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Saturday, July 20, 2019

पुरस्कार बने राजनीति का औजार!


भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय से संबद्ध कई सांस्कृतिक संगठन हैं जो बहुधा विवादों में रहते हैं। ऐसी ही एक संस्था है ललित कला अकादमी जो हमेशा से विवादों में ही रही है। घपले-घोटाले से लेकर अकादमी की पेंटिग्स को बेचने के आरोप वहां से बाहर निकलते रहे हैं। केस मुकदमे भी होते रहे हैं। पिछले संस्कृति मंत्री महेश शर्मा के कार्यकाल में ललित कला अकादमी को लेकर इतने तरह के फैसले हुए कि अब वहां की क्या स्थिति है, ये किसी को ज्ञात नहीं है। महेश शर्मा के कार्यकाल में अशोक वाजपेयी के ललित कला अकादमी के अध्यक्ष रहते अनियमिततताओं की सीबीआई जांच की सिफारिश की गई थी, पता नहीं उसका क्या हुआ? जांच हुई भी या नहीं। ललित कला अकादमी की पेंटिग्स के गायब होने को लेकर किसी तरह की जांच में कुछ मिला या नहीं? इन बातों की जानकारी सार्वजनिक होनी ही चाहिए, आखिरकार इस तरह की सारी अकादमियां चलती तो करदाताओं के पैसे से ही हैं और करदाताओं को ये जानने का पूरा अधिकार है कि वहां क्या हो रहा है। इसी तरह की एक दूसरी संस्था है संगीत नाटक अकादमी। इस संस्था के मौजूदा अध्यक्ष हैं मशहूर और प्रतिष्ठित कलाकार शेखर सेन। यह अकादमी भी लगातार विवादों में रही है। कभी मेघदूत थिएटर का नाम बदलकर अब्राहम अल्काजी के नाम पर करने की कोशिशों को लेकर। कभी मोदी के धुर विरोधी और चुनावों में मोदी के खिलाफ हस्ताक्षर अभियान के अगुवा रहे सुनील शॉनबाग को अकादमी पुरस्कार देकर तो कभी अकादमी की सचिव हेलेन आचार्य को उनके पद से हटाने को लेकर। हेलेन आचार्य का मामला तो न्यायालय के विचाराधीन है। इसके अलावा भी वहां कई छोटे मोटे विवाद होते ही रहे हैं। अभी एक बड़ा विवाद संगीत नाटक अकादमी को लेकर फिर से हुआ है। संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार को लेकर। कर्नाटक के नाट्य निर्देशक एस रघुनंदन ने संगीत नाटक अकादमी की घोषणा के बाद इसको नहीं लेने का एलान कर दिया। सबसे बड़ी बात है रघुनंदन ने इस पुरस्कार को नहीं लेने की जो वजहें गिनाईं। रघुनंदन ने साफ कहा कि धर्म और भगवान के नाम पर जिस तरह से देश में मॉब लिंचिंग हो रही है उसको देखते हुए वो इस पुरस्कार को ठुकराते हैं। रघुनंदन ने जो लिखा उसमें से जो संदेश निकलता है उसको रेखांकित किए जाने की जरूरत है। रघुनंदन ने साफ तौर पर लिखा है कि संगीत नाटक अकादमी ने पिछले वर्षों में अपनी स्वायत्ता को बचाए रखा है और उसने उनको पुरस्कार के लिए चुना है इसलिए अकादमी का धन्यवाद। रघुनंदन जब अकादमी को धन्यवाद करते हैं तो यह संदेश जाता है कि संगीत नाटक अकादमी ने पुरस्कारों को तय करते वक्त बहुत मेहनत की होगी। उपयुक्त पात्रों के चयन के लिए बहुत मेहनत की होगी। लेकिन इसके पीछे की कहानी बहुत ही विस्मयकारी है। दरअसल संगीत नाटक अकादमी में