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Tuesday, June 27, 2017

कल्पना और घटना का बोझिल कोलाज

हाल में अंग्रेजी की दो किताबें आईं है, जो अपने प्रकाशन के पूर्व से ही चर्चा में बनी हुई है। पहली किताब है अमीष त्रिपाठी की सीता, द वॉरियर ऑफ मिथिला और दूसरी किताब है बुकर पुरस्कार से सम्मानित मशहूर लेखिका अरुंधति राय का उपन्यास द मिनिस्ट्री ऑफ अटमोस्ट हैप्पीनेस। इन दोनों पुस्तकों के प्रकाशन के पूर्व अंग्रेजी मीडिया ने पाठकों के बीच इसको लेकर जबरदस्त उत्सुकता का वातावरण बनाया। लेखकों के साक्षात्कार से लेकर सोशल मीडिया पर इसको हिट करवाने की तरकीब का भी इस्तेमाल किया गया। नतीजा सामने है। दोनों पुस्तकें धड़ाधड़ बिक रही हैं। अमीष त्रिपाठी का अपना एक अलग पाठक वर्ग है और खास विषय है तो अरुंधति ने पिछले दो दशकों में अपने एक्टिविज्म से एक अलग ही तरह का वैश्विक पाठक वर्ग तैयार किया है। अरुंधति राय का पहला उपन्यास गॉड ऑफ स्माल थिंग्स उन्नीस सौ सत्तानवे में आया था, जिसपर उन्हें बुकर पुरस्कार मिला था। यह भारत में रहकर लेखन करनेवाले किसी लेखक को पहला बुकर था। गॉड ऑफ स्माल थिंग्स के प्रकाशन के बीस साल बाद अरुंधति का दूसरा उपन्यास आया है। पूरी दुनिया में अरुंधति के इस उपन्यास का इंतजार था, भारत में भी उनके पाठकों को । दो उपन्यासों के प्रकाशन के अंतराल के बीच अरुंधति ने कश्मीर समस्या, नक्सल समस्या, भारतीय जनता पार्टी खासकर नरेन्द्र मोदी के उभार पर बहुत मुखरता से अपने विचार रखे। इनका विरोध भी हुआ और उनके इस तेवर ने ही उनको वैश्विक स्तर पर एक विचारक के रूप में मान्यता भी दिलाई । अरुंधति का अपना एक पक्ष है, उनके अपने तर्क हैं, जिससे सहमति या असहमति एक अलहदा मुद्दा है लेकिन वो विचारोत्तेजक अवश्य है। जितनी मुखरता से वो भारत की उपरोक्त समस्याओं पर अपने विचारों को प्रकट करती रही हैं, तो यह लाजमी था कि ये सब विचार किसी ना किसी रूप में उनके उपन्यास में आएं। आए भी हैं। द मिनिस्ट्री ऑफ अटमोस्ट हैप्पीनेस के पात्रों की पृष्ठभूमि इन्हीं इलाकों से है। पात्रों के संवाग के केंद्र में भी बहुधा इन समस्याओं को लेखिका जगह देती चलती हैं।
अरुंधति का यह उपन्यास द मिनिस्ट्री ऑफ अटमोस्ट हैप्पीनेस बेहद रोचक तरीके से शुरू होता है । शुरुआत एक लड़के की कहानी से होती है कि किस तरह से उसके अंदर स्त्रैण गुण होता है और अंतत; वो किन्नरों के समूह में शामिल हो जाता है। यहां भी जो संवाद है उसमें अरुंधति का एक्टिविस्ट उनके लेखक पर हावी दिखता है । किन्नरों के बीच के संवाद में यह कहा जाता है कि दंगे हमारे अंदर हैं, जंग हमारे अंदर है, भारत-पाकिस्तान हमारे अंदर है आदि आदि। लेकिन कहानी जैसे जैसे आगे बढ़ती है तो लेखक पर एक्टिविस्ट पूरी तरह से हावी हो जाता है। फिक्शन की आड़ लेकर जब अरुंधति कश्मीर के परिवेश में घुसती हैं तो उनकी भाषा बेहद तल्ख हो जाती है, बहुधा फिक्शन की परिधि को लांघते हुए वो अपने सिद्धांतों को सामने रखती नजर आती हैं। कश्मीर के हालात और कश्मीरियों के दुखों का विवरण देते हुए वो पाठकों को उस भाषा से साक्षात्कार करवाती हैं जिस भाषा से कोफ्त हो सकती है क्योंकि पाठक फिक्शन समझ कर इस पुस्तक को पढ़ रहा होता है। कश्मीर के परिवेश की भयावहता का वर्णन करते हुए वो लिखती हैं – मौत हर जगह है, मौत ही सबकुछ है, करियर, इच्छा, कविता, प्यार मोहब्बत सब मौत है। मौत ही जीने की नई राह है । जैसे जैसे कश्मीर में जंग बढ़ रही है वैसे वैसे कब्रगाह भी उसी तरह से बढ़ रहे हैं जैसे महानगरों में मल्टी लेवल पार्किंग बढ़ते जा रहे हैं। इस तरह की भाषा बहुधा वैचारिक पुस्तकों या लेखों में पढ़ने को मिलती है।
अरुंधति का यह उपन्यास, दरअसल, कई पात्रों की कहानियों का कोलाज है। शुरुआत होती है अंजुम के किन्नर समुदाय में शामिल होने से। उसके बाद कई कहानियां एक के बाद एक पाठकों के सामने खुलती जाती हैं। केरल की महिला तिलोत्तमा की कहानी जो अपनी सीरियन क्रश्चियन मां से अलग होकर दुनिया को अपनी नजरों से देखती है। इस पात्र को देखकर अरुंधति के पहले उपन्यास गॉड ऑफ स्माल थिंग्स की ममाची की याद आ जाती है क्योंकि दोनों पात्र रंगरूप से लेकर हावभाव और परिवेश तक में एक है। इसके साथ ही शुरू होती है एक और दास्तां जो तीन लोगों के इर्द गिर्द घूमती है। एक है सरकारी अफसर बिप्लब दासगुप्ता जो जमकर शराब पीता है, और कश्मीर में पदस्थापित है। एक पत्रकार और एक कश्मीरी । उपन्यास में अरुंधति ने बताया है कि किस तरह परिस्थियों के चलते ये कश्मीरी युवक आतंकवादी बन जाता है। यही युवक तिलोत्तमा को कश्मीर की हालात से परिचित कराता है। यहां पर एक बार फिर से संवाद के दौर में कश्मीर की ऐतिहासिकता को लेकर अरुंधति के विचार प्रबल होने लगते हैं । पाठकों पर जब इस तरह के विचार लादने की कोशिश होती है तो उपन्यास बोझिल होने लगता है । वैचारिकी अरुंधति की ताकत हैं और इस उपन्यास में वो इसको मौका मिलते ही उड़ेलने लगती हैं । कुल मिलाकर अगर हम देखें तो अरुंधति के भक्त पाठकों को यह उपन्यास भा सकता है लेकिन फिक्शन पढ़ने वालों को निराशा हाथ लगेगी

1 comment:

राजा कुमारेन्द्र सिंह सेंगर said...

आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ’सांख्यिकी दिवस और पीसी महालनोबिस - ब्लॉग बुलेटिन’ में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...