क्या आपके मन में कभी अपने पति की हत्या का ख्याल आया ? टीवी प्रस्तोता के इस सवाल के जबाव में जब दो बच्चों की मां हां कहती है तो दर्शकों के साथ साथ उसके पति और सास को भी झटका लगता है । या फिर जब राखी सावंत कहती है कि मैंने काम पाने के लिए सबकुछ किया पर वह नहीं किया, यहां तक कि मैंने छोटे कपड़े भी पहने या फिर जब सलमान खान अपने शो में ये सवाल पूछते हैं कि कितने प्रतिशत भारतीय जोड़े सुहागरात को यौन संबंध नहीं बनाते हैं या फिर टीवी प्रस्तोता उर्वशी ढोलकिया से पूछता है कि क्या कम उम्र में गर्भवती होने की वजह से आपको कॉलेज से निकाल दिया गया ? ये कुछ ऐसे सवाल हैं जो टीवी पर पूछे जा रहे हैं जो बारतीय समाज की परंपरा और वर्जनाओं को छिन्न भिन्न करते हैं और दर्शकों को शॉक देते हैं जिसकी वजह से वो टीवी चैनलों से चिपके रहने को मजबूर हो जाते हैं । इन सवालों और रियलिटी के नाम पर हाल के दिनों में मनोरंजन चैनलों पर जो दिखाया जा रहा है उसेन समाज में एक जबरदस्त बहस छेड़ दी है । हम अगर मनोरंजन चैनलों पर विचार करें तो पाते हैं कि हाल के दिनों में इस तरह के सवालों से भरपूर कार्यकर्मों की बाढ़ सी आ गई है । अगर हम शीर्ष के पांच चैनलों की बात करें तो हर जगह अपने अपने तरीके का अनोखा रियलिटी शो या तो चल रहा है या फिर अभी-अभी खत्म हुआ जिससे जुड़ी जिज्ञासा अब भी दर्शकों के मन में है । लगभग आठ सालों से मनोरंजन चैनलों के बीच नंबर वन की कुर्सी पर काबिज स्टार प्लस की बादशाहत को नए नवेले चैनल कलर्स ने ना केवल चुनौती दी बल्कि उसकी बादशाहत को खत्म कर नंबर वन की कुर्सी पर काबिज भी हो गया । चैनल ने शुरू से ही बिग बॉस और खतरों के खिलाड़ी जैसे शानदार रियलिटी शो पेश कर दर्शकों को अपनी ओर खींचा और दनादन एक से बढ़कर एक शानदार कार्यक्रम पेश कर भारतीय मनोरंजन बाजार की दिशा ही बदल दी ।
इसके शो बालिका वधू ने मनोरंजन चैनलों से सास बहू के आठ साल के रुदन काल को खत्म कर दिया । घर घर की तुलसी का स्थान जगदीश और आनंदी के चटपटे किस्सों ने ले लिया । अपनी कुर्सी हिलती देख स्टर प्लस ने अमेरिका के बेहद लोकप्रिय शो – द मोमेंट ऑफ ट्रूथ के हिंदी संस्करण, ‘सच का सामना’ लॉंच कर दर्शको और मीडिया विशेषज्ञों के साथ संसद को भी हिला दिया । स्टार प्लस पर दिखाए जानेवाले इस शो में पूछे जाने वाले सवालों को लेकर जोरदार बहस शुरू हो गई । ये बहस मीडिया और इंटरनेट के सोशल नेटवर्किंग साइट से होती हुई संसद तक पहुंच गई और समाजवादी पार्टी से सांसद ने राज्यसभा में इस शो में पूछे जानेवाले सवालों को भारतीय सभ्यता और संस्कृति के खिलाफ करार दिया । हंगामा बढ़ता देखकर सूचना प्रसारण मंत्री ने चैनल को कारण बताओ नोटिस जारी कर दिया । लेकिन इस हल्ला गुल्ला का फायदा इस शो को हुआ और ये अपने टाइस स्लॉट में नंबर वन बन गया ।
