकार हुए लोगों के परिवारों के बिलखते चेहरे नहीं आए होंगे क्योंकि अगर आपने एक खास किस्म का चश्मा पहन लिया है तो आपको वही दिखाई देगा जो आप देखना चाहेंगी । अरुंधति को उड़ीसा के डोंगरिया कोंध की याद और उनका दर्द तो दिखाई देता है लेकिन माओवादियों की गोलियों के शिकार बने झारखंड के पुलिस इंसपेक्टर फ्रांसिस इंदुवर के परिवार का दर्द नहीं दिखाई देता । उसके छोटे बच्चे का वो बयान नहीं सुनाई दिया होगा जिसमें उसने बिलखते हुए कहा था कि मैं अपने पापा के हत्यारों से बदला लूंगा । अरुंधति को तो सिर्फ ये दिखता है कि पुलिसवाले आदिवासियों पर कितना अत्याचार करते हैं । क्या कभी किसी पुलिसवाले ने किसी भी माओवादी को उस बर्बर तरीके से कत्ल किया जिस तरह से गला रेत कर फ्रांसिस इंदुवर को मार डाला गया ।
अरुंधति जैसे लोगों का तर्क है कि अपनी जमीन लुटती देख कर माओवादियों ने हथियार उठा लिए हैं । लेकिन हाल के दिनों में जिस तरह से परंपरागत हथियारों की जगह अति आधुनिक हथियारों ने ली है वो ना सिर्फ चौंकानेवाला है बल्कि गंभीर विमर्श की मांग भी करता है कि तीर धनुष की जगह एके सैंतालीस कहां से आ गया । कौन सी ताकतें माओवादियों को हथियारों के लिए फंड उपलब्ध करवा रही हैं । जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है कि इनके सरगना कोटेश्नर राव की सुरक्षा में लगे लोगों के पास एके सैंतालीस हैं वैसे ही अत्याधुनिक हथियार संकरैल थाने पर हमला करनेवालों के हाथों में भी था जिसकी बदौलत उन्होंने वहां एक स्थानीय बैंक को लूटा था । सरकार को इन स्त्रोंतो का पता लगाने और उसे बंद करने की जरूरत है ।
अरुंधति ने अपने इस लेख में केंद्रीय गृहमंत्री पी चिदंबरम पर भी जमकर हमला बोला है और उन्हें इस बात की भी तकलीफ है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने चिंदबरम की तारीफ क्यों की । किसी की नजर में कोई अगर अच्छा काम कर रहा है तो क्या तारीफ सिर्फ इसलिए नहीं की जानी चाहिए कि वो विरोधी दल का सदस्य है । ये वह मानसिकता है जो इस तारीफ को भी हिंदू फंडामेंटलिज्म से जोड़कर भ्रम फैलाता है ।
अगर हम थोड़ा पीछ जाएं तो इस तरह के लेख और पत्र बुद्धिजीवियों ने लिखें हैं । 27 दिसंबर 1997 को महाश्वेता देवी ने भी पत्र लिखकर सीपीआई एमएल को बिहार में बदला लेने का आह्वाण किया था । उस वक्त भी महाश्वेता देवी के उस पत्र का खासा विरोध हुआ था । अब ये सारे लोग एक बार फिर से माओवादियों के समर्थन में खड़े हो गए हैं लेकिन इनमें से किसी भी बुद्धिजीवी ने फ्रांसिस इंदुवर, दिवाकर भट्टाचार्य और जयराम हासदा और लक्ष्मी दास की बर्बर हत्या के खिलाफ ना तो एक शब्द बोला और ना ही लिखा । साफ जाहिर है कि इनकी मंशा क्या है ।
Monday, November 9, 2009
बड़े दिलवाले प्रभाष जी
आज से लगभग सात साल पहले की बात है जब नामवर सिंह पचहत्तर साल के हुएथे और प्रभाष जोशी की पहल पर देशभर में उनका जन्मदिन- नामवर के निमित्त- मनाया गया था । अब ठीक से याद नहीं है लेकिन दो हजार दो में ही हंस और एक दो जगह पर मैंने इस आयोजन को लेकर कई आलोचनात्मक लेख लिखे थे । ऐसा ही एक लेख हंस में – कारण कवण नाथ मोहे मारा- के शीर्षक से भी छपा था । बात आई गई हो गई थी । अचानक एक दिन फोन की घंटी बजी और जब मैंने उठाया तो उधर से आवाज आई क्या क्या अनंत से बात हो सकती है । मेरे जबाव देने पर फिर आवाज आई प्रभाष जोशी बोल रहा हूं । मैंने आदरपूर्वक नमस्कार किया तो उन्होंने कहा कि – बेटा हमीं पर शुरू हो गए । मैं डर से चुप रहा । चंद पलों के सन्नाटे के बाद प्रभाष जी ने ठहाका लगाया और कहा जमकर लिखते रहो और डरो मत । अगर तुम्हारी कलम में ताकत है और बगैर किसी पूर्वग्रह के लिख रहे हो तो बेखौफ अपनी बात रखो । फिर हाल चाल पूछा, परिवार में कौन लोग हैं यह दरियाफ्त करने के बाद फोन रखते हुए कहा कि जब वक्त मिले मिलना । फोन रखने के बाद मैं सिर्फ यह सोचकर खुश हो रहा था कि मेरे लेख का प्रभाष जी ने नोटिस लिया और फोन कर मुझे इस बात का एहसास भी करवाया । बात आई गई हो गई ।
दो साल बाद प्रभाष जी से मेरी दूसरी मुलाकात पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के घर पर हुई । वी पी सिंह के घर कुछ साहित्यकारों और पत्रकारों की मुलाकात और गपशप का एक कार्यक्रम रखा गया था और प्रभाष जी समेत कई लोग वहां पहुंचे थे । ऑफ व्हाइट धोती कुर्ता पहने प्रभाष जी जब लोगों से मिलजुलकर खड़े तो तो मैं भी हिम्मत कर उनके पास पहुंचा और अपना परिचय दिया । झट से उन्होंने नामवर सिंह से कहा कि देखो यही हैं अनंत विजय जिन्होंने नामवर के निमित्त पर हंस में लेख लिखा था । नामवर जी ने मुस्कुराते हुए कहा कि मैं जानता हूं कि आजकल ये साहित्य के मैदान में तलवारबाजी कर रहे हैं । मैं तो अंदर ही अंदर इस बात से खुश हो रहा था कि दो साल बाद भी प्रबाष जी को मेरा लिखा याद है और दूसरे यह कि नामवर सिंह जैसे दिग्गज मुझे मेरे लेख से पहचानते हैं । खुशी से मैं फूला नहीं समा रहा था । फिर प्रभाष जी ने मेरा हौसला बढ़ाया और कहा कि लिखते रहो लेकिन सिर्फ यह बात ध्यान में रखना कि कोई तुम्हारा इस्तेमाल कर अपना हित ना साध ले । इस बीच मुझे उनकी किताब हिंदू होने का धर्म मिल चुकी थी और मैंने उसके संदर्भ में कई बातें प्रभाष जी से पूछी और जानी । उन्होंने मुझे इंडियन साधूज पढ़ने की सलाह दी । लेकिन बाद में कई बार उनसे स्टूडियो में उनसे मुलाकात हुई लेकिन गंभीर बातचीत का अवसर नहीं मिला जो अब कभी मिल भी नहीं पाएगा क्योंकि 5 नबंवर की रात प्रभाष जी हम सब को छोड़कर चले गए ।
कुछ दिनों पहले प्रभाष जी ने एक बेवसाइट को दिए इंटरव्यू में कहा था कि वो अपनी आत्मकथा लिखना चाहते हैं । प्रभाष जी ने उसका शीर्षक दे भी दिया था – ओटत रहे कपास । लेकिन मासूम नहीं कि वो कितना कपास ओट पाए । अगर उन्होंने लिख दिया होगा तो यह किताब बेहद दिलचस्प होगी, भाषा औक कंटेंट दोंनों के लिहाज से । क्योंकि प्रभाष जी भाषा के साथ खेलते थे । प्रभाष जी को इस बात का श्रेय जाता है कि जब उन्होंने जनसत्ता का संपादन संभाला तो अखबारों की भाषा बेहद शास्त्रीय हुआ करती थी और संपादकों में यह हिम्मत नहीं थी कि वो भाषा को जनोन्मुख बना सकें । प्रबाष जी ने यह साहस दिखाया और अखबारों की भाषा के व्याकरण को आमूल चूल बदल दिया । बाद में इस तरह की भाषा का अनुसरण अखबारों ने और टीवी चैनलों ने अपनाया । न्यूज चैनल में काम करनेवाले हमारे मित्र यह जानते हैं कि बार-बार उनसे कहा जाता है कि आम आदमी की भाषा लिखो । प्रभाष जी ने अप्रैल 1992 से जनसत्ता में अपना साप्ताहिक कॉलम शुरू किया- कागद कारे । कुछ हफ्तों को छोड़कर यह कॉलम चलता रहा और इस कॉलम को पढनेवाले यह जानते हैं कि प्रभाष जी ने हिंदी में लोकभाषा को किस तरह मिलाकर भाषा का एक नया मुहावरा गढा और उसे पाठकों के बीच स्वीकार्य ही नहीं बनाया बल्कि लोकप्रिय बनाकर स्थापित भी किया । और उनकी इसी भाषा के चलते रामनाथ गोयनका ने प्रभाष जी को अपने साथ जोड़ा और पहले प्रजानीति फिर इंडियन एक्सप्रेस फिर बाद में जनसत्ता का संपादक बनाया ।
प्रभाष जी ने पत्रकारिता की शुरुआत नई दुनिया अखबार से की । लेकिन फिर दिल्ली आ गए और अपनी भाषा और पत्रकारिता के नए तौर तरीके के बलबूते ना केवल खुद को स्थापित किया बल्कि पत्रकारों की एक पूरी पीढ़ी ही खड़ी कर दी जिसे लोग प्रभाष जोशी स्कूल ऑप जर्नलिज्म कहने लगे । प्रबाष जोशी पत्रकार के साथ-साथ एक्टिविस्ट भी थे । जब इंदिरा गांधी ने देश में इमरजेंसी लगाई तो प्रभाष जी ने लोकनायक जयप्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति आंदोलन के साथ हो लिए और बेहद सक्रिया के साथ इमरजेंसी का विरोध किया। उस दौर में लोग ये कहते थे कि दो ही संपादक इंदिरा गांधी के निशाने पर हैं मुलगांवकर और प्रभाष जोशी । बाद में यह साबित भी हुआ और प्रभाष जोशी को जयप्रकाश के समर्थन की कीमत भी चुकानी पड़ी । लेकिन संघर्ष के उन दिनों ने प्रभाष जोशी ने जमकर अध्ययन किया, जिसका असर बाद के दिनों में उनके लेखन पर दिखाई दिया । प्रभाष जोशी के लेखन का रेंज बहुत व्यापक था । वो समान अधिकार से राजनीति, फिल्म, खेल और साहित्य पर लिख सकते थे । बहुत कम लोगों को यह बात पता होगी कि प्रभाष जी ने फिल्म पर एक पत्रिका का संपादन भी किया था । वो लंदन के अखबार में भी काम कर चुके थे । हिंदी साहित्या का भी प्रभाष जी ने गहन अध्ययन किया था और गाहे बगाहे उसपर अपनी राय भी जाहिर करते रहते थे लेकिन आज जब प्रबाष जी नहीं रहे तो ऐसा लगता है कि हिंदी की एक ऐसी आवाज खामोश हो गई जो लगातार सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नकली और आक्रामक तत्वों के बरक्स हिंदू होने के असली धर्म और मर्म को उभार रहा था ।
दो साल बाद प्रभाष जी से मेरी दूसरी मुलाकात पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के घर पर हुई । वी पी सिंह के घर कुछ साहित्यकारों और पत्रकारों की मुलाकात और गपशप का एक कार्यक्रम रखा गया था और प्रभाष जी समेत कई लोग वहां पहुंचे थे । ऑफ व्हाइट धोती कुर्ता पहने प्रभाष जी जब लोगों से मिलजुलकर खड़े तो तो मैं भी हिम्मत कर उनके पास पहुंचा और अपना परिचय दिया । झट से उन्होंने नामवर सिंह से कहा कि देखो यही हैं अनंत विजय जिन्होंने नामवर के निमित्त पर हंस में लेख लिखा था । नामवर जी ने मुस्कुराते हुए कहा कि मैं जानता हूं कि आजकल ये साहित्य के मैदान में तलवारबाजी कर रहे हैं । मैं तो अंदर ही अंदर इस बात से खुश हो रहा था कि दो साल बाद भी प्रबाष जी को मेरा लिखा याद है और दूसरे यह कि नामवर सिंह जैसे दिग्गज मुझे मेरे लेख से पहचानते हैं । खुशी से मैं फूला नहीं समा रहा था । फिर प्रभाष जी ने मेरा हौसला बढ़ाया और कहा कि लिखते रहो लेकिन सिर्फ यह बात ध्यान में रखना कि कोई तुम्हारा इस्तेमाल कर अपना हित ना साध ले । इस बीच मुझे उनकी किताब हिंदू होने का धर्म मिल चुकी थी और मैंने उसके संदर्भ में कई बातें प्रभाष जी से पूछी और जानी । उन्होंने मुझे इंडियन साधूज पढ़ने की सलाह दी । लेकिन बाद में कई बार उनसे स्टूडियो में उनसे मुलाकात हुई लेकिन गंभीर बातचीत का अवसर नहीं मिला जो अब कभी मिल भी नहीं पाएगा क्योंकि 5 नबंवर की रात प्रभाष जी हम सब को छोड़कर चले गए ।
कुछ दिनों पहले प्रभाष जी ने एक बेवसाइट को दिए इंटरव्यू में कहा था कि वो अपनी आत्मकथा लिखना चाहते हैं । प्रभाष जी ने उसका शीर्षक दे भी दिया था – ओटत रहे कपास । लेकिन मासूम नहीं कि वो कितना कपास ओट पाए । अगर उन्होंने लिख दिया होगा तो यह किताब बेहद दिलचस्प होगी, भाषा औक कंटेंट दोंनों के लिहाज से । क्योंकि प्रभाष जी भाषा के साथ खेलते थे । प्रभाष जी को इस बात का श्रेय जाता है कि जब उन्होंने जनसत्ता का संपादन संभाला तो अखबारों की भाषा बेहद शास्त्रीय हुआ करती थी और संपादकों में यह हिम्मत नहीं थी कि वो भाषा को जनोन्मुख बना सकें । प्रबाष जी ने यह साहस दिखाया और अखबारों की भाषा के व्याकरण को आमूल चूल बदल दिया । बाद में इस तरह की भाषा का अनुसरण अखबारों ने और टीवी चैनलों ने अपनाया । न्यूज चैनल में काम करनेवाले हमारे मित्र यह जानते हैं कि बार-बार उनसे कहा जाता है कि आम आदमी की भाषा लिखो । प्रभाष जी ने अप्रैल 1992 से जनसत्ता में अपना साप्ताहिक कॉलम शुरू किया- कागद कारे । कुछ हफ्तों को छोड़कर यह कॉलम चलता रहा और इस कॉलम को पढनेवाले यह जानते हैं कि प्रभाष जी ने हिंदी में लोकभाषा को किस तरह मिलाकर भाषा का एक नया मुहावरा गढा और उसे पाठकों के बीच स्वीकार्य ही नहीं बनाया बल्कि लोकप्रिय बनाकर स्थापित भी किया । और उनकी इसी भाषा के चलते रामनाथ गोयनका ने प्रभाष जी को अपने साथ जोड़ा और पहले प्रजानीति फिर इंडियन एक्सप्रेस फिर बाद में जनसत्ता का संपादक बनाया ।
प्रभाष जी ने पत्रकारिता की शुरुआत नई दुनिया अखबार से की । लेकिन फिर दिल्ली आ गए और अपनी भाषा और पत्रकारिता के नए तौर तरीके के बलबूते ना केवल खुद को स्थापित किया बल्कि पत्रकारों की एक पूरी पीढ़ी ही खड़ी कर दी जिसे लोग प्रभाष जोशी स्कूल ऑप जर्नलिज्म कहने लगे । प्रबाष जोशी पत्रकार के साथ-साथ एक्टिविस्ट भी थे । जब इंदिरा गांधी ने देश में इमरजेंसी लगाई तो प्रभाष जी ने लोकनायक जयप्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति आंदोलन के साथ हो लिए और बेहद सक्रिया के साथ इमरजेंसी का विरोध किया। उस दौर में लोग ये कहते थे कि दो ही संपादक इंदिरा गांधी के निशाने पर हैं मुलगांवकर और प्रभाष जोशी । बाद में यह साबित भी हुआ और प्रभाष जोशी को जयप्रकाश के समर्थन की कीमत भी चुकानी पड़ी । लेकिन संघर्ष के उन दिनों ने प्रभाष जोशी ने जमकर अध्ययन किया, जिसका असर बाद के दिनों में उनके लेखन पर दिखाई दिया । प्रभाष जोशी के लेखन का रेंज बहुत व्यापक था । वो समान अधिकार से राजनीति, फिल्म, खेल और साहित्य पर लिख सकते थे । बहुत कम लोगों को यह बात पता होगी कि प्रभाष जी ने फिल्म पर एक पत्रिका का संपादन भी किया था । वो लंदन के अखबार में भी काम कर चुके थे । हिंदी साहित्या का भी प्रभाष जी ने गहन अध्ययन किया था और गाहे बगाहे उसपर अपनी राय भी जाहिर करते रहते थे लेकिन आज जब प्रबाष जी नहीं रहे तो ऐसा लगता है कि हिंदी की एक ऐसी आवाज खामोश हो गई जो लगातार सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नकली और आक्रामक तत्वों के बरक्स हिंदू होने के असली धर्म और मर्म को उभार रहा था ।
Friday, November 6, 2009
पत्रों से छंटती धुंध
