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Wednesday, November 29, 2017

साहित्योत्सव से संस्कृति निर्माण?

पिछले कई सालों से देशभर में साहित्य, कला और संस्कृति को लेकर एक प्रकार का अनुराग उत्पन्न होता दिखाई दे रहा है। इसकी वजह क्या हो सकती है ये तो ठीक ठीक नहीं कहा जा सकता है, लेकिन इस बात का अनुमान लगाया जा सकता है कि देशभर में आयोजित होनेवाले साहित्योत्सवों या लिटरेचर फेस्टिवल की इसमें एक भूमिका हो सकती है। वर्तमान में देशभर में अलग अलग भाषाओं और शहरों में करीब साढे तीन सौ लिटरेचर फेस्टिवल हो रहे है। छोटे, बड़े और मंझोले शहरों  को मिलाकर। सुदूर तमिलनाडू से लेकर असम तक में लिटरेचर फेस्टिवल हो रहे है। कुछ व्यक्तिगत प्रयासों से तो कुछ सरकारी संस्थानों द्वारा आयोजित। एक के बाद एक इतने लिटरेचर फेस्टिवल हो रहे हैं कि एक ही स्थान पर एक खत्म हो नहीं रहा है कि दूसरा शुरू हो जा रहा है। लिटरेचर फेस्टिवल के आयोजनों से ऐसा लगने लगा है कि साहित्य में लगातार उत्सव होते हैं । साहित्य और संस्कृति को लेकर अनुराग उत्पन्न होने की बात इस वजह से कि लिटरेचर फेस्टिवलों ने लेखकों और पाठकों के बीच की दूरी को खत्म किया। पाठकों को अपने पसंदीदा लेखकों से मिलने का मंच भी मुहैया करवाया है। इन साहित्य महोत्सवों में पाठकों के पास अपने पसंदीदा लेखकों की हस्ताक्षरयुक्त पुस्तकें खरीदने का अवसर भी मिलता है। लेकिन उनके पास लेखकों से संवाद करने का अवसर नहीं होता है। पाठकों के मन में जो जिज्ञासा होती है वो अनुत्तरित रह जाता है। कई बार यह लगता है कि पाठकों और लेखकों के बीच भी बातचीत का खुला सत्र होना चाहिए जिसमें सूत्रधार ना हों। हो सकता है कि ऐसे सत्रों में अराजकता हो जाए लेकिन लेखकों-पाठकों के बीच सीधा संवाद हो पाएगा।
दरअसल साहित्य में हमेशा से अड्डेबाजी होती रही है। पूरी दुनिया में लेखकों की अड्डेबाजी बहुत मशहूर रही है, कॉफी हाउस में लेखक मिलकर बैठकर साहित्यक मुद्दों से लेकर गॉसिप तक करते रहे हैं। अगर हम भारत की बात करें, तो खास तौर पर हिंदी में साहित्यक अड्डेबाजी लगभग खत्म हो गई थी। लेखकों के साथ-साथ समाज की प्राथमिकताएं बदलने लगी और कॉफी हाउस जैसे साहित्यक अड्डे बंद होने लगे। फेसबुक आदि ने आभासी अड्डे तो बनाए लेकिन वहां के अनुभव भी आभासी ही होते हैं। पहले तो छोटे शहरों में रेलवे स्टेशन की बुक स्टॉल साहित्यकारों की अड्डेबाजी की जगह हुआ करती थी। मुझे याद है कि बिहार के अपने शहर जमालपुर के रेलवे स्टेशन स्थित व्हीलर बुक स्टॉल पर शहर के तमाम साहित्यप्रेमी जुटा करते थे और घंटे दो घंटे की बातचीत के बाद सब अपने अपने घर चले जाते थे। हमारे जैसे नवोदित लोग पीछे खड़े होकर उनकी बातें सुना करते थे, जो कि दिलचस्प हुआ करती थी। वहीं पर बड़े लेखकों से लघु पत्रिकाओं में छपने का प्रोत्साहन भी मिलता था। कमोबेश हर शहर में इस तरह के साहित्यक अड्डे हुआ करते थे। आज के लिटरेचर फेस्टिवल या साहित्योत्सवों को देखें तो वो इन्हीं साहित्यक अड्डों के विस्तार नजर आते हैं ।
