हिंदी में साहित्यक किताबों की बिक्री
का खूब रोना रोया जाता है । इस बात पर भी जमकर छाती कूटी जाती है कि हिंदी के साहित्यिक
पाठक खत्म होते जा रहे हैं । गोष्ठियों और सेमिनारों में इस कमी पर लगातार चिंता व्यक्त
की जाती है । गंभीर मंथन भी होता है, लेकिन हालात सुधरने की बजाए
बिगड़ते ही चले जा रहे हैं । पहले हिंदी में साहित्यक कृतियों का संस्करण तीन हजार
कॉपी का हुआ करता था । राजेन्द्र यादव का कहानी संग्रह- जहां लक्ष्मी कैद है का पहला
संस्करण भी तीन हजार प्रतियों का छपा था । थोड़ा पहले जाएं तो ये पांच हजार का भी होता
था । प्रेमचंद ने जब- गोदान- लिखा था तो उस वक्त –हंस- पत्रिका में एक विज्ञापन छपा
था जिसमें बताया गया था कि इसकी पांच हजार प्रतियां छपी हैं । कालांतर में यह संख्या
लगातार कम होती चली गई । लंब समय तक यह हजार और पांच सौ के बीच रही । लेकिन तकनीक के
विकास ने इसको और कम कर दिया । कंप्यूटर के बढ़ते प्रयोग से यह संख्या और कम हो गई
और यह तीन सौ तक सिमट गई । अब तो यह भी कहा जाता है कि संस्करणों की कोई निश्चित संख्या
नहीं होती है जितने का ऑर्डर मिलता है , प्रकाशक उतनी प्रतियां छापकर उपलब्ध करवा देता
है । लेखकों का एक बड़ा समुदाय प्रकाशक की पाठकों तक पहुंचने में उदासीन रवैया और सरकारी
खरीद में ज्यादा रुचि लेने को इसकी वजह मानते हैं । ऐसा मानने वाले गाहे बगाहे प्रकाशकों
पर दिनों दिन अमीर होने और लेखकों के गरीब होने का रोना भी रोते हैं । ऐसा नहीं है
कि हिंदी में पाठकों की कमी है । हिंदी के पाठक लगातार बढ़ रहे हैं , यह बात नेशनल
रीडरशिप सर्वे से लेकर इंडियन रीडरशिप सर्वे के साल दर साल के आंकड़ों से साबित भी
होता है । अखबारों की प्रसार संख्या में लगातार बढ़ोतरी हो रही है । नए नए शहरों से
उनके संस्करण प्रकाशित हो रहे हैं । लेकिन सवाल यहां हिंदी के पाठकों का नहीं है ,
सवाल तो साहित्यक पाठकों का है ।
एक तरफ अमेरिका और यूरोप में ई एल जेम्स की -फिफ्टी शेड्स ऑफ ग्रे- और गिलियन फ्लिन की -गॉन गर्ल- की संयुक्त बिक्री संख्या एक करोड़ प्रतियों को छूने छूने पर है । वहां की बात अगर छोड़ भी दें तो भारत में भी अनुजा चौहान की -दोज प्राइसी ठाकुर गर्ल- या फिर अद्वैत काला की -ऑलमोस्ट सिंगल- की हजारों प्रतियां बिक चुकी है । हिंदी में अब भी सबसे ज्यादा प्रेमचंद ही बिकते हैं । या फिर देवकी नंदन खत्री की किताब चंद्रकांता संतति या भगवती चरण वर्मा की चित्रलेखा या एक हद तक धर्मवीर भारती की गुनाहों का देवता । एक अनुमान के मुताबिक चंद्रकांता के अब तक अस्सी से ज्यादा संस्करण हो चुके हैं । इसके अलावा हरिवंश राय बच्चन की किताब मधुशाला के भी तकरीबन पचास संस्करण हो चुके हैं । राजेन्द्र यादव का उपन्यास सारा आकाश भी लाखों प्रतियां बिक चुकी हैं । लेकिन ये सारी कृतियां काफी वक्त पहले लिखी गईं और इनके आकड़े एक लंबे कालखंड में उस उंचाई तक पहुंच पाए । हिंदी में साल दो साल पहले कोई ऐसी कृति नहीं आई है जो हजारों में बिक सकें लाखों की बात तो बहुत दूर है । जबकि ई एल जेम्स की फिफ्टी शेड्स ऑफ ग्रे और गिलियन फ्लिन की गॉन गर्ल ने तकरीबन साल भर लोकप्रियता का रिकॉर्ड बनाया ।