इस तरह के रियलिटी शो का सहारा मनोरंजन चैनलों की दौड़ में लगातार पिछड़ रहे एनडीटीवी इमेजिन को भी मिला और उसने आइटम गर्ल राखी सावंत का स्वयंवर करवा कर अपनी लोकप्रियता में खासा इजाफा किया । टीआरपी इतनी बढ़ी कि उसने सोनी को पीछे धकेल दिया और नंबर चार पर काबिज हो गया । इस शो की लोकप्रियता से उत्साहित होकर इस चैनल ने अब राहुल महाजन के लिए आदर्श पत्नी तलाशने के कार्यक्रम बनाने की योजना बना ली है । अपनी हालत पतली होती देख सोनी टीवी ने भी छोटे मोटे सेलिब्रिटीज को लेकर एक नया रियलिटी शो शुरू कर दिया- इस जंगल से मुझे बचाओ । इस शो की शूटिंग मलेशिया के जंगलों में हुई और इसकी शूटिंग के लिए तेरह देशों से लगभग तीन सौ तकनीशियनों की टीम लगातार काम कर रही है । इस शो में नायिकाएं कम कपड़ों में जंगल में झरनों के नीचे नहाते दिखी साथ ही कुछ ऐसे संवाद भी सुनने को मिले जो दर्शकों के झटका देने वाले थे । सोनी के इस शो को भी सवा तीन की टीआरपी मिली जो नीचे गिरते चैनल के लिए सुकून देनेवाली है ।
शाम के वक्त मनोरंजन चैनलों पर जो मारकाट मची है दरअसल वो टीआरपी हासिल करने की होड़ है। लेकिन ये टीआरपी आखिर क्या बला है , क्या है टीआरपी का तिलिस्म जिसकी चाहत ने मनोरंजन चैनलों को इस कदर दीवाना बना दिया है कि वो एक के बाद एक रिएलिटी शो की भरमार कर रहे हैं। हर बहस मुहाबिसे में टीआरपी का जिक्र जरूर आता है। लेकिन कोई ये बताने को तैयार नहीं है कि आखिर टीआरपी किस चिड़िया का नाम है और ये क्यों इतना अहम है । टीआरपी दरअसल टेलीविजन रेटिंग प्वाइंट है जिसे टैम ( टेलीविजन ऑडियंस मेजरमेंट ) नाम की संस्था हर हफ्ते जारी करती है । ये रेटिंग हर कार्यक्रम की होती है और टाइमबैंड के हिसाब से जारी की जाती है । मसलन रात दस बजे कौन सा चैनल सबसे ज्यादा देखा गया । इस रेटिंग में पूरे हफ्ते की औसत रेटिंग तो होती ही है साथ ही हर दिन की अलग अलग टाइम बैंड की भी रेटिंग दी जाती है । रेटिंग के अलावा ये संस्था किसी भी चैनल के दर्शकों के बीच उसकी पहुंच (रीच) को भी बताती है कि अमुक कार्यक्रम या अमुक चैनल की पहुंच कितने भारतीय घरों में है ।
अब दूसरा सवाल ये उठता है कि इस रेटिंग की जरूरत क्या है और ये इतना अहम क्यों है । ये अहम इसलिए है कि इसके आधार पर ही चैनलों को मिलनेवाले विज्ञापन और उसकी दर तय होती है । भारतीय टेलीविज़न बाजार लगभग चौबीस हजार करोड़ रुपये का है, इसमें विज्ञापन से होनी वाली आय और ग्राहकों से मिलनेवाली सब्सक्रिप्शन फीस भी शामिल है और इंडस्ट्री पर नजर रखनेवालों का अनुमान है कि मंदी के बावजूद अगले पांच साल में ये चालीस हजार करोड़ को पार कर जाएगी । देश के लगभग साढे सात करोड़ घरों में केबल कनेक्शन है और अगले पांच साल में इसके दस करोड़ के पार पहुंच जाने का अनुमान है । दरअसल इन घरों में टीवी चैनलों के कार्यक्रमों की पहुंच और उसकी लोकप्रियता को मापने का औजार टीआरपी ही है ।