अस्सी के दशक की एक फिल्म में नोबेल पुरस्कार विजेता और अंग्रेजी कविता को नई दिशा देनेवाले कवि टी एस इलियट के पारिवारिक जीवन के कई अनछुए पहलुओं को दर्शाया गया था जिसको लेकर अच्छा खासा विवाद खड़ा हो गया था । इलियट पर यह आरोप लगता रहा है कि वो एक क्रूर पति थे और अपनी पहली पत्नी विवियन पर तमाम जुल्म किया करते थे । इसको लेकर इंग्लैंड और अमेरिका में अच्छा खासा विवाद भी रहा है और इलियट के जीवन काल में उनपर जमकर हमले भी हुए और उन्हें तमाम आलोचनाएं झेलनी पड़ी । दरअसल अगर हम इलियट के जीवन के पन्नों को थोड़ा पलटें तो बेहद दिलचस्प कहानी सामने आती है । ये उन्नीस सौ पंद्रह के वसंत की बात है जब हॉवर्ड में ‘डॉयल’ के संपादक सियोफील्ड थायर ने अपनी बहन की दोस्त और डांसर विवियन वुड से इलियट को मिलवाया । वसंत का मौसम था, पहचान को प्यार में बदलते देर नहीं लगी और इलियट ने परिवार की मर्जी के खिलाफ विवियन से शादी रचा ली । लेकिन इसके बाद के संघर्ष ने दोनों के रिश्तों के बीच खटास ला दी । एक वजह विवयन की बर्टेंड रसेल से नजदीकी भी रही । संघर्ष के दिनों में इलियट अपनी पत्नी के साथ रसेल के घर रह रहे थे , उस दौरान कुछ समय के लिए बर्टेंड रसेल और विवियन एक दूसरे के बेहद करीब आ गए थे । इस करीबी ने पति-पत्नी के रिश्ते में दरार डाल दी । संबंध बनते बिगड़ते रहे लेकिन दस साल के बाद दोनों अलग रहने लगे और अपने धार्मिक विश्वास के चलते तलाक नहीं ली । पति से अलग रहने और साथ होने की तमाम कोशिशों के नाकामयाब होने से विवयन को जो मानसिक तनाव और अवसाद हुआ उसने उसे अंदर से तोड़ दिया । हालात इतने बिगड़े कि उसे लंदन के एक मानसिक आरोग्यशाला में भर्ती करवाना पड़ा । तबियत ठीक होने की बजाए बिगड़ती चली गई और विवयन उन्नीस सौ सैंतीस में गुमनामी में उसकी मौत हो गई । यह वो वक्त था जब इलियट को अंग्रेजी कविता की दुनिया में प्रसिद्धि और प्रतिष्ठा दोनों हासिल हो रही थी । आलोचकों का आरोप है कि अपने करियर के चक्कर में इलियट ने अपनी पत्नी पर समुचित ध्यान नहीं दिया और उसे उसके हाल पर मरने के लिए छोड़ दिया । कालांतर में इलियट ने दूसरी शादी भी रचाई ।
लेकिन इलियट की मौत के चालीस साल बाद ये तमाम आरोप खारिज होते नजर आ रहे हैं । इलियट की दूसरी पत्नी के वैलेरी ने इलियट के कुछ पत्रों का संग्रह प्रकाशित किया है जो बीस से तीस के दशक में इलियट ने अपने भाई और अपने साहित्यिक मित्रों को लिखा था । इन पत्रों से यह साफ जाहिर होता है कि इलियट अपनी पहली पत्नी की बीमारी को लेकर बेहद दुखी रहा करते थे । विवयन की देखभाल करनेवाले डॉक्टरों को कोसते हुए इलियट ने उन्हें जर्मन ब्रूट और अपनी हुनर का दंभ भरनेवाला डॉक्टर करार दे रहे थे । उन्होंने एक पत्र में लिखा कि वो अपनी पत्नी की बीमारी से इतने तंग आ चुके हैं कि वो आत्महत्या करना चाहते हैं ।
अप्रैल उन्नीस सौ चौबीस में इलियट ने अपने भाई को लिखा- ‘विवियन की पिछली बीमारी और उसकी वजह से जो कष्ट झेल रही है, मैं उसका वर्णन नहीं कर सकता । मैं उसे तीन महीने के लिए अकेला भी नहीं छोड़ सकता ।‘ जब उन्नीस सौ सत्ताइस में इलियट ने अमेरिका की नागरिकता छोड़ कर ब्रिटिश नागरिकता स्वीकार की तो उपन्यासकार जॉन मिडिल्टन मरे को एक पत्र लिखा-‘ मेरी पत्नी की तीबयत बेहद खराब है और अब तो हालता इतने बिगड़ चुके हैं कि पिछले तीन दिनों से वह ये सोच रही है कि उसके शरीर और दिमाग का साथ छूट चुका है । अपने दुख और संत्रास का वर्णन करते हुए इलियट ने यहां तक लिख दिया कि मैंने जानबूझकर अपनी भावनाओं का कत्ल कर दिया है, अपने आपको मार दिया है ताकि मैं विवियन को ये एहसास दिला सकूं कि कोई उसका ध्यान रखनेवाला है । मरे को ही एक दूसरे खत में इलियट ने ये लिखा कि - विवयन की तबीयत बहुत खराब है और कई बार तो ये लगता है कि वो मौत उसके बिल्कुल पास खड़ी है ये उसके जीवन का सबसे खराब पल हैं और वो किस्मत के सहारे ही जीवित है । इलियट के इस पत्र को उनकी दूसरी पत्नी के सक्रिय सहयोग से प्रकाशित किया गया है । इन पत्रों से इलियट की क्रूर पति और एंटी सीमेटिक की जो छवि थी वो धव्स्त होती लग रही है । लेकिन पत्रों के इस संग्रह के प्रकाशन के पहले ही पश्चिमी मीडिया में इसको लेकर अच्छी खासी साहित्यिक बहस शुरू हो गई है और इलियट के समर्थकों ने आरोप लगानेवाले आलोचकों पर हल्ला बोल दिया है । अब यह देखना दिलचस्प होगा कि ये बहस किस दिशा में मुड़ती है और अंग्रेजी के महानतम कवियों में से एक इलियट को लेकर अंग्रेजी आलोचकों का क्या रुख होता है ।
लेकिन इलियट की मौत के चालीस साल बाद ये तमाम आरोप खारिज होते नजर आ रहे हैं । इलियट की दूसरी पत्नी के वैलेरी ने इलियट के कुछ पत्रों का संग्रह प्रकाशित किया है जो बीस से तीस के दशक में इलियट ने अपने भाई और अपने साहित्यिक मित्रों को लिखा था । इन पत्रों से यह साफ जाहिर होता है कि इलियट अपनी पहली पत्नी की बीमारी को लेकर बेहद दुखी रहा करते थे । विवयन की देखभाल करनेवाले डॉक्टरों को कोसते हुए इलियट ने उन्हें जर्मन ब्रूट और अपनी हुनर का दंभ भरनेवाला डॉक्टर करार दे रहे थे । उन्होंने एक पत्र में लिखा कि वो अपनी पत्नी की बीमारी से इतने तंग आ चुके हैं कि वो आत्महत्या करना चाहते हैं ।
अप्रैल उन्नीस सौ चौबीस में इलियट ने अपने भाई को लिखा- ‘विवियन की पिछली बीमारी और उसकी वजह से जो कष्ट झेल रही है, मैं उसका वर्णन नहीं कर सकता । मैं उसे तीन महीने के लिए अकेला भी नहीं छोड़ सकता ।‘ जब उन्नीस सौ सत्ताइस में इलियट ने अमेरिका की नागरिकता छोड़ कर ब्रिटिश नागरिकता स्वीकार की तो उपन्यासकार जॉन मिडिल्टन मरे को एक पत्र लिखा-‘ मेरी पत्नी की तीबयत बेहद खराब है और अब तो हालता इतने बिगड़ चुके हैं कि पिछले तीन दिनों से वह ये सोच रही है कि उसके शरीर और दिमाग का साथ छूट चुका है । अपने दुख और संत्रास का वर्णन करते हुए इलियट ने यहां तक लिख दिया कि मैंने जानबूझकर अपनी भावनाओं का कत्ल कर दिया है, अपने आपको मार दिया है ताकि मैं विवियन को ये एहसास दिला सकूं कि कोई उसका ध्यान रखनेवाला है । मरे को ही एक दूसरे खत में इलियट ने ये लिखा कि - विवयन की तबीयत बहुत खराब है और कई बार तो ये लगता है कि वो मौत उसके बिल्कुल पास खड़ी है ये उसके जीवन का सबसे खराब पल हैं और वो किस्मत के सहारे ही जीवित है । इलियट के इस पत्र को उनकी दूसरी पत्नी के सक्रिय सहयोग से प्रकाशित किया गया है । इन पत्रों से इलियट की क्रूर पति और एंटी सीमेटिक की जो छवि थी वो धव्स्त होती लग रही है । लेकिन पत्रों के इस संग्रह के प्रकाशन के पहले ही पश्चिमी मीडिया में इसको लेकर अच्छी खासी साहित्यिक बहस शुरू हो गई है और इलियट के समर्थकों ने आरोप लगानेवाले आलोचकों पर हल्ला बोल दिया है । अब यह देखना दिलचस्प होगा कि ये बहस किस दिशा में मुड़ती है और अंग्रेजी के महानतम कवियों में से एक इलियट को लेकर अंग्रेजी आलोचकों का क्या रुख होता है ।
Tuesday, November 3, 2009
सवा सात सौ पन्नों में फैला प्रेम
लगभग तीन साल पहले जब रवीन्द्र कालिया नया ज्ञानोदय के संपादक होकर दिल्ली आए थे तो साहित्य की दुनिया में हंस और राजेन्द्र यादव का सिक्का चल रहा था । जब कालिया नया ज्ञानोदय के संपादक बन कर आए तो राजेन्द्र यादव से नाराज लेखक और लेखिकाएं कालिया के इर्द दिर्द इकट्ठा होने लगे, उन्हें लगा कि अब वो राजेन्द्र यादव को नीचा दिखाने के लिए रवीन्द्र कालिया और नया ज्ञानोदय के मंच का इस्तेमाल कर पाएंगे । कुछ लोगों का कहना था कि रवीन्द्र कालिया दिल्ली की साहित्यिक राजनीति को समझ नहीं पाएंगे और उसके शिकार हो जाएंगे । लेकिन कालिया ने तमाम अटकलों को विराम लगाते हुए ना केवल नया ज्ञानोदय को एक नई दिशा और तेवर प्रदान किया बल्कि अपने संपादकीय कौशल का भी लोहा मनवा लिया और लेखक लेखिकाओं का एक मजबूत खेमा खड़ा भी कर लिया । ज्ञानोदय के नियमित पाठकों को इस बात का अंदाजा लगाने में दिक्कत नहीं होगी । हलांकि बीच में एक दो बार उनकी कुर्सी हिलती नजर आई लेकिन तमाम दांव पेंच को धता बताते हुए रवीन्द्र कालिया नया ज्ञानोदय के संपादक और भारतीय ज्ञानपीठ के निदेशक बने रहे और अब तो अगले तीन साल के लिए फिर से उसी पद पर नियुक्त कर दिए गए हैं ।
रवीन्द्र कालिया के ज्ञानोदय के संपादक बनने के पहले हंस और राजेन्द्र यादव हिंदी साहित्य का एजेंडा सेट किया करते थे । लेकिन जब मई दो हजार सात में कालिया के संपादन में युवा पीढी विशेषांक निकला तो पहली बार ऐसा लगा कि हंस के अलावा कोई और पत्रिका है जो साहित्य का एजेंडा सेट कर सकती है । संपादक ने दावा किया कि दो हजार सात में छपे युवा पीढी विशेषांक की मांग इतनी ज्यादा हुई थी कि उसे पुनर्मुद्रित करना पडा़ था । नया ज्ञानोदय के उक्त अंक को लेकर उस वक्त अच्छा खासा बवाल भी मचा था लेकिन आखिरकार रचना ही बची रहती है सो उस अंक का एक स्थायी महत्व बना रहा । लगभग दो साल बाद हंस ने भी अजय नावरिया के संपादन में युवा अंक निकाला लेकिन हंस का विशेषांक ज्ञानोदय के विशेषांक के आस पास भी नहीं टिक सका ।
अब कालिया के संपादन में पिछले चार अंको से ज्ञानोदय का प्रेम विशेषांक निकल रहा है और संपादक ने एक बार फिर दावा किया है कि इस विशेषांकों की कड़ी के पहले अंक को पाठकों की मांग पर कई बार प्रकाशित करना पड़ रहा है । आज जब हिंदी के साहित्यिक पत्रिकाओं के संपादक पाठकों की कमी और बिक्री ना होने का रोना रो रहे हैं ऐसे में कालिया का ये दावा उनका बड़बोलापन लग सकता है लेकिन उस पर अविश्वास की कोई वजह दिखाई नहीं देती ।
अब बात करें प्रेम महाविशेषांको की । संपादक ने लिखा- हमने प्रेम विशेषांक प्रकाशित करने की योजना बनाई तो लगा कि हम एक ऐसे सघन वन में प्रवेश कर गए हैं जहां से बाहर निकल पाना सरल नहीं है । रास्ते बंद हैं सब कूचा-ए-कातिल के सिवा । यहीं पर कालिया ने ये संकेत कर दिया था कि प्रेम विशेषांक की सीरीज चार अंको तक जा सकती है । पहले अंक में हिंदी और उर्दू की पांच- पांच प्रेम कहानियों को प्रकाशित किया गया है । इसके अलावा इस अंक में अन्य भारतीय भाषाओं और विदेशी भाषाओं की पांच कालजयी प्रेम कहानियों को प्रकाशित किया गया है, जिनमें चंद्रधर शर्मा गुलेरी, फणीश्वरनाथ रेणु, मन्नू भंडारी, जयशंकर प्रसाद, इस्मत चुगताई, राजिन्दर सिंह बेदी, वैकम मुहम्मद बशीर, चेखव, मार्केस आदि प्रमुख हैं । इस अंक में प्रेम कहानियों के अलावा कालजयी प्रेम कविताओं को भी जगह दी गई है । साथ ही शरतचंद्र चट्टोपाध्याय के कालजयी उपन्यास-देवदास- का नया अनुवाद युवा कथाकार और कालिया के प्रिय कुणाल सिंह ने किया है । इस नए अनुवाद में कुणाल सिंह ने कोई वैल्यू एडिशन किया हो ऐसा पहली नजर में लगता नहीं है ।
दूसरे अंक में उपन्यासकार और महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति विभूति नारायण राय का नया उपन्यास प्रेम की भूतकथा प्रकाशित हुई है । विभूति नाराय़ण राय के यह उपन्यास इस अंक की उपलब्धि है । सौ साल पहले के मसूरी को केंद्र में रखकर लिखा गया यह उपन्यास बेहतर बन पड़ा है। पाठकों को विभूति के इस उपन्यास में प्रेम की एक नई अनुभूति का एहसास होगा और मुझे लगता है कि आनेवाले दिनों में यह उपन्यास पाठकों के साथ-साथ आलोचकों का ध्यान भी अपनी ओर खींचेगा । इस अंक में मधु कांकरिया, राजेन्द्र राव, रजनी गुप्ता की प्रेम कहानियां उल्लेखनीय हैं । कविताओं का संयोजन बुद्धिनाथ मिश्र ने किया है और बच्चन से लेकर अनूप अशेष तक की कविताएं संकलित की गई हैं । इनमें अगर कुछ कविताओं को छोड़ भी दिया जाता तो कोई फर्क नहीं पड़ता । दूसरा अंक आते आते ज्ञानोदय के कवर भी प्रेम झलकने लगा और एक खूबसूरत महिला की तस्वीर ने यहां कब्जा जमा लिया ।
सितंबर में प्रेम महाविशेषांक की तीसरी कड़ी प्रकाशित हुई । इसके कवर पर राजकपूर और नर्गिस की छतरीवाली मशहूर तस्वीर है । यह अंक प्रेम का युवा पक्ष पर केंद्रित है । पता नहीं कवर पर यह कैप्शन क्यों लगाया गया है क्योंकि मेरा मानना है कि प्रेम तो हमेशा युवा ही रहता है । इस अंक में महुआ माजी, अनुज और राकेश मिश्र की कहानी को रेखांकित किया जा सकता है । रवि बुले की कहानी हलांकि थोड़ी उलझी हुई है लेकिन एक खास वर्ग के पाठकों को यह कहानी पसंद आ सकती है । कविताओं में पंकज राग, यतीन्द्र मिश्र ,पवन करण , प्रज्ञा रावत, हर्षवर्धन, विनय सौरभ और वर्तिका नंदा की कविताएं पठनीय हैं ।
प्रेम विशेषांक का चौथा अंक युवा रचनाशीलता पर केंद्रित है और इसमें हिंदी की कुछ और चुनिंदा प्रेम कहानियों को प्रकाशित किया गया है । यहां शर्मिला बोहरा जालान की कहानी सिर्फ कॉफी, मनीषा कुलश्रेष्ठ की गन्धर्व गाथा, राजुला शाह की नीला और ओम प्रकाश तिवारी की एक लड़की पहेली सी में प्रेम तीव्रता के साथ साथ अलग अलग रंग देखे जा सकते हैं । कमलेश्वर की नीली झील छापकर संपादक ने पहले अंक में हुई अपनी भूल को सुधार लिया है । कृष्ण बिहारी की लंबी कहानी स्वेत, स्याम, रतनार छपी है जो बेहद लंबी है और कहीं कहीं उबाती भी है । इस कहानी को अगर संपादित कर इसकी कथा में अनावश्यक विस्तार की चूलें कस दी जाती तो बेहतर बन सकती थी । इस अंक में कविताएं कमजोर हैं और अगर ना भी छापी गई होती तो कोई फर्क नहीं पड़ता । विजय मोहन सिंह के सारगर्भित लेख भी इन अंकों में है । साथ ही कांति कुमार जैन और लाल बहादुर वर्मा ने भी प्रेम को केंद्र में रखकर विद्वतापूर्ण आलेख लिखे हैं । इन चार अंको पर अगर समग्रता से विचार करें तो कालिया का संपादकीय कौशल तो सामने आता ही है साथ ही बाजर को पहचानने और उसका अपने हित में इस्तेमाल करने की संपादकीय दृष्टि भी सामने आती है । कालिया के संपादन में जब वर्तमान साहित्य का कहानी महाविशेषांक छपा था तब भी उन दोनों अंको की खासी चर्चा हुई थी और साहित्य की दुनिया में वो अंक अब भी मील के पत्थर हैं । इन अंकों के बाद यह देखना दिलचस्प होगा कि रवीन्द्र कालिया स्त्री विमर्श पर केंद्रित कोई विशेषांक निकालकर सीधे-सीधे राजनेद्र यादव को चुनौती देते हैं या फिर इसी सरह साहित्य का एजेंडा सेट कर आनंदित होते रहते हैं ।
रवीन्द्र कालिया के ज्ञानोदय के संपादक बनने के पहले हंस और राजेन्द्र यादव हिंदी साहित्य का एजेंडा सेट किया करते थे । लेकिन जब मई दो हजार सात में कालिया के संपादन में युवा पीढी विशेषांक निकला तो पहली बार ऐसा लगा कि हंस के अलावा कोई और पत्रिका है जो साहित्य का एजेंडा सेट कर सकती है । संपादक ने दावा किया कि दो हजार सात में छपे युवा पीढी विशेषांक की मांग इतनी ज्यादा हुई थी कि उसे पुनर्मुद्रित करना पडा़ था । नया ज्ञानोदय के उक्त अंक को लेकर उस वक्त अच्छा खासा बवाल भी मचा था लेकिन आखिरकार रचना ही बची रहती है सो उस अंक का एक स्थायी महत्व बना रहा । लगभग दो साल बाद हंस ने भी अजय नावरिया के संपादन में युवा अंक निकाला लेकिन हंस का विशेषांक ज्ञानोदय के विशेषांक के आस पास भी नहीं टिक सका ।
अब कालिया के संपादन में पिछले चार अंको से ज्ञानोदय का प्रेम विशेषांक निकल रहा है और संपादक ने एक बार फिर दावा किया है कि इस विशेषांकों की कड़ी के पहले अंक को पाठकों की मांग पर कई बार प्रकाशित करना पड़ रहा है । आज जब हिंदी के साहित्यिक पत्रिकाओं के संपादक पाठकों की कमी और बिक्री ना होने का रोना रो रहे हैं ऐसे में कालिया का ये दावा उनका बड़बोलापन लग सकता है लेकिन उस पर अविश्वास की कोई वजह दिखाई नहीं देती ।
