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Saturday, January 25, 2025

धर्म ध्वजा के वैश्विक वाहक राजनेता


अमेरिका के नव-निर्वाचित राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के शपथ ग्रहण समारोह में कई बातें अलक्षित रह गईं। शपथ ग्रहण के पहले एक्जूक्यिटिव आर्डर्स की इतनी चर्चा हो गई कि कुछ बातें नेपथ्य में चली गईं। दूसरा कारण ये रहा कि हमारे देश में खास विचारधारा के बुद्धिजीवियों ने वर्षों से उन मुद्दों को चर्चा के लायक नहीं समझे जाने का जन मानस बनाने का काम किया। ट्रंप के शपथ ग्रहण समारोह को देखें तो पता चलता है कि वहां धर्म का कितना उपयोग था। दुनिया का सबसे विकसित और आधुनिक राष्ट्र अमेरिका में धर्म की कितनी महत्ता है। ट्रंप को शपथ दिलवाने के पहले ईश्वर की प्रार्थना की गई। ट्रंप ने शपथ के दौरान दो बाइबल का उपयोग किया और कहा कि ईश्वर मेरी मदद करें (सो हेल्प मी गाड)। शपथ ग्रहण के ओपनिंग इनवोकेशन के लिए न्यूयार्क के आर्क बिशप और प्रमुख कैथोलिक नेता टिमोथी डोलन ने बुक आफ विजडम से प्रार्थना की। बाइबिल और ईसा में आस्था रखने वाले ईवैनजैलिकल लीडर फ्रैंकलिन ग्राहम ने भी अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई। इतना ही नहीं समारोह में बैनेडिक्शन (आशीर्वाद) के लिए भी तीन प्रमुख धर्मगुरु वहां उपस्थित थे। न्यूयार्क के रब्बी अरि बमन ने अपनी प्रार्थना में राष्ट्रीय एकता और अखंडता की बात की। डेट्रोएट के 180 चर्चों के वरिष्ठ पेस्टर लारेंजो सीवैल और ब्रुकलिन के कैथोलिक पुजारी भी वहां थे। सीवैले ने तो ट्रंप के कैंपेन के दौरान कैथोलिक मतदाताओं को उनकी प्राथमिकताओं के बारे में बताया भी था। 

ये बताना आवश्यक है कि मिशिगन के कर्बला इस्लामिक एडुकेशन सेंटर से जुड़े इमाम हुसैन अल-हुसैनी का नाम ट्रंप के शपथ ग्रहण समारोह के आमंत्रितों की सूची में था। वो समारोह में नहीं थे। उनकी अनुपस्थिति के जमकर कयास लगे क्योंकि उन्होंने चुनाव प्रचार के दौरान ट्रंप का समर्थन किया था। शपथ ग्रहण के बाद ट्रंप ने जोरदार भाषण दिया। उस भाषण में ट्रंप ने दर्जन भर से अधिक बार भगवान (गाड) को ना सिर्फ याद किया बल्कि नियमित अंतराल पर ईश्वर से काम करने की शक्ति भी मांगी। नवनिर्वाचित राष्ट्रपति का धर्म और ईश्वर के नाम पर काम करने की मंशा सार्वजनिक तौर पर स्पष्ट करना। आप पूरे अमेरिकी चुनाव को याद करिए जब खुलेआम चर्च और जीजस को याद किया जाता रहा। पराजित उम्मीदवार कमला हैरिस ने जब अपनी एक रैली में जीजस इज किंग का नारा लगानेवाले को कहा था कि आप गलत रैली में आ गए हैं। उनके इस बयान के मतदाताओं पर नकारात्मक प्रभाव की काफी चर्चा हुई थी। अगर ट्रंप के भाषण को विश्लेषित करें तो उन्होंने साफ तौर पर अमेरिका फर्स्ट का ना सिर्फ उद्घोष किया बल्कि उसके आधार पर ही नीतियां बनाने की घोषणा की। अब जरा हम अपने देश लौटते हैं। नरेन्द्र मोदी जब चुनाव प्रचार के दौरान प्रसून जोशी के लिखे गीत देश नहीं झुकने दूंगा की बात करते थे तो उनके आलोचक इसको भावना का ज्वार उभारनेवाले नारे के तौर पर देखते थे। ट्रंप ने तो खुलेआम राष्ट्रपति बनने के बाद संदेश दिया कि वो अमेरिका को किसी हाल में झुकने नहीं देंगे। 

याद करिए कि जब पिछले वर्ष जनवरी में राम मंदिर के प्राण प्रतिष्ठा समारोह में नरेन्द्र मोदी परंपरागत हिंदू वेशभूषा में पूजा की थाल लेकर मंदिर में प्रवेश कर रहे थे तो कई विश्लेषक इसको चुनाव जीतने का उपक्रम करार दे रहे थे। राजनीति में धर्म के उपयोग को लेकर उनकी तीखी आलोचना हो रही थी। जो लोग मोदी की तब आलोचना कर रहे थे उनको अब ट्रंप के शपथ ग्रहण समारोह में धर्म का उफयोग नहीं दिखाई दे रहा है। उनके मुंह सिले हुए हैं। जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ राष्ट्र सर्वप्रथम की बात करता है तो लोग संघ की इस सोच का आलोचना करते हैं । कई राजनीतिक दल तो यहां तक कहते हैं कि उनके लिए संविधान सर्वप्रथम है। ऐसा कहनेवाले ये भूल जाते हैं कि जब देश रहेगा तभी संविधान रहेगा। राष्ट्र को मजबूत करने के लिए संविधान बनाया गया है जहां सबको साथ लेकर समान अधिकार की बात की गई है। नरेन्द्र मोदी अगर किसी मंदिर में चले जाते हैं तो ये कहकर शोर मचाया जाता है कि वो हिंदू वोटरों को लुभाने या प्रभावित करने के लिए ऐसा कर रहे हैं। अमेरिका में तो खुलेआम राष्ट्रपति पद के उम्मीदावर चर्चों में जाते हैं, प्रमुख धर्मगुरुओं का समर्थन लेने का प्रयास करते हैं। धर्म को राजनीति से अलग करने का जो विचार है वो दोषपूर्ण है। धर्म को अफीम कहकर प्रचारित करना और लोकतंत्र को धर्म विहीन बनाने की चेष्टा करना भी अनुचित है। अगर ऐसा उचित होता तो हमारे संविधान के निर्माताओं ने संविधान की मूल प्रति में धार्मिक प्रतीकों के अंकन की अनुमति नहीं देते। संविधान सभा के विद्वान सदस्य धर्म की महत्ता को समझते थे। इस कारण कई संवैधानिक संस्थाओं के ध्येय वाक्य भी धर्म से जुड़े हुए हैं। 