लेकिन टैम जो रेटिंग जारी करती है वो कितना विश्वसनीय हैं, इन आंकड़ों का आधार क्या है और इनकी गणना कैसे की जाती है और इस गणना के लिए सैंपल साइज कितना है । रेटिंग जारी करनेवाली एजेंसी टैम का दावा है कि देशभर में रेटिंग दर्ज करनेवाले आठ हजार बक्से लगे हैं और रिसर्च करनेवालों की एक पूरी टीम हफ्ते भर इसपर काम करती है, उसके बाद ही रेटिंग जारी की जाती है । रेटिंग पर नजर रखनेवालों का ये भी कहना है कि भारत में टीआरपी की जो व्यवस्था है वो विश्व की सबसे बड़ी व्यवस्था है । किसी भी और देश में रेटिंग को रिकॉर्ड करने के लिए इतने बक्से नहीं लगे हैं, जितने भारत में । लेकिन यहां सवाल ये खड़ा हो जाता है कि क्या आठ हजार बक्सों के आधार पर देशभर में किसी कार्यक्रम की लोकप्रियता को आंका जा सकता है और अगर आंका जा सकता है तो वो कितना प्रामाणिक है । देश में टीआरपी की ये व्यवस्था उसी तरह की है जैसे कि चुनाव पू्र्व सर्वेक्षण होते है । चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों में दस बीस हजार के सैंपल साइज को आधार बनाकर देशभर के प्रमुख दलों को मिलने वाली सीटों की भविष्यवाणी कर दी जाती है और उसका हश्र सबके सामने है कि हर चुनाव में ये सर्वे औंधे मुहं गिरते हैं और गलत साबित होते हैं । दरअसल ये पूरी की पूरी धारणा पश्चिम के देशों से आयात की गई है जहां कि जनसंख्या बेहद कम होती है और पूरे देश की संसकृति लगभग एक जैसी होती है । पश्चिम से आयातित इस तरह के फॉर्मूलों को भारत में लागू करने से बहुधा गड़बड़ियां होती है । भारत विविधताओं का देश है, जहां हर कोस पर बोली बदल जाती है और हर प्रांत और सूबे की अपनी एक संस्कृति और पसंद है । यहां ये दावा नहीं किया जा सकता है कि हिंदी भाषी राज्यों में लोगों की पसंद में भी समानता हो सकती है । जो चीज बिहार के लोगों को पसंद हो वो मध्य प्रदेश या फिर हरियाणा के लोगों को पसंद आ जाए ये जरूरी नहीं है । तो ऐसे में टेलीविजन रेटिंग का ये फंडा दोषपूर्ण लगता है । अखबारों की प्रसार संख्या जानने के लिए जो संस्था ऑडिट ब्यूरो ऑफ सर्कुलेशन है उसमें ऑडिटरों की टीम हर अखबार के रिकॉर्ड की जांच करती है जिसमें डिस्पैच और भुगतान की भी जांच की जाती है । लेकिन टैम के बक्से कहां लगे हैं ये रहस्य है और टैम का कहना है कि रेटिंग की पवित्रता को बचाए रखने के लिए ये जरूरी है ।
लेकिन विडंबना ये है कि इस संस्था के द्वारा दिए गए रेटिंग के आधार पर ही हजारों करोड़ रुपये का विज्ञापन तय होता है और रेटिंग में अव्वल स्थान हासिल करनेवाले कार्यक्रमों में दस सेकेंड के विज्ञापन के लिए एक लाख से सवा लाख रुपये तक का रेट है । टैम के विकल्प के रूम में ए-मैप नाम की एक संस्था खड़ी करने की कोशिश की गई लेकिन उसे अबतक विज्ञापन दाताओं से मान्यता नहीं मिल पाई है ।