अब बात करें प्रेम महाविशेषांको की । संपादक ने लिखा- हमने प्रेम विशेषांक प्रकाशित करने की योजना बनाई तो लगा कि हम एक ऐसे सघन वन में प्रवेश कर गए हैं जहां से बाहर निकल पाना सरल नहीं है । रास्ते बंद हैं सब कूचा-ए-कातिल के सिवा । यहीं पर कालिया ने ये संकेत कर दिया था कि प्रेम विशेषांक की सीरीज चार अंको तक जा सकती है । पहले अंक में हिंदी और उर्दू की पांच- पांच प्रेम कहानियों को प्रकाशित किया गया है । इसके अलावा इस अंक में अन्य भारतीय भाषाओं और विदेशी भाषाओं की पांच कालजयी प्रेम कहानियों को प्रकाशित किया गया है, जिनमें चंद्रधर शर्मा गुलेरी, फणीश्वरनाथ रेणु, मन्नू भंडारी, जयशंकर प्रसाद, इस्मत चुगताई, राजिन्दर सिंह बेदी, वैकम मुहम्मद बशीर, चेखव, मार्केस आदि प्रमुख हैं । इस अंक में प्रेम कहानियों के अलावा कालजयी प्रेम कविताओं को भी जगह दी गई है । साथ ही शरतचंद्र चट्टोपाध्याय के कालजयी उपन्यास-देवदास- का नया अनुवाद युवा कथाकार और कालिया के प्रिय कुणाल सिंह ने किया है । इस नए अनुवाद में कुणाल सिंह ने कोई वैल्यू एडिशन किया हो ऐसा पहली नजर में लगता नहीं है ।
दूसरे अंक में उपन्यासकार और महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति विभूति नारायण राय का नया उपन्यास प्रेम की भूतकथा प्रकाशित हुई है । विभूति नाराय़ण राय के यह उपन्यास इस अंक की उपलब्धि है । सौ साल पहले के मसूरी को केंद्र में रखकर लिखा गया यह उपन्यास बेहतर बन पड़ा है। पाठकों को विभूति के इस उपन्यास में प्रेम की एक नई अनुभूति का एहसास होगा और मुझे लगता है कि आनेवाले दिनों में यह उपन्यास पाठकों के साथ-साथ आलोचकों का ध्यान भी अपनी ओर खींचेगा । इस अंक में मधु कांकरिया, राजेन्द्र राव, रजनी गुप्ता की प्रेम कहानियां उल्लेखनीय हैं । कविताओं का संयोजन बुद्धिनाथ मिश्र ने किया है और बच्चन से लेकर अनूप अशेष तक की कविताएं संकलित की गई हैं । इनमें अगर कुछ कविताओं को छोड़ भी दिया जाता तो कोई फर्क नहीं पड़ता । दूसरा अंक आते आते ज्ञानोदय के कवर भी प्रेम झलकने लगा और एक खूबसूरत महिला की तस्वीर ने यहां कब्जा जमा लिया ।
सितंबर में प्रेम महाविशेषांक की तीसरी कड़ी प्रकाशित हुई । इसके कवर पर राजकपूर और नर्गिस की छतरीवाली मशहूर तस्वीर है । यह अंक प्रेम का युवा पक्ष पर केंद्रित है । पता नहीं कवर पर यह कैप्शन क्यों लगाया गया है क्योंकि मेरा मानना है कि प्रेम तो हमेशा युवा ही रहता है । इस अंक में महुआ माजी, अनुज और राकेश मिश्र की कहानी को रेखांकित किया जा सकता है । रवि बुले की कहानी हलांकि थोड़ी उलझी हुई है लेकिन एक खास वर्ग के पाठकों को यह कहानी पसंद आ सकती है । कविताओं में पंकज राग, यतीन्द्र मिश्र ,पवन करण , प्रज्ञा रावत, हर्षवर्धन, विनय सौरभ और वर्तिका नंदा की कविताएं पठनीय हैं ।
प्रेम विशेषांक का चौथा अंक युवा रचनाशीलता पर केंद्रित है और इसमें हिंदी की कुछ और चुनिंदा प्रेम कहानियों को प्रकाशित किया गया है । यहां शर्मिला बोहरा जालान की कहानी सिर्फ कॉफी, मनीषा कुलश्रेष्ठ की गन्धर्व गाथा, राजुला शाह की नीला और ओम प्रकाश तिवारी की एक लड़की पहेली सी में प्रेम तीव्रता के साथ साथ अलग अलग रंग देखे जा सकते हैं । कमलेश्वर की नीली झील छापकर संपादक ने पहले अंक में हुई अपनी भूल को सुधार लिया है । कृष्ण बिहारी की लंबी कहानी स्वेत, स्याम, रतनार छपी है जो बेहद लंबी है और कहीं कहीं उबाती भी है । इस कहानी को अगर संपादित कर इसकी कथा में अनावश्यक विस्तार की चूलें कस दी जाती तो बेहतर बन सकती थी । इस अंक में कविताएं कमजोर हैं और अगर ना भी छापी गई होती तो कोई फर्क नहीं पड़ता । विजय मोहन सिंह के सारगर्भित लेख भी इन अंकों में है । साथ ही कांति कुमार जैन और लाल बहादुर वर्मा ने भी प्रेम को केंद्र में रखकर विद्वतापूर्ण आलेख लिखे हैं । इन चार अंको पर अगर समग्रता से विचार करें तो कालिया का संपादकीय कौशल तो सामने आता ही है साथ ही बाजर को पहचानने और उसका अपने हित में इस्तेमाल करने की संपादकीय दृष्टि भी सामने आती है । कालिया के संपादन में जब वर्तमान साहित्य का कहानी महाविशेषांक छपा था तब भी उन दोनों अंको की खासी चर्चा हुई थी और साहित्य की दुनिया में वो अंक अब भी मील के पत्थर हैं । इन अंकों के बाद यह देखना दिलचस्प होगा कि रवीन्द्र कालिया स्त्री विमर्श पर केंद्रित कोई विशेषांक निकालकर सीधे-सीधे राजनेद्र यादव को चुनौती देते हैं या फिर इसी सरह साहित्य का एजेंडा सेट कर आनंदित होते रहते हैं ।
Thursday, October 29, 2009
संविधान को चुनौती
अभी कुछ दिनों पहले एक खबर पढ़कर चौंक गया । चित्तौड़गढ़ के वाणमाता में एक कुंवारी मां के दो साल के बच्चे के पिता का पता लगाने के लिए पंचायत बैठी । बगरिया समाज के इस पंचायत में युवती के मां बनने पर चली सुनवाई में ये सच सामने आई कि उसका जीजा ही उसके बच्चे का बाप है । युवक के इस सच को स्वीकारने के बाद पंचायत ने उसपर पंद्रह हजार का दंड लगाया और दो साल के बच्चे को उसे सौंप दिया । सवाल ये उठता है कि इस अपराध के लिए इतनी छोटी सी सजा माकूल है । लेकिन पंचायत का फैसला सर माथे पर लेते हुए लड़की ने अपने दो साल के बच्चे को उसके पिता को सौंप तो दिया लेकिन एक अनब्याही मां के दर्द को कौन समझेगा, जिसने ना केवल अपना कौमार्य गंवाया बल्कि जिंदगीभर समाज की जिल्लत झेलने को अभिशप्त हो गई । लेकिन पुरुष प्रधान समाज में महलाओं की फिक्र किसे हैं । ये सिर्फ चित्तौड़गढ़ की कहानी ही नहीं है बल्कि पंचायत का अलग कानून, राजस्था के अलावा, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बदस्तूर जारी है ।
कुछ दिनों पहले बिजनौर में हुई एक पंचायत के बाद हुई रंजिश में बाप बेटी ने दो लोगों को गोलियों से भून दिया था । दरअसल उस पंचायत के बीच खड़े सत्तर साल के बाप और उसकी बाइस साल की बेटी के बीच नाजायज रिश्तों का आरोप लगा था । इससे पहले कि वो दोनों अपनी सफाई में कुछ कह पाते पंचायत ने फरमान सुना दिया कि दोनों सुधर जाएं नहीं तो गांव से निकाल दिया जाएगा... इस मसले को लेकर तीन बार पंचायत हुई लेकिन चौथी पंचायत में भी जब इनकी सफाई नहीं सुनी गई तो आजिज आ कर बाप बेटी पंचों को गोली मार दी । लेकिन ये दुस्साहस कम ही लोग कर पाते हैं ।
हरियाणा में तो प्रेमी जोडों पर बहुधा पंचायत का कहर मौत बन कर बरपती है । लेकिन वोट बैक की राजनीति में उलझे नेताओं को ना तो कानून की फिक्र है और ना ही संविधान की । जाति के आधार पर बनी पंचायतें खुलेआम कानून की धज्जियां उड़ाती रहती हैं और संविधान को चुनौती देती रहती हैं लेकिन कानून के रखवाले उनके आगे बेबस और लाचार नजर आते हैं । आजादी के साठ साल बाद भी पंचायतों का ये रुख आरतीय लोकतंत्र पर एक ऐसा घाव है जिसकी सर्जरी अगर जल्द नहीं की गई तो वो नासूर बनकर हमारे समाज को लहलुहान करता रहेगा ।
कुछ दिनों पहले बिजनौर में हुई एक पंचायत के बाद हुई रंजिश में बाप बेटी ने दो लोगों को गोलियों से भून दिया था । दरअसल उस पंचायत के बीच खड़े सत्तर साल के बाप और उसकी बाइस साल की बेटी के बीच नाजायज रिश्तों का आरोप लगा था । इससे पहले कि वो दोनों अपनी सफाई में कुछ कह पाते पंचायत ने फरमान सुना दिया कि दोनों सुधर जाएं नहीं तो गांव से निकाल दिया जाएगा... इस मसले को लेकर तीन बार पंचायत हुई लेकिन चौथी पंचायत में भी जब इनकी सफाई नहीं सुनी गई तो आजिज आ कर बाप बेटी पंचों को गोली मार दी । लेकिन ये दुस्साहस कम ही लोग कर पाते हैं ।
हरियाणा में तो प्रेमी जोडों पर बहुधा पंचायत का कहर मौत बन कर बरपती है । लेकिन वोट बैक की राजनीति में उलझे नेताओं को ना तो कानून की फिक्र है और ना ही संविधान की । जाति के आधार पर बनी पंचायतें खुलेआम कानून की धज्जियां उड़ाती रहती हैं और संविधान को चुनौती देती रहती हैं लेकिन कानून के रखवाले उनके आगे बेबस और लाचार नजर आते हैं । आजादी के साठ साल बाद भी पंचायतों का ये रुख आरतीय लोकतंत्र पर एक ऐसा घाव है जिसकी सर्जरी अगर जल्द नहीं की गई तो वो नासूर बनकर हमारे समाज को लहलुहान करता रहेगा ।
Monday, October 26, 2009
सितारों पर लगाओ लगाम
देश के दक्षिणी राज्यों में फिल्मी सितारों का अच्छा खासा प्रभाव है । जनता चाहती है तो जाहिर है राजनेता और राजनीतिक दलों के बीच भी उनकी धाक है । पिछले दिनों जब तमिल दैनिक दिनामलार के न्यूज एडीटर बी लेनिन को अखबार में छपी एक रिपोर्ट के आधार पर बगैर किसी रंट के पुलिस ने उनके दफ्तर से गिरफ्तार किया और रात में ही जज के घर पर पेश कर रिमांड पर लिया तो पुलिस की कार्यशैली पर सवाल खड़े हो गए । दरअसल दिनामलार में एक तमिल अभिनेत्री के सेक्स रैकेट में होने की खबर छापी गई थी । जिससे पूरा तमिल फिल्म उद्योग एकजुट होकर चेन्नई पुलिस कमिश्नर के दफ्तर के सामने धरने पर बैठे । तमिल फिल्म इंडस्ट्री ने उक्त अभिनेत्री पर लगाए गए आरोपों को फिल्म फैटरनिटी पर लगा आरोप मानकर एकजुटता दिखाई । तमिल फिल्मों के सुपर स्टार रजनीकांत भी धरने पर बैठे और मीडिया को जमकर नसीहत दी । लोकतंत्र में विरोध प्रदर्शन की इजाजत सबको है लेकिन जिस तरह से तमिल फिल्मी सितारों ने जहर उगला उसकी जितनी निंदा की जाए वो कम है । दिनामलार के संपादक पर तो अखबार में छपी रिपोर्ट के आदार पर हैरेसमेंट ऑफ वूमन एक्ट लगा दिया गया लेकिन सरेआम लेनिन के परिवारवालों के खिलाफ जहर उगलने वाले फिल्मी सितारों पर कोई कार्रवाई करने की हिम्मत चेन्नई पुलिस नहीं जुटा पाई ।
जो विरोध प्रदर्शन हुआ उसमें तमिल सितारों ने मर्यादा की सारी सीमाएं लांघ दी । श्रीप्रिया तो जोश में होश खो बैठी और दिनामलार अखबार के मालिकों के परिवार की औरतों के बारे में जमकर बुराभला कहा । विवेख ने तो यहां तक कह डाला कि अगर लेनिन की परिवार की औरतों की तस्वीरें उन्हें मिल जाए तो कंम्प्यूटर ग्राफिक्स के जरिए वो अश्लील तस्वीरो के उपर उनका चेहरा लगाकर पूरे राज्य में दीवारों पर चिपकवा देंगे । वो यहीम रुके और मीडिया को बगैर फिल्मों के सीन इस्तेमाल किए पत्रकारिता करने की चुनौती दे डाली । अब इस कॉमेडियन को कौन समझाए कि सितारों की लोकप्रियता मीडिया की बदौलत ही है । किसी भी फिल्म के रिलीज होने के पहले उनके पब्लिक रिलेशन एजेंट किस कदर मीडिया का सामने गिड़गिड़ाते हैं ये बताने की जरूरत नहीं है ।
अभिनेता विजय कुमार ने तो सरेआम यहां तक कह डाला कि दिनामलार के उस रिपोर्ट को देखने के बाद उनका खून खौल उठा और वो अखबार के दफ्तर में घुसकर हंगामा करने की सोचने लगे थे । हो सकता है कि दिनामलार में छपी वो रिपोर्ट में कुछ गड़बड़ियां हो और जनता के हित की कोई बात नहीं हो । इसके लिए पीड़ित पक्ष को अदालत की शरण लेनी चाहिए या फिर अखबार और पत्रकार के खिलाफ प्रेस काइंसिल जाना चाहिए था । लेकिन विरोध प्रदर्शन का ये कौन सा तरीका है जहां आप सरेआम गाली गलौच की भाषा इस्तामाल करते हैं । ये एक ऐसा तरीका है जिसको अपनाकर सरकार पर दबाव बनाया जा रहा है और सरकार फिल्मी सितारों की लोकप्रियता का दबाव में बगैर सोचे समझे कानूनी कार्रवाई कर मीडिया की अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला कर रही है ।
पिछले कुछ सालों से मीडिया की अभिव्यक्ति की आजादी पर हमले लगातार बढ़े हैं । अगर हम गौर करें तो मीडिया संस्थानों, चाहे वो प्रिंट हो या इलेक्ट्रानिक, प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से हमले के कई वारदात हुए हैं । अभी ज्यादा दिन नहीं बीते हैं जब एक अनाम से संगठन- हिंदू राष्ट्र सेना - के तीस चालीस गुंडे सरिए और हथौड़े से लैस मुंबई के एक टीवी न्यूज चैनल के दफ्तर में घुस गए और जमकर न केवल उत्पात मचाया बल्कि पत्रकारों के साथ मारपीट भी की । इतने पर भी जब उन गुंडों का गुस्सा ठंढा नहीं हुआ तो दफ्तर के फर्नीचर और नीचे पार्किंग में खड़ी गाड़ियां तक तोड़ डाली । इन लोगों के गुस्से की वजह बना उक्त न्यूज चैनल पर दिखाई गई एक खबर जिसमें एक मुस्लिम लड़के ने एक हिंदू लड़के से शादी कर ली थी और समाज के ठेकेदारों के डर से वहां आकर आत्मसमर्पण किया था । इस हमले की जब राष्ट्रीय स्तर पर घोर निंदा हुई तब जाकर सरकार हरकत में आई और अठारह लोगों की गिरफ्तारी हुई । बाद में पता चला कि हमला करने वाले इस अनाम से गैंग का मुखिया धनंजय देसाई था जिसके खिलाफ पहले ही चोरी के तेरह मामले दर्ज थे ।
उस वारदात के ठीक अगले ही दिन राजधानी दिल्ली में एक राष्ट्रीय न्यूज चैनल के रिपोर्टर से मारपीट की गई । दरअसल राजधानी के रोहिणी इलाके में एक डाक्टर को महिला मरीज के साथ छेड़छाड़ के आरोप में पकड़ा गया और जब रिपोर्टर मौके पर पहुंचकर तस्वीर लेने लगा तो ड़ाक्टर के समर्थकों ने वहां मौजूद मीडियाकर्मियों पर हमला कर दिया और उनके साथ मारपीट की । इन वारदातों से सकते में आई मीडिया अभी उबर भी नहीं पाया था कि सुदूर दक्षिण के शहर मदुरै से खबर आई कि कुछ उत्पाती लोगों ने तमिल दैनिक दिनाकरण के दफ्तर को फूंक डाला है । इस घटना में तीन लोगों की मौत भी हुई । आरोप लगा था तमिलनाडु के मुख्यमंत्री करुणानिधि के बड़े बेटे और अब केंद्रीय मंत्री अझागिरी के समर्थकों पर । गुस्से की वजह दिनाकरण में छपा एक सर्वे था, जिसमें जनता से ये सवाल पूछा गया था कि करुणानिधि के बाद डीएमके की बागडोर कौन संभालेगा । और अझागिरी के समर्थक इस बात से भड़क गए कि उनका नाम इस सर्वे में नीचे आया । उनका यही गुस्सा आगजनी और तीन लोगों की मौत की वजह बना । इस घृणित कृत्य के पीछे करुणानिधि के परिवार में चल रहा आपसी विवाद हो सकता है लेकिन खुलेआम तो एक मीडिया संस्थान को जला कर राख कर दिया गया, उसमें काम करने वाले तीन लोगों को जिंदा जला दिया गया था।
