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Monday, April 23, 2018

‘कोठेवालियां’ और सिनेमा का समाजशास्त्र ·


हिंदी साहित्य में फिल्म पर लेखन को सालों तक गंभीरता से नहीं लिया जाता रहा। हिंदी में साहित्यकारों के एक वर्ग का मानना है कि फिल्में और उससे जुड़ी बातें साहित्य के लिए बहुत हल्की हैं। हिंदी में फिल्मों पर गंभीर लेखन लगभग नहीं हो रहा है। फिल्म समीक्षाओं और छिटपुट लेखन को संकलित कर किताबें बनाने की प्रवृत्ति बढ़ी है, कुछ अपवादों को छोड़कर। जबकि अंग्रेजी में ऐसी स्थिति नहीं है वहां सालों से फिल्म और उससे जुड़ी बातों पर गंभीरता से लिखा जाता रहा है। अंग्रेजी ही क्यों कई अन्य भारतीय भाषाओं में भी फिल्मों पर गंभीर अध्ययन हुआ है चाहे वो मलयालम हो, बांग्ला हो या तमिल हो। कई बार तो अंग्रेजी और अन्य भारतीय भाषाओं में प्रकाशित पुस्तकों को देखकर लगता है कि काश हिंदी में भी इस तरह का अध्ययन होता और विद्वान लेखक किसी विषय विशेष पर श्रमपूर्वक पुस्तक लिखते। पिछले दिनों वेंडि डोनिगर की अंगूठी पर केंद्रित किताब द रिंग्स ऑफ ट्रूथ पढ़ते वक्त भी यही बात दिमाग में उठी थी। अभी जब युनिवर्सिटी ऑफ मोंटाना की प्रोफेसर रूथ वनिता की किताब डासिंग विथ द नेशन, कोर्टिजन्स इन बांबे सिनेमा पढ़ी तो एक बार फिर से ये बात दिमाग में कौंधी। रूथ वनिता ने हिंदी फिल्मों में गणिकाओं,नर्तकियों, वेश्याओं, नगरवधुओं, तवायफों और कोठेवालियों जैसे शब्दों तक को परखा है। उनका मानना है कि अन्य विशेषताओं के अलावा कोर्टिजन्स के चरित्रों का चित्रण बांबे सिनेमा को हॉलीवुड से अलग करता है। बहुत सारे शब्दकोशों में कोर्टिजन्स का मतलब वेश्या दिया गया है लेकिन वनिता ने अपनी इस किताब में कोर्टिजन्स का दायरा बढ़ाकर उसको अपने अध्ययन का आधार बनाया है। वनिता ने बांबे फिल्म की उन सभी महिला चरित्रों को अपनी इस किताब में शामिल किया है जो अपनी आजीविका नाच-गाकर चलाती हैं, इतिहास में अलग अलग समय पर पुरुषों का मन भी लगाती रही है चाहे बतिया कर या चाहे मनोरंजन कर। अपनी इस किताब में विनीता ने सिनेमा के अलावा सेक्सुअलिटी की ऐतिहासिकता को प्राचीन भारतीय ग्रंथों के उदाहरणों से भी स्पष्ट किया है। मसलन जब वो वेश्या के बारे में बात करती हैं तो निरुत्तर तंत्र में वर्णित उद्धरणों को पाठकों के सामने रखती हैं। इससे वो सेक्सुअली इंडिपेंडेंट महिला और यौनकर्मी के भेद को स्पष्ट करती हैं। वो तवायफ शब्द के अर्थ बदल जाने को भी रेखांकित करती हैं कि किस तरह तवायफ का अर्थ पहले सिर्फ नाचने गानेवाली होता था जो कालांतर में देह व्यापार से जुड़ गया।
इस पुस्तक में लेखिका ने उन स्थितियों की चर्चा भी की है कि किस तरह से और क्यों बांबे सिनेमा ने कोर्टिजन्स को सेक्स वर्कर चित्रित करना शुरू कर दिया। वो असल जिंदगी की तवायफ को बांबे सिनेमा में तवायफ की भूमिका को मजबूत करनेवाली मानती हैं। उऩका मानना है कि तवायफें प्रशिक्षित नृत्यांगना और गायिका होती थी और उन्होंने ही बांबे फिल्मों में शुरुआती दिनों में एक्टर से लेकर सिंगर, कोरियोग्राफर, म्यूजि डारेक्टर आदि की भूमिका का निर्वाह किया। वो इस बात को भी रेखांकित करती हैं कि बांबे सिनेमा के डीएनए में तवायफ संस्कृति बहुत गहरे तक धंसी हुई थी। फिल्मों में वेश्या के रोल को जिस तरह से हिरोइंस चुनौतीपूर्ण मानती रही हैं उसी तरह से निर्माता और निर्देशक भी वेश्या के इर्द गिर्द फिल्म बनाने को चैलेंज की तरह लेते रहे हैं । भारतीय समाज में वेश्या का चरित्र हमेशा से लोगों को लुभाता रहा है, उनके रहन-सहन से लेकर बात व्यवहार से लेकर उनके जीवन की परतों को देखने समझने की आकांक्षा जनमानस में होती है । हिरोइंस भी इस तरह के रोल को लीक से हटकर मानती रही हैं और उनको भी लगता है कि वेश्या का सफल रोल निभाना उनके करियर का एक अगम पड़ाव हो सकता है,

