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Monday, February 4, 2019

संतों घर में झगड़ा भारी !


साहित्य के बाजारीकरण के विरुद्ध राजस्थान प्रगतिशील लेखक संघ की पहल का उद्घोष करते हुए पिछले साल से समानांतर साहित्य उत्सव की शुरुआत जयपुर में हुई। ये उन्हीं तिथियों में आयोजित किया जाता है जब दुनियाभर में मशहूर जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल का आयोजन होता है। इसकी स्थापना के पीछे जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के आयोजन के तौर तरीकों का विरोध भी था। इस समानांतर साहित्य महोत्सव में ज्यादातर उन्हीं लेखकों को बुलाया जाता है जो कथित तौर पर प्रगतिशील होते हैं।ज्यादातर वही लेखक वहां आमंत्रित किए जाते हैं जो प्रगतिशील लेखक संघ के सदस्य होते हैं। कुछ बाहर के भी होते हैं। जयपुर की एक संस्था भी कुछ लेखकों के नाम सुझाती हैं और उनको भी आमंत्रित किया जाता है। प्रगतिशीलता का ढोल इतना पीटा जाता है कि इस आयोजन के सर्वेसर्वा और राजस्थान प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव अपने फेसबुक पोस्ट में हुंकार भरते हैं कि पीएलएफ (पैरेलल लिटरेचर फेस्टिवल यानि समानांतर साहित्य उत्सव) में ना तो कोई दक्षिणपंथी आया और न ही कोई ऐसा लेखक जिसने दूसरे की किताबें अपने नाम से छपवा लीं हों। ये पोस्ट 29 जनवरी को लिखा गया। अब ये समझने की बात है कि ऐसा क्यों कहा गया। दरअसल इसकी पृष्ठभूमि में एक ऐसा फैसला है जो प्रगतिशीलता पर सवाल खड़ा करती है। राजस्थान प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव ईश मधु तलवार के मुताबिक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर मकरंद परांजपे को समानांतर साहित्य उत्सव की सहयोगी संस्था काव्या ने आमंत्रित किया था। जब उन्हें इस बात का पता चला तो उन्होंने पीएलएफ को इससे अलग कर लिया। लेकिन काव्या ने उसी परिसर में मकरंद का कार्यक्रम आयोजित किया जहां समानांतर लिटरेचर फेस्टिवल हो रहा था। तलवार का कहना है कि मकरंद और काव्या के कार्यक्रम से उनका कोई लेना देना नहीं है और समानांतर साहित्य उत्सव का बैनर भी इस कार्यक्रम में नहीं लगाया गया। पर मंच वही, स्थान वही। समानांतर साहित्य उत्सव के दौरान प्रगतिशील लेखक संघ की कार्यकारिणी की बैठक हुई। उस बैठक में मकरंद परांजपे को आमंत्रित करने का मुद्दा उठा। प्रगतिशील लेखक संघ के संस्थापक सज्जाद जहीर की बेटी और लेखिका नूर जहीर ने मकरंद को बुलाने का जोरदार विरोध किया। बैठक में उन्होंने बाबरी मस्जिद के गिराए जाने से लेकर पादरी ग्राहम स्टैंस की हत्या पर मकरंद के स्टैंड को रखा और कहा कि वो संघी हैं लिहाजा उनको यहां नहीं बुलाया जाना चाहिए। कार्यकारिणी के कुछ सदस्यों ने मकरंद परांजपे को मध्यमार्गी बताते हुए अपने तर्क रखे लेकिन उनकी सुनी नहीं गई। कार्यकारिणी की बैठक में मकरंद को नहीं बुलाए जाने का फैसला हुआ। अब नूर जहीर साहिबा को कौन समझाए कि जब सज्जद जहीर ने प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना की