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Saturday, August 24, 2024

पुस्तक महोत्सव से जगती आस


जम्मू कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद पहली बार विधानसभा चुनाव की घोषणा हो गई है। 5 अगस्त 2019 को जम्मू कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटा दिया गया था। उसके एक वर्ष पहले जून 2018 में जम्मू कश्मीर में राजनीतिक उठापटक के बाद राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया था। अनुच्छेद 370 हटने के बाद अक्तूबर 2019 में जम्मू कश्मीर राज्य का पुनर्गठन करते हुए इसको दो केंद्र शासित क्षेत्र में बांट दिया गया था। एक जम्मू कश्मीर और दूसरा लद्दाख। अनुच्छेद 370 हटने के बाद जम्मू कश्मीर में भारत के सभी कानून लागू हो गए थे। वहां के स्थानीय कानून जो भारत के संविधान से अलग थे वो भी समाप्त हो गए थे। पिछले लगभग पांच वर्षों से वहां जनहित के बहुत सारे कार्य हुए और जम्मू कश्मीर में आतंकवाद के विष का असर कम हुआ। अब वहां करीब छह वर्षों के बाद फिर से विधानसभा का गठन होने जा रहा है। अनुच्छेद 370 हटने के बाद दो बार कश्मीर जाने का अवसर मिला। दो वर्ष पहले अक्तूबर 2022 में एक साहित्य महोत्सव में कश्मीर जाना हुआ था। श्रीनगर में आयोजित कुमांऊ लिट फेस्ट का आयोजन डल झील के किनारे शेर-ए-कश्मीर अंतराष्ट्रीय सम्मेलन केंद्र में हुआ था। उस समय के हिसाब से आयोजन बहुत अच्छा रहा था। लेकिन तब सुरक्षा व्यवस्था सख्त थी। केंद्र के गेट से लेकर अंदर तक सुरक्षा के इंतजाम थे। तब भी स्थानीय लोगों की भागीदारी थी लेकिन आमंत्रण पर ही लोग आए थे। उस साहित्य उत्सव में भी कला, संस्कृति और फिल्मों से जुड़े देशभऱ के लोग आए थे। 

दूसरी बार इस सप्ताह जाना हुआ। अवसर था चिनार पुस्तक महोत्सव का जिसका आयोजन शिक्षा मंत्रालय के राष्ट्रीय पुस्तक न्यास ने किया था। नौ दिनों का ये आयोजन 17 अक्तूबर को आरंभ हुआ। ये भी शेर-ए-कश्मीर अंतराष्ट्रीय सम्मेलन केंद्र में ही चल रहा है। इस बार लोगों की भागीदारी बहुत अधिक दिखी, विशेषकर महिलाओं और लड़कियों की। इस आयोजन में पूरा दिन बिताने के बाद और वहां उपस्थित छात्राओं और महिलाओं से बात करने के बाद ये लगा कि उनके भी अपने सपने हैं, उनकी भी अपनी आकांक्षाएं हैं। पहले भी रही होंगी। अब उनको लगने लगा है कि वो अपने सपनों को पूरा कर सकती हैं। फिल्म और साहित्य पर एक सत्र के दौरान जब वहां उपस्थित लड़कियों से पूछा गया कि कौन कौन फिल्म प्रोडक्शन के क्षेत्र में आना चाहती हैं तो दो लड़कियों ने अपने हाथ खड़े किए। सार्वजनिक रूप से श्रीनगर के एक आयोजन में लड़कियों का इस तरह से सामने आना और ये कहना कि वो फिल्म प्रोडक्शन के क्षेत्र में आना चाहती हैं, बड़ी बात थी। इन आयोजनों का सांस्कृतिक फलक तो बड़ा होता ही है इसका असर भी गहरा होता है। । कश्मीर के युवा पाठकों को बाहर की दुनिया से परिचय करवाने से लेकर भारत की सफलता की कहानी भी पुस्तक महोत्सव में दर्शाई गई थी। इसरो के बारे में, उसकी सफलता के बारे में और मंगलयान के बारे में जानने की जिज्ञासा प्रतिभागियों में प्रबल थी। अंतरिक्ष में इसरो की उड़ान से वो बेहद प्रभावित लग रही थीं। कुछ लड़कियां इस बारे में बात कर रही थीं कि कैसे इस संस्था से जुड़ा जा सकता है। सुरक्षा के इंतजाम रहे होंगे पर वो दिख नहीं रहे थे। प्रतिभागी खुले मैदान में बैठकर बातें कर रहे थे। अलग अलग पंडालों में करीब सवा सौ पुस्तकों की दुकानें थीं जिसमें कश्मीर की कला संस्कृति से जुड़ी पुस्तकों के अलावा हिंदी और अंग्रेजी की पुस्तकें भी प्रदर्शित की गई थीं। उर्दू प्रकाशकों के भी कई स्टाल लगे थे। युवाओं के हाथ में किताब देखकर कुछ अलग ही संकेत मिल रहे थे। कश्मीर के युवाओं की जो छवि बनाई गई थी उससे अलग पुस्तकों के प्रति उनका प्रेम अलग ही कहानी कह रहा था। ऐसा लग रहा था कि कश्मीर के युवा बंदूकों की आवाज या बारूद की गंध से ऊब चुके हैं। वो बेहतर जीवन के रास्ते तलाश रहे हैं। 

