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Saturday, October 20, 2018

उत्सवधर्मिता को बचाए रखने की चुनौती


भारतीय संवत्सर में दो नवरात्र धूमधाम से मनाए जाते हैं, एक चैत्र मास में और दूसरा आश्विन मास में। इन दोनों नवरात्र में शक्ति की पूजा की जाती है जो भारतीय समाज की विशेषता है। दो दिन पहले आश्विन नवरात्र खत्म हुआ है। नवरात्रों में शक्ति की पूजा की जाती है और दोनों शक्ति पर्व के पूर में मनाए भी जाते हैं। पिछले कुछ वर्षों से दुर्गा पूजा को लेकर अप्रिय विवाद खड़ा करने की कोशिश की जा रही है। वर्ग विशेष के लोग देवी दुर्गा और महिषासुर को लेकर जिस तरह की बातें करते हैं वो व्यर्थ है। नाहक विवाद से समाज में कटुता पैदा होती है। आस्था पर प्रहार से समाज में वैमनस्य होता है। दुर्गा और काली की प्रतिमाओं पर टिप्पणी करने वालों को भारतीय समाज में धर्म और उससे जुड़े दर्शन के बारे में पता नहीं होता है। दुर्गा और काली को लेकर समाज के हर वर्ग में कितनी आस्था है और वो आस्था कितनी गहरी है इसको मापने का पैमाना शायद उपलब्ध नहीं है। जब दुर्गा और काली को किसी वर्ग विशेष की देवी और महिषासुर को किसी वर्ग विशेष का बताकर टिप्पणियां पढ़ता हूं तो लगता है कि ये लोग भारतीय समाज के यथार्थ से कितने कटे हुए हैं। इस तरह की टिप्पणियों को पढ़ते हिए मुझे बिहार के अपने शहर जमालपुर की याद आने लगती है। जमालपुर-मुंगेर जुड़वां शहर हैं। मुंगेर, कर्ण के दान करने के स्थल कर्णचौरा और मीरकासिम के किले की वजह से प्रसिद्ध है तो जमालपुर रेलवे कारखाना की वजह से। किसी जमाने में इस कारखाने में भाप इंजन बनाए जाते थे। इन दोनों शहरों में दुर्गा पूजा बहुत ही धूमधाम से मनाया जाता है। यहां स्थापित होनेवाली काली और दुर्गा की प्रतिमाओं को या तो नंबर से या फिर इलाके के नाम से जाना जाता है।
जमालपुर में काली की एक प्रतिमा स्थापित होती हैं जिनका नाम है नंबर एक काली। नंबर एक काली का मतलब यह माना जाता है कि शहर में सबसे पहले इसी स्थान पर काली की प्रतिमा स्थापित हुई होगी। इस काली का नाम ही सिर्फ नंबर एक नहीं है बल्कि इस स्थान को पूजा से लेकर विसर्जन तक में नंबर एक होने का सम्मान और प्रतिष्ठा भी हासिल है। विसर्जन के वक्त भी जब शहर की सारी प्रतिमाएं जुलूस की शक्ल में निकलती हैं तो नंबर एक काली सबसे आगे रहती हैं। काली की इस प्रतिमा के विसर्जन के बाद ही अन्य प्रतिमाओं का विसर्जन सालों से होता आ रहा है। नंबर एक काली के बारे में एक और बताना आवश्यक है । काली की इस प्रतिमा की स्थापना बाबूलाल नाम के एक सफाई कर्मचारी के पूर्वजों ने की थी। बाबूलाल जमालपुर नगरपालिका में सफाई कर्मचारी हुआ करते थे और वहां वो मुनादी का काम करते थे। बाबूलाल ने अपने पूर्जवों द्वार स्थापित कालीस्थान को मंदिर का स्वरूप दिया और उसको व्यवस्थित किया जिसकी वजह से उसको बाबूलाल की काली कहा जाने लगा।  