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Saturday, December 5, 2020

हिंदी को लेकर उदासीनता का भाव क्यों?


पिछले महीने की सत्ताइस तारीख को शिक्षा मंत्रालय ने पूर्व आईएएस अधिकारी और राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलाधिपति एन गोपालस्वामी की अध्यक्षता में ग्यारह सदस्यों की एक समिति का गठन किया। इस समिति का गठन मैसूर में भारतीय भाषा विश्वविद्यालय और इडियन इंस्टीट्यूट ऑफ ट्रांसलेशन और इंटरप्रिटेशन की स्थापना की कार्ययोजना तैयार करना है। इस समिति से अपेक्षा की गई है कि वो भारतीय भाषा विश्वविद्यालय की स्थापना और उसके अंतर्गत इडियन इंस्टीट्यूट ऑफ ट्रांसलेशन और इंटरप्रिटेशन को स्वायत्त संस्था के तौर पर स्थापित करने के नियम आदि को भी तय करे। इसके अलावा समिति भारतीय भाषा विश्वविद्यालय और इडियन इंस्टीट्यूट ऑफ ट्रांसलेशन और इंटरप्रिटेशन के उद्देश्य और लक्ष्य भी तय करें। साथ ही ये भी कहा गया है कि मैसूर के भारतीय भाषा संस्थान के उद्देश्यों को भी इसमें शामिल करे। इसमें जो सबसे महत्वपूर्ण बात कही गई है वो ये है कि इस समिति को मैसूर स्थित भारतीय भाषा संस्थान के जमीन, इमारत, मानव संसाधन का आकलन भी करना है ताकि प्रस्तावित भारतीय भाषा विश्वविद्यालय की स्थापना में उसका उपयोग किया जा सके। यही समिति यह भी सुझाएगी कि भारतीय भाषा संस्थान को भारतीय भाषा विश्वविद्यालय मे तब्दील करने के लिए कितना वित्तीय संसाधन लगेगा। इस समिति के गठन से एक बात तो साफ हो गई है कि शिक्षा मंत्रालय मैसूर स्थित भारतीय भाषा संस्थान को भारतीय भाषा विश्वविद्यालय में बदलने का निर्णय कर चुकी है। उसके उद्देश्यों में संशोधन करके या दायरा विस्तृत करके। 

दरअसल भारतीय भाषा विश्वविद्यालय का प्रस्ताव ढाई साल पुराना है। भारतीयता में विश्वास रखनेवाले संगठनों और व्यक्तियों ने कई दौर की बैठकों के बाद यह तय किया गया था कि भारत में हिंदी और भारतीय भाषाओं का एक विश्वविद्यालय बनाया जाए और इसका एक प्रस्ताव भारत सरकार को भेजा जाए। यह प्रस्ताव भारतीय संविधान की मूल भावनाओं को ध्यान में रखकर तैयार किया गया था। भारतीय संविधान में अनुच्छेद 343 से लेकर 351 तक भाषा के बारे में विस्तार से चर्चा है। जब हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के विश्वविद्यालय का प्रस्ताव तैयार किया जा रहा था तो अनुच्छेद 343 और 351 का विशेष ध्यान रखा गया था। अनुच्छेद 343 साफ तौर पर कहता है कि संघ की राजभाषा हिंदी और लिपि देवनागरी होगी। अनुच्छेद 351 में हिंदी भाषा के विकास के लिए निदेश दिए गए हैं। वहां कहा गया है कि ‘संघ का यह कर्तव्य होगा कि वह हिंदी भाषा का प्रसार बढ़ाए, उसका विकास करे जिससे वह भारत की सामासिक संस्कृति के सभी तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके और उसकी प्रकृति में हस्तक्षेप किए बिना हिन्दुस्तानी में और आठवीं अनुसूची में विनिर्दिष्ट भारत की अन्य भाषाओं में प्रयुक्त रूप, शैली और पदों को आत्मसात करते हुए और जहां आवश्यक और वांछनीय हो वहां उसके शब्द भंडार के लिए मुख्यत: संस्कृत से और गौणत: अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करते हुए उसकी समृद्धि सुनिश्चित करे।‘  इस अनुच्छेद की मूल भावना को ध्यान में रखते हुए गंभीरता से काम नहीं हुआ। स्वतंत्रता के बाद हमने अपने संविधान को 1950 में अपनाया लेकिन उसके सत्तर साल बाद भी हिंदी को लेकर संविधान के निदेश पूरे नहीं हो पाए हैं। हिंदी को अन्य भारतीय भाषाओं के साथ अकादमिक तौर पर लेकर चलने की ठोस योजना कार्यान्वयित नहीं हुई। अलग अलग भारतीय भाषाओं के विश्वविद्यालय तो बने लेकिन ऐसा कोई शैक्षणिक परिसर नहीं बन पाया जहां संविधान की आठवीं अनुसूचि में शामिल सभी भाषाओं का अध्ययन अध्यापन हों। आंध्र प्रदेश में दविड़ भाषाओं को लेकर 1997 में द्रविडियन युनिवर्सिटी की स्थापना हुई, जहां तमिल तेलुगू और कन्नड़ की पढ़ाई होती है। 

