जॉर्ज
बर्नाड शॉ ने 1930 में सिनेमा को लेकर एक बेहद महत्वपूर्ण बात कही थी। उनके
मुताबिक ‘सिनेमा लोगों
के दिलोदिमाग को गढ़ेगा और उनके आचरण को प्रभावित करेगा।‘ युवा वर्ग पर उसके दुष्प्रभाव की
अवधारणा का उन्होंने निषेध किया था। वो मानते थे कि ‘यह फिल्म पर भी निर्भर करता और युवा
मस्तिष्क पर भी। हर कला में अच्छी और बुरी दोनों तरह की शक्ति होती है, जब आप किसी
को लिखना सिखाते हैं तो आप उसे फर्जी चेक बनाना भी सिखाते हैं और अच्छी कविता
लिखना भी।‘जॉर्ज बर्नाड
शॉ के इस कथन का
अचानक स्मरण तब हो उठा था जब पिछले दिनों किसी फिल्म देखने के पहले रानी मुखर्जी
अभिनीत फिल्म ‘हिचकी’ का ट्रेलर आया था। उस ट्रेलर को
देखकर साथ बैठे एक दंपति की बातचीत बेहद दिलचस्प थी। ट्रेलर के बाद पत्नी ने सहज
भाव से पति से पूछा कि ये हिचकी कैसी है जो इतने जोरों से आती है। पति ने भी उसी
सहजता से उत्तर दिया कि अरे यार फिल्म है कुछ भी हो सकता है। बातचीत बेहद सामान्य
थी लेकिन जब ‘हिचकी’ फिल्म देखी तो लगा कि ये एक ऐसी
बीमारी पर केंद्रित फिल्म है जिसके बारे में आमजन को ज्यादा पता नहीं है। ये
बीमारी है ‘टूरेट सिंड्रोम’ जिसके बारे में हमारे देश में बहुत
ही कम लोगों को पता है । ये एक न्यूरोसाइकेट्रिक समस्या है जो किसी को भी बचपन से
ही हो सकती है। कोई भी बच्चा इस न्यूरोसाइकेट्रिक समस्या की चपेट में क्यों आता है
इसकी सही वजह का पता नहीं चल पाया है। दरअसल इससे ग्रस्त बच्चों में कंधे के उपर
के हिस्से में अचानक मूवमेंट होती है, कोई आंख मिचकाता है, कोई कंधों को हिलाता है
और कोई बार-बार नाक सिकोंड़ता है आदि आदि। चूंकि इसके बार मे ज्यादा लोगों को पता
नहीं है लिहाजा बच्चों में इस तरह के व्यवहार को लेकर माता-पिता असवाधानी कर जाते
हैं। उनको लगता है कि उनके बच्चे बदमाशी में ऐसा कर रहे होते हैं। फिल्म ‘हिचकी’ के माध्यम से इस समस्या के बारे में समाज को
बताया गया है। यह फिल्म ब्राड कोहेन की आत्मकथा ‘फ्रंट ऑफ द क्लास, हाउ टूरेट सिड्रोम मेड मी द
टीचर आई नेवर हैड’ पर
आधारित है। विशेषज्ञों के मुताबिक ‘टिक’ या ‘टूरेट सिंड्रोम’ के शिकार बहुत कम बच्चे होते हैं। एक अनुमान के
मुताबिक पंद्रह सत्रह हजार बच्चों में से एक बच्चे इसके शिकार होते हैं। इस पूरी
बात को बताने का मकसद ना तो इस समस्या के बारे में बात करना है और ना ही इस
सिड्रोम से ग्रस्त बच्चों का लक्ष्ण बताना उद्देश्य है। उद्देश्य है सिर्फ फिल्म
की उस भूमिका को रेखांकित करना जिसमें वो समाज को शिक्षित भी करता है और किसी खास विषय को लेकर जनता को
जागरूक भी करता है। ‘हिचकी’ फिल्म के माध्यम से इसके निर्माताओं
ने अपनी उस भूमिका का निर्वाह भी किया है।
इसी