हिंदी में इसका एक दूसरा पक्ष भी है । दरअसल हिंदी में बेस्ट सेलर की अवधारणा ही नहीं है । हिंदी के कई साहित्यकारों का मानना है कि जो किताबें लोकप्रिय होती हैं उनकी सेल्फ वैल्यू नहीं होती । वो लंबे समय तक एक टाइटिल के रूप में याद नहीं किए जाते हैं । ऐसा दावा करनेवाले विद्वान पश्चिमी देशों का उदाहरण देते हैं और कई किताबों का नाम गिनाते हैं जो धूमकेतु की तरह चमकते हुए गायब हो जाते है । लेकिन अपने इस उत्साह में वो भूल जाते हैं कि दर्जनों ऐसे बेस्ट सेलर हैं जिनका एक कृति के रूप में स्थायी महत्व भी है । जैसे अभी हाल ही में अमेरिकी लेखक जोनाथन फ्रेंजन का उपन्यास –फ्रीडम- आया था जो बेस्ट सेलर भी रहा और आलोचकों ने भी उसकी जमकर तारीफ की । हिंदी में एक अजीब सी धारणा बना दी गई कि जो कृति लोकप्रिय होती है वो प्रतिष्ठित नहीं होती बल्कि वो अल्पजीवी होती है । आज से तकरीबन सवा सौ साल पहले जब चंद्रकांता का प्रकाशन हुआ था तब उसने गैर हिंदी पाठकों को भी अपनी ओर आकृष्ट किया था । माना तो यह भी जाता है कि चंद्रकांता ने हिंदी का एक विशाल पाठक वर्ग तैयार किया । उस वक्त के सरस्वती पत्रिका के संपादक पदुमलाल पन्नालाल बख्शी ने लिखा था- वह चंद्रकांता का युग था । वर्तमान युग के पाठक उस युग की क्लपना नहीं कर सकते जब देवकीनंदन खत्री के मोहजाल में पड़कर हम लोग निद्रा और क्षुधा छोड़ बैठे थे । इतने व्यापक प्रभाव के बावजूद आचार्य रामचंद्र शुक्ल जैसे दिग्गज आलोचक ने चंद्रकांता को तिलिस्म और ऐयारी कहकर खारिज कर दिया था । उसी तरह हिंदी में शिवानी की लोकप्रयता को कभी सम्मान नहीं मिला । गुलशन नंदा से लेकर सुरेन्द्र मोहन पाठक और वेदप्रकाश शर्मा को तो विचार योग्य भी नहीं माना गया । जबकि ये लेखक लाखों में बिकते रहे हैं । वेद प्रकाश शर्मा का उपन्यास -वर्दी वाला गुंडा- तो हिंदी में राजनीतिक हत्या पर लिखा एक बेहतरीन और संभवत एकमात्र उपन्यास है । नतीजा यह हुआ कि हिंदी में बेस्ट सेलर की अवधारणा पनप ही नहीं पाई । हिंदी की साहित्यक पत्रिका हंस के संपादक राजेन्द्र यादव का मानना है कि किसी कृति के आकलन के लिए संख्या स्वस्थ दृष्टि नहीं है क्योंकि अज्ञेय की कृति नदी के द्वीप और धर्मवीर भारती के उपन्यास गुनाहों का देवता की तुलना नहीं हो सकती । हो सकता है कि ये तर्क ठीक हों लेकिन क्या कोई कृति ज्यादा बिकती है इसलिए उसे खारिज कर दिया जाए,यह उचित नहीं है ।
