अभी कुछ दिनों पहले हिंदी की एक वरिष्ठ उपन्यास लेखिका से बात हो रही थी। बातों-बातों में उन्होंने बताया कि सन् 1999 में प्रकाशित उनके उपन्यास के अबतक पांच संस्करण हो चुके हैं। ये बताते हुए उनके चहरा गर्व से चमकने लगा। चेहरे की इस चमक के पीछे अहंकार की हल्की छाया भी थी। ये हाल सिर्फ उनका ही नहीं बल्कि हिंदी के लगभग तमाम वैसे लेखकों का है जिनकी किसी भी कृति के दो या तीन संस्करण हो चुके हैं। लेकिन अगर हम इसके दूसरे पहलू को देखें तो पता चलता है कि इनदिनों हिंदी में किसी भी कृति का एक संस्करण तीन से लेकर पांच सौ प्रतियों तक का होता है।अगर पांच संस्करण भी छप गए तो कुल जमा पच्चीस सौ प्रतियां ही छपी और बिकी। इतने विशाल हिंदी पाठक वर्ग को ध्यान में रखते हुए ये संख्या ऐसी नहीं कि ये किसी भी लेखक या लेखिका के चेहरे पर दर्प या अंहकार का भाव ला सके।
अगर हम अंग्रेजी में छपने वाली कृतियों की बिक्री से हिंदी कृतियों की बिक्री के आंकड़ों की तुलना करें तो ये संख्या नगण्य सी नजर आएगी। पिछले साल जून में अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की पत्नी हिलेरी क्लिंटन की बाजार में आई जीवनी ए वूमन इनचार्ज के पहले संस्करण की साढ़े तीन लाख प्रतियां छापने की घोषणा इसके प्रकाशक ने पहले ही कर दी थी। ये तो अग्रिम छपाई का आंकड़ा था जो कि किताब के बाजार में आने के पहले ही घोषित की जा चुकी थी।
इस जीवनी की बिक्री के आंकड़े पर ये दलील दी जा सकती है कि ये एक सेलिब्रिटी की जीवनी है इसलिए इसकी इतनी ज्यादा प्रतियां छापी गई हैं। अंग्रेजी और फ्रेंच में तो ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं जहां किताबों की बिक्री का आंकड़ा लाखों में होता है। अब आपको एक और अंग्रेजी लेखक की मिसाल देता हूं। दो हजार पांच के जनवरी में अंग्रेजी में प्रकाशित कर्टिस सेटनफिल्ड के उपन्यास प्रेप की लगभग पांच लाख से ज्यादा प्रतियां बिक चुकी हैं। डेढ़ लाख प्रतियां हार्ड बाउंड की और साढ़े तीन लाख से ज्यादा पेपरबैक।
यहां आपको ये भी बता दें कि ये लेखक की पहली कृति है और इसे छपवाने के लिए कर्टिस को खूब पापड़ बेलने पड़े थे। मूलत: इस उपन्यास का शीर्षक था साइफर और लेखक ने इसे दो हजार तीन में लिखकर पूरा कर लिया था । दो बर्षों तक बीसियों प्रकाशकों का दरवाजा खटखटाने के बाद रैंडम हाउस, लंदन इसे छापने को तैयार हुआ और वो भी अपनी शर्तों पर। न केवल उपन्यास का शीर्षक बदल दिया गया बल्कि कुछ अंश संपादित भी कर दिए।
यहां सवाल फिर उठेगा कि हिंदी में पाठक कम हैं। लेकिन हर साल नेशनल रीडरशिप सर्वे ( एनआरएस) में हिंदी के पत्र-पत्रिकाओं की बिक्री के बढ़ते आंकड़े और पाठकों की बढ़ती संख्या इस बात को झुठलाने का पर्याप्त आधार प्रदान करती है कि हिंदी में पाठकों की संख्या कम है या खरीदकर पढ़नेवाले पाठक कम हैं। सवाल पाठकों की कमी का नहीं है। सवाल ये है कि हिंदी में छपी हुई कृतियों के हिसाब-किताब की कोई वैज्ञानिक और प्रमाणिक पद्धति नहीं है। जो आंकड़े प्रकाशक दे दे उसपर ही विश्वास करने के अलावा कोई चारा नहीं है।