एक वामपंथी लेखक का बोलबाला है जो बीते लोकसभा चुनाव के पहले मोदी के विरोध में बुद्धिजीवियों के एक वर्ग को एकजुट करने में जुटे थे। अपील बनवाई और उसपर अन्य लोगों के साथ हस्ताक्षर करवाकर उसको जारी भी किया था। मजे की बात कि जब लोकसभा चुनाव में मोदी की ऐतिहासिक जीत हुई तो वही शख्स इस बात का तर्क देता नजर आ रहा था उसने मोदी का विरोध नहीं किया बल्कि उसने तो एक प्रवृत्ति के खिलाफ माहौल बनाने की कोशिश की। सांस्कृतिक गलियारे में तो यहां तक चर्चा है कि उसकी पहुंच प्रधानमंत्री कार्यालय तक है। रघुनंदन को पुरस्कार देने के पीछे भी इस शख्स का ही दिमाग माना जा रहा है। इसके अलावा भी संगीत नाटक अकादमी में एक और शख्स को नामित किया गया जिसकी घोषित प्रतिबद्धता मोदी सरकार के खिलाफ है। संगीत नाटक अकादमी पुरस्कारों को लेकर जो बैठकें होती हैं और जो भी सदस्य जिनका भी नाम प्रस्तावित करते हैं उनको सार्वजनिक किया जाना चाहिए। संगीत नाटक अकादमी की वेबसाइट पर प्रस्तावक और कमेटी की अनुशंसाओं को सार्वजनिक करना चाहिए।
2014 में जबसे मोदी की अगुवाई में सरकार बनी तब से ये वामपंथ के अनुयायी इसको प्रचारित करने में जुटे हैं कि मोदी सांस्कृतित संस्थाओं का भगवाकरण करने की कोशिशों में जुटी है। वो इन संस्थाओं में अपने विरोधी विचारधारा के लोगों को बाहर कर अपनी विचारधारा के लोगों को भर रही है। मोदी सरकार पर यह आरोप लगाना भी गलत है कि वो अपने वैचारिक विरोधियों को इन संस्थाओं में स्थान नहीं देती है। स्थान भी देती है, उनको सम्मान भी देती है, उनको प्रस्तावों को मानती भी है और उनके कहने पर पुरस्कार भी देती है। संगीत नाटक अकादमी साल दर साल इस बात को पुष्ट कर रही है। पिछले साल जब सुनील शॉनबाग को पुरस्कार देने का फैसला हुआ था तब भी कुछ लोगों ने इसका विरोध किया था लेकिन संगीत नाटक अकादमी के कर्ताधर्ताओं ने किसी तरह से उस विरोध को दरकिनार करने में सफलता प्राप्त कर ली थी। उस चक्कर में पुरस्कार की फाइल तत्कालीन संस्कृति मंत्री के यहां लंबे समय तक लंबित भी रही थी।   
जब इस वर्ष के संगीत नाटक अकादमी पुरस्कारों की घोषणा हुई तो संगीत नाटक अकादमी से लंबे समय से जुड़े और उसको नजदीक से देखनेवाले एक शख्स ने बताया कि अकादमी के पुरस्कारों को इस तरह से तय कि. जाता है ताकि उसमें मौजूदा सरकार को बदनाम करने की गुंजाइश हो। रघुनंदन को पुरस्कार दिलवाना भी उसी षडयंत्र का हिस्सा था। पहले पुरस्कार दिलवाओ फिर उसको वापस करवाकर सरकार की किरकरी करने का अवसर पैदा करो। रघुनंदन के केस में भी तो यही हुआ, रघुनंदन की विचारधारा और उनका स्टैंड सबको पहले से ज्ञात था। उनके पुरस्कार वापसी की घोषणा के बाद एक बार फिर से पुरस्कार वापसी गिरोह सक्रिय हो गया। अशोक वाजपेयी से लेकर नयनतारा सहगल तक ने रघुनंदन के समर्थन में बयान जारी करने में देर नहीं लगाई। अगर गंभीरतापूर्वक इन सबका विश्लेषण किया जाए तो साफ तौर पर लगता है कि इसकी स्क्रिप्ट पहले से लिख ली गई थी और उसके अनुसार ही सबकुछ चरणबद्ध तरीके से घटित हुआ।
