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Saturday, July 26, 2025

बूढ़ा गिद्ध क्यों पंख फैलाए


मई 2013 के अपने संपादकीय में 'हंस' पत्रिका के संपादक राजेंद्र यादव ने लिखा था, इधर हमारे अशोक वाजपेयी अपने रोजनामचे यानी कभी-कभार (साप्ताहिक स्तंभ) में अक्सर ही बताते रहते हैं कि उन्होंने देश-विदेश की किन गोष्ठियों में भाग लिया और उनकी तुलना में हिंदी कहां कहां और कितनी दरिद्र है। वस्तुत: यह सुनते सुनते मेरे कान पक गए हैं कि हम लोगों में क्या कमी है और हिंदी कहां कहां पिछड़ी हुई है। यह हिंदी वैशिंग मुझे मनोरोग जैसा लगने लगा है। मेरे दफ्तर में आनेवाले ज्यादातर लोग जब हिंदी कविता और कहानियों की कमजोरी और कमियों का रोना रोते हैं तो उसके पीछे भावना यही होती है कि देखिए इन कमियों और कमजोरियों को किस तरह अपनी महान रचनाओं के द्वारा मैं पूरा कर रहा हूं। इस टिप्पणी में उaन्होंने मेरा भी नाम लिया था। राजेंद्र यादव आगे कहते हैं कि यह अशोक और अनंत विजय जैसों की तरह ज्यादा पढ़ने और घूमने से उपजी हुई तकलीफ नहीं, बल्कि एक सुना सुनाया और आत्मप्रचार को सही सिद्ध करने का हथकंडा है। लगता है या तो ये लोग केवल अपने बारे में बोल सकते हैं या हिंदी को लेकर छाती माथा कूटने की लत में लिप्त हैं। कभी-कभी तो मुझे कहना पड़ता है कि हम हिंदुस्तानी या हिंदीवाले का रोदन बंद कीजिए और बताइए कि हमें क्या करना है। लगभग 12 वर्ष पहले यह संपादकीय लिखा गया था। समय का चक्र घूमा, राजेंद्र यादव का निधन हो गया। संजय सहाय हंस के संपादक बने। संपादक बदलने से पसंद नापसंद भी बदले। हंस पत्रिका अलग ही राह पर चल पड़ी। जिस हिंदी वैशिंग को राजेंद्र यादव मनोरोग जैसा मानते थे उसी अशोक वाजपेयी के हिंदी, हिंदी साहित्य और हिंदी समाज के वैशिंग को हंस के जुलाई अंक में छह पृष्ठों में जगह दी गई है। राजेंद्र यादव के निधन के बाद पत्रिका की नीतियों में ये विचलन अलग विमर्श की मांग करता है। इस पर चर्चा फिर कभी। अशोक वाजपेयी के लेख पर विचार करते हैं जिसका शीर्षक है, हिंदी समाज ने आधुनिक हिंदी साहित्य को खारिज कर दिया है? शीर्षक में जो प्रश्नवाचक चिह्न है उसका उत्तर अपने आलेख में खोजने का प्रयत्न किया है। अशोक वाजपेयी का यह लेख सामान्यीकरण और फतवेबाजी का काकटेल बनकर रह गया है। वाजपेयी को अपने द्वारा बनाई चलाई संस्थानों की विफलता और व्यर्थता का तीखा अहसास होता है। अपने इस एहसास में वे हिंदी विश्वविद्यालय को भी शामिल करते हैं जिसके वह पहले कुलपति थे। जिस हिंदी साहित्य की मृत्यु की संभावना अशोक वाजपेयी तलाश रहे हैं, उसी हिंदी साहित्य में एक कहावत है कि जैसा बोओगे वैसा काटोगे। हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति पद पर रहते हुए उसको दिल्ली से चलाना। मित्रों-परिचितों और उनके बेटे बेटियों को विश्वविद्यालय के विभिन्न पदों पर नियुक्त करना। वर्षों बाद उसकी विफलता और व्यर्थता के अहसास में ऊभ-चूभ करके प्रचार तो हासिल किया जा सकता है, लेकिन इससे पाठकों को विमर्श के लिए प्रेरित नहीं किया जा सकता है। साहित्य की मृत्यु की संभावना की जगह आशंका जताते तो उचित रहता। अशोक वाजपेयी हिंदी समाज की व्यापक समझ पर भी प्रश्न खड़े करते हैं। वह कहते हैं कि हिंदी समाज कितना पारंपरिक रहा, कितना आधुनिक हो पाया है, इस पर विस्तार से विचार करने की आवश्यकता है। इसके फौरन बाद अपना निष्कर्ष थोपते हैं कि हमारी व्यापक सामाजिक समझ जितनी आधुनिकता की अधकचरी है, उतनी परंपरा की भी। अब यहां अशोक जी से यह पूछा जाना चाहिए कि वह लंबे समय तक सरकार में रहे, कांग्रेसी मंत्रियों के करीबी रहे, संसाधनों से संपन्न