तरह से अगर हम देखें तो 2007 में आमिर खान अभिनीत फिल्म आई थी ‘तारे जमीं पर’। ये पूरी फिल्म आठ साल के बच्चे
ईशान के इर्द गिर्द घूमती है। ईशान ‘डिस्लेक्सिया’ का शिकार है। इस फिल्म में ईशान
पढाई में जब अच्छा नहीं कर पाता है तो उसको उसके माता पिता बोर्डिंग स्कूल में भेज
देते हैं जहां वो परेशान होकर खुदकुशी तक करने की सोचता है क्योंकि उसके आसपास का
परिवेश बच्चे की समस्या को नहीं समझ पाता है। उसको जिस संवेदनशील व्यवहार की जरूरत होती है वो उसको ना
तो अपने परिवार से मिलता है ना ही समाज से और ना ही स्कूल के परिवेश से। जानकारी
के अभाव में इस तरह के बच्चों के साथ उनके माता पिता मारपीट करते हैं जो उसके लिए
घातक होता है। परिवार के लोगों को लगता है कि बच्चा जानबूझकर पढाई नहीं करना चाहता
है लिहाजा पिटाई कर उसपर पढ़ने के लिए दबाव बनाया जाता है।
‘डिसलेक्सिया’ के अलावा बहुत सारे बच्चे ‘ऑटिज्म’ के भी शिकार होते हैं जिन्हें हमारा
समाज जागरूकता के अभाव में पागल तक समझने लगता है। जबकि ऐसा होता नहीं है। इस तरह
के बच्चों को संवेदना की दरकार होती है और उनके व्यवहार को नियंत्रित कर और उनकी
समस्या को समझकर अगर उनके साथ उचित व्यवहार किया जाए तो बहुत हद तक वो ठीक होने
लगते हैं। पूरी दुनिया में ऐसे कई उदाहरण है जब डिसलेक्सिया या ऑटिज्म के शिकार
बच्चे अपनी जिंदगी में बहुत अच्छा करते हैं। अलबर्ट आइंस्टीन, बिल गेट्स, स्टीव
जॉब्स से लेकर मोजार्ट तक इसके उदाहरण हैं। आमिर खान की इस फिल्म ‘तारे जमीं पर’ के रिलीज होने के बाद हमारे देश में
जनता के बीच एक खास तरह की जागरूकता देखने को मिली। डिसलेक्सिया से लेकर ऑटिज्म तक
पर बात होने लगी। ऑटिज्म के अलग अलग स्पेक्ट्रम को लेकर लोगों में जागरूकता फैली। बहुत
सारे लोगों का, अभिभावकों का, स्कूलों का इस तरह के बच्चों के साथ व्यवहार बदल
गया। हमारा समाज ‘अटेंशन
डिफसिट हाइपर एक्टिविटी डिसऑर्डर’ की
समस्या से जूझ रहे बच्चों के प्रति संवेदनशील होने लगा। उसके पहले से भी इसको लेकर
कुछ लोगों में जागृति थी लेकिन इस फिल्म के बाद इसकी व्याप्ति कई गुणा बढ़ गई।
2010
में शाहरुख खान की फिल्म आई ‘माई
नेम इज खान’। इसमें शाहरुख
खान ऑटिज्म के स्पेक्ट्रम पर आनेवाले ‘एस्पर्जर
सिड्रोंम’ का शिकार होते
हैं। इस फिल्म में परोक्ष रूप से ये संदेश दिया गया था कि ‘एस्पर्जर सिड्रोंम’ का शिकार व्यक्ति किसी खास काम में
बेहद निपुण हो सकता है। इस फिल्म में शाहरुख खान ने रिजवान खान का चरित्र निभाया
है जो किसी भी चीज की मरम्मत कर देने की कला में निपुण होता है। बाद में ये फिल्म
अमेरिका चली जाती है और वहां की समस्याओं पर फोकस करती है लेकिन कथानक में उन सारी
समस्याओं के साथ साथ ‘एस्पर्जर
सिंड्रोम’ भी साथ चलता
रहता है। इस फिल्म ने भी इस समस्या के बारे में जनता को बताया। जागरूकता बढ़ाई। फिल्म एक बेहद सशक्त