अभिव्यक्ति की आजादी पर हमले और भी जगहों और और तरीकों से भी हो रहे हैं । अभी कुछ महीने पहले शिवसेना सुप्रीमो बाल ठाकरे ने सामना में लिखे अपने संपादकीय में शिवसैनिकों को हुक्म दिया था कि जेम्स लेन की किताब - शिवाजी, हिंदू किंग इन इस्लामिक इंडिया- की प्रति जहां कहीं भी मिले इसे जला दिया जाए और शिवसैनिकों के लिए तो बाला साहब का हुक्म पत्थर की लकीर होता है । गौरतलब है कि हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने इस किताब पर लगाए प्रतिबंध को हटा दिया था । इसक पहले संभाजी ब्रिगेड के लोगों ने जनवरी दो हजार चार में पुणे के भंडारकर ओरिएंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट में घुसकर ऐतिहासिक महत्व के कई दस्तावेजों को नष्ट करने के अलावा संस्थान में तोड़ फोड़ भी किया था । संभाजी ब्रिगेड का गुस्सा इस बात को लेकर था कि जेम्स लेन की शिवाजी पर लिखी किताब में शोध में सहयोग देने के लिए लेखक ने इस संस्थान का आभार प्रकट किया था । संभाजी ब्रिगेड और हिंदू राष्ट्र सेना जैसे अनाम संगठनों को बाल ठाकरे के इस तरह के उकसाने वाले संपादकीय से बल मिलता है और वो मीडिया पर हमला करने का दुस्साहस कर पाते हैं ।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद उन्नीस में अन्य बातों के अलावा संघ के नागरिकों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता( राइट टू फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन एंड स्पीच) का अधिकार प्रदान करता है । लेकिन साथ ही संविधान अभिव्यक्ति की इस हद तक स्वतंत्रता प्रदान करता है जबतक कि वो दूसरों की आजादी का हनन न करे । लोग, यहां तक कि सरकारें भी इसी की आड़ में अभिव्यक्ति की आजादी पर अंकुश लगाने का यत्न करती है । जिसे बाद में अदालत बहुधा गैरजरूरी करार देती है । लोकतंत्र में मीडिया को चौथा स्तंभ माना गया है और वर्षों के अपने लंबे संघर्ष के बाद मीडिया ने अपना एक मुकाम हासिल किया है और लोकतंत्र के सजह प्रहरी के रूप में अपने को स्थापित भी किया है । लेकिन अपनी आलोचनाओं से नाराज होकर लोग कानून खुद हाथ में लेने लगे हैं या अपने समर्थों को उकसाने लगे हैं और मीडिया संगठनों को डराने धमकाने की कोशिश शुरु हो जाती है ।
अब वक्त आ गया है कि मीडिया को खुद पर हो रहे हमलों के बारे में गंभीरता से विचार करना चाहिए और संगठित होकर अपनी आवाज उठानी चाहिए । दिनामलार के न्यूज एडिटर पर हुए पुलिसिया जुर्म के खिलाफ सिर्फ कुछ पत्रकार संगठनों ने बयीन जारी कर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ली लेकिन पत्रकारों को तमिलनाडु के फिल्मी सितारों से एक जुटता का सबक लेना चाहिए और सरकार पर सख्त कानून बनाने के लिए दबाव बनाया जाना चाहिए ।
जो विरोध प्रदर्शन हुआ उसमें तमिल सितारों ने मर्यादा की सारी सीमाएं लांघ दी । श्रीप्रिया तो जोश में होश खो बैठी और दिनामलार अखबार के मालिकों के परिवार की औरतों के बारे में जमकर बुराभला कहा । विवेख ने तो यहां तक कह डाला कि अगर लेनिन की परिवार की औरतों की तस्वीरें उन्हें मिल जाए तो कंम्प्यूटर ग्राफिक्स के जरिए वो अश्लील तस्वीरो के उपर उनका चेहरा लगाकर पूरे राज्य में दीवारों पर चिपकवा देंगे । वो यहीम रुके और मीडिया को बगैर फिल्मों के सीन इस्तेमाल किए पत्रकारिता करने की चुनौती दे डाली । अब इस कॉमेडियन को कौन समझाए कि सितारों की लोकप्रियता मीडिया की बदौलत ही है । किसी भी फिल्म के रिलीज होने के पहले उनके पब्लिक रिलेशन एजेंट किस कदर मीडिया का सामने गिड़गिड़ाते हैं ये बताने की जरूरत नहीं है ।
अभिनेता विजय कुमार ने तो सरेआम यहां तक कह डाला कि दिनामलार के उस रिपोर्ट को देखने के बाद उनका खून खौल उठा और वो अखबार के दफ्तर में घुसकर हंगामा करने की सोचने लगे थे । हो सकता है कि दिनामलार में छपी वो रिपोर्ट में कुछ गड़बड़ियां हो और जनता के हित की कोई बात नहीं हो । इसके लिए पीड़ित पक्ष को अदालत की शरण लेनी चाहिए या फिर अखबार और पत्रकार के खिलाफ प्रेस काइंसिल जाना चाहिए था । लेकिन विरोध प्रदर्शन का ये कौन सा तरीका है जहां आप सरेआम गाली गलौच की भाषा इस्तामाल करते हैं । ये एक ऐसा तरीका है जिसको अपनाकर सरकार पर दबाव बनाया जा रहा है और सरकार फिल्मी सितारों की लोकप्रियता का दबाव में बगैर सोचे समझे कानूनी कार्रवाई कर मीडिया की अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला कर रही है ।
पिछले कुछ सालों से मीडिया की अभिव्यक्ति की आजादी पर हमले लगातार बढ़े हैं । अगर हम गौर करें तो मीडिया संस्थानों, चाहे वो प्रिंट हो या इलेक्ट्रानिक, प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से हमले के कई वारदात हुए हैं । अभी ज्यादा दिन नहीं बीते हैं जब एक अनाम से संगठन- हिंदू राष्ट्र सेना - के तीस चालीस गुंडे सरिए और हथौड़े से लैस मुंबई के एक टीवी न्यूज चैनल के दफ्तर में घुस गए और जमकर न केवल उत्पात मचाया बल्कि पत्रकारों के साथ मारपीट भी की । इतने पर भी जब उन गुंडों का गुस्सा ठंढा नहीं हुआ तो दफ्तर के फर्नीचर और नीचे पार्किंग में खड़ी गाड़ियां तक तोड़ डाली । इन लोगों के गुस्से की वजह बना उक्त न्यूज चैनल पर दिखाई गई एक खबर जिसमें एक मुस्लिम लड़के ने एक हिंदू लड़के से शादी कर ली थी और समाज के ठेकेदारों के डर से वहां आकर आत्मसमर्पण किया था । इस हमले की जब राष्ट्रीय स्तर पर घोर निंदा हुई तब जाकर सरकार हरकत में आई और अठारह लोगों की गिरफ्तारी हुई । बाद में पता चला कि हमला करने वाले इस अनाम से गैंग का मुखिया धनंजय देसाई था जिसके खिलाफ पहले ही चोरी के तेरह मामले दर्ज थे ।
उस वारदात के ठीक अगले ही दिन राजधानी दिल्ली में एक राष्ट्रीय न्यूज चैनल के रिपोर्टर से मारपीट की गई । दरअसल राजधानी के रोहिणी इलाके में एक डाक्टर को महिला मरीज के साथ छेड़छाड़ के आरोप में पकड़ा गया और जब रिपोर्टर मौके पर पहुंचकर तस्वीर लेने लगा तो ड़ाक्टर के समर्थकों ने वहां मौजूद मीडियाकर्मियों पर हमला कर दिया और उनके साथ मारपीट की । इन वारदातों से सकते में आई मीडिया अभी उबर भी नहीं पाया था कि सुदूर दक्षिण के शहर मदुरै से खबर आई कि कुछ उत्पाती लोगों ने तमिल दैनिक दिनाकरण के दफ्तर को फूंक डाला है । इस घटना में तीन लोगों की मौत भी हुई । आरोप लगा था तमिलनाडु के मुख्यमंत्री करुणानिधि के बड़े बेटे और अब केंद्रीय मंत्री अझागिरी के समर्थकों पर । गुस्से की वजह दिनाकरण में छपा एक सर्वे था, जिसमें जनता से ये सवाल पूछा गया था कि करुणानिधि के बाद डीएमके की बागडोर कौन संभालेगा । और अझागिरी के समर्थक इस बात से भड़क गए कि उनका नाम इस सर्वे में नीचे आया । उनका यही गुस्सा आगजनी और तीन लोगों की मौत की वजह बना । इस घृणित कृत्य के पीछे करुणानिधि के परिवार में चल रहा आपसी विवाद हो सकता है लेकिन खुलेआम तो एक मीडिया संस्थान को जला कर राख कर दिया गया, उसमें काम करने वाले तीन लोगों को जिंदा जला दिया गया था।
अभिव्यक्ति की आजादी पर हमले और भी जगहों और और तरीकों से भी हो रहे हैं । अभी कुछ महीने पहले शिवसेना सुप्रीमो बाल ठाकरे ने सामना में लिखे अपने संपादकीय में शिवसैनिकों को हुक्म दिया था कि जेम्स लेन की किताब - शिवाजी, हिंदू किंग इन इस्लामिक इंडिया- की प्रति जहां कहीं भी मिले इसे जला दिया जाए और शिवसैनिकों के लिए तो बाला साहब का हुक्म पत्थर की लकीर होता है । गौरतलब है कि हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने इस किताब पर लगाए प्रतिबंध को हटा दिया था । इसक पहले संभाजी ब्रिगेड के लोगों ने जनवरी दो हजार चार में पुणे के भंडारकर ओरिएंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट में घुसकर ऐतिहासिक महत्व के कई दस्तावेजों को नष्ट करने के अलावा संस्थान में तोड़ फोड़ भी किया था । संभाजी ब्रिगेड का गुस्सा इस बात को लेकर था कि जेम्स लेन की शिवाजी पर लिखी किताब में शोध में सहयोग देने के लिए लेखक ने इस संस्थान का आभार प्रकट किया था । संभाजी ब्रिगेड और हिंदू राष्ट्र सेना जैसे अनाम संगठनों को बाल ठाकरे के इस तरह के उकसाने वाले संपादकीय से बल मिलता है और वो मीडिया पर हमला करने का दुस्साहस कर पाते हैं ।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद उन्नीस में अन्य बातों के अलावा संघ के नागरिकों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता( राइट टू फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन एंड स्पीच) का अधिकार प्रदान करता है । लेकिन साथ ही संविधान अभिव्यक्ति की इस हद तक स्वतंत्रता प्रदान करता है जबतक कि वो दूसरों की आजादी का हनन न करे । लोग, यहां तक कि सरकारें भी इसी की आड़ में अभिव्यक्ति की आजादी पर अंकुश लगाने का यत्न करती है । जिसे बाद में अदालत बहुधा गैरजरूरी करार देती है । लोकतंत्र में मीडिया को चौथा स्तंभ माना गया है और वर्षों के अपने लंबे संघर्ष के बाद मीडिया ने अपना एक मुकाम हासिल किया है और लोकतंत्र के सजह प्रहरी के रूप में अपने को स्थापित भी किया है । लेकिन अपनी आलोचनाओं से नाराज होकर लोग कानून खुद हाथ में लेने लगे हैं या अपने समर्थों को उकसाने लगे हैं और मीडिया संगठनों को डराने धमकाने की कोशिश शुरु हो जाती है ।
अब वक्त आ गया है कि मीडिया को खुद पर हो रहे हमलों के बारे में गंभीरता से विचार करना चाहिए और संगठित होकर अपनी आवाज उठानी चाहिए । दिनामलार के न्यूज एडिटर पर हुए पुलिसिया जुर्म के खिलाफ सिर्फ कुछ पत्रकार संगठनों ने बयीन जारी कर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ली लेकिन पत्रकारों को तमिलनाडु के फिल्मी सितारों से एक जुटता का सबक लेना चाहिए और सरकार पर सख्त कानून बनाने के लिए दबाव बनाया जाना चाहिए ।
Friday, October 16, 2009
बंद करो किताबों की सरकारी खरीद
इस वर्ष के साहित्य के नोबेल पुरस्कार का ऐलान हुआ और रोमानिया में पैदा हुई जर्मन लेखिका हेर्ता म्यूलर को ये सम्मान मिला तो उनके लेखन के बारे में जानने की इच्छा हुई । काम से वक्त निकालकर दिल्ली और आसपास के पुस्तकों की दुकानों की खाक छानी लेकिन हेर्ता म्यूलर की कोई किताब कहीं नहीं मिल पाई । तकरीबन हर जगह पुस्तक विक्रेताओं ने कहा कि कुछ दिनों में पुस्तक उपलब्ध हो पाएगी । निराश होकर वापस लौट आया लेकिन कुछ सवाल बेहद परेशान करनेवाले रहे और लगातार मुंह बाए मेरे सामने खड़े हैं । पहला तो ये कि हमारे समाज में किताबों को लेकर ये उपेक्षा भाव क्यों है । उपेक्षा भाव मैं इसलिए कह रहा हूं कि राजधानी दिल्ली, जिसे दूर दराज के साहित्यप्रेमी और लेखक साहित्य की भी राजधानी कहते हैं, में भी किताबों की दुकान ढूंढने में आपको श्रम करना पड़ेगा । ढूंढे से किताब नहीं मिल पाएगी । कोई भी ऐसी दुकान नहीं जहां आप इस विश्वास के साथ जा सकें कि आपकी मनपसंद किताब आपको मिल जाएगी । अगर हम पुस्तकों की उपलब्धता की बात करें तो दिल्ली और आसपास के शहरों के हालात बेहद निराशाजनक हैं । पूरी दिल्ली में किताबों की दुकानें उंगलियों पर गिनी जा सकती हैं और आपको उनतक पहुंचने के लिए कई किलोमीटर की दूरी तय करनी पड़ेगी । अगर आप तमाम संघर्षों के बाद किताबों की दुकान तक पहुंच भी जाते हैं तो आपको अंग्रेजी कि किताबें तो मिल जाएंगी लेकिन हिंदी की किताबें नहीं मिल पाएंगी । हिंदी की किताबों के लिए आपको प्रकाशकों से संपर्क करना पड़ेगा या फिर दिल्ली के दरियागंज इलाके की खाक छाननी होगी । दरियागंज का आलम ये है कि आप अगर वहां अपनी कार से चले गए तो कार अक्षत वापस नहीं आ सकती, उसपर खरोंच लगना तय है । साथ ही गाड़ी पार्क करने में आपको इतनी मशक्कत करनी पड़ेगी कि आपके किताब पढ़ने का भूत सर से उतर जाएगा । ये हाल सिर्फ पुस्तकों को लेकर ही नहीं है , पत्र- पत्रिकाएं भी सहज सुलभ उपलब्ध नहीं हैं ।
सवाल ये उठता है कि इसके लिए जिम्मेदार कौन है । क्या पूरा हिंदी समाज इसके लिए जिम्मेदार है या फिर प्रकाशकों को पाठकों की फिक्र ही ही नहीं है । दरअसल मुझे लगता है कि इसके लिए प्रकाशकों के साथ- साथ वामपंथी विचारधारा के लेखकों और प्रकाशकों पर उनका प्रभाव जिम्मेदार है । ना तो लेखक और ना ही प्रकाशक किताबों को प्रोडक्ट की तरह समझकर व्यवहार करते हैं । प्रोडक्ट नाम सुनते ही वामपंथी लेखक ऐसे भड़कते हैं जैसे लगता है कि किसी सांढ को लाल कपड़ा दिखा दिया गया हो । प्रोडक्ट शब्द से उनको बाजारवाद और पूंजीवाद की बू आने लगती है और वो इसके खिलाफ खड़े हो जाते हैं । उन्हें लगता है कि अगर पुस्तकों को प्रोडक्ट की श्रेणी में रख दिया जाएगा तो उनका श्रम व्यर्थ चला जाएगा, उनकी मेहनत पर पूंजीवाद और बाजारवाद पानी फेर देगा । लेकिन प्रोडक्ट वही तो होता है जिसपर मेहनत की जाती है, जिसके उत्पादन पर पैसा खर्च किया जाता है और उससे कुछ लाभ की अपेक्षा की जाए । लेखक भी कई महीनों तक किसी कृति पर मेहनत करते हैं और फिर प्रकाशक उसे किताब की शक्ल देने में उसपर पैसे खर्च करता है और लाभ की अपेक्षा लेखक और प्रकाशक दोनों को होती है। तो मानव श्रम, पैसा और लाभ की आंकाक्षा तीनों चीजें हैं तो फिर प्रोडक्ट मानने में हर्ज क्या है । अगर प्रोडक्ट को बाजार नहीं मिलेगा तो ना केवल मानव श्रम व्यर्थ जाएगा बल्कि जिस लक्ष्य और उद्देश्य की पूर्ति के लिए किसी खास विषय पर लिखा गया है वो जाया चला जाएगा । लेखकों की रचनाओं से ये अपेक्षा होती है कि वो समाज में बदलाव लाएगी लेकिन अगर रचनाएं टार्गेट ग्रुप तक पहुंच ही नहीं पाएंगी तो ना तो समाज में बदलाव आ पाएगा और ना ही किसी विचार का प्रसार हो पाएगा ।
दूसी बात ये कि अगर हम पुस्तकों को एक उत्पाद मानने लगेंगे तो प्रकाशकों के साथ साथ लेखकों का भी भला होगा । अभी हालात ये है कि रॉयल्टी को लेकर हर लेखक के मन में मलाल होता है । हिंदी के लेखकों के इस मलाल से ये तो साबित हो ही जाता है कि उनको अपनी किताब से लाभ की अपेक्षा है । आपने श्रम किया, आपको लाभ की आकांक्षा है और प्रकाशक का पैसा लगा तो फिर किताब को उत्पाद मानने में दिक्कत क्या है ।
दूसरी अहम बात है कि प्रकाशकों की रुचि भी सरकारी थोक खरीद में ज्यादा होती है और पाठकों तक पहुंचाने में होनेवाले मेहनत और खर्चे से वह बचना चाहता है । प्रकाशकों के लिए प्रकाशन व्यवसाय किसी भी दूसरे अन्य कारोबार की तरह ही है जहां उसका उद्देश्य कम खर्चे में ज्यादा से ज्यादा लाभ कमाना है । और अपने इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए वो प्रयास भी करता रहता है, करना भी चाहिए । प्रकाशकों को लगता है कि सरकारी खरीद में अफसरों को रिश्वत देकर अगरी अपनी किताबें बेच दी तो बल्ले –बल्ले । हर्रे लगे ना फिटकरी रंग चोखा होए । कई प्रकाशक मेरे मित्र हैं, उनसे जब भी बात होती है तो उनकी चिंता सिर्फ सरकारी थोक खरीद को लेकर रहती है । फुटकर बिक्री में उनकी रुचि बेहद कम होती है , जब भी उनसे बात करो तो पाठकों की कमी का रोना रोकर अपना पल्ला झाड़ने की कोशिश करते हैं । लेकिन ये बात बार-बार उठती रही है और हर बार गलत भी साबित होती रही है कि हिंदी में पाछक नहीं हैं । आज हिंदी का विसाल पाठकों का बड़ा बाजार है जिसपर कब्जे की होड़ दिखाई दे रही है । लेकिन हिंदी के प्रकाशक इसको या तो समझ नहीं पा रहे हैं या फिर जानबूझकर समझना नहीं चाहते ।
