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Saturday, March 11, 2017

विकल्पहीनता और मैत्री का पुरस्कार


दिल्ली की हिंदी अकादमी ने अभी अपने सालाना पुरस्कारों का एलान किया है । पुरस्कृत लेखकों की सूची को देखकर लगा कि हिंदी में पुरस्कारों को लेकर जोखिम उठाने का साहस कोई कर नहीं सकता है ।पिछले वर्ष जब हिंदी अकादमी ने अपने सालाना पुरस्कारों का एलान किया था तब कमोबेश चयन को लेकर एक आश्वस्ति हुई थी । कुछ नाम तब भी विवादास्पद थे लेकिन सरकारी संस्था होने के कारण उसके कर्ताधर्ताओं पर बाहरी-भीतरी कई तरह के दबाव होते हैं । बावजूद इसके पिछले वर्ष के नामों को देखकर लगा था कि हिंदी अकादमी की उपाध्यक्ष मैत्रेयी पुष्पा में जोखिम लेने का साहस है । मैत्रेयी पुष्पा ने दिल्ली की हिंदी अकादमी को गतिशील कर वहां की साहित्यक जड़ता को तोड़ा है लेकिन इस वर्ष के चुनाव में नामों को देखकर लगता है कि मैत्रेयी जी दो साल में व्यवस्था से लड़ते लड़ते थक गई हैं और हथियार डाल दिए हैं । इस वर्ष का सबसे बड़ा पुरस्कार यानि श्लाका सम्मान मैनेजर पांडे को दिया गया है । इन पुरस्कारों पर टिप्पणी करने से पहले यह जान लेना आवश्यक है कि पुरस्कारों की चयन समिति में कौन कौन से विद्वान थे । मैत्रेयी पुष्पा के अलावा भारतीय ज्ञानपीठ के निदेशक और हिंदी के वरिष्ठ कवि लीलाधर मंडलोई, लेखक वीरेन्द्र यादव और प्राध्यापक सुधा सिंह । अब इस सूची से ही बहुत कुछ साफ हो जाता है कि हिंदी अकादमी अपने पुरस्कारों के चयन को लेकर कितनी संजीदा थी । लीलाधर मंडलोई के अलावा जो दो विद्वान इस जूरी में थे उनके बारे में हिंदी जगत को ज्ञात है । वीरेन्द्र यादव हिंदी के आलोचक माने जाते हैं, हिंदी अकादमी में हाल में इनकी सक्रियता बढ़ी है, संभव है अकादमी की उपाध्यक्ष से उनकी नजदीकी फिर से कायम हो गई हो । अन्यथा दिल्ली में रहनेवाले तमाम आलोचकों को दरकिनार कर यादव जी को जूरी में रखने का औचित्य समझ से परे है । दरअसल संस्थाओं पर से मार्क्सवादियों के खत्म होते वर्चस्व के मद्देनजर वीरेन्द्र यादव जैसे सम्मानित वामपंथी लेखक अलग अलग ठीहा तलाशने में लगे हैं । ठीहे की तलाश के क्रम में दिल्ली की अरविंद केजरीवाल की सरकार वामपंथ के अनुयायियों के लिए सबसे मुफीद जगह है । मैत्रेयी पुष्पा अपने लेखन से लेकर अपने विचार में कभी भी किसी पंथ या वाद में नहीं बंधी लेकिन जब सरकारी पद पर पहुंची तो उनके सामने भी अपने सरकार के एजेंडे के हिसाब से काम करने का परोक्ष या प्रत्यक्ष दबाव तो होगा ही । वीरेन्द्र यादव जी को रायपुर में रमन सिंह सरकार द्वारा आयोजित लेखक सम्मेलन पर घोर आपत्ति थी क्योंकि वहां उनके मुताबिक फासीवादी सरकार है, उस पार्टी की सरकार है जिसपर गुजरात दंगों के दाग हैं । वीरेन्द्र यादव जी को गुजरात दंगे याद रहते हैं लेकिन वो मुजफ्फरनगर दंगों को भुलाते हुए अखिलेश यादव सरकार से खुद