माध्यम है और मनोरंजन के अलावा समाज के प्रति उसका एक उत्तरदायित्व लोगों के बीच
किसी समस्या और उसके समाधान के बारे में जागरूकता फैलाना भी है। ‘तारे जमीं पर’ के रिलीज के दो साल बाद 2009 में आर
बाल्कि ने अमिताभ बच्चन के साथ ‘पा’ फिल्म बनाई। इस फिल्म में नायक
प्रोजोरिया जैसी दुर्लभ बीमारी से ग्रस्त है। प्रोजोरिया एक ऐसा जेनेटिक डिसऑर्डर
है जिसमें उससे ग्रस्त बच्चा बहुत कम उम्र में बुजुर्ग दिखने लगता है। इसी तरह से ‘ब्लैक’ फिल्म में अल्जाइमर को केंद्र में रखा गया है। इस
तरह की फिल्में जनता को पसंद भी आती हैं। इस तरह की दुर्लभ बीमारियों को केंद्र
में रखकर जितनी भी फिल्में बनी लगभग सभी व्यावसायिक दृष्टि से सफल भी रहीं क्योंकि
ये लोगों के दिलों को छूती हैं। इन फिल्मों की माउथ पब्लिसिटी इतनी जबरदस्त होती
है कि वो दर्शकों को सिनेमा हॉल तक खींच लाती है।
सत्तर
के पहले बनने वाली फिल्मों में बीमारियों का चित्रण लोगों की भवनाओं को ध्यान में
रखकर किया जाता था। पहले तो हीरो या फिर उसकी मां या परिवार का कोई अहम सदस्य टीबी
का शिकार होता था और बाद में उसको कैंसर जैसी घातक बीमारी होने लगी थी। हिंदी
फिल्मों के फिल्मकारों ने टी वी जैसी बीमारी का इस्तेमाल ज्यादातर किसी परिवार के
गरीबी के चित्रण के तौर पर किया। इसी तरह से कैंसर जैसी असाध्य बीमारी को भी फिल्मकारों
ने इस्तेमाल किया । जैसे हर्षिकेश मुखर्जी ने आनंद या मिली में इस बीमारी को अपनी
कहानी में इस तरह से पिरोया कि सिनेमा हॉल में दर्शक सुबकते नजर आए थे। दर्द का रिश्ता में कैंसर की बीमारी
से उपजी संवेदना को केंद्र में रखा गया लेकिन उसके बाद के फिल्मकार संवेदना से आगे
जाकर समस्याओं को केंद्र में रखकर जनता को संदेश देने लगे।
मूक
फिल्मों से शुरू होकर आज तक की हिंदी फिल्मों के बिंब लगातार बदल रहे हैं। रंग और
ध्वनि के बदलते प्रयोगों के बीच फिल्मों के विषयों को लेकर भी लगातार नए प्रयोग हो
रहे हैं। अब वो दौर खत्म हो गया कि फिल्मों को व्यावसायिक और अव्यावसायिक की
श्रेणी में बांटकर विचार किया जाए। हिंदी फिल्मों कला और व्यावसायिक फिल्मों में
बंटवारे का दौर भी देखा। उस दौर में कुछ बेहद अच्छी फिल्में बनीं लेकिन वो कारोबार
की दृष्टि से अच्छा नहीं कर पाईं। उसका नतीजा यह हुआ कि अच्छी फिल्म बनानेवालों के
पास संसाधनों की कमी रही और वो धारा सूख गई। अब जबकि यथार्थपरक फिल्मों के नाम पर
कोई अलग खांचा नहीं बचा तो हिंचकी, तारे जमीं पर, माई नेम इज खान, ब्लैक जैसी
फिल्में उस कमी को भी पूरा कर रही हैं और अच्छी कमाई कर इस तरह की फिल्में बनाने
वालों के हाथ भी मजबूत कर रही हैं।
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