तीसरी अहम बात है कि लेखक भी प्रकाशक पर ये दबाव बना पाने की स्थिति में नहीं हैं कि उनके किताबों के प्रचार प्रसार के लिए काम किया जाए । ये किसी व्यक्तिगत प्रयास से संभव नहीं है । क्योंकि आज हिंदी के लेखक इस हैसियत में नहीं हैं कि वो प्रकाशकों पर दबाव बना सकें । जो दो तीन लेखक इस हैसियत में हैं उनपर प्रकाशक इतने मेहरबान होते हैं कि वो अपने साथी लेखकों के हितों के लिए उठनेवाली आवाज का समर्थन नहीं कर सकते । उल्टे प्रयासपूर्वक मामले को सुलझाने के नाम पर प्रकाशकों की तरफदारी करने लग जाते हैं । लेखक संगठन लगभग मृतप्राय है जिनकी भूमिका कुछ रह नहीं गई है । लेखकों की शोकसभा और एकाध रचाना पाठ आयोजित करने के अलावा संगठन कुछ कर नहीं पाते हैं ।
तो ऐसे में सावल ये उठता है कि हम जैसे पाठकों का क्या होगा, क्या किसी खास किताब को पढ़ने की हमारी लालसा मन में दबी रह जाएगी । या फिर इस समस्या का हल भी सरकार को ही करना पड़ेगा । मुझे तो लगता है कि पुस्तकों की सरकारी थोक खरीद बंद कर देनी चाहिए और प्रकाशकों और लेखकों को पाठकों के रहमोकरम पर छोड़ देना चाहिए तभी प्रकाशक पाठकों तक पहुंचने की कोशिश करेंगे और हिंदी समाज में पुस्तक संस्कृति बन पाएगी ।
सवाल ये उठता है कि इसके लिए जिम्मेदार कौन है । क्या पूरा हिंदी समाज इसके लिए जिम्मेदार है या फिर प्रकाशकों को पाठकों की फिक्र ही ही नहीं है । दरअसल मुझे लगता है कि इसके लिए प्रकाशकों के साथ- साथ वामपंथी विचारधारा के लेखकों और प्रकाशकों पर उनका प्रभाव जिम्मेदार है । ना तो लेखक और ना ही प्रकाशक किताबों को प्रोडक्ट की तरह समझकर व्यवहार करते हैं । प्रोडक्ट नाम सुनते ही वामपंथी लेखक ऐसे भड़कते हैं जैसे लगता है कि किसी सांढ को लाल कपड़ा दिखा दिया गया हो । प्रोडक्ट शब्द से उनको बाजारवाद और पूंजीवाद की बू आने लगती है और वो इसके खिलाफ खड़े हो जाते हैं । उन्हें लगता है कि अगर पुस्तकों को प्रोडक्ट की श्रेणी में रख दिया जाएगा तो उनका श्रम व्यर्थ चला जाएगा, उनकी मेहनत पर पूंजीवाद और बाजारवाद पानी फेर देगा । लेकिन प्रोडक्ट वही तो होता है जिसपर मेहनत की जाती है, जिसके उत्पादन पर पैसा खर्च किया जाता है और उससे कुछ लाभ की अपेक्षा की जाए । लेखक भी कई महीनों तक किसी कृति पर मेहनत करते हैं और फिर प्रकाशक उसे किताब की शक्ल देने में उसपर पैसे खर्च करता है और लाभ की अपेक्षा लेखक और प्रकाशक दोनों को होती है। तो मानव श्रम, पैसा और लाभ की आंकाक्षा तीनों चीजें हैं तो फिर प्रोडक्ट मानने में हर्ज क्या है । अगर प्रोडक्ट को बाजार नहीं मिलेगा तो ना केवल मानव श्रम व्यर्थ जाएगा बल्कि जिस लक्ष्य और उद्देश्य की पूर्ति के लिए किसी खास विषय पर लिखा गया है वो जाया चला जाएगा । लेखकों की रचनाओं से ये अपेक्षा होती है कि वो समाज में बदलाव लाएगी लेकिन अगर रचनाएं टार्गेट ग्रुप तक पहुंच ही नहीं पाएंगी तो ना तो समाज में बदलाव आ पाएगा और ना ही किसी विचार का प्रसार हो पाएगा ।
दूसी बात ये कि अगर हम पुस्तकों को एक उत्पाद मानने लगेंगे तो प्रकाशकों के साथ साथ लेखकों का भी भला होगा । अभी हालात ये है कि रॉयल्टी को लेकर हर लेखक के मन में मलाल होता है । हिंदी के लेखकों के इस मलाल से ये तो साबित हो ही जाता है कि उनको अपनी किताब से लाभ की अपेक्षा है । आपने श्रम किया, आपको लाभ की आकांक्षा है और प्रकाशक का पैसा लगा तो फिर किताब को उत्पाद मानने में दिक्कत क्या है ।
दूसरी अहम बात है कि प्रकाशकों की रुचि भी सरकारी थोक खरीद में ज्यादा होती है और पाठकों तक पहुंचाने में होनेवाले मेहनत और खर्चे से वह बचना चाहता है । प्रकाशकों के लिए प्रकाशन व्यवसाय किसी भी दूसरे अन्य कारोबार की तरह ही है जहां उसका उद्देश्य कम खर्चे में ज्यादा से ज्यादा लाभ कमाना है । और अपने इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए वो प्रयास भी करता रहता है, करना भी चाहिए । प्रकाशकों को लगता है कि सरकारी खरीद में अफसरों को रिश्वत देकर अगरी अपनी किताबें बेच दी तो बल्ले –बल्ले । हर्रे लगे ना फिटकरी रंग चोखा होए । कई प्रकाशक मेरे मित्र हैं, उनसे जब भी बात होती है तो उनकी चिंता सिर्फ सरकारी थोक खरीद को लेकर रहती है । फुटकर बिक्री में उनकी रुचि बेहद कम होती है , जब भी उनसे बात करो तो पाठकों की कमी का रोना रोकर अपना पल्ला झाड़ने की कोशिश करते हैं । लेकिन ये बात बार-बार उठती रही है और हर बार गलत भी साबित होती रही है कि हिंदी में पाछक नहीं हैं । आज हिंदी का विसाल पाठकों का बड़ा बाजार है जिसपर कब्जे की होड़ दिखाई दे रही है । लेकिन हिंदी के प्रकाशक इसको या तो समझ नहीं पा रहे हैं या फिर जानबूझकर समझना नहीं चाहते ।
तीसरी अहम बात है कि लेखक भी प्रकाशक पर ये दबाव बना पाने की स्थिति में नहीं हैं कि उनके किताबों के प्रचार प्रसार के लिए काम किया जाए । ये किसी व्यक्तिगत प्रयास से संभव नहीं है । क्योंकि आज हिंदी के लेखक इस हैसियत में नहीं हैं कि वो प्रकाशकों पर दबाव बना सकें । जो दो तीन लेखक इस हैसियत में हैं उनपर प्रकाशक इतने मेहरबान होते हैं कि वो अपने साथी लेखकों के हितों के लिए उठनेवाली आवाज का समर्थन नहीं कर सकते । उल्टे प्रयासपूर्वक मामले को सुलझाने के नाम पर प्रकाशकों की तरफदारी करने लग जाते हैं । लेखक संगठन लगभग मृतप्राय है जिनकी भूमिका कुछ रह नहीं गई है । लेखकों की शोकसभा और एकाध रचाना पाठ आयोजित करने के अलावा संगठन कुछ कर नहीं पाते हैं ।
तो ऐसे में सावल ये उठता है कि हम जैसे पाठकों का क्या होगा, क्या किसी खास किताब को पढ़ने की हमारी लालसा मन में दबी रह जाएगी । या फिर इस समस्या का हल भी सरकार को ही करना पड़ेगा । मुझे तो लगता है कि पुस्तकों की सरकारी थोक खरीद बंद कर देनी चाहिए और प्रकाशकों और लेखकों को पाठकों के रहमोकरम पर छोड़ देना चाहिए तभी प्रकाशक पाठकों तक पहुंचने की कोशिश करेंगे और हिंदी समाज में पुस्तक संस्कृति बन पाएगी ।
Friday, October 9, 2009
धुंधली छवि का विशेषांक
साहित्य संस्कृति और कला का समग्र मासिक होने का दावा करनेवाली मासिक पत्रिका कथादेश ने अगस्त में मीडिया पर केंद्रित भारी भरकम विशेषांक निकाला । इस अंक का संपादन पूर्व पत्रकार और अब शिक्षक अनिल चमड़िया ने किया है । अनिल चमड़िया पिछले कई सालों से कथादेश में इलेक्ट्रानिक मीडिया पर स्तंभ लिखते रहे हैं और यदा कदा उसके संपादकों के नाम खुला पत्र लिककर इस माध्यम को लेकर अपनी चिंता प्रकट करते रहे हैं । कथादेश के मीडिया विशेषांक में भी अनिल ने मीडिया के पतन पर अपनी गहरी चिंता जताई है । मीडिया के अधोपतन पर अतिथि संपादक इतने विचलित हो गए कि आखिरकार उनकी भी चिंता की सुई टीआरपी पर आकर टिक गई । टीवी पत्रकारों पर लिखते हुए चमड़िया ने लिखा- “पूंजीवाद ने उनके बीच कई हिस्से तैयार कर दिए. एक हिस्सा वह है जो चांदी काट रहा है . मीडिया मालिकों की तरह राजसभा (संभवत : वो राज्यसभा लिखना चाह रहे हों ) में रंगरेलियां मना रहा है । इनकी रंगरेलियों का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि ये चंद वर्षों में सैकड़ों करोड़ों डालर के मालिक बन गए । चैनल चला रहे हैं और उसी तरह से चला रहे हैं जैसे रुपर्ट मर्डोक और दूसरे साम्राज्यवाद समर्थक चैनल चलते हैं । जो चैनल मालिक नहीं बन पाया वह जिस तरह चैनल चल रहे हैं उनके उसी तरह चलने की बेशर्मी से वकालत करता है । टीआरपी वो कह अपने कुकर्मों का सुरक्षा कवच बनाता है और ये नहीं बताता है कि टीआरपी क्या है । टीआरपी खास तरह की विचारों को थोपने और अपनी मौलिकता को भुला देने वाला सांगठिक हथियार है । यह सांस्कृतिक वर्चस्व को बढावा देने के उद्देश्य से तैयार हुआ है । इसमें पूंजी किसी संस्थान की नहीं बल्कि पूंजीवादी विचारधारा की लगी हुई है । इसके वर्चस्ववादी सांस्कृतिक हथियार होने का प्रमाण तब मिलेगा जब टीआरपी के ढांचे के रहस्य को खाला जाए ।“
यहां अनिल चमडिया ने टीआरपी की बेहद मनोरंजक और मौलिक व्याख्या की है - टीआरपी खास तरह की विचारों को थोपने और अपनी मौलिकता को भुला देने वाला सांगठिक हथियार है- लेकिन अपने इस फतवा के समर्थन में उन्होंने कोई उदाहरण या तर्क प्रस्तुत नहीं किया है । अपनी इस प्रस्थापना को पूंजीवाद, बाजारवाद. संकट का समय, संगठन जैसे शब्दों की चाशनी में डुबोकर पाठकों पर अपनी विद्वता का परचम लहरा दिया है । टीआरपी को बगैर जाने समझे उसे गाली देने का फैशन बन गया है और अनिल उस फैशन के शिकार हो गए हैं । ऐसा नहीं है कि अनिल चमड़िया ने सिर्फ न्यूज चैनलों की आलोचना की है । इन्होंने समानभाव से अखबारों के गिरते स्तर पर भी अपनी चिंता जताते हुए पत्रकारों को कोसा है । अनिल इस बात का खतरा भी उठाते हुए चलते हैं कि उनके आलोचक उनपर एक ऐसे संत का ठप्पा लगा सकते हैं कि जो गांधी आश्रम में बैठकर पत्रकारिता में व्याप्त भ्रष्टाचार और गंदगी को अपनी लेखनी से साफ करना चाहता है । लेकिन मैं उनके आलोचकों को ये कहना चाहता हूं कि संत तो संत होता है जो सिर्फ प्रेरित कर सकता है पहल नहीं ।
अनिल चूंकि इस अंक के संपादक हैं इसलिए रचनाओं पर भी उनके विचारों की छाप साफ दिखाई देती है । कई लेखक टीआरपी को लेकर रंडी रोना करते हुए दिखाई दे रहे हैं । सिर्फ उमेश चतुर्वेदी ने अपने लेख में टीआरपी को समझने और समझाने की कोशिश की है । उमेश ने टीआरपी की तथाकथित गुत्थी को खोला है । श्रमपूर्वक लिखे गए इस लेख से टीआरपी की कई भ्रांतियां दूर होती है ।
इस अंक में लेखों की भरमार है । यहां वहां जहां तहां से लेखों को इकट्ठा कर, अनुवाद कर प्रकाशित कर दिया गया है । वरिष्ठ टीवी पत्रकार अजीत अंजुम का पिछले साल पत्रकारिता संस्थान में दिए गए एक भाषण को छाप दिया गया है । भाषण देने की शैली और लिखने की शैली बिल्कुल अलग होती है । अजीत अंजुम के भाषण को लगता है, जस का तस छाप दिया गया है । यहीं पर संपादक का दायित्व बनता है कि वो भाषण को लेख के रूप में संपादित कर दे । लेकिन ये नहीं हुआ और साल भर पुराना भाषण छपा । जब अजीत अंजुम की बात चली तो बरबस जनवरी 2007 में उनके संपादन में हंस के मीडिया विशेषांक की याद आ गई । हंस का वह अंक भी लगभग ढाई सौ पृष्ठों का था । हंस का वह अंक संपादन कौशल का बेहतरीन नमूना था । चिंताएं वहां भी थी लेकिन उन चिंताओं का जबाव भी था । राजदीप सरदेसाई, कमर वहीद नकवी, उदय शंकर के विचार इन चिंताओं से टकरा रहे थे । न्यूज चैनलों को लेकर जो कहानियां छपी थीं वो वहां काम करनेवालों पत्रकारों के दर्द और प्रेम की प्रतिनिधि कहानियां थी । मेरे जानते मीडिया पर हंस का वो अंक अबतक का सबसे अच्छा अंक है जिसका एप्रोच एकदम फोकस्ड है ।
कथादेश के इस अंक में एक गुमनाम लेख छपा है जिसमें स्टार न्यूज के संपादक शाजी जमां पर बेहद संगीन इल्जाम लगाए हैं । इस लेख के बारे में संपादक ने कहा है कि – इंटरनेट के जरिए स्टार न्यूज के न्यूजरूम में घूमता एक पत्र हमारे हाथ लगा है । और विद्वान और पत्रकारिता में शुचिता की बात करनेवाले संपादक अनिल चमड़िया ने इंटरनेट पर घूमते एक गुमनाम खत को मीडिया विशेषांक में छापकर मान्यता प्रदान कर दी । लेख के पहले अवश्य एक टिप्पणी संपादक की ओर से है लेकिन ये लेख बेहद घटिया और स्तरहीन है जिसकी जितनी भी निंदा की जाए कम है । स्टार न्यूज के संपादक शाजी जमां पत्रकार के साथ-साथ एक संवेदनशील लेखक भी है । इनके लिखे को पढने के बाद कथादेश में छपे इस लेख को पढ़कर ये लगता है कि कोई व्यक्ति शाजी को बदनाम करने की मंशा से ऐसा कर रहा है और कथादेश जाने अनजाने बदनाम करने की उस मुहिम में उसका साथ देता नजर आ रहा है ।
कुल मिलाकर अगर कथादेश के मीडिया विशेषांक पर समग्रता में विचार करें तो ये बेहद हल्का और उथला है । ढाई सौ पृष्ठों का ये भारी भरकम विशेषांक डी फोकस्ड लगता है जिसमें से कोई साफ तस्वीर सामने नहीं आती है । इस अंक की पहली रचना पंकज श्रीवास्तव की है – मी लॉर्ड ! आप समझ रहे हैं ना । इसमें पंकज ने मुन्नाभाई औरह गांधी की शैली में अपने अनुभवों को बेहद रोचक शैली में पेश किया है । इसे इस अंक की उपलब्धि के तौर पर रेखांकित किया जा सकता है ।
यहां अनिल चमडिया ने टीआरपी की बेहद मनोरंजक और मौलिक व्याख्या की है - टीआरपी खास तरह की विचारों को थोपने और अपनी मौलिकता को भुला देने वाला सांगठिक हथियार है- लेकिन अपने इस फतवा के समर्थन में उन्होंने कोई उदाहरण या तर्क प्रस्तुत नहीं किया है । अपनी इस प्रस्थापना को पूंजीवाद, बाजारवाद. संकट का समय, संगठन जैसे शब्दों की चाशनी में डुबोकर पाठकों पर अपनी विद्वता का परचम लहरा दिया है । टीआरपी को बगैर जाने समझे उसे गाली देने का फैशन बन गया है और अनिल उस फैशन के शिकार हो गए हैं । ऐसा नहीं है कि अनिल चमड़िया ने सिर्फ न्यूज चैनलों की आलोचना की है । इन्होंने समानभाव से अखबारों के गिरते स्तर पर भी अपनी चिंता जताते हुए पत्रकारों को कोसा है । अनिल इस बात का खतरा भी उठाते हुए चलते हैं कि उनके आलोचक उनपर एक ऐसे संत का ठप्पा लगा सकते हैं कि जो गांधी आश्रम में बैठकर पत्रकारिता में व्याप्त भ्रष्टाचार और गंदगी को अपनी लेखनी से साफ करना चाहता है । लेकिन मैं उनके आलोचकों को ये कहना चाहता हूं कि संत तो संत होता है जो सिर्फ प्रेरित कर सकता है पहल नहीं ।
अनिल चूंकि इस अंक के संपादक हैं इसलिए रचनाओं पर भी उनके विचारों की छाप साफ दिखाई देती है । कई लेखक टीआरपी को लेकर रंडी रोना करते हुए दिखाई दे रहे हैं । सिर्फ उमेश चतुर्वेदी ने अपने लेख में टीआरपी को समझने और समझाने की कोशिश की है । उमेश ने टीआरपी की तथाकथित गुत्थी को खोला है । श्रमपूर्वक लिखे गए इस लेख से टीआरपी की कई भ्रांतियां दूर होती है ।
इस अंक में लेखों की भरमार है । यहां वहां जहां तहां से लेखों को इकट्ठा कर, अनुवाद कर प्रकाशित कर दिया गया है । वरिष्ठ टीवी पत्रकार अजीत अंजुम का पिछले साल पत्रकारिता संस्थान में दिए गए एक भाषण को छाप दिया गया है । भाषण देने की शैली और लिखने की शैली बिल्कुल अलग होती है । अजीत अंजुम के भाषण को लगता है, जस का तस छाप दिया गया है । यहीं पर संपादक का दायित्व बनता है कि वो भाषण को लेख के रूप में संपादित कर दे । लेकिन ये नहीं हुआ और साल भर पुराना भाषण छपा । जब अजीत अंजुम की बात चली तो बरबस जनवरी 2007 में उनके संपादन में हंस के मीडिया विशेषांक की याद आ गई । हंस का वह अंक भी लगभग ढाई सौ पृष्ठों का था । हंस का वह अंक संपादन कौशल का बेहतरीन नमूना था । चिंताएं वहां भी थी लेकिन उन चिंताओं का जबाव भी था । राजदीप सरदेसाई, कमर वहीद नकवी, उदय शंकर के विचार इन चिंताओं से टकरा रहे थे । न्यूज चैनलों को लेकर जो कहानियां छपी थीं वो वहां काम करनेवालों पत्रकारों के दर्द और प्रेम की प्रतिनिधि कहानियां थी । मेरे जानते मीडिया पर हंस का वो अंक अबतक का सबसे अच्छा अंक है जिसका एप्रोच एकदम फोकस्ड है ।