सम्मानित हो जाते हैं । यादव जी स्वयं बता सकते हैं कि उनके इस विचलन के पीछे उनकी क्या सोच रही होगी, लखटकिया पुरस्कार या कुछ और । खैर यह अवांतर प्रसंग है । अब बचती हैं सुधा सिंह जी, दिल्ली विश्वविद्यालय में शिक्षक हैं और कोलकाता विश्वविद्यालय में शिक्षक रहे जगदीश्वर चतुर्वेदी जी के साथ कई पुस्तकों का लेखन किया है । उनका साहित्यक कद इतना बड़ा नहीं है कि वो जूरी के अन्य सदस्यों के मत का विरोध आदि कर सकें । इसमें से सिर्फ लीलाधर मंडलोई से निरपेक्ष होकर निर्णय की अपेक्षा की जा सकती है ।
अब श्लाका पुरस्कार से पुरस्कृत मैनेजर पांडे के साहित्यक अवदान पर बात कर लेते हैं । पांडे जी बड़े आलोचक हैं । जन संस्कृति मंच से लंबे समय तक जुड़े रहे हैं ।  मैं समझता हूं कि श्लाका सम्मान एक तरह से लाइफ टाइम अचीवमेंट अवॉर्ड है, लिहाजा उनको मिल ही जाना चाहिए था । पर पांडे जी को श्लाका सम्मान मिलने पर मुझे पिछले साल नामवर सिंह के जन्मदिन पर प्रोफेसर कृष्ण कुमार सिंह के संपादन में प्रकाशित बहुवचन पत्रिका में नामवर जी के अपनी बेटी को लिखे एक पत्र की याद आ गई । नामवर जी ने वो पत्र अपनी पुत्री को दार्जिलिंग से बारह जून दो हजार पांच को लिखा था । पत्र की पृष्ठभूमि यह है कि दार्जिलिंग के होटल में कोई पांडे नाम के सज्जन पहुंचे और पांच सौ पृष्ठों के महाकाव्य पर नामवर जी से कुछ लिखने का आग्रह किया । नामवर जी लिखते हैं – बेटू, मेरी वह पुरानी जन्मकुंडली कहीं पड़ी हो तो इस बार लौटने पर मुझे दे देना । मैं उसे किसी ज्योतिषी को दिखाना चाहता हूं । मुझे शक है, उसमें कहीं ना कहीं पांडे-पीड़ा का उल्लेख अवश्य होगा । काशी तो पांडे-पीड़ित हैं ही, कहीं ना कहीं मुझे भी वह छूत लग गई है । भदैनी पर रहने के लिए किराए का जो मकान लिया था वह रामनाथ पांडे का ही दिया हुआ था और बाद में बगल का जो मकान खरीदा वह भी उन्हीं पांडे जी ने दिलवाया था । इस क्रम में मैनेजर पांडे भी याद आ रहे हैं जो जोधपुर में मिले तो मिले ही, मेरी शामत आई कि उनको जेएनयू ले आया और अंत में अवकाश ग्रहण करने के बाद तीन साल के लिए सेंटर पर थोप दिया, जिसके लिए सभी लोग आज भी कोस रहे हैं । जो हो, दार्जीलिंग भीइस पांडे-पीड़ा से सुरक्षित नहीं है । जाने यह पीड़ा कहां-कहां तक और कब तक मेरा पीछा करती रहेगी ।नामवर जी के इस उद्गार में कुछ और जोड़ने की आववश्यकता नहीं है ।
इसके अलावा भी जिन अन्य लोगों को पुरस्कार दिए गए हैं उनके चयन को लेकर यह तर्क दिया जा रहा है कि विकल्पहीनता की वजह से इन लोगों का चयन हुआ । कहा तो यहां तक जा रहा है कि हिंदी अकादमी के सामने विकल्प ही नहीं बचे हैं लिहाजा जो हैं उन्हीं में से चुनाव किया जा रहा है । पर मुझे लगता है कि कुछ को विकल्पहीनता, कुछ को आम आदमी पार्टी के प्रति निष्ठा, कुछ को मैत्रीवश तो कुछ को उनकी उम्र का ख्याल रखकर दिया गया है । इन कोष्ठकों में नाम रख देने से उनका अनादर होगा लेकिन दिल्ली के हिन्दी जगत के लोग इसको बखूबी समझ सकते हैं । वफादारी का इनाम हर जगह मिलता है लेकिन वफादारी को नैतिकता के आवरण में लपेटकर दिया गया इनाम हमेशा संदेहास्पद भी हो जाता है ।  