हिंदी साहित्य के इस घटाटोप अंधेरे भरे वक्त में वाणी प्रकाशन के अरुण माहेश्वरी ने साहस दिखाते हुए युवा और चर्चित लेखिका ज्योति कुमारी के कहानी संग्रह – दस्तखत और अन्य कहानियां को हिंदी के युवा लेखकों के बीच का बेस्ट सेलर घोषित किया । उनका दावा है कि सिर्फ दो महीने में इस कृति की एक हजार प्रतियां बिक गई । इस बात को भी साफ किया गया कि यह सरकारी थोक खरीद नहीं बल्कि व्यक्तिगत पाठकों द्वारा खरीदी गई हैं । यह ऐसे वक्त में हुआ है जब प्रकाशकों पर किताबों की बिक्री के आंकड़ों को छुपाने और रॉयल्टी नहीं देने के संगीन इल्जाम लग रहे हैं । क्या इसे हिंदी साहित्यक प्रकाशन जगत में शुभ संकेत माना जाना चाहिए । इस बात का जवाब आने वाले दिनों में मिलने की उम्मीद है । लेकिन सवाल यह है कि एक हजार प्रतियों पर बेस्ट सेलर हो जाना क्या शर्मिंदगी का सबब नहीं है । साठ करोड़ से ज्यादा हिंदी भाषी के देश में यह संख्या कहां है इसका अंदाजा पाठक लगा सकते हैं । दरअसल हिंदी में बेस्ट सेलर की कोई परंपरा रही नहीं है और ना ही इसको बनाने की कोशिश की गई । गाहे बगाहे ऐसी सूची बनती रही है । उन्नीस सौ चौरानवे में जब अवध नारायण मुदगल के संपादन में भारी भरकम साहित्यक पत्रिका छाया मयूर का प्रकाशन हुआ था तो उसमें भारत भारद्वाज ने बेस्ट सेलर की एक सूची बनाई थी । लेकिन पत्रिका का प्रकाशन बाधित होने की वजह से इसकी निरंतरता भी बाधित हो गई । अंग्रेजी में एक पूरा तंत्र है जो किताबों की बिक्री पर नजर रखता है और उसके आंकड़े जारी करता है जिसके आधार पर बेस्ट सेलर की सूची बनती है । हिंदी में ऐसा कोई तंत्र विकसित ही नहीं हो पाया । हिंदी में तो अब भी बिक्री का आंकड़ा प्रकाशक की मर्जी पर निर्भर करता है । हिंदी में वाणी प्रकाशन ने जिस बेस्ट सेलर की शुरुआत की है उसको आगे बढ़ाने की जरूरत है । अपने तमाम पूर्वग्रहों को छोड़कर । बेस्ट सेलर में भी दो तरह की श्रेणी बनाई जा सकती है – एक लोकप्रिय श्रेणी और एक आलोचकों के मानदंडों पर खरी उतरने वाली कृति । इसका एक मैकेनिज्म बनाना होगा ताकि उसकी विश्वसनीयता भी बने और उसकी व्यापक स्वीकार्यता भी हो । इस तरह के मैकेनिज्म के लिए सभी प्रकाशकों को अपने राग-द्वेष मिटाकर एक मंच पर आना होगा और लेखकों के प्रतिनिधियों के सहयोग लेकर इस परंपरा की शुरुआत करनी होगी ।
एक तरफ अमेरिका और यूरोप में ई एल जेम्स की -फिफ्टी शेड्स ऑफ ग्रे- और गिलियन फ्लिन की -गॉन गर्ल- की संयुक्त बिक्री संख्या एक करोड़ प्रतियों को छूने छूने पर है । वहां की बात अगर छोड़ भी दें तो भारत में भी अनुजा चौहान की -दोज प्राइसी ठाकुर गर्ल- या फिर अद्वैत काला की -ऑलमोस्ट सिंगल- की हजारों प्रतियां बिक चुकी है । हिंदी में अब भी सबसे ज्यादा प्रेमचंद ही बिकते हैं । या फिर देवकी नंदन खत्री की