कथादेश के इस अंक में एक गुमनाम लेख छपा है जिसमें स्टार न्यूज के संपादक शाजी जमां पर बेहद संगीन इल्जाम लगाए हैं । इस लेख के बारे में संपादक ने कहा है कि – इंटरनेट के जरिए स्टार न्यूज के न्यूजरूम में घूमता एक पत्र हमारे हाथ लगा है । और विद्वान और पत्रकारिता में शुचिता की बात करनेवाले संपादक अनिल चमड़िया ने इंटरनेट पर घूमते एक गुमनाम खत को मीडिया विशेषांक में छापकर मान्यता प्रदान कर दी । लेख के पहले अवश्य एक टिप्पणी संपादक की ओर से है लेकिन ये लेख बेहद घटिया और स्तरहीन है जिसकी जितनी भी निंदा की जाए कम है । स्टार न्यूज के संपादक शाजी जमां पत्रकार के साथ-साथ एक संवेदनशील लेखक भी है । इनके लिखे को पढने के बाद कथादेश में छपे इस लेख को पढ़कर ये लगता है कि कोई व्यक्ति शाजी को बदनाम करने की मंशा से ऐसा कर रहा है और कथादेश जाने अनजाने बदनाम करने की उस मुहिम में उसका साथ देता नजर आ रहा है ।
कुल मिलाकर अगर कथादेश के मीडिया विशेषांक पर समग्रता में विचार करें तो ये बेहद हल्का और उथला है । ढाई सौ पृष्ठों का ये भारी भरकम विशेषांक डी फोकस्ड लगता है जिसमें से कोई साफ तस्वीर सामने नहीं आती है । इस अंक की पहली रचना पंकज श्रीवास्तव की है – मी लॉर्ड ! आप समझ रहे हैं ना । इसमें पंकज ने मुन्नाभाई औरह गांधी की शैली में अपने अनुभवों को बेहद रोचक शैली में पेश किया है । इसे इस अंक की उपलब्धि के तौर पर रेखांकित किया जा सकता है ।
Saturday, October 3, 2009
हंस के पन्नों पर जिन का चमत्कार
जनचेतना का प्रगतिशील मासिक हंस ने जब युवा रचनाशीलता पर पर अंक केंद्रित करने का एलान किया था तो पाठकों के साथ-साथ लेखकों में इस अंक को लेकर खासी उत्सुकता थी । हंस संपादक राजेन्द्र यादव ने युवा रचनाशीलता पर केंद्रित अंक के संपादन की जिम्मेदारी युवा दलित लेखक और हंस खेमे के खास सिपहसालार अजय नावरिया को सौंपा । संपाद सौंपने के निर्णय के बारे में राजेन्द्र यादव ने अपने संपादकीय में लिखा- बात तब सूझी जब समय नहीं रह गया था. सहसा अजय नावरिया में अलादीन का वह चिराग दिखाई दिया, जिसे घिसकर जिन पैदा किया जा सकात है । जिन पैदा हुआ और उसके कुछ पूछने से पहले उसे चमत्कार करने का काम सौंप दिया गया - महीने भर में हंस का युवा रचनाशीलता पर केंद्रित अंक तैयार हो जाना चाहिए । य़ादव जी को अपने जिन पर भरोसा था कि वो चमत्कार कर देगा । अतिथि संपादक के रूप में प्रकट हुए यादव जी के जिन ने चमत्का किया भी और महीने भर में ही इतनी सामग्री जमा कर दी कि वो एक अंक में नहीं समा पाया और उसे दो अंकों में समेटना पड़ा । सामग्री इकट्ठा करना और स्तरीय सामग्री जुटाना दो अलग अलग बातें हैं जिसपर हम आगे विचार करेंगे ।
राजेन्द्र यादव को भले ही लगता हो कि अजय नावरिया ने अपने संपादकीय में सौंदर्यशास्त्र को नए ढंग से परिभाषित करने की कोशिश की है लेकिन सिर्फ चैबर्स डिक्शनरी में से एसथेटिक्स का मतलब ढूंढ निकालना ही सौंदर्यशास्त्र को नए सिरे से परिभाषित करना नहीं है । इसके अलावा सौंदर्य़शाश्त्रपर अजय ने अपने संपादकीय में कोई नई बात नहीं की है । कहीं संस्कृत के श्लोकों और कहीं मार्क्स को आधार बनाकर सौंदर्यशास्त्र पर टिप्पणी करते चलते हैं । अंतत: वो इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि - मानव सभ्यता का विकास जरूरत के टुच्चे सिद्धांत के चलते नहीं बल्कि सौंदर्यबोधात्मक चेतना के कारण हुआ है । राजेन्द्र यादव को यह निष्कर्ष नया लग सकता है लेकिन मैं यह फैसला पाठकों के विवेक पर छोड़ता हूं कि वो इस बात को परखें कि इसमें नया क्या है ।
अब बात दोनों अंकों में प्रकाशित कहानियों की । युवा रचनाशीलता पर केंद्रित इस अंक की पहली कहानी पत्रकार गीताश्री की है । प्रार्थना से बाहर नाम की यह कहानी संभवत: गीताश्री की पहली प्रकाशित कहानी है । गीताश्री की यह कहानी बेहद शानदार और पठनीय है । सचमुच में ये युवा रचनाशीलता की प्रतिनिधि कहानी कही जा सकती है । इसमें युवावस्था के दौर हर पहलू, हर भटकाव, हर विचलन पर विचार किया गया है । जब किसी छोटे शहर की लड़की राजधानी पहुंचती है तो वहां की चमक दमक और तेज रफ्तार जिंदगी उसे अपने आगोश में लेने को बेचैन होती है । इस बेचैनी में जब लड़की की महात्वाकांक्षा शामिल होती है तो कुछ ऐसा घटित हो जाता है जिसकी कल्पना उसने अपने शहर से चलते वक्त तक नहीं की थी । इस कहानी में गीताश्री ने युवाओं के इस मानसिक कॉकटेल को बेहद शिद्दत से उभारा है । लेकिन एक जगह कहानीकार से चूक हो गई है वो ये कि उसने एक उपन्यास की बेहद शानदार थीम को सस्ते में निपटा दिया । धैर्य और श्रमपूर्वक अगर इस विषय पर उपन्यास लिखा जाए और छोटे शहर की लड़कियों के संघर्ष को सूक्ष्मता से विश्लेषित किया जाए तो एक बेहतर कृति सामने आ सकती है । गीताश्री की भाषा में रवानगी है, अनुभव भी है बस जरूरत है धैर्य की । इसके अलावा अश्विनी पंकज की कहानी पेनाल्टी कॉर्नर भी उल्लेखनीय है ।
पहले अंक में यतीन्द्र मिश्र की कविता फैज को पढ़ते हुए में हिंदुस्तान और पाकिस्तान की सियात पर तल्ख टिप्पणी है । कवि जब कहता है - आज भी कि फैज होते/जितने कि वो हैं अभी भी/ अपनी नज्मों की तरक्कीपसंद आवाजाही में/उम्मीद की तरह सुलगे हुए । यतीन्द्र मिश्र ने कम उम्र में ही कविता की प्रौढता को हासिल कर लिया है । इसके अलावा आकांक्षा पारे की दो छोटी कविताएं भी उल्लेखनीय हैं । आठ कहानियों और कुछ कविताओं के अलावा इस अंक में लेखों की भरमार है । अपने नजरिए में नामवर सिंह और मैनेजर पांडे ने ई भी नई बात नहीं कही है, क्योंकि कोई नई बात पूछी ही नहीं गई है । घिसे पिटे प्रश्नों के रटे-रटाए जबाव । इस अंक में अल्पना मिश्र की कहानी पुष्पक विमान अच्छी है ।
नयी नजर का नया नजरिए के दूसरे अंक में राजेन्द्र यादव का संपादकीय बेहद सुलझा हुआ और आक्रामक भी है । आमतौर पर हंस का संपादकीय बौद्धिकता के के बोझ तले दबा होता है, लेकिन इस बार राजेन्द्र यादव के हमलावर तेवर ने बौद्धिकता को परे रख दिया है । नामवर सिंह पर हमला करते हुए यादव जी लिखते हैं - अपने युवाकाल में यही नामवर थे जो अपनी मेधा और तेजस्विता से सुननेवालों को झकझोर डालते थे । प्लेइंग टु द गैलरी की मानसिकता ने उन्हें कहां का ला छोड़ा है ? इधर उन्होंने यह सोचना भी छोड़ दिया है कि विमोचन वो अटल बिहारी वाजपेयी की कविताओं का कर रहे हैं या वरवर राव की ... सत्ता वंदना के साथ थोड़ी बहुत क्रांति भी होती रहे तो क्या मुज़ायका । संकेत हाल ही में नामवर द्वारा भारतीय जनता पार्टी के नेता जसवंत सिंह की किताब के विमोचन करने की ओर है ।
कहानियों के अलावा दूसेर अंक में भी एक परिचर्चा है जिसमें लेखक, पत्रकार, प्रकाशक आदि के विचारों को प्रमुखता दी गई है । नयी नजर का नया नजरिया होने का दावा करनेवाला हंस का दोनों अंक बेहद सामान्य और साधारण अंक है । इसमें युवा रचनाशीलता की झलकभर दिखाई देती है । राजेन्द्र यादव के जिन ने चमत्कार तो किया लेकिन ये चमत्कार रचनाओं को जुटाने भर तक और परिचर्चाओं को आयोजित करने तक ही सीमित रह गया । समय की कमी और महीने भर में अंक निकालने की हड़बड़ी भी साफतौर पर दिखती है । किन इतने कम समय में इतनी ढेर सारी रचनाएं जुटाने के लिए अजय की तारीफ तो करनी ही पड़ेगी ।
राजेन्द्र यादव को भले ही लगता हो कि अजय नावरिया ने अपने संपादकीय में सौंदर्यशास्त्र को नए ढंग से परिभाषित करने की कोशिश की है लेकिन सिर्फ चैबर्स डिक्शनरी में से एसथेटिक्स का मतलब ढूंढ निकालना ही सौंदर्यशास्त्र को नए सिरे से परिभाषित करना नहीं है । इसके अलावा सौंदर्य़शाश्त्रपर अजय ने अपने संपादकीय में कोई नई बात नहीं की है । कहीं संस्कृत के श्लोकों और कहीं मार्क्स को आधार बनाकर सौंदर्यशास्त्र पर टिप्पणी करते चलते हैं । अंतत: वो इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि - मानव सभ्यता का विकास जरूरत के टुच्चे सिद्धांत के चलते नहीं बल्कि सौंदर्यबोधात्मक चेतना के कारण हुआ है । राजेन्द्र यादव को यह निष्कर्ष नया लग सकता है लेकिन मैं यह फैसला पाठकों के विवेक पर छोड़ता हूं कि वो इस बात को परखें कि इसमें नया क्या है ।
अब बात दोनों अंकों में प्रकाशित कहानियों की । युवा रचनाशीलता पर केंद्रित इस अंक की पहली कहानी पत्रकार गीताश्री की है । प्रार्थना से बाहर नाम की यह कहानी संभवत: गीताश्री की पहली प्रकाशित कहानी है । गीताश्री की यह कहानी बेहद शानदार और पठनीय है । सचमुच में ये युवा रचनाशीलता की प्रतिनिधि कहानी कही जा सकती है । इसमें युवावस्था के दौर हर पहलू, हर भटकाव, हर विचलन पर विचार किया गया है । जब किसी छोटे शहर की लड़की राजधानी पहुंचती है तो वहां की चमक दमक और तेज रफ्तार जिंदगी उसे अपने आगोश में लेने को बेचैन होती है । इस बेचैनी में जब लड़की की महात्वाकांक्षा शामिल होती है तो कुछ ऐसा घटित हो जाता है जिसकी कल्पना उसने अपने शहर से चलते वक्त तक नहीं की थी । इस कहानी में गीताश्री ने युवाओं के इस मानसिक कॉकटेल को बेहद शिद्दत से उभारा है । लेकिन एक जगह कहानीकार से चूक हो गई है वो ये कि उसने एक उपन्यास की बेहद शानदार थीम को सस्ते में निपटा दिया । धैर्य और श्रमपूर्वक अगर इस विषय पर उपन्यास लिखा जाए और छोटे शहर की लड़कियों के संघर्ष को सूक्ष्मता से विश्लेषित किया जाए तो एक बेहतर कृति सामने आ सकती है । गीताश्री की भाषा में रवानगी है, अनुभव भी है बस जरूरत है धैर्य की । इसके अलावा अश्विनी पंकज की कहानी पेनाल्टी कॉर्नर भी उल्लेखनीय है ।
पहले अंक में यतीन्द्र मिश्र की कविता फैज को पढ़ते हुए में हिंदुस्तान और पाकिस्तान की सियात पर तल्ख टिप्पणी है । कवि जब कहता है - आज भी कि फैज होते/जितने कि वो हैं अभी भी/ अपनी नज्मों की तरक्कीपसंद आवाजाही में/उम्मीद की तरह सुलगे हुए । यतीन्द्र मिश्र ने कम उम्र में ही कविता की प्रौढता को हासिल कर लिया है । इसके अलावा आकांक्षा पारे की दो छोटी कविताएं भी उल्लेखनीय हैं । आठ कहानियों और कुछ कविताओं के अलावा इस अंक में लेखों की भरमार है । अपने नजरिए में नामवर सिंह और मैनेजर पांडे ने ई भी नई बात नहीं कही है, क्योंकि कोई नई बात पूछी ही नहीं गई है । घिसे पिटे प्रश्नों के रटे-रटाए जबाव । इस अंक में अल्पना मिश्र की कहानी पुष्पक विमान अच्छी है ।
नयी नजर का नया नजरिए के दूसरे अंक में राजेन्द्र यादव का संपादकीय बेहद सुलझा हुआ और आक्रामक भी है । आमतौर पर हंस का संपादकीय बौद्धिकता के के बोझ तले दबा होता है, लेकिन इस बार राजेन्द्र यादव के हमलावर तेवर ने बौद्धिकता को परे रख दिया है । नामवर सिंह पर हमला करते हुए यादव जी लिखते हैं - अपने युवाकाल में यही नामवर थे जो अपनी मेधा और तेजस्विता से सुननेवालों को झकझोर डालते थे । प्लेइंग टु द गैलरी की मानसिकता ने उन्हें कहां का ला छोड़ा है ? इधर उन्होंने यह सोचना भी छोड़ दिया है कि विमोचन वो अटल बिहारी वाजपेयी की कविताओं का कर रहे हैं या वरवर राव की ... सत्ता वंदना के साथ थोड़ी बहुत क्रांति भी होती रहे तो क्या मुज़ायका । संकेत हाल ही में नामवर द्वारा भारतीय जनता पार्टी के नेता जसवंत सिंह की किताब के विमोचन करने की ओर है ।
कहानियों के अलावा दूसेर अंक में भी एक परिचर्चा है जिसमें लेखक, पत्रकार, प्रकाशक आदि के विचारों को प्रमुखता दी गई है । नयी नजर का नया नजरिया होने का दावा करनेवाला हंस का दोनों अंक बेहद सामान्य और साधारण अंक है । इसमें युवा रचनाशीलता की झलकभर दिखाई देती है । राजेन्द्र यादव के जिन ने चमत्कार तो किया लेकिन ये चमत्कार रचनाओं को जुटाने भर तक और परिचर्चाओं को आयोजित करने तक ही सीमित रह गया । समय की कमी और महीने भर में अंक निकालने की हड़बड़ी भी साफतौर पर दिखती है । किन इतने कम समय में इतनी ढेर सारी रचनाएं जुटाने के लिए अजय की तारीफ तो करनी ही पड़ेगी ।
Monday, September 7, 2009
दो जन्मदिन, दो अहसास
पिछले हफ्ते साहित्य से जुड़ी दो हस्तियों के जन्मदिन के अवसर पर जाना हुआ । दिल्ली के ऑफिसर्स क्लब में हंस संपादक राजेन्द्र यादव का जन्मदिन समारोह मनाया गया गया जिसमें साहित्य और पत्रकारिता से जुड़े सौ से ज्यादा लोग मौजूद थे । राजेन्द्र यादव के जन्म दिन समारोह का एक बेहद दिलचस्प निमंत्रण पत्र मिला था जो उनकी बेटी रचना यादव ने भेजा था । रचना ने लिखा था- 28 अगस्त को राजेन्द्र यादव यानि मेरे पापू अस्सी वर्ष पूरे कर रहे हैं । उन्हें इस बात का एहसास दिलाने के लिए मुझे आपका सहयोग चाहिए । मुझे बहुत खुशी होगी यदि पापा के खास दोस्त होने के नाते आप मेरे निमंत्रण को स्वीकार करें । चाहे प्रशंसा करते हुए आएं या भर्त्सना लेकिन आएं जरूर । बेहद सुरुचिपूर्ण कागज और हाथ से लिखा था ये पत्र । जाहिर था वहां जाना ही था । वहां पहुंचा तो महफिल सज चुकी थी और रसरंजन का दौर जारी था । कई साहित्यकार अपनी रौ में आ चुके थे । इस बीच यादव जी के मित्र डॉ रमेश सक्सेना ने एक पगड़ी निकाली और वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जी के हाथ में थमा दिया । प्रभाष जी ने राजेन्द्र यादव को पगड़ी पहनाई और उनका पांव छू कर कहा कि आप महान हैं । इसके बाद कवि अजीत कुमार ने राजन्द्र जी के साथ के अपने पुराने संस्मरणों को याद करते हुए कि कहा कि जब हम पतिदेव हुआ करते थे उस वक्त राजेन्द्र विपत्तिदेव थे । अजीत कुमार ने बेहद संक्षिप्त लेकिन उतना ही दिलचस्प संस्मरण राजेन्द्र यादव के बारे में सुनाया । राजेन्द्र यादव का जन्मदिन दिल्ली के साहित्यिक हलके में एक सालाना उत्सव की तरह होता है और राजेन्द्र जी से जुड़े लोग बगैर निमंत्रण के भी वहां जुटते हैं और इस बहाने लोगों की एक दूसरे से मुलाकातें और बातें होती है । कई समीकरण बनते बिगड़ते हैं । इस बार कई नए चेहरे भी देखने को मिले । उनसे बात करने पर पता चला कि वो उत्सुकतावश इस जन्मदिन समारोह में आ गए । वो देखना चाहते थे कि राजेन्द्र यादव का जन्मदिन कैसे मनाया जाता है । पत्रकारिता की एक प्रशिक्षु छात्रा से जब मैंने पूछा कि तुम यहां कैसे तो उसका जबाव सुनकर मैं हैरान रह गया । उसने कहा कि वो वर्तिका नंदा और उदय सहाय की किताब के विमोचन समारोह में पहुंची थी । विमोचन