रघुनंदन ने जिस तरह से मॉब लिंचिंग को पुरस्कार ठुकराने की वजह बताया उससे तो स्थितियां और साफ हो जाती हैं। एक खास किस्म की विचारधारा के लेखक और पत्रकार जिस तरह से लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद से मॉब लिंचिंग को आधार बनाकर राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय मंचों पर अपने लेखन और वक्तव्यों से इस मुद्दे को उठा रहे हैं उसमें एक साम्य नजर आता है। मॉब लिंचिंग एक तरह का अपराध है और उसको धर्म से जोड़ना बिल्कुल गलत है। भीड़ की हिंसा के कई कारक होते हैं और उन कारकों में धर्म कभी कारक रहा हो इसके संकेत नहीं मिले हैं। चौरी-चौरा कांड भी भीड़ की हिंसा का एक उदाहरण है। 1922 में चौरी-चौरा में एक पुलिस स्टेशन को भीड़ ने आग लगा दी थी जिसकी वजह से उसमें मौजूद बाइस पुलिसकर्मी जिंदा जल गए थे। उस हिंसा के खिलाफ गांधी जी ने असहयोग आंदोलन वापस लेने का एलान कर दिया था। चौरी-चौरा हत्याकांड में धर्म का कोई कोण नहीं था, उसकी अलग वजह थी। बाद में इतिहासकारों ने इन वजहों को विस्तार से व्याख्यित किया और इस निश्कर्ष पर पहुंचे कि भीड़ की हिंसा के कई सामाजिक कारक होते हैं, एक नहीं। इस तरह के निष्कर्ष पर पहुंचनेवालों में वामपंथी इतिहासकार भी शामिल थे लेकिन अब जिस तरह से भीड़ की हिंसा को लेकर बातें कही जा रही हैं उसमें सामाजिक कारणों की पड़ताल करने की कोशिश कम, सरकार को बदनाम करने की कोशिश ज्यादा दिखाई देती है। भीड़ का कोई धर्म नहीं होता। आपको याद दिला दें कि कुछ साल पहले नगालैंड में बालात्कार के आरोप में एक शख्स को जेल से निकालकर भीड़ ने बेरहमी से कत्ल कर दिया था। इसके बाद आगरा में भी एक लड़के को छेड़खानी के आरोप में पीट पीट कर मार डाला गया था। दिल्ली में भी ऐसी वारदातें हुई जहां भीड़ ने हिंसा में लोग मारे गए। दिल्ली की घटना को अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक की तरह देखा नहीं गया, देखा भी नहीं जाना चाहिए क्योंकि पहले ही कहा गया है कि भीड़ धर्म या जाति देखकर इस तरह का कृत्य नहीं करती है।
दरअसल संगीत नाटक अकादमी या ललित कला अकादमी में स्वायत्तता के नाम पर पूर्व में इतने तरह के घपले हुए हैं कि उसको समझ पाना आसान नहीं है। इन संस्थाओं में वामपंथी विचारधारा की जड़ें इतनी गही हैं कि वो इस तरह की बातें फैलाते हैं कि वामपंथ से इतर विचारधारा के लोगों के पास योग्य लेखक, कलाकार आदि हैं ही नहीं। इसी तर्क की आड़ में और स्वायतत्ता से मिली ताकत को अपनी राजनीति का औजार बनाकर कुछ लोग अपना खेल कर जाते हैं और जब खेल हो जाता है तब खामोशी ओढ़ लेते हैं। इन संस्थाओं के क्रियाकलापों में पारदर्शिता लाने और राजनीति के औजार के तौर पर इस्तेमाल करने पर तत्काल रोक लगाए जाने की आवश्यकता है।  

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