टीआरपी सिस्टम की एक और विडंबना पर नजर डालते चलते हैं । कुछ महीनों पहले तक हिंदी मार्केट की रेटिंग में बिहार और छत्तीसगढ़ की कोई अहमियत ही नहीं थी । इन राज्यों के लोगों की पसंद नापसंद के बगैर ही हिंदी मार्केट में खबरिया चैनलों का शेयर तय होता था । हिंदी न्यूज चैनल को हिंदी मार्केट पर कब्जा जमाने के लिए गुजरात और महाराष्ट्र के अखाड़े में लड़ाई लड़नी होती थी । कई सालों के बाद अब बिहार और छत्तीसगढ़ के दर्शकों की पसंद को अहमियत दी गई और बताते हैं कि अब इन दोनों सूबे में न्यूज चैनलों की लोकप्रियका मापने के लिए टैम ने बक्से लगा दिए हैं । तो जिस टीआरपी के लिए मनोरंजन चैनल समाज की वर्जनाओं और देश की परंपराओं को छिन्न भिन्न कर रहे हैं उसका आधार ही दोषपूर्ण है और आठ दस हजार लोगों की पसंद के आधार पर सवा करोड़ हिंदी दर्शकों की पसंद के आधार पर करोड़ों रुपये के विज्ञापन तय होते हैं । और इस विज्ञापन के अर्थशास्त्र में सबसे ज्यादा हिस्सा झटकने या हासिल करने के लिए मची होड़ में कभी कभी सीमाओं का अतिक्रमण भी हो जाता है ।
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Tuesday, August 18, 2009
Sunday, August 9, 2009
हिंदी अकादमी में संग्राम
दिल्ली की हिंदी अकादमी इन दिनों खासी चर्चा में है । जब से हास्य कवि और जामिया के पूर्व प्रोफेसर अशोक चक्रधर को हिंदी अकादमी का उपाध्यक्ष मनोनीत किया गया है तब से ये बवाल खड़ा करने की कोशिश की जा रही है । पहले अकादमी की संचालन समिति की कई वर्षों से सदस्या रही और दिल्ली विश्विद्यालय की एक कॉलेज में हिंदी की शिक्षिका अर्चना वर्मा ने इस्तीफा दे दिया । इस्तीफे की वजह उन्होंने गिनाई कि एक विदूषक को अकादमी का उपाध्यक्ष बना दिया गया है और वो उनके रहते अकादमी में काम नहीं कर सकती । इसके बाद अकादमी के सात-आठ महीने पहले ही सचिन नियुक्त किए गए डॉ ज्योतिष जोशी ने भी अपने पद से इस्तीफा दे दिया और कमोबेश वही वजहें गिनाईं जो अर्चना वर्मा ने गिनाई थी । बात यहीं नहीं रुकी । इसके बाद अकादमी से संबद्ध और वरिष्ठ आलोचक नित्यानंद तिवारी ने भी ये कहते हुए इस्तीफा दे दिया कि अकादमी में स्थितियां ठीक नहीं और ऐसे में उनका अकादमी से जुड़े रहना उचित नहीं है । तिवारी जी ने सीधे-सीधे अशोक चक्रधर पर तो निशाना नहीं साधा लेकिन इशारा उधर ही था । दरअसल तिवारी जी के व्यक्तित्व में ये सब है भी नहीं । अशोक चक्रधर की नियुक्ति से खिन्न साहित्यकारोंम ने अकादमी में हुए इन इस्तीफों को खूब प्रचारित भी करवाया, मीडिया में दोनों पक्षों की बातें जमकर आई । लेकिन इन इस्तीफों के पीछे की कहानी कुछ और ही है । कुछ लोगों की व्यक्तिगत महात्वाकांक्षा तो कुछ लोगों का अपना अहम इस बवाल के पीछे है जिसे नैतिकता या यों कहें कि गंभीर साहित्य और अगंभीर साहित्य का जामा पहनाने की कोशिश की जा रही है । अशोक चक्रधर से पहले अकादमी के उपाध्यक्ष हिंदी के बेहद अहम साहित्यकार हजारी प्रसाद द्विवेदी के बेटे मुकुंद द्विवेदी थे । साहित्य को उनका क्या योगदान है ये अबतक सामने तो नहीं आया है लेकिन