रूथ वनिता ने इस संबंध में अपनी किताब में नरगिस की मां जद्दनबाई का उदाहरण देती हैं । जद्दनबाई इलाहाबाद की कोर्टिजन दलिपबाई की बेटी थी। जद्दनबाई बांबे सिनेमा में पायनियर की तरह देखी जाती हैं। इसके अलावा वो फातिमा बेगम का नाम लेती हैं और उनको बांबे सिनेमा की पहली महिला निर्देशक करार देती हैं। उन्होंने 1926 में बुलबुल ए परिस्तान नाम की मूक फिल्म बनाई थी। ये भी एक तवायफ के परिवार से थीं। इस तरह के कई अन्य उदाहरण दिए गए हैं। ढाई सौ पन्नों की अपनी इस किताब को रूथ वनिता ने छह अध्याय में बांटा है जिसमें परिवार, ईरास, कार्य, पुरुष सहयोगी, राष्ट्र और धर्म में बांटकर इस विषय की व्याख्या की है। कालखंडों के आधार पर कोर्टिजन्स के बदलते स्वभाव और चरित्र को रेखांकित किया गया है। बदलाव को रेखांकित करते वक्त लेखिका ने उस दौर के फिल्मों के गानों और दृश्यों का बेहतरीन इस्तेमाल किया है। जैसे तवायफ की जाति आदि के बारे में बात करते हुए वो स्वार्थी (1986) फिल्म के गाने की पंक्ति कोट् करती हैं तवायफ नाम है मेरा, निराली जाति मेरी। इसी तरह जब गरीब परिवार की लड़कियों के कोठे पर आने और उसकी जाति की बात होती है तो मंगल पांडे में हीरा का संवाद पेश करती हैं बिकाऊ लोगों की जाति नहीं होती। अपने तर्क के समर्थन में लेखिका फिल्म खिलौना(1970), बेनजीर(1964), तेरी पायल मेरे गीत(1993) और गाइड(1965) जैसी फिल्मों से उदाहरण देती चलती हैं। इसके अलावा वो दरगाह और मंदिरों के जरिए भी इस पेशे से जुड़ी महिलाओं के बारे में बातें करती हैं।
जैसा कि ऊपर भी संकेत किया गया है कि फिल्मकारों से लेकर कलाकारों तक की इच्छा होती है कि वो कोठे के जीवन को लेकर एक फिल्म जरूर बनाए । हिंदी फिल्मों की परंपरा को देखें तो यहां कोठों को लेकर सैकडों फिल्में बनी हैं । सबसे मजेदार तथ्य तो यह है कि कोठेवाली बनने में नई से लेकर पुरानी अभिनेत्रियों को कभी गुरेज नहीं रहा । कोठेवाली की भूमिका को अभिनेत्रियां चुनौतीपूर्ण मानती रही हैं । रेखा ने भी इस रोल में यादगार भूमिकाएं निभाई हैं। फिल्म बेगम जान में विद्या बालन ने तो करीना कपूर ने चमेली में वेश्या की भूमिका निभाई । इस फिल्म के आठ साल बाद करीना एक बार फिर से वेश्या की भूमिका में दिखी फिल्म तलाश में जिसमें उसके साथ आमिर खान और रानी मुखर्जी भी थे । रीमा बुगती की इस फिल्म में भी करीना ने जोरदार अभिनय किया । करीना के अलावा रानी मुखर्जी ने भी साल दो हजार सात में दो फिल्मों में वेश्या की भूमिका निभाई थी – सांवरिया और लागा चुनरी में दाग सांवरिया में उसको रणबीर से इश्क होता है लेकिन कहानी को कुछ और ही मंजूर था और रणबीर, सोनम के इश्क में डूबने लगता है और रानी को भुला देता है । लेकिन रानी की फिल्म लागा चुनरी में दाग एक बेहतरीन और यादगार भूमिका वाली फिल्म है इसी तरह से दो हजार एक में आई फिल्मचांदनी बार में तब्बू की भूमिका ने उस साल उसकी झोली पुरस्कारों से भर दी थी ।
इक्कसवीं सदी की शुरुआत में कई फिल्में बनीं जिसमें उस दौर की टॉप की हिरोइंस ने वेश्या का रोल निभाया । जैसे दो हजार एक में ही बनी फिल्म चोरी चोरी चुपके चुपके में प्रीति जिंटा वेश्या थी जिसे सलमान खान सैरोगेसी के लिए तैयार करते हैं क्योंकि कारोबरी सलमान और उसकी पत्नी रानी मुखर्जी को बच्चा नही हो रहा था । दो हजार नौ में आई फिल्म देव डी में कल्कि ने भी हाई प्रोफाइल काल गर्ल की भूमिका निभाई थी जो दिन में कॉलेज की छात्रा होती थी और रात में वेश्यावृत्ति करती थी । इस फिल्म में आधुनिक समाज में एक लड़की के वेश्यावृत्ति के धंधे में किस मजबूरी में उतरना पड़ता है इसको फिलमकार ने बेहद सधे अंदाज में पेश किया है कंगना रनावत ने भी दो हजार तेरह में बनी फिल्म रज्जो में मुंबई के रेड लाइट एरिया में रहनेवाली वेश्या का रोल किया था । दो हजार पांच में आई फिल्म नो एंट्री में बिपाशा बसु ने भी एक सेक्स वर्कर का रोल किया था । फिल्म मार्केट में मनीषा कोइराला तो जूली में नेहा धूपिया ने भी वेश्या का रोल किया है ।
अपनी इस किताब की शुरुआत में ही लेखिका ने इस अध्ययन की जो रूपरेखा प्रस्तुत की है उससे ही अंदाज लग जाता है कि ये काम बहुत अहम है। इस पूरे अध्ययन का निष्कर्ष लेखिका यह निकालती हैं कि कोर्टिजन का जो चरित्र भारत में रहा है उसके आधार पर ही आधुनिक भारत में जेंडर और सेक्सुअलिटी की अवधारणा का विकास हुआ है। वनिता का मानना है कि बांबे फिल्मों में जिस तरह से कोर्टिजन्स को दिखाया गया है वो भारतीय फिल्म का विश्व सिनेमा को एक अद्भुत देन है। रूथ वनिता की यह पुस्तक बहुत महत्वपूर्ण है और इसको पढकर जेंडर और सेक्सुअलिटी को समझ थोड़ी और साफ होती है।