थी तो उसके चार्टर में अस्पृश्यता नहीं था। जिसे बाद में इस संगठन ने अपनाया। अब ये कैसी प्रगतिशीलता है जो अपने से इतर विचारधारा के लोगों को अछूत मानती है, उनके साथ मंच साझा नहीं करना चाहती है। समानांतर साहित्य महोत्सव के आयोजक भले ही ये दावा करें लेकिन उन्होंने उदय प्रकाश को तो आमंत्रित किया, उनके सत्र भी हुए। शायद वो ये भूल गए हों कि उदय प्रकाश ने योगी आदित्यनाथ के हाथों पुरस्कार ग्रहण किया था। उस वक्त भी योगी आदित्यनाथ के हाथों उदय प्रकाश के पुरस्कार लेने की काफी चर्चा हुई थी, लेकिन कोई फर्क नहीं पड़ा। इसके अलावा भी समानांतर साहित्य उत्सव में कई ऐसे लेखक नजर आए जो जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में भी होते थे और वहां भी। भोजन और रसरंजन जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में और भाषण और क्रांति समानांतर साहित्य उत्सव में। ना तो जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के आयोजकों को कोई परहेज है और ना ही समानांतर लिटरेचर फेस्टिवल के आयोजकों को। बाजार का साथ भी और बाजार का विरोध भी। इसे ही कहते हैं विरुद्धों का सामंजस्य। पिछले साल तक तो इस आयोजन से एक ऐसा शख्स जुड़ा था जिसने लेखिकाओं के बारे में अपमानजनक टिप्पणियां कीं थी। बावजूद इसके उन महोदय को आयोजन समिति में रखा गया था। तब भी प्रगतिशीलता पर सवाल उठे थे लेकिन महिला हितों का नारा बुलंद करनेवाले लेखक और लेखिकाएं आयोजन में शामिल हुए थे।
27 जनवरी को राजस्थान जनवादी लेखक संघ(जलेस) ने एक बयान जारी किया समानांतर साहित्य उत्सव, जिसका आयोजन प्रगतिशील मूल्यों के प्रति प्रतिबद्ध प्रगतिशील लेखक संघ की राजस्थान इकाई कर रही है, में प्रोफेसर मकरंद परांजपे की उपस्थिति की कार्यक्रम में घोषणा हमें हतप्रभ करती है.जनवादी लेखक संघ की यद्यपि इस कार्यक्रम में सांगठनिक व वैचारिक साझेदारी नहीं है,परन्तु प्रगतिशील लेखक संघ जिन मूल्यों और विचारों के प्रति प्रतिबद्ध है, उनका समर्थन जलेस सदैव करता रहा है. मकरंद परांजपे की विचारधारा न केवल दक्षिणपंथी है, अपितु उसमें साम्प्रदायिकता और दक्षिणपंथ के विभिन्न पक्षों का समन्वय दिखता है. जेएनयू दिल्ली में राष्ट्रवाद पर उनकी संकीर्ण मानसिक दृष्टि को सब जानते हैं. ऐसी विचारधारा के समर्थकों का प्रगतिशील लेखक संघ के कार्यक्रम में भाग लेना और भाग लेने के लिए प्रलेस के द्वारा निमंत्रण देना दुर्भाग्यपूर्ण और पूर्णतः निराश करने वाला है, क्योंकि साम्प्रदायिकता के साथ कोई समझौता नहीं का विचार जलेस की वैचारिकी का केंद्रबिंदु है और जलेस इस वैचारिकी में प्रलेस को अपना सहयोगी मानता है। ये सब चल ही रहा था कि जनवादी लेखक संघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष असगर वजाहत समानांतर साहित्य महोत्सव में शामिल होने के लिए जयपुर पहुंच गए। उनपर दबाव बनना शुरू हो गया और सुबह होते होते उनकी तबीयत इतनी खराब हो गई कि वो साहित्य उत्सव में शामिल हुए बगैर जयपुर से वापस लौट आए। अगर समानांतर लिटरेचर फेस्टिवल में