बहुत ही दिलचस्प वाकया है । राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित पुस्तकों की सूची उनके बेवसाइट पर जाकर देख रहा था । कई किताबें पसंद आई । यह सोचकर नाम लिखता गया कि उन पुस्तकों को मंगवाकर पढूंगा और अगर मन बना तो उनपर अपने स्तंभ में या अन्यत्र कुछ लिखूंगा भी । सूची बनाते बनाते एक किताब दिखाई दी- मरजानी, लेखिका वर्तिका नंदा । मैंने अशोक महेश्वरी जी को जो किताबों की सूची भेजी उसमें मरजानी का नाम भी भेज दिया। मेरे पत्र के कुछ दिनों बाद ही झा जी घर पर आकर किताबें दे गए । मैंने किताबें देखनी शुरू की । पलटते-पलटते मरजानी की बारी आई । जैसे ही मैंने किताब खोली तो हैरान रह गया । मरजानी, वर्तिका नंदा का नया कविता संग्रह निकला । अपनी अज्ञानता में मैंने उसे उपन्यास समझ कर मंगवा लिया था । मेरी ज्यादातर रुति उपन्यास या फिर कहानी संग्रह में ही रहती है । खैर हाल के दिनों में जिस तरह से वर्तिका नंदा ने अपने ताबड़तोड़ लेखन से हिंदी में सारा आकाश छेकने की कोशिश की है उसके बाद से ही उनके लेखन को लेकर पाठकों के मन में दिलचस्पी बढ़ी है । मेरे मन में भी । अखबारों में लगातार लेखन करके भी वर्तिका ने पाठकों का ध्यान अपनी ओर खींचा है । दो हजार दस में राजकमल प्रकाशन से ही नंदा की किताब टेलीविजन और क्राइम रिपोर्टिंग को मैं उलटपुलट कर देख चुका था, लिखना चाह रहा था लेकिन काहिली की वजह से लिख नहीं पाया । गद्य में मेरी रुचि है लेकिन पद्य में मेरी रुचि जरा कम या यों कहें कि बेहद कम है । मैं यह स्वीकार करता हूं कि मुझे पुराने कवियों जैसे दिनकर, अज्ञेय, निराला, नागार्जुन, आदि को पढ़ने में आनंद आता है । आनंद इस वजह से आता है कि वो कविताएं मेरी समझ में आती है । मुक्तिबोध को कोर्स में होने की वजह से पढ़ा, पहले अंधेरे में बहुत ही दुरूह कविता लगी थी लेकिन बाद में जब उस कविता पर कई आलोचकों की राय पढ़ी तो समझ में आई । लेकिन हाल के दिनों में जिस तरह की कविता लिखी जा रही है वो उसको मेरी अल्पबुद्धि जरा कम ही समझ पाती है । समझने की बहुत कोशिश की, कई कवियों की कविताओं को पढ़ा भी लेकिन समझ ना पाने की वजह से उनपर लिख नहीं पाया । वर्तिका की इस किताब को पलटते हुए मैंने सोचा कि एक पत्रकार और अब पत्रकारिता के शिक्षक की कविताएं पढ़ लेनी चाहिए । संग्रह को दो बार पढ़ा ।
कवयित्री ने अपनी भूमिकानुमा लेख- कविता से पहले लिखा है –वैसे कविताएं निजी दस्तावेज की तरह होती है । आमतौर पर वो तकिए के नीचे छिपी रहती हैं या अकेलेपन का साथी बनती हैं और जब हवाओं का रुख आसमान की तरफ ले जा रहा होता है, तब भी ये घास की तरह जमीन पर रहकर मजबूत बनी रहती है । कवयित्री ने कविता को भावुकता की जमीन दे दी है – मन के करीब रहनेवाली, साथ साथ चलनेवाली, ओढनी बनी और तकिया भी । कविता को ओढनी बताने का उनका निहितार्थ क्या है इसके साफ संकेत कहीं नहीं मिल पा रहे हैं लेकिन प्रचलित अर्थ में ओढनी लड़कियां और औरतें अपने को ढकने के लिए इस्तेमाल करती है । मुझे ये समझ नहीं आया कि कविता ओढनी कैसे बन सकती है और किस लाज को ढ़कने के काम आ सकती है । कविता में शब्दों का चयन उसे चमका देती है लेकिन अगर वही शब्द अगर जबरदस्ती ठूंसे जाते हैं तो स्पीड ब्रेकर की तरह झटके भी देते हैं । अपनी कविता को लेकर इमोशनल कवयित्री इतने पर ही नहीं रुकती हैं- पाठकों से भी आग्रह करती है कि – इन्हें मैंने नजाकत से रखा था । आप भी इन्हें नजाकत से ही पढ़िएगा । कवयित्री का यह आग्रह उनकी कविताओं में एक जबरदस्त मोह के रूप में लामने आता है – ख्याल ही तो है- में वो कहती है – क्या वो कविता ही थी/ जो उस दिन कपड़े धोते-धोते/साबुन के साथ घुलकर बह निकली थी/एक ख्याल की तरह आई /ख्याल की ही तरह/धूप की आंच के सामने बिछ गई/पर बनी रही नर्म ही/ । यहां भी वर्तिका के लिए कविता नर्म और नाजुक है ।