वो लंबे समय तक अकादमी के उपाध्यक्ष रहे और अर्चना वर्मा और नित्यानंद तिवारी दोनों किसी ना किसी रूप में अकादमी से जुड़े रहे । उन वर्षों में किसी को साहित्य की याद नहीं आई क्योंकि मुकुंद जी शरीफ आदमी थे और इनमें से किसी की योजना में अड़ंगा नहीं लगाते थे । इसलिए उनका काल निर्विवाद चलता रहा । मुंकुद द्विवेदी के पहले जर्नादन द्विवेदी अकादमी के उपाध्यक्ष हुआ करते थे या तो उनका कद या फिर कांग्रेस के मजबूत नेता होने की वजह से किसी ने भी कभी भी उनके खिलाफ कोई आवाज नहीं उठाई । जनार्दन द्विवेदी का भी साहित्यक लिखा-पढ़ा अभी सामने आना शेष है । तो उस वक्त जब कोई आवाज नहीं उठाई गई तो अब अचानक से क्या हो गया कि एक भूतपू्र्व प्रोफसर को अकादमी का उपाध्यक्ष नियुक्त करने पर बखेड़ा खड़ा किया जा रहा है । नित्यानंद तिवारी ने ये बयान दिया कि ज्योतिष के कार्यकाल में हिंदी अकादमी में जितना काम हुआ उतना पहले कभी नहीं हुआ । नित्यानंद तिवारी जी मेरे गुरू रह चुके हैं, मैं उनकी पूरी इज्जत करता हूं लेकिन गुरूजी से ये सवाल पूछने का मन तो करता ही है कि ज्योतिष के पहले अगर अकादमी में काम नहीं हो रहा था तो आपने उन वर्षों में आवाज क्यों नहीं उठाई । तब क्यों चुपचाप अकादमी की संचालन समिति में बने रहे । हिंदी अकादमी को वर्षों से जाननेवाले लोगों का कहना है कि इस विवाद के पीछे वो है ही नहीं जो मीडिया में प्रचारित प्रासरित किया करवाया जा रहा है । इस विवाद के पीछे दरअसल एक दूसरी कहानी है । अकादमी से जुडे़ सूत्रों का कहना है कि इस विवाद की जड़ में कॉमनवेल्थ गेम्स के वक्त विश्व कविता सम्मेलन के प्रस्ताव को दिल्ली सरकार द्वारा ठुकराया जाना है । अब पूरी कहानी सुनिए दिल्ली की मुख्यमंत्री को कॉमनवेल्थ गेम्स के वक्त राजधानी में विश्व कविता सम्मेलन करवाने का मौखिक प्रस्ताव दिया गया जो उन्होंने भी मौखिक रूप से स्वीकार कर लिया । कहा ये गया कि हिंदी अकादमी ये कार्यक्रम आयोजित करवाएगी और इसपर तकरीबन ढाई करोड़ रुपये खर्च आएंगे । नए-नए सचिव बने और पहला प्रशासनिक दायित्व संभाल रहे ज्योतिष जोशी ने बगैर लिखा-पढ़ी में दिल्ली सरकार की स्वीकृति लिए इस आयोजन के लिए एक कमिटी का गठन कर दिया, जिसके सदस्य कवि कुंवर नारायण, कवि-लेखक अशोक वाजपेयी और हिंदी अकादमी से ही जुड़े प्रोफेसर नित्यानंद तिवारी के अलावा दो और लोग बना दिए गए । कार्यक्रम का अप्रूवल अभी सरकार से आया नहीं लेकिन भाई लोग ललित कला अकादमी में बैठकर इस कार्यक्रम की रूपरेखा और विश्व कवि सम्मेलन में निमंत्रित किए जाने वाले कवियों के नाम पर मगजमारी में जुट गए । एक-दो नहीं कई बैठकें हो गई । अब बैठकें हो रही हैं तो सदस्यों को यात्रा भत्ता तो दिया ही जाएगा । कमिटी के सदस्यों को यात्रा भत्ता के मद में लगभग पचास रुपये खर्च कर दिए गए । आरोप तो ये भी है कि स्थानीय सदस्यों को अकादमी की नियत राशि से ज्यादा के यात्रा