स्वाधीनता मिलने के बाद जवाहरलाल नेहरू के संरक्षण में धर्मविहीन राजनीति या धर्म को अफीम कहनेवाली विचारधारा ने जोर पकड़ा। धर्म की गलत व्याख्या करके जनता के मन में संदेह का बीजारोपण किया गया। जो अब वृक्ष बन चुका है। स्वाधीनता के संघर्ष के दौरान ऐसी स्थिति नहीं थी। तब धर्म और राजनीति को लेकर नेताओं के मन में किसी तरह का संशय नहीं था। अरविंदो घोष ने 1908 में लिखा था, राष्ट्रवाद एक ऐसा धर्म है जो सीधे ईश्वर से आया है। अगर आप राष्ट्रवादी बनने जा रहे हैं, राष्ट्रवादी विचार को स्वीकार करते हैं तो आपको इसके धार्मिक स्वरूप को ही अंगीकार करना होगा। आपको ये याद रखना होगा कि आप ईश्वर के कार्य करने का माध्यम हैं। वो इतने पर ही नहीं रुके थे। 30 मई 1909 को उत्तरपाड़ा के अपने प्रसिद्ध उद्बोधन में अरविंदो ने कहा था कि, मैं ये नहीं कहता कि राष्ट्रवाद एक धर्म है, एक विश्वास है, बल्कि मैं तो ये कहता हूं कि सनातन धर्म ही हमारे लिए राष्ट्रवाद है। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने भी राजनीति में हिंदू धर्म प्रतीकों के उपयोग को सही करार दिया था। बंकिम ने भी अपने लेखों में हिंदू धर्म की बात की। लाला लाजपत राय से लेकप बिपिन चंद्र पाल ने भी धर्म को राजनीति से अलग करके नहीं देखा। अरविंदो घोष से लेकर पाल तक ने अपने भाषण और लेखन में हिंदू धर्म प्रतीकों का उल्लेख करके भारत की जनता को एकजुट होने का संदेश दिया था। इतिहासकार बिपान चंद्र ने अपनी पुस्तक कम्युनिलज्म इन मार्डन इंडिया में देश के स्वाधीनता सेनानियों के बारे में लिखा है, ‘आरंभिक दिनों में क्रांतिकारी उग्रवादी गीता और काली की शपथ लेते थे और हिंदू विचार को क्रांतिकारी समझते थे।‘ ये पुस्तक लंबे समय से रेफरेंस पुस्तक के तौर पर पढ़ी जा रही है। इसको पढकर छात्र प्रशासनिक अफसर बन रहे हैं।  बिपान चंद्रा ये नहीं बता पाए कि इसमें गलत क्या था। इंटलैक्चुअल रोहिंग्याओं को ये भी बताना चाहिए कि इसमें गलत क्या है कि प्रधानमंत्री मोदी धर्म को राष्ट्रीयता से जोड़कर देखते हैं। इस पर तो देशव्यापी बहस होनी चाहिए। ट्रंप के शपथ ग्रहण ने तो इस बहस का आधार भी दे दिया है। 


Monday, January 20, 2025

सशक्त कहानी, दमदार अभिनय


फिल्म दीवार ने अमिताभ बच्चन की एंग्री यंगमैन की छवि को मजबूती प्रदान की। साथ ही एक लेखक जोड़ी को भी स्थापित किया जिसकी कहानी सफलता की गारंटी मानी गई। सलीम जावेद की जोड़ी ने जब फिल्म दीवार की कहानी लिखी तो पहले अमिताभ बच्चन को ही सुनाई। अमिताभ उस समय फिल्म गर्दिश की शूटिंग कर रहे थे। सलीम-जावेद ने फिल्म के सेट पर ही कहानी सुनाई थी। अमिताभ कहानी सुनकर अभिभूत थे। तीनों ने मिलकर तय किया कि इसपर फिल्म बनाने के लिए यश चोपड़ा से संपर्क किया जाए। सलीम-जावेद और अमिताभ, यश चोपड़ा के पाली हिल, बांद्रा के घर गिरनार अपार्टमेंट पहुंचे। इसी अपार्टमेंट में पहली बार यश चोपड़ा ने दीवार की कहानी सुनी। नैरेशन के समय निर्माता गुलशन राय भी थे। इस बात का उल्लेख मिलता है कि कहानी सुनाते सुनाते जावेद साहब अचानक रुकते और कहते कि फिल्म कम से कम 25 सप्ताह चलेगी। कहानी फिर आगे बढ़ती और जब रुकते तो सलीम साहब कहते कि इसपर बनी फिल्म कम से कम 50 सप्ताह चलेगी। इनकी बात सच हुई और कई शहरों में तो दीवार फिल्म 100 से भी अधिक समय तक चली थी। कहानी सुनने के बाद यश चोपड़ा और गुलशन राय दोनों को लगा था कि स्टोरी बहुत रूखी है और फिल्म में गाने होने चाहिए। निर्माता की राय पर फिल्म में गाने डाले गए। आप ध्यान से फिल्म देखेंगे तो लगेगा कि इन गानों की आवश्यकता नहीं थी। इंटरवल के बाद शशि कपूर और नीतू सिंह का जो गीत है उसका लाजिक समझ में नहीं आता है।  

निर्माता और निर्देशक के तय होने के बाद अभिनेताओं  के चयन पर बात आरंभ हुई । सलीम जावेद ने लीड रोल के लिए अमिताभ का नाम सुझाया। निर्माता गुलशन राय चाहते थे कि राजेश खन्ना को लिया जाए। वो एक फिल्म के लिए साइन खन्ना को अग्रिम भुगतान कर चुके थे। वो अपने पैसे की चिंता कर रहे थे। सलीम-जावेद इसपर राजी नहीं हुए। भूमिका अमिताभ को मिली। उनके भाई रवि की भूमिका के लिए लेखकों ने ही शशि कपूर को तैयार किया। स्क्रिप्ट सुनने के बाद शशि तैयार हो गए। उनकी भूमिका छोटी पर सशक्त थी। उनके बोले गए संवाद दर्शकों को खूब पसंद आए। संवाद की बात हो रही है तो कहना न होगा कि फिल्म दीवार का संवाद हिंदी फिल्मों में संवाद लेखन का शीर्ष है। इसके छोटे छोटे टुकड़े कई बार अब भी दोहराए जाते हैं। मैं आज भी फेंके हुए पैसे नहीं उठाता, मेरे पास मां है, या निरूपा राय का शशि कपूर को ये कहना कि भगवान करे कि गोली चलाते समय तुम्हारे हाथ नहीं कांपे जैसे संवाद बहुत ही पावरफुल हैं। ये फिल्म दर्शकों को मानसिक तौर पर झकझोरती है। जब एक बच्चे के हाथ पर ‘मेरा बाप चोर है’ लिख दिया जाता है तो उस बच्चे की मानसिक स्थिति की कल्पना की जा सकती है। फिल्म दीवार की कहानी में मदर इंडिया और गंगा जमुना का मिला जुला प्लाट नजर आते है लेकिन सलीम जावेद ने जिस तरह से कहानी का ट्रीटमेंट किया है वो इसको एकदम ही अलग जमीन पर लाकर खड़ा कर देता है। 

फिल्म दीवार के रिलीज होने के बाद ये प्रचारित किया गया था कि ये मुंबई के अंडरवर्ल्ड डान हाजी मस्तान के जीवन से प्रेरित है। समानता है भी। हाजी मस्तान ने भी मझगांव डाकयार्ड में कुली के तौर पर जीवन शुरु किया था। उसने भी वहां पठान गैंग की दादागीरी के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी। फिल्म दीवार में भी विजय यही करता है। फिल्म दीवार के रिलीज होने के दौर को भी याद करना चाहिए। उस समय देश में छात्रों और युवाओं का असंतोष चरम पर था। जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में देश का असंतुष्ट युवा आंदोलनरत था। फिल्म में भी उस वक्त के युवा वर्ग का सिस्टम के प्रति गुस्सा और अपने बूते पर ही सब करना होगा की मानसिकता का प्रतिबिंब नजर आता है। इस कारण जब फिल्म रिलीज हुई तो युवाओं को उसमें अपनी कहानी नजर आई । वो इससे जुड़ते चले गए। फिल्म के अंत में कानून, न्याय और सत्य की जीत दिखाकर नैतिकता का पाठ भी पढ़ाया गया है।कुल मिलाकर अगर फिल्म के रिलीज होने के 50 वर्ष बाद आज विचार करें तो यही लगता है कि पावरफुल कहानी, सही स्टारकास्ट और यश चोपड़ा जैसे मंझे हुए निर्देशक के बदौलत ये कल्ट फिल्म बन गई। एक निर्देशक के तौर पर यश चोपड़ा को भी इस फिल्म से एक नई पहचान मिली, अमिताभ तो स्थापित हो ही गए।    