किताब चंद्रकांता संतति या भगवती चरण वर्मा की चित्रलेखा या एक हद तक धर्मवीर भारती की गुनाहों का देवता । एक अनुमान के मुताबिक चंद्रकांता के अब तक अस्सी से ज्यादा संस्करण हो चुके हैं । इसके अलावा हरिवंश राय बच्चन की किताब मधुशाला के भी तकरीबन पचास संस्करण हो चुके हैं । राजेन्द्र यादव का उपन्यास सारा आकाश भी लाखों प्रतियां बिक चुकी हैं । लेकिन ये सारी कृतियां काफी वक्त पहले लिखी गईं और इनके आकड़े एक लंबे कालखंड में उस उंचाई तक पहुंच पाए । हिंदी में साल दो साल पहले कोई ऐसी कृति नहीं आई है जो हजारों में बिक सकें लाखों की बात तो बहुत दूर है । जबकि ई एल जेम्स की फिफ्टी शेड्स ऑफ ग्रे और गिलियन फ्लिन की गॉन गर्ल ने तकरीबन साल भर लोकप्रियता का रिकॉर्ड बनाया ।
हिंदी में इसका एक दूसरा पक्ष भी है । दरअसल हिंदी में बेस्ट सेलर की अवधारणा ही नहीं है । हिंदी के कई साहित्यकारों का मानना है कि जो किताबें लोकप्रिय होती हैं उनकी सेल्फ वैल्यू नहीं होती । वो लंबे समय तक एक टाइटिल के रूप में याद नहीं किए जाते हैं । ऐसा दावा करनेवाले विद्वान पश्चिमी देशों का उदाहरण देते हैं और कई किताबों का नाम गिनाते हैं जो धूमकेतु की तरह चमकते हुए गायब हो जाते है । लेकिन अपने इस उत्साह में वो भूल जाते हैं कि दर्जनों ऐसे बेस्ट सेलर हैं जिनका एक कृति के रूप में स्थायी महत्व भी है । जैसे अभी हाल ही में अमेरिकी लेखक जोनाथन फ्रेंजन का उपन्यास –फ्रीडम- आया था जो बेस्ट सेलर भी रहा और आलोचकों ने भी उसकी जमकर तारीफ की । हिंदी में एक अजीब सी धारणा बना दी गई कि जो कृति लोकप्रिय होती है वो प्रतिष्ठित नहीं होती बल्कि वो अल्पजीवी होती है । आज से तकरीबन सवा सौ साल पहले जब चंद्रकांता का प्रकाशन हुआ था तब उसने गैर हिंदी पाठकों को भी अपनी ओर आकृष्ट किया था । माना तो यह भी जाता है कि चंद्रकांता ने हिंदी का एक विशाल पाठक वर्ग तैयार किया । उस वक्त के सरस्वती पत्रिका के संपादक पदुमलाल पन्नालाल बख्शी ने लिखा था- वह चंद्रकांता का युग था । वर्तमान युग के पाठक उस युग की क्लपना नहीं कर सकते जब देवकीनंदन खत्री के मोहजाल में पड़कर हम लोग निद्रा और क्षुधा छोड़ बैठे थे । इतने व्यापक प्रभाव के बावजूद आचार्य रामचंद्र शुक्ल जैसे दिग्गज आलोचक ने चंद्रकांता को तिलिस्म और ऐयारी कहकर खारिज कर दिया था । उसी तरह हिंदी में शिवानी की लोकप्रयता को कभी सम्मान नहीं मिला । गुलशन नंदा से लेकर सुरेन्द्र मोहन पाठक और वेदप्रकाश शर्मा को तो विचार योग्य भी नहीं माना गया । जबकि ये लेखक लाखों में बिकते रहे हैं । वेद प्रकाश शर्मा का उपन्यास -वर्दी वाला गुंडा- तो हिंदी में राजनीतिक हत्या पर लिखा एक बेहतरीन और संभवत एकमात्र उपन्यास है । नतीजा यह हुआ कि हिंदी में बेस्ट सेलर की अवधारणा पनप ही नहीं पाई । हिंदी की साहित्यक पत्रिका हंस के संपादक राजेन्द्र यादव का मानना है कि किसी कृति के आकलन के लिए संख्या स्वस्थ दृष्टि नहीं है क्योंकि अज्ञेय की कृति नदी के द्वीप और धर्मवीर भारती के उपन्यास गुनाहों का देवता की तुलना नहीं हो सकती । हो सकता है कि ये तर्क ठीक हों लेकिन क्या कोई कृति ज्यादा बिकती है इसलिए उसे खारिज कर दिया जाए,यह उचित नहीं है ।
