पहले नरेन्द्र मोदी ने प्रधानमंत्री की मौजूदगी में ये बयान
दिया कि सरदार पटेल भारत के प्रधानमंत्री होते को देश की तस्वीर कुछ अलग होती । अब
लालकृष्ण आडवाणी ने एक किताब के हवाले से अपने ब्लॉग में लिखा है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री
जवाहरलाल नेहरू ने सरदार पटेल को सांप्रदायिक कहा था । आडवाणी ने एक किताब के हवाले
से लिखा है – ‘हैदराबाद का निजाम पाकिस्तान में शामिल होना चाहता था । इस बाबत उसने अपने एक प्रतिनिधि
को पाकिस्तान भी भेजा था, साथ में काफी धन भी । पटेल ने इन बातों का जिक्र कैबिनेट
की बैठक में किया और मंत्रिमंडल के सामने सुझाव रखा कि हैदराबाद के शासन को भारत के
अधीन करने के लिए वहां सेना भेजी जानी चाहिए । पटेल के इस प्रस्ताव पर नेहरू ने उनसे
कहा कि आप पूरी तरह से सांप्रदायिक हैं और मैं आपकी सिफारिश कभी नहीं मानूंगा ।‘ दरअसल हम अगर मोदी के बयान और आडवाणी के ब्लॉग को
देखें तो एक महीन रेखा उभर कर सामने आती है । वो रेखा यह है कि नेहरू के बरक्श पटेल
को खड़ा करने की कोशिश । सरदार पटेल आजाद भारत के सबसे बड़े नेताओं में से एक थे ।
भारत को एक करने में उन्होंने अहम भूमिका निभाई । लेकिन नेहरू को नीचा दिखाकर पटेल
को ऊंचा दिखाने की जो राजनीति चल रही है दरअसल वो तथ्यों से परे है । इतिहास को तोड़-मरोड़
कर पेश करने की कोशिश है । अब अगर हम बिना संदर्भ जाने किसी भी पत्र के कुछ चुनिंदा
हिस्सों को पेश कर उसके आधार पर राय बनाते हैं तो हम तार्किक दोष के शिकार हो जाते
हैं । आडवाणी भी उसी फैलेसी के शिकार हो गए लगते हैं । आडवाणी जिस किताब के प्रसंग
का हवाला दे रहे हैं उसमें ये प्रसंग 1949 का है । उसी साल नेहरू पर एक किताब में पटेल
ने उनको देश की जनता के आदर्श, जननेता और जननायक जैसे विशेषणों से नवाजा था । पटेल
ने लिखा कि उनसे बेहतर नेहरू को कोई समझ नहीं सकता । उनके मुताबिक वो ही जानते हैं
कि आजादी के बाद के दो सालों में नेहरू ने देश को कठिन परिस्थितियों से ऊबारने के लिए
कितनी मेहनत की और .ह नेहरू की दूरदर्शिता का ही परिणाम था कि भारत हर क्षेत्र में
एक देश के तौर पर अपनी पहचान बनाने लगा था । पटेल के मुताबिक इन दबाबों का असर नेहरू
की उम्र पर दिखाई देने लगा है । पटेल ने लिखा कि उम्र में बड़े होने की वजह से वो हमेशा
नेहरू को अहम मसलों पर राय देते हैं । कई बार उनकी राय से वो असहमत भी होते हैं लेकिन
ध्यानपूर्वक सुनते हैं और अपने तर्कों से सामनेवाले को राजी करने की कोशिश करते हैं
। मतलब यह है कि पटेल यह कहना चाहते हैं कि नेहरू बेहद लोकतांत्रिक थे और विचारों में
मतभेद को डिस्कोर्स में जगह देते थे । अगर हम उस वक्त के नेहरू के मंत्रिमंडल को देखें
तो पता चल जाएगा कि किस तरह से नेहरू ने अपने मंत्रिमंडल में सभी विचारों को प्रतिनिधित्व
दिया था ।
पटेल और नेहरू में तमाम मुद्दों पर मतभेद थे, कई मसले पर
दोनों की राह एकदम जुदा थी । लेकिन दोनों इस बात से इत्तफाक रखते थे कि उनकी जोड़ी
इस देश के बेहतर भविष्य के लिए आवश्यक है ।
गांधी जी की हत्या के बाद पटेल बेहद क्षुब्ध थे और उनके मन के कोने अंतरे में यह बात
घर करने लगी थी कि देश के गृहमंत्री होने के नाते गांधी को नहीं बचा पाने की जिम्मेदारी
उनकी भी बनती है । इस मनस्थिति में पटेल गृहमंत्री का पद छोड़ने के बारे में विचार
भी करने लगे थे । पटेल की मनोदशा को भांपते हुए जवाहरलाल नेहरू ने गांधी जी की हत्या
के चार दिन बाद चार फरवरी 1948 को उनको पत्र लिखा । पत्र में नेहरू ने लिखा कि -पिछले
25 सालों के दौरान हम दोनों ने कई झंझावातों को साथ झेला है । उन मुश्किल भरे दौर में