भत्ता का भुगतान किया गया । ये सबकुछ चल ही रहा था कि एक साथ दो घटनाएं घटी । एक तो दिल्ली सरकार ने विश्व कविता सम्मेलन के प्रस्ताव को साफ-साफ मना कर दिया और जो ढ़ाई करोड़ रुपये का बजट दिया गया था उसे भी मना कर दिया गया । दूसरे अशोक चक्रधर हिंदी अकादमी के उपाध्यक्ष बना दिए गए । इन दो घटनाओं के बाद हिंदी अकादमी में हड़कंप मच गया । सवाल ये खड़ा हो गया कि राज्य सरकार ने जिस कार्यक्रम के आयोजन की अनुमति दी नहीं वैसे कार्यक्रम के लिए आयोजन समिति का गठन कैसे हो गया । आयोजन समिति का गठन हो भी गया तो उसकी बैठकें कैसे होने लगी और यात्रा का भुगतान किस मद से किया करवाया गया । बेचारे नए नवेले सचिव यहीं गच्चा खा गए । ऐसा प्रतीत होता है कि उनके सलाहकारों ने उन्हें गलत सलाह देकर फंसा दिया । दूसरे अकादमी को पर्दे के पीछे से चलानेवाले कर्ताधर्ताओं को ये अंदाज नहीं था कि अशोक चक्रधर की नियुक्ति हो जाएगी । उन्हें लग रहा था कि उनके ही खेमे का कोई साहित्यकार इस गद्दी को सुशोभित करेगा । लेकिन ये हो ना सका । जब ये हो ना सका तो फिर इन सबसे से बचने के लिए नैतिकता का ताना बाना बुना गया । और इस बात पर साहित्यकार बिरादरी में कनफुसकी शुरू करवाई गई कि एक विदूषक या फिर मंचीय कवि को अकादमी का उपाध्यक्ष बना दिया गया जो एक पवित्र संस्था को डुबो देगा । लेकिन जब सरकार की तरफ से हर साल दिए जाने वाले पुरस्कारों की संख्या में कटौती का प्रस्ताव आया तो सभी ने इसे स्वीकार कर लिया । किसी ने भी जरा भी विरोध नहीं किया । गौरतलब है कि हिंदी अकादमी हर साल कृति और साहित्यकार सम्मान के नाम पर हर साल लगभग दो दर्जन पुरस्कार देकर लेखकों को सम्मानित करती रही है और इसी बहाने किताबों की खरीद हो जाती थी जो बाद में अकादमी अपने कार्यक्रमों के बहाने बंटवा देती थी और इस तरह प्रचार प्रसार होता था । उधर अशोक चक्रधर ने खुद मोर्चा संभाला और अखबारों में बयान देने लगे । पिछले दिनों एक राष्ट्रीय दैनिक को दिए एक साक्षात्कार में अशोक चक्रधर ने ये स्वीकार किया कि उन्होंने कांग्रेस पार्टी के लिए चुनाव पूर्व कैंपेन के लिए गाने लिखे । ये कहकर वो सत्ताधारी दल से अपनी नजदीकी का एहसास साहित्यकारों को करवा कर उन्हें दबाव में लेना चाहते हैं । अच्छा होता अगर वो ये बातें अपने साक्षात्कार में नहीं कहते । लेकिन अब सवाल ये खड़ा हो गया है कि राजधानी में सक्रिय इस अकादमी का भविष्य क्या होगा । सचिव ज्योतिष जोशी के इस्तीफे के बाद अकादमी का कामकाज ठप है । गतिविधियों पर विराम सा लग गया है । साहित्यकारों के आपसी झगड़े ने एक अच्छे भले संस्था का भट्ठा बैठा दिया । और अब इस बात की संभावना प्रबल हो गई है कि इस संस्था पर अफसरों का कब्जा हो जाए और राजधानी की इस अकादमी का हश्र भी अन्य सूबे के अकादमियों जैसा हो जाए और अफसरों की ऐशगाह बन जाए ।
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