रहे, लेकिन हिंदी समाज की समझ को विकसित करने के लिए क्या किया। दूसरों को कोसने से बेहतर होता है स्वयं का मूल्यांकन करना। यह देखना भी मनोरंजक है कि अशोक वाजपेयी आज के समय में वासुदेवशरण अग्रवाल और हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसे मेधा के लेखक ढूंढ रहे हैं। अशोक जी साहित्य में परंपरा की अंतर्ध्वनि भी सुनना चाहते हैं। लेकिन इसके कारण पर नहीं जाते हैं। हिंदी साहित्य में स्वाधीनता के पहले जो भारतीयता या हिंदू परंपरा थी उसको किस पीढ़ी ने बाधित किया। हिंदू या भारतीय परंपरा को खारिज करनेवाले कौन लोग थे। किन आलोचकों ने साहित्य में भारतीय परंपरा की जगह आयातित विचारों को तरजीह दी। हिंदी समाज से अगर भारतीयता की परंपरा नहीं संभली तो क्या हिंदी के साहित्यकारों ने उस पर उसी समय अंगुली उठाई। तब तो उसको प्रगतिशीलता बताकर जय-जयकार किया गया। परंपरा के अधकचरेपन को अशोक वाजपेयी हिंदुत्व के अधकचरेपन से भी जोड़ते हैं। यहां यह प्रश्न पूछा जाना चाहिए कि कैसे हिंदी समाज का मानस अधकचरेपन को स्वीकार करने के लिए तैयार किया गया। कैसे भारतेंदु से लेकर जयशंकर प्रसाद तक, कैसे मैथिलीशरण गुप्त से लेकर धर्मवीर भारती तक और कैसे दिनकर से लेकर शिवपूजन सहाय तक के भारतीय विचारों को हाशिए पर डालने का षड्यंत्र रचा गया। योजनाबद्ध तरीके से भारतीय विचारों पर मार्क्सवादी विचार लादे गए। आज अशोक वाजपेयी को हिंदी विभागों में विमर्श की चिंता सताती है, लेकिन जब वह कुलपति थे तो एक दो पत्रिका के प्रकाशन के अलावा हिंदी विभागों को उन्नत करने के लिए क्या किया? ये बताते तो उनकी साख बढ़ती, अन्यथा सारी बातें बुढ़भस सी प्रतीत हो रही हैं। अशोक स्वयं मानते हैं कि डेढ़ दो सदियों पहले उत्तर भारत में उच्च कोटि की सर्जनात्मकता थी। उसका श्रेष्ठ भारत का श्रेष्ठ था। वह साहित्य, चित्रकला, स्थापत्य, संगीत आदि में उत्कृष्टता अर्जित कर सका। यहां भी कारण पर नहीं जाते हैं और ऐसा लगता है कि उनकी अपनी कुंठा इस लेख पर हावी हो गई है। दिनकर बच्चन, पंत, प्रसाद, निराला की तरह अशोक वाजपेयी की कविता किसी भी पाठक को याद है। नहीं है। अशोक वाजपेयी को हिंदुत्व की विचारधारा से तकलीफ है। वह हिंदुत्व की विचाधारा को हिंदू धर्म चिंतन और अध्यात्म से अलग मानते हैं। दरअसल यहां भी वह इसी दोष के शिकार हो जाते हैं। अपने मन के भावों को लच्छेदार भाषा में पाठकों को भरमाते हैं। तर्क और तथ्य हों या न हों। पत्रकारिता को भी वह चालू मुहावरे में परिभाषित करने का प्रयास करते हैं। घिसे पिटे शब्द उठाकर लाते हैं। वह साहित्य के प्रतिपक्ष होने की कल्पना करते तो हैं, लेकिन अपने सक्रिय साहित्यिक जीवन को बिसरा देते हैं। संस्कृति मंत्रालय में रहते हुए साहित्य अकादमी का पुरस्कार लेना कौन सा प्रतिपक्ष रच रहा था। दरअसल अशोक वाजपेयी जिस हिंदी समाज के पतन को लेकर चिंतित हैं, कमोबेश उन प्रदेशों में भारतीय जनता पार्टी की सरकारें हैं। उनकी आलोचना करने के लिए उन्होंने साहित्य का मैदान चुना। राहुल गांधी की पैदल यात्रा में शामिल होकर वह अपनी प्रतिबद्धता सार्वजनिक कर ही चुके हैं। इसलिए अशोक वाजपेयी के इस लेख की आलोचनाओं को उसी आईने में सिर्फ देखा ही नहीं जाना चाहिए, बल्कि उसका मूल्यांकन भी किया जाना चाहिए। इस पूरे लेख को पढ़ने के बाद अशोक वाजपेयी के ही दशकों पूर्व अज्ञेय और पंत को निशाना बनाकर लिखे एक लेख का शीर्षक याद आ रहा है, बूढ़ा गिद्ध क्यों पंख फैलाये। उस लेख में वाजपेयी ने लिखा था कम से कम हिंदी में तो कवि के बुजुर्ग होने का सीधा मतलब अकसर अप्रसांगिक होना है।   


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