साहित्य अकादमी के इतिहास में
पहली बार हिंदी भाषा से अध्यक्ष बने विश्वनाथ प्रसाद तिवारी को इस बात का दुख है कि
हिंदी में पाठकों की संख्या बेहद कम है, जबकि अन्य भाषाओं में पाठक बड़ी तादाद में
मौजूद हैं । उन्हें इस बात का भी मलाल है कि हिंदी प्रदेशों में बंगाल, महाराष्ट्र
और केरल जैसा साहित्यक माहौल नहीं बन पाया । साहित्य अकादनमी का अध्यक्ष अगर इस तरह
के बयान देता है तो उसके हल्के में नहीं लिया जा सकता है क्योंकि अकादमी के अध्यक्ष
की साहित्य जगत में एक अहमियत और उनके बयान का वजन होता है । इस वजह से विश्वनाथ प्रसाद
तिवारी के पाठकों की कमी के विलाप पर विचार होना चाहिए और इसकी पड़ताल भी होनी चाहिए
। क्या सचमुच हिंदी में पाठकों की कमी है । यह सवाल हिंदी में कई दशकों से बार-बार
उठता रहा है और इसके पक्ष-विपक्ष में तर्क भी दिए जाते रहे हैं । दरअसल अगर हम गंभीरता
से विचार करें तो यह लगता है कि हिंदी के पाठकों की कमी पर साहित्य अकादमी के अध्यक्ष
का बयान सामान्यीकरण के दोष का शिकार हो गया है । अकादमी अध्यक्ष ने इस बात को नजरअंदाज
कर दिया कि साल दर साल आने वाले रीडरशिप सर्वे चीख चीख कर इस बात की गवाही दे रहे हैं
कि हिंदी के पाठकों की संख्या लगातार बढ़ रही है । हर साल हिंदी अखबारों के नए-नए संस्करण
खुल रहे हैं और उनका विस्तार हिंदी क्षेत्रों के अलावा गैर हिंदी क्षेत्रों में भी
हो रहा है । इंडियन रीडरशिप सर्वे की पहली तिमाही के नतीजों के मुताबिक अखबारों की
पाठक संख्या में एकाध अपवाद को छोड़कर बढ़ोतरी दर्ज की गई है । ना सिर्फ हिंदी अखबारों
बल्कि पत्रिकाओं के पाठक संख्या में भी इजाफा हो रहा है । हो सकता है साहित्य अकादमी
के अध्यक्ष जब पाठकों की कमी की बात कर रहे हों तो उनके अवचेतन मन में साहित्य के पाठकों
की बात रही हो । अगर ऐसा है तो उनकी यह आशंका बिल्कुल ठीक है कि हिंदी में साहित्य
के पाठक कम हुए हैं । यह बात हिंदी के तमाम प्रकाशक भी मानते हैं कि कविता-कहानी-उपन्यास
के पाठक कम हुए हैं । आलोचना के पाठक तो पहले ही कम थे । साहित्येत्तर विषयों की किताबें
धड़ाधड़ बिक रही है । हिंदी के कई शीर्ष प्रकाशकों ने तो साहित्य छापना ही कम कर दिया
है । साहित्य अकादमी के अध्यक्ष होने के नाते विश्वनाथ तिवारी की यह जिम्मेदारी बनती
है कि वो हिंदी साहित्य के नए पाठक वर्ग के निर्माण में अकादमी के मंच का इस्तेमाल
करते हुए महत्वपू्र्ण भूमिका निभाएं ।
पाठकों तक पहुंचने का काम साहित्य अकादमी कर भी रही है । लेकिन अभी तक इस तरह के जो भी काम हो रहे हैं वो सिर्फ रस्म अदायगी के तौर पर हो रहे हैं । अकादमी लेखकों से मिलिए जैसे जो भी कार्यक्रम करती है वो लेखकों से मिलिए कम अकादमी के कर्मचारियों का गेट-टुगेदर ज्यादा होता है । दिल्ली के रवीन्द्र भवन में आयोजित इस तरह के कार्यक्रमों में वही वही चेहरे नजर आते हैं जो कभी भी आपको साहित्य अकादमी में दिख जा सकते हैं । साहित्य अकदामी का जब गठन हुआ था तो उसका उद्देश्य था कि सभी भारतीय भाषाओं के साहित्य की समृद्ध परंपरा और विरासत का एक साझा मंच बने जहां साहित्य पर गंभीर विचार-विनिमय और विमर्श हो सके । साहित्य अकादमी के गठन के पीछे यह एक भावना यह भी थी कि अकादमी सेमिनार, सिंपोजिया, कांफ्रेंस और अन्य माध्यमों से एक दूसरे भाषा के बीच संवाद स्थापित करेगी । यह सारी चीजें साहित्य अकादमी कर रही है लेकिन करने के तरीके में घनघोर मनमानी और अपनों को उपकृत करने का काम हो रहा है । अपने गठन के दशकों बाद साहित्य अकादमी अपने इस उद्देश्य से भटकती नजर आ रही है । सत्तर के शुरुआती दशक से ही अकादमी मठाधीशों के कब्जे में चली गई और वहां इस तरह की आपसी समझ बनी कि हर