जरूरत इस बात की है कि एक ऐसी वैज्ञानिक और प्रमाणिक पद्धति विकसित की जाए जिससे बिक्री के सही आंकड़े का पता चल सके। इस मामले में लेखकों के संगठन एक सार्थक और सक्रिय भूमिका निभा सकते थे लेकिन इन लेखक संगठनों ने साहित्य की टुच्ची राजनीति में पड़कर न केवल अपनी प्रासंगिकता खो दी है बल्कि सार्थकता भी। लेखक संगठनों ने कभी भी लेखकों की बेहतरी की दिशा में कोई पहल नहीं की।
अभी कुछ अर्सा पहले जब स्व. निर्मल वर्मा की पत्नी गगन गिल और हिंदी के सबसे बड़े और प्रतिष्ठित राजकमल प्रकाशन के बीच निर्मल की कृतियों को लेकर विवाद हुआ तो भी लेखक संगठनों ने भी रहस्यमय चुप्पी साध ली थी। हां, इस विवाद के दौरान निर्मल वर्मा जैसे बड़े लेखक की किताबों की बिक्री के आंकड़े जरूर सामने आए, जो चौंकाने वाले थे।
इसके अलावा साहित्य अकादमी और राज्य की अकादमियां भी इस दिशा में पहल कर सकती हैं लेकिन लेखक संगठनों की तरह ही यहां भी बुरा हाल है और ये संस्थान भी साहित्य की राजनीति का अखाड़ा बन गए हैं। सरकार से मिली स्वायत्तता का ये बेजा फायदा उठा रही हैं।
हिंदी के प्रकाशक तो हमेशा से पाठकों की कमी का रोना तो रोते रहते हैं लेकिन हर साल छोटे से छोटा प्रकाशक भी पचास से सौ किताबें छापता है। अगर पाठकों की कमी है तो इतनी किताबें क्यों और किसके लिए छपती हैं। हमारे यहां यानी हिंदी में जो एक सबसे बड़ी दिक्कत है वो ये है कि प्रकाशक पाठकों तक पहुंचने का कोई प्रयास नहीं करते हैं। उनकी रुचि ज्यादातर सरकारी थोक खरीद में होती है और वो उसी दिशा में प्रयास भी करता है।
मैं कई शहरों के अपने अनुभव के आधार पर ये कह सकता हूं कि किताबों की कोई ऐसी दुकान नहीं मिलेगी जहां आपको आपकी मनचाही किताबें मिल जाए। अगर आप दिल्ली का ही उदाहरण लें तो यहां भी किताबों की एक या दो दुकान हैं जहां हिंदी की किताबें मिल सकती हैं। आज देश रिटेल क्रांति के दौर से गुजर रहा है। बड़ी-बड़ी दुकानें खुल रही है जहां एक ही छत के नीचे आपको जरूरत का सारा सामान मिल जाएगा लेकिन वैसी दुकानों में भी किताबों के लिए कोई कोना नहीं है। न ही हिंदी के प्रकाशक इस दिशा में गंभीरता से कोई प्रयास करते दिख रहे हैं।
तीसरी बात जो इस मसले में महत्वपूर्ण है वो ये है कि हिंदी के प्रकाशकों और लेखकों के बीच कृतियों को लेकर कोई एक स्टैंडर्ड अनुबंध पत्र नहीं है। हिंदी के कई ऐसे लेखक हैं जो बिना किसी अनुंबंध के अपनी कृति प्रकाशकों को सौंप देते हैं और बाद में प्रकाशकों को इस बात के लिए दोषी ठहराते हैं कि वो उनकी किताब के बिक्री का सही आंकडा़ उनको नहीं देता है।
इसमें होता ये है कि अगर कुछ बड़े लेखक को छोड़ दिया जाए तो ज्यादातर लेखक प्रकाशकों के सामने हाथ जोड़कर खड़े रहते हैं कि उनकी किताब छाप दे। और प्रकाशक भी इस मुद्रा में होते हैं कि वो किताब छापकर लेखक पर एहसान कर रहे हैं। इसके अलावा हिंदी के प्रकाशक इस बात के लिए दोषी हैं कि वो अपनी किताबों की मार्केटिंग और प्रचार प्रसार के लिए कोई खास प्रयास नहीं करते। न ही किसी प्रकाशक के पास प्रचार-प्रसार के लिए अलग से कोई कर्मचारी रखा जाता है।