मैत्रेयी पुष्पा ने जब हिंदी अकादमी के उपाध्यक्ष का पद संभाला था तब यह उम्मीद जगी थी कि वो हिंदी की घिसी पिटी लीक से अलग हटकर अपना रास्ता बनाएंगी । एक दो बार इस तरह के जोखिम उठाने के बाद वो भी लीक से हटकर चलने का कौशल नहीं दिखा पाईं । घिसे-पिटे तरीके को अपनाकर मैत्रेयी जी ने भी यह बता दिया कि व्यवस्था को बदलना आसान नहीं है, इसके लिए अदम्य साहस के साथ साथ अपने साथियों की नाराजगी का खतरा मोल लेने की हिम्मत दिखानी पड़ती है । क्या यह संभव नहीं है कि उन कम उम्र लेखकों को पुरस्कृत किया जाए जिन्होंने अपनी लेखनी और सृजनात्मरता से समकालीन हिंदी साहित्य में सार्थक हस्तक्षेप किया है । मैत्रेयी जी को तो यह बात समझनी चाहिए थी क्योंकि उन्होंने तो इसको देखा और महसूसा है कि कैसे बेहतर लेखन के बावजूद उनको सम्मानित नहीं किया गया था । अब वक्त आ गया है कि बेहतर लेखन को रेखांकित कर उसको पुरस्कृत किया जाए चाहे वो किसी आयुवर्ग के लेखक ने किया हो या फिर डंके की चोट पर यह बता देना चाहिए कि लेखक को उसके समग्र योगदान के लिए पुरस्कृत किया जा रहा है । इससे किसी तरह के सवाल उठने की गुंजाइश नहीं रहेगी ।  
एक और बात जिसका दिल्ली की हिंदी अकादमी को खुलासा करना चाहिए था, वह ये कि उन्होंने आम जनता से या लेखकों आदि से जो संस्तुतियां मंगवाई थी उससे इस पुरस्कार को तय करने में कोई मदद मिली या नहीं । अगर मदद मिली तो उसको सार्वजनिक करना चाहिए क्योंकि केजरीवाल जी स्वयं पारदर्शिता की पैरोकारी करते रहे हैं । अगर आमंत्रित संस्तुतियों से पुरस्कार के निर्णायकों को किसी तरह की मदद नहीं मिली तो इस प्रक्रिया को बंद कर देना चाहिए । हिंदी अकादमी अगर यह भी बताती कि किन लेखकों के नामों की संस्तुति सबसे ज्यादा आई है तो निर्णय की विश्वसनीयता बढ़ती ।  बताना तो हिंदी अकादमी को यह भी चाहिए कि पुरस्कार के निर्णायकों का चयन किस आधार पर किया गया है । दिल्ली की अकादमी होने के बावजूद एनसीआर से बाहर के लेखक को निर्णायक मंडल का सदस्य, हिंदी अकादमी की किस नियम के तहत, बनाए गए । अगर इस मसले पर हिंदी अकादमी के नियम खामोश हैं तो इसको परिभाषित किए जाने की भी जरूरत है क्योंकि दिल्ली-एनसीआर में योग्य निर्णायकों के होने के बावजूद बाहर के निर्णायक बुलाने से बेवजह खर्च बढ़ता है । इस खर्च का वहन दिल्ली के करदाताओं के पैसे से होता है और बेहतर होता कि यहीं के लेखकों को जोड़कर अकादमी बेहतर साहित्यक माहौल बनाने की कोशिश करती । राज्यों की अकादमी इसलिए तो केंद्रीय साहित्य अकादमी की प्रकृति से अलग होती है । 

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