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Thursday, November 6, 2014

संघ का यूपी-बिहार प्लान

वीर सावरकर ने एक बार खफा होकर लिखा था कि संघ के स्वयंसेवकों की समाधि पर लगे पत्थर पर लिखा होगा ये पैदा हुआ, इसने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ज्वाइन किया और इसकी मृत्यु हो गई । दरअसल वीर सावरकर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से इस बात को लेकर खफा थे कि संघ उनकी राजनीतिक गतिविधियों में मदद नहीं कर रहा था । हलांकि काफी वर्षों बाद सावरकर ने ये माना था कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का राजनीति में नहीं जाने का फैसला अच्छा और सही था । इसी तरह से इकतीस जनवरी 1934 को कांग्रेस के खजांची और मशहूर उद्योगपति जमनालाल बजाज जब गणपत राव की मार्फत डॉ हेडगवार से मिले और उनसे कांग्रेस की छतरी तले काम करने का अनुरोध किया । डॉ हेडगवार ने जमनालाल जी के प्रस्ताव पर कहा कि वो ऐसे स्वयंसेवक तैयार करना नहीं चाहते जो नेताओं की राजनीति के लिए इस्तेमाल हों । वक्त के साथ हालात बदले और संघ की सोच भी बदलती चली गई । संघ और राजनीति का साथ तो 1951 में भारतीय जनसंघ की स्थापना के साथ ही शुरू हो गया था लेकिन पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान तमाम तरह की हिचक भी खत्म हो गई । पहले संघ के लोग कहते थे कि संघ का राजनीति से कोई लेना देना नहीं है लेकिन अब इस तरह के बयान सुनने में नहीं आ रहे ।  संघ अब भी मूलत: एक सांस्कृतिक संगठन है जो देश के नागरिकों के चरित्र निर्माण के माध्यम से राष्ट्र निर्माण के लिए प्रतिबद्ध है लेकिन अब वो अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सत्ता और शासन का इस्तेमाल भी करने में परहेज नहीं करता है । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को करीब से जानने वाले या संगठन के क्रियाकलापों पर नजर रखनेवाले यह जानते हैं कि संघ प्रमुख नागपुर के अलावा किसी एक स्थान पर ज्यादा वक्त तक नहीं रुकते हैं । पिछले दिनों लखनऊ में संघ प्रमुख मोहन भागवत ने हफ्ते भर से अधिक वक्त बिताया । क्यों । यह जानना दिलचस्प है । सतह पर जो जानकारी तैर रही थी वो यह थी कि लखनऊ में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की बैठक थी लिहाजा संघ प्रमुख वहां थे । यह देखा गया है कि इस तरह की बैठकों के दौरान संघ प्रमुख इतने लंबे वक्त तक उस स्थान पर टिकते नहीं है । लखनऊ में संघ प्रमुख का टिकना वृहत्तर संघ परिवार के मिशन यूपी और अविभाजित बिहार का हिस्सा था । यूपी में लोकसभा चुनाव में बंपर सफलता के बाद संघ और बीजेपी का अगला लक्ष्य सूबे में सरकार बनाना है । यूपी में करीब ढाई साल बाद चुनाव होना है । उस चुनाव की रणनीति बननी शुरू हो गई है । इसके अलावा अगले साल बिहार में और अगले महीने झारखंड में भी चुनाव है । इन राज्यों में संघ के कार्यकर्ता पिछले कई सालों से सक्रिय हैं लेकिन पिछले एक दशक में इस सक्रियता में कमी देखने को मिली । नब्बे के दशक में जब से बिहार और उत्तर प्रदेश में सामाजिक न्याय के आंदोलन को मजबूती मिलनी शुरू हुई तो संघ की शाखाओं में स्वयंसेवकों की संख्या में कमी आने लगी ।
अब लोकसभा चुनाव में बीजेपी को मिली सफलता से संघ नेतृत्व भी खासा उत्साहित है । इस लोकसभा चुनाव में मतदाताओं ने जात-पात से उपर उठकर वोट दिया। सामाजिक न्याय और दलितों की राजनीति करनेवाली पार्टियां बुरी तरह से परास्त हुई । इन पार्टियों की इसी पराजय में संघ को संभावना नजर आ रही है । इसी संभावना को हकीकत में बदलने के लिए संघ पूरी तौर पर सक्रिय है । इसी कड़ी में यूपी से ताल्लुक रखनेवाले कृष्ण गोपाल को संघ और बीजेपी के बीचत के समन्वय का काम सौंपा गया है । संघ ने 2012 में ही ये भांप लिया था कि बगैर उत्तर प्रदेश और बिहार पर कब्जा किए देश की राजनीति पर पकड़ मजबूत नहीं की जा सकती है । जनवरी 2012 में संगम पर मोहन भागवत ने संघ के दरवाजे सबके लिए खुले होने की बात कहकर सभी जातियों को संकेत दिया था । उसी साल मोहन भागवत ने लखनऊ के प्रबुद्ध वर्ग के लोगों के साथ मुलाकात कर उनकी राय ली थी । जानकारों का कहना है कि दो हजार बारह से संघ ने जो मिशन यूपी शुरू किया था उसका लाभ 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान देखने को मिला । अब एक बार फिर से संघ ने मिशन यूपी पार्ट टू शुरू किया है लेकिन इस बार यूपी के साथ साथ उसके एजेंडे पर बिहार और झारखंड भी है । लखनऊ में केंद्रीय कार्यकारिणी मंडल की बैठक में संघ ने आतंकवाद, धर्मांतरण और सुरक्षा जैसे मुद्दों की बजाए स्वच्छता, पर्यावरण और कम्युनिटी लीविंग जैसे विषयों को अपने एजेंडे में शामिल किया । ये ऐसे मुद्दे हैं जो सीधे सीधे जनता से जुड़ते हैं । इतिहास गवाह है कि इन मुद्दों को उठानेवाले नेताओं और संगठनों को व्यापक जनस्वीकार्यता मिली है। संघ ने इसी जनस्वीकार्यता को बढ़ाने के लिए दलितों और पिछडो़ं के बीच समरसता बढ़ाने पर भी जोर दिया । मोहन भागवत ने साफ कहा कि जब तक समाज साथ में खड़ा नहीं होगा, नेता, नारा, पार्टी, सरकार और चमत्कार से समाज का भला नहीं हो सकता । इसी वाक्य के मद्देनजर संगठन के विस्तार को मजबूती देने और विवादास्पद मुद्दे को ठंडे बस्ते में रखने का निर्णय लिया । यह अकारण नहीं कि राम मंदिर के मुद्दे को राष्ट्र का मुद्दा बताकर हल्का कर दिया गया और यह तय किया गया कि केंद्र की सरकार के लिए फिलहाल मुसीबत नहीं खड़ा करना है । मिशन यूपी और बिहार की सफलता के लिए एक बार संघ की सक्रियता बीजेपी को सांगठवनिक तौर पर मजबूती दे सकती है । परिणाम तो जनादेश से पता चलेगा ।  

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