भाषा के संयोजक अपनी अपनी भाषा की रियासत के राजा बन बैठे । साझा मंच की बजाए यह स्वार्थ सिद्धि का मंच बनता चला गया । अब से कुछ सालों पहले तक अकादमी पर वामपंथी विचारधारा का कब्जा था और यह बात जगजाहिर है कि वामपंथियों ने किस तरह अपनी विचारधारा वाले लेखकों को आगे बढ़ाया और विरोधियों को निबटाया । वामपंथी विचारधारा के लेखकों के कमजोर होने के बाद एक खास किस्म के अवसारवादी लेखकों का कब्जा अकादमी पर हो गया जो प्रतिभाशाली लेखकों से आक्रांत रहते थे, लिहाजा उन्होंने एक ऐसी व्यूह रचना रची कि प्रतिभाशाली लेखक अकादमी के अंदर नहीं आ पाएं । आमसभा से लेकर हर जगह प्रतिभा को रोकने का षडयंत्र शुरू हो गया । रचनात्क लेखकों के बजाए विश्वविद्यालयों के बुजुर्गों का क्लब बनते चला गया । उदाहरण के तौर पर हिंदी के वरिष्ठ लेखक उपन्यासकार रवीन्द्र कालिया को लेकर साहित्य अकादमी ने अबतक कोई कार्यक्रम आयोजित नहीं किया जबकि कालिया सालों से दिल्ली में रह रहे हैं । जबकि हिंदी के कई प्रतिभाहीन लेखकों को साहित्य अकादमी ने मंच मुहैया करवाया । सवाल यह उठता है कि जबतक पाठकों के सामने किसी भी भाषा का सर्वश्रेष्ठ लेखक और उसका लेखन नहीं आएगा तबतक हमें पाठकों की कमी का रोना रोते रहना पड़ेगा । कमलेश्वर जी को भी अकादमी पुरस्कार तबतक नहीं मिल पाया जबतक कि डील नहीं हो गई । राजेन्द्र यादव को तो अबतक नहीं मिल पाया है । अकादमी की इस मठाधीशी का फायदा अफसरों ने भी उठाया और वो लेखकों पर हावी होते चले गए । अकादमी के पूर्व सचिव पर जांच भी चल रही थी इस बीच वो रिटायर हो गए । जांच के नतीजे का पता नहीं ।
पाठकों तक पहुंचने का काम साहित्य अकादमी कर भी रही है । लेकिन अभी तक इस तरह के जो भी काम हो रहे हैं वो सिर्फ रस्म अदायगी के तौर पर हो रहे हैं । अकादमी लेखकों से मिलिए जैसे जो भी कार्यक्रम करती है वो लेखकों से मिलिए कम अकादमी के कर्मचारियों का गेट-टुगेदर ज्यादा होता है । दिल्ली के रवीन्द्र भवन में आयोजित इस तरह के कार्यक्रमों में वही वही चेहरे नजर आते हैं जो कभी भी आपको साहित्य अकादमी में दिख जा सकते हैं । साहित्य अकदामी का जब गठन हुआ था तो उसका उद्देश्य था कि सभी भारतीय भाषाओं के साहित्य की समृद्ध परंपरा और विरासत का एक साझा मंच बने जहां साहित्य पर गंभीर विचार-विनिमय और विमर्श हो सके । साहित्य अकादमी के गठन के पीछे यह एक भावना यह भी थी कि अकादमी सेमिनार, सिंपोजिया, कांफ्रेंस और अन्य माध्यमों से एक दूसरे भाषा के बीच संवाद स्थापित करेगी । यह सारी चीजें साहित्य अकादमी कर रही है लेकिन करने के तरीके में घनघोर मनमानी और अपनों को उपकृत करने का काम हो रहा है । अपने गठन के दशकों बाद साहित्य अकादमी अपने इस उद्देश्य से भटकती नजर आ रही है । सत्तर के शुरुआती दशक से ही अकादमी मठाधीशों के कब्जे में चली गई और वहां इस तरह की आपसी समझ बनी कि हर भाषा के संयोजक अपनी अपनी भाषा की रियासत के राजा बन बैठे । साझा मंच की बजाए यह स्वार्थ सिद्धि का मंच बनता चला गया । अब से कुछ सालों पहले तक अकादमी पर वामपंथी विचारधारा का कब्जा था और यह बात जगजाहिर है कि वामपंथियों ने किस तरह अपनी विचारधारा वाले लेखकों को आगे बढ़ाया और विरोधियों को निबटाया । वामपंथी विचारधारा के लेखकों के कमजोर होने के बाद एक खास किस्म के अवसारवादी लेखकों का कब्जा अकादमी पर हो गया जो प्रतिभाशाली लेखकों से आक्रांत रहते थे, लिहाजा उन्होंने एक ऐसी व्यूह रचना रची कि प्रतिभाशाली लेखक अकादमी के अंदर नहीं आ पाएं । आमसभा से लेकर हर जगह प्रतिभा को रोकने का षडयंत्र शुरू हो गया । रचनात्क लेखकों के बजाए विश्वविद्यालयों के बुजुर्गों का क्लब बनते चला गया । उदाहरण के तौर पर हिंदी