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Friday, August 6, 2010

काश पूछो कि मुद्दआ क्या है / विभूति नारायण राय

नया ज्ञानोदय के अगस्त 2010 अंक मे छ्पे मेरे इंटरव्यू पर हुई प्रतिक्रियाओ से एक बात स्पष्ट हो गयी कि मैने अपनी लापरवाही से एक गम्भीर विमर्श का हेतु बन सकने का मौका गवां दिया ।मैने कुछ ऐसे शब्दो का प्रयोग किया जिनसे बचा जा सकता था ।मुझे जैसे ही यह अहसास हुआ कि मेरी भाषा से हिन्दी की बहुत सी लेखिकाओं को कष्ट हुआ है मैने अपनी गल्ती का अहसास किया और बिना शर्त माफी मांग ली ।मैं शर्मिन्दा हूँ कि मेरी असावधानी से बहुत से ऐसे लोग आहत हुए जो मेरे वर्षों पुराने मित्र रहे है,इनमे बडी सख्यां में लेखिकायें भी हैं पर मेरे मन मे उनके लिये सम्मान भी बढा है कि मित्रता की परवाह किये बगैर उन्होने मेरी मजम्मत की । हालाकि कुछ लोग जो इस मामले को अन्य कारणों से जिन्दा रखना चाह्ते हैं, इन्टरव्यू में उठाये गये मुद्दों पर बहस न कर के अभी भी उन शब्दों के वाक्जाल मे उलझे हुए हैं जिनपर मै खुद खेद प्रकट कर माफी मांग चुका हूँ । मै मानता हूं कि इन लोगों की उपेक्षा कर अब मै मुद्दों पर बहस की अपेक्षा कर सकता हूं ।
इंटरव्यू पर शुरुआती प्रतिक्रिया उन लोगों की तरफ से आयी जिन्होने उसे पढा ही नही था ।अब जब कि अधिकतर लोगों नें इंटरव्यू पढ लिया है मुझे लगता है उसमें उठाये गये प्रश्नों पर बातचीत होनी चाहिये । संक्षेप में कहूँ तो मेरे मन में मुख्य शकां यह है कि महिला लेखन मे देहकेन्द्रित लेखन को कितना स्थान मिलना चाहिए । एक मित्र ने आपत्ति की कि यह प्रश्न पुरुषों के लेखन पर भी उठना चाहिये । सही है पर विमर्श सिर्फ वंचित या हाशिये पर पहुचे हुए तबकों के लेखन से निर्मित होता है । मसलन दलित लेखन जैसा विमर्श निर्मित करता है वैसा विमर्श ब्राह्मण लेखन नही कर सकता । दलित लेखन जहाँ मानव मुक्ति की कामना करता है या उसका मुख्य संघर्ष दबे कुचलों को उनका खोया सम्मान वापस लौटाने के लिये होगा वहीं यदि ब्राह्मण लेखन जैसा कोई लेखन किया जाय तो स्वाभाविक है कि उसकी चिंता का केन्द्र मनुष्य विरोधी वर्ण व्यवस्था को वैध ठहराने के लिये तर्क तलाशना होगा और मुझे नही लगता कि ऐसे लेखन से कोई उल्लेखनीय विमर्श निर्मित होगा । इसी प्रकार महिला लेखन के केन्द्र मे स्त्री मुक्ति के प्रश्न महत्वपूर्ण होंगे । स्त्री मुक्ति में अपनी देह पर स्त्री का अधिकार एक महत्वपूर्ण तर्क है पर और भी गम है जमानें में मोहब्बत के सिवा । मेरा मानना है कि स्त्री देह पर अंतिम अधिकार उसका है पर साथ मे मै यह भी मानता हूँ कि भारत के सदंर्भ में स्त्री मुक्ति से जुडे और भी महत्वपूर्ण मुद्दे हैं । आज भी परिवारों में निर्णय लेने का अधिकार सिर्फ पुरुषों को है , स्त्रियाँ केवल उन्हें लागू करती हैं । तमाम बहस मुबाहिसों के बावजूद घरेलू श्रम के लिये उसका पारिश्रमिक तय नही हो पा रहा है । पंचायती राज्य की संस्थाओं में आरक्षण के बल पर चुनी गयी महिलाओं मे से बहुत सी अभी भी घरों में कैद हैं और उनके प्रधान पति कागजों पर उनकी मुहरें लगाते हैं । बहुत से ऐसे मुद्दे है जिनपर बहस होनी चाहिये । अंत मे , इन सबसे महत्वपूर्ण यह प्रश्न कि क्या स्त्री मुक्ति आइसोलेशन मे हो सकती है ? क्या आदिवासियों , अल्पस्ंख्यकों या दलितों के प्रश्नों से जोडे बिना इस मुद्दे पर कोई बडी बहस खडी की जा सकती है । अगर एक बार यह सहमति बन सके तो गुजरात जैसी स्थिति से बचा जा सकता है जिसमे महिलाओं ने भी अल्पसख्यकों के सहांर मे हिस्सा लिया था ।मुझे 1990 का इलाहाबाद याद आ रहा है जहां मैं नियुक्त था और जो मडंल कमीशन की सिफारिशें लागू करने के खिलाफ चल रहे आन्दोलन का केन्द्र था । मैने आन्दोलनकारियों के साथ सख्ती की तो बहुत सारे दूसरे तबकों के अतिरिक्त विश्वविद्यालय की सवर्ण लड्कियों ने मेरे खिलाफ मोर्चा निकाला और अपनी पूरी कोशिशों के बावजूद मैं उन्हें यह नही समझा पाया कि उन्हें पिछ्डों के साथ खडा होना चाहिये । यदि उनके अन्दर यह समझ होती कि वे तो पिछडों में भी पिछ्डी हैं तो सम्भवत: उन्हे मेरी बात ज्यादा आसानी से समझ मे आ जाती। एक बार फिर अपने शब्दों के लिये माफी मांगते हुये मै अनुरोध करूंगा कि इन मुद्दों पर भी बातचीत की जाय।

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