इसके विपरीत अगर भारत के ही अंग्रेजी प्रकाशकों पर नजर डालें तो उनकी जो पब्लिसिटी की व्यवस्था है वो एकदम दुरुस्त और आधुनिक। वो किताबों की सूचना ई मेल और एसएसएस के जरिए पाठकों तक नियमित रूप से पहुंचाते हैं।
कुल मिलाकर हिंदी में कृति की बिक्री कम होने या अंग्रेजी की तुलना में नगण्य होने के कई कारण हैं जिसमें से कुछ प्रमुख कारणों की तरफ मैंने इशारा करने की कोशिश की है।
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Monday, October 20, 2008
Monday, October 13, 2008
टीवी के लौंडे-लफाड़े
देशभर के अखबारों में आजकल टेलिविजन चैनलों के स्टिंग ऑपरेशन पर खूब चर्चा हो रही है। सरकारी चैनल दूरदर्शन ने भी मीडिया के सरोकार के बहाने इसपर एक वृहद चर्चा आयोजित की। कमोबेश इस तरह से स्टिंग ऑपरेशन के बहाने खबरिया चैनलों पर लगाम लगाने के सरकार के इरादे को समर्थन मिल रहा है।
सवाल ये भी उठाए जा रहे हैं कि न्यूज चैनलों पर नाग नागिन और भूत प्रेत दिखाए जा रहे हैं। आलोचकों का ये भी कहना है कि न्यूज चैनलों से खबरें गायब हो गई है, बाकी सबकुछ है। इसके अलावा टीआरपी को लेकर भी खूब शोरगुल मचाया जा रहा है। जिन्हें टीआरपी की एबीसी भी पता नहीं है, वो भी न्यूज चैनलों की इस बात के लिए जमकर आलोचना करने में जुटे हैं कि वो टीआरपी बटोरने के लिए किसी भी हद तक जा रहे हैं।
टीआरपी के बारे में आधी अधूरी जानकारी रखनेवाले विद्वान, लेखक और अपने आपको मीडिया के जानकार बतानेवाले टीआरपी के सैंपल साइज पर भी सवाल उठा रहे हैं। कोई कह रहा है कि दो हजार बक्से से ये कैसे तय हो सकता है तो कोई इसकी संख्या पांच हजार बता रहा है। तो कहीं इसकी कार्यप्रणाली पर ही सवाल खड़े किए जा रहे हैं। बात-बात में सीएनएन और बीबीसी के उदाहरण दिए जाते हैं। लेकिन इसपर जो भी चर्चा हो रही है वो बहुत ही सतही और सुनी सुनाई बातों के आधार पर की जा रही है।
टीआरपी और इस व्यवस्था को कोसना आजकल फैशन हो गया है लेकिन न्यूज चैनलों पर लिखनेवाले मित्रों के लेखों को पढ़कर लगता है कि वो बगैर किसी तैयारी के लिख रहे हैं। टीआरपी और इस व्यवस्था की आलोचना करनेवालों को ये पता होना चाहिए कि ये व्यवस्था विश्व की सबसे बड़ी व्यवस्था है। किसी भी और देश में टीआरपी के इतने बक्से नहीं लगे हैं।
पूरे भारत में अभी टीआरपी के सात हजार बक्से लगे हैं और रिसर्च करनेवालों की एक पूरी टीम हफ्तेभर इसपर काम करती है। और अगर टीआरपी को ध्यान में रखकर कंटेंट तय किया जा रहा है तो इसमें बुराई क्या है। क्या अखबार और पत्र-पत्रिकाएं सर्कुलेशन और रीडरशिप को ध्यान में रखकर अपना कंटेंट तय नहीं करते हैं। अगर टीआरपी के सैंपल साइज पर सवाल उटाए जा रहे हैं तो अखबारों के रीडरशिप सर्वे पर कोई सवाल क्यों नहीं उठता। पांच लाख के सर्कुलेशन वाले अखबार की रीडरशिप यानी पाठक संख्या पचास साठ लाख से ज्यादा दिखाई जाती है।