खासतौर से हिंदी में ये माना जाने लगा है कि साहित्य के पाठक घट रह हैं। आज से करीब सोलह साल पहले निर्मल वर्मा से एक साक्षात्कार में शंकर शरण ने कथा साहित्य के घटते पाठक को लेकर एक सवाल पूछा था। तब निर्मल जी ने कहा था- पहले तो यह स्थिति है या नहीं, इसके बार में मुझे शंका है। यह हमारे प्रकाशकों की फैलाई बात है, पर पुस्तक मेलों में जिस तरह ले लोग दुकानों पर टूटते हैं, भिन्न भिन्न किस्म की किताबों को खरीदते हैं। एक पइछड़े हुए देश में पुस्तकों के लिए पिपासा स्वाभाविक रूप से होती है, क्योंकि उसे अन्य साधन कम सुलभ होते हैं। पर अच्छी पुस्तकें नहीं पढ़ पाने का एक बड़ा कारण यह है कि वे आसानी से उपलब्ध नहीं होती। फिर कम दामों पर उपलब्ध नहीं हो पाती हैं हमारी लाइब्रेरी की हालत भी बहुत खराब है। यूरोपीय देशों में शहर के हर हिस्से में एक अच्छी लाइब्रेरी मिलेगी। हमारे यहां बड़े बड़े शहरों में दो तीन पुस्तकालय होंगे, वह भी बड़ी खराब अवस्था में। तो अगर आप पुस्तक सस्कृति के विकास के साधन विकसित नहीं करेंगे, तो पुस्तकों के न बिकने का विलाप करना मेरे ख्याल से उचित नहीं है। निर्मल वर्मा ने बिल्कुल सही कहा था कि लाइब्रेरी की हालत खराब है, ज्यादा दूर नहीं जाकर दिल्ली में ही स्थित पुस्तकालयों की हालत पर नजर डालने से बातें साफ हो जाती हैं। अब सवाल उठता है कि क्या साहित्य उत्सवों से हम पुस्तक संस्कृति का निर्माण कर पा रहे हैं। इस बारे में कुछ कहना अभी जल्दबाजी होगी क्योंकि इन लिटरेचर फेस्टिवल में बहुत कम स्थानों पर पुस्तकें उपलब्ध होती हैं। जहां होती भी हैं वहां बहुत कम पुस्तकें होती हैं। पाठकों के सामने विकल्प कम होते हैं। लेकिन इतना अवश्य माना जा सकता है कि इन साहित्य उत्सवों ने पाठकों के बीच पढ़ने की ललक पैदा करने का उपक्रम तो किया ही है। पाठकों को नई पुस्तकों के बारे में जानकारी मिल जाती है।   
मेरे जानते हमारे देश में साहित्योत्सवों की शुरुआत जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के आयोजन से हुई थी। जयपुर में पिछले दस साल से आयोजित होनेवाला ये लिटरेचर फेस्टिवल साल दर साल मजबूती से साहित्य की दुनिया में अपने को स्थापित कर चुका है। हलांकि जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल को लोकप्रिय और चर्चित करने में सितारों और विवादों की खासी भूमिका रही है । वहां फिल्म से जुडे़ जावेद अख्तर, शबाना आजमी, शर्मिला टैगोर, गुलजार आदि किसी ना किसी साल पर किसी ना किसी सेशन में अवश्य मिल जाएंगे । प्रसून जोशी भी । यहां तक कि अमेरिका की मशहूर एंकर ओपरा विनफ्रे भी यहां आ चुकी हैं । इन सेलिब्रिटी की मौजूदगी में बड़े लेखकों की उपस्थिति कई बार दब जाती है । इसको विश्वस्तरीय साहित्यक जमावड़ा बनाने में इसके