Saturday, January 18, 2025

आक्रामक दिखने का हास्यास्पद प्रयोग


राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत के बयान की राहुल गांधी ने आलोचना की। आलोचकों ने संघ को घेरने के लिए इय बयान के चुनिंदा अंश को आधार बनाया। सबसे पहले हम देखते हैं कि मोहन भागवत ने कहा क्या था। उन्होंने कहा कि, ‘प्रतिष्ठा द्वादशी, पौष शुक्ल द्वादशी का नया नामकरण हुआ। पहले हम कहते थे बैकुंठ एकादशी, बैकुंठ द्वादशी अब उसे प्रतिष्ठा द्वादशी कहना क्योंकि अनेक शतकों से परतंत्रता झेलने वाले भारत के सच्चे स्वतंत्रता की प्रतिष्ठा उसी दिन हो गई। स्वतंत्रता थी, प्रतिष्ठित नहीं हुई थी। भारत स्वतंत्र हुआ 15 अगस्त को राजनीतिक स्वतंत्रता आपको मिल गई। हमारा भाग्य निर्धारण करना हमारे हाथ में है। हमने एक संविधान भी बनाया एक विशिष्ट दृष्टि जो भारत के अपने स्व से निकलती है, उसमें से वह संविधान दिग्दर्शित हुआ, लेकिन उसके जो भाव है, उसके अनुसार चला नहीं और इसलिए हो गए सब स्वप्न साकार कैसे मान लें, टल गया सर से व्यथा का भार कैसे मान लें”। ऐसी परीस्थिति समाज की, क्योंकि जो आवश्यक स्वतंत्रता में स्व का अधिष्ठान होता है, वह लिखित रूप में संविधान से पाया है, लेकिन हमने अपने मन को उसकी पक्की नींव पर आरूढ़ नहीं किया है। हमारा स्व क्या है? राम कृष्ण शिव, यह क्या केवल देवी देवता हैं, या केवल विशिष्ट उनकी पूजा करने वालों के हैं? ऐसा नहीं है। राम उत्तर से दक्षिण भारत को जोड़ते हैं।‘ अपने वक्तव्य में वो आगे भी काफई कुछ कहते हैं । 

राहुल गांधी ने शतकों से परतंत्रता झेलने वाले भारत के सच्चे स्वतंत्रता की प्रतिष्ठा को असली आजादी बताकर संघ पर हमला किया। उन्होंने कहा कि आरएसएस के प्रमुख ने कहा कि भारत ने 1947 में स्वतंत्रता हासिल नहीं की, उन्होंने कहा कि भारत को सच्ची स्वतंत्रता तब मिली जब राममंदिर का निर्माण हुआ। वो इससे भी आगे चले गए और कहा कि भागवत का ये बयान देशद्रोह है और अगर वो दूसरे देश में होते तो उनको गिरफ्तार किया जा सकता था। आगे और भी बहुत कुछ बोले जिसमें सभी संस्थाओं पर संघ के कब्जे की बात से लेकर ये तक कह गए कि हमलोग बीजेपी, आरएसएस और भारतीय राज्य (इंडियन स्टेट) के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे हैं। पहली बात तो ये कि संघ प्रमुख ने कहा ही नहीं कि देश को असली आजादी राम मंदिर बनने के बाद मिली। उन्होंने कहा कि हमारी स्वतंत्रता उस दिन प्रतिष्ठित हुई। 15 अगस्त 1947 को देश को स्वतंत्रता मिली लेकिन जिस स्व तंत्र की बात हो रही है क्या वो 1947 में मिल गई थी। इस संबंध में प्रसिद्ध राजनीति विज्ञानी रजनी कोठारी की पुस्तक पालिटिक्स इन इंडिया को देखना चाहिए। इसमें वो एक अध्याय का आरंभ ही इस बात से करते हैं कि स्वतंत्रता हासिल करने के बाद, बदलाव और पुनर्निर्माण की घोषणा होती है, लेकिन भारत में जो राजनीतिक परंपरा चली आ रही थी उसमें कोई गहन बदलाव नहीं आया। हिंदू परंपरा, पश्चिमी राजनीतिक विचार और पुनर्निमाणात्मक राष्ट्रवाद ने राष्ट्र के पुनर्निमाण का एक रास्ता तय किया। इसी क्रम में रजनी कोठारी आगे लिखते हैं कि 1947 के बाद जब कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व में सरकार बनी तो एक ऐसा अभिजात वर्ग उभरा जो भारत छोड़कर जा रहे अंग्रेज अभिजात वर्ग के विचार और अनुभवों का पोषक था। वो तो यहां तक कह जाते हैं कि इस अभिजात्य विचार ने व्यक्तिगत और सांस्थानिक विचार को प्रभावित किया। कहने का तात्पर्य ये है कि स्वतंत्रता के बाद कोठरी जिस अंग्रेजी अभिजात्य विचार की बात करते थे वो खत्म नहो हो सका। स्व स्थापित नहीं हो सका।  

इसको इस तरह से भी कहा जा सकता है कि भारतीय परंपरा और भारतीय विचार को पूर्ण रूप से नहीं अपनाया जा सका। वो जिन संस्थाओं की बात कर रहे हैं उसमें भी अंग्रेजों के अभिजात्य विचार का प्रभाव बना रहा। शिक्षा से लेकर सांस्कृतिक प्रतिष्ठान तक उससे प्रभावित रहे। इस तरह के विचार कोठारी के अलावा कई अन्य राजनीति विज्ञानी मानते और कहते रहे हैं। तो क्या ये मान लिया जाए कि वो सभी लोग देशद्रोही और संविधान विरोधी थे। वासुदेव शरण अग्रवाल से लेकर कुबेरनाथ राय तक जिस सांस्कृतिक परंपरा की व्याख्या करते रहे हैं, वो 1947 के बाद के वर्षों में स्थापित हो पाई। जिस स्व की बात हमारे मनीषी करते थे क्या वो हस्तगत हो पाया। इसपर विचार की आवश्यकता है। संघ प्रमुख ने संविधान में स्व की दृष्टि और भाव की बात की जिसको राहुल गांधी संविधान का अपमान बता रहे हैं। 

राहुल गांधी इन दिनों संविधान की बहुत बात करते हैं। संविधान को लेकर एक दिलचस्प प्रसंग। तय हुआ कि संविधान सभा के सभी सदस्य संविधान पर हस्ताक्षर करेंगे। राहुल गांधी की दादी के पिता जवाहरलाल नेहरू भी संविधान सभा के सदस्य थे। उन्होंने सबसे पहले दस्तखत कर दिया। अब संविधान सभा के अध्यक्ष डा राजेन्द्र प्रसाद के सामने संकट कि वो कहां हस्ताक्षर करें। उन्होंने नेहरू जी के दस्तखत के ऊपर हिंदी और अंग्रेजी दोनों में अपने हस्ताक्षर किए। जिसको देखकर ही लगता है कि जगह बनाकर किसी तरह अध्यक्ष ने अपने हस्ताक्षर किए। जब देश में पहला आमचुनाव होने जा रहा था तो उसके परिणाम के पहले ही नेहरू जी ने संविधान में पहला संशोधन करवा दिया। होना ये चाहिए था कि जन प्रतिनिधि निर्वाचित होते और नई संसद का गठन होता उसके बाद संविधान में संशोधन होता। पर नेहरू जी ने मनमानि की। सिर्फ नेहरू जी ने ही क्यों उनके बाद उनकी पुत्री ने तो संविधान का मजाक ही बना दिया। देश में इमरजेंसी लगाई। बाद में इंदिरा जी के पुत्र राजीव गांधी ने प्रधानमंत्री रहते हुए संसद के द्वारा प्रेस की स्वतंत्रता पर लगाम लगाने की कोशिश की। मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्रित्व काल में भी ऐसी ही एक कोशिश हुई। केबल और टेलीविजन एक्ट में संशोधन करके न्यूज चैनलों पर काबू करने का असफल प्रयास हुआ था।