बारह लाख बिकनेवाली चालीस पृष्ठ की पत्रिका की पाठकसंख्या एक करोड़ से ज्यादा बताई जाती है। मतलब ये कि उक्त अखबार और पत्रिका की एक प्रति को लगभग दस लोग लोग पढ़ते हैं। क्या ऐसा संभव है। ये तो सिर्फ किसी बात की तरफ इशारा भर करता है। चलिए मान भी लिया जाए कि ऐसा होता होगा तो फिर सवाल ये उठता है कि नेशनल रीडरशिप सर्वे और इंडियन रीडरशिप सर्वे का सैंपल साइज क्या होता है। क्या इन सर्वे के सैंपल साइज इतना बावेला मचा।
अखबार और पत्र-पत्रिकाओं के विज्ञापन से जुड़े लोग इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि इन रीडरशिप सर्वे के आधार पर पत्र-पत्रिकाएं विज्ञापनदाताओं के पास जाकर कितना शोर मचाते हैं।
दूसरी जो सबसे हल्की बात न्यूज चैनलों के बारे में कही जाती है कि वो नाग नागिन और भूत प्रेत दिखाते रहते हैं। क्या इस तरह का फतवा जारी करने वाले किसी भी व्यक्ति ने सारे न्यूज चैनलों पर चलनेवाले कंटेट का अध्ययन किया है। कतई नहीं। अगर वो गंभीरता से इस पर विचार करते तो इस तरह का स्वीपिंग रिमार्क नहीं आता। एकाध न्यूज चैनल हैं जो इसे दिखाते हैं तो क्या उसके आधार पर सारे न्यूज चैनलों के कंटेट को हल्का करार दिया जा सकता है।
क्या अखबारों में और पत्र-पत्रकिओं में भूत-प्रेत और नाग-नागिन के बारे में खबरें नहीं छपती। दरअसल हर मीडियम, में चाहे वो प्रिंट हो या फिर इलेक्ट्रॉनिक, हर तरह के कंटेंट मिलते हैं कहीं मसाला ज्यादा होता है और कहीं गंभीरता ज्यादा होती है। दरअसल न्यूज चैनलों की आलोचना से पत्रकारिता का वर्ग-संघर्ष सामने आता है। कुछ लोगों के मन में कुंठा घर कर गई है कि वो पंद्रह बीस साल तक कलम घिसने के बाद एक छोटी सी गाड़ी में ही चल पा रहे हैं जबकि न्यूज चैनलों में चार पांच साल काम करके ही लोग लंबी-लंबी गाड़ियों में चलने लगते हैं।
कई अखबारों के स्थानीय संपादक मेरे मित्र हैं जिन्हें मैंने ये कहते सुना है कि ये टीवी वाले लौंडे-लफाड़े ऐश कर रहे हैं और हम साले जीवन भर कलम ही घिसते रह जाएंगें। इसमें तो इन "लौंडे-लफाड़ों" का दोष नहीं है। बल्कि उन्हें तो अवसर मिला और जिस माध्यम में वो काम कर रहे हैं वहां आय हो रही है, तो पैसे मिल रहे हैं। साथ ही ये भी देखना होगा कि अखबारों में काम का दवाब कितना होता है और टीवी में कितना होता है। अखबार तो एक बार निकाल कर आप चौबीस घंटे के लिए निश्चिंत हो गए लेकिन न्यूज चैनलों में तो हर आधे घंटे में आपको एक अखबार निकालना होता है। काम के दवाब के हिसाब से कंपशेसन मिलता है।
