Translate

Monday, October 20, 2008

झूठा दर्प हिंदी का

अभी कुछ दिनों पहले हिंदी की एक वरिष्ठ उपन्यास लेखिका से बात हो रही थी। बातों-बातों में उन्होंने बताया कि सन् 1999 में प्रकाशित उनके उपन्यास के अबतक पांच संस्करण हो चुके हैं। ये बताते हुए उनके चहरा गर्व से चमकने लगा। चेहरे की इस चमक के पीछे अहंकार की हल्की छाया भी थी। ये हाल सिर्फ उनका ही नहीं बल्कि हिंदी के लगभग तमाम वैसे लेखकों का है जिनकी किसी भी कृति के दो या तीन संस्करण हो चुके हैं। लेकिन अगर हम इसके दूसरे पहलू को देखें तो पता चलता है कि इनदिनों हिंदी में किसी भी कृति का एक संस्करण तीन से लेकर पांच सौ प्रतियों तक का होता है।अगर पांच संस्करण भी छप गए तो कुल जमा पच्चीस सौ प्रतियां ही छपी और बिकी। इतने विशाल हिंदी पाठक वर्ग को ध्यान में रखते हुए ये संख्या ऐसी नहीं कि ये किसी भी लेखक या लेखिका के चेहरे पर दर्प या अंहकार का भाव ला सके।
अगर हम अंग्रेजी में छपने वाली कृतियों की बिक्री से हिंदी कृतियों की बिक्री के आंकड़ों की तुलना करें तो ये संख्या नगण्य सी नजर आएगी। पिछले साल जून में अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की पत्नी हिलेरी क्लिंटन की बाजार में आई जीवनी ए वूमन इनचार्ज के पहले संस्करण की साढ़े तीन लाख प्रतियां छापने की घोषणा इसके प्रकाशक ने पहले ही कर दी थी। ये तो अग्रिम छपाई का आंकड़ा था जो कि किताब के बाजार में आने के पहले ही घोषित की जा चुकी थी।
इस जीवनी की बिक्री के आंकड़े पर ये दलील दी जा सकती है कि ये एक सेलिब्रिटी की जीवनी है इसलिए इसकी इतनी ज्यादा प्रतियां छापी गई हैं। अंग्रेजी और फ्रेंच में तो ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं जहां किताबों की बिक्री का आंकड़ा लाखों में होता है। अब आपको एक और अंग्रेजी लेखक की मिसाल देता हूं। दो हजार पांच के जनवरी में अंग्रेजी में प्रकाशित कर्टिस सेटनफिल्ड के उपन्यास प्रेप की लगभग पांच लाख से ज्यादा प्रतियां बिक चुकी हैं। डेढ़ लाख प्रतियां हार्ड बाउंड की और साढ़े तीन लाख से ज्यादा पेपरबैक।
यहां आपको ये भी बता दें कि ये लेखक की पहली कृति है और इसे छपवाने के लिए कर्टिस को खूब पापड़ बेलने पड़े थे। मूलत: इस उपन्यास का शीर्षक था साइफर और लेखक ने इसे दो हजार तीन में लिखकर पूरा कर लिया था । दो बर्षों तक बीसियों प्रकाशकों का दरवाजा खटखटाने के बाद रैंडम हाउस, लंदन इसे छापने को तैयार हुआ और वो भी अपनी शर्तों पर। न केवल उपन्यास का शीर्षक बदल दिया गया बल्कि कुछ अंश संपादित भी कर दिए।
यहां सवाल फिर उठेगा कि हिंदी में पाठक कम हैं। लेकिन हर साल नेशनल रीडरशिप सर्वे ( एनआरएस) में हिंदी के पत्र-पत्रिकाओं की बिक्री के बढ़ते आंकड़े और पाठकों की बढ़ती संख्या इस बात को झुठलाने का पर्याप्त आधार प्रदान करती है कि हिंदी में पाठकों की संख्या कम है या खरीदकर पढ़नेवाले पाठक कम हैं। सवाल पाठकों की कमी का नहीं है। सवाल ये है कि हिंदी में छपी हुई कृतियों के हिसाब-किताब की कोई वैज्ञानिक और प्रमाणिक पद्धति नहीं है। जो आंकड़े प्रकाशक दे दे उसपर ही विश्वास करने के अलावा कोई चारा नहीं है।
जरूरत इस बात की है कि एक ऐसी वैज्ञानिक और प्रमाणिक पद्धति विकसित की जाए जिससे बिक्री के सही आंकड़े का पता चल सके। इस मामले में लेखकों के संगठन एक सार्थक और सक्रिय भूमिका निभा सकते थे लेकिन इन लेखक संगठनों ने साहित्य की टुच्ची राजनीति में पड़कर न केवल अपनी प्रासंगिकता खो दी है बल्कि सार्थकता भी। लेखक संगठनों ने कभी भी लेखकों की बेहतरी की दिशा में कोई पहल नहीं की।