बाबूलाल की काली को शहर में सबसे ज्यादा प्रतिष्ठा और मान्यता प्राप्त है। आजादी के पहले का समाज, उसमें सफाई कर्मचारियों की स्थिति, जहां कई बार उनको मंदिरों में प्रवेश की इजाजत नहीं दी जाती थी, वैसे माहौल में सफाई करनेवाले समाज से आनेवाले एक परिवार ने जमालपुर में काली की प्रतिमा स्थापित की। सभी वर्गों ने उसको स्वीकार ही नहीं किया बल्कि आस्था के साथ सर भी झुकाया। यहां यह भी बाताना जरूरी है कि इस कालीस्थान में पूजा-पाठ का काम बाबूलाल और उसके परिवार के लोग ही करते रहे हैं। इसी तरह से जमालपुर में सदर बाजार पुलिस फांड़ी के पास अंग्रेजों के जमाने का एक विशाल कुंआ होता था। उस कुंए पर विजय भगत नाम के एक व्यक्ति ने काली मंदिर बनवाया। उस मंदिर का वो पुजारी भी बना। इसमे भी कहीं से जात-पात आड़े नहीं आया। किसी ने कभी कोई आपत्ति नहीं की। काली माता प्रमुख रहीं बाकी सब गौण। अब इसको देखते हुए लगता नहीं है कि काली और दुर्गा वर्ग विशेष की देवी हैं, जैसा कुछ लोग प्रचारित करना चाहते हैं।
भारतीय समाज में बहुत कुरीतियां रही हैं, छुआछूत तक भी रहा है, जाति व्यवस्था अपने विद्रूप रूप में भी मौजूद रही है लेकिन बाबू लाल की काली मंदिर जैसे उदाहरण भी रहे हैं। जमालपुर में तो देवी स्थान की पहचान भी इलाके के हिसाब से है। जोगमाया दुर्गा या जिसे बड़ी दुर्गा भी कहते हैं को छोड़कर सभी दुर्गा इलाके या समुदाय के हिसाब से भी जानी जाती हैं। मुंगरौड़ा दुर्गा, दलहट्टा दुर्गा, आशिकपुर दुर्गा, बंगाली दुर्गा, मारवाड़ी दुर्गा आदि। इसमे किसी प्रकार का ना तो कोई भेदभाव है और ना ही हमारे-तुम्हारे का एहसास।  
दरअसल हमें यह सोचना होगा कि भारतीय समाज में जिस तरह की उत्सवधर्मिता थी, त्योहारों के समय जो अपनत्व छलक कर बाहर आता था वो कम क्यों होता जा रहा है। हमारा भारतीय समाज उत्सवी समाज है, यहां हर अवसर के लिए उत्सव और गीत है, जन्म से लेकर मृत्यु तक। आधुनिकता के दबाव में हमारे समाजी की ये उत्सवधर्मिता खत्म होती जा रही है। उत्सवधर्मिता के खत्म होने का परिणाम ये हो रहा है कि हमारा समाज संकुचित होता जा रहा है, हम आत्मकेंद्रित होते जा रहे है। त्योहार पर जिस तरह की उत्सव होते थे उससे सामाजिक समरसता तो बढ़ती ही थी रोजगार के अवसर भी पैदा होते थे। मुझे अपना बचपन याद आता है। दुर्गापूजा के मौके पर चार पांच दिन का उत्सव होता था उसमें अलग अलग तरह के मिट्टी के खिलौने बिकते थे, डमरू और बासुरी बिका करती थी, अलग अलग रंगों और आकार के गुब्बारे, किसी में गैस भरी जाती थी तो किसी में पंप से हवा डालकर फुलाया जाता था। इन सब चीजों की खूब बिक्री होती थी। अब जब से उत्सव का स्वरूप बदला है तो इन चीजों की बिक्री पर