के वरिष्ठ लेखक उपन्यासकार रवीन्द्र कालिया को लेकर साहित्य अकादमी ने अबतक कोई कार्यक्रम आयोजित नहीं किया जबकि कालिया सालों से दिल्ली में रह रहे हैं । जबकि हिंदी के कई प्रतिभाहीन लेखकों को साहित्य अकादमी ने मंच मुहैया करवाया । सवाल यह उठता है कि जबतक पाठकों के सामने किसी भी भाषा का सर्वश्रेष्ठ लेखक और उसका लेखन नहीं आएगा तबतक हमें पाठकों की कमी का रोना रोते रहना पड़ेगा । कमलेश्वर जी को भी अकादमी पुरस्कार तबतक नहीं मिल पाया जबतक कि डील नहीं हो गई । राजेन्द्र यादव को तो अबतक नहीं मिल पाया है । अकादमी की इस मठाधीशी का फायदा अफसरों ने भी उठाया और वो लेखकों पर हावी होते चले गए । अकादमी के पूर्व सचिव पर जांच भी चल रही थी इस बीच वो रिटायर हो गए । जांच के नतीजे का पता नहीं ।
इसके अलावा हिंदी में एक और समस्या है जिसकी वजह से पाठकों
की संख्या का आकलन होना मुमकिन नहीं है । वह है हिंदी में किताबों की बिक्री का सही
आंकड़ा सामने नहीं आ पाना । कई बार यह सवाल उठा है कि हिंदी के प्रकाशक लेखकों को उनकी
किताबों की बिक्री का सही आंकड़ा नहीं बताते हैं । प्रकाशकों का दावा यह होता है कि
किताबें बिकती ही नहीं है । साहित्य अकादमी के पचास साल पूरे होने के मौके पर उस वक्त
के अकादमी अध्यक्ष गोपीचंद नारंग ने अकादमी की स्वयत्ता को लेकर जवाहरलाल नेहरू का
एक वक्तव्य उद्धृत किया था । लेकिन अकादमी जवाहरलाल नेहरू के 13 मार्च 1954 के उस पत्र
को भूल गई जिसमें उन्होंने हिंदी प्रकाशन की दशा और दिशा की ओर इशारा किया था । सूर्यकांत
त्रिपाठी निराला की बदहाली के मद्देनजर उनके लिए मासिक धन की योजना बनाने के बावत नेहरू
जी ने साहित्य अकादमी के तत्कालीन सचिन कृष्ण कृपलानी को एक पत्र लिखा था । उस पत्र
में उन्होंने लिखा कि निराला की किताबें जमकर बिक रही हैं और प्रकाशक मालामाल हो रहे
हैं लेकिन निराला को कुछ भी नहीं मिल पा रहा है और वो लगभग भुखमरी की कगार पर हैं ।
अपने उस पत्र में नेहरू जी ने कृपलानी से कॉपीराइट एक्ट को दुरुस्त करवाने के लिए कोशिश
करने का भी आग्रह किया था । लेकिन अकादमी ने नेहरू जी के उस पत्र से कोई सीख नहीं ली
। अबतक अकादमी ने इस दिशा में कोई पहल या काम किया हो वो ज्ञात नहीं है । हिंदी में
अबतक लेखकों प्रकाशकों के बीच का अनुबंध पत्र का भी मानकीकरण नहीं हो पाया है । किताबों
की बिक्री के आंकड़ों के लिए कोई मैकेनिज्म बनाने का भी प्रयास नहीं हो पाया है । जब
साहित्यक किताबों की बिक्री जानने की कोई व्यवस्था ही नहीं बन पाई है तो पाठकों की
संख्या का पता कैसे चल पाएगा । इस बार के साहित्य अकादमी की आम सभा में हिंदी प्रकाशन
जगत का एक नुमाइंदा भी चुना गया है । अकादमी का अध्यक्ष भी हिंदी का ही है । अपेक्षा
इस बात की है कि बजाए पाठकों की कमी का स्यापा करने के इस दिशा में ठोस कदम उठाए जाएं
। साहित्य अकादमी के कार्यक्रमों को भाषा के संयोजकों के चंगुल के मुक्त करना होगा
और कार्यक्रमों के आयोजन में पूर्वग्रहों से उपर उठकर लेखकों और साहित्यप्रेमियों की
भागीदारी बढ़ानी होगी । अगर ऐसा हो पाता है तो साहित्य के पाठकों का एक नया वर्ग संस्कारित
होगा और अखबारों के पाठकों की तरह साहित्य के पाठकों में भी इजाफा होगा । यह सब कर
पाना तिवारी जी के लिए बड़ी चुनौती है । अगर वो इन दोनों काम को कर पाने में सफल हो
जाते हैं तो हिंदी साहित्य के इतिहास में उनका नाम स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाएगा वर्ना
अन्य अकादमी अध्यक्षों की तरह वो भी इतिहास के बियावन में गुम हो जाएंगे ओर हिंदी साहित्य
में पाठकों की कमी का स्यापा होते रहेगा ।
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