और रही बात स्टिंग आपरेशन की तो क्या एक चैनल की गैरजिम्मेदारी के आधार पर ये कहना उचित है कि स्टिंग पर रोक लगा देनी चाहिए। क्या स्टिंग से देश का भला नहीं हुआ है। क्या स्टिंग से देश में सर्वोच्च स्तर पर चलनेवाले भ्रष्टाचार का पर्दाफाश नहीं हुआ। अगर एक व्यापक सामाजिक हित में स्टिंग किया जा रहा हो तो उसपर रोक लगाने की कोई वजह नहीं है। लेकिन ये भी आवश्यक है कि स्टिंग को ऑन एयर डालने से पहले उसके हर पहलू पर गंभीरता से विचार करना चाहिए और ये भी सोचना चाहिए कि इस स्टिंग से समाज का भला हो रहा है या नहीं । व्यक्तिगत दुश्मनी या बदला लेने की नीयत से किया जानेवाला स्टिंग सर्वथा निंदनीय है और कोई भी उसका पक्षधर नहीं है। राजनेता और सरकार तो हमेशा से ये चाहते रहे हैं कि मीडिया पर लगाम लगे ताकि वो स्वच्छंदतापूर्वक मनमाफिक काम कर सके।
सवाल ये भी उठाए जा रहे हैं कि न्यूज चैनलों पर नाग नागिन और भूत प्रेत दिखाए जा रहे हैं। आलोचकों का ये भी कहना है कि न्यूज चैनलों से खबरें गायब हो गई है, बाकी सबकुछ है। इसके अलावा टीआरपी को लेकर भी खूब शोरगुल मचाया जा रहा है। जिन्हें टीआरपी की एबीसी भी पता नहीं है, वो भी न्यूज चैनलों की इस बात के लिए जमकर आलोचना करने में जुटे हैं कि वो टीआरपी बटोरने के लिए किसी भी हद तक जा रहे हैं।
टीआरपी के बारे में आधी अधूरी जानकारी रखनेवाले विद्वान, लेखक और अपने आपको मीडिया के जानकार बतानेवाले टीआरपी के सैंपल साइज पर भी सवाल उठा रहे हैं। कोई कह रहा है कि दो हजार बक्से से ये कैसे तय हो सकता है तो कोई इसकी संख्या पांच हजार बता रहा है। तो कहीं इसकी कार्यप्रणाली पर ही सवाल खड़े किए जा रहे हैं। बात-बात में सीएनएन और बीबीसी के उदाहरण दिए जाते हैं। लेकिन इसपर जो भी चर्चा हो रही है वो बहुत ही सतही और सुनी सुनाई बातों के आधार पर की जा रही है।
टीआरपी और इस व्यवस्था को कोसना आजकल फैशन हो गया है लेकिन न्यूज चैनलों पर लिखनेवाले मित्रों के लेखों को पढ़कर लगता है कि वो बगैर किसी तैयारी के लिख रहे हैं। टीआरपी और इस व्यवस्था की आलोचना करनेवालों को ये पता होना चाहिए कि ये व्यवस्था विश्व की सबसे बड़ी व्यवस्था है। किसी भी और देश में टीआरपी के इतने बक्से नहीं लगे हैं।
पूरे भारत में अभी टीआरपी के सात हजार बक्से लगे हैं और रिसर्च करनेवालों की एक पूरी टीम हफ्तेभर इसपर काम करती है। और अगर टीआरपी को ध्यान में रखकर कंटेंट तय किया जा रहा है तो इसमें बुराई क्या है। क्या अखबार और पत्र-पत्रिकाएं सर्कुलेशन और रीडरशिप को ध्यान में रखकर अपना कंटेंट तय नहीं करते हैं। अगर टीआरपी के सैंपल साइज पर सवाल उटाए जा रहे हैं तो अखबारों के रीडरशिप सर्वे पर कोई सवाल क्यों नहीं उठता। पांच लाख के सर्कुलेशन वाले अखबार की रीडरशिप यानी पाठक संख्या पचास साठ लाख से ज्यादा दिखाई जाती है।
बारह लाख बिकनेवाली चालीस पृष्ठ की पत्रिका की पाठकसंख्या एक करोड़ से ज्यादा बताई जाती है। मतलब ये कि उक्त अखबार और पत्रिका की एक प्रति को लगभग दस लोग लोग पढ़ते हैं। क्या ऐसा संभव है। ये तो सिर्फ किसी बात की तरफ इशारा भर करता है। चलिए मान भी लिया जाए कि ऐसा होता होगा तो फिर सवाल ये उठता है कि नेशनल रीडरशिप सर्वे और इंडियन रीडरशिप सर्वे का सैंपल साइज क्या होता है। क्या इन सर्वे के सैंपल साइज इतना बावेला मचा।