आयोजकों ने कोई कसर नहीं छोड़ी और वी एस नायपाल से लेकर जोनाथन फ्रेंजन तक की भागीदारी इस लिटरेचर फेस्टिवल में सुनिश्चित की गई । कई नोबेल और बुकर पुरस्कार प्राप्त लेखकों की भागीदारी जयपुर में होती रही है। लेखकों में भी सेलिब्रिटी की हैसियत या फिर मशहूर शख्सियतों की किताबों या फिर उनके लेखन को गंभीर साहित्यकारों या कवियों पर तरजीह दी जाती है। संभव है इसके पीछे लोगों को आयोजन स्थल तक लाने की मंशा रही हो क्योंकि इससे अलग तो कुछ होता दिखता नहीं है।  यह प्रवृत्ति सिर्फ भारत में ही नही है बल्कि पूरी दुनिया में ऐसा किया जाता रहा है । लंदन में तो इन साहित्यक आयोजनों में मशहूर शख्सियतों को लेखकों की बनिस्पत ज्यादा तवज्जो देने पर कई साल पहले खासा विवाद भी हुआ था । यह आवश्यक है कि इस तरह के साहित्यक आयोजनों की निरंतरता के लिए मशहूर शख्सियतों को उससे जोड़ा जाए, क्योंकि विज्ञापनदाता उनके ही नाम पर राशि खर्च करते हैं । विज्ञापनदाताओं को यह लगता है कि जितना बडा नाम कार्यक्रम में शिरकत करेगा उतनी भीड़ वहां जमा होगी और उसके उत्पाद के विज्ञापन को देखेगी, लिहाजा आयोजकों पर इसका भी दबाव होता है ।
जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के आयोजकों ने यह तो बता ही दिया है कि हमारे देश में साहित्य का बहुत बड़ा बाजार है और साहित्य और बाजार साथ साथ कदम से कदम मिलाकर चल सकते हैं । इन आयोजनों से एक बात यह भी निकल कर आ रही है कि बाजार का विरोध कर नए वैश्विक परिदृश्य में पिछड़ जाने का खतरा भी है। हिंदी में लंबे समय तक बाजार और बाजारबाद का विरोध चलता रहा इसका दुष्परिणाम भी हमने देखा है। जयपुर लिटरेटर फेस्टिवल के विरोधी ये तर्क दे सकते हैं कि यह अंग्रेजी का मेला है लिहाजा इसको प्रायोजक भी मिलते हैं और धन आने से आयोजन सफल होता जाता है । सवाल फिर वही कि हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं में हमने कोई गंभीर कोशिश कीबगैर किसी कोशिश के अपनी विचारधारा के आधार पर यह मान लेना कि हिंदी में इस तरह का भव्य आयोजन संभव नहीं है, गलत है । यह भी सही है कि विवादों ने जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल को खासा चर्चित किया । आयोजकों की मंशा विवाद में रही है या नहीं यह तो नहीं कहा जा सकता है लेकिन इतना तय है कि विवाद ने इस आयोजन को लोकप्रिय बनाया । चाहे वो सलमान रश्दी के कार्यक्रम में आने को लेकर उठा विवाद हो या फिर आशुतोष और आशीष नंदी के बीच का विवाद हो, सबने मिलकर इस फेस्टिवल को साहित्य की चौहद्दी से बाहर निकालकर आम जनता तक पहुंचा दिया। इस बारे में अब सरकारी संस्थाओं को भी गंभीरता से सोचना चाहिए कि इस तरह से मेले छोटे शहरों में लगाए जाएं ताकि साहित्य में उत्सव का माहौल तो बना ही रहे, पाठक संस्कृति के निर्माण की दिशा में भी सकारात्मक और ठोस काम हो ।


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