इन सबसे अलग हटकर भी अगर देखा जाए तो संविधान में या जिन संस्थाओं में भारतीय धर्म प्रतीकों की बात हमारे संविधान निर्माताओं ने अंगीकार किया था क्या हमारा देश अबतक उस दिशा में चल पाया है। रजनी कोठारी भी ये मानते हैं कि राज्य को स्वतंत्रता की स्थितियां पैदा करनी चाहिए उसमें बाधा नहीं खड़ी करनी चाहिए। 1947 के बाद अगर देखा जाए तो कांग्रेस के शासनकाल में कई बार स्वतंत्रता की स्थितियों में बाधा उत्पन्न की गईं। जिसका विस्तार से जिक्र ऊपर किया जा चुका है। राहुल गांधी अंग्रेजी में बोलते हैं। उनको ये समझना होगा कि भाषा केवल शब्दों का समूह भर नहीं है उससे प्रभाव पैदा होता है, निर्मिति होती है। शब्दों का अपना संस्कार होता है इस कारण से सार्वजनिक जीवन में रहनेवालों को शब्दों के संस्कार और उसकी परंपरा से परिचित होना आवश्यक है। अन्यथा उनके वक्तव्य हास्यास्पद हो जाते हैं। देशद्रोही ऐसा ही एक शब्द है। विचार तो इस बात पर भी होना चाहिए कि क्या स्वतंत्रता के इतने वर्षों बाद भी हम संविधान निर्माताओं के सोच या भाव को राष्ट्र-जीवन में उतार सके हैं। क्या स्व की अवधारणा तक पहरुंचने में हमें सफलता प्राप्त हुई है।   

Sunday, January 12, 2025

तुमसा नहीं देखा...


ओंकार प्रसाद नैयर जिसे ओपी नैयर के नाम से जाना गया, एक ऐसे संगीतकार थे जिन्होंने शास्त्रीय संगीत की विधिवत शिक्षा नहीं प्राप्त की थी। लेकिन जब वो किसी गीत के लिए संगीत तैयार करते थे तो उसमें रागों का उपयोग इतनी खूबसूरती से करते थे कि पारखियों को इस बात का अनुमान नहीं होता था कि उन्हें रागों की व्यवस्थित शिक्षा ग्रहण नहीं की। 16 जनवरी 1926 को अविभाजित भारत के लाहौर में उनका जन्मे नैयर की बचपन से ही संगीत में रुचि थी। पढ़ाई में उनका मन नहीं लगता था। उनके परिवार के लोग उनको संगीत की तरफ जाने से रोकते। उनको लगता था कि अगर नैयर संगीत से दूर हो गया तो पढ़ाई में मन लगेगा। पर नैयर का मन तो संगीत में रम चुका था। 17 वर्ष की उम्र में ही उन्होंने एचएमवी के लिए कबीर वाणी कंपोज की थी लेकिन वो पसंद नहीं की गई। बावजूद इसके उन्होंने एक प्राइवेट अलबम प्रीतम आन मिलो कंपोज की जिसमें सी एच आत्मा से गवाया। इस अलबम ने नैयर को संगीत और सिनेमा जगत में एक पहचान दी। नैयर खुश हो रहे थे कि उनका सपना पूरा होने वाला है। नियति को कुछ और ही मंजूर था। देश का विभाजन हो गया। उनको लाहौर में सबकुछ छोड़-छाड़ कर पटियाला आना पड़ा। पटियाला में वो संगीत शिक्षक बनकर जीवन-यापन करने लगे। पर मन तो फिल्मों में संगीत देने का था। एक नैयर बांबे (अब मुंबई) पहुंचते हैं। लंबे संघर्ष और जानकारों की सिफारिश के बाद उनको फिल्म संगीत में हाथ आजमाने का अवसर मिला।

1952 की फिल्म आसमान ने नैयर के लिए सफलता का क्षितिज तो खोला पर उनके और लता मंगेशकर के बीच दरार भी पैदा कर दी। दोनों ने फिर कभी साथ काम नहीं किया। ये वो समय था जब लता मंगेशकर फिल्म अनारकली, नागिन और बैजू बाबरा जैसी फिल्मों के गाने गाकर प्रसिद्धि की राह पर चल पड़ी थीं। नैयर ने लता से अपनी फिल्म आसमान में गाने का अनुबंध किया था। जब रिकार्डिंग का समय हुआ तो लता मंगेशकर नदारद। वो तय समय पर नहीं पहुंची। बाद में लता ने नैयर को बताया कि उनके नाक में कुछ दिक्कत थी। डाक्टर ने उनको आराम की सलाह दी थी। तब नैयर ने उनसे दो टूक कहा कि जो समय पर नहीं पहुंच सकता उसका मेरे लिए कोई महत्व नहीं। लता ने समझाने का प्रयत्न किया। नैयर नहीं माने। तब लता ने भी कहा जो व्यक्ति संवेदनहीन हो  वो उनके लिए नहीं गा सकती। इस विवाद के बाद राजकुमारी ने वो गाना गाया। गीत था, मोरी निंदिया चुराए गयो...। दरअसल नैयर एक ऐसे संगीतकार थे जो अपनी शर्तों पर काम करते थे। जब लता से विवाद हुआ तो शमशाद बेगम ने उनका साथ दिया। उन्होंने गीता दत्त और आशा भोंसले से गवाना आरंभ किया। उनकी संगीत में जो रिद्म था या जो पंजाबी लोकसंगीत की धुनों का उपयोग करते थे उसमें आशा की आवाज एकदम फिट बैठ रही थी। गीता दत्त ने ही नैयर को गुरुदत्त से मिलवाया। फिल्म आर-पार के गीतों और उसके बाद मिस्टर एंड मिसेज 55 की गीतों ने ओ पी नैयर के संगीत को सफलता के ऊंचे पायदान पर पहुंचा दिया। नैयर निरंतर सफल हो रहे थे। बी आर चोपड़ा ने दिलीप कुमार और वैजयंतीमाला को लेकर फिल्म नया दौर शुरु की। चोपड़ा ने नैयर को संगीतकार के तौर पर साइन किया। यही वो फिल्म थी जिसके गीतों को कंपोज करते नैयर और आशा के बीच की नजदीकियां बढ़ीं। नया दौर में आशा और रफी के गानों ने लोकप्रियता का शिखर छुआ। रफी के साथ उनका गाया गाना ‘उड़े जब जब जुल्फें तेरी, कवांरियों का दिल मचले’ या शमशाद बेगम के साथ ‘रेशमी सलवार कुर्ता जाली का’ जैसे गीत लोगों की जुबान पर चढ़ गए। जैसे जैसे आशा और नैयर की नजदीकियां बढ़ीं, गीता और शमशाद की उपेक्षा आरंभ हो गई। नैयर भूल गए कि शमशाद बेगम ने उनकी कठिन समय में मदद की थी और गीता दत्त ने उनको गुरुद्त्त से मिलवाया था। गीता दत्त ने नैयर से एक बार पूछा भी था वो क्यों उनकी उपेक्षा कर रहे हैं पर नैयर के पास कोई उत्तर नहीं था। पर जब फिल्म हाबड़ा ब्रिज में हेलेन पर फिल्माया गीत मेरा नाम चिन चिन चू को गीता दत्त की आवाज मिली तो वो बेहद खुश हो गईं थीं। ये गाना हेलेन की पहचना भी बना। हेलेन की तरह ही शम्मी कपूर को जपिंग स्टार की छवि देने में ओपी नैयर के संगीत की बड़ी भूमिका है। फिल्म तुमसा नहीं देखा के गीत और संगीत से ही शम्मी कपूर की छवि मजबूत हुई।  

ओ पी नैयर एक ऐसे संगीतकार थे जिन्होंने हारमोनियम, सितार, गिटार, बांसुरी, तबला, ढोलक, संतूर, माउथआर्गन और सेक्साफोन आदि का जमकर उपयोग किया। इन वाद्ययंत्रों के साथ जब वो प्रयोग करते थे तो गीत के एक एक शब्द का ध्यान रखते थे। ये बहुत कम लोगों को पता है कि नैयर होम्योपैथ और ज्योतिष के भी अच्छे जानकार थे। एक समय में सबसे अधिक पैसे लेनेवाले संगीतकार को बाद में अपनी जिंदगी चलाने के लिए अपना घर तक बेचना पड़ा था। पर स्वाभिमानी इतने कि अपने किसी निर्णय पर कभी अफसोस नहीं किया।  