अखबार और पत्र-पत्रिकाओं के विज्ञापन से जुड़े लोग इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि इन रीडरशिप सर्वे के आधार पर पत्र-पत्रिकाएं विज्ञापनदाताओं के पास जाकर कितना शोर मचाते हैं।
दूसरी जो सबसे हल्की बात न्यूज चैनलों के बारे में कही जाती है कि वो नाग नागिन और भूत प्रेत दिखाते रहते हैं। क्या इस तरह का फतवा जारी करने वाले किसी भी व्यक्ति ने सारे न्यूज चैनलों पर चलनेवाले कंटेट का अध्ययन किया है। कतई नहीं। अगर वो गंभीरता से इस पर विचार करते तो इस तरह का स्वीपिंग रिमार्क नहीं आता। एकाध न्यूज चैनल हैं जो इसे दिखाते हैं तो क्या उसके आधार पर सारे न्यूज चैनलों के कंटेट को हल्का करार दिया जा सकता है।
क्या अखबारों में और पत्र-पत्रकिओं में भूत-प्रेत और नाग-नागिन के बारे में खबरें नहीं छपती। दरअसल हर मीडियम, में चाहे वो प्रिंट हो या फिर इलेक्ट्रॉनिक, हर तरह के कंटेंट मिलते हैं कहीं मसाला ज्यादा होता है और कहीं गंभीरता ज्यादा होती है। दरअसल न्यूज चैनलों की आलोचना से पत्रकारिता का वर्ग-संघर्ष सामने आता है। कुछ लोगों के मन में कुंठा घर कर गई है कि वो पंद्रह बीस साल तक कलम घिसने के बाद एक छोटी सी गाड़ी में ही चल पा रहे हैं जबकि न्यूज चैनलों में चार पांच साल काम करके ही लोग लंबी-लंबी गाड़ियों में चलने लगते हैं।
कई अखबारों के स्थानीय संपादक मेरे मित्र हैं जिन्हें मैंने ये कहते सुना है कि ये टीवी वाले लौंडे-लफाड़े ऐश कर रहे हैं और हम साले जीवन भर कलम ही घिसते रह जाएंगें। इसमें तो इन "लौंडे-लफाड़ों" का दोष नहीं है। बल्कि उन्हें तो अवसर मिला और जिस माध्यम में वो काम कर रहे हैं वहां आय हो रही है, तो पैसे मिल रहे हैं। साथ ही ये भी देखना होगा कि अखबारों में काम का दवाब कितना होता है और टीवी में कितना होता है। अखबार तो एक बार निकाल कर आप चौबीस घंटे के लिए निश्चिंत हो गए लेकिन न्यूज चैनलों में तो हर आधे घंटे में आपको एक अखबार निकालना होता है। काम के दवाब के हिसाब से कंपशेसन मिलता है।
और रही बात स्टिंग आपरेशन की तो क्या एक चैनल की गैरजिम्मेदारी के आधार पर ये कहना उचित है कि स्टिंग पर रोक लगा देनी चाहिए। क्या स्टिंग से देश का भला नहीं हुआ है। क्या स्टिंग से देश में सर्वोच्च स्तर पर चलनेवाले भ्रष्टाचार का पर्दाफाश नहीं हुआ। अगर एक व्यापक सामाजिक हित में स्टिंग किया जा रहा हो तो उसपर रोक लगाने की कोई वजह नहीं है। लेकिन ये भी आवश्यक है कि स्टिंग को ऑन एयर डालने से पहले उसके हर पहलू पर गंभीरता से विचार करना चाहिए और ये भी सोचना चाहिए कि इस स्टिंग से समाज का भला हो रहा है या नहीं । व्यक्तिगत दुश्मनी या बदला लेने की नीयत से किया जानेवाला स्टिंग सर्वथा निंदनीय है और कोई भी उसका पक्षधर नहीं है। राजनेता और सरकार तो हमेशा से ये चाहते रहे हैं कि मीडिया पर लगाम लगे ताकि वो स्वच्छंदतापूर्वक मनमाफिक काम कर सके।
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