के पहले जब चाय-पान चल रहा था तो कुछ साहित्यकार आपस में यादव जी के जन्मदिन के बारे में बात कर रहे थे वहीं उसे पता चला कि ऑफिसर्स क्लब में हंस संपादक का जन्मदिन समारोह मनाया जा रहा है । जिज्ञासावश, बगैर निमंत्रण के यहां पहुंची उस लड़की से जब मैंने पूछा कि तुम्हें यहां आकर कैसा लगा तो उसका जबाव और भी हैरान करनेवाला था । उसने कहा कि जिनकी कहानियां और लेख पढ़कर मैं बड़ी हुई उन्हें नजदीक से देखना सुखद तो लगा लेकिन कुछ लोगों को जब मैंने शराब से सराबोर होश खोते देखा तो मेरा विश्वास दरक गया । जब मैं ये सुन रहा था तो मृदुला गर्ग के नए उपन्यास मिलजुल मन का एक प्रसंग याद आ रहा था जहां लेखिका ने लिखा है - हिंदी के लेखक शराब पीकर फूहड़ मजाक से आगे नहीं बढ़ पाते । मैं सोचा करती थी, लिक्खाड़ हैं,सोचविचार करनेवाले दानिशमंद । पश्चिम के अदीबों की मानिंद, पी कर गहरी बातें क्यों नहीं करते, अदब की, मिसाइल की, इंसानी सरोकार की । अब समझी वहां दावतों में अपनी शराब खुद खरीदने का रिवाज क्यों है । न मुफ्त की पियो और न सहने की ताकत से आगे जाकर उड़ाओ । अपने यहां मुफ्त की पीते हैं और तब तक चढ़ाते हैं जबतक अंदर बैठा फूहर मर्द बाहर ना निकल आए । दूसरा जन्मदिन था बांग्लादेश से निर्वासित लेखिका तसलीमा नसरीन का । ये एक बेहद ही निजी अवसर था जहां कुल जमा छह लोग मौजूद थे । जब रात के तकरीबन ग्यारह बजे मैं तसलीमा के घर पहुंचा तो उनका ड्राइंग रूम गुब्बारों और फ्रिल्स से सजा हुआ था, केक काटा जा चुका था और वहां मौजूद दो तीन लोग खाना खा रहे थे । मैंने घुसते ही उन्हें विश किया तो वो वेहद गर्मजोशी से मिली और तुरत ही खाना खाने का अनुरोध कर डाला । तस्लीमा ने खुद से कई वेज और नॉनवेज डिशेज तैयार की थी । इसमें हिलसा मछली और पॉमप्रेट बेहद स्वादिष्ट था । तस्लीमा मछली के अलावा चिकेन और मूंग दाल खिलाने पर ज्यादा जोर दे रही थी । खाना बेहद स्वादिष्ट बना था । तस्लीमा वहां मौजूद अपने दोस्तों को पूछ-पूछकर खाना खिला रही थी । दो ढाई घंटे तक रुक रुक कर खाना चलता रहा और साहित्य संसकडति पर बता होती रही । उनकी रचनाओं और नया क्या लिख रही हैं इसपर लंबी बात हुई । पूरे दक्षिण एशिया में महिलाओं की स्थिति पर चर्चा हुई । वहीं मौजूद एक पत्रकार मित्र ने तस्लीमा की रचनाओं का हिंदी में पाठ कर माहौल को गमगीन बना दिया । तस्लीमा की कविताओं का भी पाठ हुआ । अपनी रचनाओं को सुनते हुए तस्लीमा सिगरेट पर सिगरेट फूंकती जा रही थी । लग रहा था कि निर्वासन झेल रही ये बहादुर लेखिका कुछ छुपाना चाह रही है । जाहिर तौर पर निर्वासन का दर्द । रचनाओं के पाठ के बाद जब बातचीत शुरू हुई तब भी तस्लीमा के चेहरे पर कई बार गम और दुख की छाया आती जाती रही लेकिन कभी भी गम और दर्द की वजह को अपने लब पर नहीं आने दिया । बातों का सिलसिला इस कदर चल रहा था किसी को भी उठने का मन नहीं कर रहा था । नीचे बैठा मेरा ड्राइवर लगातार मुझे एसएमएस भेज रहा था कि चलो । आखिरकार लगभग एक बजे मैंने ही पहल कर इस गंभीर चर्चा को विराम लगवाया । और रात लगभग एक बजे हमलोग वहां से निकले । अगले दिन तस्लीमा को विदेश जाना था । एक बार फिर हैप्पी बर्थ डे बोलेत हुए हमने उनसे विदा ली और जब मैं उनके मकान से बाहर निकल रहा था तो ये सोच रहा था कि आखिरकार कब तक तस्लीमा कैदियों जौसी जिंदगी बिताएंगी । कबतक अभिव्यक्ति की आजादी की कीमत उसे अपनी स्वतंत्रता को गिरवी रखकर चुकानी पड़ेगी ।
Tuesday, August 18, 2009
टीआरपी के लिए सबका सामना
क्या आपके मन में कभी अपने पति की हत्या का ख्याल आया ? टीवी प्रस्तोता के इस सवाल के जबाव में जब दो बच्चों की मां हां कहती है तो दर्शकों के साथ साथ उसके पति और सास को भी झटका लगता है । या फिर जब राखी सावंत कहती है कि मैंने काम पाने के लिए सबकुछ किया पर वह नहीं किया, यहां तक कि मैंने छोटे कपड़े भी पहने या फिर जब सलमान खान अपने शो में ये सवाल पूछते हैं कि कितने प्रतिशत भारतीय जोड़े सुहागरात को यौन संबंध नहीं बनाते हैं या फिर टीवी प्रस्तोता उर्वशी ढोलकिया से पूछता है कि क्या कम उम्र में गर्भवती होने की वजह से आपको कॉलेज से निकाल दिया गया ? ये कुछ ऐसे सवाल हैं जो टीवी पर पूछे जा रहे हैं जो बारतीय समाज की परंपरा और वर्जनाओं को छिन्न भिन्न करते हैं और दर्शकों को शॉक देते हैं जिसकी वजह से वो टीवी चैनलों से चिपके रहने को मजबूर हो जाते हैं । इन सवालों और रियलिटी के नाम पर हाल के दिनों में मनोरंजन चैनलों पर जो दिखाया जा रहा है उसेन समाज में एक जबरदस्त बहस छेड़ दी है । हम अगर मनोरंजन चैनलों पर विचार करें तो पाते हैं कि हाल के दिनों में इस तरह के सवालों से भरपूर कार्यकर्मों की बाढ़ सी आ गई है । अगर हम शीर्ष के पांच चैनलों की बात करें तो हर जगह अपने अपने तरीके का अनोखा रियलिटी शो या तो चल रहा है या फिर अभी-अभी खत्म हुआ जिससे जुड़ी जिज्ञासा अब भी दर्शकों के मन में है । लगभग आठ सालों से मनोरंजन चैनलों के बीच नंबर वन की कुर्सी पर काबिज स्टार प्लस की बादशाहत को नए नवेले चैनल कलर्स ने ना केवल चुनौती दी बल्कि उसकी बादशाहत को खत्म कर नंबर वन की कुर्सी पर काबिज भी हो गया । चैनल ने शुरू से ही बिग बॉस और खतरों के खिलाड़ी जैसे शानदार रियलिटी शो पेश कर दर्शकों को अपनी ओर खींचा और दनादन एक से बढ़कर एक शानदार कार्यक्रम पेश कर भारतीय मनोरंजन बाजार की दिशा ही बदल दी ।
इसके शो बालिका वधू ने मनोरंजन चैनलों से सास बहू के आठ साल के रुदन काल को खत्म कर दिया । घर घर की तुलसी का स्थान जगदीश और आनंदी के चटपटे किस्सों ने ले लिया । अपनी कुर्सी हिलती देख स्टर प्लस ने अमेरिका के बेहद लोकप्रिय शो – द मोमेंट ऑफ ट्रूथ के हिंदी संस्करण, ‘सच का सामना’ लॉंच कर दर्शको और मीडिया विशेषज्ञों के साथ संसद को भी हिला दिया । स्टार प्लस पर दिखाए जानेवाले इस शो में पूछे जाने वाले सवालों को लेकर जोरदार बहस शुरू हो गई । ये बहस मीडिया और इंटरनेट के सोशल नेटवर्किंग साइट से होती हुई संसद तक पहुंच गई और समाजवादी पार्टी से सांसद ने राज्यसभा में इस शो में पूछे जानेवाले सवालों को भारतीय सभ्यता और संस्कृति के खिलाफ करार दिया । हंगामा बढ़ता देखकर सूचना प्रसारण मंत्री ने चैनल को कारण बताओ नोटिस जारी कर दिया । लेकिन इस हल्ला गुल्ला का फायदा इस शो को हुआ और ये अपने टाइस स्लॉट में नंबर वन बन गया ।
इस तरह के रियलिटी शो का सहारा मनोरंजन चैनलों की दौड़ में लगातार पिछड़ रहे एनडीटीवी इमेजिन को भी मिला और उसने आइटम गर्ल राखी सावंत का स्वयंवर करवा कर अपनी लोकप्रियता में खासा इजाफा किया । टीआरपी इतनी बढ़ी कि उसने सोनी को पीछे धकेल दिया और नंबर चार पर काबिज हो गया । इस शो की लोकप्रियता से उत्साहित होकर इस चैनल ने अब राहुल महाजन के लिए आदर्श पत्नी तलाशने के कार्यक्रम बनाने की योजना बना ली है । अपनी हालत पतली होती देख सोनी टीवी ने भी छोटे मोटे सेलिब्रिटीज को लेकर एक नया रियलिटी शो शुरू कर दिया- इस जंगल से मुझे बचाओ । इस शो की शूटिंग मलेशिया के जंगलों में हुई और इसकी शूटिंग के लिए तेरह देशों से लगभग तीन सौ तकनीशियनों की टीम लगातार काम कर रही है । इस शो में नायिकाएं कम कपड़ों में जंगल में झरनों के नीचे नहाते दिखी साथ ही कुछ ऐसे संवाद भी सुनने को मिले जो दर्शकों के झटका देने वाले थे । सोनी के इस शो को भी सवा तीन की टीआरपी मिली जो नीचे गिरते चैनल के लिए सुकून देनेवाली है ।
शाम के वक्त मनोरंजन चैनलों पर जो मारकाट मची है दरअसल वो टीआरपी हासिल करने की होड़ है। लेकिन ये टीआरपी आखिर क्या बला है , क्या है टीआरपी का तिलिस्म जिसकी चाहत ने मनोरंजन चैनलों को इस कदर दीवाना बना दिया है कि वो एक के बाद एक रिएलिटी शो की भरमार कर रहे हैं। हर बहस मुहाबिसे में टीआरपी का जिक्र जरूर आता है। लेकिन कोई ये बताने को तैयार नहीं है कि आखिर टीआरपी किस चिड़िया का नाम है और ये क्यों इतना अहम है । टीआरपी दरअसल टेलीविजन रेटिंग प्वाइंट है जिसे टैम ( टेलीविजन ऑडियंस मेजरमेंट ) नाम की संस्था हर हफ्ते जारी करती है । ये रेटिंग हर कार्यक्रम की होती है और टाइमबैंड के हिसाब से जारी की जाती है । मसलन रात दस बजे कौन सा चैनल सबसे ज्यादा देखा गया । इस रेटिंग में पूरे हफ्ते की औसत रेटिंग तो होती ही है साथ ही हर दिन की अलग अलग टाइम बैंड की भी रेटिंग दी जाती है । रेटिंग के अलावा ये संस्था किसी भी चैनल के दर्शकों के बीच उसकी पहुंच (रीच) को भी बताती है कि अमुक कार्यक्रम या अमुक चैनल की पहुंच कितने भारतीय घरों में है ।
अब दूसरा सवाल ये उठता है कि इस रेटिंग की जरूरत क्या है और ये इतना अहम क्यों है । ये अहम इसलिए है कि इसके आधार पर ही चैनलों को मिलनेवाले विज्ञापन और उसकी दर तय होती है । भारतीय टेलीविज़न बाजार लगभग चौबीस हजार करोड़ रुपये का है, इसमें विज्ञापन से होनी वाली आय और ग्राहकों से मिलनेवाली सब्सक्रिप्शन फीस भी शामिल है और इंडस्ट्री पर नजर रखनेवालों का अनुमान है कि मंदी के बावजूद अगले पांच साल में ये चालीस हजार करोड़ को पार कर जाएगी । देश के लगभग साढे सात करोड़ घरों में केबल कनेक्शन है और अगले पांच साल में इसके दस करोड़ के पार पहुंच जाने का अनुमान है । दरअसल इन घरों में टीवी चैनलों के कार्यक्रमों की पहुंच और उसकी लोकप्रियता को मापने का औजार टीआरपी ही है ।
लेकिन टैम जो रेटिंग जारी करती है वो कितना विश्वसनीय हैं, इन आंकड़ों का आधार क्या है और इनकी गणना कैसे की जाती है और इस गणना के लिए सैंपल साइज कितना है । रेटिंग जारी करनेवाली एजेंसी टैम का दावा है कि देशभर में रेटिंग दर्ज करनेवाले आठ हजार बक्से लगे हैं और रिसर्च करनेवालों की एक पूरी टीम हफ्ते भर इसपर काम करती है, उसके बाद ही रेटिंग जारी की जाती है । रेटिंग पर नजर रखनेवालों का ये भी कहना है कि भारत में टीआरपी की जो व्यवस्था है वो विश्व की सबसे बड़ी व्यवस्था है । किसी भी और देश में रेटिंग को रिकॉर्ड करने के लिए इतने बक्से नहीं लगे हैं, जितने भारत में । लेकिन यहां सवाल ये खड़ा हो जाता है कि क्या आठ हजार बक्सों के आधार पर देशभर में किसी कार्यक्रम की लोकप्रियता को आंका जा सकता है और अगर आंका जा सकता है तो वो कितना प्रामाणिक है । देश में टीआरपी की ये व्यवस्था उसी तरह की है जैसे कि चुनाव पू्र्व सर्वेक्षण होते है । चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों में दस बीस हजार के सैंपल साइज को आधार बनाकर देशभर के प्रमुख दलों को मिलने वाली सीटों की भविष्यवाणी कर दी जाती है और उसका हश्र सबके सामने है कि हर चुनाव में ये सर्वे औंधे मुहं गिरते हैं और गलत साबित होते हैं । दरअसल ये पूरी की पूरी धारणा पश्चिम के देशों से आयात की गई है जहां कि जनसंख्या बेहद कम होती है और पूरे देश की संसकृति लगभग एक जैसी होती है । पश्चिम से आयातित इस तरह के फॉर्मूलों को भारत में लागू करने से बहुधा गड़बड़ियां होती है । भारत विविधताओं का देश है, जहां हर कोस पर बोली बदल जाती है और हर प्रांत और सूबे की अपनी एक संस्कृति और पसंद है । यहां ये दावा नहीं किया जा सकता है कि हिंदी भाषी राज्यों में लोगों की पसंद में भी समानता हो सकती है । जो चीज बिहार के लोगों को पसंद हो वो मध्य प्रदेश या फिर हरियाणा के लोगों को पसंद आ जाए ये जरूरी नहीं है । तो ऐसे में टेलीविजन रेटिंग का ये फंडा दोषपूर्ण लगता है । अखबारों की प्रसार संख्या जानने के लिए जो संस्था ऑडिट ब्यूरो ऑफ सर्कुलेशन है उसमें ऑडिटरों की टीम हर अखबार के रिकॉर्ड की जांच करती है जिसमें डिस्पैच और भुगतान की भी जांच की जाती है । लेकिन टैम के बक्से कहां लगे हैं ये रहस्य है और टैम का कहना है कि रेटिंग की पवित्रता को बचाए रखने के लिए ये जरूरी है ।
लेकिन विडंबना ये है कि इस संस्था के द्वारा दिए गए रेटिंग के आधार पर ही हजारों करोड़ रुपये का विज्ञापन तय होता है और रेटिंग में अव्वल स्थान हासिल करनेवाले कार्यक्रमों में दस सेकेंड के विज्ञापन के लिए एक लाख से सवा लाख रुपये तक का रेट है । टैम के विकल्प के रूम में ए-मैप नाम की एक संस्था खड़ी करने की कोशिश की गई लेकिन उसे अबतक विज्ञापन दाताओं से मान्यता नहीं मिल पाई है ।
टीआरपी सिस्टम की एक और विडंबना पर नजर डालते चलते हैं । कुछ महीनों पहले तक हिंदी मार्केट की रेटिंग में बिहार और छत्तीसगढ़ की कोई अहमियत ही नहीं थी । इन राज्यों के लोगों की पसंद नापसंद के बगैर ही हिंदी मार्केट में खबरिया चैनलों का शेयर तय होता था । हिंदी न्यूज चैनल को हिंदी मार्केट पर कब्जा जमाने के लिए गुजरात और महाराष्ट्र के अखाड़े में लड़ाई लड़नी होती थी । कई सालों के बाद अब बिहार और छत्तीसगढ़ के दर्शकों की पसंद को अहमियत दी गई और बताते हैं कि अब इन दोनों सूबे में न्यूज चैनलों की लोकप्रियका मापने के लिए टैम ने बक्से लगा दिए हैं । तो जिस टीआरपी के लिए मनोरंजन चैनल समाज की वर्जनाओं और देश की परंपराओं को छिन्न भिन्न कर रहे हैं उसका आधार ही दोषपूर्ण है और आठ दस हजार लोगों की पसंद के आधार पर सवा करोड़ हिंदी दर्शकों की पसंद के आधार पर करोड़ों रुपये के विज्ञापन तय होते हैं । और इस विज्ञापन के अर्थशास्त्र में सबसे ज्यादा हिस्सा झटकने या हासिल करने के लिए मची होड़ में कभी कभी सीमाओं का अतिक्रमण भी हो जाता है ।
इसके शो बालिका वधू ने मनोरंजन चैनलों से सास बहू के आठ साल के रुदन काल को खत्म कर दिया । घर घर की तुलसी का स्थान जगदीश और आनंदी के चटपटे किस्सों ने ले लिया । अपनी कुर्सी हिलती देख स्टर प्लस ने अमेरिका के बेहद लोकप्रिय शो – द मोमेंट ऑफ ट्रूथ के हिंदी संस्करण, ‘सच का सामना’ लॉंच कर दर्शको और मीडिया विशेषज्ञों के साथ संसद को भी हिला दिया । स्टार प्लस पर दिखाए जानेवाले इस शो में पूछे जाने वाले सवालों को लेकर जोरदार बहस शुरू हो गई । ये बहस मीडिया और इंटरनेट के सोशल नेटवर्किंग साइट से होती हुई संसद तक पहुंच गई और समाजवादी पार्टी से सांसद ने राज्यसभा में इस शो में पूछे जानेवाले सवालों को भारतीय सभ्यता और संस्कृति के खिलाफ करार दिया । हंगामा बढ़ता देखकर सूचना प्रसारण मंत्री ने चैनल को कारण बताओ नोटिस जारी कर दिया । लेकिन इस हल्ला गुल्ला का फायदा इस शो को हुआ और ये अपने टाइस स्लॉट में नंबर वन बन गया ।