होनेवाली चर्चा को मानें तो कहा जा सकता है कि जनवादी लेखक संघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने प्रगतिशील लेखक संघ के इस आयोजन का बहिष्कार कर दिया। इसी तरह से जनवादी लेखक संघ से जुड़े कुछ अन्य लेखकों ने भी समानांतर साहित्य उत्सव से अपना नाम वापस ले लिया। साहित्यिक आयोजनों का बहिष्कार करने की ये प्रवृत्ति दरअसल वैचारिक विनिमय के राह की सबसे बड़ी बाधा है। जबतक आप एक दूसरे के विचारों को सुनेंगे और समझेंगे नहीं तब तक तो अपने-अपने घेरे में रहकर खुद को ही श्रेष्ठ मानते रहेंगे। यही श्रेष्ठता बोध किसी भी विचार को फैलने से रोकती है, उसकी स्वीकार्यता को बाधित करती है। मार्क्सवादियों के साथ यही हो रहा है। अगर इसी तरह से चलता रहा तो वो दिन दूर नहीं जब मार्क्सवाद किताबों में रह जाएगा।
मकरंद परांजपे तो एक वजह बने लेकिन इस पूरे प्रकरण के पीछे की बड़ी वजह प्रगतिशील और जनवादी लेखक संघ की प्रतिद्विंता है। आपस का झगड़ा है। वर्चस्व की लड़ाई है। प्रगितशील लेखक संघ ने जब पिछले साल जयपुर में समानांतर साहित्य उत्सव का एलान किया था तब भी जनवादी लेखक संघ ने उस आयोजन का विरोध किया था। विरोध यहां तक बढ़ा था कि जनवादी लेखक संघ ने समानांतर के समानांतर एक साहित्यिक आयोजन कर दिया था। जनवादी लेखक संघ के उस आयोजन को ज्यादा तवज्जो नहीं मिली, ना तो लेखकों की और ना तो जन की। जिसकी वजह से जनवादी लेखक संघ इस वर्ष वो आयोजन कर नहीं पाया। प्रगतिशील लेखक संघ ने पिछले वर्ष की तुलना में इस वर्ष ज्यादा बड़ा आयोजन कर लिया, ज्यादा लेखक जुटा लिए। जनवादी लेखक संघ पिछड़ गया। जनवादी लेखक संघ अपनी इस पराजय को पचा नहीं पा रहा है और अपनी सहोदर विचारधारा वाले उन लेखकों को ही कठघरे में खड़ा करना शुरू कर दिया जो समानांतर साहित्य उत्सव में शामिल होने गए । असगर वजाहत जैसे बड़े कद के लेखक भी इस राजनीति में शामिल हो गए। लेखक संघों के बीच ये झगड़ा होता इस वजह से है कि इनका अपना कोई स्वतंत्र अस्तित्व या स्वतंत्र रूप से निर्णय लेने का अधिकार नहीं है। इन सभी वामपंथी लेखक संगठनों को अपने पितृ-संगठन या संबद्ध राजनीतिक दल का मुंह जोहना पड़ता है। प्रगतिशील लेखक संघ वही करता है तो सीपीआई कहती करती है, जनवादी लेखक संघ उसी रास्ते पर चलता है जिसपर चलने का हुक्म उनको सीपीएम से मिलता है। जन संस्कृति मंच वही राह चुनता है जिसकी ओर जाने का आदेश उसको सीपीआई एमएल से मिलता है। जिन राजनीतिक दलों से ये लेखक संघठन नाभि-नालबद्ध हैं उनके हित अलग अलग हैं। राजनीतिक दलों के हितों का टकराव साहित्यिक आयोजनों पर दिखता है। जयपुर के समानांतर साहित्य उत्सव के आयोजन में हितों का ये टकराव खुलकर सामने आ गया। अंत में जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के ऑथर्स लॉंज में सुनी एक बात- समानांतर लिटरेचर फेस्टिवल में मंच पर बैठे कई लेखक हसरत भरी निगाहों से दिग्गी पैसेल की ओर देखते हैं और मन ही मन कहते हैं हाय हुसैन हम ना हुए।          

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