अभी कुछ अर्सा पहले जब स्व. निर्मल वर्मा की पत्नी गगन गिल और हिंदी के सबसे बड़े और प्रतिष्ठित राजकमल प्रकाशन के बीच निर्मल की कृतियों को लेकर विवाद हुआ तो भी लेखक संगठनों ने भी रहस्यमय चुप्पी साध ली थी। हां, इस विवाद के दौरान निर्मल वर्मा जैसे बड़े लेखक की किताबों की बिक्री के आंकड़े जरूर सामने आए, जो चौंकाने वाले थे।
इसके अलावा साहित्य अकादमी और राज्य की अकादमियां भी इस दिशा में पहल कर सकती हैं लेकिन लेखक संगठनों की तरह ही यहां भी बुरा हाल है और ये संस्थान भी साहित्य की राजनीति का अखाड़ा बन गए हैं। सरकार से मिली स्वायत्तता का ये बेजा फायदा उठा रही हैं।
हिंदी के प्रकाशक तो हमेशा से पाठकों की कमी का रोना तो रोते रहते हैं लेकिन हर साल छोटे से छोटा प्रकाशक भी पचास से सौ किताबें छापता है। अगर पाठकों की कमी है तो इतनी किताबें क्यों और किसके लिए छपती हैं। हमारे यहां यानी हिंदी में जो एक सबसे बड़ी दिक्कत है वो ये है कि प्रकाशक पाठकों तक पहुंचने का कोई प्रयास नहीं करते हैं। उनकी रुचि ज्यादातर सरकारी थोक खरीद में होती है और वो उसी दिशा में प्रयास भी करता है।
मैं कई शहरों के अपने अनुभव के आधार पर ये कह सकता हूं कि किताबों की कोई ऐसी दुकान नहीं मिलेगी जहां आपको आपकी मनचाही किताबें मिल जाए। अगर आप दिल्ली का ही उदाहरण लें तो यहां भी किताबों की एक या दो दुकान हैं जहां हिंदी की किताबें मिल सकती हैं। आज देश रिटेल क्रांति के दौर से गुजर रहा है। बड़ी-बड़ी दुकानें खुल रही है जहां एक ही छत के नीचे आपको जरूरत का सारा सामान मिल जाएगा लेकिन वैसी दुकानों में भी किताबों के लिए कोई कोना नहीं है। न ही हिंदी के प्रकाशक इस दिशा में गंभीरता से कोई प्रयास करते दिख रहे हैं।
तीसरी बात जो इस मसले में महत्वपूर्ण है वो ये है कि हिंदी के प्रकाशकों और लेखकों के बीच कृतियों को लेकर कोई एक स्टैंडर्ड अनुबंध पत्र नहीं है। हिंदी के कई ऐसे लेखक हैं जो बिना किसी अनुंबंध के अपनी कृति प्रकाशकों को सौंप देते हैं और बाद में प्रकाशकों को इस बात के लिए दोषी ठहराते हैं कि वो उनकी किताब के बिक्री का सही आंकडा़ उनको नहीं देता है।
इसमें होता ये है कि अगर कुछ बड़े लेखक को छोड़ दिया जाए तो ज्यादातर लेखक प्रकाशकों के सामने हाथ जोड़कर खड़े रहते हैं कि उनकी किताब छाप दे। और प्रकाशक भी इस मुद्रा में होते हैं कि वो किताब छापकर लेखक पर एहसान कर रहे हैं। इसके अलावा हिंदी के प्रकाशक इस बात के लिए दोषी हैं कि वो अपनी किताबों की मार्केटिंग और प्रचार प्रसार के लिए कोई खास प्रयास नहीं करते। न ही किसी प्रकाशक के पास प्रचार-प्रसार के लिए अलग से कोई कर्मचारी रखा जाता है।
इसके विपरीत अगर भारत के ही अंग्रेजी प्रकाशकों पर नजर डालें तो उनकी जो पब्लिसिटी की व्यवस्था है वो एकदम दुरुस्त और आधुनिक। वो किताबों की सूचना ई मेल और एसएसएस के जरिए पाठकों तक नियमित रूप से पहुंचाते हैं।
कुल मिलाकर हिंदी में कृति की बिक्री कम होने या अंग्रेजी की तुलना में नगण्य होने के कई कारण हैं जिसमें से कुछ प्रमुख कारणों की तरफ मैंने इशारा करने की कोशिश की है।

1 comment:

श्रीकांत पाराशर said...

Yatarth chitran kiya hai aapne.Jhhothe guman se phoole rahne se kounsa bhala hone wala hai.