5 comments:

प्रेम जनमेजय said...

ज्ञानवर्धक। मुझे इस विषय पर दो फिल्मों ने बहुत प्रभावित किया--प्यासा और पाकीजा। साहिर का लिखा साधना का गीत-- औरत ने जन्म दिया मर्दों को..गज़ब।

प्रेम जनमेजय said...

ज्ञानवर्धक। मुझे इस विषय पर दो फिल्मों ने बहुत प्रभावित किया--प्यासा और पाकीजा। साहिर का लिखा साधना का गीत-- औरत ने जन्म दिया मर्दों को..गज़ब।

pritpalkaur said...

बेहतरीन लेख है आपके सभी लेखों की तरह. कोर्टिसान शब्द का वाकई बहुत ही बढिया विश्लेषण किया. एक बात बहुत अच्छी लिखी आपने कि फिल्मों में तवायफ़ का जो चित्रण हुआ है उसने समाज में इनके बारे में की धारणा को बहुत प्रभावित किया है. फिल्मों ने तो वैसे भी समाज को बहुत प्रभावित किया है और करती हैं.. इस बारे में सिरीयस डिसकोर्स होना चाहिए... मुझे तो यहां तक लगता है कि एक बडा वर्ग समाज का अपने रिश्तों को फिल्मों की लीक पर चलाते पूरी जिंदगी काट लेते हैं.... स्त्री पुरुष सन्बंधो का घालमेल तो फिल्मों से बहुत ही प्रभावित होता है

दिलबागसिंह विर्क said...

आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 26.04.2018 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2952 में दिया जाएगा

धन्यवाद

Rohitas Ghorela said...

मेरा निजी मत ये है कि बोम्बे सिनेमा में तवायफ चरित्र दिखाए जाने कि वजह भारतीय मुजरा परम्परा रही है...फिर धीरे धीरे इसका चित्रण अश्लीलता धारण करने लगा और अश्लीलपन देखना लगभग भारतीय को रुचिकर लगता है...ये एक रग थी जिसे पकड़ कर डिरेक्टर एक्ट्रेस ने खूब वाह वाही लुटी.बस यही एक वजह है कि क्यों कोई ऐसे रोल अदा करना चाहता है.

कडवा है लेकिन काला सच है.