एक कवयित्री का अपनी कविताओं को लेकर मोह तो जायज है लेकिन पाठक तो कविता को कविता की कसौटी पर कसेंगे ही । वर्तिका नंदा की कविताओं को पढ़ते हुए एक बार फिर से मेरे मन में पुराना सवाल कौंधा - कविता क्या है । जवाब में फिर से कविता के नए प्रतिमान में नामवर सिंह का लिखा याद आया- किसी काव्य कृति का कविता होने के साथ ही नई होना अभीष्ट है । वह नई हो और कविता ना हो, यह स्थिति साहित्य में कभी स्वीकार्य नहीं हो सकती । वर्तिका की कविताएं पढ़ते हुए मुझे कुछ भी नया नहीं लगा, ना तो कविता की भावभूमि और ना ही कथन और ना ही बिंब । इनकी कविताओं में अक्सर घूमफिर कर घर,परिवार और उनका पेशा और परिवेश आता रहता है और कवयित्री, लगता है, उसके ही चारो ओर चक्कर लगाती रहती है । वर्तिका की कविताओं को पढ़ते हुए मुझे लगा कि अपनी कविताओं में वो कई बार बेहद सपाट हो जाती है और कविता और नारो के बीच का फर्क भी भूल जाती है । उदाहरण के तौर पर अगर हम उसकी कविता –क्यों भेजूं स्कूल को देखें- नहीं भेजनी अपनी बेटी मुझे स्कूल /नहीम बनाना उसे पत्रकार/क्या करेगी वह पत्रकार बनकर/अगर नाम कमा लेगी तो नहीं बन पाएगी पूरी औरत/ । यह एक कवि का अपने पेशे से मोहभंग की अभिवयक्ति है जो उसकी कविताओं में नारे की शक्ल में उपस्थित होता है । नारे भीड़ में जोश तो भर सकते हैं लेकिन जब वो कविता की जमीन पर पहुंचते हैं तो औंधे मुंह गिर जाते हैं । समीक्ष्य संग्रह में यह कई बार घटता है । इसके अलावा मरजानी की अन्य कविताओं में भी जो बिंब उठाए गए हैं वो भी पहली नजर में वास्तविकता को मूर्त करती प्रतीत होती है लेकिन अगर उसपर गंभीरता से विचार किया जाए तो वास्तविकता का अनावश्यक भार उठाते हुए कविताएं हांफती नजर आती है –चाहे वो टीवी एंकर और तुम हो या फिर कसाईगिरी । निष्कर्ष यह कि बिंब के बोझ तले कविता इतनी दब गई है कि वो उठ ही नहीं पाई ।
वर्तिका नंदा की छोटी बड़ी कविताओं को पढ़ने के बाद मुझे लगा कि इन कविताओं में जो भावुकता है या जो वैयक्तिकता है वह संरचना में शिथिलता और काव्यानुभूति की कमजोरी का परिणाम है । इस संग्रह में जिस तरह से तात्कालिक परिवेश की जमीन पर कवयित्री ने सपाटबयानी की है उससे भी उनकी कविताओं की दुर्बलता सामने आती है । घटनाओं को यथार्थपरकता की चाशनी में डुबाकर कविता गढ़ने की जो एक प्रवृत्ति हाल के दिनों में सामने आई हैं, वर्तिका की कविताएं उसका सर्वोत्तम उदाहरण है । वर्तिका नंदा का यह कविता संग्रह एक कमजोर और सपाट कविताओं का संग्रह है जो हिंदी साहित्य में जगत में अगर अननोटिस्ड रह जाए तो मुझे आश्चर्य नहीं होगा । अंत में एक और चौंकाने वाली बात राजकमल प्रकाशन ने अब अपनी किताबों का मूल्य डॉलर में भी देना शुरू कर दिया है । इस संग्रह का दाम है आठ डॉलर ।
----------
1 comment:
मैंने उन्हें सुना है हमारे कॉलेज में वो आई थी काफी दिलचस्प है उनकी बातें
Post a Comment