Saturday, January 11, 2025

पांडुलिपि मिशन को मिले जीवनदान


महाराष्ट्र और झारखंड विधानसभा चुनाव की गहमागहमी के बीच प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली कैबिनेट ने पांच भारतीय भाषाओं को क्लासिकल भाषा की श्रेणी में लाने का निर्णय लिया था। ये पांच भाषाएं हैं मराठी, बंगाली, पालि, प्राकृत और असमिया। इन भाषाओं में हमारे देश में प्रचुर मात्रा में ज्ञान संपदा उपलब्ध है। पालि और प्राकृत में तो हमारे इतिहास की अनेक अलक्षित अध्याय भी हैं जिनका सामने आना शेष है। हमारे देश की ऐतिहासिक ज्ञान संपदा कई मठों और बौद्ध विहारों के अलावा जैन मतावलंबियों के मंदिरों में रखी हैं। इनमें से अधिकतर पांडुलिपियां पालि और प्राकृत में हैं। प्रधानमंत्री मोदी इन भाषाओं को क्लासिकल भाषा की घोषणा से आगे जाकर पांडुलिपियों में दर्ज ज्ञान संपदा को आम जनता तक पहुंचाना चाहते हैं। बुद्ध के बारे में तो प्रधानमंत्री राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय मंचों पर निरंतर बोलते रहते हैं। हाल ही में प्रवासी भारतीय दिवस के अवसर पर आयोजित समारोह में भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बुद्ध और उनके सिद्धातों के बारे में चर्चा की थी। भगवान बुद्ध ने जो ज्ञान दिया है उसको वैश्विक स्तर पर पहुंचाने का कार्य होना शेष है। प्रधानमंत्री के निर्णय के बाद पालि को लेकर थिंक टैंक श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन ने सक्रियता दिखाई और देश के कई हिस्से में गोष्ठियां आदि करके उसको मुख्यधारा में लाने की पहल आरंभ की है। इन गोष्ठियों में भारतीय जनता पार्टी के बड़े नेताओं की भागीदारी ये स्पष्ट है कि इस कार्य में पार्टी के शीर्ष नेतृत्व की सहमति और स्वीकृति दोनों है।  प्रधानमंत्री की अपने देश की ज्ञान संपदा को आमजन तक पहुंचाने के लिए सबसे कारगर तरीका तो यही लगता है कि राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन को फिर से सक्रिय किया जाए।

राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन का आरंभ अटल बिहारी वाजपेयी जी के प्रधानमंत्रित्व काल में 2003 में किया गया। मिशन के गठन के करीब सालभर बाद अटल जी की सरकार चली गई। केंद्र में कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार बनी। मिशन की वेबसाइट पर उपलब्ध जानकारी के अनुसार, ‘इस परियोजना के माध्यम से मिशन का उद्देश्य भारत की विशाल पाण्डुलिपीय सम्पदा को अनावृत करना और उसको संरक्षित करना है। भारत लगभग पचास लाख पाण्डुलिपियों से समृद्ध है जो संभवत: विश्व का सबसे बड़ा संकलन है| इसमें सम्मिलित हैं अनेक विषय, पाठ संरचनाएं और कलात्मक बोध, लिपियां, भाषाएं, हस्तलिपियां, प्रकाशन और उद्बोधन| संयुक्त रूप से ये भारत के इतिहास, विरासत और विचार की ‘स्मृति’ हैं। ये पाण्डुलिपियां अनेक संस्थानों तथा निजी संकलनों में प्राय: उपेक्षित और अप्रलेखित स्थिति में देशभर में और उसके बाहर भी बिखरी हुई हैं| राष्ट्रीय पाण्डुलिपि मिशन का उद्देश्य अतीत को भविष्य से जोड़ने तथा इस देश की स्मृति को उसकी आकांक्षाओं से मिलाने के लिए इन पाण्डुलिपियों का पता लगाना, उनका प्रलेखन करना, उनका संरक्षण करना और उन्हें उपलब्ध कराना है|’  इस मिशन की वेबसाइट पर ही इसके कार्यों का लेखाजोखा भी उपलब्ध है। उसको देखकर सहज ही ये अनुमान लगाया जा सकता है कि मिशन बस चलता रहा है। कोई उल्लेखनीय कार्य हुआ हो ये ज्ञात नहीं हो सका है। अभी कुछ वर्षों पहले तो सांस्कृतिक जगत में ये चर्चा थी संस्कृति मंत्रालय इस मिशन को बंद करना चाहती है। पता नहीं किन कारणों से इस मिशन को इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र से जोड़ने का निर्णय हुआ। जब मिशन को कला केंद्र से जोड़ा गया तो माना गया था कि वहां इसके उद्देश्यों को पूरा करने को गति मिलेगी। कला केंद्र के पुस्तकालय में भी पांडुलिपियों का खजाना है। देशभर के 52 पुस्तकालयों से इन पांडुलिपियों की माइक्रो फिल्म बनाकर यहां रखा गया है। इन पांडुलिपियों में गणित, अंतरिक्ष विज्ञान, चिकित्सा शास्त्र, ज्योतिष शास्त्र शामिल हैं। इसके अलावा कला केंद्र की लाइब्रेरी में एक लाख के करीब स्लाइड्स हैं जिसपर देश की विविध परंपराओं की झलक देखी जा सकती हैं। देश भर के स्मारकों या ऐतिहासिक इमारतों की तस्वीरें भी यहां हैं। कलानिधि संदर्भ पुस्तकालय अपने आप में अनोखा है। यहां किताबें तो हैं ही एक सांस्कृतिक आर्काइव भी है। पर यहां से जुड़ने के बाद भी मिशन गतिमान नहीं हो सका। बताया जाता है कि संस्कृति मंत्रालय ने मिशन को इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र से जोड़ तो दिया पर उसको गतिमान करने के लिए जो आर्थिक संसाधन नहीं दिए। परिणाम वही हुआ जो बिना अर्थ के किसी संस्था का होता है। 

अब प्रधानमंत्री की रुचि को देखते हुए एक बार फिर से राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन को सक्रिय करने का प्रयास संस्कृति मंत्रालय कर रहा है। राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन के अकाउंट्स को अस्थायी रूप से साहित्य अकादमी को दिया गया है। साहित्य अकादमी को निर्देश दिया गया है कि वो राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन के खर्चों का हिसाब किताब रखे। बिलों का भुगतान आदि करे। इस निर्णय के पीछे की मंशा क्या हो सकती है पता नहीं। साहित्य अकादमी को पूरा देश सृजनात्मकता के केंद्र के रूप में जानता है, संस्कृति मंत्रालय इसको लेखा विभाग के लिए भी उपयुक्त समझता है। इन दिनों संस्कृति मंत्रालय अपने अजब-गजब फैसले के लिए भी जाना जाने लगा है। कभी अपने से संबद्ध संस्थाओं के चेयरमैन के स्तर को लेकर जारी फरमान तो कभी राजा राममोहन राय मोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन में एक अस्थायी अफसर को हटाकर दूसरे अस्थायी अफसर को दायित्व देने को लेकर । मंत्रालय को जो ठोस कार्य करने चाहिए उस ओर वहां कार्यरत अफसरों का ध्यान ही नहीं जा पा रहा है। राजा राममोहन राय मोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन में नियमित महानिदेशक की नियुक्ति, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में नियमित चेयरमैन की नियुक्ति जैसे कार्यों पर ध्यान है कि नहीं, पता नहीं। स्वाधीनता के अमृत महोत्सव के समय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इंडिया गेट के पास अमृत वाटिका की बात की थी। इस वाटिका में मेरी माटी, मेरा देश के दौरान जमा की गई मिट्टी को रखा जाना था। देशभर से कलश में मिट्टी लेकर लोग दिल्ली में जुटे थे। भव्य कार्यक्रम हुआ था। तब इस तरह की खबर आई थी गृहमंत्री अमित शाह ने अमृत वाटिका के लिए जगह देखने के लिए उस इलाके का दौरा भी किया था। अब पता नहीं कहां हैं वो मिट्टी भरे कलश और कहां बन रही है अमृत वाटिका। संस्कृति मंत्रालय को इस बारे में बताना चाहिए। 

राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन को अगर संस्कृति मंत्रालय के वर्तमान अधिकारियों के भरोसे छोड़ा गया तो उसका परिणाम क्या होगा इस बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता है। जो अफसर संस्कृति और संस्कृति से जुड़े मुद्दों की संवेदना को नहीं समझ सकते वो पांडुलिपियों में संचित ज्ञान को लेकर संवेदनशील होंगे इसपर संदेह है। दूसरी जो चिंता योग्य बात ये है कि जब मंत्रालय के अफसर प्रधानमंत्री की रुचि वाली योजनाओं को लेकर बेफिक्र रहते हैं तो वो किसकी सुनते होंगे, कहा नहीं जा सकता। आज आवश्यकता इस बात की है कि राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन को मिशन की तरह चलाया जाए और उसको किसी योग्य व्यक्ति के हाथों में सौंपा जाए। संस्कृति मंत्री गजेन्द्र सिंह शेखावत अपने स्तर पर इस कार्य. को पटरी पर लाने में विशेष रुचि लें ताकि भारत का जो इतिहास वर्षों से सामने नहीं आ पाया है वो सामने आ सके और लोग उसपर गर्व कर सकें। प्रधानमंत्री मोदी के पंच-प्रण की पूर्ति की दिशा में यह एक महत्वपूर्ण कदम होगा।   


Friday, January 10, 2025

अकबर रोड से कोटला रोड का सफर


जब ये तय हुआ कि सभी राजनीतिक दलों को उनके सांसदों की संख्या के आधार पर दिल्ली में पार्टी के मुख्यालय के लिए जमीन दी जाएगी तो कांग्रेस को पंडित दीनदयाल उपाध्याय मार्ग और कोटला रोड के कोने पर प्लांट संख्या 9 ए आवंटित किया गया। उसी समय कांग्रेस ने तय कर लिया था वो अपने कार्यालय के पते में पंडित दीनदयाल उपाध्याय रोड न लिखकर कोटला रोड लिखेगी। संभव है कि कांग्रेस नेतृत्व ने सोचा होगा कि भारतीय जनता पार्टी की विचारधारा के प्रखर और शीर्ष नेता के नाम पर रखे मार्ग को अपने पते में न लिखा जाए। इस निर्णय के लभग डेढ दशक बाद कांग्रेस के केंद्रीय कार्यालय की इमारत तैयार हो चुकी है। उपलब्ध जानकारी के अनुसार दिल्ली में पार्टी का मुख्यालय पांचवीं बार स्थानांतरित हो रहा है। स्वाधीनता के बाद से कांग्रेस पार्टी का कार्यालय 7 जंतर मंतर रोड पर चल रहा था। इस इमारत से कांग्रेस पार्टी के नेताओं ने लंबे समय तक काम किया। पंडित जवाहर लाल नेहरू से लेकर उनके बाद के कई कांग्रेस अध्यक्ष वहां बैठा करते थे। 1969 में जब कांग्रेस पार्टी का विभाजन हुआ तो संगठन कांग्रेस ने इस इमारत को छोड़ने से इंकार कर दिया। इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस ने विंडसर प्लेस में अस्थायी कार्यालय बनाया। इंदिरा गांधी को 7 जंतर मंतर मंतर रोड कार्यालय के छूटने का दर्द लंबे समय तक सालता रहा था। 1971 में पार्टी ने अपना स्थायी ठिकाना डा राजेन्द्र प्रसाद रोड पर बनाया। सात वर्षों तक कांग्रेस ने इसी कार्यालय में पार्टी की राजनीतिक गतिविधियां चलती रहीं। 1977 में संगठन कांग्रेस का विलय जनता पार्टी में हो गया। इमरजेंसी के बाद हुए चुनाव के बाद मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने। इस बंगले को सरदार पटेल स्मारक संस्थान को अलाट कर दिया गया। जनता पार्टी का दफ्तर इसी इमारत में था। उस समय बताया गया था कि जनता पार्टी को सरदार पटेल स्मारक ट्रस्ट ने किराए पर जगह दी है। बाद में ये जगह विवादित होती चली गई। आज तो इस इमारत में कौन किराएदार है और कौन मालिक पता करना कठिन है।

जनता पार्टी के शासन काल के दौरान कांग्रेस पार्टी को अकबर रोड पर 24 नंबर की कोठी आवंटित कर दी गई। तब से लेकर अबतक कांग्रेस पार्टी का मुख्यालय वहीं से कार्य कर रहा है। करीब 47 वर्षों के बाद इस महीने मुख्यालय कोटला रोड पर शिफ्ट होने वाला है। अकबर रोड के कार्यालय में कांग्रेस पार्टी ने काफी राजीनीतिक उतार चढ़ाव देखे। इमरजेंसी के बाद इंदिरा गांधी की सत्ता में वापसी, इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी का प्रधान मंत्री बनना, नरसिंहराव का प्रधानमंत्री बनना, सोनिया गांधी का अध्यक्ष पद संभालना, नरसिंहराव के पार्थिव शरीर के लिए कांग्रेस कार्यालय का नहीं खुलना, सोनिया की जगह मनमोहन सिंह को देश का प्रधानमंत्री बनना, राहुल गांधी का पार्टी की कमान संभलना, लंबे समय बाद किसी गैर गांधी के रूप में मल्लिकार्जुन खरगे का अध्यक्ष बनना जैसी महत्वपूर्ण राजनीतिक गठनाओं का गवाह अकबर रोड का बंगला बना। 

1978 में जब कांग्रेस पार्टी को केंद्रीय कार्यालय के लिए 24 अकबर रोड का बंगला अलाट हुआ था तब उसमें आठ कमरे थे। समय के साथ इसके परिसर में वैध-अवैध निर्माण होता रहा। इस समय तो जाने कितने स्थायी- अस्थायी कमरे हैं। रशीद किदवई ने अपनी पुस्तक में कांग्रेस मुख्यालय परिसर में एक अस्थायी मंदिर की बात की है। उनके मुताबिक कांग्रेस मुख्यालय में एक बड़ा पेड़ था। किसी समय कर्नाटक के एक व्यक्ति को जब पार्टी का टिकट मिला तो उसने पेड़ के नीचे एक छोटा सा मंदिर बनवा दिया। 1999 में आए तूफान के कारण वो विशाल पेड़ गिर गया। उसके नीचे बना मंदिर भी ध्वस्त हो गया। परिसर के उस मंदिर को लेकर भी रोचक जानकारी दी गई है कि जो भी टिकटार्थी आता था वो वहां सर नवाता था। टिकट मिलने पर फिर मंदिक पहुंच कर भगवान को धन्यवाद देता था। इस तरह के कई किस्से 24 अकबर रोड से जुड़े रहे हैं। अब जब वो परिसर खाली हो जाएगा तो ये किस्से, अगर विस्तार से लिखे नहीं गए, तो इतिहास में खो सकते हैं।   