चिनार पुस्तक महोत्सव में सिर्फ पुस्तकों के स्टाल ही नहीं थे बल्कि स्थानीय कश्मीरी कलाकारों को भी मंच मिल रहा था। कश्मीरी संगीत, कश्मीरी वाद्य, कश्मीरी कलाकारों से लेकर कश्मीरी कवियों के कृतित्वों पर चर्चा हो रही थी। पुस्तक महोत्सव में शामिल होनेवाले लोग इसका आनंद उठा रहे थे। कला और संस्कृति के प्रति उनका लगाव नैसर्गिक था। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि वो हिंदुस्तान की मुख्यधारा में शामिल होना चाह रहे हैं। वहां इस बात की भी चर्चा हो रही थी कि इतने बड़े स्तर पर कला-संस्कृति और शिक्षा को लेकर कश्मीर में ये पहला अखिल भारतीय आयोजन था। अपने देश के स्वाधीनता सेनानियों के बारे में जानने के लिए भी वहां आए लोग उत्सुक थे। वहां लगी प्रदर्शनी में जुटी भीड़ से इसका पता चल रहा था। कश्मीर में इस तरह के आयोजन प्रतिवर्ष किए जाने चाहिए ताकि अधिक से अधिक युवाओं को जोड़ा जा सके। ऐसा नहीं था कि वहां सिर्फ श्रीनगर के प्रतिभागी ही आए थे। भद्रवाह से लेकर सोनमर्ग और गुलमर्ग के भी युवा भी वहां मिले। युवाओं के अलावा नागरिक संगठन के लोग भी इस आयोजन में दिखे। नागरिकों के समर्थन के बगैर इस तरह का और इतना बड़ा आयोजन संभव भी नहीं है। इस तरह के आयोजन का एक और लाभ है कि वो लोगों को मिलने जुलने और खुलकर बोलने बतियाने के अलावा अपने आयडिया साझा करने का अवसर भी प्रदान करता है। जब एक दूसरे के साथ विचारों का आदान प्रदान होता है तो बेहतर भविष्य का रास्ता निकलता है। लोग एक दूसरे से विचारों के माध्यम से जुड़ते हैं और विभाजन की लकीर धुंधली पड़ने लगती है।

नौ दिनों के इस आयोजन को एक इवेंट मानकर समाप्त नहीं करना चाहिए। भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय को इसकी निरंतरता के बारे में विचार करना चाहिए। राष्ट्रीय पुस्तक न्यास की स्थापना 1957 में हुई थी। इसकी स्थापना के समय ये अपेक्षा की गई थी कि ये संस्था देश में पुस्तक संस्कृति को बढ़ावा देगी। पुस्तकों के प्रकाशन का कार्य राष्ट्रीय पुस्तक न्यास लंबे समय से कर रही है। पिछले कुछ वर्षों में गंभीर आयोजनों के माध्यम से पाठकों को पुस्तक तक पहुंचाने का उपक्रम किया जा रहा है जिसको रेखांकित किया जाना चाहिए। चिनार पुस्तक महोत्सव का आकलन वहां बिकी पुस्तकों की संख्या या बिक्री से हुई आय या आयोजन पर हुए व्यय से नहीं किया जा सकता है। इसके दीर्घकालीन प्रभाव के बारे में विचार करना चाहिए। भारत सरकार वर्षों से कश्मीर की बेहतरी के लिए और सुरक्षा इंतजामों पर करोड़ों रुपए खर्च करती रही है। कला संस्कृति पर खर्च करना भी उतना ही आवश्यक है क्योंकि ये एक ऐसा माध्यम है जो बिना किसी दावे के, बिना किसी शोर शराबे के लोगों को जोड़ती है। अब चुनाव की घोषणा हो गई है। नेताओं का कश्मीर आना जाना आरंभ हो गया है। दलों के बीच गठबंधन भी होने लगे हैं। जैसे जैसे चुनाव की तिथि नजदीक आएगी तो बयानवीर नेता अपने बयानों से वहां का माहौल खराब करेंगे। आवश्यकता इस बात की है कि कश्मीर के तीन हजार वर्ष के इतिहास को संजोकर रखा जाए और उस परंपरा को बढ़ाने की दिशा में कार्य हो।  

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