आपकी सूझबूझ ने मेरे मन में आपकी इज्जत बढ़ाई है और कोई भी और कुछ भी इसको कम नहीं
करा सकता । गांधी जी की मौत के बाद हमें एक दूसरे के प्रति प्रतिबद्धता और आपसी विश्वास
को उसी स्तर पर मजबूत बनाए रखना होगा । मेरा अब भी आपमें गहरा विश्वास है । नेहरू के
उत्तर में पटेल ने जो लिखा वो सारी शंकाओं को दूर करने के लिए काफी है । पटेल ने लिखा-
हम दोनों लंबे समय से साथी हैं । हमारे बीच तमाम मतभेदों के बावजूद देशहित सर्वोपरि
रहा है । बापू की इच्छा भी हम दोनों के लिए मायने रखती है लिहाजा इन बातों के आलोक
में मैं अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करूंगा । दोनों के बीच के इस पत्र व्यवहार के
बाद इनके संबंधों की कोई भी व्याख्या बेमानी होगी ।
दरअसल अगर हम पूरे मसले को समग्रता में देखें तो कांग्रेस की अपने नायकों की उपेक्षा
ने बीजेपी को उन्हें भुनाने का अवसर दे दिया है । नेहरू-गांधी परिवार के महिमामंडन
में कांग्रेस ने अपने नायकों को दरकिनार कर दिया चाहे वो सरदार पटेल हों, डॉ राजेन्द्र
प्रसाद हों या फिर मौलाना आजाद या रफी अहमद किदवई ही क्यों ना हों । यह इसी देश में
संभव है कि संविधान सभा के अध्यक्ष और भारत के दो बार राष्ट्रपति रह चुके डॉ राजेन्द्र
प्रसाद को संसद भवन परिसर में उचित स्थान ना मिले । आजादी मिलने के बाद ज्यादातर वक्त
तक देश पर कांग्रेस का शासन रहा लेकिन इस दौरान कांग्रेस ने पटेल की विरासत को आगे
बढ़ाने का काम तो नहीं ही किया उसको भुलाने का काम जरूर किया । कांग्रेस की इसी अनदेखी
ने पटेल और नेहरू के बीच मतभेदों की खबरों को एक खास वर्ग के लोगों ने इस तरह से प्रचारित
कर दिया कि देश की तमाम ऐतिहासिक समस्याओं के लिए नेहरू जिम्मेदार हैं । जैसे कि कश्मीर
और भारत बंटवारे के मुद्दे पर । यह धारणा बना दी गई कि अगर पटेल होते तो कश्मीर समस्या
इस तरह से देश के सामने नहीं होती । जबकि सचाई यह है कि कश्मीर को पटेल देश के लिए
सरदर्द मानते थे और उससे छुटकारा पाना चाहते थे । उसी तरह यह भी भ्रम भी फैलाया गया
कि भारत पाकिस्तान विभाजन के लिए नेहरू-गांधी जिम्मेदार हैं । पटेल होते तो विभाजन
नहीं होता । जबकि तथ्य इससे उलट है । तथ्य
यह है कि पटेल तो विभाजन के लिए नेहरू और मौलाना आजाद से पहले तैयार हो गए थे और उन्होंने
ही नेहरू और कांग्रेस कार्यसमिति के अन्यसदस्यों को इसके लिए राजी किया । बाद में पटेल और नेहरू के दबाव में गांधी जी भी
विभाजन के लिए तैयार हुए । हलांकि यह भी तथ्य है कि मुस्लिम लीग के व्यवहार से निराश
होने के बाद ही पटेल ने विभाजन के लिए हामी भरी थी । खान अब्दुल गफ्फार खान ने कहा
भी था कि अगर अगर पटेल ने थोड़ा सा और दबाव डाला होता तो पाकिस्तान बनता ही नहीं ।
लेकिन इन बातों के आधार पर पटेल को विभाजन के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है
। निर्णयों को हमेशा काल और परिस्थियों की कसौटी पर कसा जाना चाहिए । होता यह है कि
हम निर्णयों को उस वक्त के हालात के आलोक में नहीं देखते हैं बल्कि वर्तमान परिस्थितियों
में उसका विश्लेषण करने लग जाते हैं । इस वजह से इतिहास की सूरत बिगड़ने लग जाती ।
कुछ लोग या संस्था सायास ऐसा करते हैं और कुछ अज्ञानतावश ऐसा करते हैं । दोनों ही परिस्थियां
खतरनाक हैं । इतिहास और ऐतिहासिक तथ्यों का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में ही मूल्यांकन
होना चाहिए । राजनीति लाभ लोभ के लिए इतिहास के साथ खिलवाड़ दरअसल देश के महापुरुषों
का अपमान भी है, इतिहास तो छल है ही ।
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