Sunday, January 5, 2025

याद सदा रखना ये कहानी


फिल्म जब जब फूल खिले का क्लाइमैक्स सीन याद करिए। नायिका हीरो को तलाशते रेलवे स्टेशन पहुंचती है। वो गलती से दूसरे प्लेटफार्म पर पहुंच जाती है और ट्रेन उसके सामने से निकल जाती है। वो निराश होती है लेकिन अचानक उद्घोषणा होती है कि पठानकोट जानेवाली गाड़ी प्लेटफार्म नंबर पांच से रात नौ बजकर 40 मिनट पर रवाना होगी। वो भागती हुई पांच नंबर प्लेटफार्म पर पहुंचती है। परेशान हालत में राजा राजा चिल्लाते हुए नायक को ढूढती है। जैसे ही नायक उसको दिखता है तो ट्रेन चल पड़ती है। वो दरवाजे पर लगे हैंडल को पकड़कर दौड़ती हुई नायक से माफी मांगने लगती है। अपने साथ ले चलने की गुहार लगाती है। ये लंबा सीक्वेंस है। ट्रेन चल रही होती है, नायक खामोशी से अपनी प्रेमिका को देखता रहता है और वो ट्रेन के साथ दौड़ती रहती है। अचानक प्लेटफार्म खत्म होता है और नायक एक्शन में आकर नायिका को ट्रेन के अंदर खींच लेता है। नायक हैं शशि कपूर और नायिका है नंदा। वही नंदा जो अबतक फिल्मों में बहन या पत्नी की भूमिका निभा रही होती थी, इस फिल्म में एक बिल्कुल ही अलग रोल में चुलबुली प्रेमिका की भूमिका में दिखती है। फिल्म हिट हो जाती है। शशि कपूर जिनकी फिल्में अबतक निरंतर फ्लाप हो रही थी वो रातों रात स्टार बन जाते हैं। ट्रेन का ये सीक्वेंस बहुत कठिन था और रात दो बजे से सुबह चार बजे के बीच बांबे सेंट्रल स्टेशन पर फिल्माया गया था। नंदा इस सीन को करते हुए बेहद डरी हुई थी क्योंकि अगर शशि कपूर कुछ सेकेंड से चूकते तो वो ट्रेन के नीचे आ सकती थी। नंदा ने इस सीन को किया। 

शशि कपूर के साथ फिल्म में इस सीन को करने के लिए नंदा क्यों तैयार हुई थीं इसके पीछे दिलचस्प कहानी है। नंदा, मास्टर विनायक की बेटी थीं। मास्टर विनायक फिल्म इंडस्ट्री के बड़े प्रोड्यूसर-डायरेक्टर थे। उनका परिवार फिल्म निर्माण से जुड़ा था। व्ही शांताराम नंदा के रिश्तेदार थे। 41 वर्ष की उम्र में मास्टर विनायक का निधन हो गया तब नंदा की उम्र महज सात वर्ष थी। परिवार चलाने के लिए नंदा को फिल्मों में बाल कलाकार के तौर पर काम करना पड़ा था।  बेबी नंदा के नाम से उन्होंने कई फिल्में की। नंदा को अभिनेत्री के तौर पर व्ही शांताराम ने अपनी फिल्म तूफान और दीया में अवसर दिया था। राज कपूर के साथ उन्होंने फिल्म आशिक की थी। इसके निर्माण के दौरान राज कपूर से उनकी दोस्ती हो गई। इस बीच उनकी कई सफल फिल्में आई। जब राज कपूर को पता चला कि जब जब फूल खिले में नंदा शशि कपूर की प्रेमिका का रोल कर रही हैं तो वो नंदा के पास पहुंचे। राज साहब ने नंदा का हाथ पकड़कर कहा कि पता चला है कि तुम शशि के साथ काम कर रही हो। आप उससे सीनियर कलाकार हो प्लीज उसका ध्यान रखना। शशि मेरा भाई नहीं, मेरा बेटा है और असफलता का काऱण अंदर से टूटा हुआ है। अगर तुम उसकी मदद करोगी तो वो फिल्म अच्छे से कर पाएगा। राजकपूर की ये बात नंदा के दिल को छू गई। जब जब फूल खिले के क्लाइमैक्स की बात आई तो कुछ लोगों ने नंदा से कहा कि उनको इस खतरनाक सीक्वेंस के लिए बाडी डबल का उपयोग करना चाहिए। नंदा नहीं मानी क्योंकि उनको राज कपूर की बात याद थी। इस फिल्म के क्लाइमैक्स का गीत, याद सदा रखना ये कहानी, चाहे जीना चाहे मरना, भले ही फिल्म के प्रेमी-फ्रेमिका के बीच हो लेकिन याद तो सदा नंदा से किया राज कपूर का अनुरोध और नंदा का उसको निभाना भी रहेगा। जब शशि कपूर असफलता का दौर झेल रहे थे तो नंदा के उनके साथ कई फिल्में कीं।

नंदा का बचपन बहुत संघर्ष में बीता था, इस कारण वो अंतर्मुखी थीं। सेट पर बहुत बातें नहीं करती थीं। उन्होंने विवाह भी नहीं किया। कहा जाता है कि वहीदा रहमान की सलाह पर उन्होंने निर्देशक मनमोहन देसाई के साथ सगाई तो की थी लेकिन विवाह के पहले और सगाई के दो वर्ष बाद मनमोहन देसाई का घर की छत से गिरकर निधन हो गया। ये तो विधि का विधान ही कहा जाएगा कि नंदा का निधन भी घर की छत से गिरकर ही हुआ। हलांकि दोनों के निधन में दो दशक का अंतराल रहा। 1952 से लेकर 1983 तक के लंबे कालखंड में नंदा ने कई बेहद सफल फिल्में कीं जिनमें धूल का फूल, काला बाजार, आंचल, छोटी बहन प्रमुख हैं। 1960 से लेकर बाद के कुछ वर्षों तक वो और अभिनेत्री नूतन फिल्म इंडस्ट्री में सबसे अधिक महंगी एक्ट्रेस के तौर पर चर्चित रहीं। उनका किसी फइल्म में होना सफलता की गारंटी माना जाता था। बाल कलाकार से लेकर सह कलाकार से लेकर मेन लीड और फिर सह-कलाकार की दर्जनों भूमिका में नंदा के अभिनय के इंद्रधनुष को देखा जा सकता है। 


Saturday, January 4, 2025

इतिहास पुनर्लेखन के सामने चुनौतियां


नववर्ष में दिल्ली के आंबेडकर इंटरनेशनल सेंटर में गृह मंत्री अमित शाह ने राष्ट्रीय पुस्तक न्यास से प्रकाशित पुस्तक ‘जम्मू कश्मीर एवं लद्दाख, सातत्य और संबद्धता का ऐतिहासिक वृत्तांत’ का लोकार्पण किया। लोकार्पण समारोह में अमित शाह ने कई ऐसी बातें कहीं जिसपर बौद्धिक जगत में विमर्श होना चाहिए। गृह मंत्री ने कहा कि हमारे देश के हर हिस्से में मौजूद भाषाएं, लिपियां, आध्यात्मिक विचार, तीर्थ स्थलों की कलाएं, वाणिज्य और व्यापार, हजारों साल से कश्मीर में उपaस्थित थे और वहीं से देश के कई हिस्सों में पहुंचे थे। जब ये बात सिद्ध हो जाती है तो कश्मीर का भारत से जुड़ाव का प्रश्न बेमानी हो जाता है। उन्होंने इस बात को रेखांकित किया कि यह पुस्तक प्रमाणित करती है कि देश के कोने-कोने में बिखरी हुई हमारी समृद्ध विरासत हजारों वर्षों से कश्मीर में भी थी। पुस्तक के बारे में बताया जा रहा है कि इसमें लगभग 8 हजार साल पुराने ग्रंथों में जहां भी जिस रूप में कश्मीर का उल्लेख आया है उसको निकालकर इसमें रखा गया है। गृह मंत्री ने कश्मीर को भारत का अविभाज्य अंग बताते हुए कहा कि किसी भी कानून की धारा इसे भारत से अलग नहीं कर सकती। पूर्व में कश्मीर को भारत से अलग करने का प्रयास किया गया था, लेकिन समय ने उस धारा को ही हटा दिया। जाहिर सी बात है वो कश्मीर से अनुच्छेद 370 के खत्म करने की बात कर रहे थे। गृह मंत्री ने इस प्रयास को रेखांकित किया जिसके अंतर्गत लंबे समय से देश में चल रहे मिथक को तथ्यों और प्रमाणों के आधार पर तोड़कर सत्य को ऐतिहासिक दृष्टि से प्रस्थापित करने का काम किया गया। इस पुस्तक का संपादन भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद के चेयरमैन रघुवेन्द्र तंवर ने किया है। अमित शाह ने इतिहास लेखन पर चुटकी भी ली और कहा कि कुछ लोगों के लिए इतिहास का मतलब दिल्ली के दरीबे से बल्लीमारन और लुटियन से जिमखाना तक सिमट गया था। 

