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Saturday, May 13, 2023

वेब सीरीज ने खोली कम्युनिस्टों की पोल


इन दिनों एजेंडा फिल्म की चर्चा हो रही है। फिल्म द केरल स्टोरी को एक विशेष वर्ग के लोग एजेंडा या प्रोपगैंडा फिल्म कहकर प्रचारित कर रहे हैं। उल्लेखनीय है कि द केरल स्टोरी को एजेंडा फिल्म बतानेवालों ने फिल्म नहीं देखी है। दरअसल एक पूरा ईकोसिस्टम है जो वैकल्पिक विमर्श वाली फिल्मों को एजेंडा के तौर पर प्रचारित कर परोक्ष रूप से बहिष्कार करते हैं। कई फिल्में, डाक्यूमेंट्री या वेबसीरीज ईकोसिस्टम की विचारधारा के अनुकूल नहीं होती हैं। उनमें उनकी विचारधारा की करतूतों का पर्दाफाश होता है। ऐसी फिल्मों या वेबसीरीज के उन बिंदुओं को लेकर शोर मचाते हैं जिसमें विचारधारा की आड़ में की गईं करतूतें दब जाती हैं। उनपर जनता या दर्शकों का पर्याप्त ध्यान नहीं जा सके। ऐसी ही एक सीरीज है, जुबली। इस सीरीज में स्वाधीनता के कुछ वर्ष पहले और उसके बाद के चंद वर्षों की हिंदी फिल्मों की कहानी कही गई है। इसमें राय टाकीज के बनने उसके खत्म होने से लेकर नायकों के बनने और नायिकाओं की स्थितियों का चित्रण किया गया है। विक्रमादित्य मोटवानी के निर्देशन में बनी इस सीरीज में उस दौर के कई नायकों और नायिकाओं का चित्रण किया गया है। इस वेब सीरीज को लेकर जो विमर्श हो रहा है वो ये कि इसका नायक मदन कुमार किस हीरो के चरित्र से मेल खाता है।नायिका नीलोफर में किसकी छवि दिखती है। राय टाकीज के मालिक श्रीकांत राय का चरित्र क्या हिमांशु राय से मिलता है या मालकिन का किरदार देविका रानी से। क्या इसका एक और नायक जय खन्ना राज कपूर के व्यक्तित्व से प्रेरित है आदि। इस बात की दबी जुबान में भी चर्चा नहीं हो रही है कि रूसियों ने किस तरह से हिंदी फिल्मों में अपना एजेंडा चलाया। 

विक्रमादित्य मोटवानी ने इस सीरीज में उस दौर में हिंदी फिल्मों में सोवियत रूस और अमेरिका के एजेंडे को सामने लाकर रख दिया है। इस फिल्म के एक संवाद पर नजर डालते हैं। आवाम तक अपनी आवाज पहुंचाने के दो जरिए हैं, सिर्फ दो। सिनेमा और रेडियो। सोवियत संघ और अमेरिका इस समय दोनों भारत सरकार की खुशामद कर रहे हैं, सिनेमा और रेडियो में अपने पैर जमाने के लिए। कोल्ड वार शुरु हो चुका है। दोनों ही मुल्क अपने अपने प्रोपगैंडा के लिए फिल्में बनाना चाहते हैं। और इसी सिलसिले में सोवियत संघ ने अपना खास आदमी ब्लादीमीर यहां भेजा है। इन्होंने प्रोपगैंडा फिल्मों के लिए काफी काम किया है चाइना में। संवाद से स्पष्ट है कि सोवियत संघ हिंदी फिल्मों को लेकर कितना गंभीर था। वो उस दौर के उभरते हुए सितारे मदन कुमार को अपने एजेंडा के लिए काम करवाने के लिए उत्सुक था। उसको प्रोत्साहित करनेवाले राय टाकीज के मालिक श्रीकांत राय से रूस के प्रतिनिधियों की भेंट भी होती है। श्रीकांत राय उनके प्रस्ताव को ठुकरा देते हैं। रूसी उस समय हिंदी फिल्मों  में काफी निवेश करना चाहते थे। उनको कोई भी स्टार नहीं मिल रहा था जिसकी फिल्मों पर पैसा लगाया जा सके। परिस्थितियां इस प्रकार की बनती है कि जय खन्ना अपने फाइनेंसर वालिया को फिल्म बनाने के लिए तैयार करता है। ये दोनों रूसियों के संपर्क में आते हैं। एक बेहतरीन दृश्य है जब वालिया एक फिल्म का पोस्टर तैयार करवाता है। फिल्म का नाम होता है मजदूर। मजदूर की कहानी भी उसके पास नहीं होती है लेकिन वो कमिटमेंट कर देता है। उसके और जय खन्ना के बीच बहस होती है। जय कहता है कि उसके पास कहानी नहीं है तो वालिया उत्तर देता है कि मास्को में ढेर सारी टैरेटरी खुलनेवाली है। रूस का दरवाजा खुलावाना है। रशियन तीन फिल्मों का फाइनेंस करने को तैयार हैं। रशियन इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल का आयोजन होगा जिसमें इन फिल्मों को दिखाया जाएगा। आदि आदि। इसलिए मजदूर की कहानी तो लिखनी होगी। उस दौर को याद करिए जिस दौर की बात हो रही है। राज कपूर की कई फिल्में आती हैं, रूस में रिलीज होती हैं। वहां के अंतराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल में उनको दिखाया जाता है। राज कपूर की आरंभिक फिल्मों के बारे में कहा गया कि वो समाजवाद से प्रेरित हैं। उसी दौर में भारतीय जन नाट्य संघ या इप्टा लोकप्रिय होने लगा था। फिल्मों में रुचि रखनेवालों को याद होगा कि महबूब खान जिन्होंने मदर इंडिया बनाई उनके प्रोडक्शन हाउस का लोगो हशिया और हथौड़े के निशान के बीच में अंग्रेजी में एम लिखा था। वही हंशिया और हथौड़ा जो कम्युनिस्ट पार्टी आफ इंडिया का निशान था। प्रश्न यही उठता है कि क्या इन सबके बीच किसी प्रकार का कोई संबंध था। वेब सीरीज जुबली ने इन परिस्थितियों को दस एपिसोड में दर्शकों के सामने पेश कर दिया है। ये सिर्फ मनोरंजन के लिए नहीं है बल्कि ये बताता है कि कम्युनिस्टों ने हिंदी फिल्मों में अपना एजेंडा किस तरह से चलाया। विचार और विचारधारा का प्रोपगैंडा कैसे किया। 

