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Friday, August 12, 2011
...किसी से हो नहीं सकता
हर साल 31 जुलाई हिंदी साहित्य के लिए एक बेहद खास दिन होता है । इस दिन हिंदी के महान उपन्यासकार मुंशी प्रेमचंद का जन्मदिन होता है । लेकिन हिंदी पट्टी में अपने इस गौरव को लेकर कोई उत्साह देखने को मिलता हो यह ज्ञात नहीं है । प्रेमचंद के गांव लमही में कुछ सरकारी टाइप के कार्यक्रम हो जाते हैं जिसमें मंत्री वगैरा भाषण आदि देकर रस्म अदायगी कर लेते हैं । इस बार भी वहां कुछ वैसा ही हुआ । लेकिन तकरीबन पिछले पच्चीस साल से हंस पत्रिका प्रेमचंद के जन्मदिन पर दिल्ली में एक विचार गोष्ठी का आयोजन करती रही है । इस बार भी किया । राजेन्द्र यादव के संपादन में निकलते हुए इस पत्रिका के पच्चीस साल हो गए हैं, लिहाजा मौका खास था । हंस की रजत जयंती वर्ष और प्रेमचंद की जयंती । दिल्ली के ऐवान-ए-गालिब के हॉल में हंस और साहित्यिक पत्रकारिता पर एक विचार गोष्ठी का आयोजन किया गया था । हर साल की तरह इस वर्ष भी साहित्यक जमात का ठीक-ठाक जमावड़ा लगा था । हर तबके के लेखक वहां मौजूद थे। दो तीन पीढ़ी के लेखक तो थे ही । मैं जब पहुंचा तो उसके कुछ देर बाद बांग्लादेश की विवादास्पद लेखिका तस्लीमा नसरीन भी वहां आईं । तसलीमा के साथ एक सुरक्षाकर्मी भी था । लेकिन मैं ये देखकर हैरान रह गया कि तसलीमा को काफी देर तक खड़ा रहकर इधर उधर देखना पड़ा । उनको लेकर वहां मौजूद लोगों में कोई उत्साह नहीं दिखा । लेकिन कुछ देर जब वो अकेली खड़ी रहीं तो फिर किसी ने उन्हें हॉल का रास्ता दिखाया । ये वही तसलीमा थी जो तकरीबन दस साल पहले वाणी प्रकाशन के एक कार्यक्रम में दिल्ली आई थी तो लगा था कि राजधानी में कोई घटना घटी हो । दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर के हॉल में तिल रखने की जगह नहीं थी । देशी-विदेशी मीडिया के दर्जनों कैमरे और पत्रकार तो वहां मौजूद थे ही, हिंदी का बड़ा से बड़ा लेखक भी अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने को बेताब था । तस्लीमा की एक झलक पाने के लिए लोग उतावले हो रहे थे, तस्लीमा के साथ फोटो खिंचवाने के लिए लोग सिफारिश कर रहे थे । हमारे मित्र अरुण महेश्वरी से । लेकिन उस वक्त अपने आयोजन की सफलता से गदगद अरुण जी ने लोगों को छोड़ दिया और तसलीमा के साथ अशोक वाजपेयी और कुंवर नारायण को लेकर लंच के लिए चले गए । जबतक तसलीमा वहां रही कैमरे का फ्लैश बंद होने का नाम नहीं ले रहा था । जींस और टी शर्ट पहने छरहरी काया की तस्लीमा अपने स्वागत से भाव विभोर थी । लेकिन सिर्फ दस साल में माहौल कितना बदल गया । तस्लीमा दिल्ली की उसी साहित्यिक जमात के बीच खड़ी थी लेकिन उनका कोई नोटिस नहीं ले रहा था । वजह चाहे जो भी हो । खैर ये एक अलग बात है जो प्रसंगवश मैं कह गया ।
हम बात कर रहे थे हंस के 25 साल पूरे होने की ।राजेन्द्र यादव जी ने कार्यक्रम की शुरूआत की और हंस के शुरुआती दिनों के अपने दोस्तो- लालानी जी और गौतम नवलखा आदि को शिद्दत से याद किया । छोटा सा भाषण भी दिया और टॉलस्टॉय की एक कहानी भी सुनाई । मैं लंबे समय से राजेन्द्र जी को सुनते आ रहा हूं उस दिन पहली बार लगा कि पाइप और सिगरेट के कश ने उनको काफी कमजोर कर दिया है । हिंदी साहित्य का अस्सी साल का ये जवान शारीरिक रूप से भले ही कमजोर लग रहा हो लेकिन हौसले अब भी बुलंद नजर आ रहे थे । राजेन्द्र यादव ने अपना भाषण समाप्त कर हिंदी के दलित लेखक अजय नावरिया को मंच संचालन के लिए बुला लिया । यहीं से समारोह की गरिमा के खत्म होने की शुरूआत हो गई । अजय