अमित शाह जब इतिहास लेखन के बारे में बात कर रहे थे तो वो भारतीय दृष्टि से लिखे गए इतिहास की अपेक्षा कर रहे थे। परोक्ष रूप से उन्होंने मार्क्सवादी इतिहासकारों पर तंज भी कसा और कमरे में बैठकर इतिहास लिखने की बात की। अमित शाह ने इतिहास लेखन को लेकर पहली बार अपना मत नहीं रखा बल्कि समय समय पर वो इतिहास लेखन को लेकर अपनी बेबाक राय रखते रहे हैं। मोदी सरकार के पहले और दूसरे कार्यकाल में काफी लोग वामपंथियों को हर गलती के लिए जिम्मेदार ठहराते थे। सेमिनारों और गोष्ठियों में वामपंथी और मार्क्सवादी इतिहासकारों की गलतियों की ओर इशारा कर उनको कोसते थे। कुछ वर्षों पहले अमित शाह ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के कार्यक्रम में भारतीय दृष्टि से इतिहास के पुनर्लेखन की बात की थी। उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया था कि सिर्फ किसी को दोष देने से काम नहीं चलनेवाला है। उन्होंने भारतीय दृष्टि रखनेवाले इतिहासकारों पर भी सवाल खड़े उनमें से कितनों ने भारतीय दृष्टि से विचार किया। बड़े-बड़े भारतीय साम्राज्य के संदर्भग्रंथ तक नहीं बना पाने की बात भी अमित शाह ने रेखांकित की थी। मौर्य साम्राज्य, गुप्त साम्राज्य का संदर्भग्रंथ तैयार नहीं कर पाए। मगध का इतना बड़ा आठ सौ साल का इतिहास, विजयनगर का साम्राज्य लेकिन संदर्भग्रंथ नहीं बना पाए। शिवाजी महाराज का संघर्ष...उनके स्वदेश के विचार के कारण पूरा देश आजाद हुआ। पुणे से लेकर अफगानिस्तान तक और पीछे कर्नाटक तक बड़ा साम्राज्य बना हम कुछ नहीं कर पाए। सिख गुरुओं के बलिदानों को भी इतिहास में संजोने की कोशिश नहीं की गई। महाराणा प्रताप के संघर्ष और मुगलों के सामने हुए संघर्ष की एक बड़ी लंबी गाथा को संदर्भ ग्रंथ में परिवर्तित नहीं किया जा सका। वीर सावरकर न होते तो सन सत्तावन की क्रांति भी इतिहास में सही तरीके से दर्ज नहीं हो पाती। उसको भी हम अंग्रेजों की दृष्टि से ही देखते रहते। आज भी कई लोग उसको सिपाही विद्रोह के नाम से ही जानते समझते हैं। वीर सावरकर ने सन सत्तावन की क्रांति को पहला स्वातंत्र्य संग्राम का नाम देने का काम किया। गृहमंत्री ने तब जोर देकर कहा था कि वामपंथियों को, अंग्रेज इतिहासकारों को या मुगलकालीन इतिहासकारों को दोष देने से कुछ नहीं होगा। केंद्रीय गृहमंत्री ने बेहद सटीक बात कही थी कि अगर किसी की लकीर को छोटी करनी है तो उसके समानांतर एक बड़ी लकीर खींचनी होगी। 

भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद से लेकर तमाम साहित्यिक सांस्कृतिक संस्थाओं को ये देखना होगा कि इतिहास लेखन में सतर्कता और तटस्थता बरती जा रही है या नहीं। भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद में पिछले कुछ वर्षों से इतिहास को लेकर कुछ कार्य हुए हैं लेकिन बीच बीच में वहां कुछ ऐसा घटित हो जाता है जिसकी छाया लंबे समय तक उस संस्था पर महसूस की जाती है। परिषद का काम इतिहास लेखन और उसकी प्रविधि पर ध्यान देने का है झंडा लगवाने और गेस्ट हाउस बनवाने का नहीं। भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद पर बहुत महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है लेकिन वहां भी लंबे समय से सदस्य सचिव नहीं होने के कारण प्रशासनिक और अकादमिक बाधाएं आती रहती हैं। ऊपर से वहां कुछ ऐसा घटित हो जाता है जो उसके अच्छे कार्यों को ढंक देता है। जहां तक बड़ी लकीर खींचने का सवाल है तो उसकी जिम्मेदारी सरकार पर नहीं छोड़ी जा सकती है। बुद्धिजीवी वर्ग को ये बीड़ा उठाना होगा। सरकार संस्थाएं बना सकती हैं, उन संस्थाओं की कमान योग्य व्यक्तियों को देकर उनसे यही अपेक्षा की जाती है कि वो इतिहास लेखऩ में सतर्कता और तटस्थता को बरकरार रखें। इतिहास को लेकर काम कर रही सरकारी संस्थाएं हों या साहित्य कला और संस्कृति के क्षेत्र में काम कर रही स्वायत्त संस्थाएं, ज्यादातर में ठोस काम की जगह कार्यक्रमों ने ले ली हैं। इसका भी बड़ा नुकसान हुआ है। किसी से पूछिए कि सालभर में क्या हुआ तो कहेंगे इतने कार्यक्रम कर लिए। 

आवश्यकता इस बात की है कि ‘जम्मू कश्मीर एवं लद्दाख, सातत्य और संबद्धता का ऐतिहासिक वृत्तांत’ जैसी पुस्तकें अधिक से अधिक संख्या में आएं। संपादित किताबें भी आएं लेकिन स्कालर्स का चयन करके उनको स्वतंत्र पुस्तकें लिखने के लिए भी प्रेरित किया जाए। उनको फेलोशिप दी जाए, उनसे विषय़ देकर शोध करवाया जाए। जो तथ्य ओझल कर दिए गए उनको सामने लाने का दायित्व दिया जाए। अमित शाह जिन संदर्भ ग्रंथों की बात कर रहे हैं उनको तैयार करने की दिशा में भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद को गंभीरता से विचार करना चाहिए। भारतीय दृष्टिवाले इतिहासकारों का चयन करके उनसे संदर्भ ग्रंथ तैयार करवाने चाहिए। मंत्रालय का भी दायित्व है कि वो इस तरह की संस्थाओं में समय पर मानव संसाधन उपलब्ध करवाए ताकि प्रशासनिक और अकादमिक कार्यों में व्यवधान नहीं आ सके। ये अच्छी बात है कि एक पुस्तक आई और गृह मंत्री ने उसकी प्रशंसा की। ऐसी पुस्तकों को राष्ट्रीय शिक्षा नीति के तहत पाठ्यक्रमों में शामिल करवाना चाहिए। प्रतियोगी परीक्षाओं में उन्हीं पुस्तकों से प्रश्न पूछे जाएं ताकि विद्यार्थी उसका अध्ययन कर सकें। जिस तरह से भारतीय इतिहास को विकृत किया गया है उसके लिए एक टास्क फोर्स बनाकर कार्य करना होगा अन्यथा समय बहुत तेजी से निकलता जा रहा है।