फिल्मकारों को सोवियत रूस के प्रतिनिधि बताते थे कि सिस्टम के खिलाफ लड़नेवाला नायक कैसा होना चाहिए। फिल्मों में सेठ को गाली दी जानी चाहिए। यह बताया जाना चाहिए कि गरीब अपने वेतन पर कपड़ा नहीं खरीद सकता, पूरे परिवार को खाना नहीं खिला सकता। अगर गरीब जाग गया तो सबकी रातों की नींद उड़ा देगा। फिल्मकारों को प्रलोभन दिया जाता था कि अगर उनकी फिल्में रूसियों की विचारधारा का प्रोपगैंडा करेंगी और उनके एजेंडा पर चलेंगी तो उनकी फिल्मों को तत्कालीन सोवियत संघ, तुर्की और यूरोप में प्रदर्शित करवाया जाएगा। फिल्म बनाने के लिए पैसे दिए जाएंगे। एक और बेहद चौंकानेवाला प्रसंग इस सीरीज में है। रूसी हिंदी फिल्मी गानों के विरुद्ध थे। 1952 में तत्कालीन सूचना और प्रसारण मंत्री ने आकाशवाणी पर हिंदी गानों पर प्रतिबंध लगा दिया। कारण ये दिया गया कि ये गाने भारतीय संस्कृति के खिलाफ है। रूसी भफी यही कहते थे। प्रश्न ये उठता है कि गाने भारतीय संस्कृति के विरुद्ध थे या रूसी अपनी विचारधारा को गाढ़ा करने के लिए इनपर प्रतिबंध लगवाना चाहते थे। प्रतिबंध के दौर में अमरीकियों ने हिंदी गानों को रेडियो सिलोन पर बजवाने का प्रबंध किया था। राय टाकीज के मालिक जब रूसियों के सामने नहीं झुकते हैं तो उनकी तबाही का षडयंत्र रचा जाता है। उनकी पत्नी सुमित्रा को रूसी अपनी तरफ करते हैं। उनके वित्त विभाग की देखरेख करनेवाले को घूस भी दिया जाता है और वादा भी किया जाता है कि उनके बेटे का दाखिला मास्को के इंजीनियरिंग कालेज में करवा दिया जाएगा। उस दौर में इंजीनियरिंग और मेडिकल की पढ़ाई के लिए कई छात्र सोवियत रूस गए थे। गजब समानता है। उस वक्त रूसियों ने फिल्मकारों के फोन टैप करके उनको ब्लैकमेल भी किया था। सरकारें खबरें भी रुकवा देती थीं। कहानी में इन सबका चित्रण है।  

आज जो कम्युनिस्ट या वाम विचारधारा के लोग फिल्मों में एजेंडा और प्रोपगैंडा की बात करते हैं उनको इस वेब सीरीज को देखना चाहिए। किस तरह से भारत की स्वाधीनता के बाद से लेकर सोवियत संघ के विघटन तक हिंदी फिल्मों में रूसियों की विचारधारा का एजेंडा चलता रहा। किस तरह से वर्ग संघर्ष को बढ़ावा दिया गया।। कई फिल्मों में इसको नेहरू के समाजवाद और गांधी की ग्राम-व्यवस्था के बीच के संघर्ष के तौर पर दिखाया गया। उद्देश्य और मंशा तो वामपंथी विचार को बढ़ावा देना था। यह अनायास नहीं था कि इप्टा जैसे संगठन और ख्वाजा अहमद अब्बास जैसे लेखक लोकप्रिय होने लगे थे। कैफी आजमी से लेकर जावेद अख्तर तक इस तरह का लेखन कर रहे थे जिसमें वर्ग संघर्ष का चित्रण था। दस एपिसोड में विक्रमादित्य मोटवानी ने कुछ ही परतें खोली हैं, संभव है कि दूसरे सीजन में और भी दिलचस्प खुलासे हों।   


6 comments:

gnashine said...

बेहतरीन, चौकाने वाली 👌

Anonymous said...

सर,
आज भी ये सिलसिला बदस्तूर जारी है।

रमेश वाघ said...

उत्तम जाणकारी के लिये धन्यवाद सर

Anonymous said...

एक रूसी जासूस का साक्षात्कार भी है यूट्यूब पर जिसमें वो स्वीकार करता है कि रूस भारतीय कलाकार और साहित्यकारों से अपना एजेंडा चलवाता था, और बदले में मॉस्को यात्रा, मंहगी शराब, लड़की, और पुरस्कार दिलवाता था, रूस में भी और भारत में भी। यही कारण है कि परतंत्र भारत में बनने वाली फिल्मों का विषय और स्वतंत्र भारत में बनने वाली फिल्मों के विषय में व्यापक अंतर देखने को मिलता है ।

प्रज्ञा पांडेय said...

लिंक हो तो दें।

प्रज्ञा पांडेय said...

अच्छी जानकारी। सीरीज अभी देखा नहीं है।