हिंदी साहित्य के इस घटाटोप अंधेरे भरे वक्त में वाणी प्रकाशन के अरुण माहेश्वरी ने साहस दिखाते हुए युवा और चर्चित लेखिका ज्योति कुमारी के कहानी संग्रह – दस्तखत और अन्य कहानियां को हिंदी के युवा लेखकों के बीच का बेस्ट सेलर घोषित किया । उनका दावा है कि सिर्फ दो महीने में इस कृति की एक हजार प्रतियां बिक गई । इस बात को भी साफ किया गया कि यह सरकारी थोक खरीद नहीं बल्कि व्यक्तिगत पाठकों द्वारा खरीदी गई हैं । यह ऐसे वक्त में हुआ है जब प्रकाशकों पर किताबों की बिक्री के आंकड़ों को छुपाने और रॉयल्टी नहीं देने के संगीन इल्जाम लग रहे हैं । क्या इसे हिंदी साहित्यक प्रकाशन जगत में शुभ संकेत माना जाना चाहिए । इस बात का जवाब आने वाले दिनों में मिलने की उम्मीद है । लेकिन सवाल यह है कि एक हजार प्रतियों पर बेस्ट सेलर हो जाना क्या शर्मिंदगी का सबब नहीं है । साठ करोड़ से ज्यादा हिंदी भाषी के देश में यह संख्या कहां है इसका अंदाजा पाठक लगा सकते हैं । दरअसल हिंदी में बेस्ट सेलर की कोई परंपरा रही नहीं है और ना ही इसको बनाने की कोशिश की गई । गाहे बगाहे ऐसी सूची बनती रही है । उन्नीस सौ चौरानवे में जब अवध नारायण मुदगल के संपादन में भारी भरकम साहित्यक पत्रिका छाया मयूर का प्रकाशन हुआ था तो उसमें भारत भारद्वाज ने बेस्ट सेलर की एक सूची बनाई थी । लेकिन पत्रिका का प्रकाशन बाधित होने की वजह से इसकी निरंतरता भी बाधित हो गई । अंग्रेजी में एक पूरा तंत्र है जो किताबों की बिक्री पर नजर रखता है और उसके आंकड़े जारी करता है जिसके आधार पर बेस्ट सेलर की सूची बनती है । हिंदी में ऐसा कोई तंत्र विकसित ही नहीं हो पाया । हिंदी में तो अब भी बिक्री का आंकड़ा प्रकाशक की मर्जी पर निर्भर करता है । हिंदी में वाणी प्रकाशन ने जिस बेस्ट सेलर की शुरुआत की है उसको आगे बढ़ाने की जरूरत है । अपने तमाम पूर्वग्रहों को छोड़कर । बेस्ट सेलर में भी दो तरह की श्रेणी बनाई जा सकती है – एक लोकप्रिय श्रेणी और एक आलोचकों के मानदंडों पर खरी उतरने वाली कृति । इसका एक मैकेनिज्म बनाना होगा ताकि उसकी विश्वसनीयता भी बने और उसकी व्यापक स्वीकार्यता भी हो । इस तरह के मैकेनिज्म के लिए सभी प्रकाशकों को अपने राग-द्वेष मिटाकर एक मंच पर आना होगा और लेखकों के प्रतिनिधियों के सहयोग लेकर इस परंपरा की शुरुआत करनी होगी ।
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