नावरिया ने बेहद मसखरेपन के साथ मंच संचालन शुरू किया । मंच संचालन इतना खराब था कि उसकी चर्चा करना समय बर्बाद करना है । लेकिन जिस अपमानजनक तरीके की टिप्पणी अजय ने अपने मंच संचालन के दौरान की उसके लिए उसे कम से कम दुर्गा से तो माफी मांगनी ही चाहिए । दुर्गा प्रसाद राजेन्द्र जी के पुराने सहयोगी हैं । उन्हें भी इस मौके पर सम्मानित किया गया । स्मृति चिन्ह के साथ एक लिफाफा दिया गया । गिफ्ट देते वक्त अजय ने कहा – दुर्गा जी तो दो पैंट शर्ट के कपड़ा दिया जा रहा है जो उनके लिए उपयोगी है । वो इतने पर ही नहीं रुके उन्होंने सार्वजनिक रूप से दुर्गा की खुराक के बारे में टिप्पणी कर डाली। काफी देर तक साहित्यिक जमात ने अजय तो झेला लेकिन जब लोगों का धैक्य जवाब दे गया तो कुछ उत्साही लोगों ने उसे हूट कर बैठा दिया । भीड़ जबतक इंसाफ कर पाती तबतक अजय नावरिया ने साहित्यिक समारोह की गरिमा को समूल रूप से नष्ट कर दिया था । काफी देर तक चले मसखरेपन के बाद लालानी जी ने बोलना शुरू किया । उन्होंने राजेन्द्र यादव के साथ अपने शुरुआती दिनों को याद किया । बोले तो गौतम नवलखा और अर्चना वर्मा भी । दोनों ने बेहद संक्षिप्त बोला और सिर्फ हंस की तारीफों के पुल बांधे । अर्चना वर्मा ने हंस के साथ के अपने दिनों को बताया कि किस तरह से वो सिर्फ परख देखने के लिए हंस में आई थी और किस तरह से उन्हें कहानी और फिर कम पड़ रहे लेख भी लिखवाया जाने लगा ।
इसके बाद बारी थी हिंदी के हिरामन नामवर सिंह की । नामवर जी को हंस और साहित्यिक पत्रकारिता पर बोलना था लेकिन बोले वो सिर्फ हंस पर । शुरुआत तो उन्होंने – मेरे दुश्मन राजेन्द्र यादव से की लेकिन उसके बाद उन्होंने राजेन्द्र यादव के हौसले की जबरदस्त तारीफ की । सार्वजनिक रूप से अपनी तारीफ सुनकर मंच पर बैठे यादव जी का चेहरा लाल-लाल हो रहा था । शरमा इस तरह रहे थे जैसे कोई नई नवेली दुल्हन शर्माती है । लेकिन नामवर जी तो अपनी रौ में थे । अपने विरोधियों को अपनी पत्रिका में जगह देने के लिए भी उन्होंने यादव जी की नामवरी अंदाज में सराहना की । उसी नामवरी अंदाज में अशोक वाजपेयी पर हमला भी बोला । नामवर जी ने कहा कि अशोक जब पूर्वग्रह के संपादक थे तो अपने पूर्वग्रहों के साथ उसका संपादन करते थे । उन्होंने कभी राजेन्द्र यादव को पत्रिका में नहीं छापा लेकिन राजेन्द्र ने हंस के छब्बीसवें वर्ष के पहले अंक में अशोक वाजपेयी से ही लिखवाया । बोलते बोलते नामवर सिंह ने अशोक वजपेयी को कायर और यादव जी को बहादुर करार दे दिया । नाम तो रवीन्द्र कालिया और अखिलेश का भी आया है । नामवर सिंह बहुत कम बोले । साहित्यिक पत्रकारिता पर भी प्रकाश डालते तो मौजूद श्रोताओं का ज्ञानवर्धन होता । उसके बाद कुछ सवाल जवाब भी हुए । लेकिन नामवर सिंह ने एक जोरदार शेर के साथ अपनी बात खत्म की – जो हो सकता है इससे वो किसी से हो नहीं सकता, मगर देखो तो जो हो सकता है वो आदमी से हो नहीं सकता ।
दिल्ली में हुए इस साहित्यक जलसे से एक बात साफ हो गई कि राजेन्द्र यादव हर उम्र के बीच खासे लोकप्रिय हैं । कार्यक्रम से बाहर निकलते हुए मैं एक बार फिर से सोच रहा था कि अंग्रेजी में अगर किसी लिटरेरी मैगजीन के प्रकाशन के पच्चीस साल पूरे होते तो क्या इस तरह का ही समारोह मनाया जाता । जवाब मिला नहीं । तो फिर हम हिंदी के लोग क्यों नहीं अपने गौरव का सम्मान कर पाते हैं । क्यों नहीं हमारा मीडिया इस तरह की समारोह को कवरेज देता है । इन सवालों से जूझता हुआ मैं घर लौट आया । सवाल अब भी मेरा पीछा कर रहे हैं ।
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