असर पड़ा है। मिट्टी के खिलौने तो लगभग खत्म ही होते जा रहा हैं, चूंकि बिक्री होती नहीं है लिहाजा इसके कारीगर तैयार नहीं हो रहे है। ये भी संभव है कि आनेवाले वर्षों में ये कला ही समाप्त हो जाए। बांसुरी जगह माउथ-आर्गन ने ले ली है। विसर्जन के समय युद्ध कला का भी प्रदर्शन होता था। लाठियां भांजी जाती थी, तलवारबाजी का प्रदर्शन होता था, छल्ले को लेकर कलाकारी होती थी आदि आदि। ये सब विसर्जन के जुलूस में प्रतिमा के आगे हुआ करता था। ये इतना रोमांचक होता था कि इसको देखने के लिए लोग रात भर जागकर सड़क किनारे की इमारतों पर जाकर बाठ जाते थे। धीरे-धीरे इन कलाओं की जगह डीजे और नाच गाने ने ले ली है। स्थानीय कला का प्रदर्शन लगभग खत्म हो गया है। संभव है इऩ वजह से भी लोगों की रुचि कम होने लगी हो। चार-पांच दिनों तक दुर्गापूजा का जो मेला लगता था, उसमें हमें घर से सभी बड़े लोग पैसे देते थे मेला घूमने के लिए। हम पैसे लेकर दुर्गास्थान और उसके आसपास लगे कठघोड़वा और चरखी पर बार-बार चढ़ने जाते थे। काठ की चरखी और काठ के घोड़े पर गोल-गोल घूमने के लिए बच्चों और किशोरों मे दीवानगी लक्षित की जा सकती थी। कठघोड़वा और चरखी लानेवालों की मेले में खूब कमाई होती थी। जाइंट व्हील में वो मजा कहां जो काठ की छोटी चरखी में होती थी।
ये सब ऐसी चीजें होती थीं, जो पर्यावरण को भी नुकसान नहीं पहुंचाती थी। चरखी और कठघोड़वा हाथ से चलाए जाते थे, मिट्टी के खिलौने से पर्यावरण को नुकसान नहीं होता था, यही हाल बांसुरी और डमरू का होता था। अब इन मेलों में इस तरह के सामानों की बिक्री होती है जिनमें से ज्यादातर प्लास्टिक से बने होते हैं जो पर्यावरण के लिए ठीक नहीं है। पूजा के दौरान मेले में कानफाड़ू शोर भी नहीं मचा करता था, फिल्मी गानों की तर्ज पर भक्ति गीत-संगीत का शोर भी सुनने को नहीं मिलता था। इतनी आतिशबाजी नहीं होती थी। पूजा और मेले में पंडाल के नहीं होने से शक्ति प्रदर्शन जैसी कोई बात भी नहीं होती थी। हमने जिस तरह से बचपन में पूजा के दौरान मेला और उसका स्वरूप देखा है उसका स्वरूप बदलता जा रहा है। बदलते वक्त के साथ सकारात्मक बदलाव होने चाहिए, अपनी परंपराओं को कायम रखते हुए और रूढ़ियों को छोड़ते हुए उत्सवधर्मिता को कायम रखना होगा। क्योंकि हमारे समाज से उत्सवधर्मिता का खत्म होना खतरनाक है क्योंकि विविध धर्म, जाति, संप्रदाय वाले हमारे देश में उत्सवधर्मिता ही हमें जोड़ती है। उत्सवधर्मिता ही वह साझा सूत्र है जो पूरे भारत को एक करती है। मौजूदा पीड़ी का ये दायित्व है कि वो आनेवाली पीढ़ियों को उत्सवधर्मी बनाए ताकि हमारी सांस्कृतिक विरासत बची रह सके।

1 comment:

YOGESHWAR said...

पुरानी मान्यता, परंपरा आस्था और विश्वास को बदलने का कुत्सीत प्रयास हो रहा है । शायद इसी का नाम बदलाव है ।