इस तरह के रियलिटी शो का सहारा मनोरंजन चैनलों की दौड़ में लगातार पिछड़ रहे एनडीटीवी इमेजिन को भी मिला और उसने आइटम गर्ल राखी सावंत का स्वयंवर करवा कर अपनी लोकप्रियता में खासा इजाफा किया । टीआरपी इतनी बढ़ी कि उसने सोनी को पीछे धकेल दिया और नंबर चार पर काबिज हो गया । इस शो की लोकप्रियता से उत्साहित होकर इस चैनल ने अब राहुल महाजन के लिए आदर्श पत्नी तलाशने के कार्यक्रम बनाने की योजना बना ली है । अपनी हालत पतली होती देख सोनी टीवी ने भी छोटे मोटे सेलिब्रिटीज को लेकर एक नया रियलिटी शो शुरू कर दिया- इस जंगल से मुझे बचाओ । इस शो की शूटिंग मलेशिया के जंगलों में हुई और इसकी शूटिंग के लिए तेरह देशों से लगभग तीन सौ तकनीशियनों की टीम लगातार काम कर रही है । इस शो में नायिकाएं कम कपड़ों में जंगल में झरनों के नीचे नहाते दिखी साथ ही कुछ ऐसे संवाद भी सुनने को मिले जो दर्शकों के झटका देने वाले थे । सोनी के इस शो को भी सवा तीन की टीआरपी मिली जो नीचे गिरते चैनल के लिए सुकून देनेवाली है ।
शाम के वक्त मनोरंजन चैनलों पर जो मारकाट मची है दरअसल वो टीआरपी हासिल करने की होड़ है। लेकिन ये टीआरपी आखिर क्या बला है , क्या है टीआरपी का तिलिस्म जिसकी चाहत ने मनोरंजन चैनलों को इस कदर दीवाना बना दिया है कि वो एक के बाद एक रिएलिटी शो की भरमार कर रहे हैं। हर बहस मुहाबिसे में टीआरपी का जिक्र जरूर आता है। लेकिन कोई ये बताने को तैयार नहीं है कि आखिर टीआरपी किस चिड़िया का नाम है और ये क्यों इतना अहम है । टीआरपी दरअसल टेलीविजन रेटिंग प्वाइंट है जिसे टैम ( टेलीविजन ऑडियंस मेजरमेंट ) नाम की संस्था हर हफ्ते जारी करती है । ये रेटिंग हर कार्यक्रम की होती है और टाइमबैंड के हिसाब से जारी की जाती है । मसलन रात दस बजे कौन सा चैनल सबसे ज्यादा देखा गया । इस रेटिंग में पूरे हफ्ते की औसत रेटिंग तो होती ही है साथ ही हर दिन की अलग अलग टाइम बैंड की भी रेटिंग दी जाती है । रेटिंग के अलावा ये संस्था किसी भी चैनल के दर्शकों के बीच उसकी पहुंच (रीच) को भी बताती है कि अमुक कार्यक्रम या अमुक चैनल की पहुंच कितने भारतीय घरों में है ।
अब दूसरा सवाल ये उठता है कि इस रेटिंग की जरूरत क्या है और ये इतना अहम क्यों है । ये अहम इसलिए है कि इसके आधार पर ही चैनलों को मिलनेवाले विज्ञापन और उसकी दर तय होती है । भारतीय टेलीविज़न बाजार लगभग चौबीस हजार करोड़ रुपये का है, इसमें विज्ञापन से होनी वाली आय और ग्राहकों से मिलनेवाली सब्सक्रिप्शन फीस भी शामिल है और इंडस्ट्री पर नजर रखनेवालों का अनुमान है कि मंदी के बावजूद अगले पांच साल में ये चालीस हजार करोड़ को पार कर जाएगी । देश के लगभग साढे सात करोड़ घरों में केबल कनेक्शन है और अगले पांच साल में इसके दस करोड़ के पार पहुंच जाने का अनुमान है । दरअसल इन घरों में टीवी चैनलों के कार्यक्रमों की पहुंच और उसकी लोकप्रियता को मापने का औजार टीआरपी ही है ।
लेकिन टैम जो रेटिंग जारी करती है वो कितना विश्वसनीय हैं, इन आंकड़ों का आधार क्या है और इनकी गणना कैसे की जाती है और इस गणना के लिए सैंपल साइज कितना है । रेटिंग जारी करनेवाली एजेंसी टैम का दावा है कि देशभर में रेटिंग दर्ज करनेवाले आठ हजार बक्से लगे हैं और रिसर्च करनेवालों की एक पूरी टीम हफ्ते भर इसपर काम करती है, उसके बाद ही रेटिंग जारी की जाती है । रेटिंग पर नजर रखनेवालों का ये भी कहना है कि भारत में टीआरपी की जो व्यवस्था है वो विश्व की सबसे बड़ी व्यवस्था है । किसी भी और देश में रेटिंग को रिकॉर्ड करने के लिए इतने बक्से नहीं लगे हैं, जितने भारत में । लेकिन यहां सवाल ये खड़ा हो जाता है कि क्या आठ हजार बक्सों के आधार पर देशभर में किसी कार्यक्रम की लोकप्रियता को आंका जा सकता है और अगर आंका जा सकता है तो वो कितना प्रामाणिक है । देश में टीआरपी की ये व्यवस्था उसी तरह की है जैसे कि चुनाव पू्र्व सर्वेक्षण होते है । चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों में दस बीस हजार के सैंपल साइज को आधार बनाकर देशभर के प्रमुख दलों को मिलने वाली सीटों की भविष्यवाणी कर दी जाती है और उसका हश्र सबके सामने है कि हर चुनाव में ये सर्वे औंधे मुहं गिरते हैं और गलत साबित होते हैं । दरअसल ये पूरी की पूरी धारणा पश्चिम के देशों से आयात की गई है जहां कि जनसंख्या बेहद कम होती है और पूरे देश की संसकृति लगभग एक जैसी होती है । पश्चिम से आयातित इस तरह के फॉर्मूलों को भारत में लागू करने से बहुधा गड़बड़ियां होती है । भारत विविधताओं का देश है, जहां हर कोस पर बोली बदल जाती है और हर प्रांत और सूबे की अपनी एक संस्कृति और पसंद है । यहां ये दावा नहीं किया जा सकता है कि हिंदी भाषी राज्यों में लोगों की पसंद में भी समानता हो सकती है । जो चीज बिहार के लोगों को पसंद हो वो मध्य प्रदेश या फिर हरियाणा के लोगों को पसंद आ जाए ये जरूरी नहीं है । तो ऐसे में टेलीविजन रेटिंग का ये फंडा दोषपूर्ण लगता है । अखबारों की प्रसार संख्या जानने के लिए जो संस्था ऑडिट ब्यूरो ऑफ सर्कुलेशन है उसमें ऑडिटरों की टीम हर अखबार के रिकॉर्ड की जांच करती है जिसमें डिस्पैच और भुगतान की भी जांच की जाती है । लेकिन टैम के बक्से कहां लगे हैं ये रहस्य है और टैम का कहना है कि रेटिंग की पवित्रता को बचाए रखने के लिए ये जरूरी है ।
लेकिन विडंबना ये है कि इस संस्था के द्वारा दिए गए रेटिंग के आधार पर ही हजारों करोड़ रुपये का विज्ञापन तय होता है और रेटिंग में अव्वल स्थान हासिल करनेवाले कार्यक्रमों में दस सेकेंड के विज्ञापन के लिए एक लाख से सवा लाख रुपये तक का रेट है । टैम के विकल्प के रूम में ए-मैप नाम की एक संस्था खड़ी करने की कोशिश की गई लेकिन उसे अबतक विज्ञापन दाताओं से मान्यता नहीं मिल पाई है ।
टीआरपी सिस्टम की एक और विडंबना पर नजर डालते चलते हैं । कुछ महीनों पहले तक हिंदी मार्केट की रेटिंग में बिहार और छत्तीसगढ़ की कोई अहमियत ही नहीं थी । इन राज्यों के लोगों की पसंद नापसंद के बगैर ही हिंदी मार्केट में खबरिया चैनलों का शेयर तय होता था । हिंदी न्यूज चैनल को हिंदी मार्केट पर कब्जा जमाने के लिए गुजरात और महाराष्ट्र के अखाड़े में लड़ाई लड़नी होती थी । कई सालों के बाद अब बिहार और छत्तीसगढ़ के दर्शकों की पसंद को अहमियत दी गई और बताते हैं कि अब इन दोनों सूबे में न्यूज चैनलों की लोकप्रियका मापने के लिए टैम ने बक्से लगा दिए हैं । तो जिस टीआरपी के लिए मनोरंजन चैनल समाज की वर्जनाओं और देश की परंपराओं को छिन्न भिन्न कर रहे हैं उसका आधार ही दोषपूर्ण है और आठ दस हजार लोगों की पसंद के आधार पर सवा करोड़ हिंदी दर्शकों की पसंद के आधार पर करोड़ों रुपये के विज्ञापन तय होते हैं । और इस विज्ञापन के अर्थशास्त्र में सबसे ज्यादा हिस्सा झटकने या हासिल करने के लिए मची होड़ में कभी कभी सीमाओं का अतिक्रमण भी हो जाता है ।
Sunday, August 9, 2009
हिंदी अकादमी में संग्राम
दिल्ली की हिंदी अकादमी इन दिनों खासी चर्चा में है । जब से हास्य कवि और जामिया के पूर्व प्रोफेसर अशोक चक्रधर को हिंदी अकादमी का उपाध्यक्ष मनोनीत किया गया है तब से ये बवाल खड़ा करने की कोशिश की जा रही है । पहले अकादमी की संचालन समिति की कई वर्षों से सदस्या रही और दिल्ली विश्विद्यालय की एक कॉलेज में हिंदी की शिक्षिका अर्चना वर्मा ने इस्तीफा दे दिया । इस्तीफे की वजह उन्होंने गिनाई कि एक विदूषक को अकादमी का उपाध्यक्ष बना दिया गया है और वो उनके रहते अकादमी में काम नहीं कर सकती । इसके बाद अकादमी के सात-आठ महीने पहले ही सचिन नियुक्त किए गए डॉ ज्योतिष जोशी ने भी अपने पद से इस्तीफा दे दिया और कमोबेश वही वजहें गिनाईं जो अर्चना वर्मा ने गिनाई थी । बात यहीं नहीं रुकी । इसके बाद अकादमी से संबद्ध और वरिष्ठ आलोचक नित्यानंद तिवारी ने भी ये कहते हुए इस्तीफा दे दिया कि अकादमी में स्थितियां ठीक नहीं और ऐसे में उनका अकादमी से जुड़े रहना उचित नहीं है । तिवारी जी ने सीधे-सीधे अशोक चक्रधर पर तो निशाना नहीं साधा लेकिन इशारा उधर ही था । दरअसल तिवारी जी के व्यक्तित्व में ये सब है भी नहीं । अशोक चक्रधर की नियुक्ति से खिन्न साहित्यकारोंम ने अकादमी में हुए इन इस्तीफों को खूब प्रचारित भी करवाया, मीडिया में दोनों पक्षों की बातें जमकर आई । लेकिन इन इस्तीफों के पीछे की कहानी कुछ और ही है । कुछ लोगों की व्यक्तिगत महात्वाकांक्षा तो कुछ लोगों का अपना अहम इस बवाल के पीछे है जिसे नैतिकता या यों कहें कि गंभीर साहित्य और अगंभीर साहित्य का जामा पहनाने की कोशिश की जा रही है । अशोक चक्रधर से पहले अकादमी के उपाध्यक्ष हिंदी के बेहद अहम साहित्यकार हजारी प्रसाद द्विवेदी के बेटे मुकुंद द्विवेदी थे । साहित्य को उनका क्या योगदान है ये अबतक सामने तो नहीं आया है लेकिन वो लंबे समय तक अकादमी के उपाध्यक्ष रहे और अर्चना वर्मा और नित्यानंद तिवारी दोनों किसी ना किसी रूप में अकादमी से जुड़े रहे । उन वर्षों में किसी को साहित्य की याद नहीं आई क्योंकि मुकुंद जी शरीफ आदमी थे और इनमें से किसी की योजना में अड़ंगा नहीं लगाते थे । इसलिए उनका काल निर्विवाद चलता रहा । मुंकुद द्विवेदी के पहले जर्नादन द्विवेदी अकादमी के उपाध्यक्ष हुआ करते थे या तो उनका कद या फिर कांग्रेस के मजबूत नेता होने की वजह से किसी ने भी कभी भी उनके खिलाफ कोई आवाज नहीं उठाई । जनार्दन द्विवेदी का भी साहित्यक लिखा-पढ़ा अभी सामने आना शेष है । तो उस वक्त जब कोई आवाज नहीं उठाई गई तो अब अचानक से क्या हो गया कि एक भूतपू्र्व प्रोफसर को अकादमी का उपाध्यक्ष नियुक्त करने पर बखेड़ा खड़ा किया जा रहा है । नित्यानंद तिवारी ने ये बयान दिया कि ज्योतिष के कार्यकाल में हिंदी अकादमी में जितना काम हुआ उतना पहले कभी नहीं हुआ । नित्यानंद तिवारी जी मेरे गुरू रह चुके हैं, मैं उनकी पूरी इज्जत करता हूं लेकिन गुरूजी से ये सवाल पूछने का मन तो करता ही है कि ज्योतिष के पहले अगर अकादमी में काम नहीं हो रहा था तो आपने उन वर्षों में आवाज क्यों नहीं उठाई । तब क्यों चुपचाप अकादमी की संचालन समिति में बने रहे । हिंदी अकादमी को वर्षों से जाननेवाले लोगों का कहना है कि इस विवाद के पीछे वो है ही नहीं जो मीडिया में प्रचारित प्रासरित किया करवाया जा रहा है । इस विवाद के पीछे दरअसल एक दूसरी कहानी है । अकादमी से जुडे़ सूत्रों का कहना है कि इस विवाद की जड़ में कॉमनवेल्थ गेम्स के वक्त विश्व कविता सम्मेलन के प्रस्ताव को दिल्ली सरकार द्वारा ठुकराया जाना है । अब पूरी कहानी सुनिए दिल्ली की मुख्यमंत्री को कॉमनवेल्थ गेम्स के वक्त राजधानी में विश्व कविता सम्मेलन करवाने का मौखिक प्रस्ताव दिया गया जो उन्होंने भी मौखिक रूप से स्वीकार कर लिया । कहा ये गया कि हिंदी अकादमी ये कार्यक्रम आयोजित करवाएगी और इसपर तकरीबन ढाई करोड़ रुपये खर्च आएंगे । नए-नए सचिव बने और पहला प्रशासनिक दायित्व संभाल रहे ज्योतिष जोशी ने बगैर लिखा-पढ़ी में दिल्ली सरकार की स्वीकृति लिए इस आयोजन के लिए एक कमिटी का गठन कर दिया, जिसके सदस्य कवि कुंवर नारायण, कवि-लेखक अशोक वाजपेयी और हिंदी अकादमी से ही जुड़े प्रोफेसर नित्यानंद तिवारी के अलावा दो और लोग बना दिए गए । कार्यक्रम का अप्रूवल अभी सरकार से आया नहीं लेकिन भाई लोग ललित कला अकादमी में बैठकर इस कार्यक्रम की रूपरेखा और विश्व कवि सम्मेलन में निमंत्रित किए जाने वाले कवियों के नाम पर मगजमारी में जुट गए । एक-दो नहीं कई बैठकें हो गई । अब बैठकें हो रही हैं तो सदस्यों को यात्रा भत्ता तो दिया ही जाएगा । कमिटी के सदस्यों को यात्रा भत्ता के मद में लगभग पचास रुपये खर्च कर दिए गए । आरोप तो ये भी है कि स्थानीय सदस्यों को अकादमी की नियत राशि से ज्यादा के यात्रा भत्ता का भुगतान किया गया । ये सबकुछ चल ही रहा था कि एक साथ दो घटनाएं घटी । एक तो दिल्ली सरकार ने विश्व कविता सम्मेलन के प्रस्ताव को साफ-साफ मना कर दिया और जो ढ़ाई करोड़ रुपये का बजट दिया गया था उसे भी मना कर दिया गया । दूसरे अशोक चक्रधर हिंदी अकादमी के उपाध्यक्ष बना दिए गए । इन दो घटनाओं के बाद हिंदी अकादमी में हड़कंप मच गया । सवाल ये खड़ा हो गया कि राज्य सरकार ने जिस कार्यक्रम के आयोजन की अनुमति दी नहीं वैसे कार्यक्रम के लिए आयोजन समिति का गठन कैसे हो गया । आयोजन समिति का गठन हो भी गया तो उसकी बैठकें कैसे होने लगी और यात्रा का भुगतान किस मद से किया करवाया गया । बेचारे नए नवेले सचिव यहीं गच्चा खा गए । ऐसा प्रतीत होता है कि उनके सलाहकारों ने उन्हें गलत सलाह देकर फंसा दिया । दूसरे अकादमी को पर्दे के पीछे से चलानेवाले कर्ताधर्ताओं को ये अंदाज नहीं था कि अशोक चक्रधर की नियुक्ति हो जाएगी । उन्हें लग रहा था कि उनके ही खेमे का कोई साहित्यकार इस गद्दी को सुशोभित करेगा । लेकिन ये हो ना सका । जब ये हो ना सका तो फिर इन सबसे से बचने के लिए नैतिकता का ताना बाना बुना गया । और इस बात पर साहित्यकार बिरादरी में कनफुसकी शुरू करवाई गई कि एक विदूषक या फिर मंचीय कवि को अकादमी का उपाध्यक्ष बना दिया गया जो एक पवित्र संस्था को डुबो देगा । लेकिन जब सरकार की तरफ से हर साल दिए जाने वाले पुरस्कारों की संख्या में कटौती का प्रस्ताव आया तो सभी ने इसे स्वीकार कर लिया । किसी ने भी जरा भी विरोध नहीं किया । गौरतलब है कि हिंदी अकादमी हर साल कृति और साहित्यकार सम्मान के नाम पर हर साल लगभग दो दर्जन पुरस्कार देकर लेखकों को सम्मानित करती रही है और इसी बहाने किताबों की खरीद हो जाती थी जो बाद में अकादमी अपने कार्यक्रमों के बहाने बंटवा देती थी और इस तरह प्रचार प्रसार होता था । उधर अशोक चक्रधर ने खुद मोर्चा संभाला और अखबारों में बयान देने लगे । पिछले दिनों एक राष्ट्रीय दैनिक को दिए एक साक्षात्कार में अशोक चक्रधर ने ये स्वीकार किया कि उन्होंने कांग्रेस पार्टी के लिए चुनाव पूर्व कैंपेन के लिए गाने लिखे । ये कहकर वो सत्ताधारी दल से अपनी नजदीकी का एहसास साहित्यकारों को करवा कर उन्हें दबाव में लेना चाहते हैं । अच्छा होता अगर वो ये बातें अपने साक्षात्कार में नहीं कहते । लेकिन अब सवाल ये खड़ा हो गया है कि राजधानी में सक्रिय इस अकादमी का भविष्य क्या होगा । सचिव ज्योतिष जोशी के इस्तीफे के बाद अकादमी का कामकाज ठप है । गतिविधियों पर विराम सा लग गया है । साहित्यकारों के आपसी झगड़े ने एक अच्छे भले संस्था का भट्ठा बैठा दिया । और अब इस बात की संभावना प्रबल हो गई है कि इस संस्था पर अफसरों का कब्जा हो जाए और राजधानी की इस अकादमी का हश्र भी अन्य सूबे के अकादमियों जैसा हो जाए और अफसरों की ऐशगाह बन जाए ।
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