स्वतंत्रता के तिहत्तर साल बाद अब जाकर भी भारतीय भाषा के विश्वविद्यालय पर काम शुरू हो रहा है तो ये भी संविधान के अनुच्छेद 351 की मूल भावना के अनुरूप नहीं है। मैसूर में भारतीय भाषा संस्थान की स्थापना उन्नीस सौ उनहत्तर में हुई थी, अब उस संस्थान का नाम और उद्देश्यों का दायरा बढ़ाकर भारतीय भाषा विश्वविद्यालय बनाने की कोशिश हो रही है। इस देश में ‘द इंग्लिश एंड फॉरेन लैंग्वेजेज युनिवर्सिटी’ की स्थापना हो सकती है लेकिन हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं का विश्वविद्यालय बनाने में हिचक हो रही है। 2018 में आगरा के केंद्रीय हिंदी संस्थान के तत्कालीन निदेशक प्रोफेसर नंदकिशोर पांडे ने 28 मई 2018 को हिंदी और अन्य भारतीय भाषा विश्वविद्यालय का एक प्रस्ताव सरकार को भेजा था। तब ये बात कही गई थी कि भारतीय भाषाओं के संरक्षण और विकास के लिए गंभीर प्रयास नहीं हुए। अलग अलग भाषाओं और उससे संबद्ध बोलियों में बिखरी हुई वाचिक परंपरा की सामग्री को संग्रहीत कर लिपिबद्ध करना, भारतीयता के तत्वों के साथ ही ज्ञान-विज्ञान की वाचिक परंपरा का अन्वेषण करना और भारतीय ज्ञान परंपरा को नई तकनीक से जोड़कर संरक्षित करना इसका उद्देश्य होगा। साल डेढ़ साल तक इस प्रस्ताव पर मंथन होता रहा, प्रस्ताव विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से होकर मंत्रालय पहुंचा। लेकिन 2019 में आम चुनाव की घोषणा के साथ हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के विश्वविद्यालय का प्रस्ताव आगे नहीं बढ़ पाया। फिर विभागीय मंत्री बदल गए, सचिव बदल गए। हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के विश्वविद्यालय का नाम भी बदल गया। अब ये भारतीय भाषा विश्वविद्यालय के रूप में सामने आया है। इस प्रस्तावित विश्वविद्यालय के नाम से हिंदी क्यों हटा, इसका कारण ज्ञात नहीं हो सका है। जबकि संविधान के अनुच्छेद 351 में साफ तौर से इस बात का निदेश है कि हिंदी को अन्य भारतीय भाषाओं के साहचर्य से समृद्ध करना है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति में कहीं हिंदी का उल्लेख नहीं है, क्या प्रस्तावित विश्वविद्यालय से भी हिंदी का नाम इस वजह से हटा दिया गया है? या फिर राजनीति के दबाव में विश्वविद्यालय के नाम से हिंदी हटाई गई? 

दूसरी बात ये कि मैसूर के भारतीय भाषा संस्थान का नाम बदलकर भारतीय भाषा विश्वविद्यालय करने से बहुत सकारात्मक परिणाम की उम्मीद भी नहीं की जानी चाहिए। भारतीय भाषा संस्थान का उद्देश्य अलग और महत्वपूर्ण है, वहां भाषा के शब्दों उत्पत्ति पर अनुसंधान किया जाता है। उसको किसी विश्वविद्यालय के एक विभाग में बदल देने से उसके काम-काज पर असर पड़ेगा और उसकी व्यापकता संकुचित होगी। होना तो यह चाहिए था कि भारतीय भाषा संस्थान को मजबूत किया जाता और अलग से एक हिंदी और अन्य भारतीय भाषा विश्वविद्यालय की स्थापना की जाती। ये विश्वविद्यालय किसी हिंदी भाषी प्रदेश में स्थापित किया जाना चाहिए ताकि गैर हिंदी भाषी प्रदेश के लोग वहां आकर हिंदी प्रदेशों के लोगों की मानसिकता को भी समझ सकते और जब हिंदी को लेकर राजनीति होती तो उसका निषेध अपने प्रदेशों में करते।   

दरअसल हिंदी और अन्य भारतीय भाषा विश्वविद्यालय की आवश्यकता इस वजह से भी है कि हिंदी और उसकी उपभाषाओं या बोलियों में बहुत काम करने की आवश्यकता है। इसको मशहूर पुस्तक लिंगविस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया के लेखक जॉर्ज ग्रियर्सन के इस निष्कर्ष से समझा जा सकता है, जिन बोलियों से हिंदी की उत्पत्ति हुई है उनमें ऐसी विलक्षण शक्ति है कि वे किसी भी विचार को पूरी सफाई के साथ अभिव्यक्त कर सकती हैं। हिंदी के पास देसी शब्दों का अपार भंडार है और सूक्ष्म से सूक्ष्म विचारों को सम्यक रूप से अभिव्यक्त करने के उसके साधन भी अपार हैं। हिंदी शब्द भंडार इतना विशाल और उसकी अभिव्यंजना शक्ति ऐसी है जो अंग्रेजी से शायद ही हीन कही जा सके।‘ केंद्र में जब मोदी की सरकार बनी थी तो हिंदी को लेकर सकारात्मक माहौल बना था, क्या एक बार फिर हिंदी राजनीति की शिकार हो जाएगी?  


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